शुक्र-यदि शुक्र उच्च राशि, स्वरराशि, शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट होकर कारक हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में अतीव शुभ फल प्रदान करता है | जातक सामान्य श्रम करके ही भरपूर लाभ प्राप्त कर लेता है । विद्यार्थियों को विशेषत: सहज ही उत्तम विद्या एवं सफलता प्राप्त हो जाती है । उच्च शिक्षा अथवा शोध कार्य के लिए विदेशवास करना होता है । विवाह की अपेक्षा प्रेम-प्रसंग बनाने में रुचि रहती है और सफलता भी मिलती है । श्रृंगारिक वस्तुओं एवं स्वय के रख ररवाव पर अधिक धन व्यय होता है । अनायास घन निलता है । यदि शुक्र पंचमेश से युक्त हो या अष्टम में मंगल से युक्त हो तो भूमि से, लाटरी व सट्टे से धनागमन होता है। अशुभ शुक्र की अन्तर्दशा में आर्थिक हानि होती है । विषयासक्त चित्त के कारण लोक-समाज से निन्दा तथा धनहानि, गृहकलह से मनस्ताप, शुक्रमेह, घातुक्षीणता, बल तथा ओज का क्षय हो जाता है। अपेक्षाकृत यह समय अच्छा ही रहता है।
सूर्य-शुक्र और सूर्य नैसर्गिक शत्रु हैं, सूर्य शुभावस्था से तथा पंचघा मैत्री में सम हो तो शुक्र महादशा में सूर्य अन्तर्दशा का मिश्रित फल प्राप्त होता है। जातक को कवि-व्यवसाय से लाभ, उच्चवर्गीय लोगों से मेल-जोल तथा पैतृक सप्पत्ति से लाभ मिलता है । चित्त में आकुलता, मलिनता बनी रहती है, शिरोवेदना और नेत्र कष्ट प्राय होते रहते हैं, पठन-पाठन से मन रमता नहीं, फ़लत: जैसे-जैसे परीक्षा में सफलता मिलती है । अशुभ सूर्य की अन्तर्दशा में माता-पिता से कलह, भाइयों को कष्ट मिलता है । शय्या सुख में कमी आ जाती है अथवा वह नष्ट हो जाता है। व्यर्थ में लोगों से शत्रुता बनती है, अनेक समस्याएं, बाधाएं उपस्थित होती हैं, जिनका निराकरण करते-करते जातक थक जाता है। मन्दाग्नि, जिगर एव प्रमेह के रोगों से देहपीड़ा मिलती है।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वराशिस्थ या पूर्ण बलवान व शुभ ग्रहों से युक्त या दुष्ट हो तथा कारक होकर शुभ भावस्थ हो तो शुक्र महादशा में अपनी अन्तर्दशा व्यतीत होने पर शुभ फल देता है । व्यापार-व्यवसाय में विशेषत: श्वेत वस्तुओं और श्रृंगारिक वस्तुओं के व्यापार से लाभ निलता है। कामवासना प्रबल और अनेक रमंणियों से रमण के अवसर मिलते हैं । कला की ओर विशेष रुझान होता है तथा जातक कला, कविता, काव्य आदि के क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर धन-मान-सम्मान पा लेता है। यदि शुक्र चतुर्थेश हो तो उत्तम वाहन एव जानदार के कारण चुनाव में विजय होती है । अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की अन्तर्दशा में कामकुंठाएं त्रस्त करती हैं । मोह, लोभ, मत्सर, ईष्यों आदि के कारण निन्दा होती है। मस्तिष्क में उष्णता के कारण पागल होने की आशंका रहती है । नख, हड्डी के रोग, रक्ताल्पता, कामता आदि रोग देह को क्षीण कर देते है।
मंगल-यदि मंगल परमोच्च, स्वक्षेत्री, शुभ ग्रह से युक्त होकर केन्द्र,त्रिकोण में सप्त बल युक्त हो और शुक्र महादशा में ऐसे मंगल की अन्तर्दशा हो तो जातक अनेक प्रकार से भूमि, वस्त्राभूषण एव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । साहसिक एव परक्रमयुक्त कार्यों में विशेष रुचि लेकर राजकीय मान-सम्मान एवं पारितोषक प्राप्त करता है ।
