Saturday, 2 May 2015

माॅ दुर्गा की सातवीं शक्ति "माॅ कालरात्रि "


माॅ दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रम्हाण्ड के सदृष गोल हैं। इनके विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वास-प्रष्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएॅ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ अर्थात् गदहा है। इनकी चार भुजाओं में से दाहिने ओर के उपर की भुजा में वरमुद्रा तथा नीचे की भुजा अभयमुद्रा में है। बायीं ओर की उपर की भुजा में लोहे का काॅटा और नीचे की भुजा में खड्ग है। इनका यह रूप अत्यंत भयानक है किंतु ये सदैव शुभ फल देने वाली हैं अतः इनका एक नाम शुभंकरी भी है।

कालरात्रि के सातवें दिन पूजी जाने वाली इस देवी की साधना से साधक का मन ’सहस्त्रार चक्र’ में स्थित होता है। इनकी उपासना से दानव, दैत्य, भूत-प्रेत आदि भयभीत होकर भाग जाते हैं तथा अग्निभय, जलभय, जंतुभय, शत्रुभय, रात्रिभय आदि कभी नहीं होता। अतः कालरात्रि की साधना से साधक का मन भयरहित होता है। इनके स्मरण मात्र से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।




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माॅ दुर्गा के छठवें स्वरूप "माॅ कात्यायनी"



माॅ दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी देवी हैं। मान्यता है कि जब दानव महिषासुर का अत्याचार बहुत बढ़ गया तब भगवान ब्रम्हा, विष्णु और महेष तीनों ने अपने-अपने तेज का अंष देकर महिषासुर के विनाष के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की इसी कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा।

माॅ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए व्रत की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये व्रत मंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएॅ हैं, जिसमें दाहिनी ओर की उपर की भुजा में अभयमुद्रा नीचे की भुजा वरमुद्रा में है। बायीं ओर की उपर की भुजा में तलवार और नीचे की भुजा में कमलपुष्प सुषोभित है। इनका वाहन सिंह है।

दुर्गा पूजा के छठवें दिन इनके स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ’’आज्ञा चक्र’’ में स्थित होता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी साधना से रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों के विनष्ट करने के लिए माॅ की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है।



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माॅ दुर्गा का दूसरा स्वरूप "माॅ ब्रम्हचारिणी"



माॅ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रम्हचारिणी का है। यहाॅ ‘‘ब्रम्ह’’ शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रम्हचारिणी अर्थात् तप का आचरण करने वाली। ब्रम्हचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिमर्य एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डलु रहता है। अपने पूर्व जन्म में हिमालय घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी। नारद के उपदेष से प्रेरित होकर भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने हेतु दुष्कर तपस्या की थी। जिसमें एक हजार वर्ष तक उन्होंने केवल फल-फूल खाकर व्यतीत किया उसके सौ वर्षो तक केवल शाक पर निर्वाह किया था। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाष के नीचे वर्षा और धूप के कष्ट सहें। तीन हजार वर्ष तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे बेलपत्रों को खाया। कुछ वर्षो तक निर्जल और निराहार तपस्या करती रही। कई हजार वर्ष तक तपस्या करने से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रम्हचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अंत में पितामह ब्रम्हाजी ने आकाषवाणी द्वारा संबोधित किया कि हे देवि, आजतक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की है ऐसी तपस्या तुम्हीं से संभव थी। तुम्हारी मनोकामना सर्ततोभावेत परिपूर्ण होगी। तुम अपने घर वापस आ जाओं तुम्हें भगवान चंद्रमौलि षिवजी पति रूप में प्राप्त होंगे। माॅ दुर्गा का यह दूसरा रूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देनेवाला है। इनकी उपासना से मनुष्य तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार तथा संयम की वृद्धि होती है। माॅ ब्रम्हचारिणी की कृपा से सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। इस दिन साधकों का ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र में स्थित होता है। इन चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।


