‘‘कथम उत्पद्यते मातुः जठरे नरकागता गर्भाधि दुखं यथा भुंक्ते तन्मे कथय केषव’’ गरूड पुराण में उक्त पंक्तियॉ लिखी हैं, जिससे साबित होता है कि गर्भस्थ षिषु के ऊपर भी ग्रहों का प्रभाव शुरू हो जाता है। गर्भ के पूर्व कर्मो के प्रभाव से माता-पिता तथा बंधुजन तथा परिवार तय होते हैं। इसी लिए कहा जाता है कि शुचिनाम श्रीमतां गेहे योग भ्रष्ट प्रजायते अर्थात् जो परम् भाग्यषाली हैं वे श्रीमंतो के घर में जन्म लेते हैं। जिन बच्चों का ग्रह नक्षत्र उत्तम होता है, उनका जन्म तथा परवरिष भी उसी श्रेणी का होता है। कर्मणा दैव नेत्रेण जन्तुः देहोपत्तये अर्थात् कर्मो को भोगने के लिए ही जीव की उत्पत्ति होती है। षिषु के गर्भ में आते ही उसका भाग्य तय हो जाता है अतः ग्रह दषा का असर उस पर शुरू हो जाता है।
कहा तो यहॉ तक जाता है कि जिस व्यक्ति के प्रारब्ध में कष्ट लिखा होता है उसका जन्म विपरीत ग्रह नक्षत्र एवं कष्टित परिवार में होता है। गरूड पुराण में वर्णन है कि और देखने में भी आया है कि जिनके प्रारब्ध उत्तम नहीं होते उन्हें बचपन से ही कष्ट सहना होता है। उनका जन्म परिवार के विपरीत परिस्थितियों में होता है और जिन्हें बड़ी उम्र में कष्ट सहना होता है, उनका कार्य व्यवसाय या बच्चों का भाग्य बाधित हो जाता है। इससे जाहिर होता है कि संसार में सुख चाहने के लिए शुरू से ग्रह गोचर का आकलन कर संतान कामना करनी चाहिए। उत्तम संतान हेतु पितृ को संतृप्त करना तथा संतान गोपाल का पाठ करना चाहिए।
कहा तो यहॉ तक जाता है कि जिस व्यक्ति के प्रारब्ध में कष्ट लिखा होता है उसका जन्म विपरीत ग्रह नक्षत्र एवं कष्टित परिवार में होता है। गरूड पुराण में वर्णन है कि और देखने में भी आया है कि जिनके प्रारब्ध उत्तम नहीं होते उन्हें बचपन से ही कष्ट सहना होता है। उनका जन्म परिवार के विपरीत परिस्थितियों में होता है और जिन्हें बड़ी उम्र में कष्ट सहना होता है, उनका कार्य व्यवसाय या बच्चों का भाग्य बाधित हो जाता है। इससे जाहिर होता है कि संसार में सुख चाहने के लिए शुरू से ग्रह गोचर का आकलन कर संतान कामना करनी चाहिए। उत्तम संतान हेतु पितृ को संतृप्त करना तथा संतान गोपाल का पाठ करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment