Sunday, 3 May 2015

मघा श्राद्ध और कालसर्पदोष के कष्ट से निवारण



मघा श्राद्ध और कालसर्पदोष के कष्ट से निवारण -

प्राचीन काल से मान्यता है कि मघा नक्षत्र में किए गए पूण्यकार्य से पाप एवं शाप की निवृत्ति होती है। मघा नक्षत्र में किए गए दान एवं कर्म से पितरों को लाभ होता है जिससे जीवन में सुख तथा समृद्धि की वृद्वि होती है। मघा नक्षत्र का स्वामी सूर्य होता है अतः इस नक्षत्र में जन्म लिए जातक सुख सुविधाओं एवं ऐसो आराम चाहने वाले होते हैं। इनके जीवन में आत्मसम्मान और मान का विषेष महत्व होता है। मघा नक्षत्र के जातक के जब भी सूर्य राहु से आक्रांत होकर विपरीतकारक हो तो अपना भावानुसार अनुकूल फल देने में असमर्थ होता है। अतः मघा नक्षत्र में किए गए दान और विषेषकर पितरों की मुक्ति हेतु किए गए प्रयास में लाभ होता है। अतः इस नक्षत्र में पितरपक्ष में किए गए कर्म से जीवन में पुण्य की प्राप्ति होती है साथ ही हानि तथा कष्ट का निवारण होता है। जिन जातकों की कुंडली में पितरदोष है, जिसमें राहु किसी प्रकार से सूर्य को पीडि़त कर रहा हो तो उसे मघा नक्षत्र का श्राद्धकर्म अवष्य करना चाहिए, जिससे कालसर्प दोष दूर होकर जीवन में समृद्धि प्राप्त होती है साथ ही इस नक्षत्र वाले जातको को सूर्यापासना या आदित्यहृदय स्त्रोत का जाप भी करना लाभकारी होता है।



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इंदिरा एकादषी व्रत एवं श्राद्ध



इंदिरा एकादषी व्रत एवं श्राद्ध -

आष्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादषी को इंदिरा एकादषी व्रत तथा श्राद्ध किया जाता है। इस एकादषी के व्रत को करने से अनेकों पापों को नष्ट करने में समर्थ माना जाता हैं। माना जाता है कि आष्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादषी को भटकते हुए पितरों की गति सुधारने वाली एकादषी कहा जाता है। इस दिन भगवान शालीग्राम की पूजा का विधान है। इस व्रत के दिन मिट्टी का लेप कर स्नान कर भगवान शालीग्राम की पूजा कर तुलसीपत्र चढ़ाया जाता है। इस व्रत में दस चीजों के त्याग का महत्व है जिसमें जौ, गेहूॅ, उडद, मूंग, चना, चावल और मसूर दाल, प्याज ग्रहण नहीं करना चाहिए साथ ही इस दिन इन सभी वस्तुओं का दान करने का विधान है। ऐसा करने पर पितरों को यमलोक की यंत्रणा से मुक्ति प्राप्त होती है। पाप से बचना तथा हानि पहुॅचाने से बचना चाहिए। व्रत की समाप्ति पर दान-दक्षिणा कर फलो का भोग लगाया जाता है। व्रत की रात्रि जागरण करने से व्रत से मिलने वाले शुभ फलों में वृद्धि होती है।




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अन्नवष्टका का श्राद्ध




अन्नवष्टका का श्राद्ध  -

आष्विन मास की कृष्ण पक्ष की नवमी को मातृनवमी या अन्नवष्टका का श्राद्ध किया जाता है। जिस प्रकार पुत्र अपने पिता, पितामह आदि पूर्वजों के निमित्त पितृपक्ष में तर्पण करते हैं, उसी प्रकार से घरों की बहुएॅ या पुत्र वधुएॅ अपनी दिवंगता सास, माता या पूर्वज स्त्रीपक्ष की निमित्त हेतु श्राद्ध करती हैं। नवमी के दिन माता, सास या पितरों की आत्मषांति हेतु ब्राम्हणी को दान आदि से संतुष्ट कर माता की इच्छानुसार दान दिया जाता है। इस तिथि को चावल, जौ, तिल आदि से हवन कर पुत्रवती स्त्रियों को भोजन कराकर दान देने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है। इस अन्नवष्टका का श्राद्ध नियम से करने पर घर में अन्न एवं धन की कमी दूर होकर पितरों का आर्षीवाद प्राप्त होता है।



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जानिये आज 03/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "मर्यादा रेखा का पालन ही जीवन में सफलता का मूलमंत्र"



जानिये आज के सवाल जवाब 03/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का राशिफल 03/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का पंचांग 03/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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भानुसप्तमी- सप्तमी का श्राद्ध



भानुसप्तमी- सप्तमी का श्राद्ध -

भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आष्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृपक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृतक पूर्वजो का श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में मरण तिथि को श्राद्ध किया जाता है। सप्तमी का श्राद्ध भानुसप्तमी के नाम से किया जाता है। जिसमें श्राद्धकर्म करने से सूर्यग्रहण में किए गए पुण्य के बराबर फल मिलता है और आने वाले वंष को शारीरिक कष्टो से छुटकारा मिलकर स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति का योग बनता है। किसी भी प्रकार से शारीरिक या किसी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त पितरों के शारीरिक कष्टो की निवृत्ति और उसप्रकार के शारीरिक कष्ट से आने वाले वंष की रक्षा हेतु भानुसप्तमी का श्राद्ध करने का विधान वेदों में है। इस दिन दीपक, कपूर, धूप, लालपुष्प और चावल, शक्कर से सूर्य को गंगाजल का अध्र्य देते हुए सूर्य पुराण का पाठ कर दान देने से चर्मरोग पंगुपन या मूकपन से मुक्ति प्राप्त होती है।



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भानुसप्तमी- सप्तमी का श्राद्ध




भानुसप्तमी- सप्तमी का श्राद्ध -

भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आष्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृपक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृतक पूर्वजो का श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में मरण तिथि को श्राद्ध किया जाता है। सप्तमी का श्राद्ध भानुसप्तमी के नाम से किया जाता है। जिसमें श्राद्धकर्म करने से सूर्यग्रहण में किए गए पुण्य के बराबर फल मिलता है और आने वाले वंष को शारीरिक कष्टो से छुटकारा मिलकर स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति का योग बनता है। किसी भी प्रकार से शारीरिक या किसी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त पितरों के शारीरिक कष्टो की निवृत्ति और उसप्रकार के शारीरिक कष्ट से आने वाले वंष की रक्षा हेतु भानुसप्तमी का श्राद्ध करने का विधान वेदों में है। इस दिन दीपक, कपूर, धूप, लालपुष्प और चावल, शक्कर से सूर्य को गंगाजल का अध्र्य देते हुए सूर्य पुराण का पाठ कर दान देने से चर्मरोग पंगुपन या मूकपन से मुक्ति प्राप्त होती है।





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चंद्रषष्ठी व्रत -छठ का श्राद्ध



चंद्रषष्ठी व्रत -छठ का श्राद्ध -
आष्विन मास की कृष्णपक्ष की षष्ठी को छठ का श्राद्ध किया जाता है। इसमें चंद्रछट किया जाता है, जिसमें महिलाओ के लिए श्राद्ध किया जाता है। एक पटरे पर जल का कलष रखकर उसपर रोली छिड़क कर सात टीके काढ़े जाते हैं। एक गिलास में गेहूं रखा जाता है एवं उसके उपर रूपये रखकर चंद्रमा को अध्र्य देने के उपरांत गिलास समेत गेहंू और रूपया किसी ब्राम्हणी स्त्री को दान कर दिया जाता है।
कथा - एक गांव में सेठ और सेठानी रहते हैं, सेठ कंजूस और सेठानी ऋतुकाल में भी बर्तनों का स्पर्ष करती है, दोनों की मृत्यु उपरांत सेठ बैल और सेठानी कुतिया योनी में अपने ही पुत्र के यहाॅ रखवाली करने लगे। श्राद्ध के दिन बेटे ने ब्राम्हणों के लिए खीर और पुरिया बनावाई। एक चील खीर में मरा हुआ सांप डालकर उड़ गई यह कर्म कुतिया ने देखा और सोचा कि ब्राम्हणों ने इसे खाया तो उनकी मृत्यु हो जायेगी सोच कर कुतिया ने खीर को जुठा कर दिया, जिसके कारण गुस्से में बहु ने कुतिया को जलती लकड़ी से मारा। रात को बैल और कुतिया ने अपना दुखड़ा एक दूसरे को बताया। बैल ने कहा कि आज काम भी ज्यादा किया और भोजन भी नसीब नहीं हुआ वहीं कुतिया ने बताया कि आज तो खाना नहीं मिला उसपर मार भी पड़ गई, जबकि आज ये लोग मेरा ही श्राद्ध कर रहे हैं। बेटा और बहु ने बैल और कुतिया की बाते सुन ली। उन्होंने पंडि़तो से अपने माता-पिता की योनि का पता किया तो पंडि़तो ने बताया कि तुम्हारे पिता बैल और माता कुतिया योनि में हैं। तब पंडितो ने बताया कि जब षष्ठी के दिन कन्याएॅ चंद्रमा को अध्र्य देकर पूजन करें तो उस अध्र्य के नीचे दोनों को खड़ा कर दे तो इस येानी से मुक्ति मिल जायेगी, इस प्रकार चंद्रषष्ठी के दिन उपाय करने से मुक्ति मिल गई।



