Sunday, 12 April 2015

वास्तु से भी जुड़ी हैं बीमारियां

मानसिक हालत कमजोर होने की स्थिति में हम डिप्रेशन या अवसाद का शिकार हो जाते हैं। ऐसा होने पर व्यक्ति के विचारों, व्यवहार, भावनाओं और दूसरी गतिविधियों पर असर पड़ता है। डिप्रेशन से प्रभावित व्यक्ति अक्सर उदास रहने लगता है, उसे बात-बात पर गुस्सा आता है, भूख कम लगती है, नींद कम आती है और किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। लंबे समय तक ये हालत बने रहने पर व्यक्ति मोटापे का शिकार बन जाता है, उसकी ऊर्जा में कमी आने लगती है, दर्द के एहसास के साथ उसे पाचन से जुड़ी शिकायतें होने लगती हैं। कहने का मतलब यह है कि डिप्रेशन केवल एक मन की बीमारी नहीं है, यह हमारे शरीर को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। डिप्रेशन के शिकार किसी व्यक्ति में इनमें से कुछ कम लक्षण पाए जाते हैं और किसी में ज्यादा।
आमतौर पर शरीर में बीमारी होने पर हम उसके बायोलॉजिकल, मनोवैज्ञानकि या सामाजिक कारणों पर जाते हैं। यहां पर आज हम बीमारियों के उस पहलू पर गौर करेंगे, जो हमारे घर के वास्तु से जुड़ा है। कई बीमारियों की वजह घर में वास्तु के नियमों की अनदेखी भी हो सकती है। अगर आप इन नियमों को जान लेंगे और उनका पालन करना शुरू करेंगे तो आपको इन बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है। जैसे वास्तु में यह माना जाता है कि अगर आप दक्षिण दिशा में सिर करके सोते हैं तो आपके स्वास्थ्य में सुधार होता है। जहां तक करवट का सवाल है तो वात और कफ प्रवृत्ति के लोगों को बाईं और पित्त प्रवृत्ति वालों को दाईं करवट लेटने की सलाह दी जाती है। सीढिय़ों का घर के बीच में होना स्वास्थ्य के लिहाज से नुकसान देने वाला होता है, इसलिए साढिय़ों को बीच के बजाय किनारे की ओर बनवाएं। इसी तरह भारी फर्नीचर को भी घर के बीच में रखना अच्छा नहीं माना जाता। इस जगह में कंक्रीट का इस्तेमाल भी वास्तु के अनुकूल नहीं होता। दरअसल घर के बीच की जगह ब्रह्मस्थान कहलाती है, जहां तक संभव हो तो इस जगह को खाली छोडऩा बेहतर होता है। घर के बीचोबीच में बीम का होना दिमाग के लिए नुकसानदायक माना जाता है। वास्तु के नियमों के हिसाब से बीमारी की एक बड़ी वजह घर में अग्नि का गलत स्थान भी है। जैसे कि अगर आपका घर दक्षिण दिशा में है, तो इसी दिशा में अग्नि को न रखें। रोशनी देने वाली चीज को दक्षिण-पश्चिम दिशा में रखना स्वास्थ्य के लिए शुभ माना जाता है। घर में बीमार व्यक्ति के कमरे में कुछ सप्ताह तक लगातार मोमबत्ती जलाए रखना भी उसके स्वास्थ्य के लिए शुभ होता है।
अगर घर का दरवाजा भी दक्षिण दिशा में है, तो इसे बंद करके रखें। यह दरवाजा लकड़ी का और ऐसा होना चाहिए, जिससे सडक़ अंदर से न दिखे। घर में किचन की जगह का भी हमारे स्वास्थ्य से संबंध होता है। दक्षिण-पश्चिम दिशा में किचन होने से व्यक्ति अवसाद से दूर रहता है। पूरे परिवार के अच्छे स्वास्थ्य के लिए घर में दक्षिण दिशा में हनुमान का चित्र लगाना चाहिए।
हर व्यक्ति चाहता है कि उसका घर वास्तु सम्मत हो लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। क्योंकि जरा सी भी गलती घर के वास्तु विज्ञान को बिगाड़ देती है। इन गलतियों को सुधारने के लिए कई वास्तुविद घर के कुछ हिस्सों में मामूली तोड़-फोड़ कर नए सिरे से बनाने के लिए कहते हैं। लेकिन यदि ऐसा संभव न हो तो भी इन वास्तु दोषों का निवारण बड़ी ही आसानी से किया जा सकता है। आपको सिर्फ कुछ बातों का खास ध्यान रखना होगा। इनमें से प्रमुख टिप्स इस प्रकार हैं-
* भोजन ग्रहण करते समय थाली दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर रखें और पूर्व दिशा की ओर मुंह करके भोजन करें।
सोते समय इस बात का ध्यान रखें कि आपका सिरहाना यानी तकिया दक्षिण-पश्चिम कोण में दक्षिण की ओर हो।
* पूजा करते समय मुख उत्तर-पूर्व या उत्तर-पश्चिम की ओर करके बैठें।
* उन्नति के लिए शुभ चिन्ह जैसे- लक्ष्मी, गणेश, कुबेर, स्वस्तिक, ऊं या अन्य कोई ईश जिसकी आप आराधना करते हो का मांगलिक चिह्न मुख्यद्वार के ऊपर स्थापित करें।
* ट्यूबवैल या कुआं हमेशा उत्तर-पूर्व कोण में खुदवाएं। अन्य दिशा के कुएं को भरवा न सकें तो उसे प्रयोग में न लें अथवा उत्तर-पूर्व में एक और ट्यूबवैल लगवाएं जिससे वास्तु का संतुलन हो सके।
* दक्षिण-पश्चिम दिशा में अधिक दरवाजे व खिड़कियां हों तो उन्हें बंद करके उनकी संख्या कम कर दें।

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छत्तीसगढ़ का प्रयाग: राजिम कुंभ

श्रद्घालुओं की अनगिनत आस्था, संतों का आशीर्वाद और कलाकारों के समर्पण का ही परिणाम है कि राजिम-कुंभ ने देश में अपनी पहचान नए धार्मिक और सांस्कृतिक संगम के तौर पर कायम कर की है। गुजिस्ता कुछ सालों में राजिम कुंभ की ख्याति देश-दुनिया में फैली है, यह मध्य भारत का प्रयाग बन चुका है।
रायपुर से दक्षिण-पूर्व में करीब 45 किमी पर राजिम के त्रिवेणी संगम पर हर साल माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक लाखों श्रद्धा के तार एक साथ बजते हैं तब राजीव लोचन की उपस्थिति और ऋषि परम्परा से सारा जगत अर्थवान हो जाता है। अनादि काल से चल रहे चेतना के स्फुरण को, परम्परा और आस्था के इस पर्व को राजिम कुंभ कहा जाता है।
2005 से छत्तीसगढ़ शासन ने राजिम मेले के आयोजन को राजिम कुंभ का स्वरूप देकर लोकव्यापी बनाने की दिशा में एक नई पहल की। यही वजह है कि राजिम कुंभ के अवसर पर पर्यटकों की संख्या बढ़ जाती है। कुंभ में देश भर से पर्यटकों की भीड़ के साथ श्रद्धालु एवं साधु-महात्माओं के अखाड़े विशेष रूप से आमंत्रित रहते हैं।
महानदी पूरे छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी नदी है और इसी के तट पर बसी है राजिम नगरी। राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर सोंढूर, पैरी और महानदी के त्रिवेणी संगम-तट पर बसे इस नगरी को श्रद्घालु श्राद्घ तर्पण, पर्व स्नान, दान आदि धार्मिक कार्यों के लिए उतना ही पवित्र मानते हैं जितना कि अयोध्या और बनारस को। मंदिरों की महानगरी राजिम की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता।
अटूट विश्वास है कि यहां स्नान करने मात्र से मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं और मृत्युपरांत वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है। अंचल के प्रसिद्घ संत और कवि पवन दीवान स्पष्ट करते हैं कि भगवान शिव और विष्णु यहां साक्षात रूप में विराजमान हैं जिन्हें राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव के रूप में जाना जाता है। याद दिलाते चलें कि वैष्णव सम्प्रदाय की शुरुआत करने वाले महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली चम्पारण्य भी यहीं है।
कुंभ-पर्व का मेला मुख्यत: साधुओं का ही माना जाता है। साधु मंडली ही कुंभ का जीवन है। राजिम-कुंभ कई दिनों तक इसका साक्षी बनता है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के शब्दों में संत देश, धर्म और संस्कृति को जोडऩे का काम करते हैं और राजिम-कुंभ इसका प्रतीक बना है। यह काम सत्ता से नहीं हो सकता।
राजिम कुंभ मेला भिन्न-भिन्न मतों, पंथों, समुदायों और धर्मो का प्रमुख आस्था केंद्र है। मंत्री ने कहा कि इस मेले में विदेश से भी लोग आने लगे हैं। यहां के संत समागम और शाही स्नान में इस बार विदेशी सैलानियों के भी पहुंचने के आसार हैं। राजिम छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ है। इसे छत्तीसगढ़ का 'प्रयाग भी कहते हैं। यहां के प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर में भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। वर्तमान में राजिम कुंभ भूलोक में विख्यात हो चुका है तथा प्रतिवर्ष कुंभ का विशाल आयोजन किया जा रहा है। राजिम कुंभ साधु संतों के प्रवचन, शंकराचार्यों के आगमन द्वारा हरिद्वार, नासिक, इलाहाबाद व उज्जैन के चार कुंभों के पश्चात पाँचवे कुंभ के रुप में प्रचारित हो रहा है।
किसी भी धार्मिक आयोजन की सफलता या उसे सर्वमान्य रूप से प्रतिष्ठापित करने की यह अनिवार्य शर्त है कि उसे समाज और धर्म दोनों का पर्याप्त समर्थन मिले। इसकी प्रबल अभिव्यक्ति महाशिवरात्रि पर आयोजित अंतिम शाही स्नान में दिखाई देती है।
साथ ही साथ यहां स्थानीय और प्रादेशिक कलाओं को जीवंत करने में भी कुंभ का खासा योगदान रहा है, कह सकते हैं कि आर्थिक समस्या के चलते जिन लोक कलाकारों को बहुत कम अवसर और सम्मान राशि मिलती है, यह कुंभ उनके लिए मददगार साबित होता है।
राजिव लोचन दर्शन करने के पश्चात कुलेश्वर महादेव के दर्शन न हो तो राजिम यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। पुराविद डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार कुलेश्वर महादेव का प्राचीन नाम उत्पलेश्वर महादेव था जो कि अपभ्रंश के रूप में कुलेश्वर महादेव कहलाता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर नदियों के संगम पर स्थित है। यह अष्टभुजाकार जगती पर निर्मित है। नदी के प्रवाह को ध्यान में रखते हुए वास्तुविदों ने इसे अष्टभुजाकार बनाया। इसकी जगती नदी के तल से 17 फुट की ऊंचाई पर है। कुल 31 सीढियों से चढ़ कर मंदिर तक पंहुचा जाता है। कहते हैं कि मंदिर के शिवलिंग को माता सीता ने बनाया था। मंदिर में कार्तिकेय एवं अन्य देवताओं की मूर्तियाँ लगी हैं। किंवदंती है की नदी के किनारे पर स्थित संस्कृत पाठशाला ब्रह्मचर्य आश्रम से कुलेश्वर मंदिर तक सुरंग जाती है। सुरंग का प्रवेश द्वार संस्कृत पाठशाला ब्रह्मचर्य आश्रम में है। जिसके मुख को अब बंद कर दिया गया है।


