साधारणतया मंगल की महादशा में निम्न नैसर्गिक फल प्राप्त होते हैं। राजकीय क्षेत्र से, शत्रु से, शस्त्र बनाने से, झगड़ों से, औषधियों से, धूर्तता से, भूमि से, क्रूरता से, पशुओं से आदि अनेक प्रकार से धन प्राप्त होता है। (यह तब होगा जब मंगल शुभ भाव में, शुभ भाव का स्वामी होकर, शुभ युक्त या दृष्ट होकर बलवान हो। यदि मंगल अशुभ हो तो पित्त जनित रक्त-विकार, ज्वर, दुर्घटनाएं होती हैं। चोर, राजा, अग्नि, दुर्घटनाओं से भय रहता है। घर में कलह, पुत्रों और सम्बन्धियों से विरोध रहता है। बंधन व व्रण रोग से कष्ट होता है।
पराशर मतानुसार मंगल केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी हो तो शुभ तथा 3, 6, 8, 11, एवं 12 भाव का स्वामी हो तो अशुभ फल मिलता है। चंद्र या शुक्र के सम्बन्ध से मंगल दूषित हो जाता है।
अग्नि तत्व राशियों (मेष, सिंह एवं धनु) में क्रूर व साहसी मिथुन, तुला एवं कुम्भ (वायुतत्व) राशियों में प्रवासी एवं भाग्यहीन, वृष, कन्या एवं मकर (पृथ्वी तत्व) राशियों में लोभी, स्वार्थी, दीर्घ द्वेषी, स्त्री प्रिय, झगड़ालू एवं शराबी या कुछ अन्य पदार्थ का सेवक। कर्क, वृश्चिक एवं मीन (जल तत्व) राशियों में नाविक, पियक्कड़, व्यभिचारी होता है। भोगी, प्रवासी एवं धनवान फल स्त्री राशियों का है।
विभिन्न भावगत मंगल की दशा का फल
लग्न भाव - चोर, विष, कलह, शत्रुता एवं विदेश यात्रा की सम्भावना होती है।
द्वितीय भाव- वाणी में तीव्रता, धन एवं कृषि लाभ, किन्तु राज पक्ष से दंडित होता है। मुख व नेत्र में रोग की सम्भावना रहती है।
तीसरा भाव- उत्साह, आनन्द, राज पक्ष से लाभ, धन, सन्तान, स्त्री, भाई-बहिनों से सुख मिलता है।
चौथा भाव- स्थानच्युत, बन्धुओं से विरोध, चोर व अग्नि से भय एवं राज पक्ष से पीडि़त होता है।
पंचम भाव- स्त्रियों से विरोध, जातक को नेत्र रोग या दुःसाध्य रोग होता है। भाई दुखी रहता है।
षष्ठ भाव- स्त्रियों से विरोध, पदच्युति, शोक, विदेश भ्रमण, विपक्ष से वाद-विवाद होता है।
सप्तम भाव- स्त्री की मृत्यु, गुदा रोग, मूत्रकृच्छ गुप्त रोग आदि रोगों की सम्भावना रहती है।
अष्टम भाव- दुःख व स्त्री मृत्यु की सम्भावना रहती है। पदच्युति होती है। विदेश यात्रा करनी पड़ती है। गुदा रोग, गुप्त रोगों का भय रहता है।
नवम भाव- पद की समाप्ति या परिवर्तन होता है। गुरुजनों को कष्ट तथा धार्मिक कार्यों में अरुचि या विघ्न होता है।
दशम भाव- उद्योग भंग, अपकीर्ति, स्त्री, पुत्र धन एवं विद्या का नाश होता है (अशुभ मंगल)।
एकादश भाव- राजकीय सम्मान, धन व सुख का लाभ होता है। लड़ाई में विजय, परोपकारी, सम्मान प्राप्त करता है।
द्वादश भाव- धन हानि, राज भय, भूमि, पुत्र एवं स्त्री नाश एवं भाइयों की विदेश यात्रा होती है।
मंगल/मंगल
