Wednesday, 4 May 2016

कुंडली मिलन की प्रासंगिकता

विवाह हेतु वर अथवा कन्या के माता-पिता ज्योतिषी से परामर्श कर अपने पुत्र अथवा पुत्री के जीवनसाथी के चयन में उनकी सलाह माँगते हैं। ज्योतिषी को दैवज्ञ कहा जाता है तथा उनकी सलाह को बिना किसी झिझक एवं हिचक के स्वीकार कर लिया जाता है। अतः ज्योतिषी का यह उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह अपने ज्ञान, अनुभव, बुद्धिमत्ता एवं अन्तज्र्ञान का उपयोग करके विवाह हेतु वर एवं कन्या की कुण्डलियों की जांच एवं परख सही तरीके से करके ही अपना निर्णय दे क्योंकि उसके निर्णय पर ही युगल के वैवाहिक जीवन का भविष्य निर्भर करता है। एक ज्योतिषी को ज्योतिष का अच्छा ज्ञान होना चाहिए तथा ज्योतिष के सिद्धान्तों एवं नियमों के गहरे ज्ञान का उपयोग कर कुण्डली मिलान में उसे निपुणता हासिल होनी चाहिए। विवाहोपरान्त सुख, शान्ति, प्रेम, सौहार्द एवं समृद्धि के लिए ज्योतिषीय मापदंडों के अनुसार कुण्डली का मिलान किया जाना अति आवश्यक है। एक गलत निर्णय वर एवं वधू के साथ-साथ पूरे परिवार की तबाही एवं बर्बादी का कारण बन सकता है।
वैदिक काल में निम्नांकित आठ प्रकार के विवाह प्रचलन में थे:
ब्रहम विवाह
इस प्रकार के विवाह में कन्या के पिता वर को उसके पिता एवं सम्बन्धियों के साथ आमंत्रित करते थे तथा सब लोगों की उपस्थिति में वैदिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह सम्पन्न किया जाता था। आज के समय माता-पिता द्वारा निर्धारित किए गए विवाह (अरेन्ज्ड मैरिज) इस श्रेणी में आते हैं।
दैव विवाह
इस प्रकार के विवाह में कन्या के पिता कन्या को उस पुजारी को दक्षिणास्वरूप भेंट में देते थे जो उनके लिए यज्ञ सम्पन्न कराता था।
आर्ष विवाह
इस प्रकार के विवाह में जब किसी लड़के की ईच्छा किसी कन्या से विवाह करने की हो जाती थी तो उसे कन्या के पिता को कुछ गायें एवं धन देना पड़ता था। गायों को यज्ञ सम्पन्न करवाने के उद्देश्य से दिया जाता था जबकि धन विवाह के खर्च में काम आता था। हालाँकि इसे वधू का मूल्य नहीं समझा जाता था।
प्रजापत्य विवाह
इस प्रकार के विवाह में, व्यक्ति जिसकी ईच्छा कन्या से विवाह करने की होती थी, उसे कन्या के पिता के समक्ष अपनी ईच्छा व्यक्त करनी पड़ती थी। कन्या के पिता के राजी होने पर उसे एक निश्चित समयावधि के लिए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त कन्या को सौंपा जाता था। इस विवाह का मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति कर उनका पालन-पोषण करना था ताकि व्यक्ति प्रजापति ब्रह्मा के ऋण से स्वयं को मुक्त कर सके।
असुर विवाह
यह विवाह एक प्रकार से कन्या को खरीदने के अनुरूप था क्योंकि इसमें विवाह के ईच्छुक वर को कन्या के पिता को विवाह के बदले धन देना पड़ता था। इस प्रकार का विवाह सर्वदा निन्दनीय माना जाता रहा है।
गंधर्व विवाह
इस प्रकार के विवाह प्रथम दृष्ट्या प्रेम की भाँति था जिसमें वर एवं कन्या एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते थे तथा अपने सम्बन्ध को विवाह का रूप दे देते थे। इस विवाह को आधुनिक युग के प्रेम विवाह के अनुरूप माना जा सकता है जिसमें माता-पिता की सहमति की अधिक आवश्यकता नहीं है।
राक्षस विवाह
किसी लड़की का अपहरण करके बिना उसकी तथा माता-पिता की अनुमति तथा ईच्छा के जबर्दस्ती विवाह कर लेना राक्षस विवाह की श्रेणी में आता है। इस प्रकार का विवाह अति निन्दनीय है।
पैशाच विवाह
किसी निर्दोष लड़की को विवाह के लिए लोभ, लालच देना या बहला-फुसलाकर अथवा अपहरण करके जबर्दस्ती विवाह कर लेना पैशाच विवाह कहलाता है तथा इसे सबसे घृणित श्रेणी के विवाह की संज्ञा दी जाती है। ऐसे विवाह में किसी भी प्रकार के धार्मिक संस्कारों का पालन नहीं किया जाता है।
कुंडली मिलन का उद्धेश्य
कुण्डली मिलान वर एवं कन्या के स्वभाव, मानसिक स्तर, वैवाहिक सुख, आनंद एवं दोनों की पसन्द-नापसन्द की जाँच करने के लिए किया जाता है। यदि दोनों के स्वभाव, मानसिक स्तर एवं पसन्द में समानता मिलती है तो दोनों के बीच अगाध प्रेम की स्थापना हो जाती है। यदि दोनों के स्वभाव एवं पसन्द में समानता का अभाव होता है तो दोनों के बीच लड़ाई, झगड़े, मन-मुटाव तथा घृणा अवश्यंभावी हो जाते हैं। अन्ततः दोनों का दाम्पत्य जीवन नारकीय बन जाता है तथा प्रायः अलगाव, तलाक, मुकदमा आदि इसकी परिणति होती है। वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के पूर्व कुछ आवश्यक बातों पर ध्यान देना आवश्यक है जिससे कि वैवाहिक सम्बन्ध चिरस्थायी बने। ये आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं:
सामंजस्यपूर्ण स्वभाव
संभावित युगल के स्वभाव की समानता एवं अनुकूलता की जाँच करना अति आवश्यक है। जब तक दोनों के स्वभाव, व्यवहार, आदत एवं दृष्टिकोण में समानता नहीं होगी तब तक दोनों का साथ जीवन व्यतीत करना तथा बाल-बच्चों एवं परिवार के सदस्यों की देखभाल करना साथ ही सम्मिलित रूप से उनकी जिम्मेवारी का निर्वहन करना संभव नहीं हो सकता।
आर्थिक स्थिति
स्वभाव एवं दृष्टिकोण में समानता के अलावा जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक सुदृढ़ता है। चँूकि सभ्यता के प्रारंभ से ही हमारा समाज पुरूष प्रधान रहा है, अतः विवाह के पूर्व वर के आर्थिक स्थिति की जाँच अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए क्योंकि कन्या को आर्थिक रूप से अपने पति के ऊपर ही निर्भर रहना पड़ता है। हालाँकि आधुनिक काल में यह मान्यता कुछ हद तक बदली है क्योंकि आज पुरूष एवं स्त्री दोनों समान रूप से शिक्षित हैं तथा समान पद पर कार्यरत हैं। आज काफी मामलों में दोनों दम्पत्ति कार्यरत हैं तथा दोनों अच्छा कमा रहे हैं। इसके बावजूद भी हमारे समाज में हमेशा सिर्फ वर के आर्थिक स्थिति की जाँच-पड़ताल करने की ही परंपरा रही है। हालाँकि उन परिस्थितियों में जहाँ लड़का एवं लड़की दोनों कार्यरत हैं, वहाँ दोनों के आर्थिक सामथ्र्य की जाँच ज्योतिषीय रूप से की जानी चाहिए।
दाम्पत्य सुख
ईश्वर ने पुरूष एवं स्त्री के रूप में दो विपरीत लिंग के प्राणियों को इस धरा पर अपने जीवन का आनंद लेने, सन्तानोत्पत्ति करने तथा दूसरे सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों का एक-दूसरे के साथ मिलकर तथा एक-दूसरे का ध्यान रखते हुए निर्वहन करने के उद्देश्य से भेजा है। अतः विवाह का मुख्य उद्देश्य सुख एवं शान्तिपूर्वक दाम्पत्य सुख का आनंद उठाना है। अष्टकूट मिलान से विवाह के ईच्छुक वर एवं कन्या के बीच सामंजस्य के अनुपात एवं उसकी मात्रा का सटीक संकेत प्राप्त होता है। कुण्डली मिलान से स्पष्ट रूप से पता चल जाता है कि दोनों को विवाह सूत्र में आबद्ध हो जाना चाहिए अथवा दोनों को दूसरे विकल्प की तलाश करनी चाहिए।
स्वास्थ्य
विवाह के भविष्य को निर्धारित करने में स्वास्थ्य की अहम भूमिका है। जन्म कुण्डली से किसी भी व्यक्ति के वर्तमान अथवा भविष्य में स्वास्थ्य तथा उसके शारीरिक स्थिति के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हो जाती है। जबतक स्वास्थ्य पूरी तरह से ठीक अथवा अनुकूल न हो, दाम्पत्य जीवन का आनंद प्राप्त नहीं हो सकता है। अतः विवाह निश्चित करने के पूर्व कुण्डली मिलान करना आवश्यक है।
संतान
विवाह का प्रमुख उद्देश्य संतानोत्पत्ति कर उनका पालन-पोषण करना तथा उन्हें एक सभ्य नागरिक बनाना है। शास्त्रों मंे भी कहा गया है, कि जब तक संतान पैदा नहीं होना तबतक पितृ़ ऋण से मुक्ति नहीं मिलती। साथ ही इस सृष्टि की निरंतरता के लिए भी यह आवश्यक है। अतः भावी वर एवं कन्या की कुंडली का मिलान कर यह जांचना आवश्यक है कि दोनों में से किसी की कुंडली में कहीं संतान से संबंधित कोई दोष तो नहीं है।
सास-ससुर के साथ संबंध
विवाहोपरान्त वर एवं वधू का एक-दूसरे के माता-पिता के साथ सौहार्दपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण सम्बन्ध आवश्यक है। कुण्डली मिलान का प्रयोजन वर एवं वधू का अपने सास-ससुर के साथ सम्बन्धों की जाँच करना भी है। दोनों में से किसी का भी सम्बन्ध यदि अपने सास-ससुर से मधुर नहीं है तो दाम्पत्य जीवन में तनाव एवं खटास उत्पन्न होना अवश्यंभावी है।
सगे-संबंधियों के साथ संबंध
विवाहोपरांत वर एवं वधू को सगे-संबंधियों के साथ भी सामंजस्य बिठाकर उनके यहां होने वाले कार्य-प्रयोजनों में भागीदारी, सुनिश्चित करनी पड़ती है। यही भारतीय संस्कृति की गरिमा एवं सामाजिक दस्तूर है। वर एवं कन्या की कुंडली में इस तत्व की भी परख करना आवश्यक है कि दोनों अपने ससुराल पक्ष के संबंधियों के साथ किस प्रकार एवं किस अनुपात में तालमेल बैठा पाएंगे।
सामाजिक उत्तरदायित्व
पति-पत्नी के रूप में बहुत सारे सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है। इसी से पारिवारिक मर्यादा बढ़ती है तथा नाम, यश एवं सम्मान की प्राप्ति होती है। अतः वर एवं कन्या की कुंडली का मिलान कर इस बात की भी परख की जाती है कि दोनों एक-दूसरे के साथ मिलकर प्रेमपूर्वक सामाजिक परंमपराओं का निर्वाह कर पाएंगे अथवा नहीं।

