Wednesday, 9 September 2015

मधा नक्षत्र और शनि

यदि शनि मधा नक्षत्र के पहले चरण में हो तो जातक छोटे कद का, मोटा और कठोर शरीर का स्वामी होता है । वह सरकारी सेवा में कार्यरत, आचरणहीन, वैवाहिक जीवन में दुखी तथा योग्य पुत्र एवं पुत्रियों वाला होता है । वह जीवन को मध्यावस्था में पक्षाघात से ग्रस्त हो सकता है।
यदि दुसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक दो बार विवाह करता है । उसे दांपत्य जीवन में अनेक प्रकार की कठिनाइयां भोगनी पड़ती है तथा उसकी आर्थिक स्थिति कभी संतोषजनक नहीं रहती, अगर तीसरे चरण में शनि का प्रभाव हो तो जातक का गृहस्थ जीवन सदैव कष्टकारी रहता है। उसकी पत्नी दुर्भाग्य की सूचक, व्रहू और मुंहजोर होती है । इसी कारण जातक पत्नी से अलग हो जाता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक स्वस्थ युवं सुगठित शरीर का स्वामी, ईमानदार, भद्दी भाषा का प्रयोग करने वाला, मेहनत-मजदूरी करके आजीविका चलाने वाला तथा स्वामी भक्त होता है । ऐसे जातक को कहीं से भी आकस्मिक रूप से धन की प्राप्ति हो सकती है ।

नक्षत्र और रोग विचार

फलित शास्त्र में अभिजित् नामक एक अत्ठाईसवा नक्षत्र भी माना गया है । यह उत्तराषाढ़ के बाद तथा श्रवण से पहले आता है । यह नक्षत्र कुल  ज्योतिष्य शास्त्र के
सामान्य व्यवहार में अभिजित् नक्षत्र का स्थान नहीं है । तथा रोग विचार में भी यह
कोई अहं भूमिका नहीं निभाता | नक्षत्रों का सामान्य परिचय
अश्विनी-यह नक्षत्र अनिद्रा एव मतिभ्रम आदि रोगों से संबंधित है । इस नक्षत्र में रोग प्रारम्भ होने पर वह १,९ या २५ दिन तक रहता है ।
भरणी…यह नक्षत्र तीव्र ज्वर, वेदना (दर्द ) एव शिथिलता से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र से रोग का प्रारम्भ होने पर वह १,२१,३० दिन . चलता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग मृत्युदायक भी हो जाता है ।
कृत्तिका-यह नक्षत्र दाह, उदरशूल, तीव्र वेदना, अनिद्रा एव नेत्र रोग से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग का प्रारम्भ होने पर वह ९/१ ० या २१ दिन तक रहता है ।
रोहिणी-यह नक्षत्र सिरदर्द, उन्माद, प्रलाप एव कुक्षिपूल से सम्बन्धित है : इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग ३ ।७। या १ ० दिन तक चलता है ।
मृगशीर्ष -यह नक्षत्र त्रिदोष, चर्मरोग एव असहिष्णुता (एलर्जी) से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ३, ५ या दि दिन तक रहता है ।
आद्रा- यह नक्षत्र वायुविकार, स्नायु-विकार एव कफ रोगों से सम्बन्धित है । इसमें
रोग होने पर वह १० दिन या मैं मास तक रहता है । कभी-कभी इस रोग में उत्पन्न रोग
से मृत्यु हो जाती है ।
पुनर्वसु-यह नक्षत्र कमर में दर्द, सिरदर्द या गुर्दे के रोगो से सम्बन्धित है । इसमें रोग होने पर ७ या ९ दिन चलता है ।
पुष्य-यह नक्षत्र ज्वर, दर्द एव आकस्मिक पीडा-दायक रोगी से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ७ दिन तक रहता है ।
आश्लेषा - यह नक्षत्र सर्वात्रपीडा, मृत्यु तुल्य कष्ट, विपरोग एव सर्पदश आदि से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २० या ३ ० दिन रहता है । तथा अधिकाशतया वह मृत्युदायक होता है ।
मघा -यह नक्षत्र वायुविकार, उदर विकार एवं मुखरोगों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २ ०,३ ० या ४५ दिन तक चलता है । और उसकी पुनरावृति भी हो जाती है ।
पूर्वाफाल्गुनी-यह नक्षत्र कर्णरोग, शिरोरोग, ज्वर तथा वेदना से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ८, १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में रोग एक वर्ष तक भी रहता है ।
उत्तराफाल्गुनी-यह नक्षत्र पित्तज्यर, अस्थिभांग एव सर्व पीड़ा से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, १५ या २७ दिन तक चलता है ।
हस्त-यह नक्षत्र उदर शूल, म्रिदाग्नी एवं अन्य उदर विकारों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, ८, मैं या १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी रोग की पुनरावृत्ति भी हो जाती  ।
चित्रा -यह नक्षत्र अत्यन्त कष्टदायक या दुर्घटना जन्य पीडाओं से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ८, ११ या १५ दिन तक रहता है । तथा कभी-कभी उस रोग से मृत्यु भी हो जाती है ।

स्वाति-यह नक्षत्र उन जटिल रोगी से सम्बन्धित है, जिनका शीघ्र निदान या उपचार नहीं हो पाता है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग १ , २, ५ या १० मास तक रहता है ।

रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग

भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों के स्थापना की अपनी-अपनी कथाएं और महत्व है, लेकिन इस ज्योतिर्लिंग की कथा कुछ अलग है क्योंकि इस की स्थापना और किसी ने नहीं बल्कि खुद भगवान राम ने की थी। तमिलनाडु के रामनाथपुरम् में भगवान शिव का यह रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग है।
ऐसे हुई थी रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग की स्थापना
लंकापति रावण एक ब्राह्मण था। जिको भगवान शिव का लिंग स्थापित करके अभिषेक करने को कहा। श्रीराम ने हनुमान को कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिव की मूर्ति लाने को कहा। हनुमान को कैलाश पर्वत जाने पर भगवान शिव की कोई मूर्ति नहीं दिखाई दी, तो हनुमान भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनका तप करने लगे, जिसकी वजह से वे समय पर श्रीराम के पास नहीं पहुंचे। बहुत समयसकी वजह से रावण का वध करने पर श्रीराम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। ऋषियों ने श्रीराम को ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित करने को कहा। इसके लिए ऋषियों ने श्रीराम तक इतजार करने पर भी जब हनुमान भगवान शिव की मूर्ति लेकर नहीं लौटे, तो ऋषियों ने श्रीराम को माता सीता का बालू से बनाया हुआ शिवलिंग स्थापित करके उसकी पूजा-अर्चना करने की आज्ञा दी। वहीं शिवलिंग रामेश्वरम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्रीराम के नाम पर पड़ा इस ज्योतिर्लिंग का नाम
इय ज्योतिर्लिंग की स्थापना खुद श्रीराम ने की थी, जिसकी वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम श्रीराम के नाम रक ही रामेश्वरम् पड़ गया। कहा जातालगभग एक हजार फीट और उत्तर से दक्षिण से लगभग साढ़े छः सौ फीट में फैला हुआ है। यहां के मुख्य द्वार पर लगभग सौ फीट ऊंचा एक गोपुरम् है। तीनों दिशाओं में अन्य तीन भव्य गोपुरम् स्थित है।
यहां मौजूद हैं चौबीस तीर्थ
रामेश्वरम् मंदिर परिसर में धनुषकोटि, चक्रतीर्थ, शिव तीर्थ, अगस्त्य तीर्थ, गंगा तीर्थ, यमुना तीर्थ जैसे कुल चौबीस तीर्थ हैं। इस सभी तीर्थों के दर्शन करने के बाद ही रामे है इस ज्योतिर्लिंग की पूजा-अर्चना करने पर न की सिर्फ भगवान शिव बल्कि श्रीराम भी प्रसन्न होते है।
ऐसा है मंदिर का स्वरूप
रामेश्वरम् मंदिर शिल्पकला का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। आज जिस मंदिर का निर्माण लगभग 350 साल पहले किया गया था। यह मंदिर पूर्व से पश्चिम तक श्वरम् ज्योतिर्लिंग पर जल चढ़ाने का महत्व माना जाता है।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है सिर्फ गंगाजल
अन्य ज्योतिर्लिंगों की तरह यहां भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर कोई भी सामान्य जल नहीं चढ़ता है। मान्यताओं के अनुसार, इस ज्योतिर्लिंग पर केवल गंगोत्री या हरिद्वार से लाया गया गंगाजल ही चढ़ाया जाता है, जिसे यहां के पुजारी चढ़ाते हैं।
जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग और हनुमदीश्वर लिंग का दर्शन करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है. यहां के दर्शनों का मह्त्व सभी प्रकार के यज्ञ और तप से अधिक कहा गया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है, कि यहां के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह स्थान ज्योतिर्लिंग और चार धाम यात्रा दोनों के फल देता है.
रामेश्वरम को पित्तरों के तर्पण का स्थल भी कहा गया है. यह स्थान दो ओर से सागरों से घिरा हुआ है. इस स्थान पर आकर श्रद्वालु अपने पित्तरों के लिए कार्य करते है. तथा समुद्र के जल में स्नान करते है. इसके अतिरिक्त यहां पर एक लक्ष्मणतीर्थ नाम से स्थान है, इस स्थान पर श्रद्वालु मुण्डन और श्राद्व कार्य दोनों करते है. रामेश्वरम मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, वे पत्थर श्रीलंका से लाये गए थे, क्योकि यहां आसपास क्या दूर दूर तक कोई पहाड नहीं है.