शरीर में गर्मी बढ़ने (पित्त प्रकोप) से कष्ट हो, शरीर को चोट लगे/घाव हो तथा छोटे भाइयों से वियोग/विग्रह (मतभेद) हो। जाति, बंधु से शत्रुता व राजा से विरोध हो। अग्नि या चोर का भय हो। मंगल सबल होने पर सफलता व संतोष देता है किन्तु पापी होने पर प्रायः शत्रु व भाइयों से कष्ट दिलाता है। (ध्यान रहे मंगल षष्ट भाव व तृतीय भाव का कारक है।
मंगल/राहु
शत्रु, शस्त्र, चोर व राजा से कष्ट मिले। गुरु जन या बन्धु की हानि/वियोग हो। जातक के सिर, नेत्र व बगल में रोग हो/मारक होने पर महान आपत्ति व मृत्यु भय भी देता है।
मंगल/गुरु
गुरु एक शुभ ग्रह है व काल पुरुष का भाग्येश भोगेश होकर सुख स्थान में होने पर अत्यधिक शुभ प्रद माना गया है। जातक के पुत्र व मित्रों की वृद्धि हो। देवता व ब्राह्मण की उपासना से इष्टकार्य सिद्धि हो। अतिथि पूजा का सुअवसर मिले। तीर्थ यात्रा व पुण्य कर्मों के अवसर मिले। पापी गुरु होने से कान में रोग, पीड़ा व कफ जनित कष्ट होता है।
मंगल/शनि
शनि काल पुरुष का दुख है- अतः दुख तो होगा पर धीरज से काम लें। पुत्र, गुरुजन, पितर गणों पर विपत्ति आती है। जातक स्वयं भी मुसीबतों व परेशानियों से घिरा रहता है। शत्रु धन हरण करते हैं। मन में गुप्त अनजानी पीड़ा रहती है। अग्निकांड या तूफान से क्षति होती है। वात पित्त जन्य रोग व कष्ट हो।
मंगल /बुध
काल पुरुष के जन्मांग में बुध, पराक्रमेश व षष्ठेश होकर छठे भाव में उच्चस्थ है अतः राजा या सरकार से कष्ट हो। शत्रु से भय, चोरी द्वारा धन हानि हो। पशु (वाहन) व सम्पत्ति की क्षति भी शत्रु के कारण होनी संभव है।
मंगल/केतु
कुछ मनीषियों ने केतु को शुभ माना है, किन्तु ये दशा प्रायः अप्रिय घटनाएं ही अधिक देती है। वज्राघात, अग्नि व शस्त्र से पीड़ा, धननाश, विदेश (परदेश) गमन या अपना देश छोड़ना पड़े, कभी तो स्वयं अपने या पत्नी के प्राणों को भी संकट होता है।
मंगल/शुक्र
काल पुरुष के जन्मांग में मंगल, लग्नेश अष्टमेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश-सप्तमेश होकर द्वादश भाव में स्थित है। अतः इस दशा भुक्ति में स्वदेश छोड़कर विदेश में जाकर बसने की संभावना बढ़ जाती है। कभी बाएं नेत्र में कष्ट होता है। चोरी होने से धन हानि व नौकरों को कष्ट व कमी भी होती है। यदि द्वादश भाव विदेश व बाएं नेत्र का प्रतीक है तो सप्तम भाव से दास-दासी व चोरी का विचार किया जाता है।
मंगल/सूर्य
संघर्ष/स्पर्धा में विजय मिले, समाज में मान प्रतिष्ठा व प्रभाव (दबदबा) बढ़े, राज सम्मान प्राप्त हो। लक्ष्मी की कृपा से धन, धान्य, वैभव विलास जनित सुख बढ़े। साहस व श्रम द्वारा धन की वृद्धि हो। कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य उच्चस्थ होकर लग्न में है तो लग्नेश मंगल दशम भाव में उच्चस्थ है। अतः आत्मबल व सत्कर्म से सुख-वैभव की वृद्धि होना सहज संभव है।
मंगल/चन्द्रमा