भावाधिपति ग्रह दशा

जन्मांग में विचारणीय भाव की राशि का स्वामी भावेश कहलाता है। पिछले अध्याय में बताया गया कि कोई ग्रह जिस भाव में स्थित है उस भाव का फल देगा। तदुपरांत वह जिस राशि में है उस राशि के गुणानुसार फल देगा, अन्त में जिन ग्रहों की दृष्टि है अथवा जिन ग्रहों द्वारा दशानाथ दृष्ट है (देखा जाता है) उनके प्रभाव के अनुसार दशा फल देगा। इस अध्याय में कहा गया है कि दशानाथ जिस भाव का स्वामी या कारक है उसके फल अपनी दशा/भुक्ति में किस प्रकार देगा।
लग्नेश की दशा
प्रायः जातक का स्वास्थ्य व सुख-दुःख दर्शाती है। लग्नेश की दशा में लग्न के शत्रु (षष्ठेश या शत्रु ग्रह) की भुक्ति में शरीर को कष्ट व मृत्यु होना संभव है। लग्न का संबंध आयुष्य व शरीर से होता है, अतः स्वास्थ्य प्रभावित होना स्वाभाविक बात है।
धन भाव
द्वितीय भाव का संबंध धन, कुटुंब, प्रारंभिक विद्या (मतान्तर से विद्या कितनी, कैसी व कब तक भी धन भाव से जानें), द्वितीय भाव नेत्र व वाणी का कारक भी है। धनेश अपनी दशा/भुक्ति में धन, कुटुंब, सुख व विद्या दिया करता है। धनेश का सूर्य से संबंध होने पर जातक परोपकारी, धनी एवं विद्वान होता है। धनेश का गुरु से संबंध ज्ञान, विवेक व अध्यात्म की ओर झुकाव देता है किन्तु धनेश का शनि से संबंध विद्या प्राप्ति में बाधा देता है, स्वल्प/हीन विद्या देता है।
यदि सूर्य/चंद्र निर्बल, नीच, शत्रु युक्त/क्षेत्री होकर मंगल तथा केतु से दृष्ट हो तो जातक नेत्रहीन अथवा विषम दृष्टि दोष (अंधत्व) से पीडि़त होता है। प्रायः धनेश की दशा/भुक्ति में घटना होती है। अंधत्व योग के लिये चंद्र षष्ठम, सूर्य अष्टम, शनि द्वादश तथा मंगल द्वितीय भाव में हो तो सूर्य चंद्र नेत्र ज्योति के कारक होकर दुःस्थान (त्रिकभाव) में बैठने से दुर्बल हो जाते हैं। मंगल पाप ग्रह द्वि तीयस्थ हो व शनि तथा सूर्य द्वारा दृष्ट भी हो तो जातक की नेत्र ज्योति बचना कठिन हो जाता है, उसकी दृष्टिहीनता की प्रबल संभावना होती है।
तीसरा भाव
भाई बहन, साहस, पराक्रम, परिश्रम का प्रतीक है। ये भाव जातक का स्नेह, सहयोग, सहभागिता, सांझापन दर्शाता है। यदि जन्मांग में द्वादशेश तृतीय भाव में हो तो वह तीसरे भाव की हानि करेगा। जातक भाई, बहन के सुख से वंचित रहेगा, उनसे द्वेष-मतभेद रखेगा, स्वार्थी होकर मात्र अपने शरीर पोषण में लगा रहेगा। तृतीयेश मनुष्य के अहंता को भी दर्शाता है। कदाचित इसी कारण यदि तृतीयेश का अष्टम भाव तथा अष्टमेश से संबंध हो तो जातक आत्मघात कर बैठता है। तृतीयेश की दशा में अष्टमेश की भुक्ति आत्महत्या करा सकती है।
चतुर्थ भाव
चतुर्थ भाव से प्रायः भूमि, भवन, माता व मन के सुख-संतोष का विचार किया जाता है। परिवार की सुख शान्ति व मित्रों का विचार भी अनेक विद्वान ज्योतिषी चतुर्थ भाव से करते हैं। इसे सुख भाव भी कहा जाता है। प्राचीन विद्वानों ने दशम भाव को राजा व चतुर्थ को प्रजा का प्रतीक माना है। चतुर्थेश की दशा में चंद्रमा की भुक्ति जनप्रिय बनाकर राजनीति में सफलता देती है। यदि चतुर्थ भाव पीडि़त हो या चतुर्थेश पापग्रह हो तो ऐसा चतुर्थेश अपनी दशा/भुक्ति में राज द्रोह या जनता द्वारा जातक का नकारा जाना दर्शाता है। यों चंद्रमा भी जनता/प्रजा का कारक माना जाता है।
पंचम भाव
पंचम भाव से संतान, धारणा शक्ति, बुद्धि बल, हर्ष-प्रसन्नता, प्रेमी/प्र्रेमिका (प्रगाढ़ मैत्री) संबंधी विचार किया जाता है। कुछ मनीषी नवम भाव को पिता भाव मान पंचम भाव से पिता का भाग्य (सफलता/ उन्नति) जानने का प्रयास करते हैं तो अन्य मनीषी शत्रु व रोग नाश का विचार (षष्ठम से द्वादश होने के कारण) पंचम भाव से करते हैं। इसी पंचम भाव से सट्टा, लाॅटरी द्वारा धन प्राप्ति का भी ज्ञान होता है। पंचम भाव में राहु/केतु की स्थिति हो तथा पंचमेश बली, शुभग्रह युक्त/दृष्ट हो तो पंचमेश की दशा/भुक्ति में अनायास अनार्जित धन (रेस, लाटरी, शर्त सट्टा से) प्राप्त होता है। श्री भसीन का मत है कि योग कारक कोई भी ग्रह राहु/केतु से संबंध करने पर अपनी दशा/भुक्ति में धन दिया करता है।
षष्ठ भाव
षष्ठ भाव से रोग, ऋण, शत्रु व संघर्ष का विचार किया जाता है। षष्ठेश अपनी दशा अन्तर्दशा में प्रायः रोग व शत्रु भय दिया करता है। यदि दशानाथ से षष्ठमस्थ ग्रह की अन्तर्दशा (भुक्ति) हो अथवा दशानाथ के नैसर्गिक शत्रु की भुक्ति हो तो भी अनिष्ट व पाप फल मिला करता है। यदि भुक्ति नाथ (अन्तर्दशा वाला ग्रह) दशानाथ के साथ ही लग्नेश का भी शत्रु तथा दशानाथ से षष्ठ/अष्टम भाव में हो तो अधिक हानि व कष्ट मिलता है। संक्षेप में दशानाथ का शत्रु या दशानाथ से षष्ठ स्थान में स्थित ग्रह अथवा लग्न से षष्ठ भाव का स्वामी ग्रह (षष्ठेश) अपनी भुक्ति में रोग, शत्रु भय, व पदच्युति दिया करता है। परम स्नेही व इष्टजन भी शत्रु बन जाते हैं।
सप्तम भाव
सप्तम भाव से प्रायः विवाह व व्यापारिक साझेदारी या विदेश यात्रा या सम्बन्ध का विचार किया जाता है। पति/पत्नी का रंग-रुप, चरित्र, स्वभाव, सामाजिक प्रभाव, विवाह कब, ससुराल कैसा, दांपत्य सुख का विचार सप्तम भाव से ही होता है। सप्तम भाव में शनि की राशि, स्थिति/दृष्टि विवाह में विलंब करती है तो बुध की राशि (मिथुन व कन्या) शीघ्र विवाह में सहायक होती है। सप्तमेश की दशा/भुक्ति, सप्तम भाव के कारक शुक्र की दशा या भुक्ति में विवाह योग होता है। कुछ मनीषी शुक्र के साथ गुरु की दशा/भुक्ति गोचर गुरु की सप्तम/सप्तमेश से युति/दृष्टि होने पर विवाह की बात कहते हैं।
अष्टम भाव
अष्टम भाव को जीवन की पूर्णता, आयुष्य, मृत्यु, अपमान व मृतक धन का प्रतीक मानते हैं। अष्टमेश की दशा मृत्यु देने में समर्थ होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार लग्न, सूर्य अथवा चंद्रमा से अष्टम भाव का स्वामी अपनी दशा/भुक्ति में मृत्यु दे सकती है। देव केरल कार के विचार से तीन लग्नों में अष्टमेश की दशा/भुक्ति के साथ ही यदि गोचर का शनि अष्टमेश के नवांश के स्वामी की राशि में स्थिति/दृष्टि जातक को मृत्यु दे सकती है। यदि अष्टमेश पापी होकर लग्नस्थ हो तथा लग्न शुभ ग्रह की युति/दृष्टि से वंचित हो तो अष्टमेश की दशा/भुक्ति में देह कष्ट व देह की हानि करता है। इसके विपरीत अष्टमेश बली, शुभ ग्रह युक्त/दृष्ट हो तो जातक दीर्घायु होता है। लग्नेश अष्टमेश यदि दोनों ही ग्रह बली हांे तो जातक स्वस्थ व दीर्घायु होता है।
नवम भाव
नवम भाव को भाग्य भाव कहा जाता है। प्राच्यग्रंथों में इस भाव को धर्म भाव मात्र कहा गया है यों भी भाग्य पुण्य कर्म का फल ही तो है। भाग्य का प्रयोग नियति अथवा दैवी कृपा के रुप में होता है। यथा ठेले वाला, ट्रक चालक, टैक्सी ड्राइवर, कुली कबाड़ी सरीखे व्यवसाय को नियति से जोड़ दिया जाता है। अतः व्यवसाय व जीविका का विचार भाग्य भाव से किया जाता है। इसी के साथ दैवी अनुग्रह, किस्मत, तकदीर, भाग्य, आशा व योग्यता से अधिक फल की प्राप्ति भी नवम भाव से जानी जाती है। नवमेश की दशा/भुक्ति में प्रायः भाग्योदय, पदोन्नति, धन, मान, सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। यदि नवमेश पापी हो या दशानाथ से भुक्तिनाथ पाप ग्रह नवमस्थ हो तो दुर्भाग्य, दैन्य, दःुख व अपमान मिलता है। जातक को मिथ्या कलंक व अपयश का भागी होना पड़ता है। नवम भाव से पुत्र का पुत्र या पौत्र तथा संतान के बुद्धि बल का भी विचार किया जाता है।
दशम भाव
दशम भाव की प्राचीन विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा गायी है। संत तुलसीदास की बड़ी स्पष्ट घोषणा है ’’कर्म प्रधान विश्व करि रखा’’ जो जस करहिं, सो तस फल चाखा’’अर्थात उस परमात्मा ने ये संसार कर्म प्रधान (कर्म पर आधारित) बनाया है, जो जैसा करता है उस को वैसा ही फल मिलता है। ज्योतिषीय जन्मकुंडली से अधिक ये तथ्य भला कौन जान सका है। इसमें नवम स्थान धर्म, दशम कर्म तो उसके तुरंत बाद एकादश स्थान लाभ का होता है। जन्मांग की मानो स्पष्ट घोषणा है कि धर्म पर आधारित जन कल्याण व परोपकार के कार्य करने से ही सच्चे लाभ की प्राप्ति होती है। वही जन्म जन्मान्तर से संसार में भटकते जीव की सच्ची कमाई है।
प्राचीन मनीषियों के विचार से सूर्य, मंगल, शनि, राहु केतु सरीखे पाप ग्रह भी बली होकर (शुभ दृष्ट/युत; स्वक्षेत्री/मित्र क्षेत्री) दशमस्थ होने से जनकल्याण के कार्य (यज्ञकर्म) कराते हैं। जातक जनता का संरक्षक व पालन कर्ता होता है। दशमेश शुभ ग्रह हो, शुभ दृष्ट/युत हो तो निश्चय ही अपनी दशा, अन्तर्दशा में उन्नति, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व वैभव देगा।
लाभ स्थानः लग्न से एकादश भाव, लाभ स्थान या आय भाव के नाम से प्रसिद्ध है। लाभ स्थान को त्रिषडय (तीन, छः व ग्यारह) भाव मान कर दोष पूर्ण तथा निंदित भाव भी कहा गया है। अनुभव में यही आया है कि लाभेश की दशा/भुक्ति धन संबंधी शुभ फल देती है, विविध स्रोत से धन लाभ होता है, किन्तु देह कष्ट व मानसिक पीड़ा भी शायद कुछ बढ़ जाती है। मन में चिंता, क्लेश, परिवार में तनाव अशान्ति होने के कारण ही कदाचित इसे अनिष्ठ/पाप दशा माना गया है।
एकादश भाव
शरीर के लिये प्रायः कष्टदायी होता है व एकादशेश की दशा/भुक्ति भले ही धन का लाभ दे, किंतु देह व स्वास्थ्य की हानि करता है। यदि लाभेश की दशा में दशानाथ व लग्नेश के शत्रु की भुक्ति (अन्तर्दशा) हो तब महान् विपत्ति व संकट की स्थिति बन जाती है। एकादश भाव माता के लिये मृत्यु स्थान है (ये चतुर्थ भाव से अष्टम भाव जो है) अतः लाभेश की दशा/भुक्ति माता के लिये कष्टप्रद या मृत्यु देने वाली हो सकती है। लाभेश की दशा व भुक्ति काल में यदि गोचर का शनि एकादश भाव में युति/दृष्टि करे तो माता की मृत्यु होना संभव है।
द्वादश भाव
द्वादश भाव से व्यय, हानि, विनाश का विचार किया जाता है। ये त्रिक भाव का अंग होने से अशुभ माना गया है, किंतु अन्य मनीषियों ने इसे भोग, वैभव व ऐश्वर्य का प्रतीक बताया है। महर्षि पराशर के विचार से द्वितीय व द्वादश भाव के स्वामी सम होते हैं तथा अपनी अन्य राशि के शुभत्व बल (शुभ ग्रह की दृष्टि/युति) के अनुसार दशा फल देते हंै। व्ययेश जिस भाव में हो, जिस ग्रह से युक्त/दृष्ट हो प्रायः उसका फल भी अपनी दशा/भुक्ति में दे दिया करता है। द्वादश भाव के स्वामी की दशा में शुभ/योगकारक ग्रह की भुक्ति में सुख, भोग, वैभव, समृद्धि बढ़ेगी ये बात निसंकोच कही जा सकती है। शुभ ग्रह के गोचर में द्वादश भाव पर युति/दृष्टि निश्चय ही जातक को उदार बनाकर दान, धर्म व परोपकार पर धन व्यय कराता है।
भावगत ग्रह की दिशा
लग्न में स्थित- ग्रह की दशा में मनुष्य को देह सुख, स्वास्थ्य, आरोग्य लाभ होता है। मन में उत्साह, उमंग व सुख, संतोष की प्राप्ति होती है। धन व वैभव मिलता है।
धन भावस्थ- ग्रह की दशा में उत्तम भोजन की प्राप्ति हो। स्त्री, पुत्र व परिवार का सुख मिले। विद्या, वाणी की कुशलता तथा धन की वृद्धि होती है। घर में मंगल कार्य होते हैं।
तीसरा भावार्थ - ग्रह में भाई का सुख, साहस, पराक्रम व मन, बुद्धि में धीरज बढ़ता है। धन, वस्त्र, स्वर्णाभूषण की प्राप्ति व सुख/सफलता मिलती है।
चतुर्थ भावरथ- ग्रह की दशा में भूमि, भवन, संपदा व वाहन सुख की प्राप्ति होती है। धन, आरोग्य, खाने पहनने का सुख, भाईबंधु व मित्रों से सुख मिलता है।
पंचम भावार्थ- ग्रह की दशा में स्त्री, पुत्र एवं मित्रों का सुुख व सहयोग मिले। विद्या, बुद्धि, यश - प्रतिष्ठा की वृद्धि, स्वास्थ्य व पराक्रम जनित सुख मिलता है।
षष्ठ भावरथ- ग्रह की दशा में राजा, चोर, अग्नि, विष या शस्त्र से भय होता है। रोग बढ़ने की संभावना होती है। रोग, ऋण, शत्रु एवं मुकदमा से चिन्ता, परेशानी होती है।
सप्तमस्थ- ग्रह की दशा में स्त्री-पुत्र का लाभ, परिवार सुख, धन, वाहन व संपत्ति की वृद्धि, राज सम्मान व यश की प्राप्ति हेाती है। विवाह का योग बनता है।
अष्टमस्थ- ग्रह की दशा में कार्यालय, आवास या पद्वी का नाश, महान दुख, बंधु-बाधवों को कष्ट, धन नाश, दरिद्रता, अन्न में अरुचि, द्वेष भाव में वृद्धि व शत्रु से भय, अपयश, कलंक व अपमान भुगतना पड़े।
नवमस्थ- ग्रह की दशा में पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, भूमि, संपदा की वृद्धि व सुख मिले।
दशमस्थ- ग्रह की दशा में पदोन्नति, मान-प्रतिष्ठा, स्त्री, पुत्र का सुख, सत्कार्य-सत्संग, सुख एवं वैभव की प्राप्ति होती है।
लाभस्थ- ग्रह की दशा में स्त्री, पुत्र का लाभ, बंधु बांधवों का सुख, राजसम्मान, धन वस्त्र व सुख साधन की प्राप्ति होती है। संतजन की कृपा मिलती है।
व्यय भावस्थ- ग्रह की दशा में अकर्मण्यता, आलस्य, शरीर में रोग, पीड़ा, दुःख, दरिद्रता, हानि, अपव्यय एवं असफलता जनित क्लेश होता है।

