Wednesday, 4 May 2016

भावाधिपति ग्रह दशा

जन्मांग में विचारणीय भाव की राशि का स्वामी भावेश कहलाता है। पिछले अध्याय में बताया गया कि कोई ग्रह जिस भाव में स्थित है उस भाव का फल देगा। तदुपरांत वह जिस राशि में है उस राशि के गुणानुसार फल देगा, अन्त में जिन ग्रहों की दृष्टि है अथवा जिन ग्रहों द्वारा दशानाथ दृष्ट है (देखा जाता है) उनके प्रभाव के अनुसार दशा फल देगा। इस अध्याय में कहा गया है कि दशानाथ जिस भाव का स्वामी या कारक है उसके फल अपनी दशा/भुक्ति में किस प्रकार देगा।
लग्नेश की दशा
प्रायः जातक का स्वास्थ्य व सुख-दुःख दर्शाती है। लग्नेश की दशा में लग्न के शत्रु (षष्ठेश या शत्रु ग्रह) की भुक्ति में शरीर को कष्ट व मृत्यु होना संभव है। लग्न का संबंध आयुष्य व शरीर से होता है, अतः स्वास्थ्य प्रभावित होना स्वाभाविक बात है।
धन भाव
द्वितीय भाव का संबंध धन, कुटुंब, प्रारंभिक विद्या (मतान्तर से विद्या कितनी, कैसी व कब तक भी धन भाव से जानें), द्वितीय भाव नेत्र व वाणी का कारक भी है। धनेश अपनी दशा/भुक्ति में धन, कुटुंब, सुख व विद्या दिया करता है। धनेश का सूर्य से संबंध होने पर जातक परोपकारी, धनी एवं विद्वान होता है। धनेश का गुरु से संबंध ज्ञान, विवेक व अध्यात्म की ओर झुकाव देता है किन्तु धनेश का शनि से संबंध विद्या प्राप्ति में बाधा देता है, स्वल्प/हीन विद्या देता है।
यदि सूर्य/चंद्र निर्बल, नीच, शत्रु युक्त/क्षेत्री होकर मंगल तथा केतु से दृष्ट हो तो जातक नेत्रहीन अथवा विषम दृष्टि दोष (अंधत्व) से पीडि़त होता है। प्रायः धनेश की दशा/भुक्ति में घटना होती है। अंधत्व योग के लिये चंद्र षष्ठम, सूर्य अष्टम, शनि द्वादश तथा मंगल द्वितीय भाव में हो तो सूर्य चंद्र नेत्र ज्योति के कारक होकर दुःस्थान (त्रिकभाव) में बैठने से दुर्बल हो जाते हैं। मंगल पाप ग्रह द्वि तीयस्थ हो व शनि तथा सूर्य द्वारा दृष्ट भी हो तो जातक की नेत्र ज्योति बचना कठिन हो जाता है, उसकी दृष्टिहीनता की प्रबल संभावना होती है।
तीसरा भाव
भाई बहन, साहस, पराक्रम, परिश्रम का प्रतीक है। ये भाव जातक का स्नेह, सहयोग, सहभागिता, सांझापन दर्शाता है। यदि जन्मांग में द्वादशेश तृतीय भाव में हो तो वह तीसरे भाव की हानि करेगा। जातक भाई, बहन के सुख से वंचित रहेगा, उनसे द्वेष-मतभेद रखेगा, स्वार्थी होकर मात्र अपने शरीर पोषण में लगा रहेगा। तृतीयेश मनुष्य के अहंता को भी दर्शाता है। कदाचित इसी कारण यदि तृतीयेश का अष्टम भाव तथा अष्टमेश से संबंध हो तो जातक आत्मघात कर बैठता है। तृतीयेश की दशा में अष्टमेश की भुक्ति आत्महत्या करा सकती है।
चतुर्थ भाव
चतुर्थ भाव से प्रायः भूमि, भवन, माता व मन के सुख-संतोष का विचार किया जाता है। परिवार की सुख शान्ति व मित्रों का विचार भी अनेक विद्वान ज्योतिषी चतुर्थ भाव से करते हैं। इसे सुख भाव भी कहा जाता है। प्राचीन विद्वानों ने दशम भाव को राजा व चतुर्थ को प्रजा का प्रतीक माना है। चतुर्थेश की दशा में चंद्रमा की भुक्ति जनप्रिय बनाकर राजनीति में सफलता देती है। यदि चतुर्थ भाव पीडि़त हो या चतुर्थेश पापग्रह हो तो ऐसा चतुर्थेश अपनी दशा/भुक्ति में राज द्रोह या जनता द्वारा जातक का नकारा जाना दर्शाता है। यों चंद्रमा भी जनता/प्रजा का कारक माना जाता है।