विविध प्रकार के धन व संपदाएं प्राप्त हों- रत्न-वस्त्र-आभूषण, पुत्र-पत्नी,भूमि भवन व वाहन का सुख मिले। शत्रु से मुक्ति मिले। शत्रु जनित भय व पीड़ा नष्ट हो जाए। कभी गुरु जन को पीड़ा तो कभी स्वयं को भी गुल्म व पित्त जन्य कष्ट हो सकता है। चंद्रमा को कालपुरुष के धन स्थान में उच्चस्थ होने से, धन प्रदाता माना जाता है। चंद्रमा काल पुरुष का मन है अतः सुख, शान्ति व धन वैभव मिलना स्वाभाविक है |
पराशर मतानुसार मंगल केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी हो तो शुभ तथा 3, 6, 8, 11, एवं 12 भाव का स्वामी हो तो अशुभ फल मिलता है। चंद्र या शुक्र के सम्बन्ध से मंगल दूषित हो जाता है।
अग्नि तत्व राशियों (मेष, सिंह एवं धनु) में क्रूर व साहसी मिथुन, तुला एवं कुम्भ (वायुतत्व) राशियों में प्रवासी एवं भाग्यहीन, वृष, कन्या एवं मकर (पृथ्वी तत्व) राशियों में लोभी, स्वार्थी, दीर्घ द्वेषी, स्त्री प्रिय, झगड़ालू एवं शराबी या कुछ अन्य पदार्थ का सेवक। कर्क, वृश्चिक एवं मीन (जल तत्व) राशियों में नाविक, पियक्कड़, व्यभिचारी होता है। भोगी, प्रवासी एवं धनवान फल स्त्री राशियों का है।
विभिन्न भावगत मंगल की दशा का फल
लग्न भाव - चोर, विष, कलह, शत्रुता एवं विदेश यात्रा की सम्भावना होती है।
द्वितीय भाव- वाणी में तीव्रता, धन एवं कृषि लाभ, किन्तु राज पक्ष से दंडित होता है। मुख व नेत्र में रोग की सम्भावना रहती है।
तीसरा भाव- उत्साह, आनन्द, राज पक्ष से लाभ, धन, सन्तान, स्त्री, भाई-बहिनों से सुख मिलता है।
चौथा भाव- स्थानच्युत, बन्धुओं से विरोध, चोर व अग्नि से भय एवं राज पक्ष से पीडि़त होता है।
पंचम भाव- स्त्रियों से विरोध, जातक को नेत्र रोग या दुःसाध्य रोग होता है। भाई दुखी रहता है।
षष्ठ भाव- स्त्रियों से विरोध, पदच्युति, शोक, विदेश भ्रमण, विपक्ष से वाद-विवाद होता है।
सप्तम भाव- स्त्री की मृत्यु, गुदा रोग, मूत्रकृच्छ गुप्त रोग आदि रोगों की सम्भावना रहती है।
अष्टम भाव- दुःख व स्त्री मृत्यु की सम्भावना रहती है। पदच्युति होती है। विदेश यात्रा करनी पड़ती है। गुदा रोग, गुप्त रोगों का भय रहता है।
नवम भाव- पद की समाप्ति या परिवर्तन होता है। गुरुजनों को कष्ट तथा धार्मिक कार्यों में अरुचि या विघ्न होता है।
दशम भाव- उद्योग भंग, अपकीर्ति, स्त्री, पुत्र धन एवं विद्या का नाश होता है (अशुभ मंगल)।
एकादश भाव- राजकीय सम्मान, धन व सुख का लाभ होता है। लड़ाई में विजय, परोपकारी, सम्मान प्राप्त करता है।
द्वादश भाव- धन हानि, राज भय, भूमि, पुत्र एवं स्त्री नाश एवं भाइयों की विदेश यात्रा होती है।
मंगल/मंगल
शरीर में गर्मी बढ़ने (पित्त प्रकोप) से कष्ट हो, शरीर को चोट लगे/घाव हो तथा छोटे भाइयों से वियोग/विग्रह (मतभेद) हो। जाति, बंधु से शत्रुता व राजा से विरोध हो। अग्नि या चोर का भय हो। मंगल सबल होने पर सफलता व संतोष देता है किन्तु पापी होने पर प्रायः शत्रु व भाइयों से कष्ट दिलाता है। (ध्यान रहे मंगल षष्ट भाव व तृतीय भाव का कारक है।
मंगल/राहु