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डाक्टर बनने के ग्रहयोग और ज्योतिष्य विश्लेषण

आज के इस युग में हर माँ-बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा या बेटी डॉक्टरी की उच्च शिक्षा प्राप्त कर सफल डॉक्टर का व्यवसाय अपना कर समाज में इज्जतदार आदमी बने । जैसे-जैसे समाज में बीमारियों बढती जा रही है, वैसे-वैसे डॉक्टरी पेशे से जुडे हुए लोंग का महत्व बढ़ता जा रहा है। ज्योतिष विज्ञान के आधार पर कौन जातक डाँक्टर बनेगा और किस तरह की बीमारियों का इलाज करेगा आदि-आदि सूक्ष्म विश्लेषण के बाद जाना जा सकता है| डाक्टर बनने के ज्योतिष के कुछ योग निम्नानुसार देखे जा सकते है-
1. यदि मेष, वृश्चिक, वृष, तुला, मकर या कुम्भ राशि कीं लग्न हो और उनमें मंगल-शनि या चंद्र-शनि या बुध-शनि की युति हो या फिर सूर्य-चंद्र के साथ अलग-अलग तीन ग्रहों की युति हो, तो जातक चिकत्सा विज्ञान की पढाई कर चिकित्सक बनने की प्रबल संभावना रहती है।
2.चाहे कोई भी लग्न या राशि हो और केन्द्र में सूर्य-शनि या सूर्य-मंगल-शनि या चंद्र-शनि या चन्द्र-मंगल-शनि या बुध-शनि या बुध-मंगल-शनि या सूर्य-बुध-शनि या चंद्र-बुध-शनि की युति में से किसी की भी युति हो व इनमें कोई दो केन्द्रधिपत्य हो और युति कारक ग्रहों में से कोई अस्त न हो, तो जातक के डाँक्टर बनने की प्रबल संभावना होती है ।
3.सामान्यत: यदि लग्न में मंगल स्वराशि या उच्चराशि का होकर बैठा हो तो भी जातक को सर्जरी में निपुण बनाता है । मंगल चुंकि साहस व रक्त का कारक है ओर सर्जन के लिए रक्त और साहस दोनों से संबंध होता है ।
4. यदि कुंडली में " कर्क राशि एवं मंगल बलवान हो तथा लग्न व दशम से मंगल तथा राहू का किसी भी रुप में संबंध हो, तो भी जातक को डॉक्टर बनाता है।
5. केतु हमेशा डाक्टर की कुंडली में बली होता है । साथ ही सूर्य, मंगल एवं गुरू भी ताकतवर होने चाहिए। चुंकि सूर्य आत्मा का कारक है एवं गुरू बहुत बड़ा मरीज को ठीक करने वाला होता है ।
6 वृश्चिक राशि दवाओं का प्रतिनिधित्व करती है, अत: इसका स्वामी मंगल भी ताकतवर होना चाहिए ।
7. भाव 6 एवं उसका स्वामी का यदि भाव 10 से संबंध हो रहा हो, तो भी डॉक्टर बनाने में सहायक होता है |
8. यदि मंगल या केतू बली होकर दशवें भाव या दशमेश से संबंध बना रहा हो तो जातक सर्जरी वाला डॉक्टर हो सकता है |
9.मीन या मिथुन राशि गुप्त रोगियों से संबंधित दवाओं के डॉक्टर बनाने में के सहायक होता है ।
10. यदि पंचमेश भाव 8 मेँ हो, तो भी डॉक्टर बनने की संभावना होती है ।
11. यदि भाव 10 में चतुथेंश हो और दशमेश भाव 4 में हो, तो जातक दवाऐ जानने वाला दवाओं के माध्यम से जीवन यापन कर डॉक्टरी पेशा अपनाता है ।
12 जिन जातकों की कुंडली में चंद्र व गुरु का बली संबध होता है, वे भी सफल चिकत्सक होते है ।
13. यदि कुंडली का आत्म्कारक ग्रह अपने मूल त्रिकोंण का लग्न में पंचमेश से युति कर रहा हो, तो जातक प्रसिद्ध नाम वाला चिकत्सक होता है ।
14.यदि अकारात्मक ग्रह या भाग्येश या दोनो वर्गोत्त्मी होकर कारकांश कुंडली में लग्न से केन्द्र में हो, तो रसायन से संबंधित दवाओं का व्यवसाय करने की संभावना रहती है ।
15 यदि सूर्य और मंगल की पंचम भाव से युति हो और शनि अथवा राहू भाव 6 में हो, तो जातक सर्जन हो सकता है।
16. यदि वृश्चिक राशि में बुध तथा तृतीय भाव पर चंद्र की दृष्टि हो तो जातक मनोचिकित्सक हो सकता है ।
17 यदि कुंभ लग्न में स्वगृही मंगल दशम भाव से हो तथा चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हो, तो ऐसा जातक भी सर्जन हो सकता है ।
18. यदि समराशि का बुध हो और लग्न विषम राशि की हो तथा धनेश मार्गी हो तथा अच्छे स्थान में हो, मंगल व चंद्र भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक को विख्यात चिकत्साशास्त्री बना सकता है ।
19. यदि कर्क लग्न की कुंडली के छठे भाव में गुरु व केतू बैठे हों, तो जातक होम्योपैथिक चिकित्सक बन सकता है ।
20. सिह लग्न कुंडली के दशम भाव में लग्नेश सूर्य हो और दशमेश शुक्र नवमस्थ हो तथा योगकारक पाल शुभ स्थान में बली हो, तो डॉक्टर बनता है ।
21. कुंडली में यदि मंगल लाभ भाव में हो तथा तृतीयेश भाव 5 में बैठे एवं शुक्र चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक का स्त्री एवं बाल रोग विशेषज्ञ बनने की सभावना होती है
22.कुंडली के पंचम भाव में यदि सूर्य-राहू या राहू-बुध युति हों तथा 'दशमेश की इन पर दृष्टि हो, साथ ही मंगल, चंद्र ,गुरु भी अच्छी स्थिति में हो, तो जातक चिकित्सा क्षेत्र में ज्योतिष प्रयोग द्वारा सफल चिकित्सक बन सकता है|
23. यदि कुंडली में लाभेश और रोगेश की युति ताभ भाव में हो तथा मंगल,चंद,सूर्य भी शुभ होकर अच्छी स्थिति में हो, तो जातक का चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ने की संभावना होती है ।

Tuesday, 8 September 2015

लंदन स्वामीनारायण मंदिर

लंदन का स्वामीनारायण मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है। स्वामीनारायण संप्रदाय की आस्था का मुख्य केन्द्र है। स्वामीनारायण संप्रदाय भी वैष्णम संप्रदाय का ही एक रूप है। यह ब्रिटेन का पहला प्रामाणिक हिंदू मंदिर माना जाता है। यह एक बहुत ही खुबसूरत मंदिर है। मंदिर परिसर से साथ-साथ यहां स्थित भगवान कृष्ण की मूर्ति का श्रृंगार भी बहुत ही सुदंर किया जाता है।लंदन के किंग्सबरी में स्थित नवनिर्मित स्वामीनारायण मंदिर मणीनगर संस्थान के आचार्यश्री पुरुषोत्ताम प्रियदासजी की प्रेरणा से तैयार हुआ यह मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा और पहला ईको फ्रैंडली मंदिर होगा |
 स्वामीनारायण संप्रदाय के संतों के मार्गदर्शन से इस मंदिर का निर्माण पर्यावरण सुरक्षा के हरेक पहलू को ध्यान में रखकर बनाया गया यह मंदिर 1.84 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। इसलिए इस मंदिर को लंदन की पर्यावरणीय संस्था 'ब्रीम' ने एक्सीलेंट रेटिंग भी दी है।
 इस मंदिर के निर्माण के लिए आउटर ही नहीं, बल्कि इंटीरियर डिजाइनिंग भी देखने योग्य है। मंदिर में भगवान श्री स्वामीनारायण के मूल सिद्धांत का पूरी तरह से पालन की गई है।
 जीआरसी सामान्य कांक्रीट की तुलना में हल्के ग्लासफायबर रिइंफोर्स कांक्रीट का उपयोग किया गया है। इसके साथ ही वजन कम होने के कारण स्ट्रक्चर पर ज्यादा वजन भी नहीं पड़ता, और जीआरसी की पतली दीवारें अन्य कांक्रीट या पत्थर से कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं। इस मंदिर के निर्माण में जिन पत्थरों का उपयोग किया गया था, वह इस मंदिर से पहले किसी हिंदू मंदिर के निर्माण में उपयोग नहीं किए गए थे।हिंदू संस्था ने करवाया था मंदिर का निर्माण इस मंदिर का निर्माण और देखभाल श्री बोछासंवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण नाम की संस्था करती है। इस मंदिर का उद्घाटन 1995 में किया गया था स्वामीनारायण मंदिर को हवेली के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर की निर्माण वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण है।
मंदिर में बनाए जाते है सभी हिंदू त्यौहार
लंदन का स्वामीनारायण मंदिर वहां रहने वाले हिंदू के लिए आस्था का केन्द्र है। यहां पर लगभग सभी हिंदू त्यौहार बहुत ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं। त्यौहार के अनुसार मंदिर की सजावट की जाती है और भगवान के वस्त्र और श्रृंगार भी वैसे ही पहनाए जाते हैं।
मंदिर में मौजूद मूर्तियां
मंदिर में तीन बहुत ही सुदंर मूर्तियां हैं। जिनमें से मध्य में भगवान स्वामीनारायण उनके बाएं ओर अक्षरब्रह्मा गुणातीतानन्द स्वामी और दाहिनी ओरअक्षरमुक्ता गोपालानंद स्वामी की मूर्ति है। इन मूतिर्यों का रोज अलग-अलग तरह से श्रृंगार किया जाता है।
हिंदू रीति-रिवाजों का होता हैं पालन
मंदिर विदेश में स्थित क्यों न हो, लेकिन यहां पर लगभग सभी हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया जाता हैं। भारत के मंदिरों की तरह ही यहां पर भी सुबह मंगला आरती उसके बाद श्रृंगार आरती और फिर दोपहर में राजभोग आरती की जाती है। शाम के समय में संध्या आरती और रात को शयन आरती करके मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं।