शुक्र दशा का नैसर्गिक फल

यदि शुक्र बलवान, शुभ युक्त या दृष्ट तथा शुभ भाव में स्थित हो तो जीवन सफल होता है। व्यवसाय में यश, सम्पत्ति, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है। स्त्रियां एकाधिक होती हैं। कामुक किन्तु परस्त्रियों से विमुख प्रविती होती है। स्त्री, सन्तान, धन, सम्पत्ति, आभूषण और वाहन द्वारा सुख प्राप्त होता है। राज्य पक्ष से सम्मान होता है, विद्या-लाभ, गायन और नृत्यादि में मन लगाने वाला, शुभ स्वभाव, दानादि में अभिरुचि रखने वाला एवं क्रय-विक्रय में चतुर होता है। यदि शुक्र निर्बल या पीडि़त हो तो झगड़ालू, खर्चीली प्रवृत्ति के प्रेम सम्बन्धों की चाह होती है। साधारण भाषा में दिल फैंक कहते हैं। इज्जत की फिक्र न करने वाले, अनैतिक सम्बन्धों में रस लेने वाले, चंचल अविश्वासी होते हैं। सभी कमाई शराब पीने में गंवा देते हैं। मित्रता में भी स्थिरता नहीं होती। किसी भी चीज में व्यवस्थित नहीं होते। धर्म कर्म के बारे में भी उदासीन रहते हैं। घरेलू झगड़े, वात-कफ प्रकोप जनित रोग होते हैं।
विभिन्न भावगत शुक्र की दशा का फल
केंद्र भाव- उत्तम वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, नवरत्न, आभूषण, वाहन आदि से शारीरिक सुख की प्राप्ति
लग्न भाव- राजनेताओं से मित्रता व लाभ, वाहन, आभूषण आदि से शारीरिक सुख की प्राप्ति होती है।
द्वितीय भाव- धनी, उत्तम भोजन, मधुर वाणी, परोपकारी, राज-सम्मान प्राप्त होता है।
तीसरा भाव- उत्साही, साहसी, उत्तम वाहन, आभूषण, वस्त्रादि एवं भाइयों से सुख प्राप्त होता है।
चतुर्थ भाव- अधिकार प्राप्ति, वस्त्र, आभूषण, वाहन, सुगन्धित द्रव्य आदि प्राप्त होते हैं। सम्मान व कीर्ति प्राप्त होती है। माता का सुख मिलता है।
पंचम भाव- सन्तान प्राप्ति, कीर्ति, सम्मान व उत्तम विद्या प्राप्ति होती है।
छटवा भाव - धन नाश, पुत्र, कुटुम्ब एवं भाइयों, स्त्री की हानि, शत्रु भय, रोग का आक्रमण होता है।
सप्तम भाव- स्त्री का वियोग, परदेश गमन, रोग, प्रमेह, व्यभिचारी, सन्तान एवं बन्धुजन की हानि होती है।
अष्टम भाव- शस्त्र, अग्नि या चोर से आघात, कभी सुख, कभी दुःख की प्राप्ति होती है। धन की वृद्धि और राजकीय यश प्राप्त होता है।
नवम भाव -राज सम्मान, पिता व गुरुजनों से सुख और यश की वृद्धि, धार्मिक कर्मों में रुचि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कर्मों में रुचि, नवीन सम्पत्ति, वाहन आदि की प्राप्ति, वस्त्र, आभूषण, सुगन्धित द्रव्य आदि की प्राप्ति होती है।
एकादश भाव -राज सम्मान, पुत्र, धन, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्यों की प्राप्ति होती है। व्यवसाय में वृद्धि, परोपकारी एवं पुस्तक लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- राज-सम्मान, धन की प्राप्ति, स्थानच्युति। विदेश भ्रमण, मातृ वियोग एवं मन दुःखी होता है।
शुक्र की महादशा में उत्तम वाहन, धन-संपदा-रत्न-आभूषण की प्राप्ति, क्रीड़ा, मनोरंजन, सुख वैभव सामग्री, स्त्री सुख, नल, यात्रा व राजसम्मान की प्राप्ति हो तथा घर में मंगल कार्य हों। शुक्र शुभ ग्रह है। काल पुरुष का धनेश व सप्तमेश होने से निश्चय ही धन, देह कान्ति, उत्तम खान-पान, वस्त्राभूषण व स्त्री सुख देगा। द्वादशस्थ होने पर समुद्र पार से धनागम कराएगा, किन्तु व्ययभाव में स्थित ग्रह हानि, चिन्ता व कष्ट भी देता है। अतः किसी गुरुजन का वियोग, बन्धुओं को कष्ट व मन में चिंता भी होगी।
शुक्र/शुक्र- वस्त्राभूषण, वाहन, सुगन्धित पदार्थ, स्त्री भोग, धन संपदा व सुख प्राप्त हो। देह कान्ति बढ़े।
शुक्र/सूर्य- नेत्र, कपोल, कुक्षि (बगल) में रोग/पीड़ा हो। राजभय, गुरुजन अथवा बन्धु से/को पीड़ा हो(सूर्य व शुक्र परस्पर शत्रु हैं, सूर्य राजा है तो शुक्र सुख है। अतः राजा या गुरुजन (वरिष्ठ) अधिकारियों से भय एवं कष्ट की संभावना बढ़ती है। कालपुरुष के जन्मांग में शुक्र, सूर्य से द्वादश भाव में है। ये भी सुख की हानि करने वाली स्थिति है।)
शुक्र/चन्द्रमा- नख-शिख व दांतों में चोट लगे, दर्द हो। वात-पित्त रोग, धन नाश, संग्रहणी, यक्ष्मा अथवा गुल्म रोग हो। सूर्य की भांति चंद्रमा भी शुक्र के लिये शत्रु ही है। चंद्रमा कालपुरुष का सुखेश है तो शुक्र द्वि तीयेश, अतः रोग-पीड़ा, धन हानि से मन में संताप होना सहज है।
शुक्र/मंगल- पित्त प्रकोप व रक्त दोष से पीड़ा हो। भूमि, सोना, तांबा सरीखी धातु की प्राप्ति व लाभ होेता है। किसी युवती से अवैध संबंध होना संभव है। कार्य व्यवधान/परिवर्तन हो। नौकरी या व्यापार बदले। मंगल कालपुरुष का लग्नेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश होकर व्यय भाव में। इनमें परस्पर संबंध 3-11 भाव का है जो अशुभ ही कहा जाएगा। मंगल भूमि लाभ तो अवश्य कराएगा, किन्तु रक्त विकार या उच्च रक्त चाप भी दे सकता है। इसी प्रकार शुक्र-मंगल के कारण काम वेग को बढ़ाएगा, अविवेकी बनाकर पशुवत् आचरण दे सकता है।
शुक्र/राहु- पुत्र का जन्म, धन लाभ व आदर सत्कार मिले। वाणी मधुर व प्यारी हो। शत्रु पर विजय मिले, शत्रु कारावास भोगे। कभी जातक को भी विष, अग्नि, चोर से पीड़ा व मानसिक संताप होता है।
शुक्र/गुरु- उच्च पद व अधिकारों की प्राप्ति हो। धर्म कर्म में संलग्न हो देवताओं का पूजन करे। स्त्री पुत्र का सुख पाए। राज्य कृपा से विविध सुखभोग प्राप्त हों।
शुक्र/शनि- समाज, सेना या सरकार से सम्मान मिले। उत्तम स्त्री सुख, धनागम व सुख साधन की प्राप्ति व वृद्धि हो। शुक्र व शनि परस्पर मित्र हैं। काल पुरुष के जन्मांग में शुक्र भोग स्थान में है, तो शनि भी सप्तम भाव में शुक्र की राशि का होकर स्थित है। अतः ये शनि, निश्चय ही भोग सामग्री, वैभव व भाग्य वृद्धि के साथ सुख बढ़ाएगा।
शुक्र/बुध- धन-संपत्ति, यश-प्रतिष्ठा, पद-अधिकार व पुत्र का सुख मिले। शत्रुओं का नाश हो। जातक वात-पित्त-कफ (त्रिदोष) व्याधि से पीडि़त हो। (बुध पराक्रमेश हेाकर षष्ठस्थ होने से पराक्रम वृद्धि कर शत्रु नाश करेगा। शुक्र धनेश होकर भोग भवन में उच्चस्थ होने पर वैभव व सुख सामग्री बढ़ाकर सुख देगा।)
शुक्र/केतु- संपत्ति व सुख की हानि, अग्नि भय, देह में पीड़ा, पुत्र वियोग व वेश्याओं की संगति हो। (शुक्र दैत्य गुरु है, वह भोगी भी है। केतु प्रबल देवशत्रु है। अतः भोग लिप्सा व धर्म विमुखता के दुखदायी परिणाम इस अवधि में प्राप्त होना स्वाभाविक ही है। केतु मानो चेतावनी देता है कि वह धर्म का पक्षधर है। अधर्म, अन्याय व स्वार्थ के लिये जातक को कठोर दंड अवश्य मिलेगा।)

