राहु एक छाया ग्रह है। इसका प्रभाव मानव जगत पर होने के कारण हमारे मनीषियों ने इसे भी ग्रहों में स्थान दिया है। कुछ आचार्यों के मत से राहु का स्वगृह कन्या एवं उच्च राशि मिथुन है- नीच राशि धनु है। अन्य आचार्यों के मत से राहु की उच्च राशि वृष, मूल त्रिकोण राशि कुम्भ तथा प्रिय राशि कर्क है तथा अन्य गुण शनिवत है। राहु का शत्रु मंगल , शनि सम तथा शेष ग्रह मित्र है। अन्य मत से मंगल, सूर्य व चंद्रमा शत्रु ग्रह है। राहु प्रधान व्यक्ति स्नेहशील, प्रपंच में आसक्त होता है, स्वार्थ पूरा कर परोपकार करता है। मीन का इच्छुक, अभिमानी महत्वाकांक्षी होता है। बहुत बोलना नहीं चाहता, लेखन में सरस, तेजस्वी तथा काव्य पूर्ण होता है। वह दूसरों के काम में दखल नहीं देता एवं दूसरों के ,द्वारा अपने काम में दखल देना पसंद नहीं करता है।
कुण्डली में राहु अशुभ योग में हो (विषम भाव में, विषम राशि में हो) तो जातक बुद्धिहीन, दुष्ट, स्वार्थी, अविश्वनीय, दुरभिमानी, झूठे आचरण से पूर्ण, निर्लज्ज, उद्दण्ड, अपने मत को ही श्रेष्ठ मानने वाला, दूसरों को ताने देने वाला, दूसरों का अहित करने वाला होता है। राहु की दृष्टि के बारे में भी मतभेद है। राहु की दृष्टि 5, 7, 9, 12 मानी गई है। परन्तु सप्तम व द्वादश दृष्टि ही अनुभव में आती है। सदा वक्री रहता है।
विभिन्न भावगत राहु की दशा का फल
लगन भाव- जातक बुद्धिहीन, विष, अग्नि तथा शस्त्र से भय, बन्धु वर्ग से विरोध, पराजय व कष्ट पाता है।
द्वितीय भाव- राज्य व धन की हानि, राजा से भय, निम्न व्यक्तियों की सेवा करनी पड़ती है। अच्छे भोजन का अभाव, मन में चिन्ता व क्रोध रहता है। कुटुम्ब में कलह रहता है।
तीसरा भाव- सन्तान, स्त्री, धन व भाइयों से सुख प्राप्त होता है। विदेश में आना जाना रहता है।
चतुर्थ भाव- माता को कष्ट या मृत्यु होती है। भूमि, कृषि, धन की हानि, राजा से भय, बधुओं से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को रोग तथा मानसिक कष्ट रहता है।
पंचम भाव- उन्माद, बुद्धिहीन, झगड़ा, राजा से भय, सन्तान से कष्ट या नाश होता है।
छटवा भाव- राजा, अग्नि, चोर व शत्रुओं से भय, नाना प्रकार के रोग तथा मृत्यु भय रहता है।
सप्तम भाव- विदेश यात्रा, भूमि, धन की हानि, नौकरी की कमी, सन्तान की चिन्ता तथा सर्प से भय
अष्टम भाव- मृत्यु का भय, सन्तान का नाश, चोर, अग्नि एवं राजा से भय रहता है।
नवम भाव- पिता की मृत्यु, विदेश यात्रा, बन्धु वर्ग, गुरुजनों को कष्ट, धन सन्तान की हानि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कार्य एवं गंगा स्नान आदि होता है। यदि राहु अशुभ हो तो विदेश वास व कलंकित होता है।
एकादश भाव- सम्मान, धन, गृह, भूमि, तथा नाना प्रकार के सुख प्राप्त होते हंै।
द्वादश भाव- विदेश यात्रा, स्त्री-पुत्र से वियोग, धन, भूमि आदि की हानि होती है।
यदि किसी जन्मांग में राहु कन्या (6) वृश्चिक (8) अथवा मीन (12) राशि में स्थित हो तो वह अपनी महादशा में उच्च अधिकार (हकूमत, बादशाहत) तथा वाहन वैभव जन्य सुख समृद्धि देकर दशा की समाप्ति तक सभी कुछ वापिस भी ले लेता है।