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स्वास्थ का ज्योतिष पक्ष


स्वास्थ का ज्योतिष पक्ष -

वैदिक दर्षनों में ‘‘यथा पिण्डे तथा ब्रहाण्डे’’ कर सिद्धांत प्रचलित है, जिसके अनुसार सौर जगत में सूर्य और चंद्रमा आदि ग्रहों की विभिन्न गतिविधियों एवं क्रिया कलापों में जोे नियम है वही नियम मानव शरीर पर है। जिस प्रकार परमाणुओं के समूह से ग्रह बनें हैं उसी प्रकार से अनन्त परमाणुओं जिन्हें शरीर विज्ञान की भाषा में कोषिकाएॅ कहते हैं हमारा शरीर निर्मित हुआ है। ग्रह नक्षत्रों तथा शरीर सतत संबंध में हैं उनकी स्थिति तथा परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है इसका साक्ष्य जलवायु परिवर्तन से महसूस किया जा सकता है। मानव शरीर अग्नि, पृथ्वी, जल और वायु जैसे तत्वों से मिलकर यह नष्वर शरीर निर्मित हुआ है। ज्योतिष का फलित भाग इन ग्रहों, नक्षत्रों तथा राषियों के मानव शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करता है। वैदिक मान्यता है कि पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण जायते अर्थात् पिछले जन्म में किया गया पाप इस जन्म में रोग के रूप में सामने आता है। वैदिक दर्षनों में कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद माने जाते हैं। फलित ज्योतिष में संचित कर्म के फल का विचार आधार कुंडली या जन्मकुंडली में बने योगों द्वारा किया जाता है, जिसमें अंधत्व, काणत्व, मूकत्व या बधिरत्व आदि जन्मजात रोगों का विचार करते हैं। प्रारब्ध के फल का विचार दषाओं द्वारा किया जाता है जिसमें वात, पित्त या कफ के विपर्यय द्वारा उत्पन्न रोग तथा विकारों का विचार किया जाता है। क्रियमाण फल का विचार आहार-विहार आदि द्वारा किया जाता है, जिन्हें दषाओं और अंतरदषाओं के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। ज्योतिष ने पंचतत्वों में प्रधानता के आधार पर ग्रहों में इन तत्वों को अनुभव किया है कि रवि और मंगल अग्नि तत्व के ग्रह हैं और यह शरीर की ऊर्जा तथा जीने की शक्ति का कारक है। अग्नि तत्व की कमी से शरीर का विकास अवरूद्ध होकर रोगों से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है। शुक्र और चंद्रमा जल तत्व के कारक हैं। जब शरीर में पोषण संचार का कारक है और शुक्राणु जल में जीवित रहकर सृष्टि के विकास तथा निर्माण में सहायक होता है। अतः जल तत्व की कमी से आलस्य और तनाव उत्पन्न कर शरीर की संचार व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डालती है। बृहस्पति तथा राहु आकाष तत्व हैं और ये व्यक्ति के पर्यावरण तथा आध्यात्मिक जीवन से सीधा संबंध रखते हैं। बुध पृथ्वी तत्व है जोकि बुद्धि क्षमता तथा निर्णय की शक्ति दर्षाती है। शनि वायु तत्व है जोकि जीवन में वायु सदृष्य कार्य करती है। अतः जब ये ग्रह भ्रमण करते हुए संवेदनषील राषियों के अंगों को प्रभावित करते हैं तब इन अंगों को नुकसान होता है या उनका नाकारात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। संसार या तो नियमबद्ध सृष्टि है या नियमरहित। यदि सूर्य इत्यादि ग्रह पूर्ण अनुषासन, व्यवस्था एवं नियमितता का पालन करते हैं तो ब्रम्हाण्ड में दैवयोग या आकस्मिक घटना नाम की कोई चीज नहीं है। महर्षियों का मानना है कि ब्रम्हाण्ड में घटने वाली प्रत्येक घटना एक निष्चित नियम द्वारा बंधी है तो मनुष्य कर्म के नियमों द्वारा निष्चित तथा सुनियोजित है। ज्योतिष में ग्रहों का दूषित प्रभाव दूर करने के अनेक उपाय हैं। प्रयासों तथा अदृष्टफल की अनुभूति में तारतम्य कर सकता है। इसलिए कुंडली में ग्रहों का विवेचन कर आप निरोगी रह सकते हैं।




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भरणी श्राद्ध से पायें पुण्य और कालसर्पदोष के कष्ट से निवारण -



भरणी श्राद्ध से पायें पुण्य और कालसर्पदोष के कष्ट से निवारण -

प्राचीन काल से मान्यता है कि श्रवण और भरणी नक्षत्र में किए गए पूण्यकार्य से  पाप एवं शाप की निवृत्ति होती है। भरणी नक्षत्र में किए गए दान एवं कर्म से पितरों को लाभ होता है जिससे जीवन में सुख तथा समृद्धि की वृद्वि होती है। भरणी नक्षत्र का स्वामी शुक्र होता है अतः भरणी नक्षत्र में जन्म लिए जातक सुख सुविधाओं एवं ऐसो आराम चाहने वाले होते हैं। इनके जीवन में प्रेम तथा लगाव का विषेष महत्व होता है। चूॅकि भरणी नक्षत्र के जातक की राषि मेष होगी अतः इस नक्षत्र के जातक के व्यवहार में मंगल का प्रभाव अनुकूल होने से साहस, उर्जा तथा महत्वाकांक्षा का समावेष होता है। भरणी नक्षत्र के जातक के जब भी मंगल अथवा शुक्र उपरोक्त नक्षत्र से गुजरता है तो अपना भावानुसार अनुकूल फल जरूर देने में समर्थ होता है। अतः भरणी नक्षत्र में किए गए दान और विषेषकर पितरों की मुक्ति हेतु किए गए प्रयास में लाभ होता है। अतः इस नक्षत्र में पितरपक्ष में किए गए कर्म से जीवन में पुण्य की प्राप्ति होती है साथ ही हानि तथा कष्ट का निवारण होता है। जिन जातकों की कुंडली में पितरदोष है, जिसमें राहु किसी प्रकार से शुक्र या मंगल को पीडि़त कर रहा हो तो उसे भरणी नक्षत्र का श्राद्धकर्म अवष्य करना चाहिए, जिससे कालसर्प दोष दूर होकर जीवन में समृद्धि प्राप्त होती है साथ ही इस नक्षत्र वाले जातको को दुर्गा सप्तषती का जाप या मंगल की उपासना भी करना लाभकारी होता है।



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पितृपक्ष में कालसर्प दोष की निवृत्ति



पितृपक्ष में कालसर्प दोष की निवृत्ति -
विभिन्न शास्त्रों में कालसर्प योग के बारे में विभिन्न धारणाएॅ प्रस्तुत हैं, जिसमें सभी में एक मत है कि राहु एवं केतु के बीच यदि सभी ग्रह फॅसे हुए हों तो कालसर्प योग निर्मित होता है। यदि राहु आगे तो तथा केतु पीछे और सूर्यादि सातों ग्रह राहु एवं केतु के एक ओर फॅसे हुए हों तो कालसर्प योग बनता है। कालसर्प योग को दुर्भाग्य और अवरोध को उत्पन्न करने वाला माना जाना अनुचित नहीं है। यदि किसी जन्मांग में कालसर्प योग की संरचना हो रही हो तो व्यक्ति को अनेक प्रकार के अवरोध, विसंगतियों और दुर्भाग्य से जीवनपर्यंत संघर्ष करना पड़ता है। किस प्रकार की विसंगति तथा अवरोध उस व्यक्ति के जीवन को आक्रांत करेगी, यह तथ्य ग्रहों की जन्मांग में संस्थिति पर निर्भर करती है। जिसमें संतानहीनता, पारिवारिक विसंगतियाॅ, कलहपूर्ण दांपत्य जीवन, आर्थिक विषमता, आकस्मिक धनहानि, स्वास्थ्य, निरंतर अथवा असाध्य व्याधि से पीड़ा, व्यवसाय तथा व्यापार में अवनति या हानि या प्रगति में अवरोध, सभी प्रकार के कार्यो में विलंब, जिसमें षिक्षा, संतान प्राप्ति, उन्नति, विवाह आदि में विलंब का कारण भी कालसर्प योग के कारण संभव है। कालसर्प की शमन विधान हेतु किसी विद्धान आचार्य द्वारा कालसर्प से होने वाली हानि का क्षेत्र जानकर उस से संबंधित विधान विधिपूर्वक किया जाना जिसमें विषेषकर रूद्राभिषेक, नागबलि-नारायण बलि आदि का विधान एवं राहु से संबंधित दान एवं मंत्रों के उपचार द्वारा दोष को निर्मूल किया जा सकता है। कालसर्प दोष पितरदोष के कारण माना जाता है अतः पितृपक्ष में इसका निवारण करना विषेष फलदायी होता है।



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अनंत चतुर्दषी व्रत



अनंत चतुर्दषी व्रत -

भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्दषी को भगवान अनन्त का व्रत रखा जाता है। अनंत अर्थात् अंत ना होने वाले सृष्टि के कर्ता विष्णु भगवान की भक्ति का दिन होता है। ‘‘अनंत सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रसन्नो में यक्तानामभयंकरः’’ मंत्र से भगवान की पूजन करनी चाहिए। इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटो से रक्षा करने वाला अनंतसूत्र बांधा जाता है। युधिष्ठिर द्वारा क्रीडा में हार के पष्चात् राजपट हारने के बाद वन में कष्ट भोग रहे पाण्डवों को भगवान कृष्ण ने अनंत चतुर्दषी का व्रत की सलाह दी थी। भगवान कृष्ण की सलाह अनुसार पांडवों ने अनन्त सूत्र बांधकर व्रत का पालन किया और सभी कष्टों निवृत्ति पाई।

स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजन स्थल पर स्वच्छ भूमि पर कलष स्थापित कर उसपर भगवान विष्णु की शेषनाग पर शैया पर लेटी मूर्ति रखें उनके समक्ष चैदह ग्रंथियों से युत अनंतसूत्र रखें। इसके बाद ऊॅ अनंताय नमः मंत्र से षोडषोपचार विधि से पूजन करें। पूजन उपरांत अनंत सूत्र को मंत्र पढकर हाथ पर बांध लें। ऐसा करने जीवन में सभी कष्टों से रक्षा होती है।


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आपके सोच की दिषा और ज्योतिष


आपके सोच की दिषा और ज्योतिष -

यजुर्वेद तथा भगवदगीता के अनुसार हमारा व्यवहार, विचार, भोजन और जीवनषैली तीन चीजों पर आधारित होती है वह है सत्व, तमस और राजस। सात्विक विचारों वाला व्यक्ति निष्चित स्वभाव का होता है जोकि उसे सृजनषील बनाता है वहीं राजसी विचारों वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षी होता है जोकि स्वभाव में लालच भी देता है तथा तामसी व्यवहार वाला व्यक्ति नाकारात्मक विचारों वाला होने पर गलत कार्यो की ओर अग्रसर हो सकता है। मानव व्यवहार मूल रूप से राजसी और तामसी प्रवृत्ति का होता है, जिसके कारण जीवन में नाकारात्मक उर्जा बढ़ती है, जिससे साकारात्मक बनाने हेतु पुराणों में व्रत तथा उपवास पर जोर दिया गया है। मानव जीवन में व्रत की उपयोगिता वैदिक काल से जारी है। जिसका आधार होता है कि उपवास पाॅच ज्ञानेंद्रियों और पाॅच कर्मेद्रिंयों पर नियंत्रण करता है। अनुषासित बनाने तथा मन को आध्यामिक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करने हेतु उपवास तथा मंत्र जीवन में साकारात्मक दिषा देता है। उपवास जीवन में मानसिक शुद्धिकरण के अलावा शारीरिक शुद्धि हेतु भी सहायक होता है चूॅकि उपवास के दौरान अनुष्ठान करने की परंपरा भी है अतः अनुष्ठान के दौरान किया जाना वाला जाप, ध्यान, सत्संग, दान शारीरिक शुद्धता के लिए भी कार्य करती है। भोग लगाने वाले पदार्थ जैसे फल, मेवा, दूध, धी आदि का सेवन भी सात्विक गुणों को बढ़ाता है।


