Thursday, 19 May 2016

प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता के ज्योतिष्य मन्त्र

मानव के समस्त कार्य और व्यवसाय को संचालित करने मेंं नेत्रों की भूमिका जिस प्रकार अग्रगण्य मानी गई है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान, विज्ञान विद्या के क्षेत्र मेंं ज्योतिष विज्ञान दृष्टि का कार्य करता है। वेदचक्षु: क्लेदम् स्मृतं ज्योतिषम्। ज्योतिष को वेद की आंख कहा गया है। जिस प्रकार वट वृक्ष का समावेष उसके बीज मेंं होता है ठीक उसी प्रकार जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का बीज रूप होता है जातक की जन्मपत्री। जन्मपत्री के पंचम भाव से विद्या का विचार उत्तर भारत मेंं किया जाता है। दक्षिण भारत मेंं चतुर्थ भाव व द्वितीय भाव से विद्या बुद्वि का विचार किया जाता है। द्वितीय भाव धन व वाणी का स्थान है और विद्या को मनीषियों ने धन ही कहा है जिसका कोई हरण नहींं कर सकता है। विद्या एक ऐसा धन है जिसे न कोई छीन सकता है न चोरी कर सकता है। विद्या धन देने से बढ़़ती है। विद्या ज्ञान की जननी है। जीवन को सफल बनाने की दिशा मेंं शिक्षा ही एक उच्च सोपान है जो अज्ञानता के अंधकार से बंधन मुक्त करती है। शिक्षा के बल से ही मानव ने गूढ़ से गूढ़तम (अंधकार) रहस्य से पर्दा उठाया है। आदिकाल से ही मानव को अपना शुभाशुभ भविष्य जानने की उत्कंठा रही है। ज्योतिष विज्ञान इस जिज्ञासा वृत्ति का सहज उत्कर्ष है। जन्मकुंडली का चतुर्थ भाव बुद्वि, पंचम भाव ज्ञान, नवम भाव उच्च शिक्षा की स्थिति को दर्शाता है तो द्वादश भाव की स्थिति जातक को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गमन कराती है। ज्ञात हो कि अष्टम भावस्थ क्रूर ग्रह भी शिक्षा हेतु विदेश वास कराता है। किसी भी परीक्षा मेंं सफलता की कुंजी है छात्र की योग्यता और कठिन परीश्रम। यदि इसके साथ-साथ जन्मकुंडली के ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त हो तो सफलता मिलती ही है। अपने देश मेंं यह आम धारणा बनी है कि सर्विस पाने के लिए ही शिक्षा ग्रहण की जाती है, यह विचार बहुत ही संकीर्ण है। विद्या व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती व संवारती है। वेद पुराण सभी मेंं वर्णित है कि जातक को प्रथम विद्या अध्ययन करना चाहिए तत्तपश्चात् कार्य क्षेत्र मेंं उतरे। शिक्षित व्यक्ति को ही विद्याबल से यश, मान, प्रतिष्ठा स्वत: मिलती चली जाती है। शिक्षा हो अथवा सर्विस सभी जगह व्यक्ति को प्रतियोगिता का सामना करना ही पड़ता है। परीक्षा मेंं सफलता हेतु आवश्यक है लगन, कड़ी मेंहनत व संबंधित विषयों का विशद् गहन अध्ययन। किंतु सारी तैयारियां हो जाने के पश्चात् भी कभी-कभी असफलता ही हाथ लगती है। जैसे
(1) अचानक बीमार पड़ जाना।
(2) परीक्षा भवन मेंं सब कुछ भूल जाना।
(3) परीक्षा से भयभीत होकर पूर्ण निराश होना।
(4) स्वयं के साथ अनायास दुर्घटना घट जाना कि परीक्षा मेंं बैठ ही न सके।
(5) परिवार मेंं अनायास दु:खद घटना घट जाना, जिससे पढऩे से मन उचाट होना आदि अनेक कारणों से परीक्षा मेंं व्यवधान आते हैं जिससे छात्रों को असफलता का मुंह देखना पड़ता है।
ग्रहों का प्रभाव (चंद्र):
चंद्र मन का कारक ग्रह है और परीक्षा मेंं सफलता हेतु मन की एकाग्रता अति आवश्यक है। ज्योतिषिय दृष्टि से यदि चंद्र शुभ, निर्मल, डिग्री आधार पर बलवान हो, किसी शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो व्यक्ति बढ़़ी आसानी से (लगन से) अपने विषय मेंं महारत हासिल करेगा। चंद्र यदि पापाक्रांत हो राहु, शनि, केतु का साथ हो पंचमेंश छठे, आठवें, द्वाद्वश भाव मेंं हो तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। व्यक्ति सदैव चिंताग्रस्त व विकल रहेगा। बुध: बुध बुद्वि, विवेक, वाणी का कारक ग्रह है। बुध गणितिय योग्यता मेंं दक्ष और वाणी को ओजस्वी बनाता है। बुध यदि केंद्र मेंं भद्र योग बनाये। सूर्य के साथ बुधादित्य योग घटित करे, निज राशि मेंं बलवान हो तो व्यक्ति उच्च शिक्षा मेंं सफलता हासिल करता है किंतु यदि बुध नीच, निर्बल, अस्त, व क्रूर ग्रहों के लपेटे मेंं हो तो बुध अपनी शुभता खो देगा। फलत: गणितीय क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र, कम्प्यूटर शिक्षा मेंं असफल हो जाता है। यदि जन्मकुंडली मेंं बुधादित्य-योग, गजकेसरी-योग, सरस्वती-योग, शारदा-योग, हंस-योग, भारती-योग, शारदा लक्ष्मी योग हो तो जातक उच्च शिक्षा अवश्य प्राप्त कर (अच्छे अंक से) सफल होगा। द्वितीय भाव का बुध मधुरभाषी व व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है व बुद्वि बल चतुरता से सफलता की ओर अग्रसर करता है। जबकि पंचम भाव का बुध व्यक्ति को कलाप्रिय व विविध विषयों का जानकार व अपने व्यवहार से दूसरों को वश मेंं करने वाला होता है। गुरु: उच्च स्तरीय ज्ञान-गुरु ही दिलाते हैं। गुरु ज्ञान का विस्तार करते हैं। अत: जन्मकुंडली मेंं गुरु की शुभ स्थिति विद्या क्षेत्र व प्रतियोगी परीक्षाओं मेंं सफलता दिलाती है। गुरु $ शुक्र का समसप्तक योग यदि पंचम व एकादश भाव मेंं बने व केंद्र मेंं शनि, बुध, उच्च का हो तो व्यक्ति कानून की पढ़़ाई मेंं उच्च शिक्षित होगा और शनि गुरु की युति न्यायाधीश बना देगी।
ज्योतिष के आधार पर परीक्षा मेंं असफलता के योग:
(1) यदि चतुर्थेश, छठे, आठवें द्वाद्वश हो तो उच्च शिक्षा मेंं बाधा, पढ़़ाई मेंं मन नहींं लगेगा।
(2) यदि चतुर्थेष निर्बल, अस्त, पाप, व क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो शिक्षा प्राप्ति मेंं बाधा।
(3) यदि द्वितियेश पर चतुर्थ, पंचम भाव पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो या इन भावों ने अपना शुभत्व खो दिया हो तो शिक्षा प्राप्ति मेंं बाधा।
(4) ग्रहण योग बना हो। उक्त स्थानों मेंं या ग्रहणकाल मेंं जन्म हुआ हो तो शिक्षा अधूरी।
(5) गुरु नीच, निर्बल, पापाक्रांत होने सेे उच्च शिक्षा प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।
(6) जन्मकुंडली मेंं केंद्रुम योग हो। शिक्षा मेंं बाधा।
(7) चंद्र के साथ शनि उक्त स्थानों मेंं विष योग बना रहा हो तो पढ़़ाई अवरुद्ध।
(8) कुंडली मेंं क्षीण चंद्र हो तो शिक्षा मेंं बाधा आती है।
(9) बुध नीच, निर्बल, अशुभ हो तो शिक्षा पूर्ण नहीेंं होगी। (10) आत्मकारक ग्रह सूर्य यदि पीडि़त, निर्बल अशुभ प्रभाव मेंं हो तो प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा मेंं ही छात्र का आत्म बल घट जाने से प्रायोगिक (प्रेक्टिकल) परीक्षा मेंं ही घबरा कर घर बैठ जाएगा। उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएगा।
(11) पंचम, द्वितीय, चतुर्थ, व अष्टम मेंं शनि नीच का हो तो शिक्षा अधूरी रहे। त्वरित उपाय करें।
ग्रहयोगों के आधार पर प्रतिस्पर्धा मेंं सफलता:
(1) लग्नेश पंचमेंश चतुर्थेश का संबंध केंद्र या त्रिकोण से बनता हो या इनमेंं स्थान परिर्वतन हो तो सफलता मिलेगी।
(2) कुंडली मेंं कहीं पर भी बुधादित्य योग हो तो सफलता मिलेगी लेकिन बुध दस अंश के ऊपर न हो।
(3) केंद्र मेंं उच्च के गुरु, चंद्र शुक्र, शनि यदि हो तो जातक परीक्षा (प्रतियोगिता) मेंं असफल नहींं होता।
(4) पंचम के स्वामी गुरु हो और दशम भाव के स्वामी शुक्र हो तथा गुरु दशम भाव मेंं शुक्र पंचम भाव मेंं हो तो निश्चित सफलता मिलती है।
(5) लग्नेश बलवान हो। भाग्येश उच्च का होकर केंद्र या त्रिकोण मेंं स्थित हो तो सफलता हर क्षेत्र मेंं मिलती है।
(6) लग्नेश त्रिकोण मेंं धनेश एकादश मेंं तथा पंचम भाव मेंं पंचमेंश की शुभ दृष्टि हो तो जातक विद्वान होता है। प्रतियोगिता मेंं सफलता प्राप्त करता है।
(7) चंद्रगुरु मेंं स्थान परिवर्तन हो चंद्रमा पर गुरु की दृष्टि हो तो सरस्वती योग बनने से ऐसा जातक सभी क्षेत्र मेंं सफल होगा, कहीं भी प्रयास नहींं करना पड़ेगा।
(8) चारों केंद्र स्थान मेंं कहीं से भी गजकेसरी योग बनता हो तो ऐसा बालक प्रतिस्पर्धा मेंं अवश्य सफल होता है।
(9) गुरु लग्न भावस्थ हो और बुध केंद्र मेंं नवमेंश, दशमेंश, एकादशेश से युति कर रहा हो या मेंष लग्न मेंं शुक्र बैठे हो सूर्य शुभ हो और शुक्र पर शुभ-ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसा जातक उच्च स्तरीय प्रशासनिक प्रतियोगिता परीक्षा मेंं सफल होगा ही।
(10) कुंडली मेंं पदमसिंहासन योग úचाई देगा।
(11) पंचमस्थ गुरु जातक को बुद्धिमान बनाता है।
(12) गुरु द्वितियेश हो व गुरु बली सूर्य, शुक्र से दृष्ट हों तो व्याकरण के क्षेत्र मेंं सफलता।
(13) केंद्र या त्रिकोण मेंं गुरु हो, शुक्र व बुध उच्च के हो तो जातक साइन्स विषय मेंं सफलता पाता है।
(14) धनेश बुध उच्च का हो, गुरु लग्न मेंं और शनि आठवें मेंं हो तो विज्ञान क्षेत्र मेंं सफलता मिलेगी।
(15) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, का संबंध बुध, सूर्य, गुरु व शनि इनमेंं से हो तो जातक वाणिज्य संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है।
(16) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, दशम का संबंध सूर्य मंगल चंद्र शनि व राहु से हो तो जातक को चिकित्सा संबंधी विषयों मेंं अपनी शिक्षा पूर्ण करनी चाहिये।
(17) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम व दशम का संबंध सूर्य, मंगल, शनि व शुक्र हो तो जातक इन्जीनियरिंग संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है।
(18) द्वितीय भाव, चतुर्थ भाव, पंचम, नवम, दशम का संबंध सूर्य, बुध, शुक्र, गुरु, ग्रहों से हो तो जातक कला क्षेत्र मेंं अपनी शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है।
(19) द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, स्थान से सूर्य, मंगल, गुरु, चंद्र, शनि, व राहु का संबंध हो तो जातक विज्ञान संबंधी विषय मेंं शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है। समाधान: स्मरण शक्ति मेंं वृद्धि एवं तीव्र बुद्धि के लिए गायत्री यंत्र का लॉकेट पहनें श्री गायत्री वेदों की माता है जो वेद वेदांत, अध्यात्मिक, भौतिक उन्नति व ज्ञान-विज्ञान की दात्री है।
बुद्धि मेंं वृद्धि के उपाए:
(1) बुद्वि के प्रदाता श्रीगणेश जी के निम्न मंत्र का जप 21 बार बालक स्वयं करें। ú ऐं बुद्धिं वर्द्धये चैतन्यं देहित ॠ नम:। बालक के नाम से माता पिता भी कर सकते हैं।
(2) श्रीगणेश चतुर्थी को गणेश पूजन करके 21 दूर्बा श्रीस्फटिक गणेश जी पर श्रीगणेशजी के 21 नामों सहित अर्पण करें और गं गणपतये नम: की एक माला जप करें। एकदन्त महाबुद्वि: सर्व सौभाग्यदायक:। सर्वसिद्धिकरो देवा: गौरीपुत्रो विनायक:।। उक्त मंत्र को नियमित जपे व जिस समय परीक्षा हाल मेंं प्रश्न पत्र हल करने बैठें तब 3 बार इस मंत्र का स्मरण मन ही मन करें।
(3) ‘‘मंत्र ऐं सरस्वतै ऐं नम:’’ सरस्वती की मूर्ति अथवा चित्र या सरस्वती यंत्र के समक्ष उक्त मंत्र जपते हुए अष्टगंध से अपने ललाट पर तिलक लगाएं। पीला पुष्प अर्पण करें।
(4) परीक्षा देने से पूर्व मां अपने बेटे की जीभ मेंं शहद से श्री सरस्वती देवी का बीज मंत्र ऐं लिख दें। बालक को मीठा दही खिलाएं। बालक की स्मरण शक्ति तेज होगी। वाकपटु (श्रेष्ठवक्ता) होगा। बसंत पंचमी के दिन इस प्रयोग को संपन्न करने से बालक बालिका का मन पढ़़ाई मेंं लगता है व परीक्षा मेंं श्रेष्ठ अंक प्राप्त करते हैं।
(5) ‘‘सरस्वत्यै विद्महे ब्रम्हपुत्रयै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्’’ उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंं सफलता हेतु सरस्वती यंत्र का लॉकेट बहुत उपयोगी व लाभदायक है। परीक्षा मेंं अच्छे अंक के लिए अथवा किसी इन्टरव्यु मेंं सफलता प्राप्त करनी हो या शिक्षा से संबंधित कोई भी क्षेत्र हो यह लॉकेट बालक, बालिका के गले मेंं अद्भुत रूप से लाभदायी सिद्व होगा।
(6) ‘‘बुद्विहीन तनु जानिके सुमिरौ पवन कुमार। बल बुद्वि विद्या देहु मोहि, हरहु क्लेश विकार’’ मंगलवार या शनिवार के दिन श्री हनुमान जी के मंदिर मेंं दीप जलाएं व शुद्ध पवित्र मन से एक माला उक्त मंत्र का जप करें। परीक्षाफल निकलने तक यह क्रम बनाए रखें।
(7) विद्या प्रदायक श्री गणपति: जिन घरों मेंं बच्चे विद्या अध्ययन मेंं रुचि नहींं रखते उन्हें अपने अध्ययन कक्ष मेंं टेबल के ऊपर शुभ मुहूर्त मेंं श्री विद्या प्रदायक श्री गणपति की मूर्ति स्थापित करनी चाहिये।
(8) पढऩे की टेबल मेंं मां सरस्वती का फोटो रखें। क्योंकि मां सरस्वती की आराधना जीवन मेंं हमेंंं उच्च शिखर एवं यश प्रतिष्ठा दिलाती है। मां सरस्वती का चित्र ही हमेंंं शिक्षित करता है कि जीवन मेंं यदि विद्या ग्रहण करनी है तो आसन कठोर होना चाहिए। मां के चार हाथों मेंं से दो मेंं वीणा है जो बताती है कि विद्यार्थी जीवन वीणा की तार की तरह होना चाहिये, वीणा के तार को अधिक कसेंगे तो तार टूट जाएंगे और ढीला छोडेंग़े तो सरगम के सुर नहींं निकलेंगे, अत: विद्यार्थियों को अधिक भोजन नहींं करना चाहिए और न अधिक उपवास करना चाहिए। ज्यादा जागना, ज्यादा सोना आपके विद्याभ्यास को बिगाड़ सकता है। एक हाथ मेंं वेद पुस्तक व एक हाथ मेंं माला हमेंंं ज्ञान की ओर प्रेरित करती है। देवी सरस्वती का वाहन मयूर है। हमेंंं सरस्वती का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनका वाहन मयूर बनना है। मीठा, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयतायुक्त संभाषण करना चाहिए। तभी मां सरस्वती हमेंंं अपने वाहन की तरह प्रिय पात्र मानेगी। प्रकृति ने मयूर को कलात्मक व सुसज्जित बनाया है। हमेंंं भी अपनी अभिरुचि परिस्कृत व क्रिया कलाप शालीन रखना चाहिए। सरस्वती अराधना हेतु सरस्वती स्त्रोत का पाठ भी करें।
(9) टेबल लैंप को मेंज के दक्षिण कोने मेंं रखना चाहिए।
(10) अध्ययन कक्ष की दीवारों के रंग गहरे न हों। हल्के हरे सफेद व गुलाबी रंग स्मरण शक्ति को बड़ाते हैं।
(11) दरवाजे के सामने पीठ करके न बैठें।
(12) बीम के नीचे बैठ कर पढ़ाई न करें।
(13) अध्ययन कक्ष के परदे हल्के पीले रंग के हों।
(14) बिस्तर या सोफे मेंं बैठ कर पढ़ाई न करें।
(15) जिनका मन पढ़ाई मेंं नहींं लगता हो वे ध्यानस्थ बगुले का चित्र अध्ययन कक्ष मेंं लगाएं।
(16) उत्तर पूर्व की ओर मुख करके अध्ययन करें।
(17) अध्ययन कक्ष के मध्य भाग को खाली रखें।
(18) अध्ययन कक्ष मेंं पढऩे की मेंज पर जूठे बर्तन कदापि न रखें।
(19) पंचमेंश यदि शुभ प्रभाव मेंं है तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। उदारणार्थ कुंभ लग्न मेंं पंचमेंश बुध है अत: पन्ना की अंगूठी दाएं हाथ की कनिष्ठिका मेंं पहनें, विधि विधान से रत्न को अभिमंत्रित व प्राण प्रतिष्ठित करके ही पहनें।
(20) श्री गणेश ‘‘अथर्व-शीर्ष’’ का पाठ करते रहें। इससे बुद्धिबल व आत्मबल बढ़़ेगा तथा सफलता मिलेगी।
(21) इस मंत्र का जाप सुबह शाम दोनोंं समय करें।
(22) ‘‘गुरु गृह पढऩ गये रघुराई। अल्प काल विद्या सब पाई।।’’ अंाखों के खुलते ही दोनों हाथों की हथेलियों को देखते हुये निम्नलिखित श्लोक का पाठ करें। कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रम्हा प्रभाते करदर्शनम्।।
(23) माता पिता गुरु का आदर करें: उत्थाय मातापितरौ पूर्वमेंवाभिवादयत्। आचार्यश्च ततो नित्यमभिवाद्यो विजानता।। परिवार के वृद्ध व्यक्ति वट वृक्ष की तरह होते हैं। जिनकी स्निग्ध छाया मेंं परिवार के लोग जीवन की थकान मिटाते हैं। जिस प्रकार नदियां अपना जल नहींं पीती, पेढ़ अपना फल स्वयं नहींं खाते, मेंघ अपने लिए जल नहींं बरसाते। ठीक उसी प्रकार सज्जनों गुरुजनों की कृपा वर्षा, परोपकार के लिए होती है। ज्ञान व अनुभव की आभा बिखेरने वाले वृद्धजनों, गुरुजनों व माता-पिता का अनादर (उपेक्षा) न करें। अपितु मनोयोग से सेवा करें।
(24) मां गायत्री की साधना निम्न मंत्र सहित करें: यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्। समस्त-तेजोमय-दिव्य रूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।