लीवर की बीमारी और ज्योतिष्य विश्लेषण

यकृत शरीर के अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों में से है। यकृत की कोशिकाएँ आकार में सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकने योग्य हैं, परंतु ये बहुत कार्य करती हैं। एक कोशिका इतना कार्य करती हैं कि इसकी तुलना एक कारखाने से (क्योंकि यह अनेक रासायनिक यौगिक बनाती है), एक गोदाम से (ग्लाइकोजन, लोहा और बिटैमिन को संचित रखने के कारण), अपशिष्ट निपटान संयंत्र से (पिपततवर्णक, यूरिया और विविध विषहरण उत्पादों को उत्सर्जित करने के कारण) और शक्ति संयंत्र से (क्योंकि इसके अपचय से पर्याप्त ऊष्मा उत्पन्न होती है) की जा सकती है। जिगर की विफलता के रोगों के रूप में विल्सन रोग, हेपेटाइटिस (यकृत शोथ), जिगर कैंसर, क्रोनिक जिगर की सूजन (यकृत चयापचय गतिविधि में परिवर्तन कर सकते हैं और अगर यह लंबे समय के लिए प्रभावित हो तो इसके हानिकारक प्रभाव से पूरा शरीर प्रभावित होता है। ज्योतिष में कुंडली के यकृत का संबंध ग्रह गुरु है। गुरु का अपना रंग पीला ही होता है और पीलिया रोग में भी जब रक्त में बिलीरूबिन जाता है, तो शरीर के सभी अंगों को पीला कर देता है। ऐसा पित्त के बिगडने से भी होता है। गुरु ग्रह भी पित्त तत्व से संबंध रखता है। पीलिया रोग में बिलीरूबिन पदार्थ रक्त की सहायता से सारे शरीर में फैलता है। रक्त के लाल कण मंगल के कारण होते हैं और तरल चंद्र से। इसलिए मंगल और चंद्र भी इस रोग के फैलने में अपना महत्त्व रखते है। इस प्रकार गुरु, मंगल और चंद्र जब अशुभ प्रभावों में जन्मकुंडली एवं गोचर में होते हैं, तो व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है। जब तक गोचर और दशांतर दशा अशुभ प्रभाव में रहेंगे, तब तक जातक को पीलिया रोग रहेगा उसके उपरांत नहीं।



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आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा:जाने ज्योतिष से

प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका साथी उसके लिए लाभकारी तथा सुखकारी हो, किंतु कई बार सभी प्रकार से अच्छा करने के बाद भी साथ वाला व्यक्ति आपके लिए दुख का कारक बन जाता है। ज्योतिष से जाने कि आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर रिश्तों में बाधा, सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो रिश्तों में आकर्षक तथा लगाव होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक सुख भी अच्छी होगी, जिसका लाभ साथी को भी मिलेगा। ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6, 8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश या द्वादशेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर लगाव के साथ अधिकार का भाव ज्यादा होता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही साथी के साथ रिश्ता निभाना ज्यादा आसान होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर भी आपसी समझ तथा लगाव को बढ़ाने के ज्योतिष उपाय करना चाहिए।

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कैसे लें वास्तु अनुरूप अपार्टमेंट्स में घर

वर्तमान के बदलते परिवेश में जहां भूखंडों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं ऐसे में अपार्टमेंट में घर लेना काफी सुविधाजनक हो गया है। वास्तु सभी अपार्टमेंट को एक स्वतंत्र इकाई मानता है इसलिए अपार्टमेंट में आप ऊपर रहें या नीचे, दिशा निर्धारण का वही सिद्धांत लागू होता है। अगर अपार्टमेंट बहुत ऊंचाई पर है, तब भी बेहतर यह है कि पूरा ब्लॉक वर्गाकार या आयताकार हो ताकि पृथ्वी से उसका नाता जुड़ा रहे। वास्तु के अनुसार वर्गाकार भवन पुरुषोचित होते हैं जबकि आयताकार इमारतें स्त्रियोचित(नारी-जातीय) और कोमल।
यदि आप अपार्टमेंट ब्लॉक में रहने जा रहे हैं तो उसकी ऊपरी मंजिल चुनिए ताकि भूतल स्तर के नुकसानदायक प्रभावों से बचा जा सके। अपार्टमेंट के लिए सबसे अच्छी जगह ब्लॉक की उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा है, जो प्रात:कालीन प्रकाश के अनुकूल गुणों को ग्रहण करती है। उत्तर-पूर्व दिशा वाला अपार्टमेंट यह सुनिश्चित करेगा कि अन्य अपार्टमेंट दक्षिण-पश्चिम में बाधाएं पैदा कर नकारात्मक शक्तियों के प्रवेश को रोकेंगे। ब्लॉक पर्याप्त दूरी पर हों ताकि कमरों में रोशनी व हवा आ सके।
वास्तु शास्त्रों का यह भी मानना है कि घर बनाने में प्रयुक्त किए गए सभी पदार्थों में जैविक ऊर्जा होती है। बलुआ तथा संगमरमर जैसे पत्थर घर में रहने वाले लोगों पर शुभ प्रभाव डालते हैं जबकि ग्रेनाइट तथा स्फटिक जैसे पत्थर नसों में खून के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करते हैं तथा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी खड़ी करते हैं। आदर्श अपार्टमेंट वह ब्लॉक है जो ईंटों या पत्थर से निर्मित हो न कि शीशे या पथरीली कांक्रीट से।
वर्तमान में आधुनिक भवनों में पथरीली क्रंकीट, इस्पात, शीशे या सिंथेटिक सामग्री के उपयोग किया जाने लगा है। यह इमारत को मजबूत तो बनाती हैं लेकिन सेहत पर बुरा प्रभाव भी डालती है। वास्तु शास्त्र के अनुसार कंक्रीट मृत सामग्री है जो नकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित करती है जिसके कारण बीमारी व अन्य परेशानियां उत्पन्न होती है।

सूर्य रेखा का जीवन पर प्रभाव

सूर्य रेखा बताती है कि किसी व्यक्ति को जीवन में कितना मान-सम्मान और पैसा प्राप्त होगा...
कहां होती है सूर्य रेखा
सूर्य रेखा अनामिका उंगली (रिंग फिंगर) के ठीक नीचे वाले भाग सूर्य पर्वत पर होती है। इस भाग पर जो रेखाएं खड़ी अवस्था में होती हैं, वे सूर्य रेखा कहलाती है। सूर्य पर्वत पर होने की वजह से इसे सूर्य रेखा कहा जाता है। यदि किसी व्यक्ति के हाथ में ये रेखा दोष रहित हो तो व्यक्ति को जीवन में भरपूर मान-सम्मान और पैसा प्राप्त होता है।
आमतौर पर ये रेखा सभी लोगों के हाथों में नहीं होती है। कई परिस्थितियों में सूर्य रेखा होने के बाद भी व्यक्ति को पैसों की तंगी झेलना पड़ सकती है।
- हथेली में भाग्यरेखा से निकलकर सूर्य रेखा अनामिका उंगली की ओर जाती है तो यह भी शुभ प्रभाव दर्शाने वाली स्थिति होती है। इसके शुभ प्रभाव से व्यक्ति बहुत नाम और पैसा कमा सकता है।
- यदि किसी व्यक्ति के हाथ में मणिबंध से अनामिका उंगली तक सूर्य रेखा है तो यह बहुत शुभ स्थिति मानी जाती है। ऐसे लोग जीवन में बहुत कामयाब होते हैं, धन लाभ और सम्मान प्राप्त करते हैं।
सूर्य रेखा लहरदार हो तो
यदि किसी व्यक्ति के हाथ में सूर्य रेखा लहरदार होती है तो व्यक्ति किसी भी कार्य को एकाग्रता के साथ नहीं कर पाता है। यदि यह रेखा बीच में लहरदार हो और सूर्य पर्वत पर सीधी एवं सुंदर हो गई हो तो व्यक्ति किसी विशेष कार्य में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर लेता है।
सूर्य रेखा पर क्रॉस का निशान हो तो
यदि सूर्य रेखा पर किसी क्रॉस का निशान हो तो व्यक्ति को जीवन में कई बार दुखों का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग कठिनाइयों के साथ कार्य को पूरा करते हैं और फिर भी इन्हें उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता है।
इन लोगों को मिलता है मान-सम्मान और सुख-सुविधाएं
यदि किसी व्यक्ति के हाथों में जीवन रेखा से निकलकर सूर्य रेखा अनामिका उंगली की ओर जाती है तो यह रेखा व्यक्ति को भाग्यशाली बनाती है। ऐसे लोग जीवन में सभी सुख और सुविधाओं के साथ मान-सम्मान भी प्राप्त करते हैं।
सूर्य रेखा चंद्र पर्वत से निकली हो तो
यदि किसी व्यक्ति के हाथ में चंद्र पर्वत से निकलकर कोई रेखा सूर्य पर्वत की ओर जाती है तो यह भी सूर्य रेखा ही कहलाती है। चंद्र पर्वत हथेली में अंगूठे के ठीक दूसरी ओर अंतिम भाग को कहते हैं। यहां से रेखा निकलकर अनामिका उंगली की ओर जाती है तो व्यक्ति की कल्पना शक्ति बहुत तेज रहती है। इन लोगों की भाषा पर अच्छी पकड़ रहती है।
जब सूर्य रेखा के साथ हों अन्य रेखाएं
यदि किसी व्यक्ति के हाथ में सूर्य के साथ ही एक या एक से अधिक खड़ी समानांतर रेखाएं चल रही हों तो ये रेखाएं सूर्य रेखा के शुभ प्रभावों को और अधिक बढ़ा देती हैं। इस प्रकार की रेखाओं के कारण व्यक्ति समाज में प्रसिद्ध होता है और धन-ऐश्वर्य प्राप्त करता है।
लंबी सूर्य रेखा से होता है ज्यादा लाभ
हथेली में सूर्य रेखा जितनी लंबी और स्पष्ट होती है, उतना अधिक लाभ देती है। यदि यह रेखा अन्य रेखाओं से कटी हुई हो या बीच-बीच में टूटी हुई हो तो इसके शुभ प्रभाव खत्म हो जाते हैं। लंबी, साफ एवं स्पष्ट सूर्य रेखा होने पर व्यक्ति बुद्धिमान होता है और घर-परिवार के साथ ही समाज में भी एक खास मुकाम हासिल करता है।
सूर्य रेखा पर बिंदु का निशान हो तो
सूर्य रेखा पर बिंदु का निशान हो तो व्यक्ति को अशुभ प्रभाव प्राप्त होते हैं। ऐसी रेखा वाले इंसान की बदनामी होने का भय बना रहता है। यदि बिंदु एक से अधिक हों और अधिक गहरे हों तो यह स्थिति समाज में अपमानित होने का योग बनाती है। अत: ऐसी रेखा वाले इंसान को सावधानी पूर्वक कार्य करना चाहिए।
यदि सूर्य रेखा से छोटी-छोटी शाखाएं निकल रही हों और वे ऊपर उंगलियों की ओर जा रही हो तो यह शुभ लक्षण होता है।
यदि सूर्य रेखा से छोटी-छोटी शाखाएं निकलकर नीचे की ओर जा रही हो तो ये रेखाएं सूर्य रेखा को कमजोर करती हैं।
जब सूर्य रेखा से निकलती हों शाखाएं
यदि किसी व्यक्ति की हथेली में सूर्य पर्वत (अनामिका की उंगली यानी रिंग फिंगर के ठीक नीचे वाला भाग सूर्य पर्वत कहलाता है।) पर पहुंचकर सूर्य रेखा की एक शाखा शनि पर्वत (मध्यमा उंगली के नीचे वाला भाग शनि पर्वत कहलाता है।) की ओर तथा एक शाखा बुध पर्वत (सबसे छोटी उंगली के ठीक नीचे वाला भाग बुध पर्वत होता है।) की ओर जाती हो तो ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान, चतुर, गंभीर होता है। ऐसे लोग समाज में मान-सम्मान प्राप्त करते हैं और बहुत पैसा कमाते हैं।
ऐसे लोगों का जीवन होता है शाही
ऐसे लोग राजा-महाराजाओं के समान शाही जीवन व्यतीत करते हैं, जिनके हाथों में सूर्य रेखा बृहस्पति पर्वत (इंडेक्स फिंगर के नीचे वाला भाग बृहस्पति पर्वत कहलाता है।) तक जाती है। बृहस्पति पर्वत पर पहुंचकर सूर्य रेखा के अंत में यदि किसी तारे का निशान बना हो तो व्यक्ति किसी राज्य का बड़ा अधिकारी हो सकता है।
हथेली में सूर्य रेखा न हो तो
यदि किसी व्यक्ति के हाथ में सूर्य रेखा न हो तो इसका मतलब यह नहीं माना जा सकता है कि व्यक्ति जीवन में सफल नहीं होगा। सूर्य रेखा कुछ लोगों के हाथों में नहीं होती है। यह रेखा जीवन में व्यक्ति की सफलता को आसान बनाती है। सूर्य रेखा न होने पर व्यक्ति को परिश्रम अधिक करना पड़ सकता है, लेकिन व्यक्ति सफल भी हो सकता है। हथेली में सूर्य रेखा न हो और अन्य रेखाओं का प्रभाव शुभ हो तो व्यक्ति जीवन में उल्लेखनीय कार्य कर सकता है।