वाद-विवाद मेँ विजय, सैन्य अथवा पुलिसकर्मियों को पदोन्नति एव पदक तथा अन्यो को वेतनवृद्धि होती है। वासनामय विचार कुष्ठाग्रस्त करते है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा से जातक में कामवासना इतनी उद्दीप्त हो उठती है कि वह बलात्कार तक कर बैठता है, देश काल और परिस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता, फलत: लोकनिंदा तो होती ही है सामाजिक दण्ड भी मिलता है । लडाई-झगड़ों में पराजय, वात-पित्तजन्य रोग जैसे उदर शूल अमलपित, मन्दाग्नि, रक्तचाप, जोडों से दर्द तथा रक्तचिकार आदि देह को पीडा पहुंचाते है।
राहु-यदि शुक्र महादशा से राहु की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही हो तो शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते है। जातक के मन में अस्थिरता बन जाती है । क्या करू, क्या न करूँ की स्थिति बनती है, आकस्मिक रूप में अर्थलाभ होता है, शत्रु का पराभव होता है, इष्टसिद्धि का लाभ तथा घर में मांगलिक कार्य होते है। मनोत्साह में वृद्धि,नीले रंग की वस्तुओ, मुर्दा पशुओं के कार्य से लाभ मिलता' है। ये शुभ फल दशा के प्रारम्भ से मिलते हैं, अन्त में अशुभ पाल प्राप्त होते है। जातक धर्म-कर्म विहीन हो जाता है, इष्ट-मित्रों एवं परिजनों से व्यर्थ में विवाद, कार्यनाश, स्थानच्युति, गोरी में हो तो कई बार स्थानान्तरण होता है । मन में उडेग, चित्त में सन्ताप, इर्षा, द्वेष जैसे दुर्गमं पनपते है। भोजन की व्यवस्था तक में कठिनाई आती है, अशुभ संवाद सुनने को मिलते है।
बृहस्पति- यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो शुभ फल ही अपनी अन्तर्दशा से प्रदान करेगा । ऐसा प्राचीन परियों का मत है, लेकिन अनुभव में इसके विपरीत शुभ फल दशा के अन्त में क्या अशुभ फल दशा के आरम्भ मिलते हैं । जातक धर्माचरण दिखावे के लिए करता है, विपयवासना बढ़ जाती है और छिपकर प्रेमालाप करता है। देहरोगों से पीडित, गृहकलह के कारण चित्त को परिताप पहुँचता है । विधोपार्जन, इष्टसिद्धि, प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मिलती है, न्यायवादी, जज आदि पद मिलते है । मन्त्रणाशक्ति प्रबल होती है। प्रबन्धक के कार्य में सफलता मिलती है । धन-वाहन का पूर्ण सुख मिलता है, भोग-विलास में रुचि तो रहती है, लेकिन फूहडपन नहीं, पात्र उत्कृष्ट, कुलीन-शालीन लोगों से ही मेल-मिताप रखने की इच्छा बनती है। स्त्री, पुत्र एवं परिवार का पूर्ण सहयोग एवं सुख मिलता है।
शनि-शुक्र महादशा से शनि की अन्तर्दशा प्राय: अशुभ फल ही प्रदान करती हे, लेकिन यदि शनि कारक होकर उच्च राशि, स्वराशि और शुभ ग्रहों से दुष्ट हो तो उत्तम फ़ल भी मिलते है । जातक इस दशा में यथेष्ट स्थावर संपत्ति का अर्जन कर लेता है। इस कृत्य से लोकोंपवाद, देह को आधि-व्याधि से पीडा एवं आलस्य का प्रादुर्भाव होता है । राजा के समान वैभव प्राप्त कर जातक भाग्यशालियों में गिना जाता है।नीच और अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक अवनति के गर्त में डूब जाता है । स्त्रीसुख की हानि, संतान को कष्ट, कार्य-व्यवसाय का नाश हो जाता है । खाने के भी लाले पड़ जाते हैं तथा नीयत भिक्षा मांगने तक आ जाती है । किसी प्रियजन की मृत्यु से मन को सन्ताप तथा गठिया, वातव्याधि, उदर शूल एव शुक्रक्षय आदि रोग हो जाते हैं । जीवन भार अनुभव होने लता है और आत्मघात की इच्छा बनती है।