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राजिम की कथा:

त्रेता युग से भी एक युग पहले अर्थात सतयुग में एक प्रजापालक अनन्य भक्त था। उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था। इसके आसपास का इलाका दंडकारण्य के नाम से प्रसिद्ध था। यहां अनेक राक्षस निवास करते थे। राजा रत्नाकर समय-समय पर यज्ञ, हवन, जप-तप करवाते रहते थे ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दुखी हो कर वहीं खंडित हवन कुंड के सामने ही ईश आराधना में लीन हो गए और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि वे स्वयं आकर इस संकट से उबारें। ठीक इसी समय गजेंद्र और ग्राह में भी भारी द्वन्द्व चल रहा था, ग्राह गजेंद्र को पूरी शक्ति के साथ पानी में खींचे लिए जा रहा था और गजेंद्र ईश्वर को सहायता के लिए पुकार रहा था। उसकी पुकार सुन भक्त वत्सल विष्णु जैसे बैठे थे वैसे ही नंगे पांव उसकी मदद को दौड़े। और जब वह गजेंद्र को ग्राह से मुक्ति दिलवा रहे थे तभी उनके कानों में राजा रत्नाकर का आर्तनाद सुनाई दी। भगवान उसी रूप में राजा रत्नाकर के यज्ञ में पहुंचे और राजा रत्नाकर ने यह वरदान पाया कि अब श्री विष्णु उनके राज्य में सदा इसी रूप में विराजेंगे। तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है। कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था। इतिहासकारों की दृष्टि से पकी हुई ईंटो से बने इस राजीव लोचन मंदिर का निर्माणकाल आठवीं सदी के लगभग ही माना जाता है।


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रमन सिंह

रमन सिंह जी की कुंडली में बुध की महादशा में चंद्रमा की अंतरदशा, अक्टूबर तक चल रही है चूंकि लग्रेश चन्द्रमा, दशमेष मंगल के साथ चतुर्थ भाव में हैं। चूंकि मंगल राज्य भाव का स्वामी है अत: सत्ता में वापसी का योग बना। आगे आने वाले समय में अगस्त २०१४ के पश्चात जब मंगल की ही अंतरदशा चलेगी तब ज्यादा प्रभावशाली होकर केंद्रीय सत्ता की ओर अग्रसर होने के योग दिखाई देंगे। किन्तु वर्तमान में चंद्रमा की दशा के कारण स्वास्थ्य और सत्ता का दबाव चिंता का विषय हो सकता है जिसके लिये चन्द्रमा की शान्ति कराना उपयुक्त होगा। चंद्रमा की अंतर दशा में रमन सिंह द्वारा गंभीरता-पूर्वक सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, अपराध पर नियंत्रण, प्राशासनिक तत्परता, भ्रष्टाचार पर अंकुश संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाएंगे। वर्ष २०१४ अगस्त से पूर्व वे छत्तीसगढ़ के विकास-पुरूष के रूप में जाने जाएंगे। मगर अक्टूबर २०१५ के बाद उन्हें अपने सहयोगियों पर विशेष ध्यान देना होगा। सहयोगियों का अतिवादी व्यवहार विवाद और अपयश की वजह बन सकता है क्योंकि अक्टूबर २०१५ के पश्चात राहु का अंतर तीन वर्ष चलेगा। जिसका प्रभाव अगले चुनाव पर पड़ सकता है। मतलब बहुत साफ है, लगभग पौने दो वर्ष रमन सिंह जी के पास हैं -कुछ कर दिखाने के लिए.....।


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आपका हस्ताक्षर और आपका व्यक्तित्व

1. जो व्यक्ति हस्ताक्षर में अक्षर नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं तो वह ईश्वर पर आस्था रखने एवं आशावादी और साफदिल के रहते हैं, लेकिन इनका स्वभाव झगड़ालू रहता है।
2. जो लोग बिना पेन उठाए एक ही बार में पूरा हस्ताक्षर करते हैं वह रहस्यवादी, लडाकु और गुप्त प्रवृत्ति वाले होते हैं।
3. ऊपर से नीचे की ओर हस्ताक्षर करने वाले लोग नकारात्मक विचारों वाले एवं अव्यावहारिक होते हैं। इनकी मित्रता कम लोगों से रहती है।
4. जो व्यक्ति अंत में डॉट या डैश लगाते हैं वह डरपोक, शर्मीले और शक्की प्रवृत्ति के होते हैं।
5. जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर इस प्रकार से लिखता है जो काफी अस्पष्ट होते हैं तथा जल्दी-जल्दी लिखे गये होते हैं, वह व्यक्ति जीवन को सामान्य रूप से नहीं जीता। उसे हर समय ऊँचाई पर पहुँचने की ललक लगी रहती है। यह व्यक्ति घोखा दे सकता है पर घोखा खा नहीं सकता।
6. पेन पर जोर देकर लिखने वाले भावुक, उत्तेजक, हठी और स्पष्टवादी होते हैं।
7. जल्दी से हस्ताक्षर करने वाले कार्य को गति से हल करने व तीव्र तात्कालिक बुद्धि वाले होते हैं।
8. अवरोधक चिह्न लगाने वाले व्यक्ति हीनता का शिकार होते हैं। सामाजिकता व नैतिकता की दुहाई देते हैं और आलसी प्रवृत्ति के होते हैं।
9. जिस व्यक्ति के हस्ताक्षर में अक्षर काफी छोटे और तोड़-मरोड़ कर खिलवाड़ करके बनाए गए हों और हस्ताक्षर बिल्कुल पडऩे में नहीं आते, वह व्यक्ति बहुत ही धूर्त और चालाक होता है। वह अपने फायदे के लिए किसी का भी नुकसान करने और नुकसान पहुंचाने से नहीं चूकता।
10. जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर के नीचे दो लकीरें खींचता है, वह भावुक होता है, पूरी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता, मानसिक रूप से कमजोर होता है और उसके जीवन में असुरक्षा की भावना रहती है। ऐसा व्यक्ति थोडा कंजूस स्वभाव का होता है।
11. जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर में नाम का पहला अक्षर सांकेतिक रूप में तथा उपनाम पूरा लिखता है और हस्ताक्षर के नीचे बिंदु लगाता है, वह मृदुभाषी और व्यवहार कुशल होता है। ईश्वरवादी होने के कारण उसे किसी भी प्रकार की लालसा नहीं सताती।
12. जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर के अंतिम शब्द के नीचे बिंदु रखता है, वह विलक्षण प्रतिभा का धनी होता है। ऐसा व्यक्ति जिस क्षेत्र में जाता है, काफी प्रसिद्धि प्राप्त करता है और ऐसे व्यक्ति से बड़े-बड़े लोग सहयोग लेने को उत्सुक रहते हैं
13. जो अपने हस्ताक्षर स्पष्ट लिखते हैं तथा हस्ताक्षर के अंतिम शब्द की लकीर, या मात्रा को इस प्रकार खींच देते हैं, जो ऊपर की तरफ जाती हुई दिखाई देती है, ऐसे व्यक्ति दिल के बहुत साफ होते हैं और हरेक के साथ सहयोग करने के लिए तैयार रहते हैं। वे मिलनसार, मृदुभाषी, समाजसेवक, परोपकारी होते हैं।