Wednesday, 18 May 2016

विश्वास या अंधविश्वास क्या है आपको जाने अपने ग्रहों से -

विश्वास या अंधविश्वास क्या है आपको जाने अपने ग्रहों से -
जिन कार्यो को भाग्य, किसी अज्ञात भय या बिना तर्क के किया जाता है वह अंधविश्वास की सीमा में आते हैं। अतः किसी भी जातक में आस्था या विश्वास कब अन्धविश्वास में बदल जायेगा इसकी गणना उस जातक की कुंडली के नवम भाव से देखा जाता है यदि नवम भाव और तीसरा भाव कमजोर, नीच या क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो तो व्यक्ति परेशानी या हताशा की स्थिति में आस्था से अंधविश्वास की राह में चला जाता है... यदि कोई व्यक्ति जरूरत से ज्यादा अंधविष्वासी हो तो उसके तीसरे तथा नवम स्थान का अंकलन कर उसके अनुरूप उपाय करने से इन अंधविष्वासों से छुटकारा पाया जा सकता है....कालपुरूष की कुंडली में नवम स्थान गुरू का है अतः जगत्गुरू श्रीकृष्ण की उपासना, पूजा तथा दही माखन का दान करने से इस प्रकार के अंधविश्वास से बचा जा सकता है...

Profession through astrology

It is not possible for an embodied soul to remain without work. He who renounces the fruits of action achieves renunciation" The Gita 18:11 We perform our Karmic duties as designed by the supreme power. But by performing the multifarious jobs we fulfil our Karmic obligations. In ancient time profession was destined. Jatak was forced to be in the same profession in which his fore fathers were engaged. But in the modern era, when professions are mushrooming and we all are finding new and varied ways of earning a living, deciding profession is decidedly not an easy exercise for an astrologer. Increasing competition and resultant specialization has opened up new and newer branches of career and vocation, which were unexplored in ancient time. In fact the number of avocations today is so vast and varied, that it is nearly impossible to ascertain, with any degree of accuracy, the exact nature of profession. It, therefore, requires intelligent interpretation of behaviour of planets and their combinations and permutations, as modified according to the present context. The judgement of profession begins with the analysis of 10th house. But practically this has been observed that some more factors are equally important and among them it is necessary to ascertain the intellectual, mental and physical ability of the native, by a careful examination of the strength, or the weakness of the Sun the Moon and Lagna respectively. The position of Mars is equally important. In Skand 10/chapter 47/ Shloka -67 - "our Karmas are desired by HIM, but the vibrations directing the inner self towards Karma are conveyed by Mangal, the planet Mars. When either Moon or Mercury receives a series of evil aspects, particularly those of Rahu and Saturn, one lacks the strength of mind, required to face adverse situations. In broad spectrum Jupiter and Mercury refer to intellectual avocations, Venus to aesthetic professions, Sun, Moon and Mars to economic occupations, Mercury to traders, Saturn to laborious jobs and Rahu/Ketu to routine Workers. But we can not draw any line of distinction between these categories. For instance, a doctor by profession may become a businessman. Therefore in his occupation both intellectual skill as well as economic aspect come in. The general significators in any horoscope are the ascendant, the tenth house, the Sun and the Moon. These signs are respectively known as the Lagna, the Dashama Lagna, the Surya Lagna and the Chandra Lagna. They exercise profound influence on one's life. But eastern as well as western astrologers recommended their consideration and careful judgement for arriving at correct conclusions. Besides these points, the lord of 10th house, the Karaka of 10th house and Mars also play a significant role in establishing the profession. Firstly note which planets are placed in the house, planets aspecting 10th house, the placement of 10th lord in Rasi and Navamsha and it's stellar position, its association and aspects with other planets. Lastly, the Karaka for profession is Sun. But if we are interested in the income from the profession, we must study Jupiter. According to "Jatak Parijata" , the Sun, Mercury, Jupiter and Saturn are the Karaka of different professions. But the question is how to find out the correct karaka of a birth chart, if the native is young and is in a state of utter confusion. The 2nd house and 10th house from Lagna have a control over occupation of the native, whereas the lords of 2nd and 10th signs of the natural zodiac i.e. Venus and Saturn are causative, or Karaka of career. No vocation can be decided by any single planet or it's placement. There is a group of planets whose influence over the planet's association or conjunction may determine one's vocation. Which planet helps to acquire wealth? Which planet is in the 10th house to the Lagna, or Moon? Whoever is stronger, acquisition of wealth will be through father if the planet is Sun, through mother if the planet is Moon, through an enemy if the planet is Mars, through friend if the planet is Mercury, through brother if the planet is Jupiter, through wife if the planet is Venus, through subordinates if the planet is Saturn. There are instances when a person suddenly changes his career from one field to another. This is explained by the fact that there is a special stimulus to certain qualities at certain ages, probably depending upon the directional influences (Dashas and Bhuktis) operating them. One of the abiding curiosities that has intrigued man since times, immemorial is why does a man do what he does? Why is a person inclined towards a particular profession? Why some natives are not satisfied with their jobs? While under same circumstances others enjoy? These whys, very pertinent, very important, can be answered by Vedic astrology. Each action of the native is controlled by the planets. The planetary configuration in a horoscope induces inclination towards a particular occupation. These inclinations fructify in a matching Dasha sequence, supported by transit that comes to pass the appropriate chronological age of that person. A mismatch of these indicators lead to fitting of square pegs in round holes. Connected to these whys is a when. When could a person join a profession and begin to earn money? Vedic astrology has answer to this query also. To answer this "when" the sages have devised a celestial clock- Dasha system. It is this timer which permits planets to cause an act to be performed, as well as it's effects on the performer. The frequent job changes in today's world result from greater opportunities, better information and superior communications. Thus, slight mismatch in Dasha, transit and planets now give stronger indication for a job change than, what it did a few decades earlier. In this the study of Lagna, lagnalord, the 6th house, 6th lord, the 10th house and the 10th lord, To get the measure of level of fructification and duration of career, the strength of planetary influence on the professional houses and planets become critical. Divisional charts give us the measure of planetary strength. From this base level the strength wanes and waxes, increases and decreases , in conformity with the unfolding Dashas. In divisional charts Navamsha chart indicates to us the debilitation of the planet's strength as assessed from the natal chart. Further, we add Dashamamsha chart to the natal and Navamsha chart. During the Dasha periods also, one experiences the results of the star lords. Hindu Astrology gives great importance to Yogas or special combinations, or configuration of planets in horoscope to decide one's profession. Presence of benefic Yogas greatly enhance the merit and status of the person, while bad Yogas bring discredit, obstacles to progress. Astrology works at two levels& the gross and the subtle. At the gross level it is mere desire. The subtle level desires are conditioned by duties and values, resulting in form of Karmas. Synthesising the two, we are made aware of the fact that actions will fructify through the body but not all the seeds will sprout and we also do not know which seed will spring when. In Vedic astrology our endeavour has always been to get astrology it's rightful place, that is the science which harmonieses life by showing the path to achieve the meshing of our desires with our capabilities.