हथेली का रंग और आपका जीवन साथी

जीवनसाथी के रंग-रूप व वैवाहिक स्थिति की जानकारी हाथों की प्रमुख रेखाओं विवाह रेखा, जीवन रेखा, हृदय रेखा और भाग्य रेखा में होती है। हृदय रेखा वह रेखा है जिससे प्रेम की स्थिति के बारे में ठीक-ठीक अंदाजा लगाया जा सकता है।
विवाह रेखा, विवाह से जुड़ी बातों जैसे कि विवाह कब होगा? विवाह की संख्या, कितने प्रेम संबंध रह सकते हैं? कितनी संतानें हो सकती हैं? आदि के बारे में जानकारी देती है। हथेली में पाए जाने वाले शुक्र पर्वत और गुरु पर्वत जीवनसाथी के रंग-रूप व वैवाहिक जीवन की मजबूती के बारे में इशारा करते हैं। जीवन रेखा द्वारा विवाह के बाद की स्थिति, वैवाहिक जीवन से सुख, ससुराल पक्ष आदि के बारे में जाना जा सकता है।
जीवन रेखा की किस स्थिति का वैवाहिक संबंध पर क्या प्रभाव पड़ता है-
जीवन रेखा सही लंबाई में हो, एकदम सीधी न जाकर सही गोलाई लिए हो व किसी प्रकार के अशुभ चिह्न जीवन रेखा पर न हो तो ससुराल पक्ष का विशेष सहयोग प्राप्त होता है। लेकिन जीवन रेखा पर कोई अशुभ चिह्न होने से या जीवन रेखा को अन्य रेखाओं द्वारा बार-बार काटने से ससुराल पक्ष का उम्मीद के अनुसार साथ नहीं मिलता है।
जीवन रेखा और भाग्य रेखा की सुंदर स्थिति होने से वैवाहिक जीवन में खुशियां अधिक होती हैं। पति- पत्नी अपने वैवाहिक जीवन से संतुष्ट होते हैं। यदि इस लक्षण के साथ ही स्त्री की हथेली में गुरु पर्वत बलवान हो तो विवाह होने के बाद पति की आर्थिक उन्नति तेजी से होती है।
जीवन रेखा और हृदय रेखा दोनों ही दोहरी हो रही हो तो अरेंज्ड मैरिज हो या लव मैरिज हो। जीवन साथी अपेक्षाओं के अनुरूप होता है। पति-पत्नी प्रेमी जोड़े जैसा जीवन जीते हैं।
भाग्य रेखा भी प्रभाव डालती है वैवाहिक रिश्ते पर
भाग्य रेखा यदि मस्तिष्क रेखा पर आकर रुके। हृदय रेखा की एक शाखा मस्तिष्क रेखा में आकर मिल रही हो। तर्जनी उंगली मध्यमा उंगली से 3/4 इंच छोटी हो। ये तीन लक्षण कहीं न कहीं पति-पत्नी के बीच दूरियों को बढ़ाने वाले माने गए हैं। यदि विवाह से संबंधित अन्य योग शुभ होने पर विवाह बचाने वाले होंगे और तीन लक्षणों के साथ ही अन्य अशुभ योग होने पर दूरियां देंगे।
यदि तर्जनी उंगली सूर्य की उंगली से लंबी हो तो ससुराल में विशेष पूछ परख होती है।
गहरी भाग्य रेखा होने से विवाह की सफलता की सूचना देती है।
गहरी भाग्य रेखा मस्तिष्क रेखा के तक आकर रुक रही हो। जीवन रेखा सीधी हो। इस स्थिति में जीवनसाथी या स्वयं स्वास्थ्य संबंधी परेशानी को झेल सकते हैं।
चंद्र पर्वत से भाग्य रेखा निकल रही हो। शुक्र पर्वत अधिक ऊंचा हो। यह स्थिति वैवाहिक जीवन में अशांति देने वाली हो सकती है।

हथेलियों का रंग और इंसान की व्यक्तित्व

हाथों की रेखाओं में भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों की जानकारी रहती है। हाथों की रेखाओं से जिंदगी के कई पहलुओं के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। हथेलियों का रंग भी इंसान की व्यक्तित्व से लेकर सुखी व समृद्ध जीवन की जानकारी देता है।
आमतौर पर इंसान की हथेलियां देखने पर लाल ही दिखाई देती हैं। कभी-कभी सफेद तो कभी-कभी गुलाबी भी। गौर से देखा जाए तो हथेलियों के ये रंग में कभी हरापन, कभी नीलापन तो कभी भूरापन नजर आता है। जिसके आधार पर ही शास्त्रों में हथेलियों को नीला, पीला, लाल, काला या भूरा इस तरह से वर्गीकृत किया गया है।
लाल, गुलाबी व सफेद हथेलियों के प्रभाव को शुभ व अन्य रंगों के प्रभावों को अधिक शुभ नहीं माना गया है। जिस प्रकार समय एक सा नहीं रहता है, उसी प्रकार से इंसान के कर्मों, उसके मन की इच्छाओं के आधार पर हथेलियों का रंग भी बदलता रहता है। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और धार्मिक विचार व्यक्ति के आंतरिक हिस्से जिसे मन कहा जाता है, उस मन में ऐसा परिवर्तन कर देते है कि शरीर में पॉजीटिव एनर्जी का संचार शुरू होने लग जाता है। जिससे व्यक्ति के हाथों में ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व में ही परिवर्तन हो जाता है।
सफेद हथेली वाले होते हैं अध्यात्मिक
जिन लोगों की हथेली सफेद होती है, वे धर्म को मानने वाले व परामनोविज्ञान में रुचि रखने वाले होते हैं। शांति पसंद होते हैं। एकांत में रहना भी इनकी आदत हो सकती है।
गुलाबी रंग की हथेलियां होती हैं आशावादी होने की इशारा
गुलाबी रंग की हथेलियां जिन लोगों की होती है, वे क्षमाशील व सौम्य व्यक्तित्व के होते हैं। हमेशा प्रसन्नता चेहरे पर दिखाई देती है। आत्मविश्वासी होते हैं। कलात्मक रुझान होता है। इनके जीवन में धन की कमी नहीं होती है। हथेली अत्यधिक गुलाबी होने पर व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन पसंद होता है। ये लोग परिवर्तन चाहते हैं। जरा-जरा सी बात पर गुस्सा होने की प्रवृत्ति होती है।
क्या कहता है हथेलियों का लाल रंग
जिन लोगों की हथेली लाल रंग की होती है, उन्हें सबसे अधिक धन प्राप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार लाल हथेलियों की प्रशंसा की गई है। नीली व काली हाथेलियों को अच्छा नहीं माना गया है।
करतलैर्देव शार्दूल लक्ष्मीभैरीश्वराः स्मृताः।
अगम्यागामीनः पीतैरक्षैनिर्धनताः स्मृताः।
अपैयपानं कुर्वन्ति नील कृष्णैस्तभैव च।
इस श्लोक का अर्थ यह है कि लाल रंग की हथेलियां व्यक्ति के ऐश्वर्यशाली होने की ओर संकेत करती हैं। चिकनी और चमकने वाली हथेलियां अमीर होने की ओर ईशारा करती हैं। पीली हथेलियां अच्छे गुण न होने को बतलाती हैं। रुखे-सुखे हाथ गरीब का कारक है। नीला व काला हाथ नशे का आदी होने का लक्षण है।
शास्त्रों के अनुसार इन्हें शुभता के दृष्टिकोण से कमजोर माना गया हैं। जिस प्रकार से समय कभी एक सा नही रहता है, उसी प्रकार से मनुष्य की हाथों की रेखाएं और रंग भी बदल जाते हैं।

तर्जनी उंगली को देखकर कैसे किसी व्यक्ति का स्वभाव मालूम किया जा सकता है...