पंचम भाव
पंचम भाव से संतान, धारणा शक्ति, बुद्धि बल, हर्ष-प्रसन्नता, प्रेमी/प्र्रेमिका (प्रगाढ़ मैत्री) संबंधी विचार किया जाता है। कुछ मनीषी नवम भाव को पिता भाव मान पंचम भाव से पिता का भाग्य (सफलता/ उन्नति) जानने का प्रयास करते हैं तो अन्य मनीषी शत्रु व रोग नाश का विचार (षष्ठम से द्वादश होने के कारण) पंचम भाव से करते हैं। इसी पंचम भाव से सट्टा, लाॅटरी द्वारा धन प्राप्ति का भी ज्ञान होता है। पंचम भाव में राहु/केतु की स्थिति हो तथा पंचमेश बली, शुभग्रह युक्त/दृष्ट हो तो पंचमेश की दशा/भुक्ति में अनायास अनार्जित धन (रेस, लाटरी, शर्त सट्टा से) प्राप्त होता है। श्री भसीन का मत है कि योग कारक कोई भी ग्रह राहु/केतु से संबंध करने पर अपनी दशा/भुक्ति में धन दिया करता है।
षष्ठ भाव
षष्ठ भाव से रोग, ऋण, शत्रु व संघर्ष का विचार किया जाता है। षष्ठेश अपनी दशा अन्तर्दशा में प्रायः रोग व शत्रु भय दिया करता है। यदि दशानाथ से षष्ठमस्थ ग्रह की अन्तर्दशा (भुक्ति) हो अथवा दशानाथ के नैसर्गिक शत्रु की भुक्ति हो तो भी अनिष्ट व पाप फल मिला करता है। यदि भुक्ति नाथ (अन्तर्दशा वाला ग्रह) दशानाथ के साथ ही लग्नेश का भी शत्रु तथा दशानाथ से षष्ठ/अष्टम भाव में हो तो अधिक हानि व कष्ट मिलता है। संक्षेप में दशानाथ का शत्रु या दशानाथ से षष्ठ स्थान में स्थित ग्रह अथवा लग्न से षष्ठ भाव का स्वामी ग्रह (षष्ठेश) अपनी भुक्ति में रोग, शत्रु भय, व पदच्युति दिया करता है। परम स्नेही व इष्टजन भी शत्रु बन जाते हैं।
सप्तम भाव
सप्तम भाव से प्रायः विवाह व व्यापारिक साझेदारी या विदेश यात्रा या सम्बन्ध का विचार किया जाता है। पति/पत्नी का रंग-रुप, चरित्र, स्वभाव, सामाजिक प्रभाव, विवाह कब, ससुराल कैसा, दांपत्य सुख का विचार सप्तम भाव से ही होता है। सप्तम भाव में शनि की राशि, स्थिति/दृष्टि विवाह में विलंब करती है तो बुध की राशि (मिथुन व कन्या) शीघ्र विवाह में सहायक होती है। सप्तमेश की दशा/भुक्ति, सप्तम भाव के कारक शुक्र की दशा या भुक्ति में विवाह योग होता है। कुछ मनीषी शुक्र के साथ गुरु की दशा/भुक्ति गोचर गुरु की सप्तम/सप्तमेश से युति/दृष्टि होने पर विवाह की बात कहते हैं।
अष्टम भाव
अष्टम भाव को जीवन की पूर्णता, आयुष्य, मृत्यु, अपमान व मृतक धन का प्रतीक मानते हैं। अष्टमेश की दशा मृत्यु देने में समर्थ होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार लग्न, सूर्य अथवा चंद्रमा से अष्टम भाव का स्वामी अपनी दशा/भुक्ति में मृत्यु दे सकती है। देव केरल कार के विचार से तीन लग्नों में अष्टमेश की दशा/भुक्ति के साथ ही यदि गोचर का शनि अष्टमेश के नवांश के स्वामी की राशि में स्थिति/दृष्टि जातक को मृत्यु दे सकती है। यदि अष्टमेश पापी होकर लग्नस्थ हो तथा लग्न शुभ ग्रह की युति/दृष्टि से वंचित हो तो अष्टमेश की दशा/भुक्ति में देह कष्ट व देह की हानि करता है। इसके विपरीत अष्टमेश बली, शुभ ग्रह युक्त/दृष्ट हो तो जातक दीर्घायु होता है। लग्नेश अष्टमेश यदि दोनों ही ग्रह बली हांे तो जातक स्वस्थ व दीर्घायु होता है।