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कैसे बनते हैं अंधविश्वास



दिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्द्वेद नहीं हुआ है।
अंधविश्वासों का वर्गीकरण:
अंधविश्वासों का सर्वसम्मत वर्गीकरण संभव नहीं है। इनका नामकरण भी कठिन है। पृथ्वी शेषनाग पर स्थित है, वर्षा, गर्जन और बिजली इंद्र की क्रियाएँ हैं, भूकंप की अधिष्ठात्री एक देवी है, रोगों के कारण प्रेत और पिशाच हैं, इस प्रकार के अंधविश्वासों को प्राग्वैज्ञानिक या धार्मिक अंधविश्वास कहा जा सकता है। अंधविश्वासों का दूसरा बड़ा वर्ग है मंत्र-तंत्र। इस वर्ग के भी अनेक उपभेद हैं। मुख्य भेद हैं रोग निवारण, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि। विविध उद्देश्यों के पूत्र्यर्थ मंत्र प्रयोग प्राचीन तथा मध्य काल में सर्वत्र प्रचलित था। मंत्र द्वारा रोग निवारण अनेक लोगों का व्यवसाय था। विरोधी और उदासीन व्यक्ति को अपने वश में करना या दूसरों के वश में करवाना मंत्र द्वारा संभव माना जाता था। उच्चाटन और मारण भी मंत्र के विषय थे। मंत्र का व्यवसाय करने वाले दो प्रकार के होते थे-मंत्र में विश्वास करने वाले, और दूसरों को ठगने के लिए मंत्र प्रयोग करने वाले।
जादू, टोना:
जादू-टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। इन सबके अंतस्तल में कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन भावों का विश्लेषण नहीं हो सकता। इनमें तर्कशून्य विश्वास है। मध्य युग में यह विश्वास प्रचलित था कि ऐसा कोई काम नहीं है जो मंत्र द्वारा सिद्ध न हो सकता हो। असफलताएँ अपवाद मानी जाती थीं। इसलिए कृषि रक्षा, दुर्गरक्षा, रोग निवारण, संततिलाभ, शत्रु विनाश, आयु वृद्धि आदि के हेतु मंत्र प्रयोग, जादू-टोना, मुहूर्त और मणि का भी प्रयोग प्रचलित था।
मणि धातु, काष्ठ या पत्ते की बनाई जाती है और उस पर कोई मंत्र लिखकर गले या भुजा पर बाँधी जाती है। इसको मंत्र से सिद्ध किया जाता है और कभी-कभी इसका देवता की भाँति आवाहन किया जाता है। इसका उद्देश्य है आत्मरक्षा और अनिष्ट निवारण।
योगिनी, शाकिनी और डाकिनी संबंधी विश्वास भी मंत्र विश्वास का ही विस्तार है। डाकिनी के विषय में इंग्लैंड और यूरोप में 17वीं शताब्दी तक कानून बने हुए थे। योगिनी भूतयोनि में मानी जाती है। ऐसा विश्वास है कि इसको मंत्र द्वारा वश में किया जा सकता है। फिर मंत्र पुरुष इससे अनेक दुष्कर और विचित्र कार्य करवा सकता है। यही विश्वास प्रेत के विषय में प्रचलित है।
फलित ज्योतिष का आधार गणित भी है। इसलिए यह सर्वांशत: अंधविश्वास नहीं है। शकुन का अंधविश्वास में समावेश हो सकता है। अनेक अंधविश्वासों ने रूढिय़ों का भी रूप धारण कर लिया है।
कछुआ, खरगोश और अन्धविश्वास:
ये तो आप जानते ही हैं कि कई तरह के अन्धविश्वास होते हैं- कोई समझता है कि बिल्ली के रास्ता काटने से कुछ हो जाता है, कोई छींकों को ले कर कुछ मान बैठता है, तो कोई और समझता है की चूंकि किसी काल्पनिक कथा में कछुआ खरगोश से दौड़ में जीत गया था, इसलिए हमेशा ही धीरे-धीरे चलने वाले की जीत होती है.
थोड़ा चौंके, है न. अब चौंक ही चुके हैं तो थोड़ा सोच भी लीजिये. कहानी में तो धीरे-धीरे चलने वाला तब ही जीता जब तेज दौडऩे वाला सो गया- लेकिन हमारे द्वारा निकाली गयी शिक्षा में यह नहीं कहा जाता है की धीमे चलने वाला तभी जीतता है जब तेज चलने वाला सो जाए! और यह शिक्षा इतनी पक्की होती है की हम अपने आस-पास भी यह देखने से इंकार कर देते हैं कि हमारे धीरे चलने के बावजूद (या शायद इसी वजह से) दूसरे हमसे कितने आगे जा रहे हैं.
इस तरह वास्तविकता और तर्क से परे हो कर (और कहानी के पूरे संभव अर्थ को नजरअंदाज कर के) अगर किसी बात तो माना जाए तो वह अन्धविश्वास नहीं कहलायेगा तो और क्या?
समस्या यह है की ये किसी एक कहानी की बात नहीं है. इस तरह से बिना किसी सोच या तर्क के निष्कर्षों तक पहुँच जाना हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है. न जाने कितनी सारी धारणाएँ हमारे बीच इसी तरह के निराधार कारणों की वजह से हैं. जैसे कि मान लेना कि जो गोरा होता है, वह ज्यादा अच्छा होता है (इसीलिए अरबों की फयेरनेस क्रीमों की बिक्री होती है). या ये समझ लेना कि जिनका रहन-सहन या धर्म या जात या भाषा हमसे अलग होती है, उनमें ज़रूर कोई-न-कोई खोट है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इतिहास और वर्तमान की कुछ बहुत बड़ी समस्याओं की जड़ें इसी तरह के अंधविश्वासों में हैं?
इस सब में हमारा बहाना होता है कि हमको यही सिखाया गया तो हम क्या करें. लेकिन अब अगर आप की उम्र दस साल से ऊपर की है, तो ये बहाना नहीं चलेगा! आप पर लगाये जा रहे लांछन (कि आप अन्धविश्वासी हैं) से बहस करने से बेहतर होगा कि आप इसी तर्कशक्ति का प्रयोग कर के अपने अन्दर झांकें, अपनी धारणाओं को परखें.
आप कहेंगे कि यहाँ पर आस्था और विश्वास और अन्धविश्वास में अंतर ठीक से नहीं समझा जा रहा है. मैं भी यही कह रहा हूँ - पहचाना तो जाये कि हमारी कौन सी धारणाएं सच में विश्वास की श्रेणी मैं हैं और कौन सी अन्धविश्वास में. शायद यह पहचान पाना ही शिक्षा का बहुत अहम् लक्ष्य है? और हाँ, यह पहचानने का काम धीरे-धीरे नहीं करियेगा - असल जीवन में तेज चलने वाले सोते नहीं हैं और आप अपने आप को बहुत ही पिछड़ा पा सकते हैं.
मदिरापान की देवी -माता कवलका:
आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं एक ऐसे मंदिर में जहाँ माता को प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है मदिरा । माता कवलका नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर रतलाम शहर से लगभग 32 किमी की दूरी पर ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर स्थित है।
माँ की यह चमत्कारी मूर्ति ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर माँ कवलका के रूप में विराजमान हैं। सालों से यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र रहा है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुरादें माँगने आते हैं। मंदिर में माँ कवलका, माँ काली, काल भैरव और भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा विराजित हैं।
यहाँ के पुजारी पंडित अमृतगिरी गोस्वामी का कहना है कि यह मंदिर लगभग 300 वर्ष पुराना है। यहाँ स्थित माता की मूर्ति बड़ी ही चमत्कारी है। पुजारी का दावा है कि यह मूर्ति मदिरापान करती है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुराद माँगने आते हैं। पुत्र प्राप्ति होने पर देवी माँ के दर्शन करने आए रमेश ने बताया कि उन्होंने माता को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि और बच्चे के बाल देकर उसकी मानता उतारी है।
मंदिर के ऊँची टेकरी पर स्थित होने के कारण यहाँ तक पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल ही चढ़ाई करनी पड़ती है। भक्तों की सुविधा के लिए हाल ही में मंदिर मार्ग पर पक्की सीढिय़ाँ बनाई गई हैं, जिनके माध्यम से आसानी से चढ़ाई की जा सकती है।
इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ स्थित माँ कवलका, माँ काली और काल भैरव की मूर्तियाँ मदिरापान करती हैं। भक्तजन माँ को प्रसन्न करने के लिए मदिरा का भोग लगाते हैं। इन मूर्तियों के होठों से मदिरा का प्याला लगते ही प्याले में से मदिरा गायब हो जाती है और यह सब कुछ भक्तों के सामने ही होता है।
माता के प्रसाद के रूप में भक्तों को बोतल में शेष रह गई मदिरा दी जाती है। अपनी मनोवांछित मन्नत के पूरी होने पर कुछ भक्त माता की टेकरी पर नंगे पैर चढ़ाई करते हैं तो कुछ पशुबलि देते हैं। हरियाली अमावस्या और नवरात्रि में यहाँ भक्तों की अपार भीड़ माता के दर्शन के लिए जुट जाती है। कुछ लोग बाहरी हवा या भूत-प्रेत से छुटकारा पाने के लिए भी माता के दरबार पर अर्जी लगाते हैं।
सोचिए क्या कोई मूर्ति मदिरा पान कर सकती है या यह लोगों का महज वहम है? आखिर इसमें कितनी सच्चाई है, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आस्था या अंधविश्वास की यह यात्रा शास्वत चलती आ रही है और यद्यपि कम होती जा रही हैं पर खत्म नहीं हुई हैं।


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राजनीतिक सफलता हेतु ज्योतिष उपाय