 तर्जनी उंगली यानी इंडेक्स फिंगर को देखकर कैसे किसी व्यक्ति का स्वभाव मालूम किया जा सकता है...

तर्जनी उंगली का परिचय
हमारी हथेली में अंगूठे से पहली उंगली यानी इंडेक्स फिंगर को ही तर्जनी उंगली कहा जाता है। इस उंगली के नीचे गुरु पर्वत स्थित होता है, इसी वजह से इसे गुरु की उंगली भी कहते हैं। सामान्यत: इस उंगली के आधार पर व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता यानी व्यक्ति किसी टीम का नेतृत्व कर सकता है या नहीं और व्यक्ति की महत्वाकांक्षा पर विचार किया जाता है।
1. यदि किसी व्यक्ति के हाथों में इंडेक्स फिंगर (तर्जनी उंगली) मिडिल फिंगर (मध्यमा उंगली) के बराबर हो यानी सामान्य से थोड़ी लंबी हो तो वह व्यक्ति अन्य लोगों पर राज करने वाला होता है। ऐसे लोग अच्छे बॉस बनते हैं।
2. यदि ऐसी उंगली वाले हाथ के अन्य लक्षण भी अच्छे हो तो वह व्यक्ति हजारों लोगों पर राज करने वाला होता है। ये लोग थोड़े घमंडी स्वभाव के होते हैं।
3. यदि हथेली में इंडेक्स फिंगर मिडिल फिंगर से अधिक लंबी हो तो व्यक्ति अत्यधिक घमंड करने वाला होता है। ऐसे लोग खुद को अधिक श्रेष्ठ समझते हैं और इनका स्वभाव तानाशाही करने वाला होता है।
4. यदि किसी व्यक्ति के हाथों में तर्जनी उंगली की लंबाई सामान्य लंबाई से छोटी है तो इंसान महत्वाकांक्षी नहीं होता है। ऐसे लोगों में किसी कार्य को करने के लिए कोई उत्साह नहीं रहता।
5. यदि इंडेक्स फिंगर (तर्जनी उंगली) रिंग फिंगर (अनामिका उंगली) से बड़ी हो तो व्यक्ति अति महत्वाकांक्षी होता है। ऐसे लोग कभी-कभी अति उत्साह में कार्य बिगाड़ भी लेते हैं, जिससे इन्हें धन हानि का भी सामना करना पड़ता है।
6. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में रिंग फिंगर और इंडेक्स फिंगर दोनों एक समान हैं तो व्यक्ति अधिक पैसा और मान-सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखता है। यदि इंडेक्स फिंगर रिंग फिंगर से थोड़ी छोटी हो तो व्यक्ति हर परिस्थिति में संतुष्ट रहने वाला होता है।
7. सामान्यत: हमारी उंगलियों पर तीन भाग होते हैं। इन तीनों भागों के आधार पर भी व्यक्ति के स्वभाव की बातें मालूम की जा सकती हैं। यदि तर्जनी उंगली का पहला भाग (नाखून के पीछे वाला हिस्सा) अन्य दो भागों से बड़ा हो तो व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता काफी अच्छी होती है। ये लोग हर काम को कुशलता से करते हैं।
8. जिन लोगों की तर्जनी उंगली का पहला भाग अन्य दोनों भागों से छोटा होता है वे लोग स्वयं को दूसरों से कमजोर समझते हैं। इन लोगों में हीन भावना हो सकती है।
9. हथेली में तर्जनी उंगली का बीच वाला भाग अन्य दोनों भागों से अधिक बड़ा दिखाई देता है तो व्यक्ति अहंकारी होता है। ऐसे लोग किसी भी काम को पूरी दक्षता के साथ पूर्ण करते हैं। इन लोगों का घर-परिवार और समाज में विशेष स्थान होता है। इसके विपरीत यदि किसी व्यक्ति की हथेली में यह भाग अन्य दोनों भागों से छोटा होता है तो व्यक्ति किसी भी कार्य को कुशलता के साथ पूर्ण नहीं कर पाता है।
10. जिन लोगों की उंगली का तीसरा और अंतिम भाग अन्य दोनों भागों से अधिक बड़ा होता है, वे लोग शारीरिक रूप से अधिक बलशाली होता है। ऐसे लोग अपना बल दिखाने का मौका तलाशते रहते हैं। सामान्यत: ये लोग ऐसे काम करना अधिक पसंद करते हैं, जहां उन्हें शारीरिक बल दिखाने का अवसर प्राप्त होता है।
11. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में मध्यमा और तर्जनी उंगली के बीच अधिक अंतर दिखाई देता है तो व्यक्ति के हाथ में गुरु ग्रह की प्रधानता हो जाती है। ऐसी हथेली वाले लोग अच्छी बौद्धिक क्षमता वाले और धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। ये लोग अपने कार्यों पर विश्वास करते हैं और भाग्य को भी कर्मों के आधार पर बदलने की क्षमता रखते हैं।
12. जिन लोगों की हथेली में तर्जनी और मध्यमा उंगली के बीच अधिक अंतर हो और अनामिका एवं सबसे छोटी उंगली के बीच भी अंतर हो तो व्यक्ति व्यापार में लाभ कमाने वाला होता है। इस स्थिति में मध्यमा और अनामिका उंगली के बीच ज्यादा अंतर नहीं दिखाई देना चाहिए, अन्यथा यह फल बदल सकता है।