नवम भाव
नवम भाव को भाग्य भाव कहा जाता है। प्राच्यग्रंथों में इस भाव को धर्म भाव मात्र कहा गया है यों भी भाग्य पुण्य कर्म का फल ही तो है। भाग्य का प्रयोग नियति अथवा दैवी कृपा के रुप में होता है। यथा ठेले वाला, ट्रक चालक, टैक्सी ड्राइवर, कुली कबाड़ी सरीखे व्यवसाय को नियति से जोड़ दिया जाता है। अतः व्यवसाय व जीविका का विचार भाग्य भाव से किया जाता है। इसी के साथ दैवी अनुग्रह, किस्मत, तकदीर, भाग्य, आशा व योग्यता से अधिक फल की प्राप्ति भी नवम भाव से जानी जाती है। नवमेश की दशा/भुक्ति में प्रायः भाग्योदय, पदोन्नति, धन, मान, सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। यदि नवमेश पापी हो या दशानाथ से भुक्तिनाथ पाप ग्रह नवमस्थ हो तो दुर्भाग्य, दैन्य, दःुख व अपमान मिलता है। जातक को मिथ्या कलंक व अपयश का भागी होना पड़ता है। नवम भाव से पुत्र का पुत्र या पौत्र तथा संतान के बुद्धि बल का भी विचार किया जाता है।
दशम भाव
दशम भाव की प्राचीन विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा गायी है। संत तुलसीदास की बड़ी स्पष्ट घोषणा है ’’कर्म प्रधान विश्व करि रखा’’ जो जस करहिं, सो तस फल चाखा’’अर्थात उस परमात्मा ने ये संसार कर्म प्रधान (कर्म पर आधारित) बनाया है, जो जैसा करता है उस को वैसा ही फल मिलता है। ज्योतिषीय जन्मकुंडली से अधिक ये तथ्य भला कौन जान सका है। इसमें नवम स्थान धर्म, दशम कर्म तो उसके तुरंत बाद एकादश स्थान लाभ का होता है। जन्मांग की मानो स्पष्ट घोषणा है कि धर्म पर आधारित जन कल्याण व परोपकार के कार्य करने से ही सच्चे लाभ की प्राप्ति होती है। वही जन्म जन्मान्तर से संसार में भटकते जीव की सच्ची कमाई है।
प्राचीन मनीषियों के विचार से सूर्य, मंगल, शनि, राहु केतु सरीखे पाप ग्रह भी बली होकर (शुभ दृष्ट/युत; स्वक्षेत्री/मित्र क्षेत्री) दशमस्थ होने से जनकल्याण के कार्य (यज्ञकर्म) कराते हैं। जातक जनता का संरक्षक व पालन कर्ता होता है। दशमेश शुभ ग्रह हो, शुभ दृष्ट/युत हो तो निश्चय ही अपनी दशा, अन्तर्दशा में उन्नति, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व वैभव देगा।
लाभ स्थानः लग्न से एकादश भाव, लाभ स्थान या आय भाव के नाम से प्रसिद्ध है। लाभ स्थान को त्रिषडय (तीन, छः व ग्यारह) भाव मान कर दोष पूर्ण तथा निंदित भाव भी कहा गया है। अनुभव में यही आया है कि लाभेश की दशा/भुक्ति धन संबंधी शुभ फल देती है, विविध स्रोत से धन लाभ होता है, किन्तु देह कष्ट व मानसिक पीड़ा भी शायद कुछ बढ़ जाती है। मन में चिंता, क्लेश, परिवार में तनाव अशान्ति होने के कारण ही कदाचित इसे अनिष्ठ/पाप दशा माना गया है।
एकादश भाव
शरीर के लिये प्रायः कष्टदायी होता है व एकादशेश की दशा/भुक्ति भले ही धन का लाभ दे, किंतु देह व स्वास्थ्य की हानि करता है। यदि लाभेश की दशा में दशानाथ व लग्नेश के शत्रु की भुक्ति (अन्तर्दशा) हो तब महान् विपत्ति व संकट की स्थिति बन जाती है। एकादश भाव माता के लिये मृत्यु स्थान है (ये चतुर्थ भाव से अष्टम भाव जो है) अतः लाभेश की दशा/भुक्ति माता के लिये कष्टप्रद या मृत्यु देने वाली हो सकती है। लाभेश की दशा व भुक्ति काल में यदि गोचर का शनि एकादश भाव में युति/दृष्टि करे तो माता की मृत्यु होना संभव है।