future for you astrological news milansarita aur kundali 04 05 2016

future for you astrological news swal jwab 2 04 05 2016

future for you astrological news swal jwab 1 04 05 2016

future for you astrological news swal jwab 04 05 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 04 05 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 04 05 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 04 05 2016

future for you astrological news panchang 04 05 2016

Tuesday, 3 May 2016

केतु ग्रह का नैसर्गिक फल

केतु एक छाया ग्रह है। हमेशा राहु से सप्तम भाव में रहता है। केतु का फल राहु फल के अनुसार होता है।
विभिन्न भावगत केतु की दशा का फल
लगन भाव- कृश, दुर्बल, उदास, भ्रमित, लोभी, कंजूस, बन्धुओं से विरोध, अशुद्धचित्त का होता है।
द्वितीय भाव -राजा से कष्ट, दुःखी एवं शत्रु जैसा बोलता है, बुद्धि भ्रम, स्त्री सुख से रहित होता है।
तीसरा भाव- शत्रु नाश, पराक्रमी, छोटे भाई-बहिन को कष्ट, कन्धे व कान में रोग, साझेदारी से लाभ होता है। यात्रा, बहुत खर्च, हृदय रोग एवं बहरापन होता है।
चतुर्थ भाव- माता रोगी रहती है। सौतेली माता से कष्ट, वाहन सुख एवं स्वभाव अस्थिर रहता है।
पंचम भाव- कपटी, दुर्बल, धैर्यहीन होता है। पुत्र कम, कन्याएं ज्यादा, पेट के रोग, तंत्र-मंत्र से भाइयों का घात करता है।
छटवा भाव- शत्रु नाश, मामा से वैर, स्त्री सुख कम, चैपायों से लाभ, अपने को सर्वज्ञ समझता है।
सप्तम भाव- स्त्री रहित, व्यभिचारी, अस्थिर, प्रवासी निवास स्थान बार-बार बदलने वाला, व्यसनी, राजा से भय होता है।
अष्टम भाव- पापकृत्य तत्काल प्रकट होता है। परस्त्री में आसक्त, नेत्ररोगी, दुराचारी, एवं दीर्घायु
नवम भाव- धर्म विरोधी, दुराचारी, झूठ बोलने वाला, क्रोधी, वक्ता, दूसरांे की निन्दा करने वाला, भाइयों से झगड़ने वाला, शूर, बलवान एवं अभिमानी होता है।
दशम भाव- बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ, प्रवासी एवं विजयी होता है।
एकादश भाव- मीठा बोलता है, विनोदी, विद्वान, ऐश्वर्य सम्पन्न, तेजस्वी, वस्त्रों आभूषणों से युक्त, लाभ प्राप्त करता है।
द्वादश भाव- यात्राएं, चंचल, उदार, खर्चीला,ऋणग्रस्त रहता है। बुध युक्त होे तो व्यापार में सफलता प्राप्त होती है।
केतु/केतु- मित्रों से विरोध, शत्रुओं से कलह, देह ताप, अशुभ वचन से मनःसंताप, दूसरे के घर में रहना पड़े एवं धन की हानि हो।
केतु/शुक्र- पत्नी, ब्राह्मण व कुटुंबी जन से वैर एवं विरोध जनित क्लेश हो। कन्या जन्मे। मान हानि, अपमान हो। लोगों से कष्ट पहुँचे।
केतु/सूर्गु- रुजन का मरण, निज जन से विरोध व ज्वर से कष्ट हो। सरकार की ओर से कलह उपस्थित हो। वात, कफ जनित रोग किन्तु विदेश जाने से लाभ मिले।
केतु/चन्द्रमा- अनायास धन का लाभ व हानि भी हो। पुत्र से वियोग जन्य कष्ट हो। घर में शिशु का जन्म हो। नौकर व कन्या संतान का लाभ हो। कभी संतान के कारण दुःख उठाना पड़े।
केतु/मंगल- घर के वृद्धजन से कलह, बंधुओं से वियोग अथवा अनिष्ट, सर्प, चोर, अग्नि, शत्रु से भय एवं पीड़ा हो।
केतु/राहु- शत्रु निर्मित कलह से कष्ट हो। राजा, अग्नि व चोर से भय हो। जातक दूसरों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करे। उसकी निन्दा, भत्र्सना एवं गालियाँ खाए।
केतु/गुरु- श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति, देवोपासना, धन, भूमि लाभ, आय वृद्धि, उपहार व भेंट मिले, राज सम्मान व सुख मिले।
केतु/शनि- नौकरों से हानि, दूसरों से कष्ट, शत्रुओं से विवाद-झगड़ा, स्थान हानि, धन हानि, अंग भंग की संभावना बढ़े। नौकरी छूटना व स्थानान्तरण भी हो सकता है।
केतु/बुध- उत्तम पुत्र की प्राप्ति, उच्चाधिकारी/नियोक्ता से प्रशंसा मिले। भूमि व धन का लाभ हो। प्रबल वैरी द्वारा कष्ट, कृषि व पशु धन की क्षति हो।

बुध ग्रह का नैसर्गिक फल

बुध अधिकतर जिस ग्रह के साथ स्थित होता है उसके फल देता है। बुध विद्यार्थियों का प्रतिनिधि ग्रह है। शायद इन बातों को ध्यान में रखकर ही बुध को नपंुसक ग्रह माना है क्योंकि विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। यदि बुध बलवान, शुभ दृष्ट व उच्च का हो तो धन की प्राप्ति, सुख, सम्मान प्राप्त होता है। परोपकार, धन, भूमि, वस्त्रादि का सुख मिलता है। लेखन व प्रकाशन का कार्य करता है। यदि बुध निर्बल, पीडि़त व नीच हो तो परस्त्रीगामी, स्वजनों से विरोध, पदच्युति, माता व भ्रातृ पक्ष की हानि, विदेश यात्रा, मस्तिष्क के रोग होते हैं। जातक विद्याहीन होता है। व्यवसाय में हानि होती है। यदि बुध सूर्य के साथ हो तथा अस्त नहीं तो बुधादित्य योग बनता है। जातक विद्वान व खगोलशास्त्री होता है। यदि बुध अस्त हो जाए तो जातक मानसिक दुःख, अपने परिवार जनों से वैमनस्य, वाचाल, निन्दा करने वाला होता है। यदि बुध शुभ ग्रह युक्त हो तो शुभ कर्म, कीर्ति, सम्मान, स्त्री सुख, धन की प्राप्ति होती है। पाप युक्त बुध की दशा में पाप कर्म, पर-निन्दा, व्यर्थ में ज्यादा बोलना, भूमि, स्त्री, पुत्र सुख की हानि होती है। बन्धुजनों से वियोग, अपने पद सौच्युति, विदेश यात्रा एवं छोटी नौकरी पर भी कलह होता है।
विभिन्न भावगत बुध की दशा का फल
केंद्र भाव- अधिकारियों से मित्रता, धन-धान्य, स्त्री, पुत्रादि का सुख, धार्मिक कर्म, उत्तम भोजन एवं वस्त्राभूषण की प्राप्ति होती है।
लग्न भाव- अधिकार, यश, सम्मान प्राप्त होता है। धार्मिक कार्य, गंगा स्नान होता है।
द्वितीय भाव- विद्या की प्राप्ति, कीर्ति वृद्धि, अधिकारियों से मित्रता, मधुर वाणी प्राप्त होती है।
तृतीय भाव- आलस्य, उदर रोग, वमन, मन्दाग्नि, भाई-बहनों से वैमनस्य होता है।
चतुर्थ भाव- मकान, सन्तति-सुख, रोजगार व नौकरी में हानि, स्थान परिवर्तन, मातृपक्ष को कष्ट
पंचम भाव- नीच वृति बौद्धिक क्रूरता एवं धन प्राप्ति में कठिनाई होती है।
छटवा भाव -वात, पित्त एवं कफ जनित नाना प्रकार के रोग, राज्य, अग्नि, चोर से भय होता है।
सप्तम भाव- विद्या, स्त्री, पुत्र और उत्तम वस्त्र की प्राप्ति होती है। राज्य सम्मान व अधिकारियों से मित्रता होती है।
अष्टम भाव- वात-पित्त-कफ जनित नाना प्रकार के रोग होते हैं। राज्य, अग्नि, चोर से भय होता है।
नवम भाव- स्त्री, पुत्र एवं धन की प्राप्ति होती है।
दशम भाव- अधिकार, सम्मान, यश प्राप्त होता है। पुस्तक का प्रकाशन, शुभ कर्म, पुत्र एवं स्त्री से सुख प्राप्त होता है।
एकादश भाव- किसी से धन की प्राप्ति होती है।
द्वादश भाव- शरीर के किसी अंग का भंग, पुत्र एवं स्त्री से मतभेद, आकस्मिक घटना से मृत्यु का भय होता है।
बुध/बुध -जातक धर्म मार्ग पर चले, विद्वानों व ब्राह्मणों के संग से निर्मल बुद्धि प्राप्त कर सभी बाधाओं को दूर कर, धन, यश व सुख पाए।
बुध/केतु- दुःख, शोक व क्लेश से मन अधीर व व्याकुल हो। शत्रुओं से भय व हानि हो। खेती व वाहन की क्षति हो।
बुध/शुक्र- देवता, ब्राह्मण व गुरु के प्रति श्रद्धा हो। जातक दान व धर्म में लगे। मित्र समागम तथा वस्त्राभूषण प्राप्त कर सुखी हो (बुध व शुक्र परस्पर मित्र हैं। बुध से बुद्धि व व्यवहार कुशलता तथा शुक्र द्वारा जातक राजसी भोग पाता है)।
बुध/सूर्य- राजसम्मान, उत्तम भोजन व पेय, भव्य भवन, वाहन व उत्कृष्ट धन-संपदा मिले। बुध के लिये सूर्य मित्र ग्रह है जो सूर्य की सिंह राशि से द्वितीय भाव कन्या में स्थित होकर धन व खान-पान का सुख देता है। यों भी सूर्य राजा है व बुध राजकुमार; अतः राजा सूर्य का लाड़ प्यार बुध को सहज प्राप्त है।
बुध/ चन्द्रमा- सिर में दर्द, (कंठ) गले में दर्द एवं नेत्र में कष्ट/विकार हो। जातक को चर्मरोग, दाद, खाज, खुजली व सफेद दाग की बीमारी हो। कभी प्राणों को संकट या भय हो। चंद्रमा देह की सुंदरता व स्वास्थ्य है, मन की सुख शांति भी है। बुध के लिए चंद्रमा शत्रु ही है। अतः बुध स्वास्थ्य संबंधी चिन्ता परेशानी देगा।
बुध/मंगल- आग या चोरी से धन हानि। नेत्र पीड़ा, मन में दुःख व चिन्ता। पदच्युति व मकान छूटे। वात रोग से कष्ट हो। मंगल, चन्द्रमा को मित्र व बुध को शत्रु मानता है। बुध धन व प्रसन्नता का प्रतीक है। अतः मंगल अपनी अन्तर्दशा में बुद्धि को भ्रमित कर चिन्तातुर बनाता है। किसी भी तरह से धन हानि करता है। बदले में बुध भी भूमि, भवन व अधिकार पद की हानि दिया करता है।
बुध/राहु- उदर, मस्तक व नेत्र में पीड़ा, स्वास्थ्य की हानि हो। अग्नि, विष व जल से भय हो। जातक के धन, मान व पद (प्रतिष्ठा/अधिकार) की क्षति हो। बुध भले ही पापी न हो किन्तु राहु तो प्रबल पापी व अशुभ माना गया है। अतः धन, मान प्रतिष्ठा व स्वास्थ्य की हानि करने में पीछे नहीं हटता।
बुध/गुरु- शत्रु व रोग से छुटकारा, धार्मिक कार्यों में सफलता व राजसम्मान मिले। धर्म व तपस्या में विशेष रुचि हो। (गुरु वेदनिष्ठ, शास्त्रमर्मज्ञ ब्राह्मण है) तो बुध है- बुद्धि चातुर्य व व्यवहार कुशलता का प्रतीक। अतः ज्ञान व बुद्धि के मिलन से शुभ कार्य संपन्न होंगे। जिनके कारण मान, सम्मान, यश कीर्ति का विस्तार होगा व मन में हर्ष उल्लास, उत्साह, उमंग, आस्था, विश्वास जनित सुख उपजेगा।