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Monday, 7 September 2015

खेती बाड़ी के लिए वास्तु नियम

वर्तमान मेँ कृषि कार्य न केवल जीवकोपार्जन का साधन है बल्कि एक अच्छा व्यवसाय भी साबित हो रहा है । प्रकृति किसानों का साथ दे तो इस कार्य से भी काफी धनोपार्जन किया जा सकता है। कई प्रकार के रोग एवं प्राकृतिक प्रकोप किसानो की आशाओं पर पानी फेर देते हैं। फसल देखते ही देखते जल जाती है । जहाँ क्विंटल अनाज की आशा थी वहाँ कुछ किलोग्राम अनाज से सन्तुष्ट होना पड़ता है। ऐसे में यदि खेतों में वैज्ञानिक विधियों के साथ-साथ भारतीय वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिष का समन्वय कर दें तो उन्हें काफी लाभ प्राप्त हो सकता है ।
सर्वप्रथम जिस भूमि अथवा खत में खेती करनी हो तो उसकी परीक्षा करें लेनी चाहिए । अपने हाथ के प्रमाण से एक हाथ लम्बा, एक हाथ चौडा और एक साथ गहरा गड्रडा खोदकर उसे पूरा पानी से भर दे । पाच मिनट पश्चात् गड़डे को देखें यदि गड्रडा पानी से भरा हुआ है या थोडा पानी जमीन ने सोख लिया है तो उस भूमि पर खेती करना उत्तम रहेगा और यदि गड्डे में बिल्कुल पानी न बचे तो ऐसी भूमि पर खेती करने में कायदा नहीं है ।कृषि भूमि अथवा खेत वर्गाकार एवं आयताकार अच्छे माने गये है । खेत त्रिभुजाकार, अष्टभूजाकार, धनुषाकार, पंखीनुमा, तबला व मृदंग के आकार के वास्तुशास्त्र की दृष्टि से अनुपयोगी है । उक्त प्रकार के खेतों में जितना क्षेत्र आयताकार अथवा वर्गाकार बने उस पर खेती करे एव शेष को खाली छोड दँ।खेत का रास्ता उत्तर-पूर्व में होना शुभकर है । दक्षिण दिशा में रास्ता रखने से बचना चाहिए । खेत में से किसी अन्य के खेत में जाने का रास्ता भी नहीँ होना चाहिए।
खेत का विस्तार हमेशा उत्तर-पूर्व दिशा से करना चाहिए । खेत का बटवारा करते समय यह विशेष ध्यान रखें कि खेत का उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा न कटे ।खेत की भूमि समतल हो । खेत की भूमि की ढलान पूर्व, उत्तर अथवा ईशान दिशा में शुभकर है। कृषि भूमि का ढाल पश्चिम या दक्षिण में कदापि न हो | खेत के बीचो-बीच टीला न हो। अगर रन्नेत कं उत्तर या पूर्व में गड्डे हो तो उन्हें भरने का प्रयास न करें । इसी प्रकार दक्षिण व पश्चिम में रेत के टीले है तो इन्हें हटाकर खेती नहीं करनी चाहिए क्योकि ये गड्डे व टीलें अमुक दिशा में शुभ माने गये है ।प्राय किसान खेत के बीचों-बीच कुआँ बनवाते है ताकि पानी देने में सुविधा रहे लेकिन वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तो की दृष्टि से गलत है। कुआँ हमेशा ईशान या पूर्व दिशा से बनाना चाहिए। इंशान या पूर्व दिशा में कुओं बनाने से पानी वितरण में बाधा आती है क्योकि खेत की भूमि की ढाल भी ईशान व पूर्व में नीची अच्छी मानी गई है । ऐसी स्थिति में कुआँ कंन्द से पूर्व या ईशान तक जहाँ ऊँची भूमि हो वहाँ बनाये । …
नाला, नहर, नदी आदि खेत के उत्तर-पूर्व अथवा ईशान दिशा में हो । दक्षिण दिशा में नाला, नहर, कुआँ इत्यादि आर्थिक हानि पहुँचाते हैं एवं खेत के नेऋत्य कोण में बना कुआँ भू स्वामी को अपघात बीमारी एवं खुदकुशी के लिए प्रेरित करता हैं । खेत के आग्नेय कोण में कुंआँ है तो खेत के मालिक का दीवाला निकाल देगा तथा चोरी एवं शत्रुता का भय बना रहेगा। खेत कं मध्य में लम्बे एवं घने वृक्ष नहीं' होने चाहिए। पश्चिम व दक्षिण दिशा में होना शुभ फलदायक है ।
खेत में मकान अथवा झौपड़ा हमेंशा दक्षिण नेऋत्य में या पश्चिम नैऋत्य में बनाना चाहिए। यदि मकान कुँए के पास बनाये तो आवश्यक रूप से कुँए से दक्षिण से दक्षिण-पश्चिम (नेऋत्य) दिशा में हो।
खेत की रखवाली करने वाले व्यक्ति को खेत के पश्चिम वायव्य कोण,पूर्व दिशा अथवा दक्षिणी आग्नेय कोण के भाग में रहना चाहिए । इसको नैऋत्य कोने का कमरा देने से खेत के स्वामी को नुकसान हो सकता है।
मवेशी का बाड़ा खेत की उत्तर दिशा में या वायव्य दिशा में बनाना चाहिए। इससे पशुघन स्वस्थ रहता है तथा उनने वृद्धि होती है ।
खेती के काम आने वाले औजार नैऋत्व कोण में अथवा दक्षिण दिशा में रखने चाहिए थ्रेसर, बैलगाडी तथा अन्य वाहन खेत के पश्चिम वायव्य कोण में रखने चाहिए ।
खेत में बिजली के साधन खेत के आग्नेय कोण में हो। ऐसे खेत जिनमें इलेक्ट्रिक खम्बे लगे हो, नुकसान दायक हो सकते हैं। पशुओं के लिए चारे का ढेर नेऋत्य अथवा दक्षिण दिशा ने होना चाहिए। इसी दिशा ने प्राकृतिक एवं रासायनिक खाद रखी जा सकती है।
खेत में मन्दिर नहीं होना चाहिए। यदि है तो गणेशजी, शंकरजी, कृष्णजी, विष्णुजी इत्यादि के हो। मन्दिर में शनिचरजी, पीरबाबा इत्यादि की मूर्तियों नहीं होनी चाहिए । सभी देवताओं का मुख पूर्व की और हो और नियमित इनकी सेवा हो।बेचने के लिए ले जाने वल्ला अनाज हमेशा पश्चिम, वायव्य अथवा पूर्व के द्वार से ले जाना चाहिए अच्छे भाव से अनाज जल्दी बिकता है | हल चलाने के लिए सोम, बुध, गुल और गुरुवार सर्वोतम है । नक्षत्रों में अनुराधा,ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, मघा, पुनर्वसु पुष्य, हस्त, स्वाति, श्रवण, रोहिणी,मृगशिरा है रेवती और तीनो उत्तरा शुभ है । तिथियों में 3 5 7,10, 11 व 13 शुभ है |
सोम व शनिवार को बीजो का रोपण नहीं करना चाहिए। इसमें रिक्ता तिथियों को छोड़ देनी चाहिए। नक्षत्रों में मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, हस्त, पुष्प, मघा, स्वाति, घनिष्ठा और गुल श्रेष्ठ है। राजस्थानी कहावतों में बीज बोने के लिए बुधवार सवोंत्तम है-"बुध बावणी" । फसल अच्छी हो इसके लिए बीज डालते समय गायत्री मंत्र अथवा सूर्यं मंत्र का जाप पूर्वी मुखी होकर करना चाहिए।फसल की बुवाई घडी की सुईयाँ के चलने की दिशा से और कटाई घडी की सुइंयों के चलने की विपरीत दिशा में करनी चाहिए। अनाज बोने के लिए जो रेखाएं खींची जाती है यह दक्षिण से उत्तर की ओर होनी चाहिए। खेत का पहले दक्षिणी व पश्चिमी भाग जोतना शुभ माना गया है। मुख्य फसल के साथ अन्य फसल भी लेनी हो तो अन्य फसल के पश्चिम और दक्षिण की और बोई जानी चाहिए । शनिवार और मंगलवार को फसल न काटे। आद्रा, भरणी, मृगशीरा, हस्त, पुनर्वसु, पुष्प, स्वाति, श्रवण और घनिष्ठा शुभ है। फसल कीं कटाई के समय यदि अमावस्या आ गई है तो उस दिन शाम को खेत के बीचोबीच खड़े होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके नारियल फोड़ना चाहिए। इस नारियल के टुकडों को खेत के चारों कोनों एवं मध्य में रखने चाहिए। अमावस्या के दूसरे दिन सब टुकडे उठाकर खेत के बाहर फेंक दें । फसल से प्राप्त अनाज को सर्वप्रथम थोडी मात्रा में अग्नि में स्वाहा करना चाहिए एवं थोड़ा अनाज पशुओं को खिलाने से सभी कार्य ठीक ढंग से सम्पादित्त होंगे । खेत में काम करते समय मुख हमेशा उत्तर, पूर्व अथवा ईशान में रखें और सूर्यास्त के बाद न स्वयं काम करें और न ही पशुओं से काम लें।

पितृपक्ष के श्राद्ध क्या करें, क्या न करें

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 29 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे। आखिरी मातामह का श्राद्ध 13 अक्टूबर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओंं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओंं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
मान्यता है कि जो लोग अपने शरीर को छोडक़र चले जाते है, वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष में वे पृथ्वी पर आते हैं और उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध होता है। विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक के निमित अर्पित किए जाने वाले पदार्थ की बनाई गई गोलाकृति पिंड होती है। इसे जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाया जाता है।
श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराया जाता है।
शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओंं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों के श्रेणी में आते हैं। श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है। पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है। मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा अन्न आदि उन्हें समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है। जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है। यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है। पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है।
पितृ पक्ष का महत्व:
देवताओं से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी ज्यादा पितृकार्य का महत्व होता है। वायु पुराण, मत्स्य पुराण, गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है। पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है। पूरे 16दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है। पितृ श्राद्ध पक्ष में
ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान -दक्षिणा दी जाती है।
श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति:
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृत्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं। श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है।
श्राद्ध करते समय इन बातों
का रखें विशेष ध्यान:
शास्त्रों में बताए गए विधि-विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।
1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।
2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है।
4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।
5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
6- केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।
7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी,
अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध:
हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए। यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है-
- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।
- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।
- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।
शास्त्रों के अनुसार देवों से पहले पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृ दोष हो, संतान हीन योग बन रहा हो या फिर नवम भाव में राहू नीच के होकर स्थित हो, उन व्यक्तियों को यह श्राद्ध अवश्य रखना चाहिए। इस को करने से मनोवांछित उद्देश्य की प्राप्ति होती है। विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धा भाव से अमावस्या का उपवास रखने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होकर प्रसन्न होते हैं। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि श्राद्धपक्ष में किया गया हर तर्पण में पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाता है।
स्थल वर्णन
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ‘‘उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय’’ में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।
अमलेश्वर महाकाल धाम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से दक्षिण पश्चिम में रिंग रोड नं. 1 से 5 कि.मी. दूर रायपुर पाटन रोड पर खारून नदी के किनारे निर्माणाधीन है जिसका पटवारी खसरे में नं.-786 है जो इस्लाम में पवित्रतम् माना जाता है तथा इस धाम के पूर्व में पूर्व से उत्तर की ओर बहने वाली पवित्र खारून नदी छत्तीसगढ़ की प्राण वहिनी दुर्ग की ओर जाती है। इस स्थान पर स्वयंभू भगवान श्री अमलेश्वर का पवित्र धाम है। इसी के प्रांगण में यह क्रिया संपन्न करायी जाती है। इस स्थल के निर्माण में लगभग साढ़े आठ करोड़ की लागत का दो तल्ला भव्य मंदिर की कल्पना की गई है। इसके तट पर महाकाल श्री अमलेश्वर धाम के पावन सान्निध्य में नारायण नागबलि की क्रिया की जाती है।
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चार धाम यात्रा का महत्व