संतान सुख में बाधा: संतानहीनता योग

विवाह के बाद प्रत्येक व्यक्ति ना सिर्फ वंष पंरपरा को बढ़़ाने हेतु अपितु अपनी अभिलाषा तथा सामाजिक जीवन हेतु संतान सुख की कामना करता है। शादी के दो-तीन साल तक संतान का ना होना संभावित माना जाता है किंतु उसके उपरांत सुख का प्राप्त ना होना कष्ट देने लगता है उसमेंं भी यदि संतान सुख मेंं बाधा गर्भपात का हो तो मानसिक संत्रास बहुत ज्यादा हो जाती है। कई बार चिकित्सकीय परामर्ष अनुसार उपाय भी कारगर साबित नहींं होते हैं किंतु ज्योतिष विद्या से संतान सुख मेंं बाधा गर्भपात का कारण ज्ञात किया जा सकता है तथा उस बाधा से निजात पाने हेतु ज्योतिषीय उपाय लाभप्रद होता है। सूर्य, शनि और राहु पृथकता-कारक प्रवृत्ति के होते हैं। मंगल मेंं हिंसक गुण होता है, इसलिए मंगल को विद्यटनकारक ग्रह माना जाता है। यदि सूर्य, शनि या राहु मेंं से किसी एक या एक से अधिक ग्रहों का पंचम या पंचमेंष पर पूरा प्रभाव हो तो गर्भपात की संभावना बनती है। इसके साथ यदि मंगल पंचम भाव, पंचमेंष या बृहस्पति से युक्त या दृष्ट हो तो गर्भपात का होना दिखाई देता है।
संतानहींनता के लिए महर्षि पाराषर ने अनेक कारणों का उल्लेख किया है, जिसमेंं प्रमुख कारण जातक का किसी ना किसी प्रकार से शाप से ग्रस्त होना भी बताया है। यदि जन्मांग मेंं पंचमस्थान का स्वामी शत्रुराषि का हो, छठवे, आठवे या बारहवें भाव मेंं हो या राहु से आक्रांत हो या मंगल की पूर्ण दृष्टि हो तो संतान प्राप्ति मेंं बाधा होती है। यदि संतान बाधाकारक ग्रह सूर्य हो तो पितरों का शाप संतान मेंं बाधा देता है। वहीं यदि चंद्रमा प्रतिबंधक ग्रह हो तो माता या किसी स्त्री को दुख पहुॅचाने के कारण संतानबाधक योग बनता है। यदि मंगल से संतान बाधक हो तो भाईबंधुओं के शाप से संतानसुख मेंं कमी होती है। यदि गुरू संतानहींनता मेंं कारक ग्रह बनता हो तो कुलगुरू के शाप के कारण संतानबाधा होती है। यदि शनि के कारण संतान बाधा हो तो पितरों को दुखी करने के कारण संतान मेंं बाधा होती है तथा राहु के कारण संतान प्राप्ति के मार्ग मेंं बाधा हो तो सर्पदोष के कारण संतानसुख बाधित होता है। इसी प्रकार ग्रहों की युक्ति या ग्रह दशाओं के कारण भी संतान मेंं बाधा या हीनता का कारण बनता हो तो उचित ज्योतिषीय निदान द्वारा संतानहींनता के दुख को दूर किया जा सकता है।

