जन्मकुण्डली में बनने वाले कोष्ठकों को भाव कहा जाता है। कुण्डली में बारह कोष्ठक अर्थात् भाव होते हैं। इन कोष्ठकों को भाव, भवन, स्थान तो कहते ही हैं, साथ ही इनसे विचार करने वाले विषयों के नाम पर भी इनका नामकरण कर दिया जाता है। जैसे प्रथम भाव को लग्न, तनु, उदय या जन्म, द्वित्तीय भाव को धन, कुटुम्ब या कोश, तीसरे भाव को सहज, पराक्रम आदि भी कहते हैं।
भाव के अधिपति ग्रह को भावेश कहते हैं। जब हम आयेश कहेंगे तो ग्यारहवें स्थान पर जो राशि है उसका स्वामी आयेश होगा। मान लें कि ग्यारहवें स्थान पर सिंह राशि का अधिपति सूर्य है तो यहाँ आयेश का अर्थ सूर्य होगा।
भावों के सामूहिक नाम भी हैं-जैसे केन्द्र, पणफर, आपोक्लिम और त्रिकोण आदि। प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव को 'केन्द्र' कहा जाता है। दूसरे, पांचवें, आठवें और ग्यारहवें स्थान को 'पणफर' कहते हैं। तीसरे, छठे, नवें और बारहवें भाव को 'आपोक्लिम' कहते हैं तथा प्रथम, पंचम और नवम भाव को 'त्रिकोण' कहते हैं। तीसरे, छठे और दसवें भाव को 'उपचय', छठे, आठवें, व बारहवें भाव को 'त्रिक', दूसरे व आठवें भाव को 'मारक' तथा तीसरे, छठे व ग्यारहवें भाव को 'त्रिषडाय' कहते हैं।
भाव स्पष्ट करने की जो प्रचलित रीति है उसके अनुसार लग्न से दशम भाव को स्पष्ट किया जाता है। दशम भाव में छः राशि जोड़ने से चतुर्थ भाव स्पष्ट हो जाता है। चतुर्थ में से लग्न को घटा कर उसे छः से भाग देने पर जो षष्ठांश आये, उसे लग्न में जोड़ने पर प्रथम भाव को सन्धि, सन्धि में पुनः षष्ठांश जोड़ने पर द्वित्तीय भाव, द्वितीय भाव में षष्ठांश x २ को जोड़ने से तीसरा भाव तथा तथा पांचवां और छठा भाव स्पष्ट करने के लिए तीस अंशों में से षष्ठांश को घटाकर जो शेष बचता है, उसे जोड़ते हैं। भाव स्पष्ट करने की यही रीति आज भी प्रचलित है। इस रीति से कोई भी भाव समान अंशों (३० अंश) में नहीं आता, जबकि प्रत्येक भाव को समान अंश का होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि कोई भी ग्रह, जो कुंडली में चौथे भाव का अधिपति होता है, भाव स्पष्ट करने में वह पांचवे या तीसरे भाव का अधिपति बन जाता है।
इसलिए आज भाव स्पष्ट करने की जो परिपाटी चल रही है, वह ठीक नहीं है। भारत में इस रीति का प्रचार अरब और मिस्र आदि देशों से हुआ। फलित विकास के लेखक स्वर्गीय पं. रामचरन ओझा ने लिखा है कि भाव साधन की जो पद्धति आज भारत में प्रचलित है वह मुसलमानी मतानुसार है, ऋषिप्रणीत नहीं है। 'सिद्धान्त तत्त्व विवेक' में इसका पूर्णतया खण्डन किया गया है। जैमिनी सूत्र में राशियों की दशा दी गयी है। भाव स्पष्ट की इस प्रणाली को मनाने से किसी राशि की दशा दो बार आयेगी तो किसी के एक बार भी नहीं आयेगी। 'सर्वे भावा लग्नांशसमाः' अर्थात् सभी भाव लग्न के अंशों के समान हों, ऐसा नहीं हो सकेगा। सभी शास्त्रकारों ने लग्न के बाईसवें द्रेष्काण को मारक कहा है, पर यह तभी संभव हो सकता है जब अष्टम भाव लग्न के अंशादि के बराबर हो। आचार्य वराहमिहिर ने भी उपर्युक्त बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाव स्पष्ट करने की यह रीति सह शुद्ध नहीं है। आर्ष वचनों के अनुसार लग्न स्पष्ट में एक-एक राशि जोड़ने से भाव स्पष्ट (द्वादश भाव) हो जाते हैं। लग्न स्पष्ट के बराबर सभी राशियों के भाव मध्य मानने की परिपाटी रही थी। भाव मध्य से पन्द्रह अंश पूर्व भाव प्रारंभ तथा भाव मध्य से पन्द्रह अंश पश्चात भाव समाप्त होता है।
जब किसी भाव में कोई ग्रह होता है तो पूर्ण फल प्रदान करता है। जैसे वृषभ लग्न के २० अंश (१/२०) उदित हुए तो मिथुन के २० अंश पर ग्रह द्वितीय और कर्क के २० अंश पर ग्रह तृतीय भाव का फल करेगा। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए।
Pt.P.S Tripathi
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