Friday 1 May 2015

पुरूषार्थ का महत्व




पुरूषार्थ का महत्व भाग्य से अधिक है साथ ही अधिकांष लोगो की मान्यता होती है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती जितना कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है किंतु जीवन की कई अवस्थाओं पर नजर डाले तो भाग्य की धारणा से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय शास्त्र में कर्म को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जोकि क्रमषः संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध है। जो वर्तमान में कर्म किया जाता है वहीं क्रियामाण कर्म कहा जाता है जिसका कोई फल अभी हमें प्राप्त नहीं है अर्थात् वहीं कर्म भविष्य में संचित कर्म बनता है। इन्हीं संचित कर्म में से जिसका फल हमें प्राप्त हो जाता है वह चाहें अच्छा हो या बुरा प्रारब्ध कहा जा सकता है। अब देखें कि संचित कर्म का विचार - वह कर्म जिसका परिणाम हमें वर्तमान में नहीं प्राप्त होता माना जाता है कि वह किसी भी जनम में प्राप्त हो सकता है जिसका उल्लेख आप वंषषास्त्र से कर सकते हैं क्योंकि जन्म के समय किसी भी प्रकार के कर्म के बिना भी जीव उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्वस्थ या अस्वस्थ होने के तौर पर प्राप्त करता है जिसका वर्णन ज्योतिष शास्त्र में जातक के जन्मकुंडली के पंचम या पंचमेष के आधार पर किया जा सकता है। कर्म का दूसरा भाग है प्रारब्ध। प्रारब्ध को अपने इसी जन्म में भोगना हेाता है अर्थात इसे उत्पति कर्म भी कहा जा सकता है जोकि व्यक्ति के जींस तय कर देते हैं कि उसका प्रारब्ध क्या होगा अर्थात् गर्भधारण के समय ही उसका प्रारब्ध निर्धारित हो जाता है। प्रयत्न के बिना ही पैदा होते ही जो कुछ प्राप्त होता है या अप्राप्त रह जाता है वह प्रारब्ध होता है। कुंडली में प्रारब्ध केा नवम भाव या नवमेष से देखा जा सकता है। अब कर्म के तीसरे स्वरूप क्रियामाण को देखें। क्रियामाण अर्थात् जो वर्तमान में कर्म चल रहा है मतलब इसे हम पुरूषार्थ कह सकते हैं। भारतीय मान्यता है कि इंसान के 12 वर्ष अर्थात् कालपुरूष के भाग्य के एक चक्र के पूरा होने के उपरांत क्रियामाण का दौर शुरू हो जाता है जोकि जीवन के अंत तक चलता है। अब व्यक्ति की षिक्षा उसकी रूचि सामाजिक स्थिति पारिवारिक तथा निजी परिस्थिति पसंद नापसंद, प्रयास तथा उसमें सकाकरात्मक या नाकारात्मक सोच से व्यक्ति का क्रियामाण उसके जीवन को प्रतिकूल या अनुकूल स्थिति हेतु प्रभावित करता है अतः पुरूषार्थ या क्रियामाण कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनता है अतः जीवन के सिर्फ कर्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म और भाग्य के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है जोकि कुंडली के पंचम, नवम और दषम स्थान से देखा जाता है इसमें प्रयास का स्तर, मनोभाव या सहयोग कि स्थिति देखना भी आवष्यक होता है जोकि कुंडली के अन्य भाव से निर्धारित होता है अतः मानव जीवन में भाग्य का भी अहम हिस्सा होता है।



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