सूर्य का अन्य ग्रहों से परस्पर संबंध

यह जगतपिता है, इसी की शक्ति से समस्त ग्रह चलायमान है, यह आत्मा कारक और पितृ कारक है, पुत्र, राज्य-सम्मान, पद, भाई, शक्ति, दायीं आंख, चिकित्सा, पितरों की आत्मा, शिव और राजनीति का कारक है. मेष राशि मेंं उच्च का एवं तुला मेंं नीच का होता है, चन्द्रमा देव ग्रह है, तथा सूर्य का मित्र है, मंगल भी सूर्य का मित्र है, गुरु सूर्य का परम मित्र है, बुध सूर्य के आसपास रहता है, और सूर्य का मित्र है, शनि सूर्य पुत्र है लेकिन सूर्य का शत्रु है, कारण सूर्य आत्मा है और आत्मा का कोई कार्य नहीं होता है, जबकि शनि कर्म का कारक है, शुक्र का सूर्य के साथ संयोग नहीं हो पाता है, सूर्य गर्मी है और शुक्र रज है, सूर्य की गर्मी से रज जल जाता है, और संतान होने की गुंजायस नहीं रहती है, इसी लिये सूर्य का शत्रु है। राहु विष्णु का विराट रूप है, जिसके अन्दर सम्पूर्ण विश्व खत्म हो रहा है, राहु, सूर्य और चन्द्र दोनों का दुश्मन है, सूर्य के साथ होने पर पिता और पुत्र के बीच धुंआ पैदा कर देता है, और एक दूसरे को समझ नहीं पाने के कारण दोनों ही एक दूसरे से दूर हो जाते है। केतु सूर्य का सम है, और इसे किसी प्रकार की शत्रु या मित्र भावना नहीं है, सूर्य से सम्बन्धित व्यक्ति, पिता, चाचा, पुत्र और ब्रहमा विष्णु महेश आदि को जाना जाता है, आत्मा राज्य, यश, पित्त, दायीं आंख, गुलाबी रंग और तेज का कारक है।
सूर्य और चन्द्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य और चन्द्रमा अगर किसी भाव मेंं एक साथ होते है, तो कारकत्व के अनुसार फल देते है, सूर्य पिता है और चन्द्र यात्रा है, पुत्र को भी यात्रा हो सकती है, एक संतान की उन्नति बाहर होती है।
सूर्य और मंगल का आपसी सम्बन्ध:
मंगल के साथ एक साथ होने पर मंगल की गर्मी और पराक्रम के कारण अभिमान की मात्रा बढ़ जाती है, पिता प्रभावी और शक्ति मान बन जाता है, मन्गल भाई है, इसी लिये एक भाई सदा सहयोग में रहता है, मन्गल रक्त है, इसलिये ही पिता पुत्र को रक्त वाली बीमारिया होती है, एक दूसरे से एक सात और एक बारह मेंं भी यही प्रभाव होता है, स्त्री की कुन्डली मेंं पति प्रभावी होता है, लेकिन उसके ह्रदय मेंं प्रेम अधिक होता है।
सूर्य और बुध का आपसी सम्बन्ध
बुध के साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों ही शिक्षित होते है, समाज मेंं प्रतिष्ठा होती है, जातक के अन्दर वासना अधिक होती है, पिता के पास भूमि भी होती है, और बहिन काफी प्रतिष्ठित परिवार से सम्बन्ध रखती है, व्यापारिक कार्यों के अन्दर पिता पुत्र दोनों ही निपुण होते है, पिता का सम्बन्ध किसी महिला से होता है।
सूर्य और गुरु का आपसी सम्बन्ध:
गुरु के साथ होने पर जीवात्मा का संयोग होता है, जातक का विश्वास ईश्व्वर मेंं अधिक होता है, जातक परिवार के किसी पूर्वज की आत्मा होती है, जातक के अन्दर परोपकार की भावना होती है, जातक के पास आभूषण आदि की अधिकता होती है, पद प्रतिष्ठा के अन्दर आदर मिलता रहता है।
सूर्य और शुक्र का आपसी सम्बन्ध
शुक्र के साथ होने पर मकान और धन की अधिकता होती है, दोनों की युति के चलते संतान की कमी होती है, स्त्री की कुन्डली मेंं यह युति होने पर स्वास्थ्य की कमी मिलती है, शुक्र अस्त हो तो स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पडता है।
सूर्य और शनि का आपसी सम्बन्ध:
शनि के साथ होने पर जातक या पिता के पास सरकार से सम्बन्धित कार्य होते है, पिता के जीवन मेंं जातक के जन्म के समय काफी परेशानी होती है, पिता के रहने तक पुत्र आलसी होता है, और पिता के बाद खुद जातक का पुत्र आलसी हो जाता है, पिता पुत्र के एक साथ रहने पर उन्नति नहीं होती है, वैदिक ज्योतिष मेंं इसे पितृ दोष माना जाता है, जातक को गायत्री के जाप के बाद सफलता मिलने लगती है।
सूर्य और राहु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ राहु का होना भी पितामह के बारे मेंं प्रतिष्ठित होने की बात मालुम होती है, एक पुत्र की पैदायस अनैतिक रूप से भी मानी जाती है, जातक के पास कानून से विरुद्ध काम करने की इच्छायें चला करती है, पिता की मौत दुर्घटना मेंं होती है, या किसी दवाई के रियेक्सन या शराब के कारण होती है, जातक के जन्म के समय पिता को चोट लगती है, जातक को सन्तान भी कठिनाई से मिलती है, पत्नी के अन्दर गुप चुप रूप से सन्तान को प्राप्त करने की लालसा रहती है, पिता के किसी भाई को जातक के जन्म के बाद मौत जैसी स्थिति होती है।
सूर्य और केतु का आपसी सम्बन्ध:
केतु और सूर्य का साथ होने पर जातक और उसका पिता धार्मिक होता है, दोनों के कामों के अन्दर कठिनाई होती है, पिता के पास कुछ इस प्रकार की जमीन होती है, जहां पर खेती नहीं हो सकती है, नाना की लम्बाई अधिक होती है, और पिता के नकारात्मक प्रभाव के कारण जातक का अधिक जीवन नाना के पास ही गुजरता है।
सूर्य चन्द्र और मन्गल का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य चन्द्र और मन्गल के एक साथ होने पर पिता के पास खेती होती है, और उसका काम बागवानी या कृषि से जुडा होता है, पिता का निवास स्थान बदला जाता है, जातक को रक्त विकार भी होता है, माता को पिता के भाई के द्वारा कठिनाई भी होती है, माता या सास को गुस्सा अधिक होता है, एक भाई पहले किसी कार्य से बाहर गया होता है।
सूर्य चन्द्र और बुध का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य चन्द्र बुध का साथ होने पर खेती वाले कामो की ओर इशारा करता है, पिता का सम्बन्ध किसी बाहरी महिला से होता है, एक पुत्र का मन देवी भक्ति मेंं लगा रहता है, और वह अक्सर देवी यात्रा किया करता है, एक पुत्र की विदेश यात्रा भी होती है, पिता जब भी भूमि को बेचता या खरीदता है, तो उसे धोखा ही दिया जाता है।
सूर्य चन्द्र और गुरु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ चन्द्र और गुरु के होने पर जातक का पिता यात्रा वाले कामो के अन्दर लगा रहता है, और अक्सर निवास स्थान का बदलाव हुआ करता है, जातक पिता का आज्ञाकारी होता है, और उसे बिना पिता की आज्ञा के किसी काम मेंं मन नहीं लगता है, जातक का सम्मान विदेशी लोग करते है।
सूर्य चन्द्र और शुक्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ चन्द्र और शुक्र के होने से भी पिता का जीवन दो स्त्रियों के चक्कर मेंं बरबाद होता रहता है, एक स्त्री के द्वारा वह छला जाता है, जातक की एक बहिन की शादी किसी अच्छे घर मेंं होती है, पिता पुत्र के द्वारा कमाया गया धन एक बार जरूर नाश होता है, किसी प्रकार से छला जाता है, जातक की माता के नाम से धन होता है, जमीन भी होती है, मकान भी होता है, मकान पानी के किनारे होता है, या फिर मकान मेंं पानी के फव्वारे आदि होते है, जातक के अन्दर या पिता के अन्दर मधुमेंह की बीमारी होती है।
सूर्य चन्द्र और शनि का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ चन्द्र और शनि होने के कारण एक पुत्र की सेवा विदेश मेंं होती है, पिता का कार्य यात्रा से जुडा होता है, सूर्य पिता है तो शनि कार्य और चन्द्र यात्रा से जुडा माना जाता है, शनि के कारण माता का स्वास्थ खराब रहता है, उसे ठंड या गठिया वाली बीमारिया होती है।
सूर्य चन्द्र और राहु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ चन्द्र और राहु होने से पिता और पुत्र दोनों को ही टीवी देखने और कम्प्यूटर पर चित्रण करने का शौक होता है, फोटोग्राफी का शौक भी होता है, दादा काफी विलासी रहे होते है, उनका जीवन शराब या लोगों की आदतों को समाप्त करने के अन्दर गया होता है, अथवा आयुर्वेद के इलाजो से उन्होने अपना समय ठीक बिताया होता है, एक पुत्र का अनिष्ट माना जाता है, चन्द्र गर्भ होता है, तो राहु मौत का नाम जाना जाता है, राहु चन्द्र मिलकर मुस्लिम महिला से भी लगाव रखते है, पिता का सम्बन्ध किसी विदेशी या मुस्लिम या विजातीय महिला से रहा होता है।
सूर्य चन्द्र और केतु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य चन्द्र केतु के साथ होने पर पितामह एक वैदिक जानकार रहे होते है, नानी भी धार्मिक और वैदिक किताबों के पठन पाठन और प्रवचनों से जुड़ी होती है, माता को कफ की परेशानी होती है, जातक के पास खेती करने वाले या पानी से जुडे अथवा चांदी का काम करने वाले हथियार होते है, वह इन हथियारो की सहायता से इनका काम करना जानता है, चन्द्रमा खेती भी है और आयुर्वेद भी है एक पुत्र को आयुर्वेद या खेती का ज्ञान भी माना जाता है. शहरों मेंं इस काम को पानी के नलों को फिट करने वाला और मीटर की रीडिंग लेने वाले से भी जोड़ा जाता है.सरकारी पाइपलाइन या पानी की टंकी का काम भी इसी ग्रह युति में जोड़ा जाता है।
सूर्य मंगल और चन्द्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ मंगल और चन्द्र के होने से पिता पराक्रमी और जिद्दी स्वभाव का माना जाता है, जातक या पिता के पास पानी की मशीने और खेती करने वाली मशीने भी हो सकती है, जातक पानी का व्यवसाय कर सकता है, जातक के भाई के पास यात्रा वाले काम होते है, जातक या पिता का किसी न किसी प्रकार का सेना या पुलिस से लगाव होता है।
सूर्य मंगल और बुध का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ मन्गल और बुध के होने से तीन भाई का योग होता है, अगर तीनो ग्रह पुरुष राशि मेंं हो तो, सूर्य और मन्गल मित्र है, इसलिये जातक के दो भाई आज्ञाकारी होते है, बुध मन्गल के सामने एजेन्ट बन जाता है, अत: इस प्रकार के कार्य भी हो सकते है, मंगल कठोर और बुध मुलायम होता है, जातक के भाई के साथ किसी प्रकार का धोखा भी हो सकता है।
सूर्य मंगल और गुरु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य मन्गल और गुरु के साथ होने पर जातक का पिता प्रभावशाली होता है, जातक का समाज मेंं स्थान उच्च का होता है, जीवात्मा संयोग भी बन जाता है, सूर्य और गुरु मिलकर जातक को मंत्री वाले काम भी देते है, अगर किसी प्रकार से राज्य या राज्यपरक भाव का मालिक हो, जातक का भाग्योदय उम्र की चौबीसवें साल के बाद चालू हो जाता है, जातक के पिता को अधिकार मेंं काफी कुछ मिलता है, जमीन और जागीरी वाले ठाठ पूर्वजों के जमाने के होते है।
सूर्य मंगल और शुक्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य मन्गल और शुक्र से पिता के पास एक भाई और एक बहिन का संयोग होता है, पिता की सहायतायें एक स्त्री के लिये हुआ करती है, जातक का चाचा अपने बल से पिता का धन प्राप्त करता है, जातक की पत्नी के अन्दर अहम की भावना होती है, और वह अपने को दिखाने की कोशिश करती है, एक बहिन या जातक की पुत्री के पास अकूत धन की आवक होती है, जातक के एक भाई की उन्नति शादी के बाद होती है।
सूर्य मंगल और शनि का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ मंगल और शनि के होने से जातक की सन्तान को कष्ट होता है, पिता के कितने ही दुश्मन होते है, और पिता से हारते भी है, जातक की उन्नति उम्र की तीस साल के बाद होती है, जीवन के अन्दर संघर्ष होता है, और जितने भी अपने सम्बन्धी होते है वे ही हर काम का विरोध करते है, भाई को अनिष्ट होता है, स्थान परिवर्तन समस्याओं के चलते रहना होता रहता है, कार्य कभी भी उंची स्थिति के नहीं हो पाते है, कारण सूर्य दिन का राजा है और शनि रात का राजा है दोनों के मिलने से कार्य केवल सुबह या शाम के रह जाते है, केवल पराक्रम से ही जीवन की गाडी चलती रहती है।
सूर्य मंगल और राहु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य मन्गल के साथ राहु के होने से इन तीनो का योग पिता की कामों मेंं किसी प्रकार की इन्डस्ट्री की बात का इशारा देता है, जातक की एक भाई की दुर्घटना किसी तरह से होती है, जातक का अन्तिम जीवन परेशानी मेंं होता है, पुत्र से जातक को कष्ट होता है, कम्प्यूटर या फोटोग्राफी का काम भी जातक के पास होता है।
सूर्य मंगल और केतु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य मन्गल और केतु के साथ होने से जातक के परिवार मेंं हमेंंशा अनबन रहती है, जातक को कानून का ज्ञान होता है, और जातक का जीवन आनन्द मय नहीं होता है उसका स्वभाव रूखापन लिये होता है, नेतागीरी वाले काम होते है, एक पुत्र को परेशानी ही रहती है, जातक के शरीर मेंं रक्त विकार हुआ करते है।
सूर्य बुध और चन्द्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ बुध और चन्द्रमा की युति होने से पिता का जीवन बुद्धि जीवी कामों मेंं गुजरता है, पिता कार्य के संचालन मेंं माहिर होता है, जातक या जातक का पिता दवाइयों वाले कामों के अन्दर माहिर होते है, चन्द्रमा फल फूल या आयुर्वेद की तरफ भी इशारा करता है, इसलिये बुध व्यापार की तरफ भी इशारा करता है, जातक की शिक्षा मेंं एक बार बाधा जरूर आती है लेकिन वह किसी न किसी प्रकार से अपनी बाधा को दूर कर देता है।
सूर्य बुध और मंगल का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ बुध और मन्गल के होने से जातक के पिता को भूमि का लाभ होता है, जातक की शिक्षा में अवरोध पैदा होता है, जातक के भाइयों के अन्दर आपसी मतभेद होते है, जो आगे चलकर शत्रुता मेंं बदल जाते है।
सूर्य बुध और गुरु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य बुध और गुरु का साथ होने से जातक जवान से ज्ञान वाली बातों का प्रवचन करता है, योग और उपासना का ज्ञानी होता है, पिता को उसके जीवन के आरम्भ में कठिनाइयों का सामना करना पडता है, लेकिन जातक के जन्म के बाद पिता का जीवन सफल होना चालू हो जाता है, जातक का एक भाई लोकप्रिय होता है, पिता को समाज का काम करने में आनन्द आता है और वह अपने को सन्यासी जैसा बना लेता है।
सूर्य बुध और शुक्र का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ बुध और शुक्र के होने से जातक की एक संतान बहुत ही शिक्षित होती है, उसके पास भूमि भवन और सवारी के अच्छे साधन होते है, पिता के जीवन मेंं दलाली बाले काम होते है, वह शेयर या भवन या भूमि की दलाली के बाद काफी धन कमाता है, जातक या जातक के पिता को दो स्त्री या दो पति का सुख होता है, जातक समाज सेवी और स्त्री प्रेमी होता है।
सूर्य बुध और शनि का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य बुध के साथ शनि के होने पर जातक के पिता के साथ सहयोग नहीं होता है, पिता के पास जो भी काम होते है वे सरकारी और बुद्धि से जुड़े होते है, बुद्धि के साथ कर्म का योग होता है, जातक को सरकार से किसी न किसी प्रकार की सहायता मिलती है, राजकीय सेवा मेंं जाने का पूरा पूरा योग होता है।
सूर्य बुध और राहु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य बुध के साथ राहु के होने से जातक एक पिता और पितामह दोनों ही प्रसिद्ध रहे होते है, पिता के पास धन और भूमि भी होती है, लेकिन वह जातक के जन्म के बाद धन को दवाइयों या आकस्मिक हादसों में अथवा शराब आदि मेंं उडाना चालू कर देता है, एयर लाइन्स वाले काम या उनसे सम्बन्धित एजेन्सी वाले काम भी मिलते है, यात्राओं को अरेन्ज करने वाले काम और सडक़ की नाप जोख के काम भी मिलते है, जातक को पैतृक सम्पत्ति कम ही मिल पाती है।
सूर्य बुध और केतु का आपसी सम्बन्ध:
सूर्य के साथ बुध और केतु होने से जातक के मामा का परिवार प्रभावी होता है, पिता या जातक को कोर्ट केशो से और बेकार के प्रत्यारोंपो से कष्ट होता है, पिता के अवैद्य संबन्धों के कारण परिवार मेंं तनाव रहता है, जातक को इन बातो से परेशानी होती है।
जन्म के सूर्य पर ग्रहों का गोचर से प्राप्त असर:
जन्म कुन्डली मेंं स्थापित सूर्य पर समय समय पर जब ग्रह गोचर से विचरण करते है, उसके बाद जो बाते सामने आती है, वे इस प्रकार से है।
* सूर्य का सूर्य के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के सूर्य के साथ गोचर करता है, तो जातक के पिता को बीमारी होती है, और जातक को भी बुखार आदि से परेशानी होती है, दिमाग मेंं उलझने होने से मन खुश नहीं रहता है।
* चन्द्रमा का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब चन्द्रमा गोचर करता है, तो पिता या खुद को अपमान सहन करना पडता है, कोई यात्रा भी हो सकती है।
* मंगल का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब मन्गल गोचर करता है, तो जातक को रक्त विकार वाली बीमारियां हो सकती है, पित्त वाले रोगों का जन्म हो सकता है, भाई को सरकार या समाज की तरफ से कोई न कोई कष्ट होता है।
* बुध का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर बुध जब गोचर करता है, तो पिता या खुद को भूमि का लाभ होता है, नये मित्रो से मिलना होता है, जो भी व्यापारिक कार्य चल रहे होते है उनमें सफलता मिलती है।
* गुरु का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब गुरु गोचर से भ्रमण करता है, तो जातक को किसी महान आत्मा से साक्षात्कार होता है, जीवन की सोची गयी योजनाओं मेंं सफलता का आभास होने लगता है, किसी न किसी प्रकार से यश और पदोन्नति का असर मिलता है, प्रतिष्ठा मेंं भी बढ़ोत्तरी होती है।
* शुक्र का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब शुक्र गोचर करता है, तो जातक को धन की कमी अखरने लगती है, पत्नी की बीमारी या वाहन का खराब होना भी पाया जाता है।
* शनि का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब शनि गोचर करता है, कार्य और व्यापार मेंं असंतोष मिलना चालू हो जाता है, जो भी काम के अन्दर उच्चाधिकारी लोग होते वे अधिकतर अप्रसन्न रहने लगते है, धन का नाश होने लगता है, नाम के पीछे कार्य या किसी आक्षेप से धब्बा लगता है।
* राहु का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य पर जब राहु गोचर से भ्रमण करता है, तो पिता या जातक को माया मोह की भावना जाग्रत होती है, पिता को या पुत्र को चोट लगती है, बुखार या किसी प्रकार का वायरल शरीर मेंं प्रवेश करता है, किसी प्रकार से मीडिया या कम्प्यूटर मेंं अपना नाम कमाने की कोशिश करता है, किसी भी काम का भूत दिमाग मेंं सवार होता है, अक्सर शाम के समय सिर भारी होता है, पिता को या खुद को या तो शराब की लत लगती है, या फिर किसी प्रकार की दवाइयों को खाने का समय चलता है, किसी के प्रेम सम्बन्ध का भूत भी इसी समय मेंं चढता है।
* केतु का सूर्य के साथ गोचर: जन्म के सूर्य के साथ केतु का गोचर होने से जातक के अन्दर नकारात्मकता का प्रभाव बढऩे लगता है, वह काम धन्धा छोड कर बैठ सकता है, मन मेंं साधु बनने की भावना आने लगती है, घर द्वार और संसार से त्याग करने की भावना का उदय होना माना जाता है, हर बात में जातक को प्रवचन करने की आदत हो जाती दाढी और बाल बढ़ाने की आदत हो जाती है, यन्त्र मन्त्र और तन्त्र की तरफ उसका दिमाग आकर्षित होने लगता है।
* सूर्य का अन्य ग्रहों पर गोचर गोचर: इसी प्रकार से सूर्य जब जन्म के अन्य ग्रहों के साथ गोचर करता है, तो मिलने वाले प्रभाव एक माह के लिये माने जाते है।
* सूर्य का चन्द्रमा के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के समय के चन्द्रमा के ऊपर गोचर करता है, तो जातक या जातक के पिता की यात्रायें होती है, और धन की प्राप्तिया होने लगती है, जनता मेंं किसी न किसी प्रकार से नाम का उछाल आता है, और जातक का दिमाग घूमने में अधिक लगता है, सरकार और सरकारी कामो का भूत दिमाग में हमेंंशा घूमा करता है राजनीति वाली बातो से मन ही नहीं भरता है।
* सूर्य का मंगल के साथ गोचर: इसी तरह से सूर्य जब जन्म के मन्गल के ऊपर विचरता है तो जातक का दिमाग जिद्दी होने लगता है, कार्य के स्थान मेंं परेशानिया आने लगती है, पुत्र को चोट लगने की पूरी पूरी सम्भावना होती है, मानसिक तनाव के चलते कोई काम नहीं बन पाता है, स्त्री की राशि में पति को क्रोध की भावना बढऩे लगती है, और पति अपने ऊपर अधिक अभिमान करने लगता है, सरकारी लोगो से दादागीरी वाली बाते भी सामने आने लगती है, अगर जातक किसी प्रकार से पुलिस या मिलट्री के क्षेत्र मेंं है तो कोई सरकारी छापा या रिस्वत का मामला परेशान करता है।
* सूर्य का बुध के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के बुध के ऊपर गोचर करता है तो दोस्त सहायता मेंं आ जाते है, पिता या पुत्र को जमीनी कामो मेंं सफलता मिलने लगती है, पिता या पुत्र के काम बहिन बुआ या बेटी के प्रति होने शुरु होते हैं, दिमाग मेंं व्यापार के प्रति सरकारी विभागों के काम आने लगते है, और इसी बात के लिये सरकार से सम्पर्क वाले काम किये जाते है।
* सूर्य का गुरु के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के गुरु के ऊपर गोचर करता है, तो एक माह के लिये जातक के अन्दर धार्मिकता की भावना का उदय होता है, किसी न किसी प्रकार का यश मिलता है, किसी न किसी प्रकार के धर्म के प्रति राजनीति दिमाग में आने लगती है, परिस्थितियां अगर किसी प्रकार से अनुकूल होती है, तो काम के अन्दर बढ़ोत्तरी और पदोन्नति के आसार बनने लगते है, मित्रो और सरकारी लोगो का उच्च तरीके से मिलन होने लगता है।
* सूर्य का शुक्र के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के शुक्र के ऊपर गोचर करता है तो पिता को धन का लाभ होने लगता है, अविवाहितो के लिये पुरुष वर्ग के लिये सम्बन्धो की राजनीति चलने लगती है, स्त्री वर्ग के लिये आभूषण या जेवरात बनाने वाली बाते सामने आती है, सजावटी वस्तुओं को खरीदने और लोगो को दिखावा करने की बात भी होती है।
* सूर्य का शनि के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के शनि के साथ गोचर करता है, तो पिता के कार्य में किसी व्यक्ति के द्वारा बेकार की कठिनाई पैदा की जाती है, पिता और पुत्र के विचारों मेंं असमानता होने से दोनों के अन्दर तनाव होने लगता है, सरकार से जमीन मकान या कार्य के अन्दर कठिनाई मिलती है, लेबर वाले कामो के अन्दर सरकारी दखल आना चालू हो जाता है, लेबर डिपार्टमेंन्ट या उससे जुडे विभागों के द्वारा लेबरों के प्रति जांच पडताल होने लगती है, मकान का काम सरकारी हस्तक्षेप के कारण रुक जाता है।
* सूर्य का राहु के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के राहु पर विचरण करता है, तो पिता को अपने कामो के अन्दर आलस आना चालू हो जाता है, कार्य के अन्दर असावधानी होने लगती है, और परिणाम के अन्दर दुर्घटना का जन्म होता है, किसी न किसी के मौत या दुर्घटना के समाचार मिलते रहते है, स्वास्थ्य मेंं खराबी होने लगती है, किसी न किसी प्रकार से शमशानी या अस्पताली या किसी भोज में जाने की यात्रा करनी पडती है।
* सूर्य का केतु के साथ गोचर: सूर्य जब जन्म के केतु के साथ गोचर करता है तो जातक के अन्दर धार्मिकता आजाती है, वह जो भी काम करता है, या किसी की सहायता करता है तो उस काम में राजनीति आ जाती है.सूर्य के साथ जब कोई ग्रह बक्री हो जाता है तो इस प्रकार के फल मिलते है, मन्गल के बक्री होने पर उत्साह में कमी आजाती है, शक्ति मेंं निर्बलता मालुम चलने लगती है, पिता का चलता हुआ इलाज किसी न किसी कारण से रुक जाता है, बुध के बक्री होने से शिक्षा का काम रुक जाता है, चलता हुआ व्यापार ठप हो जाता है, किसी से किसी व्यापारिक समझौते पर चलने वाली बात बदल जाती है, गुरु के बक्री होने से अगर संतान पैदा होने वाली है, तो किसी न किसी प्रकार से गर्भपात हो जाता है, सन्तान की इच्छा के लिये यह समय बेकार सा हो जाता है, ह्रदय वाली बीमारियों का जन्म हो जाता है, शुक्र के बक्री होते ही कामवासना की अधिकता होती है।