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माॅ शैलपुत्री



माॅ दुर्गा अपने पहले रूप में ‘‘शैलपुत्री’’ के नाम से जानी जाती हैं, उनका यह नाम पवर्तराज हिमालय की पुत्री होने के कारण है। वृषभ स्थिता दाहिने हाथ में त्रिषूल और बायें हाथ में कमल पुष्प सुषोभित है, यहीं रूप नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा का है। अपने पूर्वजन्म में प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में जनमी प्रथमदुर्गा माॅ का नाम सती था। इनका विवाह शंकरजी से हुआ। एक बार प्रजापति दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवताओं को यज्ञ में शामिल होने का निमंत्रण भेजा किंतु भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमंत्रण नहीं दिया। परंतु पिता के घर पर यज्ञ का आयोजन जान सती ने उस यज्ञ में शामिल होने की जिद्द पकड़ ली। भगवान शंकर ने प्रबल इच्छा जान जान यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। किंतु रूष्ट पिता और बहनों ने सती का निरादर किया साथ ही भगवान शंकरजी के प्रति अनादरपूवर्क अपमानजनक वचन कहें। सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से भर गया। अपने पति की बात ना मानने की गलति तथा दुख से प्रेरित होकर सती ने उसी योगाग्नि द्वारा अपना शरीर भस्म कर लिया। भगवान शंकर को जब दुखद घटना की जानकारी प्राप्त हुई तो अपने गणों को भेजकर यज्ञ का पूर्णतः नाष कर दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जनम में पवर्तराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेकर पुनः शंकरजी से विवाह किया। पवर्तराज की पुत्री के नाम से उनका नाम शैलपुत्री हुआ। नवरात्र के प्रथम दिवस पूजी जाने वाली माता की शक्तियाॅ अनन्त हैं तथा इस पूजा को योगी अपने मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। इस दिन से ही योगसाधना का प्रारंभ होता है।



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एजुकेषन या कैरियर में बाधा हो तो क्या करें


स्कूल षिक्षा तक बहुत अच्छा प्रदर्षन करने वाला अचानक अपने एजुकेषन में गिरावट ले आता है तथा इससे कैरियर में तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही मनोबल भी प्रभावित होता हैं अतः यदि आपके भी उच्च षिक्षा या कैरियर बनाने की उम्र में पढ़ाई प्रभावित हो रही हो या षिक्षा में गिरावट दिखाई दे रही हो तो सर्वप्रथम व्यवहार तथा अपने दैनिक रूटिन पर नजर डालें। इसमें क्या अंतर आया है, उसका निरीक्षण करने के साथ ही अपनी कुंडली किसी विद्धान ज्योतिष से दिखा कर यह पता करें कि क्या आपकी कुंडली में राहु प्रभावकारी है। यदि आपकी कुंडली में राहु दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्यस्थान में हो साथ ही राहु की दषा, अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा चल रही हो तो गणित या फिजिक्स जैसे विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है साथ ही ऐसे लोगों के जीवन में  कल्पनाषक्ति प्रधान हो जाती है। पहली उम्र का असर उस के साथ ही राहु का प्रभावकारी होना एजुकेषन या कैरियर में बाधक हो सकता है। यदि इस प्रकार की बाधा दिखाइ्र दे तो फौरन राहु की शांति के साथ कुंडली के अनुरूप आवष्यक उपाय आजमाने से कैरियर की बाधाएॅ समाप्त होकर अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है।


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उच्च कैरियर तथा आर्थिक समृद्धि प्राप्ति के योग



उच्च कैरियर तथा आर्थिक समृद्धि प्राप्ति के योग -
आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसे अच्छा कैरियर प्राप्त हो तथा उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी जातक के पास नियमित कैरियर के प्रयास में सफलता तथा आय का साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से उच्च षिक्षा तथा धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अतः इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो षिक्षा, धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेष कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अतः चतुर्थेष या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से अध्ययन, सामाजिक स्थिति के साथ धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अतः पंचमेष या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेष के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेष के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है। जन्म कुंडली के अलावा नवांष में भी इन्हीं भाव तथा भावेष की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है।  अतः जीवन में इन पाॅचों भाव एवं भावेष के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेष प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है। अतः जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेष को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है। आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवष्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईष्वर का नाम जप करना चाहिए। कैरियर को बेहतर बनाने के लिए शनिवार का व्रत करें।



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संतानसुख प्राप्ति का समय निर्धारण -