शनि ग्रह का नैसर्गिक फल

शास्त्रों के मतानुसार शनि यदि बलवान हो, उच्च का हो तो जातक ग्राम, देश या सभा का आधिपत्य प्राप्त करता है। उसे अनेक प्रकार से आनन्द प्राप्त होता है। किन्तु पिता की मृत्यु एवं बन्धुजनों से वैमनस्य होता है। यदि शनि पीडि़त हो, निर्बल हो या नीच हो तो देश परिवर्तन चिन्ता, व्यवसाय परिवर्तन, धन की हानि तथा राजा से विरोध होता है। नौकरी या किसी की अधीनता करनी पड़ती है। सूर्य के साथ शनि हो तो उसकी दशा में स्वजनों से मतभेद परस्त्री गमन, नौकर या सन्तान से असन्तोष तथा तुच्छ क्रिया करने में तत्पर रहता है। यदि शुभ ग्रह के साथ हो तो बुद्धि का उदय, राजपक्ष से भाग्योन्नति, धन लाभ, खेती में उन्नति एवं काले-धन की प्राप्ति होती है। यदि पाप ग्रह के साथ या दृष्टि हो तो धन, स्त्री, सन्तान, नौकर की हानि होती है। लांछन लगता है। शनि यदि शुभ है तो जातक गूढ़ विषयों की जड़ तक जाने का प्रयत्न करता है। परोपकारी, मिलनसार, राष्ट्रीय योगी, अनासक्त होता है। अपमान स्थिति में दीर्घकाल तक न रह कर स्वाभिमान की स्थिति में दो दिन में मरना अच्छा समझता है। यदि शनि पीडि़त है तो जातक स्वार्थी, धूर्त, दुष्ट, मनमानी करने वाला, आलसी एवं मंद बुद्धि होता है। शनि वृष, कन्या और मकर में उत्पात करता है |
विभिन्न भावगत शनि की दशा का फल
केंद्र भाव- कलह, पीड़ा, पुत्र, मित्र, स्त्री, नौकर, धन व बन्धु का नाश होता है।
लगन भाव- शरीर में दुर्बलता, जननेन्द्रिय जनित रोग, स्थानच्युति, राज-भय, सिर के रोग, माता व मातृ पक्ष को कष्ट होता है।
द्वितीय भाव- धन नाश, राज-भय, कर्मचारियों से विवाद, गुदा तथा नेत्र रोग होते है।
तीसरा भाव- मन में उत्साह और सुख होता है। भाई-बहनों को कष्ट, धन-हानि होती है।
चतुर्थ भाव- भ्रातृ वर्ग की हानि, घर जलने का भय, पदच्युति, राज्य तथा चोर से भय एवं ंभ्रमण होता है।
पंचम भाव- सन्तान नाश, असन्तोष, राज्यभय, पुत्र तथा स्त्री से मतभेद होता है।
छटवा भाव- गृह व व्यवसाय की हानि, शत्रु, रोग, विष एवं चोर से भय होता है।
सप्तम भाव- नाना प्रकार के रोग, पीड़ा, स्त्री के कारण कष्ट होता है।
अष्टम भाव- धन, स्त्री, पुत्र, नौकर एवं पशुओं का नाश होता है। गुदा व आँखों के रोग होते हैं।
नवम भाव- गुरु व पिता से वियोग, विदेश यात्रा एवं धार्मिक कार्यों में अरुचि होती है।
दशम भाव- पदच्युति, विदेश यात्रा, धार्मिक कार्यों में अरुचि, राजकोप व बन्धन होता है।
एकादश भाव- नाना प्रकार के सुख व सम्मान प्राप्त होते हैं। स्त्री, पुत्र, नौकरी से सुख प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- अग्नि, चोर, राजा से भय रहता है। विदेश यात्रा तथा बन्धुओं से वियोग होता है।
शनि दःुख का कारक ग्रह है इसलिए शनि के नकारात्मक गुणों का वर्णन किया है। परन्तु अनुभव में ऐसा नहीं। शनि जिस भाव में स्थित होता है उसकी वृद्धि करता है। उसमें बल होना चाहिये। शनि की दृष्टि अशुभ है
शनि/शनि- कृषि में लाभ, दास, दासी व पशुधन (भैंस) की वृद्धि हो। वात रोग से पीड़ा, शूद्र (श्रमिक वर्ग, निम्न वर्ग) से धन लाभ हो। देह में आलस्य व पाप वृत्ति बढ़े। प्रौढ़ा स्त्री का संग हो। (शनि ग्रह परिषद में दास है व कालपुरुष के जन्मांग में सप्तमस्थ होने से दास दासियों के सुख में वृद्धि करेगा, किंतु लग्न पर नीच दृष्टि के कारण शनि रोग व आलस्य भी दे सकता है।
शनि बुध- सुख-सौभाग्य की वृद्धि, राज सम्मान मिले। मित्र व स्त्री से सुख समागम। वात-पित्त कफ से रोग व पीड़ा हो। जातक के भाई, बहन या पुत्र रोग ग्रस्त हों। बुध हास्य व मनोरंजन प्रिय व शनि का मित्र है। काल पुरुष के जन्मांग में बुध तृतीयेश-षष्ठेश होकर षष्टम भाव में शनि से द्वादशस्थ है। अतः शैय्या सुख, मित्र सुख व सौभाग्य की वृद्धि होगी। तृतीयेश के षष्ठमस्थ होने से भाई-बहन को रोग व पीड़ा होना भी सहज संभव है।
शनि/केतु- अग्नि व वायु प्रकोप से कष्ट, शत्रुओं से संताप मिले। स्त्री पुत्र से मतभेद व क्लेश हो। अशुभ व अप्रिय घटना घटे, सर्प भय हो। (शनि व केतु दोनों ही पापी हैं, केतु भाग्य भाव में शनि द्वारा दृष्ट है, अतः दुर्भाग्य जनित कष्ट, बाधाएं मिलना स्वाभाविक है।
शनि/शुक्र- स्त्री पुत्र व मित्रों से सुख मिले व स्वयं जातक भी इन्हें सुखदायी लगे। समुद्र पार (आयात-निर्यात) से धन प्राप्त हो। यश व प्रभाव बढ़े। (कालपुरुष के जन्मांग में धनेश-सप्तमेश) शुक्र द्वादश (भोग, वैभव) में उच्चस्थ तथा सप्तम भाव का नैसर्गिक कारक होने से इस दशा, भुक्ति में सुख, वैभव व भोग की वृद्धि होगी।
शनि/सूर्य- शत्रु या मृत्यु का भय हो। उदर विकार या नेत्र रोग हो। धन धान्य की हानि व गुरुजन को कष्ट होता है। (सूर्य, शनि का पिता है किन्तु शनि इस सूर्य से शत्रुवत् व्यवहार, अवज्ञा-अवमानना करता है। अतः शत्रु/मृत्यु का भय, रोग व हानि होना सहज संभव है। पिता पुत्र में सामंजस्य की कमी व कटुता की भी संभावना।
शनि/चन्द्रम -रोग व मृत्यु भय, स्त्री सुख की हानि, मित्रों पर विपत्ति व पीड़ा तथा जल व वायु के प्रकोप से हानि। दूषित जल द्वारा फैलने वाले अथवा वायु प्रदूषण से उत्पन्न रोग कष्ट दे सकते हैं। कभी बाढ़ या तूफान से भी तबाही हो जाती है। (चंद्रमा मन है तो शनि पीड़ा, अतः मन में अशान्ति, दुःख, अवसाद होना सहज संभव है। यों भी चंद्रमा द्वितीय व शनि सप्तमस्थ होने से मारक प्रभाव भी देगा। चंद्रमा स्वास्थ्य भी है, अतः शनि बीमार करके रोग की पीड़ा भी देगा।
शनि/मंगल- पदच्युति, नौकरी छूटे या पद से हटाया जाए। अपने लोगों से झगड़ा हो। ज्वर, ताप, शस्त्र, विष, रोग व शत्रु से भय व पीड़ा हो। हर्नियां से कष्ट या नेत्र रोग हो। शत्रुओं की वृद्धि हो। काल पुरुष के जन्मांग में मंगल लग्नेश अष्टमेश होकर दशमस्थ है, अतः शनि का बुरा प्रभाव जातक की देह, आयु व कार्य क्षेत्र पर निश्चय ही पड़ेगा। मंगल व शनि शत्रु हैं, अतः शत्रुओं की वृद्धि व उनसे कष्ट मिलने की संभावना भी बढे़गी।
शनि/राहु- जातक खराब रास्ते पर जाए (कुमार्गगामी हो), प्राणों का संकट हो। प्रमेह, गुल्म, चोट व ज्वर से कष्ट हो। शनि व राहु दोनों ही क्रूर ग्रह हैं, अतः यह अन्तर्दशा पीड़ा कारक तो होगी ही (राहु छाया होने से प्रायः अवश्य व गुप्त रुप से जातक की बुद्धि को प्रभावित कर उसे संकट में डाल देता है शनि भी, सूर्य सरीखे पिता को त्यागकर, नीच संगति में प्रसन्न रहता है व दुःख देकर प्राणियों के पापकर्म का भोग करा कर उन्हें शुद्ध करना मानो शनि का सहज कर्म है। अतः दुःख से बचने के लिये धर्म का आश्रय लें।
शनि/गुरु- यह अन्तर्दशा बहुत शुभ व कल्याणकारी है। जातक की धर्म व भगवान में श्रद्धा होती है। वह देवता व ब्राह्मण के पूजन में रुचि लेता है। स्त्री, पुत्र के साथ धन-धान्य का सुख भोगते हुए अपने ही घर में सुख पूर्वक रहता है (शनि व गुरु परस्पर सम होने से मित्रवत् व्यवहार करते हैं)। गुरु, काल पुरुष का भाग्येश होकर सुख भाव में है, तो शनि दशमेश होकर सप्तमस्थ है। यहाँ गुरु अधिक बली है वह शनि की अशुभता पूरी तरह नष्ट कर देता है। यों भी कहावत है कि जाता हुआ शनि बहुत कुछ देकर जाता है, निश्चय ही देवोपासना, सत्कर्म व दान पुण्य से जातक के पाप नष्ट होते हैं व गुरु की कृपा से धन, वैभव, सुख शान्ति तथा समृद्धि की वृद्धि होती है।

बृहस्पति ग्रह का नैसर्गिक फल'

यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो जातक को राज, मन्त्रित्व एवं मनोवांछित फल प्राप्त होता है। देवार्चन, धार्मिक कर्म करता है। वाहन, भूमि एवं वस्त्र का लाभ होता है। उत्तम मनुष्यों की संगति प्राप्त होती है। कुटुम्ब व अन्यों का भरण-पोषण करता है।मेष, मिथुन, सिंह, धनु व मीन राशि में बृहस्पति उत्तम फल देता है। तुला, वृश्चिक, मकर तथा कुम्भ राशियों में मध्यम फल तथा वृष, कन्या एवं कर्क राशि में अशुभ फल प्राप्त होते है। आयु के अन्तिम भाग में यशस्वी होते हंै। यदि बृहस्पति स्त्री राशि में या पीडि़त हो तो जातक आयु के आरम्भ में नौकरी करते है, बाद में स्वतन्त्र व्यवसाय होता है। किन्तु दशम स्थान में बृहस्पति हो तो जीवन भर नौकरी करनी पड़ती है। ये लोग स्कूल, काॅलेज, आश्रम आदि संस्थाएं स्थापित करते हैं। नगर पालिका, जिला बोर्ड, विधान सभा आदि में चुनाव लड़ते हैं। यदि बृहस्पति पीडि़त हो तो मिथ्या अभिमानी, बार-बार व्यवसाय बदलना, दूसरों को तुच्छ समझते हैं। दूसरों की बुराइयां निकालते रहते है। पत्नी के साथ पांच मिनट तक स्थिरता से बात नहीं कर पाते, परन्तु अन्य स्त्रियों से घुलमिल कर घण्टों बिता देते हैं। अपने को बहुत सुशिक्षित समझते हैं। अन्य लोगों पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं।
विभिन्न भावगत बृहस्पति की दशा का फल
त्रिकोण व् केंद्र में स्थित- जातक धन, राजा, पुत्र व स्त्री से सुख पाता है। उच्च पद प्राप्त करता है।
लग्न भाव - जातक धन, समाज व् वस्त्र आभूषण एवं वहां प्राप्त करता है |
द्वितीय भाव- राज-सम्मान व धन की प्राप्ति होती है। जातक बुद्धिमान, परोपकारी, सुखी, विजयी, वस्त्र आभूषण प्राप्त करता है।
तीसरा भाव- भाई से धन व राजा के द्वारा सम्मान प्राप्त करता है।
चतुर्थ भाव- वाहन सुख, राज्य-अधिकार, माता का सुख, स्त्री, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त करता है।
पंचम भाव- मंत्र-तंत्र विद्याओं में रुचि, बच्चे उत्पन्न होते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाला होता है।
छटवा भाव- स्वास्थ्य व स्त्री प्राप्त होती है। अन्त में चोर, रोग व स्त्री से भय होता है।
सप्तम भाव- स्त्री, पुत्र का सुख, विदेश भ्रमण एवं विजयी होता है। धार्मिक कार्य करता है।
अष्टम भाव- आरम्भ में दुःख होता है, स्थानच्युत, विदेश यात्रा, बन्धुजनों से वियोग होता है। परन्तु अन्त में स्त्री, पुत्र तथा राजा से सम्मान प्राप्त होता है।
नवम भाव -त्रिकोण भाव का फल प्राप्त होता है।
दशम भाव- राज-अधिकार, धन, स्त्री, पुत्र तथा शुभ की प्राप्ति होती है।
एकादश भाव- पुत्र प्राप्ति, धन, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- नाना प्रकार के क्लेश और विदेश यात्रा होती है। वाहन सुख प्राप्त होता है। यदि बृहस्पति शुभ हो तो शुभ कार्यों में व्यय होता है।
गुरु गुरु- सुख सौभाग्य में वृद्धि हो। समाज में मान, प्रतिष्ठा व यश मिले। मुख व देह की कान्ति बढ़े। गुणों का विकास व प्रकाश हो। गुरु-संत जन से मिलन, मनोकामना सिद्धि, सरकार द्वारा गुणों का मूल्यांकन हो, प्रशंसा तथा पुरस्कार मिले। सर्वत्र सराहना हो।
गुरु/शनि- मद्यपान व वेश्याओं की संगति तथा सांसारिक सुख वैभव की प्राप्ति हो। सुरा-सुन्दरी पर धन का अपव्यय हो। कुटुम्बी व पशुओं को पीड़ा हो। नेत्र रोग, पुत्र पीड़ा, तथा मन में भय बना रहे। भय व पीड़ा तो शनि का स्वभाव ही है। गुरु काल पुरुष का भोगेश है तो शनि लाभेश है। अतः भोग में वृद्धि होगी। शनि सप्तमस्थ होने से सुंदर वेश्याओं की संगति भी देगा।
गुरु/बुध- सुरा-सुन्दरी, द्यूत क्रीड़ा तथा वात पित्त कफ जनित रोग हों। बुध राजकुमार है, सुन्दर युवक व मधुर भाषी है, व्यवहार कुशल व चतुर है, स्वार्थ सिद्धि हेतु छल कपट भी कर बैठता है, अतः भोग प्राप्ति के लिये जुआ व शराब का सहारा ले सकता है। अन्य मनीषियों का विचार है कि गुरु सात्विक व वेदनिष्ठ ब्राह्मण है। यह ज्ञान, विवेक एवं प्रज्ञा का प्रतीक है तो बुध बुद्धि व व्यवहार कुशलता है। अतः इस अन्तर्दशा में देवता एवं ब्राह्मण की पूजा, उपासना से ही सभी सुख, वैभव, पुत्र, धन व परिवार की सुख समृद्धि प्राप्त होगी।
गुरु/केतु- देह पर चोट/घाव, नौकरों से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को कष्ट तथा चित्त में व्यथा होती है। गुरुजन अथवा प्रियजन से वियोग, बिछोह तथा कभी जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट या प्राण हानि हो। इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि काल पुरुष के जन्मांग में केतु त्रिकोण (नवम भाव) में गुरु की राशि में बैठा है, किंतु गुरु से षष्ठम है। दशानाथ-अन्तर्दशानाथ का परस्पर षष्ठम, अष्टम होना अशुभ व अनिष्टकर माना गया है तथा रोग, शत्रु व घाव पीड़ा देने वाला है।
गुरु/शुक्र- अनेक प्रकार के धन-धान्य, वस्त्राभूषण, सुख सामग्री की प्राप्ति व वृद्धि हो। स्त्री-पुत्र का सुख मिले। स्वादिष्ट भोजन, उत्तम पेय का सुख मिले। देवता व ब्राह्मण की अर्चना, उपासना में जातक तत्पर रहे। (कालपुरुष के जन्मांग में शुक्र, भोगस्थान में उच्च का होकर गुरु की राशि में है तो गुरु भाग्येश भी है, अतः भाग्य से विविध प्रकार भोग-वैभव की प्राप्ति होना स्वाभाविक है।
गुरु/सूर्य- शत्रु पर विजय, राजसम्मान, यशवृद्धि, धन लाभ व वाहन सुख मिले। प्रभाव व पुरुषार्थ में वृद्धि हो। महानगर में रहकर जातक उच्च कोटि के वैभव व सुख संपदा भोगें। कालपुरुष के जन्मांग में गुरु सुख भाव में है तो सूर्य लग्न में उच्चस्थ है। लग्न सुख भाव के लिये दशम भाव है अतः कार्य क्षेत्र में उन्नति, सफलता, मान-सम्मान की वृद्धि व मानसिक सुख मिलना सहज है।
गुरु/चन्द्रमा -स्त्री व धन की प्राप्ति हो। यश वृद्धि व कृषि से लाभ मिले। व्यापार (क्रय-विक्रय) द्वारा लाभ मिले। देवता व ब्राह्मण की पूजा हो। गुरु, चंद्रमा की राशि में उच्चस्थ होता है। लाभ का नैसर्गिक कारक होने से यह निश्चय ही लाभ देगा, किन्तु धर्म विमुखता साधु-संत का अनादर करने से कभी अपयश व मानसिक क्लेश भी दिया करता है। ऐसी परिस्थिति में पत्नी से अनबन, स्त्री सुख की हानि, धन नाश भी हुआ करता है। अतः विज्ञ जन गजकेसरी योग की सार्थकता हेतु धार्मिक अनुष्ठान व देवोपासना का सुझाव दें।
गुरु/मंगल- जातक के कार्यों से बन्धुओं को सुख संतोष प्राप्त हो, शत्रुओं से भी जातक लाभ पायें। भूमि भवन की प्राप्ति हो। प्रभाव व प्रताप में वृद्धि हो। किसी गुरुजन को चोट लगे। जातक को नेत्र पीड़ा हो तथा सत्कर्म के प्रभाव से जातक सुख पाये। मंगल, बंधु, स्नेह व शत्रु से संघर्ष का प्रतीक है तो गुरु लाभ का। काल पुरुष के जन्मांग में गुरु चतुर्थ (सुख भाव) में है तो मंगल कर्म भाव में। अतः कर्म के प्रभाव से तथा कर्म के द्वारा जातक को सुख व सभी प्रकार के लाभ मिलेंगे।
गुरु/राहु- बंधुओं को/से कष्ट व संताप हो। मन में दुःख, चिन्ता व उद्विग्नता हो। रोग व चोर से भय। गुरुजन को कष्ट/जातक को उदर विकार हो। राजा से कष्ट पीड़ा या दंड मिले। शत्रु जनित कष्ट बढ़े। धन का नाश हो। गुरु, देवताओं का रक्षक व मंत्रदाता गुरु है; तो राहु देवताओं का प्रबल शत्रु है। अतः अशुभ फल होना स्वाभाविक है। काल पुरुष की कुंडली में राहु, गुरु से द्वादश होकर बंधु स्थान में है, अतः भाई बंधुओं के कारण सुख की हानि, घर परिवार में अशान्ति, मन में दुःख क्लेश भी होगा ही।