कुण्डली में राहु अशुभ योग में हो (विषम भाव में, विषम राशि में हो) तो जातक बुद्धिहीन, दुष्ट, स्वार्थी, अविश्वनीय, दुरभिमानी, झूठे आचरण से पूर्ण, निर्लज्ज, उद्दण्ड, अपने मत को ही श्रेष्ठ मानने वाला, दूसरों को ताने देने वाला, दूसरों का अहित करने वाला होता है। राहु की दृष्टि के बारे में भी मतभेद है। राहु की दृष्टि 5, 7, 9, 12 मानी गई है। परन्तु सप्तम व द्वादश दृष्टि ही अनुभव में आती है। सदा वक्री रहता है।
विभिन्न भावगत राहु की दशा का फल
लगन भाव- जातक बुद्धिहीन, विष, अग्नि तथा शस्त्र से भय, बन्धु वर्ग से विरोध, पराजय व कष्ट पाता है।
द्वितीय भाव- राज्य व धन की हानि, राजा से भय, निम्न व्यक्तियों की सेवा करनी पड़ती है। अच्छे भोजन का अभाव, मन में चिन्ता व क्रोध रहता है। कुटुम्ब में कलह रहता है।
तीसरा भाव- सन्तान, स्त्री, धन व भाइयों से सुख प्राप्त होता है। विदेश में आना जाना रहता है।
चतुर्थ भाव- माता को कष्ट या मृत्यु होती है। भूमि, कृषि, धन की हानि, राजा से भय, बधुओं से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को रोग तथा मानसिक कष्ट रहता है।
पंचम भाव- उन्माद, बुद्धिहीन, झगड़ा, राजा से भय, सन्तान से कष्ट या नाश होता है।
छटवा भाव- राजा, अग्नि, चोर व शत्रुओं से भय, नाना प्रकार के रोग तथा मृत्यु भय रहता है।
सप्तम भाव- विदेश यात्रा, भूमि, धन की हानि, नौकरी की कमी, सन्तान की चिन्ता तथा सर्प से भय
अष्टम भाव- मृत्यु का भय, सन्तान का नाश, चोर, अग्नि एवं राजा से भय रहता है।
नवम भाव- पिता की मृत्यु, विदेश यात्रा, बन्धु वर्ग, गुरुजनों को कष्ट, धन सन्तान की हानि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कार्य एवं गंगा स्नान आदि होता है। यदि राहु अशुभ हो तो विदेश वास व कलंकित होता है।
एकादश भाव- सम्मान, धन, गृह, भूमि, तथा नाना प्रकार के सुख प्राप्त होते हंै।
द्वादश भाव- विदेश यात्रा, स्त्री-पुत्र से वियोग, धन, भूमि आदि की हानि होती है।
यदि किसी जन्मांग में राहु कन्या (6) वृश्चिक (8) अथवा मीन (12) राशि में स्थित हो तो वह अपनी महादशा में उच्च अधिकार (हकूमत, बादशाहत) तथा वाहन वैभव जन्य सुख समृद्धि देकर दशा की समाप्ति तक सभी कुछ वापिस भी ले लेता है।
राहु/राहु -विष व जल से भय (दूषित जल के कारण रोग हो) हो, परस्त्री संग से अपयश, इष्टजन का वियोग व दुष्टजन से कष्ट, मन, वाणी में कटुता, क्रोध एवं क्रूरता बढ़े।
राहु/गुरु- जातक देवता व ब्राह्मण का पूजन करे। शरीर निरोग व स्वस्थ हो। सुन्दर स्त्रियों से समागम, विद्वत्ता पूर्ण विचार विनिमय व शास्त्र चिंतन में समय सुख पूर्वक बीते।
राहु/गुरु- जातक देवता व ब्राह्मण का पूजन करे। शरीर निरोग व स्वस्थ हो। सुन्दर स्त्रियों से समागम, विद्वत्ता पूर्ण विचार विनिमय व शास्त्र चिंतन में समय सुख पूर्वक बीते।
राहु/शनि स्त्री-पुत्र-भाइयों से मतभेद एवं झगड़ा होता है। जातक की पदच्युति, नौकर से या नौकरी में बाधा/ हानि हो। शरीर में चोट लगे, वात, पित्त जन्य रोग से पीड़ा होती है। शनि काल पुरुष के लग्न में 44