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ऋषि पंचमी


भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की पंचमी को ऋषि पंचमी मनाई जाती है। इसे भादोषुदि भी कहते हैं। भगवान षिव एवं पार्वती का पूजन करते हैं। सूक्ष्म जीवो को आहार प्रदान किया जाता है। इसके लिए प्रातःकाल ब्रम्ह मुहूर्त में जागरण कर नदी का स्नान आदि कर गणेषजी तथा षिवपार्वती जी की पूजन करें। सोलह प्रकार के सप्तऋषियों की पूजा करें। इस दिन माता अरूंधति के नाम का जाप कर पूजन तथा हवन करने की भी प्रथा है। रात्रि में कथा सुनें तथा रात्रि जागरण करके षिव-पावर्ती, सप्तऋषि तथा माता अरूंधति की आरती करनी चाहिए। पूरे दिन व्रत रखते हुए मखाने तथा समा से व्रत का पारण करें। अतः इस दिन उनकी पूजा तथा आराधना करने से पाप का प्रायच्चित होता है तथा पाप-षाप से मुक्ति प्राप्त होती है एवं जीवन में सभी प्रकार की कमी दूर होकर समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस व्रत को पुरूष तथा स्त्रियाॅ दोनों समान रूप से कर सकते हैं। सप्तऋषियों की कृपा से देवलोक प्राप्त होता है तथा संसार के सभी पापों की निवृत्ति होती है।

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हरतालिका तीज व्रत



हरतालिका तीज व्रत -
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को विवाहित महिलाएॅ तीज का व्रत करती हैं। इस दिन शंकर-पावर्ती की बालू की मूर्ति बनाकर पूजन किया जाता है। सुदंर वस्त्रों कदली स्तंभों से गृह को सजाकर नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण कर शंकरजी तथा पावर्ती की पूजा की जाती हैं। निर्जला व्रत करने तथा पूजन आदि से पावर्ती के समान सुखपूर्वक पति रमण कर शिवलोक प्राप्ति की कामना की जाती है।
कथा -
इस व्रत के माहात्म्य की कथा भगवान शंकर ने पार्वती को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने हेतु इस प्रकार कहीं थी - एक बार तुमने हिमालय पर गंगा तट पर अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्ष की आयु में अधोमुखी होकर घोर तप किया। तुम्हारी कठोर तपस्या से तुम्हारे पिता को बड़ा क्लेश होता था। एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा तुम्हारे पिता के क्लेश को देखकर नारद जी तुम्हारे पिता से कहा कि भगवान विष्णु तुम्हारी कन्या से विवाह करना चाहते हैं। तुम्हारे पिता सहर्ष तैयार हो कर विवाह की हामी दे दी। तुम्हें ज्ञात होने पर तुमने विवाह से अनिच्छा जताकर जंगल में जाकर घोर तप किया और भाद्रपद की तृतीया को हस्त नक्षत्र में रेत का शिवलिंग बनाकर पूजन कर रात्रि जागरण कर मुझसे अपनी पत्नी बनाने का वचन ले लिया। तुम्हे वचन देकर मैं कैलाश पर्वत पर चला गया। तुमने अपनी सहेली के साथ व्रत का पारण करने हेतु पूजन की सभी सामग्री नदी में प्रवाहित कर बचे द्रव से अपने व्रत का पारण किया। तभी तुम्हारे पिता तुम्हे खोजते हुए जंगल में पहुॅचे और वापस घर ले जाने हेतु प्रेरित हुए। तुम्हारे बताने पर की तुम्ने मुझे पति रूप में वरण कर लिया है। तुम्हारे पिता वापस चले गए। और तभी सभी देवताओं ने वरदान दिया कि जो भी स्त्री हरतालिका का व्रत करेगी उसे अचल सुहाग का वरदान प्राप्त होगा।






कौन सा क्षेत्र चुने कार्य करने का जाने ज्योतिष विश्लेषण द्वारा



शिक्षा पूर्ण करते ही हर व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता होती है धन कमाना। किंतु कई बार व्यक्ति असमंजस में होता है कि उसे नौकरी करनी चाहिए या व्यापार। कई बार व्यक्ति नौकरी में असफल या शिक्षा में असफल होने पर व्यापार करना चाहता है। किंतु कभी भी किसी प्रकार का व्यापार करने से पूर्व अपनी जन्म कुंडली की विवेचना कर कर यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि उसे कौन सा व्यापार लाभ देगा। इसके अतिरिक्त यह भी देख लेना चाहिए कि व्यापार या कार्य की दिशा कौन सी होगी। साझेदारी में व्यापार फलदायी होगा या नहीं। यदि साझेदारी में व्यापार सफल होगा तो किस राशि, नक्षत्र के व्यक्ति के साथ व्यापार उचित होगा। साथ ही अपने कार्य-व्यवसाय में सहायक ग्रह नक्षत्र एवं प्रतिकूल ग्रह दशाओं की जानकारी तथा उससे संबंधित उपाय आपके व्यापार को सफल ही नहीं बनाते अपितु आपको अच्छी व्यवसायिक सफलता के साथ पर्याप्त मात्रा में धन, ऐश्वर्या तथा यश भी दिलाते हैं। अतः व्यापार से धन कमाने के लिए किस माध्यम से धन प्राप्ति का योग बन सकता है, इसके लिए आपकी कुंडली का लग्न, तृतीयेश, सप्तमेश, भाग्येश, दशमेश एवं चंद्रमा से दशम में कौन सा ग्रह बलवान होगा यह देखना चाहिए। लग्न या चंद्र लग्न से दशम का स्वामी तथा उस राशि का स्वामी किस नंवाश में है, उससे संबंधित व्यापार से धन प्राप्त होने के योग बनते हैं। अगर दशमेश स्थिर है तो अपने देश में धन कमाने के योग और चर राशि का हो तो विदेश से धन कमाने के योग बनते हैं और यदि द्विस्भाव है तो दोनों स्थानों से धन प्राप्ति में सफलता प्राप्त होती है। साथ ही तृतीयेश अगर बलवान नहीं है या प्रतिकूल स्थिति में स्थित होगा तो आपका मनोबल कम होने से भी आपको कार्य में अच्छी सफलता प्राप्त होने में बाधक हो सकता हैै। अतः यदि आप व्यापार से संबंधित क्षेत्र से धन कमाने के इच्छुक हैं तो सर्वप्रथम अपने ग्रह दशाओं के अतिरिक्त ग्रह स्थिति एवं साझेदारी में संबंधित व्यक्ति की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर उचित समय, स्थान, वित्तीय स्थिति, साझेदारी का फैसला करते हुए सावधानी से निर्णय आपको धन प्राप्ति में सहायक होगा।

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एकाग्रता की कमी और कैरिअर



स्कूल षिक्षा तक बहुत अच्छा प्रदर्षन करने वाला अचानक अपने एजुकेषन में गिरावट ले आता है तथा इससे कैरियर में तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही मनोबल भी प्रभावित होता हैं अतः यदि आपके भी उच्च षिक्षा या कैरियर बनाने की उम्र में पढ़ाई प्रभावित हो रही हो या षिक्षा में गिरावट दिखाई दे रही हो तो सर्वप्रथम व्यवहार तथा अपने दैनिक रूटिन पर नजर डालें। इसमें क्या अंतर आया है, उसका निरीक्षण करने के साथ ही अपनी कुंडली किसी विद्धान ज्योतिष से दिखा कर यह पता करें कि क्या आपकी कुंडली में राहु प्रभावकारी है। यदि आपकी कुंडली में राहु दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्यस्थान में हो साथ ही राहु की दषा, अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा चल रही हो तो गणित या फिजिक्स जैसे विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है साथ ही ऐसे लोगों के जीवन में कल्पनाषक्ति प्रधान हो जाती है। पहली उम्र का असर उस के साथ ही राहु का प्रभावकारी होना एजुकेषन या कैरियर में बाधक हो सकता है। यदि इस प्रकार की बाधा दिखाइ्र दे तो फौरन राहु की शांति के साथ कुंडली के अनुरूप आवष्यक उपाय आजमाने से कैरियर की बाधाएॅ समाप्त होकर अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है।



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पुरूषोत्तमी पूर्णिमा व्रत -


हिन्दी मास की अंतिम तिथि को पूर्णिमा कहा जाता है इस दिन चंद्रमा का पूर्ण रूप होता है जिसका धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व माना गया है। चूॅकि भारतीय शास्त्र में चंद्रमा का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है अतः पूर्णिमा को बहुत शुभ एवं मंगलकारी तिथि माना जाता है। पूर्णिमा के दिन स्नान, दान का विषेष महत्व दिया गया है और इस दिन धर्मकर्म करने से जीवन में पुण्य की प्राप्ति होने से जीवन के कष्ट होते हैं तथा सुखसमृद्धि प्राप्त होती है ऐसी मान्यता भारतीय दर्षन में है। भाद्रपद मास को पुरूषोत्तम मास कहा जाता है, मान्यता है कि इस मास में किए गए दान और व्रत का विषेष महत्व होता है माना जाता है इस माह के तप से जीवन के सभी दुख दूर होकर मुक्ति प्राप्त होती है। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा व्रत में भगवान नारायण की पूजा का विधान है। माना जाता है कि भाद्रपद पूर्णिमा में गंगाजी का स्नान कर दान करने से जीवन से कष्ट समाप्त होकर मन वांछित फल की प्राप्ति हेाती है। गंगाजी या किसी नदी तालाब में सबसे पहले नियमपूर्वक पवित्र होकर स्नान करने के उपरांत सफेद कपड़े पहनें और आचमन करें। इस के बाद व्रत प्रारंभ करने हेतु ‘उॅ नमो नारायण’ मंत्र का उच्चारण करें। जिनके मन में अषांति, तनाव तथा भ्रम की स्थिति होती है उन्हें पूर्णिमा का व्रत विषेष शुभ फलदायी होता है ऐसी ज्योतिषीय मान्यता है। इस पूर्णिमा व्रत में सत्यनारायण कथा का श्रवण करना तथा चंद्रमा के दर्षन कर अध्र्य देने पूजन तथा आरती कर एवं सफेद चीजों के दान के उपरांत पारण करने से मनोकामना की पूर्ति होती है।



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जीवन में आर्थिक कष्ट और खराब होते रिष्तें - आसान उपाय



जीवन में आर्थिक कष्ट और खराब होते रिष्तें - आसान उपाय -

अर्थस्य अर्थोलोके अर्थात् इस अर्थ युगीन दुनिया में कहीं ना कहीं धन की बड़ी महत्ता समझ में आती है। चाहें वें पारिवारिक रिष्तें हों या सामाजिक जिम्मेदारियाॅ सबकुछ पैसों पर आश्रित होता है। आर्थिक पक्ष के कमजोर होने पर सभी आवष्यक कार्य में रूकावट आती हैं तो वहीं रिष्तें भी खराब होते ही हैं। कुंडली में लग्नेष एवं सप्तमेष का 6, 8 या 12 भाव में हो तो आर्थिक कष्ट या धन संबंधित कमी से जीवन बाधित होता है। 6, 8 या 12 भाव के स्वामी होकर द्वितीय या एकादष भाव से संबंध स्थापित होने पर धन सुख में बाधा के कारण  परिवार परेषान होता है। इसके अलावा लग्नेष या तृतीयेष का निर्बल होकर क्रूर स्थान या क्रूर ग्रहों के साथ होना भी जीवन में दुख तथा कष्ट का कारण बनता है। द्वितीय, पंचम, सप्तम, अष्टम या द्वादष भाव पर क्रूर ग्रह का होना भी जीवन में कष्ट का कारण घरेलू या आर्थिक कमी बनता है। यदि किसी के जीवन में आर्थिक कष्ट उत्पन्न हो रहा हो गजेंद्र मोक्ष का पाठ तथा मंगल का व्रत करना चाहिए। गजेंद्र मोक्ष को अपने आप में एक अद्भुत सतुति कहा जाता है। इसके प्रयोग से किसी भी प्रकार के कष्टनिवारण में आषातीत सफलता प्राप्त होती है। कलयुग में गजेंद्र मोक्ष की स्तुति हर प्रकार के सुख सौभाग्य हेतु तथा हर प्रकार के समस्याओं से मुक्ति में पूरी तरह से सफल है। गजेंद्रमोक्ष के प्रयोग हेतु किसी शुभ मुहूर्त में स्वार्थ सिद्धि योग या अमृत सिद्धि योग में प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर विष्णुजी की प्रतिमा के समक्ष, उन या कुष के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर बैठ जाएॅ। धूप-दीप आरती के उपरांत गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र-श्रीमद्भागवत का पाठ कर भगवान विष्णुजी की आरती कर हवन आदि करें, उसके उपरांत नित्य एक माला गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से जीवन में अर्थ, कर्ज के तनाव से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, जिससे जीवन सुचारू रूप से सुखपूर्वक बीतता है।




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आर्थिक परेशानी का निवारण



वर्तमान दौर में प्रत्येक व्यक्ति को किसी ना किसी रूप में आर्थिक परेषानी तथा कमी का सामना करना पड़ता है। आज के आधुनिक दौर में सभी आवष्यक कार्यो जैसे दैनिक दैनिंदन कार्य, बच्चों की षिक्षा विवाह के लिए हो या मकान वाहन के लिए आर्थिक संकट हो सकता है। इन परिस्थितियों में कई बार कर्ज लेना जरूरी हो गया है। कई बार कुछ कर्ज आसानी से चुक जाते हैं तो कई कर्ज बोझ बढ़ाने का ही कार्य करते हैं। अतः यदि कर्ज लेते समय नक्षत्र, लग्न एवं राषि पर विचार करते हुए अपनी ग्रह दषाओं के अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्णय लेते हुए कर्ज लिया जाए तो बोझ ना होकर ऐष्वर्या तथा उन्नति बढ़ाने का साधन भी बन सकता है। अतः 27 नक्षत्रों में से 1.अष्विनी, 2.मृगषिरा, 3.पुनवर्सु, 5.चित्रा, 6.विषाखा, 8.अनुराधा, 9.श्रवण, 10.ज्येष्ठा, 11.धनिष्ठा, 12.षतभिषा, 13.रेवती ये नक्षत्र कर्ज हेतु उचित नक्षत्र हैं, जिनमें लिया गया कर्ज चुकाने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता वहीं पर हस्त, भरणी, पुष्य, स्वाति इत्यादि नक्षत्र कर्ज लेने हेतु प्रतिकूल फल देते हैं। उसी प्रकार चर लग्न में कर्जा लेना इसलिए उचित होता है क्योंकि इस लग्न में कर्ज आसानी से चुक जाता है किंतु इस लग्न में कर्ज देना उचित नहीं होता। वहीं पर द्विस्वभाव लग्न में लिया गया कर्ज चुकान के उपरांत भी चुका हुआ नहीं दिखता। स्थिर लग्न में लिया गया कर्ज चुकाने में बहुत कष्ट, विवाद की संभावना होती है अतः इन लग्नों में कर्ज लेने से बचना चाहिए। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में अपनी राषि तथा ग्रह स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए कर्ज लेना या देना चाहिए। अगर कोई ग्रह प्रतिकूल हैं उनकी स्थिति तथा दषाओं में कर्ज लेने से बचना ही तनाव से मुक्ति का सरल उपाय है।



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स्वतंत्र व्यवसाय हेतु ज्योतिष योग



स्वतंत्र व्यवसाय हेतु ज्योतिष योग -
हर व्यक्ति अपना तथा परिवार का पालन उच्च स्तर पर करने का इच्छुक होता है। जहाॅ कई बार व्यक्ति सरकारी नौकरी के लिए उत्सुक होता है। वहीं कई जातक उच्च महत्वाकांक्षा तथा सुख-साधन की पूर्ति हेतु व्यवसाय करना चाहता है। जब तक जातक की कुंडली में ग्रहयोग व्यवसाय हेतु उपयुक्त ना हो, जातक को सफलता प्राप्त होने में बाधा होती है। प्रायः देखने में आता है कि कोई व्यवसाय बहुत लाभ देते हुए अचानक हानिदायक हो जाता है। अतः कुंडली के ग्रह योगों तथा दशाओं को ध्यान में रखते हुए व्यवसाय का चयन किया जाए तो जीवन में अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। व्यापार का कारक ग्रह बुध को माना जाता है। बुध 2, 3, 7 या 11 भाव में उच्च या स्वग्रही हो और क्रूर ग्रहों से दृष्ट ना हो तो जातक एक सफल व्यवसायी बन सकता है। यदि कर्मभाव मिथुन, तुला या कुंभ हो तो इलेक्टानिक्स या वैज्ञानिक संबंधी व्यवसाय, मेष, सिंह या धनु राशि हो तो इंजीनियरिंग या लोहे या धातु से संबंधित व्यवसाय, वृष, कन्या और मकर हो तो प्रशासनिक, आर्थिक, सिविल, भूमि से संबंधित कार्य तथा कर्क, वृष्चिक, मीन राषि हो तो रसायन, डेयरी तरल पदार्थ संबंधी व्यवसाय के कार्य की संभावना बनती है। तीसरा, सांतवा, दसवा और एकादशभाव में से जो भाव बली हो तो जिस भाव में हों, उससे संबंधित क्षेत्र में व्यवसायिक सफलता के योग बनते हैं अतः अपनी ग्रह स्थिति तथा उस ग्रह के अनुकूल दशाओं में प्रारंभ किया गया व्यवसाय जीवन में अच्छी सफलता का कारक होता है। अतः अनुकूल ग्रह स्थिति के साथ अनुकूल दशाओं का पता लगाकर अपने जीवन में सफलता प्राप्त की जा सकती है।



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साथी से रिष्ता लाभ या सुख का, जाने ज्योतिष से -


साथी से रिष्ता लाभ या सुख का, जाने ज्योतिष से -
प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका साथी उसके लिए लाभकारी तथा सुखकारी हो, किंतु कई बार सभी प्रकार से अच्छा करने के बाद भी साथ वाला व्यक्ति आपके लिए दुख का कारक बन जाता है। ज्योतिष से जाने कि आपके साथी के के साथ व्यवहार कैसा होगा। किसी कुंडली के सप्तम भाव, सप्तमेष तथा सप्तमस्त ग्रह तथा नवांश के अध्ययन से मूलभूत जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर रिश्तों में बाधा, सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो रिश्तों में आकर्षक तथा लगाव होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक सुख भी अच्छी होगी, जिसका लाभ साथी को भी मिलेगा। सप्तम स्थान पर गुरू, बुध हेाने पर साथी बुद्धिमान, उच्च पद में हो सकता है किसी भी प्रकार से राहु से संबंध बनने पर व्यसनी, काल्पनिक व्यक्तित्व हो सकता है वहीं चंद्रमा के होने पर भावुक किंतु आलसी होगा। सूर्य या राहु से संबंधित होने पर राजनीति या प्रशासन से संबंधित होने के साथ अहंकार के कारण रिश्तों में तनाव दिखाई दे सकता है ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6,8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश या द्वादशेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर लगाव के साथ अधिकार का भाव ज्यादा होता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही साथी के साथ रिश्ता निभाना ज्यादा आसान होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर भी आपसी समझ तथा लगाव को बढ़ाने के ज्योतिष उपाय करना चाहिए। 



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मंगल की आक्रामकता



मंगल की आक्रामकता -

भारतीय वैदिक ज्योतिष में मंगल को मुख्य तौर पर ताकत और आक्रमण का कारक माना जाता है। मंगल के प्रबल प्रभाव वाले जातक आमतौर पर दबाव से ना डरने वाले तथा अपनी बात हर प्रकार से मनवाने में सफल रहते हैं। मंगल से मानसिक क्षमता, शारीरिक बल और साहस वाले कार्यक्षेत्र होते हैं। मंगल शुष्क और आग्नेय ग्रह है तथा मानव के शरीर में अग्नि तत्व का प्रतिनिधि करता है तथा रक्त एवं अस्थि का प्रतीक होता है। मंगल पुरूष राषि को प्रदर्षित करता है। मकर राषि में सर्वाधिक बलषाली तथा उच्च का होता है। मंगल के निम्न प्रकार से उच्च या अनुकूल होने पर बालक पर मंगल की आक्रामकता का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। जिसके कारण बालक उर्जा से भरपूर तथा तेज होता है, जिससे तर्कषक्ति, विवाद तथा खेल में विषेष रूचि होती है। जिसके कारण उसमें आक्रामकता का ज्यादा प्रभाव होने से नियंत्रित तथा अनुषासित रख पाना कठिन होता है। यदि बच्चा अपने को बच्चा ना समझ बहकाव की दिषा में अग्रसर हो तो किसी विद्धान ज्योतिष से कुंडली में मंगल की स्थिति का विष्लेषण कराकर मंगलस्तोत्र का पाठ, तुला दान तथा मंगल की शांति कराना लाभकारी होता है। स्वअनुषासन में रखने हेतु बचपन से अपने बच्चे को हनुमान चालीसा का जाप करने की आदत डालना भी अच्छा होगा।