संतानसुख प्राप्ति का समय निर्धारण -
विवाह के उपरांत प्रत्येक परिवार की प्राथमिकता संतान प्राप्ति का समय जानने की होती है। यदि किसी व्यक्ति की विवाह के उपरांत संतान प्राप्ति में विलंब हो तो कई प्रकार की चिंताएॅ सताने लगती है। अतः किसी जातक की कुंडली में यदि पंचमेष पंचम भाव में या लग्नेष के निकट हो तो विवाह के बाद शीघ्र संतान प्राप्ति का योग बनता है। अगर ऐसा ना हो तो संतान प्राप्ति में विलंब होता है। लग्नेष, पंचमेष, बृहस्पति जिस ग्रह के नवांष में होता है, उसकी दषा में, पंचमेष के नवांष के अधिपति की दषा अंतरदषा में या पंचम पर स्थित या दृष्ट ग्रहों की दषा या अंतरदषा में संतानसुख की प्राप्ति होती है। पंचमेष और सप्तमेष के स्फुट जोड़कर जो राषि और अंष आवे उसके नक्षत्र में भी संतानसुख की प्राप्ति के योग बनता है। सर्वप्रथम संतान सुख प्राप्ति का काल निर्धारण उसके उपरांत दषा या अंतरदषा का ज्ञान तथा उसके उपरांत नक्षत्र की जानकारी का संयुक्त होने पर ही संतानसुख की प्राप्ति होने के योग बनते हैं।



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संतान की गलत संगती और आदत



बढ़ते बच्चों की चिंता का एक कारण उनके गलत संगत में पड़कर कैरियर बर्बाद करने के साथ व्यसन या गलत आदतों का विकास होना भी है। दिखावें या शौक से शुरू हुई यह आदत व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसका ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेष अगर छठवे, आठवें या द्वादष स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसका अकेलापन उसे दोस्ती की ओर अग्रेषित करता है। कई बार यह दोस्ती गलत संगत में पड़कर गलत आदतों का षिकार बनता है उसके अलावा लक्ष्य हेतु प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेषन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिपे्रषन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादष भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दषाओं के अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मनःस्थिति को और कमजोर करता है अतः यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अतः व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।




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संतान के लक्ष्य से भटकाव - ज्योतिष कारण और निवारण




अभिभावकों की चिंता का कारण संतान के लक्ष्य से भटकाव - ज्योतिष कारण और निवारण -
आज के आधुनिक युग में जहाॅ सभी प्रकार की सुख-सुविधाएॅ जुटाने का प्रयास हर जातक करता है, वहीं पर उन सुविधाओं के उपयोग से आज की युवा पीढ़ी भटकाव की दिषा में अग्रसर होती जा रही है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं का सुविधाएॅ अपने बच्चों को उपयेाग हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएॅ बच्चों को गलत दिषा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्षन करते रहे हैं वे भी ठीक कैरियर के समय अपने दिषा से भटक कर अपने अध्ययन तथा लक्ष्य से भटकर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। कई बार माता-पिता इन सभी बातों से पूर्णतः अनजान रहते हैं और कई बार जानते हुए भी कोई हल निकालने में असमर्थ होते हैं। सभी इन समस्याओं का दोषारोपण आधुनिक सुविधाओं को देते हुए मूक दर्षक बन रहना चाहते हैं किंतु सच्चाई यह है कि यदि आप थोड़े से ज्योतिष और समय रहते उनके प्रतिकूल असर पर काबू पाने का प्रयास कर उपयुक्त समाधान तलाष लें तो भटकाव से पूर्व ही अपने संतान को सही मार्गदिषा देकर उन्हें उचित निर्णय तथा कैरियर हेतु लक्ष्य मंें बनाये रखने में सक्षम हो सकते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्टानिक्स गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बाते बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवष्यक है। किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दषा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दषा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो उपयुक्त उपाय तथा थोड़े से अनुषासन से अपने संतान के भटकाव पर काबू पाते हुए उसके लक्ष्य के प्रति एकाग्रता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।




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अच्छी शिक्षा तथा कैरियर की प्राप्ति