भगवती भ्रामरी देवी व्रत

शत्रुओं को परास्त करने का व्रत
भगवती भ्रामरी देवी व्रत एक बड़ा ही दिव्य व शत्रुओं का पराभव करने वाला उत्कृष्ट व्रत है। इस व्रत को वर्ष मेंं आने वाली चार नवरात्रियों मेंं से किन्हीं भी नवरात्रियों मेंं किया जा सकता है। भगवती भ्रामरी देवी व्रत मेंं मां दुर्गा की उपासना की तरह ही पूजन किया जाता है। गणेश गौरी कलश व नवग्रहादि देवताओं का पूजन भी पूर्व मेंं ही संपन्न करें। भगवती भ्रामरी देवी का यह स्वरूप अन्तर्जगत (काम-क्रोध, लोभ, मोहादि) एवं बाह्य जगत् के संपूर्ण शत्रुओं का दमन करने मेंं पूर्णतया सक्षम है। भगवती का यह स्वरूप जीव के जीवन के चारों पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्राप्त कराने वाला है। सिंह वाहिनी मां दुर्गा ने शत्रुओं का पराभव करने के लिए ही अपनी इच्छानुसार ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला विग्रह धारण किया है, जो जगत् कल्याणकारी है। जो प्राणी नव दिनों तक नियम-संयम से इस व्रत का भाव सहित पालन करता है, वह निश्चय ही सुखी व समृद्धि से युक्त हो जाता है। इन नव दिनों मेंं क्रमश: दुर्गा सप्तशती, देवी भागवत का पाठ तथा नवार्ण मंत्र या ‘ह्रीं’ मंत्र का श्रद्धानुसार जप व इसी मंत्र से यज्ञ भी करते रहें। यथाशक्ति एक वर्ष से ऊपर व नव वर्ष तक की कन्याओं को क्रमानुसार प्रतिदिन मिष्ठान्नादि भोजन कराते रहें। भ्रामरी देवी के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है। भगवती भ्रामरी देवी की लीला-कथा पूर्व समय की बात है, अरुण नामका एक पराक्रमी दैत्य था। देवताओं से द्वेष रखने वाला वह दानव पाताल मेंं रहता था। उसके मन मेंं देवताओं को जीतने की इच्छा उत्पन्न हो गयी, अत: वह हिमालय पर जाकर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगा। कठिन नियमों का पालन करते हुए उसे हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से प्रचंड अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं, जिससे देवलोक के देवता भी घबरा उठे। वे समझ ही न सके कि यह अकस्मात् क्या हो गया। सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और सारा वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी गायत्री देवी को साथ लेकर हंस पर बैठे और उस स्थान पर गये जहां अरुण दानव तप मेंं स्थित था। उसकी गायत्री-उपासना बढ़़ी तीव्र थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने के लिये कहा। देवी गायत्री तथा ब्रह्माजी का आकाशमंडल मेंं दर्शन करके अरुण दानव अत्यंत प्रसन्न हो गया। वह वहीं भूमि पर गिरकर दंडवत् प्रणाम करने लगा। उसने अनेक प्रकार से स्तुति की और अमर होने का वर मांगा। परंतु ब्रह्माजी ने कहा- ‘वत्स! संसार मेंं जन्म लेने वाला अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा, अत: तुम कोई दूसरा वर मांगो।’ तब अरुण बोला- ‘प्रभो! यदि ऐसी बात है तो मुझे यह वर देने की कृपा करें कि -‘मैं न युद्ध मेंं मरूं, न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरूं, न किसी भी स्त्री या पुरुष से ही मेंरी मृत्यु हो और दो पैर तथा चार पैरों वाला कोई भी प्राणी मुझे न मार सके। साथ ही मुझे ऐसा बल दीजिये कि मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं।’ ‘तथास्तु’ कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गये और इधर अरुण दानव विलक्षण वर प्राप्तकर उन्मत्त हो गया। उसने पाताल से सभी दानवों को बुलाकर विशाल सेना तैयार कर ली और स्वर्ग लोक पर चढ़ाई कर दी। वर के प्रभाव से देवता पराजित हो गये। देवलोक पर अरुण दानव का अधिकार हो गया। वह अपनी माया से अनेक प्रकार के रूप बना लेता था। उसने तपस्या के प्रभाव से इंद्र, सूर्य, चंद्रमा, यम, अग्नि आदि देवताओं का पृथक्-पृथक रूप बना लिया और सब पर शासन करने लगा। देवता भागकर आशुतोष भगवान् शंकर की शरण मेंं गये और अपना कष्ट उन्हें निवेदित किया। उस समय भगवान् शंकर बड़े विचार मेंं पड़ गये। वे सोचने लगे कि ब्रह्माजी से प्राप्त विचित्र वरदान से यह दानव अजेय-सा हो गया है। यह न तो युद्ध मेंं मर सकता है, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, न तो इसे कोई दो पैरवाला मार सकता है, न कोई चार पैरवाला। यह न स्त्री से मर सकता है और न किसी पुरुष से। वे बढ़़ी-चिंता मेंं पड़ गये और उसके वध का उपाय सोचने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई -‘देवताओं! तुम लोग भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करो, वे ही तुम लोगों का कार्य करने मेंं समर्थ हैं। यदि दानवराज अरुण नित्य की गायत्री-उपासना तथा गायत्री-जप से विरत हो जाय तो शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।’ आकाशवाणी सुनकर सभी देवता आश्वस्त हो गये। उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजी को अरुण के पास भेजा ताकि वे उसकी बुद्धि को मोहित कर सकें। बृहस्पतिजी के जाने के बाद देवता भगवती भुवनेश्वरी की आराधना करने लगे। इधर भगवती भुवनेश्वरी की प्रेरणा तथा बृहस्पतिजी के उद्योग से अरुण ने गायत्री-जप करना छोड़ दिया। गायत्री-जप के परित्याग करते ही उसका शरीर निस्तेज हो गया। अपना कार्य सफल हुआ जान बृहस्पति अमरावती लौट आये और इंद्रादि देवताओं को सारा समाचार बताया। पुन: सभी देवता देवी की स्तुति करने लगे। उनकी आराधना से आदि शक्ति जगन्माता प्रसन्न हो गयीं और विलक्षण लीला-विग्रह धारण कर देवताओं के समक्ष प्रकट हो गयीं। उनके श्रीविग्रह से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। असंखय कामदेवों से भी सुंदर उनका सौंदर्य था। उन्होंने रमणीय वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा था और वे नाना प्रकार के भ्रमरों से युक्त पुष्पों की माला से शोभायमान थीं। वे चारों ओर से असंखय भ्रमरों से घिरी हुई थीं। भ्रमर ‘ह्रीं’ इस शब्द को गुनगुना रहे थे। उनकी मु_ी भ्रमरों से भरी हुई थी। उन देवी का दर्शन कर देवता पुन: स्तुति करते हुए कहने लगे- सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली भगवती महाविद्ये! आपको नमस्कार है। भगवती दुर्गे! आप ज्योति:स्वरूपिणी एवं भक्ति से प्राप्य हैं, आपको हमारा नमस्कार है। हे नीलसरस्वती देवि! उग्रतारा, त्रिपुरसुंदरी, पीतांबरा, भैरवी, मातंगी, शाकम्भरी, शिवा, गायत्री, सरस्वती तथा स्वाहा-स्वधा, ये सब आपके ही नाम हैं। हे दयास्वरूपिणी देवि, आपने शुम्भ-निशुम्भ का दलन किया है, रक्तबीज और वृत्रासुर तथा धूम्रलोचन आदि राक्षसों को मारकर संसार को विनाश से बचाया है। हे दयामूर्ते! धर्ममूर्ते! आपको हमारा नमस्कार है। हे देवि! भ्रमरों से वेष्टित होने के कारण आपने ‘भ्रामरी’ नाम से यह लीला-विग्रह धारण किया है। हे भ्रामरी देवि! आपके इस लीलारूप को हम नित्य प्रणाम करते हैं। करूणामयी मां भ्रामरी देवी बोलीं- ‘देवताओं! आप सभी निर्भय हो जायं। ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा करने के लिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। भ्रमरैर्वेष्टिता यस्याद् भ्रामरी या तत: स्मृता॥ तस्यै देव्यै नमो नित्यं नित्यमेंव नमो नम:॥ इस प्रकार बार-बार प्रणाम करते हुए देवताओं ने ब्रह्माजी के वर से अजेय बने हुए अरुण दैत्य से प्राप्त पीड़ा से छुटकारा दिलाने की भ्रामरी देवी से प्रार्थना की। अरुण दानव ने वर मांगा है कि मैं न तो दो पैर वालों से मरूं और न चार पैरवालों से, मेंरा यह भ्रमररूप छ: पैरोंवाला है, इसलिये भ्रमर षटपद भी कहलाता है। उसने वर मांगा है कि मैं न युद्ध मेंं मरूं और न किसी अस्त्र-शस्त्र से। इसीलिये मेंरा यह भ्रमररूप उससे न तो युद्ध करेगा और न अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करेगा। साथ ही उसने मनुष्य, देवता आदि किसी से भी न मरने का वर मांगा है, मेंरा यह भ्रमर रूप न तो मनुष्य है और न देवता ही। देवगणो! इसलिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। अब आप लोग मेंरी लीला देखिये।’ ऐसा कहकर भ्रामरी देवी ने अपने हस्तगत भ्रमरों को तथा अपने चारों ओर स्थित भ्रमरों को भी प्रेरित किया, असंखय भ्रमर ‘ह्रीं-ह्रीं’ करते उस दिशा मेंं चल पड़े, जहां अरुण दानव स्थित था। उन भ्रमरों से त्रैलोक्य व्याप्त हो गया। आकाश, पर्वत शृंग, वृक्ष, वन जहां-तहां भ्रमर ही भ्रमर दृष्टिगोचर होने लगे। भ्रमरों के कारण सूर्य छिप गया। चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। यह भ्रामरी देवी की विचित्र लीला थी। बड़़े ही वेग से उडऩे वाले उन भ्रमरों ने दैत्यों की छाती छेद डाली। वे दैत्यों के शरीर मेंं चिपक गये और उन्हें काटने लगे। तीव्र वेदना से दैत्य छटपटाने लगे। किसी भी अस्त्र शस्त्र से भ्रमरों का निवारण करना संभव नहींं था। अरुण दैत्य ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह भी असमर्थ ही रहा। थोड़े ही समय मेंं जो दैत्य जहां था, वहीं भ्रमरों के काटने से मरकर गिर पड़ा। अरुण दानव का भी यही हाल हुआ। उसके सभी अस्त्र-शस्त्र विफल रहे। देवी ने भ्रामरी-रूप धारण कर ऐसी लीला दिखायी कि ब्रह्माजी के वरदान की भी रक्षा हो गयी और अरुण दैत्य तथा उसकी समूची दानवी सेना का संहार भी हो गया।