राजनीति आज के परिदृष्य में जहाँ विवादों से भरी हुई है, वहीं कई राजनैतिक व्यक्ति अपनी छवि तथा व्यवहार से लोगों के बीच लोकप्रिय बने हुए हैं। राजनीति के क्षेत्र में लगातार सफलता प्राप्ति तथा लोकप्रिय बने रहने हेतु ग्रह स्थिति और ग्रह दशाओं का अनुकूल होना आवश्यक है। अत: लोग राजनीतिक सफलता हेतु विशिष्ट संयोगो, उन संयोगो द्वारा लोकप्रियता, वैभव तथा सम्मान प्राप्ति हेतु इच्छिुक होता है। कुंडली के द्वारा राजनीतिक जीवन में असफलता तथा उचाईयों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। राजनीति में सफल कैरियर हेतु व्यक्ति में जो गुण होने चाहिए उसमें प्रमुख रूप से माने जाने वाले गुण हैं जोकि किसी व्यक्ति को सफल राजनैतिक कैरियर देने में समर्थ हो सकते हैं वह है नेतृत्व क्षमता, सेवा का भाव, सामाजिक हित अथवा अहित के संदर्भ में विचार लोकप्रियता तथा प्रभावी व्यक्तित्व का गुण होना चाहिए। किसी सफल राजनेता की कुंडली में छठवां, सांतवां, दसवां तथा ग्यारहवां घर प्रमुख माना जा सकता है। क्योंकि सत्ता में प्रमुख रहने हेतु दषम स्थान का उच्च संबंध होना चाहिए चंूकि दसम स्थान को राजनीति का स्थान या सत्ता का केंद्र माना जाता है साथ ही एकादष स्थान में संबंध होने से लंबे समय तक शाासन तथा विरासत का कारक होता है। छठवां घर सेवा का घर माना जाता है अत: इस घर से दषम स्थान का संबंध राजनीति में सेवा का भाव देता है। साथ ही सांतवा घर दषम से दषम होने के कारण प्रभावी होता है। किसी व्यक्ति की कुंडली में राहु तथा सूर्य, गुरू इत्यादि का प्रभावी होना भी राजनीति जीवन में सफलता का कारक माना जाता है। चूॅकि राहु को नीतिकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त है वहीं सूर्य को राज्यकारक, शनि को जनता का हितैषी और मंगल नेतृत्व का गुण प्रदाय करता है। इस योग में तीसरे स्थान से संबंध रखने से व्यक्ति अच्छा वक्ता माना जा सकता है। अत: राजनीति में सफल होने हेतु इन ग्रहों तथा स्थानों का प्रभावी होना व्यक्ति को राजनीति जीवन में सफल बना सकता है।
लग्न कुण्डली में यह देखा जाता है कि दशम भाव अथवा दशम भाव के स्वामी ग्रह का सप्तम से सम्बंध होने पर जातक सफल राजनेता बनता है। क्योंकि सांतवा घर दशम से दशम है इसलिये इसे विशेष रुप से देखा जाता है साथ ही यह भाव राजनैतिक पद दिलाने में सहायक माना गया है। छठवा घर नौकरी या सेवा का घर होता है यदि इस घर का संबंध दशम भाव या दशमेश से होता है तो व्यक्ति जनता की सेवा करते हुए बडा नेता बनता है या नेता बन कर जनता की सेवा करता है। अब यही संकेत वर्ग कुण्डलियां भी दे रहीं हों तो समझों कि व्यक्ति राजनेता जरूर बनेगा। इसमें नवांश और दशमांश नामक वर्ग कुण्डलियां मुख्य रूप से विचारणीय होती हैं। यदि जन्म कुण्डली के राजयोगों के सहायक ग्रहों की स्थिति नवाशं कुण्डली में भी अच्छी हो तो परिणाम की पुष्टि हो जाती है। वहीं दशमाशं कुण्डली को सूक्ष्म अध्ययन के लिये देखा जाता है। यदि लग्न, नवांश और दशमाशं तीनों कुण्डलियों में समान या अच्छे योग हों तो व्यक्ति बड़ी राजनीतिक उंचाइयां छूता है।
सूर्य, चन्द्र, बुध व गुरु धन भाव में हों व छठे भाव में मंगल, ग्यारहवें घर में शनि, बारहवें घर में राहु व छठे घर में केतु हो तो एसे व्यक्ति को राजनीति विरासत में मिलती है। यह योग व्यक्ति को लम्बे समय तक शासन में रखता है। जिसके दौरान उसे लोकप्रियता व वैभव की प्राप्ति होती है। वहीं वृषश्चिक लग्न की कुण्डली में लग्नेश बारहवे में गुरु से दृ्ष्ट हो शनि लाभ भाव में हो, राहु -चन्द्र चौथे घर में हो, स्वराशि का शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृ्ष्ट हो तथा सूर्य ग्यारहवे घर के स्वामी के साथ युति कर शुभ स्थान में हो और साथ ही गुरु की दशम व दूसरे घर पर दृष्टि हो तो व्यक्ति प्रखर व तेज नेता बनता है। सारांश यह कि कर्क, सिंह और वृश्चिक लग्न या चंद्र राशि होने पर राजनीतिक सफलता मिलने की सम्भावनाएं मजबूत होती हैं।

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बनाएं बच्चों का भविष्य सुरक्षित

बच्चे के भविष्य की प्लानिंग कुछ ऐसे लक्ष्य हैं जिससे कोई भी मां-बाप समझौता नहीं करना चाहते हैं। वहीं बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए वित्तीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ऐसे निवेश विकल्पों में निवेश करना चाहिए जहां जोखिम कम हो। अपने वित्तीय लक्ष्य महंगाई दर को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए। बच्चे के भविष्य हेतु ऐसे विकल्पों में निवेश करना उचित होता है जहां टैक्स में छूट मिल सके। 'पीपीएफ में निवेश एक बेहतर विकल्प है। इसके अलावा बाजार में ऐसे भी निवेश के विकल्प मौजूद हैं जिसमें टैक्स में छूट मिलती है। पैंरेंट्स को ऐसे विकल्पों का इस्तेमाल करना चाहिए।
बच्चों की भविष्य का प्लानिंग में मूल उद्देश्य यह होता है कि आपके बाद भी आपके बच्चे का भविष्य सुरक्षित हो और उसे वित्तीय समस्याओं से दो-चार ना होना पड़े। मौजूदा समय में इंश्योरेंस कंपनियों के पास ऐसे कई चाइल्ड प्लान मौजूद हैं जो आपके रहते हुए और आपके बाद भी आपके बच्चे के बेहतर भविष्य की गारंटी लेते हैं। ये प्लान बेहतर तो होते हैं लेकिन ये एक तरह के यूलिप लिंक्ड प्लान की तरह होते हैं।
जहां आपके निवेश को ज्यादा रिटर्न मिलने की गुंजाइश नहीं होती है। ऐसे में माता-मिता चाइल्ड प्लान लेने के बजाय पर्याप्त कवर वाला कोई टर्म प्लान लें जो ज्यादा बेहतर होता है। टर्म प्लान सस्ते भी होते हैं साथ ही चाइल्ड प्लान की अपेक्षा ये ज्यादा रिटर्न देने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा म्यूचुअल फंड में भी निवेश करके बच्चे के बेहतर भविष्य की तैयारी की जा सकती है। एसआईपी के जरिए अच्छे डाइवर्सिफाइड फंड में निवेश करें और समय-समय पर अपने निवेश की समीक्षा करते रहें। इससे आप भविष्य के वित्तीय लक्ष्यों को आसानी से हासिल कर सकते हैं।
अपने बच्चे को दें बचत की शिक्षा-
हर माता-पिता को अपने बच्चे तो बचत की शिक्षा बचपन से ही देना चाहिए। ये एक ऐसा गुण और संस्कार है जो बच्चे के सुनहरे भविष्य में मील का पत्थर साबित होता है।
बच्चे में बचत की आदत डालें, उसे पैसे की अहमियत समझाएं। बच्चे को परिवार के बजट और खर्च की जानकारी दें। इसके अलावा पॉकेट मनी से उसको खुद का बजट बनाना सिखाएं। पिग्गी बैंक के जरिए निवेश करना सिखाएं, साथ ही उसका एक बैंक अकाउंट खोल दें और उसमें नियमित तौर पर निवेश करना सिखाएं। यदि आप ऐसा करते हैं तो जब आपका बच्चा बड़ा होगा तब उसे बचत की अहमियत अपने आप समझ आ जाएगी। वहीं बचपन में दी गई बचत की शिक्षा उसके भविष्य के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी।


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''राजयोग

''राजयोग जैसा की नाम से ही पता चलता है की राजयोग कोई येसा योग है जो एक साधारण से इन्सान को राजा बना सकता है। जब कोई कुण्डली को देखता है और जातक को बताता है की आपकी कुण्डली में राजयोग है, तो जातक के चहरे पर एक मधुर मुस्कान अपने आप ही आ जाती है और मुस्कान का आना लाजमी भी है। आज की दुनियाँ में एक इन्सान दु:ख के साथ जी कर सुख की आशा करता ही रहता है। जब कोई ज्योतिषी कहता है की राजयोग है तो वह आशा को और बल मिलता है और मुस्कान आ जाती है। राजयोग कुण्डली में कई तरह से बनते है, जिनमे बुधादित्य राजयोग तो लगभग 40 प्रतिशत कुण्डलियों में देखा जाता है। लेकिन देखने में तो ये मिलता है की राजयोग भोगने बाले 40 प्रतिशत से भी बहुत कम है। अभी तो हम केवल एक राजयोग की बात कर रहे है, जबकि राजयोग भी कई तरह योगो के कारण बन जाते है। फिर तो प्रतिशत और भी बढ़ जाता है। तो क्या राजयोग केवल एक भ्रान्ति मात्र है? नहीं ऐसा भी नहीं है। राजयोग बनना और फलित होना दो अलग अलग विषय है। राजयोग तो बहुत कुण्डलियों में बनते है लेकिन वो कार्यकेश है भी या नहीं, फिर वो जीवन काल में फलित होंगे या नहीं। इस का निर्णय होने के बाद ये कहा जा सकता है की जातक की कुंडली में बना राजयोग उसे किस पद तक पंहुचा सकता है।
राजयोग का फल हमारे ज्योतिष ग्रंथो में लिखा है कि जातक राजा, महाराजा, जागीरदार, बड़े मंत्री, बहुत अधिक पैसे वाला, बहुत से घोड़े और पालतू पशुओं का मालिक इत्यादि लिखा हुआ है। पर जब इस ग्रंथों की रचना हुई होगी तब यही राजयोग के फल होते होंगे। पर आज इनकी परिभाषा बदल गई है। जिनकी कुंडली में राजयोग कारकेश होकर फलित होगा, उन्हें ये योग राजनीति में पद, विधायक या सांसद चुनाव का टिकिट मिलना, बहुत सी गाडिय़ों का मालिक होना, बहुत बड़ा व्यापारी होना, फेक्ट्री होना ,बड़ी नौकरी होना मंत्री पद मिलना जैसे फल देता है। आप सभी सोच रहे होंगे की अब तो हम भी सपने दिखाने लगे। नहीं मित्रों ये सपना नहीं है ये परम सत्य है। लगभग 50 प्रतिशत से 55 प्रतिशत कुण्डलियों में राजयोग बनता है पर इनमे से केवल 07 प्रतिशत से 08प्रतिशत में कारकेश होता है और फलित तो केवल 01 प्रतिशत लोगों की कुण्डली में ही हो पाता है। लेकिन राजयोग बनने से इन्सान के स्वभाव में बहुत ज्यादा परिवर्तन आ जाता है। उसे एक अच्छा वक्ता, व्यवहार कुशल, सभी मित्रों आदेश देने वाला, चहरे पर तेज लिये हुये, निडर और निर्णय लेने बाला बना देता है। ये गुण उन सभी 55 प्रतिशत कुण्डलियों में देखने को मिलता है। इसका मतलब ये तो है की राजयोग अगर आपकी कुण्डली में बना है तो कुछ परिवर्तन तो जरूर होगा ही, ये परम सत्य है।
हमने कई ऐसे लोगो के बारे में पढ़ा या सुना होता है की वो एक साधारण परिवार में जन्म लेने के बाद भी भारत क्या पूरे विश्व में अपनी एक अमिट पहचान बनाने में सफल रहे। अगर हम कभी उनकी कुंडली देखे तो हमें देखने मिलता है की उनकी कुण्डली में बहुत से अच्छे योग बने होते है। लेकिन उन सभी बने योगो में राजयोग जरूर होगा, केवल होगा ही नहीं अपितु कारकेश होकर फलित भी हुआ होगा। जो उनके साथ हुआ उनकी कुंडली में बने योगो के कारण ही हुआ। चलो जाते जाते आपको एक राजयोग के बारे में बताये जाते है।
त्र्यार्घे: खेटै: स्वोच्चागै: केन्द्र्संस्थै: स्वक्षर्स्थैर्वा भूपति: स्यात्प्रसिद्ध:।
पन्चाघैस्तैरान्यवंश्प्रसूतोह्यपर्वीनाथो वारनाश्वोघयुक्त:।।
अर्थ: यदि किसी की कुण्डली में तीन या अधिक ग्रह उच्च के होकर या स्वराशी के होकर केन्द्र में बैठे हो तो वाह प्रसिद्ध राजा होता है। और यदि पांच ग्रह उच्च के या स्वग्रही होकर बैठे हो तो वाह जातक किसी भी वंश में पैदा होकर पृथ्वी पति बनता है उसके पास हाथी घोड़ों के झुण्ड होते है अर्थात वाह वैभव साली राजा होता है।
हमारी अपनी सोच: जिसकी कुंडली में तीन ग्रह उच्च के या स्वग्रही होकर बैठे हो वो जातक अपने प्रदेश में बहुत नाम कमाता है। चाहे वह मंत्री बनकर कामये या व्यापारी बनकर और जिसकी कुण्डली में पांच ग्रह उच्च के या स्वग्रही होकर बैठे हो बो पूरे देश के लिये एक विशेष पहचान होता है।