बुध-यदि बुध शुभ, उच्चादि राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो तो जातक इसकी अन्तर्दशा में पूर्व में पाए कामों से सुख की सास लेता है। परीक्षार्थी उत्तम श्रेणी पाते हैं,गणित में यशस्वी होते हैं । व्यापारी वर्ग को व्यवसाय में उत्तम लाभ मिलता है, नौकरी करने वालों को उच्चाधिकारियों का अनुग्रह तथा पद और वेतन में वृद्धि होती है । राजकीय सम्मान मिलता है । जातक धर्म-कर्म के कार्यों में भाग लेता है तथा परिजनों का स्नेहभाजन बना रहता है । अशुभ बुध की अन्तर्दशा में जातक युवक हो अथवा वृद्ध परस्त्री संग को लालायित रहता है और करता भी है, अपने वर्ग और समाज में अपकीर्ति होती है । पशुधन का नाश, व्यापार में घाटा, नौबत दीवालिया हो जाने तक आ जाती है, पुत्री के विवाह में विघ्न आते हैं अथवा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
केतु-केतु की अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते हैं । केतु के अशुभ होने पर अत्यन्त निकृष्ट फलों की प्राप्ति होती है। शुभ केतु की अन्तर्दशा के प्रारम्भ में जातक को शुभ समाचार मिलते हैं, मिष्ठान्न, उत्तम वस्त्राभूषण, उत्तम वाहन एव आवास की प्राप्ति होती है । सट्टा, रेस, लाटरी आदि से यदा-कदा लाभ मिलता है । काष्ठ, फूस आदि के व्यवसाय से लाभ निलता है। अशुभ केतु हो तो जातक नीच कर्म में रत रहता है, बुद्धि में अस्थिरता आ जाती है । इष्ट-मित्रों से झगडे होते हैं, मुकदमों में पराजय, किसी के निधन से मानसिक सन्ताप, दुर्घटना में अंग-भंग होने की आशंका, विषपान, सर्पदंश, कुत्ते के काटने से अपमृत्यु का भय बनता है। उदर शूल, सन्धिवात, शुक्रमेह आदि रोग व अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं तथा जातक मृत्यु को जीवन से श्रेष्ठ मान आत्मघात तक कर लेता है।
सूर्य-शुक्र और सूर्य नैसर्गिक शत्रु हैं, सूर्य शुभावस्था से तथा पंचघा मैत्री में सम हो तो शुक्र महादशा में सूर्य अन्तर्दशा का मिश्रित फल प्राप्त होता है। जातक को कवि-व्यवसाय से लाभ, उच्चवर्गीय लोगों से मेल-जोल तथा पैतृक सप्पत्ति से लाभ मिलता है । चित्त में आकुलता, मलिनता बनी रहती है, शिरोवेदना और नेत्र कष्ट प्राय होते रहते हैं, पठन-पाठन से मन रमता नहीं, फ़लत: जैसे-जैसे परीक्षा में सफलता मिलती है । अशुभ सूर्य की अन्तर्दशा में माता-पिता से कलह, भाइयों को कष्ट मिलता है । शय्या सुख में कमी आ जाती है अथवा वह नष्ट हो जाता है। व्यर्थ में लोगों से शत्रुता बनती है, अनेक समस्याएं, बाधाएं उपस्थित होती हैं, जिनका निराकरण करते-करते जातक थक जाता है। मन्दाग्नि, जिगर एव प्रमेह के रोगों से देहपीड़ा मिलती है।