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Tuesday, 17 May 2016

नौकरी करवाना और नौकरी करना

नौकरी करवाना और नौकरी करना दो अलग अलग बातें है। जन्म कुन्डली मेंं अगर शनि नीच का है तो नौकरी करवायेगा, और शनि अगर उच्च का है तो नौकरों से काम करवायेगा। तुला का शनि उच्च का होता है और मेंष का शनि नीच का होता है। मेंष राशि से जैसे जैसे शनि तुला राशि की तरफ बढ़ता जाता है उच्चता की ओर अग्रसर होता जाता है, और तुला राशि से शनि जैसे-जैसे आगे जाता है नीच की तरफ बढ़ता जाता है, अपनी-अपनी कुन्डली मेंं देख कर पता किया जा सकता है कि शनि की स्थिति कहां पर है। जिस स्थान पर शनि होता है उस स्थान के साथ शनि अपने से तीसरे स्थान पर, सातवें स्थान पर और दसवें स्थान पर अपना पूरा असर देता है। इसके साथ ही शनि पर राहु-केतु-मंगल अगर असर दे रहे हंै तो शनि के अन्दर इन ग्रहों का भी असर शुरु हो जाता है, मतलब जैसे शनि नौकरी का मालिक है, और शनि वृष राशि का है, वृष राशि धन की राशि है और भौतिक सामान की राशि है, वृष राशि से अपनी खुद की पारिवारिक स्थिति का पता किया जाता है। वृष राशि मेंं शनि नीच का होगा लेकिन उच्चता की तरफ बढ़ता हुआ होगा, इसके प्रभाव से जातक धन और भौतिक सामान के संस्थान के प्रति काम करने के लिये उत्सुक रहेगा, इसके साथ ही शनि की तीसरी निगाह कर्क राशि पर होगी, कर्क राशि चन्द्रमा की राशि है, और कर्क राशि के लिये माता, मन, मकान, पानी, पानी वाली वस्तुयें, चांदी, चावल, जनता और वाहन आदि के बारे मेंं जाना जाता है, तो जातक का ध्यान काम करने के प्रति भौतिक साधनों तथा धन के लिये इन क्षेत्रों मेंं सबसे पहले ध्यान जायेगा। उसके बाद शनि की सातवीं निगाह वृश्चिक राशि पर होगी,यह भी जल की राशि है और मंगल इसका स्वामी है। यह मृत्यु के बाद प्राप्त धन की राशि है, जो सम्पत्ति मौत के बाद प्राप्त होती है उसके बारे मेंं इसी राशि से जाना जाता है। किसी की सम्पत्ति को बेचकर उसके बीच से प्राप्त किये जाने वाले कमीशन की राशि है, तो जातक जब नौकरी करेगा तो उसका ध्यान इन कामों की तरफ भी जायेगा। इसके बाद शनि का असर दसवें स्थान मेंं जायेगा, वृष राशि से दसवीं राशि कुम्भ राशि है, इसका मालिक शनि ही है और अधिकतर मामलों मेंं इसे यूरेनस की राशि भी कहा जाता है। कुम्भ राशि को मित्रों की राशि और बडे भाई की राशि कहा जाता है,जातक का ध्यान उपरोक्त कामों के लिये अपने मित्रों और बड़े भाई की तरफ भी जाता है,अथवा वह इन सबके सहयोग के बिना नौकरी नहीं प्राप्त कर सकता है,यह राशि संचार के साधनों की राशि भी कही जाती है,जातक अपने कार्यों और जीविकोपार्जन के लिये संचार के अच्छे से अच्छे साधनों का प्रयोग भी करेगा। अगर इसी शनि पर मंगल अपना असर देता है तो जातक के अन्दर तकनीकी भाव पैदा हो जायेगा, वह चन्द्रमा की कर्क राशि का प्रयोग मंगल के असर के कारण भवन बनाने और भवनों के लिये सामान बेचने का काम करेगा, वह चन्द्रमा से खेती और मंगल से दवाइयों वाली फसलें पैदा करने का काम करेगा, वह खेती से सम्बन्धित औजारों के प्रति नौकरी करेगा।
इसी तरह से अन्य भावों का विवेचन किया जाता है। शनि के द्वारा नौकरी नहींं दी जाती है तो शनि पर किसी अन्य ग्रह का प्रभाव माना जाता है। अन्य ग्रहों के द्वारा दिये जाने वाले प्रभावों से और शनि की कमजोरी से अगर नौकरी मिलती है तो शनि को मजबूत किया जा सकता है, वैदिक ज्योतिष मेंं तथा लालकिताब ज्योतिष और अन्य प्रकार के ग्रंथों मेंं शनि को बली बनाने के लिये उपाय बताये गये हैं। कई लोग इनको टोटका बताते है कोई जादू कहता है, कोई बेकार की दकियानूसी बातें कहता है,कोई अंधविश्वास की संज्ञा देता है, कोई पंडितों द्वारा लूटने की प्रक्रिया कहता है, जैसा समाज होता है वैसा उदाहरण मिलता है। लेकिन कोई भी खराब बात समाज के अन्दर टिक नहींं सकती है, अगर किसी बात को जबरदस्ती किसी खराब बात को टिकाने की कोशिश की जाती है वह अधिक से अधिक सौ साल टिकेगी, उसके बाद तो पीढ़ी बदलेगी और उस बात को कोई महत्व ही नहींं देगा,अच्छा या बुरा तो एक बच्चा भी समझता है, हमारे से भी बड़े-बड़े विद्वान इस पृथ्वी पर आ चुके है, हमारे से भी बड़े तर्क करने वाले इस धरा पर उत्पन्न हो चुके हैं, अगर ज्योतिष या इसके द्वारा बताये गये कारण गलत होते तो न जाने कब का यह विषय लुप्त हो चुका होता, वैदिक ज्योतिषानुसार समय की गणना आज से 2066साल पहले महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन नगरी से शुरु की थी, और उन्ही के नाम से आज भी विक्रमी संवत चल रहा है, एक भी गणना आज तक गलत नहींं हुयी है, उसी समय पर सूर्य उदय होता है और उसी समय पर सूर्य अस्त होता है, प्रत्येक ग्रह उसी चाल के अनुसार चलता चला जा रहा है, एक सेकेण्ड का फर्क नहींं दिखाई दे रहा है, जो बातें आज से 2066साल पहले लिख दीं गयीं थीं, वे आज भी चल रहीं है, जिन स्थानों के लिये बढऩे और घटने का प्रभाव उस समय बताया गया वह आज भी फलीभूत हो रहा है। तो जब बताये गये कारण और निवारण अपनी जगह पर सही हैं तो हमेंंं भी मानने से मुकरना नहींं चाहिये। मनुष्य अहम के कारण कुछ भी कह सकता है, लेकिन चलती हवा को रोकने का बल मनुष्य के अन्दर नहींं है, जिसने भी इस हवा को रोकने का साहस किया, वैदिक रीति से दूर जाने की कोशिश की वह कभी आबाद नहींं दिखा, वैदिक रूप से जो दूर जाकर अपना जीवन शुरु करने की कोशिश करने लगे थे, आपको लाखों उदाहरण मिल जायेंगे, उनके ही पैदा किये बच्चों ने उन्हें दूर फैंक दिया, और अन्त समय तक उनके प्राण केवल इसी आशा मेंं फंसे रहे कि कब उनका नौनिहाल आकर उनकी खबर लेगा।
नौकरी के लिये शनि के उपाय:
नौकरी का मालिक शनि है लेकिन शनि की युति अगर छठे भाव के मालिक से है और दोनों मिलकर छठे भाव से अपना सम्बन्ध स्थापित किये है तो नौकरी के लिये फलदायी योग होगा, अगर किसी प्रकार से छठे भाव का मालिक अगर क्रूर ग्रह से युति किये है, अथवा राहु केतु या अन्य प्रकार से खराब जगह पर स्थापित है, अथवा नौकरी के भाव का मालिक धन स्थान या लाभ स्थान से सम्बन्ध नहीं रखता है तो नौकरी के लिये फलदायी समय नहींं होगा। आपके पास बार बार नौकरी के बुलावे आते है और आप नौकरी के लिये चुने नहींं जाते है, तो इसमेंं इन कारणों का विचार आपको करना पडेगा:-
(अ) यह कि नौकरी की काबलियत आपके अन्दर है, अगर नहींं होती तो आपको बुलाया नहींं जाता।
(ब) यह कि नौकरी के लिये परीक्षा देने की योग्यता आपके अन्दर है, अगर नहींं होती तो आप सम्बन्धित नौकरी के लिये पास की जाने वाली परीक्षायें ही उत्तीर्ण नहींं कर पाते।
(स) नौकरी के लिये तीन बातें बहुत जरूरी है, पहली वाणी, दूसरी खोजी नजर, और तीसरी जो नौकरी के बारे मेंं इन्टरव्यू आदि ले रहा है उसकी मुखाकृति और हाव भाव से उसके द्वारा प्रकट किये जाने वाले विचारों को उसके पूंछने से पहले समझ जाना, और जब वह पूंछे तो उसके पूंछने के तुरत बाद ही उसका उत्तर दे दे।
(द) वाणी के लिये बुध, खोजी नजर के लिये मन्गल और बात करने से पहले ही समझने के लिये चन्द्रमा।
(य) नौकरी से मिलने वाले लाभ का घर चौथा भाव है, इस भाव के कारकों को समझना भी जरूरी है, चौथे भाव मेंं अगर कोई खराब ग्रह है और नौकरी के भाव के मालिक का दुश्मन ग्रह है तो वह चाह कर भी नौकरी नहींं करने देगा, इसके लिये उसे चौथे भाव से हटाने की क्रिया पहले से ही करनी चाहिये। जैसे अगर मन्गल चौथे भाव में है और नौकरी के भाव का मालिक बुध है तो मन्गल के लिये शहद चार दिन लगातार बहते पानी मेंं बहाना है और अगर शनि चौथे भाव मेंं है, और नौकरी के भाव का मालिक सूर्य है तो चार नारियल लगातार पानी में बहाने होते है, इसी प्रकार से अन्य ग्रहों का उपाय किया जाता है।
ग्रह क्या नौकरी करवाने के लिये मजबूर करता है:
शनि कर्म का दाता है, और केतु कर्म को करवाने के लिये आदेश देता है, लेकिन बिना गुरु के केतु आदेश भी नहीं दे सकता है, गुरु भी तभी आदेश दे सकता है जब उसके पास सूर्य का बल है, और सूर्य का बल भी तभी काम करता है जब मंगल की शक्ति और उसके द्वारा की जाने वाली सुरक्षा उसके पास है, सुरक्षा को भी दिमाग से किया जाता है, अगर सही रूप से किसी सुरक्षा को नियोजित नहीं किया गया है तो कहीं से भी नुकसान हो सकता है, इसके लिये बुध का सहारा लेना पडता है, बुध भी तभी काम करता है जब शुक्र का दिखावा उसके पास होता है, बिना दिखावा के कुछ भी बेकार है, दिखावा भी नियोजित होना जरूरी है, बिना नियोजन के दिखावा भी बेकार है, जैसे कि जंगल के अन्दर बहुत बढिय़ा महल बना दिया जाये तो कुछ ही लोग जानेंगे, उसमें बुध का प्रयोग करने के बाद मीडिया मेंं जोड दिया जाये तो महल को देखने के लिये कितने ही लोग लालियत हो जावेंगे, अगर वहां पर मंगल का प्रयोग नहीं किया है तो लोग जायेंगे और बिना सुरक्षा के देखने के लिये जाने वाले लोग असुरक्षित रहेंगे और उनके द्वारा यह धारण दिमाग मेंं पैदा हो जायेगी कि वहां जाकर कोई फायदा नहीं है वहा तो सुरक्षा ही नहीं है। शुक्र वहां पर आराम के साधन देगा, शुक्र ही वहां आने जाने के साधन देगा, शुक्र से ही आने जाने के साधनों का विवेचन करना पड़ेगा, जैसे राहु शुक्र अगर हवा की राशि मेंं है तो वाहन हवाई जहाज या हेलीकाप्टर होगा, शुक्र अगर शनि के साथ है, और जमीन की राशि मेंं है तो रिक्से से या जानवरों के द्वारा खींचे जाने वाले अथवा घटिया वाहन की तरफ सूचित करेगा। ग्रह कभी भी नौकरी करवाने के लिये मजबूर नहीं करता है, नौकरी तो आलस से की जाती है, आलस के कारण कोई रिस्क नहीं लेना चाहता है, हर आदमी अपनी सुरक्षा से दालरोटी खाना चाहता है, और चाहता है कि वह जो कर रहा है उसके लिये एक नियत सुरक्षा होनी चाहिये, जैसे के आज के युवा सोचते है कि शिक्षा के बाद नौकरी मिल जावे और नौकरी करने के बाद वे अपने भविष्य को सुरक्षित बना लें, जिससे उनके लिये जो भी कमाई है वह निश्चित समय पर उनके पास आ जाये।
यह एक गलत धारणा भी हो सकती और सही भी, जैसे कि हर किसी के अन्दर दिल मजबूत नहीं होता है, चन्द्रमा अगर त्रिक भाव में है तो वह किसी प्रकार से रिस्क लेने मेंं सिवाय घाटे के और कोई बात नहीं सोच पायेगा, किसी के लगनेश अगर नकारात्मक राशि मेंं है तो वह केवल नकारात्मक विचार ही दिमाग मेंं लायेगा। नकारात्मक विचारों को भी सकारात्मक किया जा सकता है, खराब को भी सही तरीके से प्रयोग करने के बाद फायदा लिया जा सकता है, जब गेंहूं को खाने के बाद मल बनाया जा सकता है तो सडे गोबर को भी खाद बनाकर फसल को पैदा किया जा सकता है, जो बिजली करन्ट मारती है और जान लेने के लिये काफी है उसी बिजली को तरीके से प्रयोग करने के बाद सभी सुख सुविधाओं का लाभ लिया जा सकता है, इस तरह के विचार दिमाग मेंं पैदा करने के बाद कुछ से कुछ किया जा सकता है।