हिंदू मान्यता के अनुसार चार धाम की यात्रा का बहुत महत्व है। इन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। ये चार धाम चार दिशाओं में स्थित है। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण रामेश्वर, पूर्व में पुरी और पश्चिम में द्वारिका।
प्राचीन समय से ही चारधाम तीर्थ के रूप मे मान्य थे, लेकिन इनकी महिमा का प्रचार आद्यशंकराचार्यजी ने किया था। माना जाता है, उन्होंने 4 धाम व 12 ज्योर्तिलिंग को सुचीबद्ध किया था।
क्यों बनाए गए चार धाम
चारों धाम चार दिशा में स्थित करने के पीछे जाे सांंस्कृतिक लक्ष्य था, वह यह कि इनके दर्शन के बहाने भारत के लोग कम से कम पूरे भारत का दर्शन कर सके। वे विविधता और अनेक रंगों से भरी भारतीय संस्कृति से परिचित हों। अपने देश की सभ्यता और परंपराओं को जानें। ध्यान रहे सदियों से लोग आस्था से भरकर इन धामों के दर्शन के लिए जाते रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से आवागमन के साधनों और सुविधा में विकास ने चारधाम यात्रा को सुगम बना दिया है।
किस धाम की क्या विशेषता है
बद्रीनाथ धाम- बद्रीनाथ उत्तर दिशा मेंओं का मुख्य यात्राधाम माना जाता है। मन्दिर में नर-नारायण की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बद्रीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे। यहां पर यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। यहां वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
रामेश्वर धाम- रामेश्वर में भगवान शिव की पूजा लिंग रूप में की जाती है। यह शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है।
पुरी धाम- पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। यहां मुख्य रूप से भात का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
द्वारिका धाम- द्वारका भारत के पश्चिम में समुद्र के किनारे पर बसी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांडवों को सहारा दिया। कहते हैं असली द्वारका तो पानी में समा गई, लेकिन कृष्ण की इस भूमि को आज भी पूज्य माना जाता है। इसलिए द्वारका धाम में श्रीकृष्ण स्वरूप का पूजन किया जाता है।

जानें हिंंदू 12 महीनों के नाम, क्या होता है पंचांग

हिंदू पंचांग हिंदू धर्म के लोगों द्वारा माना जाने वाला कैलेंडर है। पंचांग का अर्थ है, पांच अंग। ये पांच अंग हैं, तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धराए हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। अलग-अलग रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। हर महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। 12 मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ।
महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति से रखा जाता है। यह 12 राशियां बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि मे प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र मे होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा है। इसीलिए हर 3 वर्ष मे इसमें एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास कहते हैं।
ये हैं नक्षत्रों के आधार पर 12 महीने
इन बारह महीनों के नाम आकाश मण्डल के नक्षत्रों में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गए हैं। जिस महीने में जो नक्षत्र आकाश में रात की शुरुआत से लेकर अंत तक दिखाई देता है या कह सकते हैं कि जिस मास की पूर्णमासी को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी के नाम पर उस मास का नाम रखा गया है।
चैत्र- चित्रा, स्वाति।
वैशाख- विशाखा, अनुराधा।
ज्येष्ठ - ज्येष्ठा, मूल।
आषाढ़- पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा।
श्रावण- श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा।
भाद्रपद - पूर्व-भाद्र, उत्तर-भाद्र।
आश्विन- रेवती, अश्विन, भरणी।
कार्तिक- कृतिका, रोहणी।
मार्गशीर्ष- मृगशिरा, आर्द्रा।
पौष- पुनर्वसु, पुष्य।
माघ- अश्लेषा, मघा।
फाल्गुन- पूर्व फाल्गुन, उत्तर फाल्गुन, हस्त।
किस अंग्रेजी महीने में होता है कौन सा हिंदी महीना
चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्र मास (मार्च-अप्रैल), विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख मास (अप्रैल-मई), ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम पर ज्येष्ठ मास (मई-जून), आषाढ़ा नक्षत्र के नाम पर आषाढ़ मास (जून-जुलाई), श्रवण नक्षत्र के नाम पर श्रावण मास (जुलाई-अगस्त), भाद्रपद (भाद्रा) नक्षत्र के नाम पर भाद्रपद मास (अगस्त-सितम्बर), अश्विनी के नाम पर आश्विन मास (सितंबर-अक्टूबर), कृत्तिका के नाम पर कार्तिक मास (अक्टूबर-नवंबर), मृगशीर्ष के नाम पर मार्गशीर्ष (नवंबर-दिसंबर), पुष्य के नाम पर पौष (दिसंबर-जनवरी), मघा के नाम पर माघ (जनवरी-फरवरी) और फाल्गुनी नक्षत्र के नाम पर फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) का नामकरण हुआ है।

पूजा में कलश रखने का कारण और उसका महत्व

कलश में क का अर्थ है जल और लश का तात्पर्य सुशोभित करने से है यानी वह पात्र जो जल से सुशोभित होता है। हिंदू धर्म में कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। इसलिए गृहप्रवेश या किसी भी तरह का पूजन होने पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश एक विशेष आकार का बर्तन होता है, जो चौड़ा होने के साथ ही कुछ गोलाई लिए होता है। मान्यताओं के अनुसार कलश के ऊपरी भाग में विष्णु , मध्य में शिव और तल यानी मूल में ब्रह्मा का निवास होता है। इसलिए पूजन से पहले कलश को देवी-देवता की शक्ति, तीर्थस्थान आदि का प्रतीक मानकर कलश रखा जाता है।
कलश में डाली जाती हैं ये चीजें
शास्त्रों में बिना जल के कलश को स्थापित करना अशुभ माना गया है। इसी कारण कलश में पानी, पान के पत्ते, आम के पत्ते, केसर, अक्षत, कुमकुम, दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प, सूत, नारियल, अनाज आदि का उपयोग कर पूजा के लिए रखा जाता है।
कलश है इनका प्रतीक
कलश का पवित्र जल इस बात का प्रतीक है कि हमारा मन भी जल की तरह हमेशा ही स्वच्छ, निर्मल और शीतल बना रहें। हमारा मन श्रद्धा, तरलता, संवेदना और सरलता से भरा रहे। यह क्रोध, लोभ, मोह-माया और घृणा आदि से कौसों दूर रहे। कलश पर लगाया जाने वाला स्वस्तिक चिह्न हमारे जीवन की चार अवस्थाओं बाल्य, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलश के ऊपर नारियल रखा जाता है जो कि श्री गणेश का प्रतीक है। सुपारी, पुष्प, दुर्वा आदि चीजें जीवन शक्ति को दर्शाती हैं।

शुभ कार्य के पहले नारियल चढ़ाने या फोड़ने की परम्परा क्यूँ है?????

हिंदू धर्म के ज्यादातर धार्मिक संस्कारों में नारियल का विशेष महत्व है। कोई भी व्यक्ति जब कोई नया काम शुरू करता है तो भगवान के सामने नारियल फोड़ता है। चाहे शादी हो, त्योहार हो या फिर कोई महत्वपूर्ण पूजा, पूजा की सामग्री में नारियल आवश्यक रूप से रहता है। नारियल को संस्कृत में श्रीफल के नाम से जाना जाता है। जानकारों के अनुसार यह फल बलि कर्म का प्रतीक है। बलि कर्म का अर्थ होता है उपहार या नैवेद्य की वस्तु। देवताओं को बलि देने का अर्थ है, उनके द्वारा की गई कृपा के प्रति आभार व्यक्त करना या उनकी कृपा का अंश के रूप मे देवता को अर्पित करना।
क्यों बनाई गई नारियल फोड़ने की परंपरा
कहते हैं एक समय हिंदू धर्म में मनुष्य और जानवरों की बलि सामान्य बात थी। तभी आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय परंपरा को तोड़ा और मनुष्य के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत की। नारियल कई तरह से मनुष्य के मस्तिष्क से मेल खाता है। नारियल की जटा की तुलना मनुष्य के बालों से, कठोर कवच की तुलना मनुष्य की खोपड़ी से और नारियल पानी की तुलना खून से की जा सकती है। साथ ही, नारियल के गूदे की तुलना मनुष्य के दिमाग से की जा सकती है।
नारियल फोड़ने का ये है महत्व
नारियल फोड़ने का मतलब है कि आप अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के सामने समर्पित कर रहे हैं। माना जाता है कि ऐसा करने पर अज्ञानता और अहंकार का कठोर कवच टूट जाता है और ये आत्मा की शुद्धता और ज्ञान का द्वार खोलता है, जिससे नारियल के सफेद हिस्से के रूप में देखा जाता है।

वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ

वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इन चार वेदों में जीवन के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ये मूलत: विचारों के ग्रंथ हैं, इस कारण इन्हें सारी संस्कृति विशेष रूप से आर्य संस्कृति के प्रारंभिक ग्रंथ माना गया है। वेद ज्ञान का भंडार हैं, विज्ञान हो या खगोल शास्त्र, यज्ञ विधि या देवताओं की स्तुति आदि सभी चार वेदों में मिलते हैं। इन्हें सनातन धर्म का आधार माना जाता है।
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है। इन्हें हिंदू धर्म का सबसे पवित्र धर्म ग्रंथ माना गया है। इनसे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई है। ऐसी मान्यता है कि इनके मंत्रों को परमेश्वर यानी भगवान ने प्राचीन ऋषियों को सुनाया था। इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है।
वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परंपरा की सबसे अच्छी रचना है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों से चली आ रही है।
वेदों के मुख्य रूप से चार प्रकार के हैं
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
​ऋग्वेद- वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ। यह पद्यात्मक है यानी काव्य रूप में है। ऋग्वेद को मंडल बांटा गया है। इसके मंडल में 10 1028 सूक्त हैं और 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन । ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसे अर्थशास्त्र ऋषि ने बताया है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा का आदि की भी जानकारी मिलती है।
यजुर्वेद – यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं, यह वेद मुख्यतः क्षत्रियों के लिए होता है।
यजुर्वेद के दो भाग हैं -
कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है |
सामवेद - सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। चार वेदों में सामवेद का नाम तीसरे स्थान पर आता है। ऋग्वेद के एक मंत्र में ऋग्वेद से भी पहले सामवेद का नाम आने से कुछ विद्वान वेदों को एक के बाद एक रचना न मानकर हर एक को स्वतंत्र मानते हैं। सामवेद में उन गेय छंदों की अधिकता है, जिनका उपयोग गान यज्ञों के समय होता था। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। यज्ञ में गाने के लिए संगीतमय मंत्र हैं, यह वेद मुख्यतः गंधर्व लोगो के लिए होता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।
अथर्ववेद- इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिए मंत्र हैं। यह वेद मुख्य रूप से व्यापारियों के लिए होता है। इसमें 20 काण्ड हैं। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।

Asirgarh Fort, mysterious castle.