शत्रु, शस्त्र, चोर व राजा से कष्ट मिले। गुरु जन या बन्धु की हानि/वियोग हो। जातक के सिर, नेत्र व बगल में रोग हो/मारक होने पर महान आपत्ति व मृत्यु भय भी देता है।
मंगल/गुरु
गुरु एक शुभ ग्रह है व काल पुरुष का भाग्येश भोगेश होकर सुख स्थान में होने पर अत्यधिक शुभ प्रद माना गया है। जातक के पुत्र व मित्रों की वृद्धि हो। देवता व ब्राह्मण की उपासना से इष्टकार्य सिद्धि हो। अतिथि पूजा का सुअवसर मिले। तीर्थ यात्रा व पुण्य कर्मों के अवसर मिले। पापी गुरु होने से कान में रोग, पीड़ा व कफ जनित कष्ट होता है।
मंगल/शनि
शनि काल पुरुष का दुख है- अतः दुख तो होगा पर धीरज से काम लें। पुत्र, गुरुजन, पितर गणों पर विपत्ति आती है। जातक स्वयं भी मुसीबतों व परेशानियों से घिरा रहता है। शत्रु धन हरण करते हैं। मन में गुप्त अनजानी पीड़ा रहती है। अग्निकांड या तूफान से क्षति होती है। वात पित्त जन्य रोग व कष्ट हो।
मंगल /बुध
काल पुरुष के जन्मांग में बुध, पराक्रमेश व षष्ठेश होकर छठे भाव में उच्चस्थ है अतः राजा या सरकार से कष्ट हो। शत्रु से भय, चोरी द्वारा धन हानि हो। पशु (वाहन) व सम्पत्ति की क्षति भी शत्रु के कारण होनी संभव है।
मंगल/केतु
कुछ मनीषियों ने केतु को शुभ माना है, किन्तु ये दशा प्रायः अप्रिय घटनाएं ही अधिक देती है। वज्राघात, अग्नि व शस्त्र से पीड़ा, धननाश, विदेश (परदेश) गमन या अपना देश छोड़ना पड़े, कभी तो स्वयं अपने या पत्नी के प्राणों को भी संकट होता है।
मंगल/शुक्र
काल पुरुष के जन्मांग में मंगल, लग्नेश अष्टमेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश-सप्तमेश होकर द्वादश भाव में स्थित है। अतः इस दशा भुक्ति में स्वदेश छोड़कर विदेश में जाकर बसने की संभावना बढ़ जाती है। कभी बाएं नेत्र में कष्ट होता है। चोरी होने से धन हानि व नौकरों को कष्ट व कमी भी होती है। यदि द्वादश भाव विदेश व बाएं नेत्र का प्रतीक है तो सप्तम भाव से दास-दासी व चोरी का विचार किया जाता है।
मंगल/सूर्य
संघर्ष/स्पर्धा में विजय मिले, समाज में मान प्रतिष्ठा व प्रभाव (दबदबा) बढ़े, राज सम्मान प्राप्त हो। लक्ष्मी की कृपा से धन, धान्य, वैभव विलास जनित सुख बढ़े। साहस व श्रम द्वारा धन की वृद्धि हो। कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य उच्चस्थ होकर लग्न में है तो लग्नेश मंगल दशम भाव में उच्चस्थ है। अतः आत्मबल व सत्कर्म से सुख-वैभव की वृद्धि होना सहज संभव है।
मंगल/चन्द्रमा
विविध प्रकार के धन व संपदाएं प्राप्त हों- रत्न-वस्त्र-आभूषण, पुत्र-पत्नी,भूमि भवन व वाहन का सुख मिले। शत्रु से मुक्ति मिले। शत्रु जनित भय व पीड़ा नष्ट हो जाए। कभी गुरु जन को पीड़ा तो कभी स्वयं को भी गुल्म व पित्त जन्य कष्ट हो सकता है। चंद्रमा को कालपुरुष के धन स्थान में उच्चस्थ होने से, धन प्रदाता माना जाता है। चंद्रमा काल पुरुष का मन है अतः सुख, शान्ति व धन वैभव मिलना स्वाभाविक है |
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