द्वादश भाव
द्वादश भाव से व्यय, हानि, विनाश का विचार किया जाता है। ये त्रिक भाव का अंग होने से अशुभ माना गया है, किंतु अन्य मनीषियों ने इसे भोग, वैभव व ऐश्वर्य का प्रतीक बताया है। महर्षि पराशर के विचार से द्वितीय व द्वादश भाव के स्वामी सम होते हैं तथा अपनी अन्य राशि के शुभत्व बल (शुभ ग्रह की दृष्टि/युति) के अनुसार दशा फल देते हंै। व्ययेश जिस भाव में हो, जिस ग्रह से युक्त/दृष्ट हो प्रायः उसका फल भी अपनी दशा/भुक्ति में दे दिया करता है। द्वादश भाव के स्वामी की दशा में शुभ/योगकारक ग्रह की भुक्ति में सुख, भोग, वैभव, समृद्धि बढ़ेगी ये बात निसंकोच कही जा सकती है। शुभ ग्रह के गोचर में द्वादश भाव पर युति/दृष्टि निश्चय ही जातक को उदार बनाकर दान, धर्म व परोपकार पर धन व्यय कराता है।
भावगत ग्रह की दिशा
लग्न में स्थित- ग्रह की दशा में मनुष्य को देह सुख, स्वास्थ्य, आरोग्य लाभ होता है। मन में उत्साह, उमंग व सुख, संतोष की प्राप्ति होती है। धन व वैभव मिलता है।
धन भावस्थ- ग्रह की दशा में उत्तम भोजन की प्राप्ति हो। स्त्री, पुत्र व परिवार का सुख मिले। विद्या, वाणी की कुशलता तथा धन की वृद्धि होती है। घर में मंगल कार्य होते हैं।
तीसरा भावार्थ - ग्रह में भाई का सुख, साहस, पराक्रम व मन, बुद्धि में धीरज बढ़ता है। धन, वस्त्र, स्वर्णाभूषण की प्राप्ति व सुख/सफलता मिलती है।
चतुर्थ भावरथ- ग्रह की दशा में भूमि, भवन, संपदा व वाहन सुख की प्राप्ति होती है। धन, आरोग्य, खाने पहनने का सुख, भाईबंधु व मित्रों से सुख मिलता है।
पंचम भावार्थ- ग्रह की दशा में स्त्री, पुत्र एवं मित्रों का सुुख व सहयोग मिले। विद्या, बुद्धि, यश - प्रतिष्ठा की वृद्धि, स्वास्थ्य व पराक्रम जनित सुख मिलता है।
षष्ठ भावरथ- ग्रह की दशा में राजा, चोर, अग्नि, विष या शस्त्र से भय होता है। रोग बढ़ने की संभावना होती है। रोग, ऋण, शत्रु एवं मुकदमा से चिन्ता, परेशानी होती है।
सप्तमस्थ- ग्रह की दशा में स्त्री-पुत्र का लाभ, परिवार सुख, धन, वाहन व संपत्ति की वृद्धि, राज सम्मान व यश की प्राप्ति हेाती है। विवाह का योग बनता है।
अष्टमस्थ- ग्रह की दशा में कार्यालय, आवास या पद्वी का नाश, महान दुख, बंधु-बाधवों को कष्ट, धन नाश, दरिद्रता, अन्न में अरुचि, द्वेष भाव में वृद्धि व शत्रु से भय, अपयश, कलंक व अपमान भुगतना पड़े।
नवमस्थ- ग्रह की दशा में पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, भूमि, संपदा की वृद्धि व सुख मिले।
दशमस्थ- ग्रह की दशा में पदोन्नति, मान-प्रतिष्ठा, स्त्री, पुत्र का सुख, सत्कार्य-सत्संग, सुख एवं वैभव की प्राप्ति होती है।
लाभस्थ- ग्रह की दशा में स्त्री, पुत्र का लाभ, बंधु बांधवों का सुख, राजसम्मान, धन वस्त्र व सुख साधन की प्राप्ति होती है। संतजन की कृपा मिलती है।
व्यय भावस्थ- ग्रह की दशा में अकर्मण्यता, आलस्य, शरीर में रोग, पीड़ा, दुःख, दरिद्रता, हानि, अपव्यय एवं असफलता जनित क्लेश होता है।

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