Here is the Shiva temple Mahabartkal ashwatthama still come to worship. When asked by the strange tales told us about the fort. Someone said, '' his grandfather told him many times there is the story of ashwatthama see. 'Then someone said: "When they catch fish there were in the pond, then quickly pushed them in the dark Someone was. Probably did not like my coming there that push. '' Many of the elders of the village were filled with things such tales. Someone once said that ashwatthama takes a look at his mental balance is disrupted.
After discussion, we moved from the old fort at Asirgarh. The fort is still in the Stone Age won mirrored. In the era of electric nights here are steeped in darkness. From six o'clock in the evening darkness fortress 'ghost' takes the form. The deserted fort while climbing some villagers were with us.
Our travel was the head of the village, a guide and two or three local people. Our clock was playing six of chopsticks evening. After about half an hour's walk uphill, we knocked on the door of the fort, the outer large.
Obviously, the fort was the door open. We turned to the inside. Among the long grass, removing weeds we were going to proceed. Then our eye fell on some graves. A look old enough to view the graves were known. He came up with the guide are the graves of the British soldiers.
After staying here for a while we were moving. We divided into pieces appeared a pond. Given the guide started telling pond, the pond in which they bathe in the temple to offer prayers go ashwatthama While some say they did not 'Utalvi-river' come here for worship by bathing in . We looked carefully at the pond. Think of this place surrounded by hills rainwater accumulates. Due to green cleaning water was visible, but it is surprising that the sweltering heat of Burhanpur not fail in this pond.
Iron us to walk a few steps and saw two large angle. Guide said it is Faँsigr. Here was sentenced to death. After whipping dead body was hung on a whim. Finally, the skeleton falls into the abyss below was made. We hear it all the soul tremble.
We preferred to move forward from here. We were a little ahead of us Gupteshwar Mahadev temple appeared. The temple was surrounded by trenches from Chuँor. According to the legend in one of these trenches have remained secret, which Khandw Forest (Khandwa district) directly from the
Temple survives. Given the way ashwatthama come inside the temple. We entered inside the temple. The steps were curved and had been around the moat. Just a little mistake, we would have fallen into the abyss.
With great care we entered inside the temple. Temple felt seeing that even though the temple is not a light and modern system, not even here parinda kills, but the ritual continues. There appeared quince pieces. Gulal lingam was offered. We decided to spend the night in the temple. There were just twelve midnight. Guides took us to request landing. She not here to stay the night, but to our pressure he stayed with us.
This sounded terrible night in the wilderness. It seemed that the time to cancel, do not. That temperature was reached at two o'clock hour hand suddenly decreased. So cold in the sweltering heat of June in the area of ​​Burhanpur. I did notice that I had read somewhere that '' where souls are around, there is the temperature very cold. '' What was something around us to do the same. Some of our partners
Began to panic. We both cold and fear had lit bonfires to drive.
The surrounding atmosphere was very scary. What sounds strange insects on trees were removed. Say-Say was hit by the ruins empty air. Crawly time was cut. Around four o'clock in the sky appeared Llima mild. Was the dawn. Come with head suggested that should go out to the pond. What there is to see. We went to the pond.
We briefly looked at the pond, stroll around the fort reviewed. We did not see anything. Ujas light of dawn each and spread. We turned to the temple. But what, Shiva Rose was riding. Our surprise was a sack. After all how it happened. The answer was no. Now it was true or mischief or a saint cultivate in these trenches, nobody knows about it, nor from these trenches are finding the tunnel is found, but so must the many secrets of the past The ruins of the fortress walls are closing in, the wounds need.

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युवा होते बच्चों में अनुशासनहीनता और आज्ञापालन का आभाव : भृगुकालेंद्र पूजन

आज की इस भागती दौड़़ती जिन्दगी में जहॉं सब कुछ बदल रहा है, वहॉं बच्चों के बिहेवियर में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। आज 80-90 प्रतिशत बच्चों में मनमानी, क्रोध, जिद्धी और शैतानी जैसी अन्य कई हरकतो ने अपना घर बना लिया है। कम्प्यूटर-टीवी के चलन और एकाकी परिवारो की बढ़ती संख्या भी बच्चो की बदलती मानसिकता का बड़ा कारण है। इस व्यवहार वाले बच्चों को देखकर कोई कहता है कि ‘बहुत चंचल बच्चा है’ कोई कहता है कि ‘जिद्धी और शैतान है’। जबकि वही बालक बड़ा होकर एक विकृत युवा का रूप ले लेता है, जो स्वयं से भी परेशान है और इस दुनिया से भी। ऐसे में वह अपने माता-पिता के द्वारा देखे गए सपनों को किसी भी तरह से पूरा नहीं कर पता और जीवन में एक असफल व्यक्ति का ही जीवन जीता है।
पता और जीवन में एक असफल व्यक्ति का ही जीवन जीता है।
आज के आधुनिक युग में प्राप्त सुविधाएं जैसे गाड़ी, मोबाईल इत्यादि की सुविधा का बच्चों द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं को अपने बच्चों को जरूरत हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएं बच्चों को गलत दिशा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे भी युवा अवस्था में अपनी दिशा से भटक कर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्ट्रानिक्स
गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बातें बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवश्यक है। शारीरिक दुष्प्रभावों के साथ-साथ मानसिक क्षमता का भी ह्रास दिखाई दे जैसे व्यसन, क्रोध, चिड़चिड़ा होने के साथ-साथ अपनी बौद्धिक शक्ति के साथ सहिष्णुता भी खो दे, तब किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दशा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शनि, शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दशा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो अपने संतान के लिए ज्योतिषीय काउंसिलिंग करायें इसके साथ भृगु-कालेंद्र पूजन करायें साथ ही नियम से मंत्र जाप करने की आदत डलवायें|
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गणेशजी दूर करते हैं वास्तु दोष

गणेशजी दूर करते हैं वास्तु दोष सुन्दर व अच्छा घर बनाना या उसमें रहना हर व्यक्ति की इच्छा होती है। लेकिन थोड़ा सा वास्तु दोष आपको काफी कष्ट दे सकता है। लेकिन वास्तु दोष निवारण के महंगे उपायों को अपनाने से पहले विघ्नहर्ता गजानन के आगे मस्तक जरूर टेक लें। क्योंकि आपके कई वास्तु दोषों का ईलाज गणपति पूजा से ही हो जाता है।
वास्तु पुरुष की प्रार्थना पर ब्रह्मजी ने वास्तुशास्त्र के नियमों की रचना की थी। यह मानव कल्याण के लिए बनाया गया था, इसलिए इनकी अनदेखी करने पर घर के सदस्यों को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है।
अत: वास्तु देवता की संतुष्टि के लिए भगवान गणेश जी को पूजना बेहतर लाभ देगा। इनकी आराधना के बिना वास्तुदेवता को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। बिना तोड़-फोड़ अगर वास्तु दोष को दूर करना चाहते हैं तो इन्हें आजमाएं।
गणपति जी का वंदन कर वास्तुदोषों को शांत किए जाने में किसी प्रकार का संदेह नहीं होता है। मान्यता यह है कि नियमित गणेश जी की आराधना से वास्तु दोष उत्पन्न होने की संभावना बहुत कम होती है। इससे घर में खुशहाली आती है और तरक्की होती है।
यदि घर के मुख्य द्वार पर एकदंत की प्रतिमा या चित्र लगाया गया हो तो उसके दूसरी तरफ ठीक उसी जगह पर गणेश जी की प्रतिमा इस प्रकार लगाए कि दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे। इस प्रकार से दूसरी प्रतिमा या चित्र लगाने से वास्तु दोषों का शमन होता है। भवन के जिस भाग में वास्तु दोष हो उस स्थान पर घी मिश्रित सिंदूर से स्वास्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।
घर या कार्यस्थल के किसी भी भाग में वक्रतुण्ड की प्रतिमा अथवा चित्र लगाए जा सकते हैं। किंतु प्रतिमा लगाते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह
दक्षिण दिशा या नैर्ऋ त्य कोण में नहीं हो। इसका विपरीत प्रभाव होता है।
घर में बैठे हुए गणेश जी तथा कार्यस्थल पर खड़े गणपति जी का चित्र लगाना चाहिए, किंतु यह ध्यान रखें कि खड़े गणेश जी के दोनों पैर जमीन का स्पर्श करते हुए हों। इससे कार्य में स्थिरता आने की संभावना रहती है।
भवन के ब्रह्म स्थान अर्थात् केंद्र में, ईशान कोण एवं पूर्व दिशा में सुखकर्ता की मूर्ति अथवा चित्र लगाना शुभ रहता है। किंतु टॉयलेट अथवा ऐसे स्थान पर गणेशजी का चित्र नहीं लगाना चाहिए जहां लोगों को थूकने आदि से रोकना हो। यह गणेशजी के चित्र का अपमान होगा। सुख, शांति, समृद्धि की चाह रखने वालों के लिए घर में सफेद रंग के विनायक की मूर्ति, चित्र लगाना चाहिए।
सर्व मंगल की कामना करने वालों के लिए सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। इससे शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। विघ्नहर्ता की मूर्ति अथवा चित्र में उनके बाएं हाथ की ओर संूड घुमी हुई हो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। दाएं हाथ की ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेश जी हठी होते हैं तथा उनकी साधना-आराधना कठिन होती है। शास्त्रों में कहा गाया है कि दाएं सूंड वाले गणपति देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।
मंगल मूर्ति भगवान को मोदक एवं उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। अत: घर में चित्र लगाते समय ध्यान रखें कि चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा अवश्य होना चाहिए। इससे घर में बरकत होती है। इस तरह आप भी बिना तोड़-फोड़ के गणपति पूजन के द्वारा से घर के वास्तुदोष को दूर कर सकते हैं?


Pt.P.S.Tripathi
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