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वराशिस्थ या पूर्ण बलवान व शुभ ग्रहों से युक्त या दुष्ट हो तथा कारक होकर शुभ भावस्थ हो तो शुक्र महादशा में अपनी अन्तर्दशा व्यतीत होने पर शुभ फल देता है । व्यापार-व्यवसाय में विशेषत: श्वेत वस्तुओं और श्रृंगारिक वस्तुओं के व्यापार से लाभ निलता है। कामवासना प्रबल और अनेक रमंणियों से रमण के अवसर मिलते हैं । कला की ओर विशेष रुझान होता है तथा जातक कला, कविता, काव्य आदि के क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर धन-मान-सम्मान पा लेता है। यदि शुक्र चतुर्थेश हो तो उत्तम वाहन एव जानदार के कारण चुनाव में विजय होती है । अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की अन्तर्दशा में कामकुंठाएं त्रस्त करती हैं । मोह, लोभ, मत्सर, ईष्यों आदि के कारण निन्दा होती है। मस्तिष्क में उष्णता के कारण पागल होने की आशंका रहती है । नख, हड्डी के रोग, रक्ताल्पता, कामता आदि रोग देह को क्षीण कर देते है।
मंगल-यदि मंगल परमोच्च, स्वक्षेत्री, शुभ ग्रह से युक्त होकर केन्द्र,त्रिकोण में सप्त बल युक्त हो और शुक्र महादशा में ऐसे मंगल की अन्तर्दशा हो तो जातक अनेक प्रकार से भूमि, वस्त्राभूषण एव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । साहसिक एव परक्रमयुक्त कार्यों में विशेष रुचि लेकर राजकीय मान-सम्मान एवं पारितोषक प्राप्त करता है ।
वाद-विवाद मेँ विजय, सैन्य अथवा पुलिसकर्मियों को पदोन्नति एव पदक तथा अन्यो को वेतनवृद्धि होती है। वासनामय विचार कुष्ठाग्रस्त करते है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा से जातक में कामवासना इतनी उद्दीप्त हो उठती है कि वह बलात्कार तक कर बैठता है, देश काल और परिस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता, फलत: लोकनिंदा तो होती ही है सामाजिक दण्ड भी मिलता है । लडाई-झगड़ों में पराजय, वात-पित्तजन्य रोग जैसे उदर शूल अमलपित, मन्दाग्नि, रक्तचाप, जोडों से दर्द तथा रक्तचिकार आदि देह को पीडा पहुंचाते है।
राहु-यदि शुक्र महादशा से राहु की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही हो तो शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते है। जातक के मन में अस्थिरता बन जाती है । क्या करू, क्या न करूँ की स्थिति बनती है, आकस्मिक रूप में अर्थलाभ होता है, शत्रु का पराभव होता है, इष्टसिद्धि का लाभ तथा घर में मांगलिक कार्य होते है। मनोत्साह में वृद्धि,नीले रंग की वस्तुओ, मुर्दा पशुओं के कार्य से लाभ मिलता' है। ये शुभ फल दशा के प्रारम्भ से मिलते हैं, अन्त में अशुभ पाल प्राप्त होते है। जातक धर्म-कर्म विहीन हो जाता है, इष्ट-मित्रों एवं परिजनों से व्यर्थ में विवाद, कार्यनाश, स्थानच्युति, गोरी में हो तो कई बार स्थानान्तरण होता है । मन में उडेग, चित्त में सन्ताप, इर्षा, द्वेष जैसे दुर्गमं पनपते है। भोजन की व्यवस्था तक में कठिनाई आती है, अशुभ संवाद सुनने को मिलते है।
बृहस्पति- यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो शुभ फल ही अपनी अन्तर्दशा से प्रदान करेगा । ऐसा प्राचीन परियों का मत है, लेकिन अनुभव में इसके विपरीत शुभ फल दशा के अन्त में क्या अशुभ फल दशा के आरम्भ मिलते हैं । जातक धर्माचरण दिखावे के लिए करता है, विपयवासना बढ़ जाती है और छिपकर प्रेमालाप करता है। देहरोगों से पीडित, गृहकलह के कारण चित्त को परिताप पहुँचता है । विधोपार्जन, इष्टसिद्धि, प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मिलती है, न्यायवादी, जज आदि पद मिलते है । मन्त्रणाशक्ति प्रबल होती है। प्रबन्धक के कार्य में सफलता मिलती है । धन-वाहन का पूर्ण सुख मिलता है, भोग-विलास में रुचि तो रहती है, लेकिन फूहडपन नहीं, पात्र उत्कृष्ट, कुलीन-शालीन लोगों से ही मेल-मिताप रखने की इच्छा बनती है। स्त्री, पुत्र एवं परिवार का पूर्ण सहयोग एवं सुख मिलता है।