राहु ग्रह का नैसर्गिक फल

राहु एक छाया ग्रह है। इसका प्रभाव मानव जगत पर होने के कारण हमारे मनीषियों ने इसे भी ग्रहों में स्थान दिया है। कुछ आचार्यों के मत से राहु का स्वगृह कन्या एवं उच्च राशि मिथुन है- नीच राशि धनु है। अन्य आचार्यों के मत से राहु की उच्च राशि वृष, मूल त्रिकोण राशि कुम्भ तथा प्रिय राशि कर्क है तथा अन्य गुण शनिवत है। राहु का शत्रु मंगल , शनि सम तथा शेष ग्रह मित्र है। अन्य मत से मंगल, सूर्य व चंद्रमा शत्रु ग्रह है। राहु प्रधान व्यक्ति स्नेहशील, प्रपंच में आसक्त होता है, स्वार्थ पूरा कर परोपकार करता है। मीन का इच्छुक, अभिमानी महत्वाकांक्षी होता है। बहुत बोलना नहीं चाहता, लेखन में सरस, तेजस्वी तथा काव्य पूर्ण होता है। वह दूसरों के काम में दखल नहीं देता एवं दूसरों के ,द्वारा अपने काम में दखल देना पसंद नहीं करता है।
कुण्डली में राहु अशुभ योग में हो (विषम भाव में, विषम राशि में हो) तो जातक बुद्धिहीन, दुष्ट, स्वार्थी, अविश्वनीय, दुरभिमानी, झूठे आचरण से पूर्ण, निर्लज्ज, उद्दण्ड, अपने मत को ही श्रेष्ठ मानने वाला, दूसरों को ताने देने वाला, दूसरों का अहित करने वाला होता है। राहु की दृष्टि के बारे में भी मतभेद है। राहु की दृष्टि 5, 7, 9, 12 मानी गई है। परन्तु सप्तम व द्वादश दृष्टि ही अनुभव में आती है। सदा वक्री रहता है।
विभिन्न भावगत राहु की दशा का फल
लगन भाव- जातक बुद्धिहीन, विष, अग्नि तथा शस्त्र से भय, बन्धु वर्ग से विरोध, पराजय व कष्ट पाता है।
द्वितीय भाव- राज्य व धन की हानि, राजा से भय, निम्न व्यक्तियों की सेवा करनी पड़ती है। अच्छे भोजन का अभाव, मन में चिन्ता व क्रोध रहता है। कुटुम्ब में कलह रहता है।
तीसरा भाव- सन्तान, स्त्री, धन व भाइयों से सुख प्राप्त होता है। विदेश में आना जाना रहता है।
चतुर्थ भाव- माता को कष्ट या मृत्यु होती है। भूमि, कृषि, धन की हानि, राजा से भय, बधुओं से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को रोग तथा मानसिक कष्ट रहता है।
पंचम भाव- उन्माद, बुद्धिहीन, झगड़ा, राजा से भय, सन्तान से कष्ट या नाश होता है।
छटवा भाव- राजा, अग्नि, चोर व शत्रुओं से भय, नाना प्रकार के रोग तथा मृत्यु भय रहता है।
सप्तम भाव- विदेश यात्रा, भूमि, धन की हानि, नौकरी की कमी, सन्तान की चिन्ता तथा सर्प से भय
अष्टम भाव- मृत्यु का भय, सन्तान का नाश, चोर, अग्नि एवं राजा से भय रहता है।
नवम भाव- पिता की मृत्यु, विदेश यात्रा, बन्धु वर्ग, गुरुजनों को कष्ट, धन सन्तान की हानि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कार्य एवं गंगा स्नान आदि होता है। यदि राहु अशुभ हो तो विदेश वास व कलंकित होता है।
एकादश भाव- सम्मान, धन, गृह, भूमि, तथा नाना प्रकार के सुख प्राप्त होते हंै।
द्वादश भाव- विदेश यात्रा, स्त्री-पुत्र से वियोग, धन, भूमि आदि की हानि होती है।
यदि किसी जन्मांग में राहु कन्या (6) वृश्चिक (8) अथवा मीन (12) राशि में स्थित हो तो वह अपनी महादशा में उच्च अधिकार (हकूमत, बादशाहत) तथा वाहन वैभव जन्य सुख समृद्धि देकर दशा की समाप्ति तक सभी कुछ वापिस भी ले लेता है।
राहु/राहु -विष व जल से भय (दूषित जल के कारण रोग हो) हो, परस्त्री संग से अपयश, इष्टजन का वियोग व दुष्टजन से कष्ट, मन, वाणी में कटुता, क्रोध एवं क्रूरता बढ़े।
राहु/गुरु- जातक देवता व ब्राह्मण का पूजन करे। शरीर निरोग व स्वस्थ हो। सुन्दर स्त्रियों से समागम, विद्वत्ता पूर्ण विचार विनिमय व शास्त्र चिंतन में समय सुख पूर्वक बीते।
राहु/शनि स्त्री-पुत्र-भाइयों से मतभेद एवं झगड़ा होता है। जातक की पदच्युति, नौकर से या नौकरी में बाधा/ हानि हो। शरीर में चोट लगे, वात, पित्त जन्य रोग से पीड़ा होती है। शनि काल पुरुष के लग्न में 44
नीचस्थ होता है। अतः इसका दोषी होना सहज है। यदि राहु को तृतीयस्थ मानें तो भाइयों से, पुत्र-स्त्री से झगड़ा, दुःख, क्लेश व देह पीड़ा होना भी स्वाभाविक है।
राहु/बुध- धन और पुत्र की प्राप्ति, मित्रों से समागम तथा चित्त में प्रसन्नता हो। बुद्धि में चतुराई व कुशलता की वृद्धि से कार्य सिद्धि व लाभ मिले। राहु व बुध परस्पर मित्र हैं। बुध व्यवहार कुशलता, वणिक, बुद्धि, व्यापार चातुर्य देकर मधुर वाणी से भी अपनी ओर आकर्षित करता है। कालपुरुष के जन्मांग में राहु बुध की राशि में स्थित है तथा कन्या राशि के बुध से (दशमस्थ) केन्द्र में है, अतः निश्चय ही कार्य में कुशलता-प्रवीणता से सुख बढ़ेगा |
राहु/केतु- राहु केतु परस्पर शत्रु माने गये हैं। अतः ये दशा ज्वर, अग्नि, शस्त्र व शत्रु जन्य भय दिया करती है। कभी सिर में रोग, शरीर में कंपन, विषया व्रण(घाव) से कष्ट होता है। मित्रों से कलह, गुरुजन की उदासीनता भी मनोवेदना व व्यथा बढ़ाती है।
राहु/शुक्र- स्त्री की अनुकूलता व सहवास सुख मिले। भूमि, भवन, वाहन व वैभव की प्राप्ति हो। अपने ही लोगों से वैर विरोध हो तथा जातक वात, कफ जन्य रोगों से कष्ट पाये। काल पुरुष के जन्मांग में उच्चराशि का शुक्र द्वादश भाव (भोग भवन) में राहु से दशमस्थ (विपरीत गणना से चतुर्थस्थ) है। अतः सभी प्रकार के भोग मिलना स्वाभाविक है।
राहु/सूर्य -आपत्ति, विपत्ति शत्रुजन्य बाधा व कष्ट, विष/अग्नि पीड़ा, शस्त्राघात, नेत्र पीड़ा की संभावना बढ़े। राजा/सरकार से भय हो तथा स्त्री पुत्र को भी कष्ट मिले। राहु व सूर्य परस्पर शत्रु हैं। सूर्य आत्मा, राजा व सरकार का प्रतीक है। यदि कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य लग्न में है तो राहु तृतीय भाव में होने से परस्पर 3-11 की स्थिति बनती है जो अशुभ मानी गयी है। अतः अशुभ फल होना सहज एवं स्वाभाविक है।
राहु/चन्द्रमा- स्त्री सुख की हानि/नाश, स्वजन/परिजन से कलह व क्लेश हो। मन में चिंता संताप, मित्रों पर विपत्ति तथा जल से भय हो। कृषि, धन, पशु व संतान को क्षति पहुँचे। चंद्रमा मन, मित्र, जल व मानसिक सुख शांति का प्रतीक है; तथा राहु प्रबल क्रूर शत्रु होकर कालपुरुष के जन्मांग में चंद्रमा से द्वितीय स्थान (मारक भाव) में स्थित है। यहाँ राहु मन की सुख शांति तथा मित्रादि के लिए मारक सरीखा कार्य करेगा।
राहु/मंगल- राजा (सरकार), अग्नि, चोर एवं अस्त्र से भय हो। देह या मन में रोग जनित पीड़ा हो। हृदय रोग, नेत्र पीड़ा व पदच्युति (स्थानहानि) की संभावना बढ़े। मंगल कालपुरुष के जन्मांग में दशमस्थ है। अतः कार्य क्षेत्र, कार्यस्थल, राजा (सरकार) से परेशानी होना सहज ही है। काल पुरुष के जन्मांग में राहु एक छाया ग्रह होकर (दशमस्थ) मंगल से षष्ठमस्थ होने से गुप्त रोग/पीड़ा दे सकता है। अतः अतिरिक्त सावधानी तथा जातक को स्नेहपूर्ण सेवा व सहयोग की आवश्यकता होगी।

Sunday, 1 May 2016

मंगल दशा का नैसर्गिक फल

साधारणतया मंगल की महादशा में निम्न नैसर्गिक फल प्राप्त होते हैं। राजकीय क्षेत्र से, शत्रु से, शस्त्र बनाने से, झगड़ों से, औषधियों से, धूर्तता से, भूमि से, क्रूरता से, पशुओं से आदि अनेक प्रकार से धन प्राप्त होता है। (यह तब होगा जब मंगल शुभ भाव में, शुभ भाव का स्वामी होकर, शुभ युक्त या दृष्ट होकर बलवान हो। यदि मंगल अशुभ हो तो पित्त जनित रक्त-विकार, ज्वर, दुर्घटनाएं होती हैं। चोर, राजा, अग्नि, दुर्घटनाओं से भय रहता है। घर में कलह, पुत्रों और सम्बन्धियों से विरोध रहता है। बंधन व व्रण रोग से कष्ट होता है।
पराशर मतानुसार मंगल केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी हो तो शुभ तथा 3, 6, 8, 11, एवं 12 भाव का स्वामी हो तो अशुभ फल मिलता है। चंद्र या शुक्र के सम्बन्ध से मंगल दूषित हो जाता है।
अग्नि तत्व राशियों (मेष, सिंह एवं धनु) में क्रूर व साहसी मिथुन, तुला एवं कुम्भ (वायुतत्व) राशियों में प्रवासी एवं भाग्यहीन, वृष, कन्या एवं मकर (पृथ्वी तत्व) राशियों में लोभी, स्वार्थी, दीर्घ द्वेषी, स्त्री प्रिय, झगड़ालू एवं शराबी या कुछ अन्य पदार्थ का सेवक। कर्क, वृश्चिक एवं मीन (जल तत्व) राशियों में नाविक, पियक्कड़, व्यभिचारी होता है। भोगी, प्रवासी एवं धनवान फल स्त्री राशियों का है।
विभिन्न भावगत मंगल की दशा का फल
लग्न भाव - चोर, विष, कलह, शत्रुता एवं विदेश यात्रा की सम्भावना होती है।
द्वितीय भाव- वाणी में तीव्रता, धन एवं कृषि लाभ, किन्तु राज पक्ष से दंडित होता है। मुख व नेत्र में रोग की सम्भावना रहती है।
तीसरा भाव- उत्साह, आनन्द, राज पक्ष से लाभ, धन, सन्तान, स्त्री, भाई-बहिनों से सुख मिलता है।
चौथा भाव- स्थानच्युत, बन्धुओं से विरोध, चोर व अग्नि से भय एवं राज पक्ष से पीडि़त होता है।
पंचम भाव- स्त्रियों से विरोध, जातक को नेत्र रोग या दुःसाध्य रोग होता है। भाई दुखी रहता है।
षष्ठ भाव- स्त्रियों से विरोध, पदच्युति, शोक, विदेश भ्रमण, विपक्ष से वाद-विवाद होता है।
सप्तम भाव- स्त्री की मृत्यु, गुदा रोग, मूत्रकृच्छ गुप्त रोग आदि रोगों की सम्भावना रहती है।
अष्टम भाव- दुःख व स्त्री मृत्यु की सम्भावना रहती है। पदच्युति होती है। विदेश यात्रा करनी पड़ती है। गुदा रोग, गुप्त रोगों का भय रहता है।
नवम भाव- पद की समाप्ति या परिवर्तन होता है। गुरुजनों को कष्ट तथा धार्मिक कार्यों में अरुचि या विघ्न होता है।
दशम भाव- उद्योग भंग, अपकीर्ति, स्त्री, पुत्र धन एवं विद्या का नाश होता है (अशुभ मंगल)।
एकादश भाव- राजकीय सम्मान, धन व सुख का लाभ होता है। लड़ाई में विजय, परोपकारी, सम्मान प्राप्त करता है।
द्वादश भाव- धन हानि, राज भय, भूमि, पुत्र एवं स्त्री नाश एवं भाइयों की विदेश यात्रा होती है।
मंगल/मंगल
शरीर में गर्मी बढ़ने (पित्त प्रकोप) से कष्ट हो, शरीर को चोट लगे/घाव हो तथा छोटे भाइयों से वियोग/विग्रह (मतभेद) हो। जाति, बंधु से शत्रुता व राजा से विरोध हो। अग्नि या चोर का भय हो। मंगल सबल होने पर सफलता व संतोष देता है किन्तु पापी होने पर प्रायः शत्रु व भाइयों से कष्ट दिलाता है। (ध्यान रहे मंगल षष्ट भाव व तृतीय भाव का कारक है।
मंगल/राहु
शत्रु, शस्त्र, चोर व राजा से कष्ट मिले। गुरु जन या बन्धु की हानि/वियोग हो। जातक के सिर, नेत्र व बगल में रोग हो/मारक होने पर महान आपत्ति व मृत्यु भय भी देता है।
मंगल/गुरु
गुरु एक शुभ ग्रह है व काल पुरुष का भाग्येश भोगेश होकर सुख स्थान में होने पर अत्यधिक शुभ प्रद माना गया है। जातक के पुत्र व मित्रों की वृद्धि हो। देवता व ब्राह्मण की उपासना से इष्टकार्य सिद्धि हो। अतिथि पूजा का सुअवसर मिले। तीर्थ यात्रा व पुण्य कर्मों के अवसर मिले। पापी गुरु होने से कान में रोग, पीड़ा व कफ जनित कष्ट होता है।
मंगल/शनि
शनि काल पुरुष का दुख है- अतः दुख तो होगा पर धीरज से काम लें। पुत्र, गुरुजन, पितर गणों पर विपत्ति आती है। जातक स्वयं भी मुसीबतों व परेशानियों से घिरा रहता है। शत्रु धन हरण करते हैं। मन में गुप्त अनजानी पीड़ा रहती है। अग्निकांड या तूफान से क्षति होती है। वात पित्त जन्य रोग व कष्ट हो।
मंगल /बुध
काल पुरुष के जन्मांग में बुध, पराक्रमेश व षष्ठेश होकर छठे भाव में उच्चस्थ है अतः राजा या सरकार से कष्ट हो। शत्रु से भय, चोरी द्वारा धन हानि हो। पशु (वाहन) व सम्पत्ति की क्षति भी शत्रु के कारण होनी संभव है।
मंगल/केतु
कुछ मनीषियों ने केतु को शुभ माना है, किन्तु ये दशा प्रायः अप्रिय घटनाएं ही अधिक देती है। वज्राघात, अग्नि व शस्त्र से पीड़ा, धननाश, विदेश (परदेश) गमन या अपना देश छोड़ना पड़े, कभी तो स्वयं अपने या पत्नी के प्राणों को भी संकट होता है।
मंगल/शुक्र
काल पुरुष के जन्मांग में मंगल, लग्नेश अष्टमेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश-सप्तमेश होकर द्वादश भाव में स्थित है। अतः इस दशा भुक्ति में स्वदेश छोड़कर विदेश में जाकर बसने की संभावना बढ़ जाती है। कभी बाएं नेत्र में कष्ट होता है। चोरी होने से धन हानि व नौकरों को कष्ट व कमी भी होती है। यदि द्वादश भाव विदेश व बाएं नेत्र का प्रतीक है तो सप्तम भाव से दास-दासी व चोरी का विचार किया जाता है।
मंगल/सूर्य
संघर्ष/स्पर्धा में विजय मिले, समाज में मान प्रतिष्ठा व प्रभाव (दबदबा) बढ़े, राज सम्मान प्राप्त हो। लक्ष्मी की कृपा से धन, धान्य, वैभव विलास जनित सुख बढ़े। साहस व श्रम द्वारा धन की वृद्धि हो। कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य उच्चस्थ होकर लग्न में है तो लग्नेश मंगल दशम भाव में उच्चस्थ है। अतः आत्मबल व सत्कर्म से सुख-वैभव की वृद्धि होना सहज संभव है।
मंगल/चन्द्रमा
विविध प्रकार के धन व संपदाएं प्राप्त हों- रत्न-वस्त्र-आभूषण, पुत्र-पत्नी,भूमि भवन व वाहन का सुख मिले। शत्रु से मुक्ति मिले। शत्रु जनित भय व पीड़ा नष्ट हो जाए। कभी गुरु जन को पीड़ा तो कभी स्वयं को भी गुल्म व पित्त जन्य कष्ट हो सकता है। चंद्रमा को कालपुरुष के धन स्थान में उच्चस्थ होने से, धन प्रदाता माना जाता है। चंद्रमा काल पुरुष का मन है अतः सुख, शान्ति व धन वैभव मिलना स्वाभाविक है |

