शत्रुओं को परास्त करने का व्रत
भगवती भ्रामरी देवी व्रत एक बड़ा ही दिव्य व शत्रुओं का पराभव करने वाला उत्कृष्ट व्रत है। इस व्रत को वर्ष मेंं आने वाली चार नवरात्रियों मेंं से किन्हीं भी नवरात्रियों मेंं किया जा सकता है। भगवती भ्रामरी देवी व्रत मेंं मां दुर्गा की उपासना की तरह ही पूजन किया जाता है। गणेश गौरी कलश व नवग्रहादि देवताओं का पूजन भी पूर्व मेंं ही संपन्न करें। भगवती भ्रामरी देवी का यह स्वरूप अन्तर्जगत (काम-क्रोध, लोभ, मोहादि) एवं बाह्य जगत् के संपूर्ण शत्रुओं का दमन करने मेंं पूर्णतया सक्षम है। भगवती का यह स्वरूप जीव के जीवन के चारों पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्राप्त कराने वाला है। सिंह वाहिनी मां दुर्गा ने शत्रुओं का पराभव करने के लिए ही अपनी इच्छानुसार ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला विग्रह धारण किया है, जो जगत् कल्याणकारी है। जो प्राणी नव दिनों तक नियम-संयम से इस व्रत का भाव सहित पालन करता है, वह निश्चय ही सुखी व समृद्धि से युक्त हो जाता है। इन नव दिनों मेंं क्रमश: दुर्गा सप्तशती, देवी भागवत का पाठ तथा नवार्ण मंत्र या ‘ह्रीं’ मंत्र का श्रद्धानुसार जप व इसी मंत्र से यज्ञ भी करते रहें। यथाशक्ति एक वर्ष से ऊपर व नव वर्ष तक की कन्याओं को क्रमानुसार प्रतिदिन मिष्ठान्नादि भोजन कराते रहें। भ्रामरी देवी के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है। भगवती भ्रामरी देवी की लीला-कथा पूर्व समय की बात है, अरुण नामका एक पराक्रमी दैत्य था। देवताओं से द्वेष रखने वाला वह दानव पाताल मेंं रहता था। उसके मन मेंं देवताओं को जीतने की इच्छा उत्पन्न हो गयी, अत: वह हिमालय पर जाकर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगा। कठिन नियमों का पालन करते हुए उसे हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से प्रचंड अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं, जिससे देवलोक के देवता भी घबरा उठे। वे समझ ही न सके कि यह अकस्मात् क्या हो गया। सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और सारा वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी गायत्री देवी को साथ लेकर हंस पर बैठे और उस स्थान पर गये जहां अरुण दानव तप मेंं स्थित था। उसकी गायत्री-उपासना बढ़़ी तीव्र थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने के लिये कहा। देवी गायत्री तथा ब्रह्माजी का आकाशमंडल मेंं दर्शन करके अरुण दानव अत्यंत प्रसन्न हो गया। वह वहीं भूमि पर गिरकर दंडवत् प्रणाम करने लगा। उसने अनेक प्रकार से स्तुति की और अमर होने का वर मांगा। परंतु ब्रह्माजी ने कहा- ‘वत्स! संसार मेंं जन्म लेने वाला अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा, अत: तुम कोई दूसरा वर मांगो।’ तब अरुण बोला- ‘प्रभो! यदि ऐसी बात है तो मुझे यह वर देने की कृपा करें कि -‘मैं न युद्ध मेंं मरूं, न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरूं, न किसी भी स्त्री या पुरुष से ही मेंरी मृत्यु हो और दो पैर तथा चार पैरों वाला कोई भी प्राणी मुझे न मार सके। साथ ही मुझे ऐसा बल दीजिये कि मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं।’ ‘तथास्तु’ कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गये और इधर अरुण दानव विलक्षण वर प्राप्तकर उन्मत्त हो गया। उसने पाताल से सभी दानवों को बुलाकर विशाल सेना तैयार कर ली और स्वर्ग लोक पर चढ़ाई कर दी। वर के प्रभाव से देवता पराजित हो गये। देवलोक पर अरुण दानव का अधिकार हो गया। वह अपनी माया से अनेक प्रकार के रूप बना लेता था। उसने तपस्या के प्रभाव से इंद्र, सूर्य, चंद्रमा, यम, अग्नि आदि देवताओं का पृथक्-पृथक रूप बना लिया और सब पर शासन करने लगा। देवता भागकर आशुतोष भगवान् शंकर की शरण मेंं गये और अपना कष्ट उन्हें निवेदित किया। उस समय भगवान् शंकर बड़े विचार मेंं पड़ गये। वे सोचने लगे कि ब्रह्माजी से प्राप्त विचित्र वरदान से यह दानव अजेय-सा हो गया है। यह न तो युद्ध मेंं मर सकता है, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, न तो इसे कोई दो पैरवाला मार सकता है, न कोई चार पैरवाला। यह न स्त्री से मर सकता है और न किसी पुरुष से। वे बढ़़ी-चिंता मेंं पड़ गये और उसके वध का उपाय सोचने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई -‘देवताओं! तुम लोग भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करो, वे ही तुम लोगों का कार्य करने मेंं समर्थ हैं। यदि दानवराज अरुण नित्य की गायत्री-उपासना तथा गायत्री-जप से विरत हो जाय तो शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।’ आकाशवाणी सुनकर सभी देवता आश्वस्त हो गये। उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजी को अरुण के पास भेजा ताकि वे उसकी बुद्धि को मोहित कर सकें। बृहस्पतिजी के जाने के बाद देवता भगवती भुवनेश्वरी की आराधना करने लगे। इधर भगवती भुवनेश्वरी की प्रेरणा तथा बृहस्पतिजी के उद्योग से अरुण ने गायत्री-जप करना छोड़ दिया। गायत्री-जप के परित्याग करते ही उसका शरीर निस्तेज हो गया। अपना कार्य सफल हुआ जान बृहस्पति अमरावती लौट आये और इंद्रादि देवताओं को सारा समाचार बताया। पुन: सभी देवता देवी की स्तुति करने लगे। उनकी आराधना से आदि शक्ति जगन्माता प्रसन्न हो गयीं और विलक्षण लीला-विग्रह धारण कर देवताओं के समक्ष प्रकट हो गयीं। उनके श्रीविग्रह से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। असंखय कामदेवों से भी सुंदर उनका सौंदर्य था। उन्होंने रमणीय वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा था और वे नाना प्रकार के भ्रमरों से युक्त पुष्पों की माला से शोभायमान थीं। वे चारों ओर से असंखय भ्रमरों से घिरी हुई थीं। भ्रमर ‘ह्रीं’ इस शब्द को गुनगुना रहे थे। उनकी मु_ी भ्रमरों से भरी हुई थी। उन देवी का दर्शन कर देवता पुन: स्तुति करते हुए कहने लगे- सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली भगवती महाविद्ये! आपको नमस्कार है। भगवती दुर्गे! आप ज्योति:स्वरूपिणी एवं भक्ति से प्राप्य हैं, आपको हमारा नमस्कार है। हे नीलसरस्वती देवि! उग्रतारा, त्रिपुरसुंदरी, पीतांबरा, भैरवी, मातंगी, शाकम्भरी, शिवा, गायत्री, सरस्वती तथा स्वाहा-स्वधा, ये सब आपके ही नाम हैं। हे दयास्वरूपिणी देवि, आपने शुम्भ-निशुम्भ का दलन किया है, रक्तबीज और वृत्रासुर तथा धूम्रलोचन आदि राक्षसों को मारकर संसार को विनाश से बचाया है। हे दयामूर्ते! धर्ममूर्ते! आपको हमारा नमस्कार है। हे देवि! भ्रमरों से वेष्टित होने के कारण आपने ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला-विग्रह धारण किया है। हे भ्रामरी देवि! आपके इस लीलारूप को हम नित्य प्रणाम करते हैं। करूणामयी मां भ्रामरी देवी बोलीं- ‘देवताओं! आप सभी निर्भय हो जायं। ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा करने के लिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। भ्रमरैर्वेष्टिता यस्याद् भ्रामरी या तत: स्मृता॥ तस्यै देव्यै नमो नित्यं नित्यमेंव नमो नम:॥ इस प्रकार बार-बार प्रणाम करते हुए देवताओं ने ब्रह्माजी के वर से अजेय बने हुए अरुण दैत्य से प्राप्त पीड़ा से छुटकारा दिलाने की भ्रामरी देवी से प्रार्थना की। अरुण दानव ने वर मांगा है कि मैं न तो दो पैर वालों से मरूं और न चार पैरवालों से, मेंरा यह भ्रमररूप छ: पैरोंवाला है, इसलिये भ्रमर षटपद भी कहलाता है। उसने वर मांगा है कि मैं न युद्ध मेंं मरूं और न किसी अस्त्र-शस्त्र से। इसीलिये मेंरा यह भ्रमररूप उससे न तो युद्ध करेगा और न अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करेगा। साथ ही उसने मनुष्य, देवता आदि किसी से भी न मरने का वर मांगा है, मेंरा यह भ्रमर रूप न तो मनुष्य है और न देवता ही। देवगणो! इसलिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। अब आप लोग मेंरी लीला देखिये।’ ऐसा कहकर भ्रामरी देवी ने अपने हस्तगत भ्रमरों को तथा अपने चारों ओर स्थित भ्रमरों को भी प्रेरित किया, असंखय भ्रमर ‘ह्रीं-ह्रीं’ करते उस दिशा मेंं चल पड़े, जहां अरुण दानव स्थित था। उन भ्रमरों से त्रैलोक्य व्याप्त हो गया। आकाश, पर्वत शृंग, वृक्ष, वन जहां-तहां भ्रमर ही भ्रमर दृष्टिगोचर होने लगे। भ्रमरों के कारण सूर्य छिप गया। चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। यह भ्रामरी देवी की विचित्र लीला थी। बड़़े ही वेग से उडऩे वाले उन भ्रमरों ने दैत्यों की छाती छेद डाली। वे दैत्यों के शरीर मेंं चिपक गये और उन्हें काटने लगे। तीव्र वेदना से दैत्य छटपटाने लगे। किसी भी अस्त्र शस्त्र से भ्रमरों का निवारण करना संभव नहींं था। अरुण दैत्य ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह भी असमर्थ ही रहा। थोड़े ही समय मेंं जो दैत्य जहां था, वहीं भ्रमरों के काटने से मरकर गिर पड़ा। अरुण दानव का भी यही हाल हुआ। उसके सभी अस्त्र-शस्त्र विफल रहे। देवी ने भ्रामरी-रूप धारण कर ऐसी लीला दिखायी कि ब्रह्माजी के वरदान की भी रक्षा हो गयी और अरुण दैत्य तथा उसकी समूची दानवी सेना का संहार भी हो गया।
भगवती भ्रामरी देवी व्रत एक बड़ा ही दिव्य व शत्रुओं का पराभव करने वाला उत्कृष्ट व्रत है। इस व्रत को वर्ष मेंं आने वाली चार नवरात्रियों मेंं से किन्हीं भी नवरात्रियों मेंं किया जा सकता है। भगवती भ्रामरी देवी व्रत मेंं मां दुर्गा की उपासना की तरह ही पूजन किया जाता है। गणेश गौरी कलश व नवग्रहादि देवताओं का पूजन भी पूर्व मेंं ही संपन्न करें। भगवती भ्रामरी देवी का यह स्वरूप अन्तर्जगत (काम-क्रोध, लोभ, मोहादि) एवं बाह्य जगत् के संपूर्ण शत्रुओं का दमन करने मेंं पूर्णतया सक्षम है। भगवती का यह स्वरूप जीव के जीवन के चारों पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्राप्त कराने वाला है। सिंह वाहिनी मां दुर्गा ने शत्रुओं का पराभव करने के लिए ही अपनी इच्छानुसार ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला विग्रह धारण किया है, जो जगत् कल्याणकारी है। जो प्राणी नव दिनों तक नियम-संयम से इस व्रत का भाव सहित पालन करता है, वह निश्चय ही सुखी व समृद्धि से युक्त हो जाता है। इन नव दिनों मेंं क्रमश: दुर्गा सप्तशती, देवी भागवत का पाठ तथा नवार्ण मंत्र या ‘ह्रीं’ मंत्र का श्रद्धानुसार जप व इसी मंत्र से यज्ञ भी करते रहें। यथाशक्ति एक वर्ष से ऊपर व नव वर्ष तक की कन्याओं को क्रमानुसार प्रतिदिन मिष्ठान्नादि भोजन कराते रहें। भ्रामरी देवी के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है। भगवती भ्रामरी देवी की लीला-कथा पूर्व समय की बात है, अरुण नामका एक पराक्रमी दैत्य था। देवताओं से द्वेष रखने वाला वह दानव पाताल मेंं रहता था। उसके मन मेंं देवताओं को जीतने की इच्छा उत्पन्न हो गयी, अत: वह हिमालय पर जाकर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगा। कठिन नियमों का पालन करते हुए उसे हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से