अष्टकूटों द्वारा कुंडली मिलान कितना औचित्यपूर्ण?

भारतीय परंपरा में विवाह संस्कार एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। विवाह जीवन का एक आवश्यक अंग है, जिसके द्वारा सामाजिक परंपरा का निर्वाह तथा जीवन सुचारू रूप से चलायमान होता है। विवाह- निर्णय के लिए वर-वधू मेलापक ज्ञात करने की विधि अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में ऐसी मान्यता है कि जीवन में सामंजस्य तथा विपरीत परिस्थिति से जुझने में जीवनसाथी का सहयोग जीवन को आसान तथा कष्टरहित बना सकता है। यदि जीवनसाथी का श्रेष्ठ मिलान नहीं होता है, तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय तथा अनेक वैवाहिक विडंबनाएॅ देने के अलावा पारिवारिक तथा सामाजिक रीतियों एवं परंपराओं को जीवित रखने में असमर्थ हो जाते हैं अत: दांपत्य जीवन सुखमय हो एवं कष्ट तथा प्रतिकूल स्थिति से सावधानी पूर्वक निकला जा सके, इसके लिए जीवनसाथी का सहयोगी होना आवश्यक है। इस हेतु हिंदु संस्कार में विवाह हेतु कुंडली मिलान का विशेष महत्व है।
साधारणतया अष्टकूट अर्थात् तारा, गुण, वश्य, वर्ण, नाड़ी, योनी, ग्रह गुण आदि के आधार पर वर-वधु मेलापक सारिणी के आधार पर गुणों की संख्या के साथ दोषों के संकेत होते हैं। सर्वश्रेष्ठ मिलान में 36गुणों का होना श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक माना जाता है। उससे आधे अर्थात् 18गुण से अधिक होना ही कुंडली-मिलान का धर्म कांटा मान लिया जाता है। इससे अधिक जितने भी गुण मिले, वह वैवाहिक जीवन में सफलता का प्रतीक मान लिया जाता है। जहॉ दोषों का संकेत होता है, उनमें भी शुभ नव पंचम, अशुभ नवपंचम अथवा सामान्य नव पंचम या श्रेष्ठ द्विद्र्वादश, प्रीति षडाष्टक, केंद्र के शुभ-अशुभ का आकलन करके सभी ज्योतिविर्द कुंडली का मिलान कर लेते हैं। किसी प्रकार का दोष होने पर उसका परिहार भी मिल जाता है। कहा जाता है की ''नाड़ी दोषोस्ति विप्राणां, वर्ण दोषोस्ति भूभुजाम्। वैश्यानां गणदोषा: स्यात् , शूद्राणां योनि दूषणम् अर्थात् ब्राम्हणों में नाड़ी दोष मानना आवश्यक है, क्षत्रियों में वर्ण दोष की उपेक्षा नहीं की जा सकती, वैश्यों में गण दोष को प्रधान माना जाता है तथा शूद्रों के लिए योनि दोष की उपेक्षा शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता है। आज के युग में जब कि सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से बदल चुकी है तब हम ब्राम्हण किसे मानें? किसे क्षत्रिय की संज्ञा दें? किसको वैश्य कहा जाए? और किसे शूद्र का दर्जा दिया जाए? आज जाति का अलंकार जन्म से या कर्म से माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्यते। वेदपाठीभवेद् विप्र, ब्रम्हणों जानाति ब्राम्हण:।
वर्तमान परिवेश में जन्म कुंडली का मिलान करते समय गुण मिलान के निर्णय के अनुकूल होने पर ही कुंडली मिलान ज्यादा प्रभावी हो सकता है। कुंडली में स्थित ग्रहों के मिलान, ग्रहों के उच्च-नीच, शत्रु-मित्र के योगायोग तथा उनके स्वभाव प्रकृति के अनुसार के साथ ही महादशा, अंतर्दशा तथा कुंडली के मारकेशों एवं आयु का प्राक्कलन श्रेष्ठ हो तो मिलान को श्रेष्ठता का निर्णायक मानना चाहिए। जातकों के कुंडली में मंगल, सूर्य, शनि, राहु, शुक्र, गुरू एवं चंद्र की स्थिति तथा दृष्टि एवं अंतरदृष्टि के अनुसार सामंजस्य स्थापित कर वैवाहिक जीवन के विघटन को रोका तथा टाला जा सकता हैं साथ ही सप्तम स्थान में क्रूर ग्रहों की उपस्थिति, सप्तमेष पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि या प्रतिकूल संबंध भी वैवाहिक जीवन को असफलता दे सकते हैं। इसके साथ ही 4, 8, 12 के साथ लग्न, सप्तम स्थानों पर मंगल होने से मांगलिक दोषों की स्थिति का मिलान भी आवश्यक रूप से कर लेना चाहिए। जीवन को सुखमय बनाने के अतिरिक्त उत्तरोत्तर उन्नति तथा निर्वाध संचालन हेतु वैवाहिक मिलान कर विवाह संस्कार संपन्न करना भारतीय परंपरा का एक परिचित साधन है। केवल नक्षत्रों के आधार पर आवंटित अष्टकूटों को विवाह का आधार मानना बाकी अष्ट ग्रहों के साथ अत्याचार होगा। अत: विवाह मेलापक में जन्मकुंडली मिलान में अर्थात् लग्न, ग्रह, भाव आदि पर ही विचार करना चाहिए। क्योंकि मेरी मति में अष्टकूटों से मेलापक का तरीका पुराना हो चुका है। हमने चार गुणों में भी सुखद दाम्पत्य जीवन और 28गुणों में भी तलाक की स्थिति का अनुभव किया है। अत: विद्धान पाठकों से अपेक्षा है कि वे भी अपने अनुभवों के आधार पर जन्म कुंडली के गुण-दोषों पर विचार करते हुए विवाह की अनुमति देंगे अथवा प्राप्त करेंगे। यदि सप्तमेष अथवा सप्तम भाव शुक्र, सूर्य, चंद्र अथवा द्वादषेष या द्वादष भाव शनि अथवा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो, तो लड़कों के लिए अर्क विवाह एवं लड़कियों के लिए कुंभ विवाह कराना चाहिए।