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जया एकादषी व्रत



जया एकादषी व्रत -

शुद्ध भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादषी को जया एकादषी के रूप में मनाया जाता है। इस एकादषी के व्रत को करने से अनेकों पापों को नष्ट करने में समर्थ माना जाता हैं। माना जाता है कि शुद्ध भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादषी को भगवान श्री कृष्ण ने भगवतगीता का उपदेष दिया था। इस दिन श्री कृष्ण ने कर्मयोग पर विषेष बल देते हुए अर्जुन को कर्मरत रहने का उपदेष दिया था। इस दिन भगवान श्री दामोदर की तथा भगवतगीता की पूजा का विधान है। इस व्रत के दिन मिट्टी का लेप कर स्नान कर मंदिर में श्री विष्णु पाठ करना चाहिए। इस व्रत में दस चीजों के त्याग का महत्व है जिसमें जौ, गेहूॅ, उडद, मूंग, चना, चावल और मसूर दाल, प्याज ग्रहण नहीं करना चाहिए। मौन रहकर गीता का पाठ या उपदेष सुनना चाहिए। पाप से बचना तथा हानि पहुॅचाने से बचना चाहिए। व्रत की समाप्ति पर दान-दक्षिणा कर फलो का भोग लगाया जाता है। व्रत की रात्रि जागरण करने से व्रत से मिलने वाले शुभ फलों में वृद्धि होती है।
कथा - पुराण के अनुसार एक बार सत्यवादी राजा हरिष्चंद्र ने स्वप्न में ऋषि विष्वामित्र को अपना राज्य दान में दे दिया। प्रातःकाल राजा ने ऋषि को अपना राज्य सौप ने हेतु निवेदन किया। ऋषि ने दक्षिणा में पाॅच सौ स्वर्ण मुद्राएॅ और चाही। राजा ने चुकान के लिए अपनी पत्नी और बेटे को बेचना पड़ा जिसे एक डोम ने खरीदा। इस प्रकार राजा तथा उनका परिवार डोम के अंदर श्मषान में कार्य करने लगे। इसी समय उनके पुत्र की सांप के काटने से मृत्यु हो गई। राजा दुखी होकर ऋषि गौतम से सलाह लेने गए और उनकी सलाह पर एकादषी का व्रत किया। जिससे भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर उनके राज्य, बेटा तथा सभी सुख एवं पृथ्वी पर अजर अमर होने का आर्षीवाद दिया।


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निरंतर जीवन में उन्नति हेतु केतु प्रमुख ग्रह


निरंतर चलायमान रहने अर्थात् किसी जातक को अपने जीवन में निरंतर उन्नति करने हेतु प्रेरित करने तथा बदलाव हेतु तैयार तथा प्रयासरत रहने हेतु जो ग्रह सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, उसमें एक महत्वपूर्ण ग्रह है केतु। ज्योतिष शास्त्र में राहु की ही भांति केतु भी एक छायाग्रह है तथा यह अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसका स्वभाग मंगल ग्रह की तरह प्रबल और क्रूर माना जाता है। केतु ग्रह विषेषकर आध्यात्म, पराषक्ति, अनुसंधान, मानवीय इतिहास तथा इससे जुड़े सामाजिक संस्थाएॅ, अनाथाश्रम, धार्मिक शास्त्र आदि से संबंधित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। केतु ग्रह की उत्तम स्थिति या ग्रह दषाएॅ या अंतरदषाओं में जातक को उन्नति या बदलाव हेतु प्रेरित करता है। केतु की दषा में परिवर्तन हेतु प्रयास होता है। पराक्रम तथा साहस दिखाई देता है। राहु जहाॅ आलस्य तथा कल्पनाओं का संसार बनाता है वहीं पर केतु के प्रभाव से लगातार प्रयास तथा साहस से परिवर्तन या बेहतर स्थिति का प्रयास करने की मन-स्थिति बनती है। केतु की अनुकूल स्थिति जहाॅ जातक के जीवन में उन्नति तथा साकारात्मक प्रयास हेतु प्रेरित करता है वहीं पर यदि केतु प्रतिकूल स्थिति या नीच अथवा विपरीत प्रभाव में हो तो जातक के जीवन में गंभीर रोग, दुर्घटना के कारण हानि,सर्जरी, आक्रमण से नुकसान, मानसिक रोग, आध्यात्मिक हानि का कारण बनता है। केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि तथा अषुभ प्रभाव को कम करने हेतु केतु की शांति करानी चाहिए जिसमें विषेषकर गणपति भगवान की उपासना, पूजा, केतु के मंत्रों का जाप, दान तथा बटुक भैरव मंत्रों का जाप करना चाहिए जिससे केतु का शुभ प्रभाव दिखाई देगा तथा जीवन में निरंतर उन्नति बनेगी।


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शुक्र का प्रभाव


शुक्र का प्रभाव  -

ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह को प्रमुखता प्राप्त है। कालपुरूष की कुंडली में शुक्र ग्रह दूसरे अर्थात् संपत्ति एवं सुख तथा सप्तम स्थान अर्थात् पार्टनर का स्वामी होता है। शुक्र ग्रह सुख, संपत्ति, प्यार, लाभ, यष, क्रियात्मकता का प्रतीक है। शुक्र ग्रह की उच्च तथा अनुकूल स्थिति में होने पर सभी प्रकार के सुख साधन की प्राप्ति, कार्य में अनुकूलता तथा यष, लाभ तथा सुंदरता की प्राप्ति होती है। इस ग्रह से जीवन में ऐष्वर्या तथा सुख की प्राप्ति होती है किंतु यदि विपरीत स्थिति या प्रतिकूल स्थान पर हो तो सुख में तथा धन ऐष्वर्या में कमी भी संभावित होती है। शुक्र ग्रह की दषा या अंतरदषा में सुख तथा संपत्ति की प्राप्ति का योग बनता है। किंतु शुक्र ग्रह भोग तथा सुख का साधन होने से इन दषाओं में मेहनत या प्रयास में कमी भी प्रदर्षित होती है। यदि ये दषाएॅ उम्र की परिपक्वता की स्थिति में बने तो लाभ होता है किंतु शुक्र की दषा या अंतरदषा कैरियर या अध्ययन के समय चले तो पढ़ाई में बाधा, कैरियर की राह में प्रयास में भटकाव से सफलता बाधित होती है। एकाग्रता में कमी तथा स्वप्न की दुनिया में विचरण से दोस्ती या सुख तो प्राप्त होता है किंतु अच्छा पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के मार्ग में प्रयास में विचलन से कैरियर बाधित हो सकता है। कैरियर की उम्र में शुक्र की दषाएॅ चले तो अभिभावक को बच्चों के व्यवहार में नियंत्रण रखते हुए अनुषासित रखते हुए लगातार अपने प्रयास करने पर जोर देने से कैरियर की बाधाएॅ दूर होती है। साथ ही ज्योतिष से सलाह लेकर यदि शुक्र का असर व्यवहार पर दिखाई दे तो ग्रह शांति के साथ नियम से दुर्गा कवच का पाठ लाभकारी होता है।




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कृष्ण जन्माष्टमी



कृष्ण जन्माष्टमी -

भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में श्री विष्णु की सोलह कलाओं से पूर्ण अवतरित हुए थे। श्री कृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस एवं संसार से अधर्म का नाष करने हेतु हुआ था। भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर से कहा कि मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्रपक्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी को उत्पन्न हुआ जबकि सूर्य सिंह राषि में एवं चंद्रमा वृषभ राषि में था और नक्षत्र रोहिणी था।
जन्माष्टमी के व्रत तिथि दो प्रकार की हो सकती है बिना रोहिणी नक्षत्र एवं दूसरी रोहिणी नक्षत्र युक्त। इस व्रत में प्रमुख कृत्य हैं उपवास, कृष्ण पूजा, जागरण एवं पारण। कृष्ण भगवान का जन्म समय रात्रि का माना जाता है अतः इस व्रत में जन्मोत्सव रात्रि का मनायी जाती है। व्रत के दिन प्रातः व्रती को सूर्य, चंद्र, यम, काल, दो संध्याओं, पाॅच भूतों, पाॅच दिषाओं के निवासियों एवं देवों का आहवान करना चाहिए,जिससे वे उपस्थित हों। अपने हाथ में जलपूर्ण ताम्रपात्र रखकर उसमें कुछ फल, पुष्प, अक्षत लेकर संकल्प करना चाहिए कि मैं अपने पापों से छुटकारा पाने एवं जीवन में सुख प्राप्ति हेतु इस व्रत को करू। व्रत करते हुए रात्रि को कृष्ण जन्म उत्सव मनाते हुए भजन एवं कीर्तन तथा यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् भौमस्य ब्रहणों गुस्तै तस्मै ब्रहत्मने नमः सुजन्म-वासुदेवाय गोब्रहणहिताय च शान्तिरस्तु षिव चास्तु। का पाठ करना चाहिए। जन्माष्टमी का व्रत करने से जीवन से सभी प्रकार से शाप एवं पाप की निवृत्ति होती है तथा सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है।



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श्रावणी पूर्णिमा - रक्षा का पावन पर्व



श्रावणी पूर्णिमा - रक्षा का पावन पर्व  -

श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा बंधन के रूप में मनाने की परंपरा हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से है। प्राचीन समय में देवताओं और दानवों में बारह वर्ष तक घोर संग्राम चला। इस संग्राम में राक्षसों की जीत हुई और देवता हार गए। दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वष में कर लिया तथा अपने को भगवान घोषित किया। दैत्यों के अत्याचारों से सभी लोकों में हाहाकार मच गया। तब भगवान इंद्र ने गुरू बृहस्पति से विचार कर रक्षा विधान करने को कहा। श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातःकाल रक्षा का विधान संपन्न किया गया जिसमें ‘‘येन बद्धोबली राजा दानवेंद्रा महाबलः, तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल’’ मंत्रोच्चार से रक्षा विधान किया उसके उपरांत धर्मिणी इंद्राणी के साथ वृत्र संहारक इंद्र ने बृहस्पति की वाणी का अक्षरषः पालन किया। इंद्राणी ने ब्राम्हण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन करा कर इंद्र के दायें हाथ में रक्षा सूत्र बांध दिया। इसी रक्षा सूत्र के बल पर इंद्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की। इसी परंपरा में द्रौपदी ने एक बार भगवान कृष्ण के हाथों से बहते रक्त को रोकने के लिए अपनी साड़ी उनके हाथ में बांधी जिसके ऋण के कारण कृष्ण ने चिरहरण के समय द्रौपदी की रक्षा की। जिसके फलस्वरूप रक्षा बंधन का पर्व हिंदूओं का प्रमुख पर्व बना। इस पर्व में बहनें भाईयों की कलाईयों में रक्षासूत्र बांधकर अपनी रक्षा का वादा अपने भाईयों से प्राप्त करती हैं। इस प्रकार श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा बंधन के रूप में मनाया जाता है।



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नाग पंचमी



नाग पंचमी -

श्रावण मास की शुक्लपक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन नागों का पूजन किया जाता है। इस दिन व्रत करके सांपों को दूध पिलाया जाता है। गरूड़ पुराण में उल्लेख है कि इस दिन अपने घर के दोनों किनारों पर नाग की मूर्ति बनाकर पूजन करना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचमी तिथि का स्वामी नाग है। अर्थात् शेषनाग आदि सर्पराजाओं का पूजन पंचमी के दिन किया जाता है। श्रावण मास को षिव का मास माना जाता है साथ ही चूॅकि नाग षिवजी के आभूषण माने जाते हैं अतः इस दिन सर्प आदि की पूजा का विधान है। किसी जातक की कुंडली में सर्पदोष हो तो या कालसर्प दोष होतो उसे इस दिन विधि विधान से सर्प पूजन कर दान आदि देने से जीवन में कालसर्प दोष से उत्पन्न बाधा दूर होती है। माना जाता है कि षिवजी द्वारा विषपान करने से उत्पन्न उनके शरीर के विष को दूर करने के लिए सर्प आदि देवताओं ने उनका विष अपने शरीर में धारण कर लिया था, जिसके उपरांत षिवजी ने उन्हें अपने गले में धारण किया। माना जाता है कि जिस दिन सभी सर्पो ने षिवजी की रक्षा की वह दिन पंचमी का दिन था, उसी दिन उन्हें सभी देवों ने वरदान दिया कि पंचमी को श्रावण मास के दिन उनकी विधिवत् पूजन की जावेगी। इस पूजन से सभी प्रकार के शारीरिक व्याधि से भी राहत मिलती है।



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जीवनसाथी से अलगाव दूर करने का विकल्प



भगवान षिव के प्रिय मास सावन में किया गया षिव पूजन, व्रत तथा दान बहुत फलदायी होता है। शास्त्रों में षिव का मतलब कल्याण करने वाला बताया गया है। सावन मास के हर दिन में किए गए तप का अपना अलग ही महत्व होता है। श्रावण मास में सभी प्रकार के दुख दूर करने हेतु व्रत का विधान है इस हेतु जीवनसाथी से किसी बात पर अलगाव या विलगता की स्थिति को दूर करने हेतु सूर्य तथा पार्थिव पूजन का बहुत महत्व है। इसमें रविवार को ब्रम्ह मूहुर्त में स्नान करने के उपरांत षिवपावर्ती का पूजन करने के लिए दूध से षिव एवं पावर्ती को स्नान कराकर षिव महिम्र स्त्रोत के श्लोकों से पूजा और अभिषेक करें। सूर्य को अध्र्य दें, जिसमें सफेद कनेर, बेलपत्र, चावल, दूध, शक्कर चढ़ाकर आरती करने के उपरांत दान करें तथा भजन कीर्तन करें। सूर्यास्त के पूर्व दान देने के उपरांत बिना नमक का आहार ग्रहण करें। सूर्य अलगाव का कारक हो तो इसके करने से जीवन में सुख तथा जीवनसाथी का साथ प्राप्त होगा। इस व्रत में आदित्य हृद्य स्त्रोत का जाप करना विषेष हितकर होता है।




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श्रावण में शनि की उपासना से जीवन की सफलता



श्रावण में शनि की उपासना से जीवन की सफलता-

श्रावण का माह तप एवं दान का महिना माना जाता है। किसी जातक के जीवन में यदि कैरियर को लेकर भ्रम या परेषानी हो तो उसे शनि को पूजना चाहिए। शनि दया के व्यवहार से प्रसन्न होते हैं। वहीं निर्दयता, झूठ या पाखंड उनकी अप्रसन्नता का कारण होता है।
श्रावण का महिना सभी प्रकार के पाप श्राप से मुक्ति कराने वाला तथा श्री की प्राप्ति कराने वाला महिना है। इस महिने में शनिवार के दिन घर की साफ-सफाई करके प्रातःकाल स्नान कर सभी प्रकार के कष्टों की निवृत्ति के लिए तथा अक्षय कल्याण की प्राप्ति के लिए सूर्यास्त के बाद दरवाजे पर दीया रोशन करें तथा पूजन स्थल पर पूर्व की ओर मुख करके सामने कलश स्थापित कर गौरी गणेश नवग्रह तथा षोडश मातृका आदि का स्थापन कर सोलह उपचार सामग्री से सभी का पूजन करें। उसके पश्चात् रात्रिकाल में ओं शं शनैश्चराय नमः का 11 हजार जाप कर अगले दिन प्रातः स्नान करें फिर तिल जौ आदि से दशांश हवन करें पश्चात् जरूरत मदों को भोजन करावें तथा यथाशक्ति आचार्य तथा याचकों को दान करें। ऐसा करने से भगवान शनि की कृपा होती है और जीवन में सफलता मिलती है।




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श्रावणी चतुदर्शी व्रत की कथा


नारदजी ने एक बार भगवन से पूछा की पृथ्वीवासी आपको महादेव कृपा निधान कहते हैं किंतु इससे तो केवल आपके प्रिय भक्त ही तर पाते हैं। साधारण नर-नारी नहीं। इसलिए कोई ऐसा उपास बताइये जिससे साधारण नर-नारी भी आपकी कृपा के पात्र बन जाए। इस पर भगवान ने कहा कि नारद श्रावण मास में विषेषकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दषी को जो नर-नारी व्रत का पालन करते हुए भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करेंगे उनको स्वर्ग प्राप्त होगा। इस दिन जो भी किंचित मात्र भी मुझे स्मरण करेगा, उसे बैकुंठधाम प्राप्त होगा।



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श्रावण मास में मंगलवार के व्रत का विषेष महत्व है। मंगलवार को मंगलागौरी व्रत करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं। जिस जातक के विवाह में बाधा हो, विषेषकर कन्या के विवाह में बाधाक को दूर करने के लिए इस व्रत को किये जाने का विधान शास्त्रों में है। प्रातःकाल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर इच्छुक वर की प्राप्ति तथा सौभाग्य कामना हेतु मंगलागौरी के व्रत का संकल्प लिया जाता है। इसके उपरंात माॅ मंगलागौरी का चित्र या प्रतिमा एक चैकी में लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित करें। चित्र के सामने आटे से बना एक धी का दीपक बनाकर सोलह बतियों का दीपक जलायें। इसके उपरंात कुंकमरागुरूलिप्तांगा सर्वाभरणभूषिताम् नीलकण्ठप्रियां गौरीं वंदेहं मंगलाहयाम् का उच्चारण कर षोडषोपचार से पूजन करें। पूजन के बाद माता को सोलह माला, लड्डू, फल, पान, इलायची, लौंग, सुपारी, सुहाग की सामग्री व मिष्ठान चढ़ायें। कथा सुनने के बाद सभी सामग्री का दान ब्राम्हण को करें। श्रावण मास की समाप्ति के बाद माता का चित्र जल में प्रवाहित करें। ऐसा करने से मनचाहा वर तथा कुल प्राप्त होता है साथ ही वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।




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श्रावणी शुक्रवार का व्रत - सुख एवं संपत्ति दायी



श्रावणी शुक्रवार का व्रत - सुख एवं संपत्ति दायी -

ज्योतिष शास्त्र में कालपुरूष की कुंडली के अनुसार शुक्र सुख, संपत्ति तथा भोग की देवी मानी जाती है। पुराणों के अनुसार भी शुक्रवार को माता लक्ष्मी तथा संतोषीमाता का वार माना जाता है, जिसे सुख संपत्ति का कारक माना जाता है। यदि किसी के जीवन में सुख तथा वैभव में कमी हो तो उसे शुक्रवार का व्रत तथा माता लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। श्रावण का मास पाप तथा कष्ट को दूर करने का मास माना जाता है। अतः किसी जातक के जीवन में आकस्मिक धन हानि, व्यवसायिक कष्ट या सुख में किसी भी प्रकार की कमी आ रही हो तो उसे श्रावण मास के शुक्रवार को श्रावणी शुक्रवार का व्रत तथा पूजन करना विषेष लाभकारी होता है। स्कंद पुराण में श्रावणी शुक्रवार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि किसी को भी सुख तथा पारिवारिक कष्ट हो तो उसे इस व्रत को करना चाहिए। इस व्रत को करने के लिए शुक्रवार के दिन स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर व्रत करें तथा सायंकाल जब आकाष में शुक्रतारा उदित हो तो उस समय सभी स्त्रीयाॅ मिलकर पावर्ती तथा षिवजी की पूजा कर आरती तथा भजन कीर्तन कर किसी सुहागन ब्राम्हणी महिला को यथा संभव सुहाग सामग्री दान कर आषीष प्राप्त करें। ऐसा करने से कष्ट की निवृत्ति होकर जीवन में सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है।



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बृहस्पतेष्वर महादेव की उपासना से पायें विद्या तथा धन



बृहस्पतेष्वर महादेव की उपासना से पायें विद्या तथा धन -

धार्मिक दृष्टि से गुरू यानि बृहस्पति को देवो का गुरू माना जाता है। ज्योतिष विज्ञान में गुरू को व्यक्ति के भाग्य का निर्णायक माना जाता है अतः गुरूवार के व्रत का बहुत महत्व है। सावन मास में गुरूवार व्रत में बृहस्पतेष्वर महादेव की उपासना की जाती है। जिनकी भी कुंडली में गुरू राहु से पीडि़त होकर विपरीत कारक हो, उन्हें बृहस्पतेष्वर महादेव की उपासना करने से लाभ प्राप्त होता है। जिन भी जातक के जीवन में विद्या तथा धन संबंधी कष्ट दिखाई दे, उसे बृहस्पतेष्वर महादेव की इस पूजा को जरूर करना चाहिए। बृहस्पतेष्वर महादेव की पूजा के लिए प्रातःकाल स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर ब्रम्ह मूर्हुत में पूजन का विधान है, जिसमें बृहस्पति की प्रतिमा या बेसन से षिवलिंग बनाकर किसी पात्र में रखकर पीले वस्त्र, पीले फूल, चमेली के फूलों की माला अक्षत आदि से पूजन करें। पंचोपचार पूजा कर पीले फलों का भोग लगायें तथा दूध में केषर डालकर उॅ बृहस्पतेष्वराय नमः का जाप करते हुए रूद्राभिषेक करें। इसके उपरांत आरती आदि के बाद यथा संभव ब्रहम्णों को दान तथा भोज कराने के उपरंात चने या बेसन से बने मीठे खाद्य ग्रहण करें। श्रावण मास में किये गए बृहस्पतेष्वर महादेव के पूजन से गुरू ग्रहों के दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है तथा जीवन में आ रही विद्या तथा धन संबंधी कष्टों से राहत मिल सकती है।