प्रचंड अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं, जिससे देवलोक के देवता भी घबरा उठे। वे समझ ही न सके कि यह अकस्मात् क्या हो गया। सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और सारा वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी गायत्री देवी को साथ लेकर हंस पर बैठे और उस स्थान पर गये जहां अरुण दानव तप मेंं स्थित था। उसकी गायत्री-उपासना बढ़़ी तीव्र थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने के लिये कहा। देवी गायत्री तथा ब्रह्माजी का आकाशमंडल मेंं दर्शन करके अरुण दानव अत्यंत प्रसन्न हो गया। वह वहीं भूमि पर गिरकर दंडवत् प्रणाम करने लगा। उसने अनेक प्रकार से स्तुति की और अमर होने का वर मांगा। परंतु ब्रह्माजी ने कहा- ‘वत्स! संसार मेंं जन्म लेने वाला अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा, अत: तुम कोई दूसरा वर मांगो।’ तब अरुण बोला- ‘प्रभो! यदि ऐसी बात है तो मुझे यह वर देने की कृपा करें कि -‘मैं न युद्ध मेंं मरूं, न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरूं, न किसी भी स्त्री या पुरुष से ही मेंरी मृत्यु हो और दो पैर तथा चार पैरों वाला कोई भी प्राणी मुझे न मार सके। साथ ही मुझे ऐसा बल दीजिये कि मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं।’ ‘तथास्तु’ कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गये और इधर अरुण दानव विलक्षण वर प्राप्तकर उन्मत्त हो गया। उसने पाताल से सभी दानवों को बुलाकर विशाल सेना तैयार कर ली और स्वर्ग लोक पर चढ़ाई कर दी। वर के प्रभाव से देवता पराजित हो गये। देवलोक पर अरुण दानव का अधिकार हो गया। वह अपनी माया से अनेक प्रकार के रूप बना लेता था। उसने तपस्या के प्रभाव से इंद्र, सूर्य, चंद्रमा, यम, अग्नि आदि देवताओं का पृथक्-पृथक रूप बना लिया और सब पर शासन करने लगा। देवता भागकर आशुतोष भगवान् शंकर की शरण मेंं गये और अपना कष्ट उन्हें निवेदित किया। उस समय भगवान् शंकर बड़े विचार मेंं पड़ गये। वे सोचने लगे कि ब्रह्माजी से प्राप्त विचित्र वरदान से यह दानव अजेय-सा हो गया है। यह न तो युद्ध मेंं मर सकता है, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, न तो इसे कोई दो पैरवाला मार सकता है, न कोई चार पैरवाला। यह न स्त्री से मर सकता है और न किसी पुरुष से। वे बढ़़ी-चिंता मेंं पड़ गये और उसके वध का उपाय सोचने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई -‘देवताओं! तुम लोग भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करो, वे ही तुम लोगों का कार्य करने मेंं समर्थ हैं। यदि दानवराज अरुण नित्य की गायत्री-उपासना तथा गायत्री-जप से विरत हो जाय तो शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।’ आकाशवाणी सुनकर सभी देवता आश्वस्त हो गये। उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजी को अरुण के पास भेजा ताकि वे उसकी बुद्धि को मोहित कर सकें। बृहस्पतिजी के जाने के बाद देवता भगवती भुवनेश्वरी की आराधना करने लगे। इधर भगवती भुवनेश्वरी की प्रेरणा तथा बृहस्पतिजी के उद्योग से अरुण ने गायत्री-जप करना छोड़ दिया। गायत्री-जप के परित्याग करते ही उसका शरीर निस्तेज हो गया। अपना कार्य सफल हुआ जान बृहस्पति अमरावती लौट आये और इंद्रादि देवताओं को सारा समाचार बताया। पुन: सभी देवता देवी की स्तुति करने लगे। उनकी आराधना से आदि शक्ति जगन्माता प्रसन्न हो गयीं और विलक्षण लीला-विग्रह धारण कर देवताओं के समक्ष प्रकट हो गयीं। उनके श्रीविग्रह से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। असंखय कामदेवों