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आकस्मिक हानि

व्यक्ति के जीवन में कई बार आकस्मिक हानि प्राप्त हेाती है साथ ही कई बार योग्यता तथा सामथ्र्य होने के बावजूद जीवन में वह सफलता प्राप्त नहीं होती, जिसकी योग्यता होती है। इस प्रकार का कारण ज्योतिषषास्त्र द्वारा किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य,चन्द्रमा गुरु शनि अथवा इन से होने पर यह प्रभाव जातक के स्वयं के जीवन के अलावा यह दुष्प्रभाव उसके परिवार पर भी दिखाई देता है। अगर प्रथम भाव में राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होने पर परिवार में वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू सुख, मकान, वाहन तथा माता से संबंधित कष्ट पाता है। पंचम स्थान में होने पर उच्च शिक्षा में कमी तथा बाधा दिखाई देती है तथा संतान से संबंधित बाधा तथा दुख का कारण बनता है। अष्टम में होने पर आकस्मिक हानि, विवाद तथा न्यायालयीन विवाद, उन्नति तथा धनलाभ में बाधा देता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या नौकरी छूटना, सामाजिक अपयश अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। सामान्यत: चंद्रमा के साथ राहु का दोष होने पर माता, बहन या पत्नी से संबंधित पक्ष में कष्ट दिखाई देता है वहीं शनि के साथ राहु दोष होने पर पारिवारिक विषेषकर पैतृक दोष का कारण बनता है। सूर्य के आक्रांत होने पर आत्मा प्रभावित हेाता है, जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा सोच दूषित होती है। बुध के साथ राहु होने पर जडत्व दोष बनता है, जिसमें विकास तथा बुद्धि प्रभावित होती है। मंगल के साथ होने पर संतान से संबंधित पक्ष से कष्ट तथा गुरू के साथ होने पर शिक्षा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा संबंधित परेशानी दिखाई देती है। शुक्र के आक्रांत होने पर सुख प्राप्ति के रास्ते में बाधा आती है। इस प्रकार के दोष जातक की कुंडली में बनने पर जातक के जीवन में स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी,आर्थिक संकट, आय में बाधा, संतान से कष्ट अथवा वंशवृद्धि में बाधा, विवाह में विलंब तथा वैवाहिक जीवन में परेषानी, गुप्तरोग, उन्नति में कमी तथा अनावष्यक तनाव दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का दोष दिखाई दे तो अपनी कुंडली की विवेचना कराकर उसे पितृतर्पण, देवतर्पण, दानादि कर्म करना चाहिए। इस प्रकार के कार्य हेतु हिंदु धर्म संहिता में नारायणबली-नागबली कराने का विधान है। जिसमें तर्पण, दान एवं भोज द्वारा ग्रहदोषों के कष्ट से बचा जा सकता है।
स्थल निर्णय
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किंवदन्ति खास कारणों से प्रचरित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न. -22 में उद्धृत नारायण बली प्रकरण निर्णय में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तीर कराई जा सकती है अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है वैसे छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर तीर्थ में यह क्रिया शास्त्रोक्त है।
उपायों की सार्थकता
यह विधि करने की अविच्छिन्न परंपरा है। यह विधि विशेष कर संतानहीनता दूर करने के लिए संतति सुख प्राप्ति के लिए की जाती है। और इसके लिए पति पत्नी के शारीरिक दोष भी प्रमुख कारण हैं।
शरीर में दोष बाह्य कारणों से भी हो सकते हैं। बाह्य गर्मी सर्दी विकारों से शरीर में शितोष्ण बाधाएँ उत्पन्न होती है, ऐसा अनुभव है। उसी प्रकार अनपत्य के भी दो कारण हो सकते हैं। एक इंद्रियजन्य कारण, दूसरा इंद्रियातीत कारण हो सकते हैं। जो बात बुद्धि की समझ में नहीं आती, वहां बुद्धि की गती कुंठित हो जाती है, ऐसे समय मानव वेद शास्त्र का आधार लेता है, कारण हमारा वैदिक तत्वज्ञान अदृश्य कारणों का साध्य साधनों का अविष्कार वेदों में बतलाया गया है। वे वेद जिन ऋषियों ने लिखे हैं, उनहें मंत्रदृष्टा कहते हैं। उन मंत्र दृष्टा ऋषियों ने मानव कल्याण हेतु जो-जो कर्म बतलायें हैं, उनमें यह एक भाग है जिस समय शरीर दोष न होते हुए भी संतती प्राप्त नहीं होती है ऐसा अनुभव आता है। उस समय उसे अदृश्य कारण परंपरा का समन्वय कर वेदों ने यह अनुष्ठान बतलाया है।


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इस संसार से पलायन करने के दो मार्ग हैं- एक प्रकाश का और दूसरा अंधकार का।

इस संसार से पलायन करने के दो मार्ग हैं- एक प्रकाश का और दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता और अंधकार मार्ग से जाने वाले को पुन: लौट कर आना होता है। (गीता - 8/26)
हम इंसानों के पास गीता के अनुसार जीवन जीने के दो मार्ग हैं। एक प्रकाश का मार्ग और दूसरा अंधकार का मार्ग। ज्ञान, सतकर्म, भक्ति और धर्म पूर्वक जीवन यापन करना प्रकाश मार्ग है और अज्ञानता, दुष्कर्म, अनैतिकता और अधार्मिक रूप से जीवन जीने को अंधकार मार्ग कहते हैं। मनुष्य जीवन ही अपनी आत्मा को प्रकाशित करने के लिए मिला है। जो मनुष्य प्रकाश मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा को प्रकाशित कर लेता है वह अंतत: परमात्मा में मिल जाता है और जो इस अमूल्य जीवन को अंधकार के रास्ते से जीते हैं उन्हें पुन: किसी न किसी योनि में भटकने के लिए इस मृत्यु लोक में आना होता है। मतलब इस भौतिक जीवन में सफलता-असफलता, दु:ख-सुख के चक्कर में पड़े रहना होता है, स्थायी समृद्धि नहीं मिल पाती। अब जब हम यहाँ प्रकाश की बात कर रहे हैं तो अग्नि की बात स्वत: होगी, क्योंकि अग्नि ही प्रकाश का मूल स्रोत है। अग्नि संभवत: इस सृष्टि का पहला शब्द है क्योंकि हमारा पहला वेद ऋगवेद का पहला अक्षर अग्नि ही है और इसलिए यह सभी ज्ञान का भी मूल स्रोत है। गीता में भगवान कृष्ण ने इसे ज्ञानाग्नि कहा है। सृष्टि के निर्माण काल से ही अग्नि की महत्ता अक्षुण्ण रही है और अनंत काल से ही अग्नि की महिमा को अनेको ऋषियों, मुनियों, संतो ने गाये हैं, गा रहे हैं और गाते रहेंगे, फिर भी अग्नि की महिमा का अंत नहीं। इस पवित्र अग्नि से ही यह धरती हमेशा पावन होती रही है। इंसानों के सभी कर्मों की द्रष्टा और पापों का नाश करने वाली अग्नि ही है। वास्तव में अधिकतर मनुष्यों को इस रहस्य की जानकारी नहीं है कि हमारे वेदों में यह साफ-साफ निर्देश है कि चाहे मनुष्य किसी भी देवी देवता का पूजा-अर्चन कर ले, किसी की भी प्रार्थना कर ले, यज्ञ कर ले, कितना भी दान कर ले, सतकर्म कर ले परन्तु उसे तब तक उन सत्कर्मों का भी शुभ फल प्राप्त नहीं होगा जब तक कि अग्नि की कृपा उसके जीवन में नहीं मिलने लगती। मनुष्य जब तक अग्निरूपी प्रकाश के शरण में नहीं चला जाता तब तक उसके जीवन का दीया जगमगा नहीं सकता। अग्नि ही मनुष्य और परमात्मा के बीच का संदेश वाहक है। हमारे द्वारा किया जानेवाला पूजा-पाठ, यज्ञ,दान आदि को ईश्वर सीधे स्वीकार नहीं करते। पहले परमात्मा अग्नि के माध्यम से उस पूजा के पीछे की हमारी नियत और पवित्रता की परख कराते हैं और तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करते हैं। अग्नि की गवाही पर ही हमें हमारे भौतिक कर्मों का शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति होती है। यदि अग्नि की कृपा आप पर नहीं है तो कितनी ही पूजा पाठ क्यों न कर लें, खूब दान क्यों न दे दें, अनेको तीर्थों का दर्शन कर आयें पर वे महज शुष्क कर्मकांड हीं बने रहते हैं और उनका यथोचित लाभ हमारे जीवन में नहीं मिल पाता।
अग्नि-ज्ञान सर्वव्यापी है और वह जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी के संबंध में पूर्ण जानकारी रखता है। आपके संबंध में भी पूर्ण जानकारी अग्नि के पास ही है। आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं? कहाँ जायेंगे? इस दुनिया में परमात्मा ने आपको क्यों भेजा है? आदि आत्म ज्ञान केवल अग्नि के समक्ष ही प्रकट हो सकता है। इसीलिए इन्हें जातवेदा कहा गया है।
धी (बुद्धि) जो अग्नि के द्वारा ही उत्पन्न होती है और हमें सुन्दर जीवन जीने की योग्यता देती है। जीवन का संघर्ष जिसे हम आम बोल चाल की भाषा में अग्नि परीक्षा कहते है, में अग्नि ही कल्याणकारी के रूप में हमारी मदद करता है तथा जीवन के कठिन पथ (अग्नि पथ) पर चलते वक्त प्रकाश के रूप में हमारे पथ को प्रकाशित करता है जिससे हम सुगमता पूर्वक अपने परम लक्ष्य को पा लेते हैं। अग्नि, ऋतु (बदलते समय) का संरक्षक है और समय का बदलाव उसी के अधीन है। जब हमारे जीवन में बुरे दौर आते हैं, समय अनुकूल नहीं रह जाता, काल मंडराने लगता है तो अग्नि ही उस समय को बदल देने की क्षमता रखती हैं। अग्नि ही मनुष्यों के कर्मों को देखती है और पापों को नष्ट कर पवित्र बनाने की शक्ति केवल अग्नि में ही निहित है। अग्नि अंधकार (अज्ञानता, असमंजस, लक्ष्यविहीनता), निशाचर (नकारात्मकता, लोभ, इष्र्या, बुरी लत), जादू- टोना (बाहरी हवा, बुरी नजर, बुरा असर), राक्षस (बुरी प्रवृति, बाहरी दुश्मन एवं बुरे कर्म) तथा रोगों (शारीरिक एवं मानसिक) को दूर भगाने वाली कही गयी है। चूकि पाचन और शक्ति निर्माण की कल्पना अग्नि में ही निहित है इसलिए मनुष्यों का उपचारक तथा स्वास्थ्य प्रदाता भी अग्नि ही है। अग्नि के सात जिह्वा सातो ग्रहों का प्रतिनिधत्व करती है और सूर्य रूपी अति तेज प्रकाशित अग्नि से नियंत्रित होता है। सभी ग्रहों को अपने अनुरूप बनाने की योग्यता अग्नि के पास मौजूद है। अग्नि ही निराकार परमात्मा का साकार रूप है। वही ब्रह्मांड के अदृश्य शक्ति का इस धरती पर सदृश्य प्रतिनिधि है। सूर्य और दीपक दो प्रत्यक्ष अग्नि का रूप हमारे जीवन को प्रकाशित करने के लिए इस धरती पर मौजूद हैं। दीपक ही वह शक्ति है जो एक साथ मनुष्य और परमात्मा के साथ होता है। इसलिए इस भूलोक में केवल दीपक रूपी अग्नि ही वह माध्यम है, जो आत्मा को परमात्मा में मिला सकता है। ज्योति रूपी अग्नि सत्य का प्रतीक मानी गयी है। चाहे वह भौतिक सत्य हो या आध्यात्मिक सत्य, ज्योति के समक्ष सबकुछ प्रकट और दृश्यमान हो जाता है। उसके समक्ष कुछ भी अप्रकट या अदृश्य नहीं रह सकता। दीपक सोने का हो या मिटी का मूल्य दीपक का नहीं, उसका प्रकाश का होता है, जिसे कोई अँधेरा बुझा नहीं सकता। इसलिए आप कैसी भी परिस्थिति में हैं, जीवन कितना ही अंधकारमय क्यों न दिख रहा हो बस प्रकाश के निकट चले जाएँ, अग्नि के शरण में पहुँच जाएँ। समस्त कष्ट, दु:ख, चिंता, तनाव तत्क्षण विलीन होने लगेंगे एवं सुख, शांति तथा समृद्धि के नित्य नये द्वार खुलने लगेंगे। अग्नि गृहस्थ से लेकर संतो तक को संतुष्ठ करने वाली है, वह आपको भी संतुस्ट करेगी। विचारवान मनुष्य निश्चित ही प्रकाश को वरण करेंगे क्योंकि अग्नि के शरण में जाने वालों की कभी हार नहीं होगी। वह मनुष्य जो प्रकाश को वरण करेगा उसकी उपस्थिति मात्र से डर एवं बुराइयाँ दूर रहेंगी। उसके तेज के समक्ष मृत्यु भी डरेगी।