जीवन यापन के लिए आप किसका चयन करें नौकरी या व्यवसाय



साधारणतया हम आजीविका के लिए जन्मकुंडली मेंं दशम भाव देखते हैं। छठा भाव नौकरी एवं सेवा का है। उसका कारक ग्रह शनि है। दशम भाव का छठे भाव से संबंध होना नौकरी दर्शाता है। नौकरी मेंं जातक किसी दूसरे के अधीन कार्यरत होता है। लग्न मेंं, अथवा दशम भाव मेंं शनि का होना भी नौकरी दर्शाता है। शनि ग्रह को ‘दास’ एवं शूद्र ग्रह की पदवी दी गयी है। कुंडली मेंं शनि दशम भाव का कारक ग्रह है। शनि ग्रह के बलवान होने की स्थिति मेंं जातक स्वयं मेंहनत करके जीविकोपार्जन करता है।
इसके साथ सप्तम भाव को भी देखते हैं, जो दशम भाव से दशम है और ‘‘भावात-भावम’’ सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। सप्तम भाव से साझेदारी, सहयोग, दैनिक आय तथा यात्रा का निर्धारण करते हैं। व्यापार मेंं कई सहयोगियों की आवश्यकता होती है, चाहे सहयोग, साझेदारों के अलावा कर्मचारी, अथवा नौकर ही क्यों न दें। दशम भाव बलवान होने पर नौकरी तथा सप्तम भाव बलवान होने पर व्यवसाय का चयन करना चाहिए।
अब दशम और सप्तम भाव के कुछ विशेष बिंदुओं को ध्यान से देखेंगे, जो व्यापार एवं नौकरी मेंं महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
दशम भाव: कुंडली मेंं दशम भाव मेंं स्थित मकर राशि के कारक तत्वों मेंं नौकरी संबंधी गुणों की अधिकता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है: मंगल मकर राशि मेंं उच्च का होता है, जो ऊर्जा, क्षमता तथा पुरूषार्थ का प्रतीक है और एक सेवक के लिए आवश्यक है। बृहस्पति मकर राशि मेंं नीच का होता है, जो नेतृत्व गुण का क्षय, धन की अल्पता तथा तेजहीनता का सूचक है। शनि इस राशि का स्वामी भी है। वह शूद्र वर्ण, एकांतप्रिय, शांत स्वभाव वाला है। ये सभी कारकत्व नौकरी एवं सेवा की ओर अग्रसर करते हैं। इसके अलावा दशम भाव का त्रिकोणीय संबंध द्वितीय भाव, षष्ठ भाव से होता है। द्वितीय भाव धन एवं षष्ठ भाव सेवा, अथवा नौकरी दर्शाते हैं। षष्ठ भाव, दशम भाव का भाग्य भाव है। अत: इसको अच्छा होना चाहिए।
सप्तम भाव: कुंडली मेंं सप्तम भाव मेंं स्थित तुला राशि के कारकत्वों मेंं व्यापार संबंधी गुणों की प्रधानता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है- सूर्य, जो न्याय एवं आत्मा का प्रतीक है। उसके नीच होने के कारण व्यक्ति व्यापार मेंं मापदंड मेंं भेद की नीति अपनाता है। शनि उच्च का होने के कारण जातक मेंं दूसरों के श्रम से धनोपार्जन तथा जनता एवं सेवकों से लाभ प्राप्त करने का गुण होता है। शुक्र इस राशि का स्वामी है जो काम, भोग एवं कला का प्रतीक है और ये एक कुशल व्यापारी के गुण है। व्यापार की सफलता के लिए द्वितीय, पंचम, नवम, सप्तम, दशम और एकादश भाव तथा उन भावों मेंं ग्रहों की स्थिति अच्छी होनी चाहिए अन्यथा ऐसा जातक नौकरी करता है।
धन योग: जातक की कुंडली मेंं धन योग की मात्रा देखकर निर्धारित कर सकते हैं कि जातक की पत्री मेंं व्यापार एवं नौकरी का स्तर क्या हो सकता है।
व्यवसाय योग: जन्मपत्री मेंं दशम भाव कर्म का है और नौकरी से संबंधित है तथा सप्तम भाव व्यापार प्रक्रिया तथा साझेदारी व्यवसाय को व्यक्त करता है। वृष, कन्या तथा मकर व्यापार की मुख्य राशियां है। चंद्र, बुध, गुरु तथा राहु व्यापार करने के लिए महत्वपूर्ण ग्रह है। जन्मकुंडली मेंं लग्न, चंद्रमा, द्वितीय, एकादश, दशम, नवम तथा सप्तम भाव का मजबूत होना। लग्न स्वामी के साथ द्वितीय और एकादश के स्वामी का केंद्र या त्रिकोण मेंं होना तथा शुभ ग्रह से दृष्ट होना। मजबूत लग्न स्वामी के साथ द्वितीय या एकादश के स्वामी का बृहस्पति के साथ दशम या सप्तम मेंं होना। पंचम भाव या भावेश का संबंध यदि दशम, दशमेंश से है तो जातक अपनी शिक्षा का उपयोग व्यवसाय मेंं अवश्य करता है। व्यवसाय के संदर्भ मेंं राशियों और ग्रहों की प्रकृति और तत्व को भी ध्यान मेंं रखना होगा। साथ मेंं नक्षत्र भी व्यापार एवं नौकरी के संदर्भ मेंं जानकारी देने मेंं सहयोगी होते हैं। बुद्धिमान ज्योतिषी को ग्रह, योग, महादशा, अंतर्दशा, गोचर के साथ ही देश, काल और परिस्थिति को ध्यान मेंं रखते हुए नौकरी व्यवसाय का निर्धारण करना चाहिए। रोजगार से संबंधित अनिष्ट दूर करने के उपाय यदि दशमेंश 5, 8, 12 भावों मेंं हो तो उस ग्रह से संबंधित रत्न या उपरत्न या उसकी धातु के दो बराबर वजन के टुकड़े लेकर, एक टुकड़े को बहते हुए जल मेंं प्रवाहित करके, दूसरा टुकड़ा अपने पास आजीवन संभाल कर रखें। किसी उग्र देवी या देवता जैसे हनुमान जी, पंचमुखी हनुमान जी, भैरव जी, काली जी, तारा, कालरात्रि, छिन्नमस्ता, भैरवी जी, मां बगलामुखी जी का अनुष्ठान करके उसकी नित्य साधना करें। नवग्रह शांति करवाएं। इसके लिए भगवान दत्तात्रेय जी के तंत्र का उपाय इस प्रकार है: एक हांडी मेंं मदार की जड़, धतूरे, चिरचिटे दूब, बट, पीपल की जड़, आम, भूजर, शमी का पत्ता, घी, दूध, चावल, मूंग, गेहूं, तिल, शहद और में भर कर शनिवार के दिन संध्या काल के समय, पीपल के पेड़ की जड़ मेंं गाड़ देने से समस्त ग्रहों के उपद्रवों का नाश हो जाता है। द्वितीयेश यदि 6, 8, 12 भावों मेंं न हो, तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। दस अंधे व्यक्तियों को भोजन कराने से कष्ट कम हो सकता है। अपने भोजन मेंं से एक रोटी निकाल कर, उसके तीन भाग करके, एक भाग गाय को, दूसरा भाग कुत्ते को और तीसरा भाग कौए को नित्य खिलाएं। केसर खाएं या नित्य हल्दी का तिलक लगाएं। खोये के गोले को ऊपर से काट कर उसमेंं देशी घी और देशी खांड भर कर बाहर सुनसान जगह, जहां चींटी का स्थान हो, उसके समीप जमीन खोद कर उस गोले को इस तरह गाड़ दें कि उसका मुंह खुला रहे, ताकि चींटियां को खाने मेंं असुविधा न हो।

मुख्य द्वार की सही दिशा लाये जीवन में खुशहाली

आपके घर का इंटीरियर से आपके व्यक्तित्व और आपकी पसंद-नापसंद का पाता चलता है | मीठी भावनाओं के रंगों में रंगने व् पसंदीदा चीजों से सजने के कारण घर का हार कोना, जिसे अपने बड़े ही करीने से सजाया है, वह बेजान होते हुए भी जीवंत हो उठता है |
घर की खूबसूरती मेंं उसके मुख्य प्रवेश द्वार का महत्वपूर्ण स्थान होता है, जिसका वास्तु के अनुरूप होना घर मेंं खुशियों के प्रवेश का शुभ संकेत माना जाता है। जिस तरह किसी भी व्यक्ति का खूबसूरत चेहरा आपके मन मेंं उस व्यक्ति के बारे मेंं जानने की उत्सुकता पैदा करता है। ठीक उसी तरह घर का खूबसूरत प्रवेश द्वार आपको घर के भीतर झाँकने का प्रथम निमंत्रण देता है। आगंतुकों को घर मेंं प्रवेश हेतु आकर्षित करने वाले घर के मुख्य प्रवेश द्वार का वास्तुसम्मत होना आपके घर मेंं खुशियों व सकारात्मक ऊर्जा के आगमन का संकेत है।
वास्तुदोष को दूर करने के लिए कई बार हम कमरों के इंटीरियर मेंं फेरबदलकर तरह-तरह के उपाय करते हैं, लेकिन ऐसा करते समय हम घर के सबसे अहम भाग यानी कि घर के मुख्य प्रवेश द्वार के वास्तु पर ध्यान देना भूल जाते हैं, जो कि घर मेंं सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश का मुख्य स्रोत होता है।
घर या ऑफिस मेंं यदि हम खुशहाली लाना चाहते हैं तो सबसे पहले उसके मुख्य द्वार की दिशा और दशा ठीक की जाए। वास्तुशास्त्र मेंं मुख्य द्वार की सही दिशा के कई लाभ बताए गए हैं। वास्तु ने हमेंंं कई ऐसे विकल्प दिए हैं, जिन पर अमल कर हम बगैर तोड?ोड़ व नवीन निर्माण के अपने घर के वास्तुदोष को दूर कर सकते हैं। यहाँ हम आपको जानकारी दे रहे हैं, घर के प्रवेश द्वार के वास्तुदोष के निवारण के कुछ आसान उपायों की।
क्या है इसके पीछे लॉजिक:
वास्तु के अनुसार घर के भीतर व बाहर गंदगी या कूड़ा-कर्कट नहींं होना चाहिए। इससे भवन मेंं नकारात्मक ऊर्जा के रूप मेंं बीमारियों का वास होता है। इसी के साथ ही घर के सामने किसी ओर के घर का मुख्य दरवाजा होना, घर का मुख्य दरवाजा खोलने पर उसका आवाज करना, दरवाजे के ठीक पास अंडरग्राउंड ट्रैंक का होना आदि वास्तु की दृष्टि मेंं शुभ नहींं माना गया है। सभी वास्तुदोषों के निवारण के लिए आप घर के दरवाजों की मरम्मत करवाकर तथा मुख्य द्वार के ऊपर कोई भी माँगलिक धार्मिक चिन्ह लगाकर घर मेंं सकारात्मक ऊर्जा के प्रतिशत को बढ़़ा सकते हैं। यदि हम घर के मुख्य दरवाजे के अन्य दरवाजों से आकार मेंं बड़ा होने के पीछे लॉजिक की बात करें तो इसका लॉजिक घर मेंं अधिक से अधिक रोशनी का प्रवेश होना है, जिसे घर मेंं अंधेरेपन को दूर करने व स्वास्थ्य के लिहाज दोनोंं ही दृष्टि से बेहतर माना जाता है।
मानव शरीर की पांचों ज्ञानेन्द्रियों मेंं से जो महत्ता हमारे मुख की है, वही महत्ता किसी भी भवन के मुख्य प्रवेश द्वार की होती है।
साधारणतया किसी भी भवन मेंं मुख्य रूप से एक या दो द्वार मुख्य द्वारों की श्रेणी के होते हैं जिनमेंं से प्रथम मुख्य द्वार से हम भवन की चारदीवारों मेंं प्रवेश करते हैं। द्वितीय से हम भवन मेंं प्रवेश करते हैं। भवन के मुख्य द्वार का हमारे जीवन से एक घनिष्ठ संबंध है। वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार सकारात्मक दिशा के द्वार गृहस्वामी को लक्ष्मी (संपदा), ऐश्वयज़्, पारिवारिक सुख एवं वैभव प्रदान करते हैं जबकि नकारात्मक मुख्य द्वार जीवन मेंं अनेक समस्याओं को उत्पन्न कर सकते हैं।
जहां तक संभव हो पूवज़् एवं उत्तर मुखी भवन का मुख्य द्वार पूवोज़्त्तर अथाज़्त ईशान कोण मेंं बनाएं। पश्चिम मुखी भवन पश्चिम-उत्तर कोण मेंं व दक्षिण मुखी भवन मेंं द्वार दक्षिण-पूवज़् मेंं होना चाहिए। यदि किसी कारणवश आप उपरोक्त दिशा मेंं मुख्य द्वार का निमाज़्ण न कर सके तो भवन के मुख्य (आंतरिक) ढांचे मेंं प्रवेश के लिए उपरोक्त मेंं से किसी एक दिशा को चुन लेने से भवन के मुख्य द्वार का वास्तुदोष समाप्त हो जाता है। नए भवन के मुख्य द्वार मेंं किसी पुराने भवन की चौखट, दरवाजे या पुरी कड़?ियों की लकड़ी प्रयोग न करें।
मुख्य द्वार का आकार आयताकार ही हो, इसकी आकृति किसी प्रकार के आड़े, तिरछे, न्यून या अधिक कोण न बनाकर सभी कोण समकोण हो। यह त्रिकोण, गोल, वगाकजऱ या बहुभुज की आकृति का न हो।
विशेष ध्यान दें कि कोई भी द्वार, विशेष कर मुख्य द्वार खोलते या बंद करते समय किसी प्रकार की कोई कर्कश ध्वनि पैदा न करें। आजकल बहुमंजिली इमारतों अथवा फ्लैट या अपाटज़्मेंंट सिस्टम ने आवास की समस्या को काफी हद तक हल कर दिया है। जहां तक मुख्य द्वार का संबंध है तो इस विषय को लेकर कई तरह की भ्रांतियां फैल चुकी हैं, क्योंकि ऐसे भवनों मेंं कोई एक या दो मुख्य द्वार न होकर अनेक द्वार होते हैं। पंरतु अपने फ्लैट मेंं अंदर आने वाला आपका दरवाजा ही आपका मुख्य द्वार होगा।
भवन के मुख्य द्वार के सामने कई तरह की नकारात्मक ऊजाए भी विद्यमान हो सकती हैं जिनमेंं हम द्वार बेध या मागज़् बेध कहते हैं। प्राय: सभी द्वार बेध भवन को नकारात्मक ऊजाज़् देते हैं, जैसे घर का ‘टी’ जंक्शन पर होना या गली, कोई बिजली का खंभा, प्रवेश द्वार के बीचोंबीच कोई पेड़, सामने के भवन मेंं बने हुए नुकीले कोने जो आपके द्वार की ओर चुभने जैसी अनुभूति देते हो आदि। इन सबको वास्तु मेंं शूल अथवा विषबाण की संज्ञा की जाती है। वास्तु मेंं घर के मुख्य द्वारा हेतु कुछ महत्वपूर्ण नियम बताए गए हैं, जिनके अनुसार यदि आप अपने घर का मुख्य द्वार बनवाते हैं तो आपके घर मेंं सुख-समृद्धि का वास होता है।
घर के मुख्य प्रवेश द्वार का दरवाजा घर के अन्य दरवाजों की अपेक्षा आकार मेंं बड़ा होना चाहिए। इससे घर मेंं भरपूर मात्रा मेंं रोशनी का प्रवेश हो सके। इसके लिए अन्य खास बाते हैं:
* शुभ फल प्राप्ति हेतु पूर्व या उत्तर दिशा मेंं मुख्य बनवाना चाहिए।
* घर का मुख्य द्वार हमेंंशा दो भागों मेंं खुलने वाला ही बनवाएँ। वास्तु मेंं ऐसे द्वार को शुभ माना गया है।
* घर के मुख्य द्वार के समीप तुलसी का पौधा लगाना वास्तु के अनुसार शुभ फलदायक होता है।
* मकान के मुख्य द्वार पर नींबू या संतरे का पौधा लगाने से घर मेंं संपदा की वृद्घि होती हैं।
क घर के मुख्य द्वार पर बाहर की तरफ पौधे लगायें।
* घर के मुख्य द्वार पर अपनी धार्मिक मान्यतानुसार कोई भी माँगलिक चिन्ह (स्वस्तिक, ú, कलश, क्रॉस आदि) लगाएँ।
* घर का मुख्य दरवाजा दो फाटक वाला तथा भीतर की ओर खुलने वाला होना चाहिए।
* घर का मुख्य दरवाजा खोलने पर उसके पुर्जों मेंं जंग या किसी अन्य वजह से चरमराहट जैसी कोई आवाज नहींं होना चाहिए।
* घर के प्रवेश द्वार पर देहरी होना चाहिए।
* आपके घर का मुख्य प्रवेश द्वार ऐसा होना चाहिए कि उसके ठीक सामने किसी अन्य घर का प्रवेश द्वार न हो।
* घर के मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक पास अंडरग्राउंड टैंक नहींं होना चाहिए।