चन्द्रमा का नैसर्गिक फल

चंद्र की महादशा में जातक को युवती, स्त्रियां, धन, भूमि, पुष्प, गन्ध, वस्त्र एवं आभूषणों की प्राप्ति होती है। जातक को मंत्र, वेद तथा ब्राह्मणों में रुचि होती है। राजपक्ष से लाभ, सम्मान व पद प्राप्त होता है। जातक इधर-उधर भ्रमण में प्रेम करता है। विद्युत व चुम्बकीय प्रवाह, माता का दूध, रेलवे अधिकारी, जहाजों के कारखाने, दवाई की दुकान, पेटेंट दवाइयां, किराना की दुकानें, दूध की डेयरी, विमान, चावल, कपास, सफेद वस्त्र आदि में जातक रुचि लेता है। स्व. काटवे के अनुसार मेष, तुला, वृश्चिक और मीन राशियों में चंद्रमा के फल उत्तम होते हैं। मिथुन, सिंह एवं धनु-राशियों में साधारण फल होते हैं। वृष, कर्क, कन्या एवं मकर राशि में अशुभ फल प्राप्त होते है। वृष में अत्यन्त अशुभ फल और वृश्चिक में अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होते है। पुरुष राशियों में चंद्रमा कुम्भ राशि में अच्छा नहीं है। स्त्री राशियों में मीन राशि में चंद्रमा अच्छा है।
यह श्री काटवे का अपना अनुभव है जो हमें ध्यान में रखना चाहिये। परन्तु महर्षि पाराशर, मन्त्रेश्वर आदि ने अवस्था के अनुसार फल कहा है। इसलिये चंद्रमा का पक्ष बल, भाव ग्रह बल, वर्गीय बल तथा अवस्था का ध्यान रखना चाहिये।
विभिन्न भावगत चन्द्रमा की दशा का फल
लग्न भाव- अग्नि तत्व राशियों में (मेष, सिंह, धनु) जातक कम बोलने वाला, कार्यकत्र्ता, कामेच्छा तीव्र, स्थिर, क्रोधी, पैसे के विषय में बेेफिक्र होता है। धनुराशि में संसार सुख कम। पृथ्वी तत्व राशियां (वृष, कन्या एवं मकर) में जातक स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान समझता है। किन्तु सभा में जाने से डरता है। वृष राशि में संसार सुख कम मिलता है। विवाह नहीं होता, यदि हुआ तो मध्यम आयु में पत्नी की मृत्यु, स्वभाव से दुष्ट व पर स्त्रियों में आसक्त होते हैं। वायुतत्व राशियों में जातक नेता होने की इच्छा रखता है। अपना लाभ न होते हुए भी दूसरों का नुकसान करता है। स्वार्थी होते हैं। जलतत्व राशियों (कर्क, वृश्चिक व मीन) का जातक असंतुष्ट रहता है।
द्वितीय भाव- जातक को स्त्री-पुत्र और धन से सुख तथा धन का लाभ होता है। उत्तम भोजन प्राप्त होता है। रति-सुख की प्राप्ति होती है। तीर्थ यात्रा होती है।
तीसरा भाव- भाइयों का सुख, वित्त लाभ, वस्त्र-आभूषणों का लाभ, कृषि में उन्नति होती है। अच्छा भोजन प्राप्त होता है।
चतुर्थ भाव- माता की मृत्यु, भूमि, वाहन से सुख, कृषि तथा नवीन गृह का लाभ एवं प्रकाशन का कार्य होता है।
पंचम भाव- पुत्र लाभ, धन युक्त, विनीत होता है। लोगों से सम्मान प्राप्त होता है। बन्धुओं से विरोध उत्पन्न होता है।
षष्ठ भाव- जातक को दुःख, कलह, अपमान, वियोग मिलता है। अग्नि, जल, राजा से भय मूत्रकृच्छता रोग, शत्रु भय व धन नाश होता है।
सप्तम भाव- चंद्रमा की महादशा में स्त्री तथा पुत्रों से सुख तथा शैय्या सुख प्राप्त होता है।
अष्टम भाव- जातक कमजोर व रोगी होता है। जल से भय व बन्धुओं व मित्रों से विरोध होता है। विदेश यात्रा की सम्भावना होती है। माता तथा मातृपक्ष को कष्ट एवम् मृत्यु की सम्भावना भी रहती है।
नवम भाव -लोगों से सम्मान प्राप्त होते हैं। किन्तु स्वजनों से विरोध होता है। पुत्र लाभ, धन लाभ तथा धार्मिक कार्य करता है।
दशम भाव - कीर्ति, सम्मान तथा पदोन्नति होती है। धार्मिक कार्य करता है। भूमि, वस्त्र एवं वाहन सुख प्राप्त होता है।
एकादश भाव- अनेक प्रकार से वित्त लाभ, उत्तम भोजन, आभूषण, वस्त्र, वाहन सुख, कन्या लाभ एवं मन प्रसन्न रहता है।
द्वादश भाव- धन नाश तथा स्थान परिवर्तन होता है। जातक का मन दुःखी होता है।
चन्द्रमा/चन्द्रमा
पुत्री का जन्म, बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण की प्राप्ति, ब्राह्मणों से समागम तथा माता की प्रसन्नता मिले। पत्नी का पूर्ण सुख मिले।
चन्द्रमा/मंगल
देह में पित्त कुपित हो, रक्त दोष हो। शत्रु, चोर अथवा अग्नि से भय, मन में क्लेश व दुःख। धन व मान-सम्मान की हानि हुआ करती है। यों तो मंगल, चंद्र परस्पर मित्र हैं किन्तु चंद्रमा जल तत्व व कोमल भावनाओं का प्रतिनिधि है तो मंगल उग्रस्वभाव, अग्नि तत्व व संघर्ष/स्पर्धा का प्रतीक है। अतः मंगल अपनी अन्तर्दशा में अशुभ फल ही अधिक दिया करता है। सुख पाने के लिए झगड़ना पड़ता है या सुख में व्यवधान हुआ करता है।
चन्द्रमा/राहु
मन को भयानक कष्ट व रोग हो। शत्रु वृद्धि व शत्रु जन्य पीड़ा हो। मित्र व बान्धव रोग ग्रस्त हों। प्राकृतिक (तूफान, बिजली, बाढ़) आपदाओं से क्लेश होता है, खान पान में गड़बड़ी से रोग व पीड़ा हो। चंद्रमा मन है, तो राहु प्रबल शत्रु है। अतः मन की सुख-शांति नष्ट होगी व क्लेश बढ़ेगा।
चन्द्रमा/गुरु
दया, दान तथा धर्म में प्रवृत्ति हो। राज सम्मान, मित्र समागम व वस्त्राभूषण की प्राप्ति से मन में प्रसन्नता बढ़े। चंद्रमा व गुरु के परस्पर संबंध से गज केसरी योग बनता है जो मान, प्रतिष्ठा, सुख समृद्धि, प्रसन्नता व सफलता का प्रतीक है।
चन्द्रमा/शनि
रोग जनित कष्ट व पीड़ा हो। पुत्र, मित्र व स्त्री भी रोग पीड़ा भोगें। महान विपत्ति या अनिष्ट की आशंका। चंद्रमा मन है तो शनि काल पुरुष का दुःख है। अतः मन का दुःखी, पीडि़त व अवसाद युक्त होना सहज है।
चन्द्रमा/बुध
विविध धन-संपदा (भूमि, भवन, वाहन, रत्नाभूषण) की प्राप्ति हो। मन में सुख संतोष बढ़े। सत्कार्य व ज्ञान वृद्धि में मन लगे। बुध, विद्या अध्ययन विवेक, वाणी का कारक है। अतः ज्ञान व विवेक का आश्रय लेने से सुख शांति मिलेगी। मामा के सहयोग, अनुग्रह से भी लाभ होगा।
चन्द्रमा/केतु
मन में क्षोभ व अशान्ति तथा जल से भय हो। बंधु वियोग/विरोध व धन हानि हो। दास व सेवक संबंधी कष्ट व क्लेश मिले। केतु पाप ग्रह होने से मानसिक क्लेश बढ़ाया करता है।
चन्द्रमा/शुक्र
वाहन का सुख मिले। स्त्री, धन, वस्त्राभूषण का सुख प्राप्त हो। क्रय-विक्रय (व्यापार), कृषि कर्म (उत्पादन उद्योग) से लाभ हो। पुत्र, मित्र, धन, धान्य से हर्ष हो। शुक्र कालपुरुष का धनेश व सप्तमेश है, तथा चंद्रमा मन है, चंद्रमा वृष में उच्चस्थ होता है, अतः धन प्राप्ति व स्त्री सुख होना सहज ही है।
चन्द्रमा/सूर्य
राज सम्मान मिले। पराक्रम व शौर्य का यश मिले। रोग मिटे, स्वास्थ्य लाभ हो। शत्रु पराजित हों। सुख, सौभाग्य व सफलता मिले। सूर्य पापी होने पर वात, पित्त से कष्ट तथा माता-पिता को रोग देता है। चंद्र मन व सूर्य आत्मा है तथा कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य पंचमेश (त्रिकोणेश) होकर लग्न में उच्चस्थ है तो चंद्रमा सुखेश होकर धन भाव में है। अतः सुख-सम्मान तो मिलेगा ही। यों भी ग्रह परिषद में सूर्य राजा व चंद्रमा रानी है।