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Saturday, 2 May 2015

जानिये आज 02/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "करें ज्योतिषीय उपाय से नेतृत्व क्षमता का विकास"

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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 02/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज के सवाल जवाब 02/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का राशिफल 02/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का पंचांग 02/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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श्रावण में कालाष्टमी व्रत से पायें जीवन में सफलता

श्रावण में कालाष्टमी व्रत से पायें जीवन में सफलता -


श्रावण मास की अष्टमी को कालाष्टमी के रूप में मनाया जाता है। यदि इस दिन बुधवार हो तो उसे बुधाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। भगवान षिव के भैरव रूप की पूजा इस दिन की जाने की प्रथा है। भगवान भोलेनाथ के भैरव रूप की पूजा या स्मरण मात्र से सभी प्रकार के पाप, दोष ताप तथा कष्ट दूर होते हैं। विषेष कर जिनकी कुंडली में बुध राहु से पीडि़त हो उसे कालाष्टमी का व्रत तथा पूजन अवष्य करना चाहिए जिससे जीवन में सफलता प्राप्ति का रास्ता खुलता है। भगवान भैरवनाथ तंत्र-मंत्र की विद्याओं के ज्ञाता हैं साक्षात रूद्र हैं। षिवपुराण में भगवान षिव के भैरव रूप का वर्णन है कि सृष्टि की रचना, पालन और संहारक इनके द्वारा किया गया। इस रूप की पूजा से सभी प्रकार से रक्षा कर पाप से मुक्ति देते हैं।
षिवजी के भैरव रूप की पूजा के लिए षोड्षोपचार सहित पूजा कर आध्र्य देना चाहिए। रात के समय जागरण कर भोलेषंकर एवं माता पार्वती की कथा एवं भजन कीर्तन कर भैरवजी की कथा का श्रवण-मनन करना चाहिए। मध्य रात्रि होने पर शंख, नगाड़ा, घटा आदि बजाकर भैरव जी की आरती करनी चाहिए। भैरव भगवान का वाहन श्वान है अतः इस दिन कुत्ते को आहार देना चाहिए। कालभैरव स्त्रोत का पाठ तथा उपासना कर दान आदि देने से जीवन में सफलता प्राप्त होती है तथा कालसर्प दोष से दुषित बुध तथा षिक्षा में बाधा दूर होती है।


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श्रावण सोमवार व्रत


श्रावण सोमवार व्रत  -
सेमवार व्रत में भगवान षिव के साथ माता पावर्ती तथा श्री गणेष की भी आराधना का महत्व है। जिसमें भगवान षिव का यथोपचार, विधि-विधान और पूजन सामग्री से पूजा की जाती है। शास्त्र विधान के अनुसार सोमवार के व्रत की अवधि सूर्योदय से सूर्यास्त तक हैं सोमवार का व्रत रखना अति श्रेष्ठ माना जाता है। सोमवार व्रत के पालन में तीन प्रमुख विधान हैं -इसमें नियमित वार व्रत के रूप में सोमवार व्रत,दूसरा सोलह सोमवार का व्रत तथा तीसरा सौम्य प्रदोष व्रत। फल की दृष्टि से तीनों व्रत भौतिक सुख और कामनाओं को पूरा करते हैं। साथ ही कालसर्प दोष की निवृत्ति के लिए श्रावण मास में सबसे सरल उपाय षिव की आराधना है। शास्त्र के अनुसार श्रावण मास में नदी के किनारे स्थित किसी षिव के मंदिर में कालसर्प दोष की शांति के लिए षिव के साथ नागपूजन करने से कालसर्प दोष की निवृत्ति होती हैं। इसमें प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर भगवान भोलेषंकर की गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवद्य द्वारा पंचोपचार से पूजा कर भगवान षिव पर जल से अभिषेक करें उसके उपरांत स्वच्छ जल से अभिषेक कर बिल्व पत्र तथा धतूरा आदि फूल फल आदि अर्पित कर आरती करें। इससे मनोकामना पूरी होती है। भगवान षिव वैसे ही प्रसन्न हो जाते हैं तथा श्रावण मास उनका प्रिया मास होने से इस मास में किए गए व्रत का विषेष फल मिलता है।


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सावन मास में कीजिये शिव पूजन



भगवान षिव के प्रिय मास सावन में किया गया षिव पूजन, व्रत तथा दान बहुत फलदायी होता है। शास्त्रों में षिव का मतलब कल्याण करने वाला बताया गया है। सावन मास के हर दिन में किए गए तप का अपना अलग ही महत्व होता है। श्रावण मास में बीमारी या पीड़ा से राहत हेतु पार्थिव पूजन का बहुत महत्व है। इसमें रविवार को ब्रम्ह मूहुर्त में काले तिल को स्नान वाले जल में मिलाकर उससे स्नान करने के उपरांत पार्थिक पूजन के लिए गेहूॅ के आटे से 11 पार्थिव लिंग बनाकर षिव महिम्र स्त्रोत के श्लोकों से पूजा और अभिषेक कर कनेर, मौलश्री, बेलपत्र चढ़ाकर आरती करने के उपरांत दान करें तथा भजन कीर्तन करें। सूर्यास्त के पूर्व उक्त पार्थिक को बहते जल में प्रवाहित कर स्नान के उपरांत चंद्रदर्षन कर अध्र्य देने के उपरांत बिना नमक का आहार ग्रहण करें। इससे शारीरिक व्याधि दूर होकर स्वास्थ्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है।


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गुरू पूर्णिमा व्रत



गुरू पूर्णिमा व्रत -

हिन्दी मास की अंतिम तिथि को पूर्णिमा कहा जाता है इस दिन चंद्रमा का पूर्ण रूप होता है जिसका धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व माना गया है। चूॅकि भारतीय शास्त्र में चंद्रमा का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है अतः पूर्णिमा को बहुत शुभ एवं मंगलकारी तिथि माना जाता है। पूर्णिमा के दिन स्नान, दान का विषेष महत्व दिया गया है और इस दिन धर्मकर्म करने से जीवन में पुण्य की प्राप्ति होने से जीवन के कष्ट होते हैं तथा सुखसमृद्धि प्राप्त होती है ऐसी मान्यता भारतीय दर्षन में है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा में कुल गुरू या गुरू की पूजा का विधान है। माना जाता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा में स्नान कर अपने गुरू का पूजन कर दान करने से जीवन से जीवन में अषिक्षा समाप्त होकर कष्ट समाप्त होकर मन वांछित फल की प्राप्ति हेाती है। भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि बिना गुरू के मैं प्राप्त नहीं होता। गंगाजी या किसी नदी तालाब में सबसे पहले नियमपूर्वक पवित्र होकर स्नान करने के उपरांत सफेद कपड़े पहनें और आचमन करें। इस के बाद व्रत प्रारंभ करने हेतु ‘उॅ नमो नारायण’ मंत्र का उच्चारण करें। जिनके मन में अषांति, तनाव तथा भ्रम की स्थिति होती है उन्हें पूर्णिमा का व्रत विषेष शुभ फलदायी होता है ऐसी ज्योतिषीय मान्यता है। इस पूर्णिमा में गुरू का पूजन तथा आरती कर एवं सफेद चीजों के दान के उपरांत पारण करने से मनोकामना की पूर्ति होती है।



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संतान से संबंधित सुखों में बाधा का कारण - पितृदोष



संतान से संबंधित सुखों में बाधा का कारण -पितृदोष -
मानव का गृहस्थाश्रम संतति बिना सफल नहीं होता। ऐहिक सुख एवं पारलौकिक गति ये दोनों चीजें अपत्य लाभ से ही प्राप्त होती है। इस संसार में मनुष्य विभिन्न दुखों से कष्ट प्राप्त करता है किंतु संतान से संबंधित कष्ट सबसे दुखदायी कष्ट साबित होता है, जिसमें संतान का ना हो, पुत्र का ना होना, संतति का जीवित ना रहना, संतान का बीमार रहना, चारित्रीय विकास या शारीरिक विकास का ना होना आदि का कारण पितृदोष माना जाता है। ज्योतिषषास्त्र का प्रमुख ग्रंथ बृहत्पाराषरी ग्रथ तथा धर्मसिंधु ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक-222 में स्पष्ट उल्लेख है कि पूर्वजन्म में किए गए विषिष्अ कृत द्रव्यापहरणादि, उस जनम में किए गए विषिष्ट कृत, वामकर्मी अभिचार योग, पितर आदि या अन्य संबंधितों की मुक्ति का ना होना, प्रेतलोक में पैषाचिक की पीड़ा होना, नागवध आदि कारणों से पितृदोष लगता है, जिसका वर्णन आर्युवेद में भी किया गया जोकि अथर्ववेद का ही उपवेद है। जिसमें कहा गया है कि रोग का षास्त्रसम्मत निदान होकर और उचित औषधि योजना के उपरांत भी रोग का इलाज न हो पाये तो उसे कर्मज समझना चाहिए। अतः इस प्रकार के रोग के नाष के लिए आयुर्वेद के सुश्रुत ग्रथ में नारायण-नागबलि विधि से भगवान शंकर की उनके गणों के साथ पूजन करने की विधि बताई गई है।


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ग्रह, नक्षत्र और आपसी रिष्तों