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इस जगह माँ बनना महिलाओं के लिए अभिशाप: अंधविश्वास

एक औरत के लिए मां बनना दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है। ऐसे समय मेंं गर्भवती महिला के खान-पान का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। क्योंकि एक महिला के पेट मेंं उस समय एक नन्ही जान भी पल रही होती है जो कि बहुत नाजुक है। ऐसे मेंं नन्ही सी जान की सही देखभाल करना भी एक मां की ही जिम्मेंदारी होती है। लेकिन भारत और नेपाल मेंं कुछ ऐसी जगह हैं जहां इस नाजुक समय मेंं महिला को उसका परिवार खुद से दूर रखता है। इतना ही नहींं नवजात बच्चे को भी ये सब सहना पड़ता है। ऐसा सिर्फ एक कुप्रथा के कारण किया जाता है।
आपको सुन कर हैरानी होगी, लेकिन ये सच है कि कुछ जगहों पर महिलाओं को डिलेवरी के दौरान और पीरियड के दौरान अजीबोगरीब हालातों से गुजरना पड़ता है। इस दौरान गर्भवती महिलाओं या लड़कियों को गाय के बाड़े मेंं डाल दिया जाता है। बच्चा जन्म होने के कुछ दिन बाद और पीरियड के पांच दिन तक महिलाओं/लड़कियां बेहद खराब स्थिति का सामना करती हैं।
किसी घर मेंं किसी नन्हे मेंहमान का आगमन होता है उस वह वक्त उस परिवार के लिए किसी जश्न का माहौल होता है। सभी नए मेंहमान के आगमन की खुशियां मना रहे होते है। लेकिन कुछ स्थानों मेंं मां और बच्चे को अपवित्र कहकर घर से कुछ दिनों तक दूर बाड़े या गौशाला मेंं रखा जाता है। जिससे कई बार नन्हे से बच्चे की बीमारियां लगने से मौत हो जाती है।
प्रथा का पालन न करने पर फैलाया जाता है भ्रम:
पीरियड या डिलेवरी के चलते महिलाओं/ लड़कियों को अपवित्र मान लिया जाता है। इसके बाद उन पर कई तरह की पाबंदिया लगा दी जाती हैं। वह घर मेंं नहींं घुस सकतीं। खाना नहींं बना सकतीं और न ही मंदिर जा सकती हैं।
* किसी महिला द्वारा प्रथा को न मानने पर परिवार मेंं मौत हो सकती है।
* पीरियड मेंं फसल को हाथ लगाने पर वो बर्बाद हो जाती है।
* खुद से पानी लेने पर सूखा पड़ता है।
* फल को हाथ लगाने पर वह कभी नहींं पकता।
इस दौरान होता है अत्याचार:
* खाने मेंं सिर्फ नमकीन रोटी या चावल दिए जाते हैं।
* अगस्त मेंं आने वाले ऋषि पंचमी मेंं महिलाएं नहाकर पवित्र होती हैं, साथ ही अपने पापों की माफी भी मांगती हैं।
* गाय के बाड़े मेंं गोबर, बदबू और गंदगी के बीच दिन बिताने पड़ते हैं।
हमारा समाज अब भी कुछ कुरीतियों की वजह से काफी पिछड़ा हुआ है। जो कि काफी शर्मनाक है। यह हमारी जिम्मेंदारी है कि जहां भी इस तरह की कुप्रथाएं हों, वहां उन्हें सच्चाई से अवगत करायें और इसका विरोध करे।

Sunday, 15 May 2016

Date of birth and success in life

In Western Astrology, personality traits and success in life is judged from the location of the Sun in the horoscope, which remains in a sign for 30 days. As lakhs of individuals are born in a month, such reading is of general nature. In contrast, Indian Astrology gives primacy to the Moon which covers one sign (30°) in only two and a quarter days, and completes one round of the Zodiac in approximately 28 days. Hence the assessment of individual character based on Moon is more realistic and dependable.
One cycle of Moon through the Zodiac, or the lunar month, consists of two parts, namely Shukla Paksha(bright half), and Krishna paksha (dark half) Each Paksha- comprises 15 tithis. A tithi is the duration during which Moon travels 12° away from the Sun. For example, on Amavasya tithi the Sun and the Moon have identical longitude. From that position upto 12° is 1st tithi (pratipada) of Shukla Paksha. When Moon reaches 24° it is the end of 2nd tithi (Dwitiya), and so on. Thus tithi is an index of Sun-Moon disposition.
Tithi is also useful in judging future. The addition of the longitudes of Tithi and Lagna counted from Aries 0° yields a ‘sensitive fortunate point in the horoscope for judgement of gains about the house of location. When benefics in transit form favourable aspect to, or transit over, this point the native enjoys good result. Adverse aspect to, and transit of malefic planets over, this point produces unfavourable result. In Western Astrology this point is called Pars Fortuna.
Our ancient Rishis were great visionaries, and through their Divya drishti could look beyond Moon’s position in a sign, and indicate specific characteristics of persons born on each Tithi and also pointed out the important fact that the life pattern follows the phases of the Moon. Though the basic characteristics of the individuals born on the same tithi in both Shukla and Krishna paksha are alike, except for Amavasya and Poornima, those born during Shukla Paksha have the capability to develop their potential to the fullest and rise in life through their own effort. According to Mansagri :meaning, “ A person born in Shukla Paksha is elegant like full Moon, wealthy, industrious, well read in shastras, efficient and learned” : On the contrary, an individual born in Krishna Paksha is :“cruel, harsh in speech, hates women, dull-witted, earns livelihood with the help of others and has a big family.”
It is observed that the culmination of progress in an individual’s life is directly related to the tithi on which the birth takes place in Shukla Paksha from the New Moon till the Full Moon. On the other hand, those born in Krishna paksha seem to have difficulty in adjusting themselves in their environment and subject to other indications in the horoscope, are not as successful. Krishna Paksha people born in wealthy families in many cases end up in poverty or lose their authority and power, unless there are other strong favourable Yogas to sustain them in life.
To elaborate the point further, a person born at the New Moon in a poor family rises slowly and surely through his own efforts to a position of prominence and fame. His progress would extend over his entire life, and at the time of death he would be in a much higher position than at any other previous time In his life. A person born midway between Shukla Pratipada and Poornima would peak at about middle age and start decline from that time till the close of his life. An individual born at Full Moon or a few tithis before it, is quite likely to be born in a wealthy and distinguished family and starts his life full of promise and opportunities, but somehow experiences decline and might fade away into insignificance.
Conversely, persons born in Krishna Paksha immediately after Full Moon show a gradual decline extending over a long period. When the birth takes place half-way between Poornima and Amavasya, this degeneration will culminate at middle age and from that point the person will experience a gradual rise. An individual born just before Amavasya will be frivolous and dull in early years, but near about his youth his life will take a positive turn for the better.
The growth of those born in Shukla Paksha and the decadence and degeneration of those born in Krishna Paksha according to Hinduism is the result of one’s prarabdha (result of deeds of past lives) which is working out in this life, beyond the control of the individual. This is reflected through the location of the Moon at birth. Other planetary position and operation of dasa-bhukti of planets generally corroborate the findings based on birth tithi. In case of Krishna Paksha birth, benefic dasas generally come late in life.

Budh-Aditya Yoga in horoscope

Whereas Sun emits energy, Mercury instills this energy to neurons for the development of brain cells. If Sun is freedom of self, sense of ego and generous traits, Mercury is consciousness, sanctity of existence, sober and wit, wise and wisdom. The conjunction of both Sun and Mercury constitutes a famous, proverbial, philanthropic, prowess and praiseworthy association what is called Budha-Aditya Yoga, an asset of the horoscope under which a native is born. It is synonymous to Bhadra Yoga, (one of Pancha-Mahapurusha yogas) that has been energised.
The legitimacy of this yoga is when it gets extra strength from the sign of own, exaltation or friends such as Aries, Gemini, Cancer, Leo, Virgo, and Saggitarius. Then, it uplifts the life of the native with certainity. If the yoga germinates in sign of debilitation such as Libra or Pisces or it is ruined by the association or aspect of malefics such as Mars, Saturn, Rahu or Ketu, its natural strength is pitiful. It is a general rule of astrology that the Sun is exalted in Aries and debilitated in Libra. Similarly, Mercury is exalted in Virgo and debilitated in Pisces. Therefore, this is apprehensible how Sun-Mercury in Libra, Capricorn and Pisces will enmoure the native what they do in Aries, Gemini, Leo, and Virgo.
Kalyan Verma in Saravali, Baidyanath in Jataka Parijat and Prithuyasas in Horasar give detailed description of this conjunction. All the learned ancient astrologers consider it as a pious, sensible, humorous, instinctive and benevolent yoga in almost all houses of horoscope. Although the houses 6th, 8th and 12th are the places of atrocities, yet if the conjunction Sun-Mercury is disposed in the sign of own or exaltation, the enigma of malefic places is reduced.
If this yoga appears in the ascendant, the native is erudite, talkative, stout body, bold, intelligent and long lived.
The best example of this dictum is the chart of Abrahm Lincoln where Sun-Mercury occupies ascendant and is free from all the malefics. He was a son of poor and illiterate father who could not serve any help to his son. Even then, Abrahm was inspired by inherent energy of harmonious disposition of strong ascendant, Sun-Mercury conjunction and aspect of divine Jupiter on ascendant lord Saturn. As a result his mind was equipped with active, sensible, endurent and humourous brain cells. He studied in the light of lamp posts on road. His dream was to reshape his country with hunkey-dory and bonhomie. One day he sworn in as the president of most powerful country America.
If it is in 4th, (8th or 10th) house, the native is fond of poems(literature), famous, wealthy and has king like qualities. His body may be heavy with unsymmetrical nose.
The yoga in other houses make the native virtuous. However, it is not believed good in 7th house because such a native is sexually weak and may get jail sentence for his unsocial mis-deeds (the native may be a thief, smugler, fraudy, murderer or agonised dictator).
The good and bad aspects of this yoga disposited in 7th house and malafied by the proximity of Mars and aspect of Saturn, appear in the life of Adolf Hitler who started his carear as a house-painter. Mars-Saturn relation is pernicious and cause sudden calamity. Hitler was appointed Chancellor of Germany on 30th Jan. 1933. Earlier, he was a soldier of exorbitant valour and, therefore, was awarded the Iron Cross for bravery and distinguished military service. In 1923 he was arrested and confined to jail because he participated in the abortive Nationalist coup. After having consolidated power he embarked upon schemes to unite all the people of his country to revive Germany great, that lost her honour due to obnoxious shackles imposed on her by the Treaty of Versailles. Although he exceedingly loved his country, yet he could not get name and fame because of his agonised dictatorship and exodus of Yahudis.
The disposition of the Sun-Mercury in 10th house bestows the native name, fame and prosperity all over the word and he enjoys the life like a king provided the conjunction does not appear in debilitated sign.
It is observed that natives bestowed with Budha-Aditya yoga are bold, sincere, efficient, eloquent and erudite. They have an inharent source of energy which engross them to achieve the goals of their life. They have amazing endurance and hence never disheartened or degraded on failure. They augur what they want in their life.
If Sun-Mercury conjunction is affected by aspect or association of either Jupiter or Venus, the person gets spiritual evolution and gets augural traits. Such persons do not have any fear and do not evade from tremors of life because they have stable mind which engross to target of life. Mercury reflects the fifth Principle in us - Manas (eu). When mercury radiates positive rays of thinking and wisdom, the passion of Venus is sublimated completely and the brain is activated to focus the radiations to target. This is the highest position of men's mind (eu) when it gets rid of materialism and divert to get absolute calm and salvation.
If a person has weak mind, ie, weak Mercury, he should improve by taking meditation and some Ayurvedic medicines such as Brahmi and Shankhapushpi.