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क्या कहती है भाग्य रेखा

जब कोई अवसर हमारे हाथ से निकल जाता है तो हम कहते है कि यह हमारे भाग्य में नहीं था इसलिए यह नहीं हुआ और हम अपने भाग्य को कोसते हैं। भाग्य को दोष देने से पहले आप यह देखिये की आपकी हथेली में भाग्य रेखा क्या कह रही है। हस्त रेखीय ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि बनावट की दृष्टि से भाग्य रेखा लगभग सात प्रकार की होती है और उनका अलग अलग प्रभाव होता है। बनावट की दृष्टि से भाग्य रेखा के प्रकार क्रमश इस प्रकार है -
1.गहरी रेखा -
हाथ में भाग्य रेखा गहरी है तो यह इस बात का संकेत है कि आपको अपने भाग्य की मदद से पैतृक सम्पत्ति और विभिन्न प्रकार के लाभ मिलेंगे। आपकी उन्नति में आपके बुजुर्गों का सहयोग रहेगा।
2.कमजोर रेखा -
भाग्य रेखा कमजोर होने से इस बात का संकेत मिलता है कि आपको जीवन में असफलताओं एवं मुश्किलों का सामना करना होगा। आपकी जिन्दग़ी में निराशा के बादल छाये रहेंगे। लेकिन अगर आपके हाथ में सूर्य रेखा मजबूत है तो आप सफलता प्राप्त कर सकते हैं, इसी प्रकार अन्य रेखाओं एवं पर्वतों के प्रभाव से भी परिणाम बदल सकता है।
3.विभाजित रेखा -
भाग्य रेखा अगर दो भागों में विभाजित हो या टूटकर अंग्रेजी के ङ्घ की तरह दिखे तो यह द्वंद की स्थिति बनाता है यानी आप अपना लक्ष्य सही प्रकार से निर्घारित नहीं कर पाते हैं और मन में उठते विचारों से लड़ते हैं। एक शब्द में कहें तो आप दो नाव की सवारी करते हैं।
4.आड़ी तिरछी रेखा -
हथेली में भाग्य रेखा अगर आड़ी तिरछी हो तो समझ लीजिए आपकी जिन्दगी में काफी उतार-चढ़ाव व परिवर्तन आने वाला हैं। आप जीवन में संघर्ष और बाधाओं को पार करके ही अपने भाग्य का फल प्राप्त कर पाएगे। आपको आसानी से कुछ भी मिलने वाला नहीं है। इस प्रकार की रेखा यह भी बताती है कि आप निर्णय की घड़ी में उहापोह में रहते हैं अर्थात क्या करें क्या न करें वाली स्थिति आपकी हो जाती है।
5.टूटी रेखा -
भाग्य रेखा अगर टूटी हुई है तो जहां पर यह रेखा टूटी है वहां पर आपको खतरा हो सकता है अर्थात उस उम्र में आपके साथ कोई दुर्घटना घट सकती है अथवा आप गंभीर रूप से बीमार हो सकते हैं। कुल मिलाकर कहा जाय तो उम्र के इस पड़ाव में कुछ भी ऐसा हो सकता है जिससे जीवन पर संकट आ सकता है। आपका यह समय कष्टमय रहेगा।
6.जंजीरदार या लहरदार रेखा -
भाग्य रेखा जंजीरदार या लहरदार हो तो यह इस बात का संकेत है कि आपके कार्यो में उतार चढ़ाव बना रहेगा, आप सफलता और असफलता के बीच हिचकोले खाते रहेंगे। आपका काम कभी तो असानी से बन जाएगा तो कभी छोटा मोटा काम निकलवाने के लिए भी आपको कड़ी मेहनत करनी होगी।
7.अदृश्य रेखा -
यह जरूरी नहीं कि जिनकी हथेली में भाग्य रेखा होती है उन्हीं का भाग्य होता है, जिनकी हथेली में भाग्य रेखा नहीं होती है उनका भी भाग्य होता है ऐसा हस्त रेखा विज्ञान कहता है। जिनकी हथेली में भाग्य रेखा नहीं होती है उनका भाग्य अन्य रेखाओं के आंकलन के आधार पर ज्ञात किया जाता है। कह सकते हैं कि, जिनकी हथेली में भाग्य रेखा नहीं दिखती हो उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है।
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आर्द्रा नक्षत्र

वैदिक ज्योतिष के अनुसार कुंडली से की जाने वाली गणनाओं के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले सताइस नक्षत्रों में से आर्द्रा नक्षत्र को छठा नक्षत्र माना जाता है। आर्द्र का शाब्दिक अर्थ है नम तथा आर्द्रा का शाब्दिक अर्थ है नमी और इस नमी को विभिन्न वैदिक ज्योतिषी भिन्न भिन्न क्षेत्रों से जुड़े भिन्न अर्थों के साथ जोड़ते हैं। कहीं इस नमी को वर्षा के पश्चात सूर्य की तीव्र किरणों का कारण वातावरण में आने वाली नमी माना जाता है तो कहीं आंख में आने वाले आंसूओं को भी इस नमी के साथ जोड़ा जाता है। आर्द्रा नक्षत्र परिवर्तन तथा नवीकरण को दर्शाता है तथा कई बार यह परिवर्तन कुछ अनचाही घटनाओं के फलस्वरुप होता है। उदाहरण के लिए, खेती के लिए सबसे अधिक उपजाऊ भूमि का निर्माण ज्वालामुखी फटने का बाद उसके लावे के ठंडे हो जाने से बनने वाली भूमि से ही होता है जबकि ज्वालामुखी का फटना अपने आप में एक अनचाही घटना है तथा कई बार ज्वालामुखी फटने के कारण जान माल की बहुत हानि भी हो सकती है। इस प्रकार वैदिक ज्योतिष के अनुसार आर्द्रा उस परिवर्तन को दर्शाता है जिसके आने का कारण कोई अनचाही तथा भयावह घटना हो सकती है।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार भगवान शिव के रुद्र रुप को आर्द्रा नक्षत्र का अधिपति देवता माना जाता है। रुद्र भगवान शिव का उग्र तथा प्रलयंकारी रुप माना जाता है तथा यह माना जाता है कि जब जब भगवान शिव रुद्र रुप धारण करते हैं, किसी न किसी प्रकार की प्रलयंकारी घटना अथवा विनाशलीला अवश्य होती है। किन्तु कुछ वैदिक विद्वान इस बात की तरफ भी संकेत करते हैं कि भगवान शिव के रुद्र रुप के द्वारा आने वाली तबाही तथा विनाश अंत मे सदा जन हित में ही होते हैं। इस प्रकार सूक्षमता से विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि जब जब सृष्टि में परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है तथा यह परिवर्तन किसी ऐसी घटना के घटने से ही हो सकता है जिसे प्रलय अथवा विनाश के साथ जोड़ कर देखा जाता है, तब तब भगवान शिव अपने रुद्र रुप में प्रकट होकर उस प्रलयंकारी घटना के माध्यम से परिवर्तन को जन्म देते हैं। भगवान शिव के रुद्र रुप के ये गुण आर्द्रा नक्षत्र के माध्यम से प्रदर्शित होते हैं जिसके कारण इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक स्वभाव से उग्र देखे जाते हैं तथा ऐसे जातक अपने जीवन में कई बार ऐसे कार्य कर देते हैं जिन्हें सभ्य समाज सामान्यतया उग्र अथवा भीषण मानता है किंतु आर्द्रा के जातक बिना किसी की चिंता किए अपने निश्चित किए हुए कार्यों को पूर्ण करने की कला में निपुण होते हैं। इसी प्रकार आर्द्रा नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक भगवान शिव के रुद्र रूप के अन्य कई गुणों को भी प्रदर्शित करते हैं जिनमें वीरता, त्याग, भौतिक वस्तुओं के प्रति अधिक आकर्षित न होने का गुण, क्रोध तथा अपने आप में ही मग्न रहने का गुण भी शामिल है।
आर्द्रा नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक जिज्ञासु प्रवृति के होते हैं तथा इनमें विश्लेषण करने की क्षमता भी प्रबल होती है। आर्द्रा के जातक प्रत्येक मामले की जड़ तक जाने की चेष्टा करते हैं तथा इन्हें प्रत्येक मामले के छोटे से छोटे पक्ष के बारे में भी जानकारी रखने की आदत होती है। आर्द्रा के जातकों की मानसिक स्थिति बहुत तीव्रता के साथ बदल सकती है जिसके चलते ये जातक कई बार अप्रत्याशित हो जाते हैं। ऐसे जातक बहुत शीघ्रता के साथ ही उग्र हो जाते हैं तथा कई बार अपनी इस उग्रता के चलते ये जातक दूसरे व्यक्ति को हानि भी पहुंचा देते हैं। आर्द्रा के जातक सामान्य तौर पर वीर होते हैं तथा ये जातक किसी का सामना करने के लिए, वाद विवाद करने के लिए, तर्क वितर्क करने के लिए, लड़ाई झगड़ा करने के लिए तथा युद्ध करने के लिए भी तत्पर रहते हैं। आर्द्रा के जातक खोजी प्रवृति के होते हैं तथा साथ ही साथ ये जातक अच्छे निरीक्षक तथा समीक्षक भी होते हैं।

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क्या आप बच्चे के अति आक्रामकता से परेशन है?