नीचस्थ होता है। अतः इसका दोषी होना सहज है। यदि राहु को तृतीयस्थ मानें तो भाइयों से, पुत्र-स्त्री से झगड़ा, दुःख, क्लेश व देह पीड़ा होना भी स्वाभाविक है।
नीचस्थ होता है। अतः इसका दोषी होना सहज है। यदि राहु को तृतीयस्थ मानें तो भाइयों से, पुत्र-स्त्री से झगड़ा, दुःख, क्लेश व देह पीड़ा होना भी स्वाभाविक है।
राहु/बुध- धन और पुत्र की प्राप्ति, मित्रों से समागम तथा चित्त में प्रसन्नता हो। बुद्धि में चतुराई व कुशलता की वृद्धि से कार्य सिद्धि व लाभ मिले। राहु व बुध परस्पर मित्र हैं। बुध व्यवहार कुशलता, वणिक, बुद्धि, व्यापार चातुर्य देकर मधुर वाणी से भी अपनी ओर आकर्षित करता है। कालपुरुष के जन्मांग में राहु बुध की राशि में स्थित है तथा कन्या राशि के बुध से (दशमस्थ) केन्द्र में है, अतः निश्चय ही कार्य में कुशलता-प्रवीणता से सुख बढ़ेगा |
राहु/केतु- राहु केतु परस्पर शत्रु माने गये हैं। अतः ये दशा ज्वर, अग्नि, शस्त्र व शत्रु जन्य भय दिया करती है। कभी सिर में रोग, शरीर में कंपन, विषया व्रण(घाव) से कष्ट होता है। मित्रों से कलह, गुरुजन की उदासीनता भी मनोवेदना व व्यथा बढ़ाती है।
राहु/शुक्र- स्त्री की अनुकूलता व सहवास सुख मिले। भूमि, भवन, वाहन व वैभव की प्राप्ति हो। अपने ही लोगों से वैर विरोध हो तथा जातक वात, कफ जन्य रोगों से कष्ट पाये। काल पुरुष के जन्मांग में उच्चराशि का शुक्र द्वादश भाव (भोग भवन) में राहु से दशमस्थ (विपरीत गणना से चतुर्थस्थ) है। अतः सभी प्रकार के भोग मिलना स्वाभाविक है।
राहु/सूर्य -आपत्ति, विपत्ति शत्रुजन्य बाधा व कष्ट, विष/अग्नि पीड़ा, शस्त्राघात, नेत्र पीड़ा की संभावना बढ़े। राजा/सरकार से भय हो तथा स्त्री पुत्र को भी कष्ट मिले। राहु व सूर्य परस्पर शत्रु हैं। सूर्य आत्मा, राजा व सरकार का प्रतीक है। यदि कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य लग्न में है तो राहु तृतीय भाव में होने से परस्पर 3-11 की स्थिति बनती है जो अशुभ मानी गयी है। अतः अशुभ फल होना सहज एवं स्वाभाविक है।
राहु/चन्द्रमा- स्त्री सुख की हानि/नाश, स्वजन/परिजन से कलह व क्लेश हो। मन में चिंता संताप, मित्रों पर विपत्ति तथा जल से भय हो। कृषि, धन, पशु व संतान को क्षति पहुँचे। चंद्रमा मन, मित्र, जल व मानसिक सुख शांति का प्रतीक है; तथा राहु प्रबल क्रूर शत्रु होकर कालपुरुष के जन्मांग में चंद्रमा से द्वितीय स्थान (मारक भाव) में स्थित है। यहाँ राहु मन की सुख शांति तथा मित्रादि के लिए मारक सरीखा कार्य करेगा।
राहु/मंगल- राजा (सरकार), अग्नि, चोर एवं अस्त्र से भय हो। देह या मन में रोग जनित पीड़ा हो। हृदय रोग, नेत्र पीड़ा व पदच्युति (स्थानहानि) की संभावना बढ़े। मंगल कालपुरुष के जन्मांग में दशमस्थ है। अतः कार्य क्षेत्र, कार्यस्थल, राजा (सरकार) से परेशानी होना सहज ही है। काल पुरुष के जन्मांग में राहु एक छाया ग्रह होकर (दशमस्थ) मंगल से षष्ठमस्थ होने से गुप्त रोग/पीड़ा दे सकता है। अतः अतिरिक्त सावधानी तथा जातक को स्नेहपूर्ण सेवा व सहयोग की आवश्यकता होगी।
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