ग्रह, नक्षत्र हमारे आपसी रिष्तों पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। इस संबंध में ज्योतिषषास्त्र में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। कुंडली में प्रत्येक ग्रह से कोई ना कोई रिष्ता जुड़ा होता है तथा प्रत्येक भाव से रिष्तेदारो की स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सूर्य से जहाॅ पिता तथा पितातुल्य संबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है वहीं पर चंद्रमा से माॅ, मौसी तथा माता संबंधी रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। मंगल से भाई तथा मित्रों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो बुध से बहन, बुआ, बेटी, साली और इससे संबंधित रिष्तों के बारे में जाना जा सकता है वहीं पर गुरू से पिता, दादा, गुरू तथा देव का पता चलता है शुक्र से पत्नी तथा स्त्री का पता चलता है शनि से चाचा, माता, सेवक तथा अधिनस्थों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो राहु से साला और ससुर तथा केतु से संतान और नाना जैसे रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही भाव भी रिष्तों के विषय में जानकारी देते हैं, जिसमें लग्न से स्वयं, दूसरे स्थान से कुटुंब, तीसरे स्थान से छोटे भाई-बहन तथा पड़ोसियों एवं सहायकों के बारे में जाना जा सकता है तो चतुर्थ भाव से माॅ, ससुर तथा नजदीकी रिष्तेदारों के बारे में जानकारी मिलती है तो पंचम से संतान, दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, समाज के संबंध में जाना जा सकता है। षष्ठम स्थान से मातृपक्ष, सेवक तो सप्तम स्थान से जीवनसाथी, पार्टनर के बारे में जानकारी प्राप्त हेाती है तो अष्टम स्थान पितृ संबंधी रिष्तों की जानकारी देता है वहीं नवम स्थान दादा तथा पारिवारिक बुजुर्गो के संबंध में सूचना देता है दषम स्थान से पिता, अधिकारी तथा सहयोगियों के बारे में जाना जा सकता है। एकादष स्थान से बड़े भाई-बहन तथा दोस्तों के बारे में जाना जा सकता है तो द्वादष स्थान से पिता पक्ष तथा, जीवनसाथी से संबंध जाना जाता है तो आध्यामिक रिष्तों के बारे में जाना जाता है अतः इनमें से किसी भी भाव या भावेष की स्थिति प्रतिकूल होने पर उस रिष्तें से हानि तथा कष्ट की संभावना बनती है तो जिस भाव या भावेष की स्थिति अनुकूल हो वह रिष्ता जीवन में सुख तथा सहायक बनता है। इस प्रकार जीवन में कौन सा रिष्ता सहयोगी होगा तथा किस रिष्ते से सुख प्राप्त होगा इसकी जानकारी कुंडली के भाव या भावेष से जाना जा सकता है। जीवन में जो रिष्ता दुखी करता हो, उस रिष्ते से संबंधित ग्रह तथा भाव को मजबूत करने का उपाय आजमाकर शुभ फल पाया जा सकता है।


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विवाह का सही समय और संयोग



विवाह का सही समय और संयोग -

बदले और बदलते हुए परिवेष में विवाह एक चिंता का विषय है। ज्यादातर युवा और उनके अभिभावक कैरियर को प्राथमिकता देते हुए एजूकेषन तथा कैरियर के बारे में तो गंभीर होते हैं कि शादी संबंधी विचार टालते रहते हैं, जिसके कारण विवाह की उचित आयु कब निकल जाती है, पता भी नहीं चलता। स्वावलंबी बनने के फेर में साथ ही मनवांछित जीवनसाथी पाने की आष में अपना सामाजिक या आर्थिक स्थिति समकक्ष करने के कारण विवाह में देर कई बार विवाह में बाधा का भी कारण बनता है। किंतु वास्तव में स्थिति इसके विपरीत होती है। विवाह में बाधा का क्या कारण बनना है और विवाह कब होना है। यह सब कुछ कुंडली के अध्ययन से जाना जा सकता है। सप्तमाधिपति यदि सबल शुभग्रह से युत, लग्नस्थ, द्वितीयस्थ, सप्तमस्थ या एकादषस्थ हो तो विवाह उचित समय में होता है। यदि किसी की भी कुंडली में शुक्र पाप रहित होकर मित्र राषिस्थ तथा चंद्रमा से अनुकूल हो तो विवाह का समय उचित होता है अर्थात् भारतीय दर्षन के अनुसार सही समय पर विवाह का कारक बनाता है। उचित समय में विवाह की कामना तथा उत्तम जीवनसाथी की कामना से किसी शुभ मूहुर्त में दस हजार गंधर्वराज मंत्रोपासना कर उसके उपरांत हवन, हवन का दषांष तर्पण तथा तर्पण का दषांष मार्जन, मार्जन का दषांष ब्राम्हण भोजन कराना चाहिए। इससे जीवन की वैवाहिक बाधा दूर हो सकती है।



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ववाह में विलंब -स्वयं की पसंद और पारिवारिक मतभेद



ववाह में विलंब -स्वयं की पसंद और पारिवारिक मतभेद -

सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे प्राचीन काल में गंर्धव विवाह के रूप में मान्यता प्राप्त थी। आज के आधुनिक काल में इसे ही प्रेम विवाह का रूप माना जा सकता है। इस विवाह में वर-वधु की पारस्परिक सहमति के अतिरिक्त किसी की आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। पुराणों में वणिर्त पुरूष और प्रकृति के प्रेम के साथ आज के युग में प्रचलित प्रेम विवाह देष और काल के निरंतर परिवर्तनषील परिस्थितियों में प्रेम और उससे उत्पन्न विवाह का स्वरूप सतत रूपांतरित होता रहा है किंतु एक सच्चाई है कि सामाजिकता का हवाला दिया जाकर विरोध के बावजूद आज भी यह परंपरा अपारंपरिक तौर पर मौजूद है। अतः इसका ज्योतिषीय कारण देखा जाना उचित प्रतीत होता है। जन्मांग में प्रेम विवाह संबंधी संभावनाओं का विष्लेषण करते समय सर्वप्रथम पंचमभाव पर दृष्टि डालनी चाहिए। पंचम भाव से किसी जातक के संकल्प-षक्ति, इच्छा, मैत्री, साहस, भावना ओर योजना-सामथ्र्य आदि का ज्ञान होता है। सप्तम भाव से विवाह, दाम्पत्य सुख, सहभागिता, संयोग आदि का विचार किया जाता है। अतः प्रेम विवाह हेतु पंचम एवं सप्तम स्थान के संयोग सूत्र अनिवार्य हैं। सप्ताधिपति एवं पंचमाधिपति की युति, दोनों में पारस्परिक संबंध या दृष्टि संबंध हेाना चाहिए। प्रेम विवाह समान जाति, भिन्न जाति अथवा भिन्न धर्म में होगा इसका विचार करने हेतु नवम भाव पर विचार किया जाना चाहिए। स्फुट रूप से एकादष और द्वितीय स्थान भी विचारणीय है, क्योंकि एकादष स्थान इच्छापूर्ति और द्वितीय भाव पारिवारिक सुख संतोष के अस्तित्व को प्रकट करता है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। प्रेम विवाह हेतु चंद्रमा की स्थिति प्रबलता, ग्रहयुति आदि का भी प्रभाव पड़ता है। जिनके जीवन में इस प्रकार के प्रभाव से विवाह में रूकावट या कष्ट हों उन्हें षिव-पावर्ती की पूजा सोमवार का व्रत करते हुए करना चाहिए तथा शंकर मंत्र का जाप करने से बाधा दूर होती है।



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सरकारी नौकरी प्राप्ति के योग



सरकारी नौकरी प्राप्ति के योग या बाधा दूर करने के उपाय:-
सभी की चाह होती है कि उच्च पद तथा सम्मान अपने जीवन में प्राप्त करें। साथ ही यह चाह भी कि जीवन में स्थिरता बनी रहे।  इस का एक तरीका सरकारी नौकरी प्राप्त करना भी है। किंतु कई बार देखा जाता है कोई व्यक्ति बहुत प्रयास के बाद भी सफल नहीं हो पाता है वहीं किसी को एक बार में अच्छी सफलता प्राप्त हो जाती है। इसका कारण अथक मेहनत के साथ जन्मपत्री में ग्रह योग भी होते हैं। यदि ग्रह योग राजकीय पद पर कार्य करने का है तो थोड़े से प्रयास से भी अच्छा पद प्राप्त हो सकता है किंतु इसके लिए व्यक्ति की ग्रह दषाओं के साथ दषा एवं अंतरदषा भी प्रभाव डालती है। प्रत्येक जातक अपने ग्रह स्थिति हेतु कुंडली में सूर्य, गुरू, मंगल, चंद्रमा तथा राहु की स्थिति का विष्लेषण तथा प्रयास के दौरान ग्रह दषाओं के साथ दषा तथा अंतरदषा का मूल्यांकन कर अपनी सफलता का आकलन कर सकता है। यदि किसी जातक की ग्रह स्थिति अनुकूल हो तो दषा के प्रतिकूल होने पर आवष्यक उपाय द्वारा भी सफलता प्राप्ति का रास्ता खोल सकता है। प्रतियोगिता परीक्षा में निष्चित सफलता प्राप्ति तथा मन की एकाग्रता में वृद्धि हेतु पूर्व दिषा में मुख कर नित्य अष्म स्तोत्र का पाठ का पाठ करना चाहिए।

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आपका बच्चा कितना आज्ञाकारी होगा जाने ज्योतिषीय विवेचन से


आपका बच्चा कितना आज्ञाकारी होगा जाने ज्योतिषीय विवेचन से:-
यदि गुरू या शुभ ग्रह लग्न में अनुकूल हो तो व्यक्ति को स्वयं ही ज्ञान व आध्यात्म के रास्ते पर जाने को प्रेरित करता है। यदि इसपर पाप प्रभाव न हो तो व्यक्ति स्व-परिश्रम तथा स्व-प्रेरणा से ज्ञानार्जन करता है। अपने बड़ों से सलाह लेना तथा दूसरों को भी मार्गदर्षन देने में सक्षम होता है। यदि गुरू का संबंध तीसरे स्थान या बुध के साथ बनें तो वाणी या बातों के आधार पर प्रेरित होकर सफल होता है वहीं यदि गुरू का संबंध मंगल के साथ बने तो कौषल द्वारा मार्गदर्षक प्राप्त करता है शुक्र के साथ अनुकूल संबंध बनने पर कला या आर्ट के माध्यम से मार्गदर्षन प्राप्त करता है चंद्रमा के साथ संबंध बनने पर लेखन द्वारा मार्गदर्षन पाता है। अतः गुरू का उत्तम स्थिति में होना अच्छे मार्गदर्षन की प्राप्ति या मार्गदर्षन में सफलता का द्योतक होता है। यदि गुरू चतुर्थ या दषम भाव में हो तो क्रमषः माता-पिता ही गुरू रूप में मार्गदर्षन व सहायता देते हैं। गुरू यदि 6, 8 या 12 भाव में हो तो गुरू कृपा से प्रायः वंचित ही रहना पड़ता है। वही यदि लग्न में राहु या शनि जैसे ग्रह हों तो बच्चा अपनी मर्जी का करने का आदि होता है जिससे आज्ञाकारी ना होने के कारण बढ़ती उम्र में गलत संगत या गलत निर्णय लेकर अपना भविष्य खराब कर बैठता है। ऐसी स्थिति में उसके ग्रहों का विष्लेषण कराया जाकर उचित उपाय लेने से उन्नति के रास्ते खुले रहते हैं।



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