किसी जातक की प्रकृति अथवा उसका मूलभूत व्यवहार उसके जन्म के समय से ही निर्धारित हो जाता है। कुछ गंभीर किस्म के तो कुछ लगातार क्रियारत रहने की प्रवृत्ति वाले होते हैं। अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को सचिन तेंदुलकर या महेंद्र सिंह धोनी जैसी प्रसिद्धि तो दिलाना चाहते हैं किंतु उनके बचपन में लगातार खेलने की प्रवृत्ति से परेशान होकर उसे शिक्षा में अच्छे प्रदर्षन को लेकर परेशान रहते हैं किंतु सभी जातक की प्रकृति अलग होती है। अत: अगर आपका बच्चा लगातार खेलते रहने आदि हो अथवा खेल में उसकी विशेेष रूचि हो तो आपको परेशान होने की अपेक्षा किसी विद्धान ज्योतिष से अपने बच्चे की कुंडली दिखाकर उसकी अभिरूचि की जानकारी प्राप्त कर उस क्षेत्र में उसके प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त कर उसे जीवन में सफलता प्रदान करने में सहयोग देना चाहिए। वर्तमान काल में खेल से धन शोहरत के साथ अपार लोकप्रियता तथा बड़ी-बड़ी कंपनियों से अनुबंध के साथ धन तथा नौकरी का लाभ भी प्राप्त होता है। खेल में कैरियर बनाने तथा उस खेल से सफलता प्राप्ति हेतु ग्रह, ग्रह संबंध, ग्रह दृष्टि, भावेश से संबंध, ग्रह दशाएं आदि के द्वारा खेल में सफल कैरियर तथा सफलता के उपाय आजमाकर धन तथा यश प्राप्त किया जा सकता है। खेल में ताकत तथा साहस का सबसे बड़ा योगदान होता है। साहस का संबंध ज्योतिषीय दृष्टिकोण से मंगल से माना जाता है।
भारतीय वैदिक ज्योतिष में मंगल को मुख्य तौर पर ताकत और आक्रमण का कारक माना जाता है। मंगल के प्रबल प्रभाव वाले जातक आमतौर पर दबाव से ना डरने वाले तथा अपनी बात हर प्रकार से मनवाने में सफल रहते हैं। मंगल से मानसिक क्षमता, शारीरिक बल और साहस वाले कार्यक्षेत्र होते हैं। मंगल शुष्क और आग्नेय ग्रह है तथा मानव के शरीर में अग्नि तत्व का प्रतिनिधि करता है तथा रक्त एवं अस्थि का प्रतीक होता है। मंगल पुरूष राशि को प्रदर्शित करता है। मकर राशि में सर्वाधिक बलशाली तथा उच्च का होता है। मंगल के निम्न प्रकार से उच्च या अनुकूल होने पर बालक पर मंगल की आक्रामकता का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। जिसके कारण बालक उर्जा से भरपूर तथा तेज होता है, जिससे तर्कशक्ति, विवाद तथा खेल में विशेष रूचि होती है। जिसके कारण उसमें आक्रामकता का ज्यादा प्रभाव होने से नियंत्रित तथा अनुशासित रख पाना कठिन होता है। यदि बच्चा अपने को बच्चा ना समझ बहकाव की दिषा में अग्रसर हो तो किसी विद्धान ज्योतिष से कुंडली में मंगल की स्थिति का विश्लेषण कराकर मंगलस्तोत्र का पाठ, तुला दान तथा मंगल की शांति कराना लाभकारी होता है। स्वअनुशासन में रखने हेतु बचपन से अपने बच्चे को हनुमान चालीसा का जाप करने की आदत डालना भी अच्छा होगा।
मंगल यदि कुुंडली में बलवान होकर पराक्रमभाव या भावेश, कर्मभाव या भावेष से मित्र संबंध बनाता हो, तो जातक साहसी खिलाड़ी बनने की योग्यता रखता है साथ ही अगर लग्न या लग्नेश से संबंध बने तो जातक हष्ट-पुष्ट जुझारू भी होता है। खेल के प्रकार के अनुरूप ग्रह स्थिति अनुकूल होने पर खेल में यश तथा धन की प्राप्ति का योग बनता है। क्रिकेट या हॉकी जैसे दौड-भाग वाले खेलों में षष्ठेष तथा अष्टमेष बलवान होने के साथ भाग्येष अनुकूल होना आवश्यक होता है वहीं दिमागी खेल शतरंज जैसे खेल में एकाग्रता के साथ बुद्धि की चपलता का होना आवश्यक हेाता है तब लग्न, तृतीयेष, पंचमेष के साथ एकादशेष का उच्च होना जरूरी होता है। यदि खेल से संबंधित ग्रहों का संबंध दषमेष से बने तो उस खेल में नेतृत्व प्राप्ति का संयोग भी बनता है। इस प्रकार खेल में कैरियर की संभावना तलाशने से पूर्व अपनी ग्रह स्थिति और अनुकूल दशाओं का अध्ययन कर उपयुक्त उपाय आजमाने से प्रसिद्धि तथा धन प्राप्त किया जा सकता है। खेल में प्रसिद्धि प्राप्त करने हेतु मंगल का व्रत, दान करने से भी सफलता प्राप्त होता है।

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गर्भपात (संतान हानि) - एक ज्योतिष विश्लेषन

विवाह के बाद प्रत्येक व्यक्ति ना सिर्फ वंश पंरपरा को बढ़ाने हेतु अपितु अपनी अभिलाषा तथा सामाजिक जीवन हेतु संतान सुख की कामना करता है। शादी के दो-तीन साल तक संतान का ना होना संभावित माना जाता है किंतु उसके उपरांत सुख का प्राप्त ना होना कष्ट देने लगता है पिता बनने की आकांक्षा हर व्यक्ति का स्वभावत: रहता है वहीं हर स्त्री के मन मे अलक्षित रूप से मातृत्व के लिए उत्सुकता विद्यमान होती है। यह प्रकृति का सहज रूप है, इसमें कोई अवरोध है तो इसका कारण क्या है इसका विष्लेषण कई बार चिकित्सकीय परामर्श द्वारा प्राप्त किया जाना संभव नहीं होता है किंतु ज्योतिषीय आकलन से इसका कारण जाना जा सकता है। चूॅकि ज्योतिष एक सूचना शास्त्र है जिसमें ग्रहों के माध्यम से एक विष्लेषणात्मक संकेत प्राप्त होता है अत: ग्रहों की स्थिति तथा दशाओं के आकलन से कारण जाना जा सकता है। उसमें भी यदि संतान सुख में बाधा गर्भपात का हो तो मानसिक संत्रास बहुत ज्यादा हो जाती है। कई बार चिकित्सकीय परामर्श अनुसार उपाय भी कारगर साबित नहीं होते हैं किंतु ज्योतिष विद्या से संतान सुख में बाधा गर्भपात का कारण ज्ञात किया जा सकता है तथा उस बाधा से निजात पाने हेतु ज्योतिषीय उपाय लाभप्रद होता है। सूर्य, शनि और राहु पृथकताकारक प्रवृत्ति के होते हैं। मंगल में हिंसक गुण होता है, इसलिए मंगल को विद्यटनकारक ग्रह माना जाता है। यदि सूर्य, शनि या राहु में से किसी एक या एक से अधिक ग्रहों का पंचम या पंचमेष पर पूरा प्रभाव हो तो गर्भपात की संभावना बनती है। इसके साथ यदि मंगल पंचम भाव, पंचमेष या बृहस्पति से युक्त या दृष्ट हो तो गर्भपात का होना दिखाई देता है। संतान संबंधी ज्ञान कुंडली के पंचम भाव से जाना जाता है अत: पंचम स्थान का स्वामी, पंचमस्थ ग्रह और उनका स्वामित्व तथा संतानकारक ग्रह बृहस्पति की स्थिति से संतान संबंधी बाधा या विलंब को ज्ञात किया जा सकता है। पंचमेष यदि 6, 8या 12 भाव में हो तो संतानपक्ष से चिंता का द्योतक होता है। जिसमें संतान का ना होना, बार-बार गर्भपात से संतान की हानि, अल्पायु संतान या संतान होकर स्वास्थ्य या कैरियर की दृष्टि से कष्ट का पता लगाया जा सकता है। पंचम भाव में बृहस्पति हो तो भी उस स्थान की हानि होती है चूॅकि ''स्थानहानिकरो जीव: गुरू की अपनी स्थान पर हानि का कारक होता है अत: पंचम में गुरू संतान से संबंधी हानि दे सकता है। पंचम भाव पर मंगल की दृष्टि या राहु से आक्रांत होना भी संतान से संबंधित कष्ट देता है। संतान से संबंधित कष्ट से राहत हेतु आषुतोष भगवान षिव मनुष्यों की सभी कामनाएॅ पूर्ण करते हैं अत: संतानसुख हेतु पार्थिवलिंगार्चन और रूद्राभिषेक से संतान संबंधी बाधा दूर होती है। संतान गोपाल का अनुष्ठान और मंगल का व्रत करना चाहिए।

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