शनि-शुक्र महादशा से शनि की अन्तर्दशा प्राय: अशुभ फल ही प्रदान करती हे, लेकिन यदि शनि कारक होकर उच्च राशि, स्वराशि और शुभ ग्रहों से दुष्ट हो तो उत्तम फ़ल भी मिलते है । जातक इस दशा में यथेष्ट स्थावर संपत्ति का अर्जन कर लेता है। इस कृत्य से लोकोंपवाद, देह को आधि-व्याधि से पीडा एवं आलस्य का प्रादुर्भाव होता है । राजा के समान वैभव प्राप्त कर जातक भाग्यशालियों में गिना जाता है।नीच और अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक अवनति के गर्त में डूब जाता है । स्त्रीसुख की हानि, संतान को कष्ट, कार्य-व्यवसाय का नाश हो जाता है । खाने के भी लाले पड़ जाते हैं तथा नीयत भिक्षा मांगने तक आ जाती है । किसी प्रियजन की मृत्यु से मन को सन्ताप तथा गठिया, वातव्याधि, उदर शूल एव शुक्रक्षय आदि रोग हो जाते हैं । जीवन भार अनुभव होने लता है और आत्मघात की इच्छा बनती है।
बुध-यदि बुध शुभ, उच्चादि राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो तो जातक इसकी अन्तर्दशा में पूर्व में पाए कामों से सुख की सास लेता है। परीक्षार्थी उत्तम श्रेणी पाते हैं,गणित में यशस्वी होते हैं । व्यापारी वर्ग को व्यवसाय में उत्तम लाभ मिलता है, नौकरी करने वालों को उच्चाधिकारियों का अनुग्रह तथा पद और वेतन में वृद्धि होती है । राजकीय सम्मान मिलता है । जातक धर्म-कर्म के कार्यों में भाग लेता है तथा परिजनों का स्नेहभाजन बना रहता है । अशुभ बुध की अन्तर्दशा में जातक युवक हो अथवा वृद्ध परस्त्री संग को लालायित रहता है और करता भी है, अपने वर्ग और समाज में अपकीर्ति होती है । पशुधन का नाश, व्यापार में घाटा, नौबत दीवालिया हो जाने तक आ जाती है, पुत्री के विवाह में विघ्न आते हैं अथवा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
केतु-केतु की अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते हैं । केतु के अशुभ होने पर अत्यन्त निकृष्ट फलों की प्राप्ति होती है। शुभ केतु की अन्तर्दशा के प्रारम्भ में जातक को शुभ समाचार मिलते हैं, मिष्ठान्न, उत्तम वस्त्राभूषण, उत्तम वाहन एव आवास की प्राप्ति होती है । सट्टा, रेस, लाटरी आदि से यदा-कदा लाभ मिलता है । काष्ठ, फूस आदि के व्यवसाय से लाभ निलता है। अशुभ केतु हो तो जातक नीच कर्म में रत रहता है, बुद्धि में अस्थिरता आ जाती है । इष्ट-मित्रों से झगडे होते हैं, मुकदमों में पराजय, किसी के निधन से मानसिक सन्ताप, दुर्घटना में अंग-भंग होने की आशंका, विषपान, सर्पदंश, कुत्ते के काटने से अपमृत्यु का भय बनता है। उदर शूल, सन्धिवात, शुक्रमेह आदि रोग व अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं तथा जातक मृत्यु को जीवन से श्रेष्ठ मान आत्मघात तक कर लेता है।
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