से भी सुंदर उनका सौंदर्य था। उन्होंने रमणीय वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा था और वे नाना प्रकार के भ्रमरों से युक्त पुष्पों की माला से शोभायमान थीं। वे चारों ओर से असंखय भ्रमरों से घिरी हुई थीं। भ्रमर ‘ह्रीं’ इस शब्द को गुनगुना रहे थे। उनकी मु_ी भ्रमरों से भरी हुई थी। उन देवी का दर्शन कर देवता पुन: स्तुति करते हुए कहने लगे- सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली भगवती महाविद्ये! आपको नमस्कार है। भगवती दुर्गे! आप ज्योति:स्वरूपिणी एवं भक्ति से प्राप्य हैं, आपको हमारा नमस्कार है। हे नीलसरस्वती देवि! उग्रतारा, त्रिपुरसुंदरी, पीतांबरा, भैरवी, मातंगी, शाकम्भरी, शिवा, गायत्री, सरस्वती तथा स्वाहा-स्वधा, ये सब आपके ही नाम हैं। हे दयास्वरूपिणी देवि, आपने शुम्भ-निशुम्भ का दलन किया है, रक्तबीज और वृत्रासुर तथा धूम्रलोचन आदि राक्षसों को मारकर संसार को विनाश से बचाया है। हे दयामूर्ते! धर्ममूर्ते! आपको हमारा नमस्कार है। हे देवि! भ्रमरों से वेष्टित होने के कारण आपने ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला-विग्रह धारण किया है। हे भ्रामरी देवि! आपके इस लीलारूप को हम नित्य प्रणाम करते हैं। करूणामयी मां भ्रामरी देवी बोलीं- ‘देवताओं! आप सभी निर्भय हो जायं। ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा करने के लिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। भ्रमरैर्वेष्टिता यस्याद् भ्रामरी या तत: स्मृता॥ तस्यै देव्यै नमो नित्यं नित्यमेंव नमो नम:॥ इस प्रकार बार-बार प्रणाम करते हुए देवताओं ने ब्रह्माजी के वर से अजेय बने हुए अरुण दैत्य से प्राप्त पीड़ा से छुटकारा दिलाने की भ्रामरी देवी से प्रार्थना की। अरुण दानव ने वर मांगा है कि मैं न तो दो पैर वालों से मरूं और न चार पैरवालों से, मेंरा यह भ्रमररूप छ: पैरोंवाला है, इसलिये भ्रमर षटपद भी कहलाता है। उसने वर मांगा है कि मैं न युद्ध मेंं मरूं और न किसी अस्त्र-शस्त्र से। इसीलिये मेंरा यह भ्रमररूप उससे न तो युद्ध करेगा और न अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करेगा। साथ ही उसने मनुष्य, देवता आदि किसी से भी न मरने का वर मांगा है, मेंरा यह भ्रमर रूप न तो मनुष्य है और न देवता ही। देवगणो! इसलिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। अब आप लोग मेंरी लीला देखिये।’ ऐसा कहकर भ्रामरी देवी ने अपने हस्तगत भ्रमरों को तथा अपने चारों ओर स्थित भ्रमरों को भी प्रेरित किया, असंखय भ्रमर ‘ह्रीं-ह्रीं’ करते उस दिशा मेंं चल पड़े, जहां अरुण दानव स्थित था। उन भ्रमरों से त्रैलोक्य व्याप्त हो गया। आकाश, पर्वत शृंग, वृक्ष, वन जहां-तहां भ्रमर ही भ्रमर दृष्टिगोचर होने लगे। भ्रमरों के कारण सूर्य छिप गया। चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। यह भ्रामरी देवी की विचित्र लीला थी। बड़़े ही वेग से उडऩे वाले उन भ्रमरों ने दैत्यों की छाती छेद डाली। वे दैत्यों के शरीर मेंं चिपक गये और उन्हें काटने लगे। तीव्र वेदना से दैत्य छटपटाने लगे। किसी भी अस्त्र शस्त्र से भ्रमरों का निवारण करना संभव नहींं था। अरुण दैत्य ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह भी असमर्थ ही रहा। थोड़े ही समय मेंं जो दैत्य जहां था, वहीं भ्रमरों के काटने से मरकर गिर पड़ा। अरुण दानव का भी यही हाल हुआ। उसके सभी अस्त्र-शस्त्र विफल रहे। देवी ने भ्रामरी-रूप धारण कर ऐसी लीला दिखायी कि ब्रह्माजी के वरदान की भी रक्षा हो गयी और अरुण दैत्य तथा उसकी समूची दानवी सेना का संहार भी हो गया।
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