अच्छी षिक्षा तथा कैरियर की प्राप्ति -
आज कल हर पैरेंटस की दिली तमन्ना होती है कि उनकी संतान उच्च तकनीकी षिक्षा प्राप्त करें, जिससे उसके कैरियर की शुरूआत ही एक अच्छे पैकेज से हो, किंतु सभी इसमें सफलता प्राप्त तो नहीं कर सकते किंतु अपने संतान की कुंडली के ज्योतिषीय विवेचन तथा उचित समाधान कर एक अच्छे कैरियर हेतु प्रयास किया जा सकता है। अतः जाने की क्या आपकी संतान में ऐसे योग हैं। षिक्षा कारक ग्रह गुरू, जोकि तर्कषक्ति तथा गणित जैसे विषयों का कारक ग्रह होता है यदि गुरू की उत्तम स्थिति हो तो संतान की षिक्षा संबंधी चिंता नहीं रहती। सूर्य अनुकूल हो तो अनुशासन तथा जिम्मेदार होेने से भी उन्नति में सहायक होता है। यांत्रिक ज्ञान तथा वाकशक्ति उत्तम होना भी सफलता में सहयोगी हो सकता है, इसके लिए जन्म कुंडली का तीसरा भाव तथा बुध एवं मंगल की स्थिति उत्तम होनी चाहिए। शनि उत्तम या अनुकूल है तो व्यक्ति में कार्यक्षमता अच्छी होगी, जिससे उसके सफलता प्राप्ति के अवसर ज्यादा होंगे। किंतु उच्च ग्रह स्थिति होने के बावजूद यदि गोचर में ग्रह दषाएॅ अनुकूल ना हो तो जातक को सफलता प्राप्त होने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अतः अपने संतान के ग्रह स्थिति के अलावा ग्रह दषाओं का आकलन समय से पूर्व कराया जाकर उनके उचित उपाय करने से एक सफल कैरियर की प्राप्ति संभव है।


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एकादषी व्रत से संतान सुख


एकादषी व्रत से संतान सुख -

फाल्गुन की शुक्लपक्ष की एकादषी को संतान सुख प्राप्ति हेतु व्रत किया जाता है। पद्यपुराण के अनुसार श्री कृष्ण ने इस व्रत का वर्णन युधिष्ठिर से किया था। चराचर प्राणियों सहित त्रिलोक में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है, जो संतान कष्ट से संबंधित दुखों को हर सके। इस दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है। सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने के पष्चात् श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए। सबसे पहले धूप-दीप आदि से भगवान नारायण की अर्चना की जाती है। इसके बाद फल-फूल, नारियल, पान, सुपारी, लौंग, बेर, आंवला आदि व्यक्ति अपनी सामथ्र्य अनुसार भगवान नारायण को अर्पित करते हैं। पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनकर संतान गोपाल स्तोत्र का पाठ करने के पष्चात् फलाहार किया जाता है। इस दिन दीप दान करने का महत्व है। जैसा के इसके नाम से ज्ञात होता है कि जिन व्यक्तियों को संतान होने में बाधाएॅ होती हो अथवा जो व्यक्ति पुत्र प्राप्ति की कामना करते हों, उनके लिए इस एकादषी का व्रत बहुत ही शुभ फलदायक होता है। इसलिए संतान प्राप्ति के लिए इस व्रत को विषेष रूप से करना चाहिए। साथ ही यदि कोई संतान संबंधी कष्ट जैसे संतान के स्वास्थ्य, षिक्षा या अन्य संतान से संबंधित अन्य सुखों को प्राप्त करने का अभिलाषी हो, उसे इस व्रत के करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है।



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संतानहीनता योग- ज्योतिषीय कारण और निवारण



संतानहीनता योग- ज्योतिषीय कारण और निवारण -
संतानहीनता के लिए महर्षि पाराषर ने अनेक कारणों का उल्लेख किया है, जिसमें प्रमुख कारण जातक का किसी ना किसी प्रकार से शाप से ग्रस्त होना भी बताया है। यदि जन्मांग में पंचमस्थान का स्वामी शत्रुराषि का हो, छठवे, आठवे या बारहवें भाव में हो या राहु से आक्रांत हो या मंगल की पूर्ण दृष्टि हो तो संतान प्राप्ति में बाधा होती है। यदि संतान बाधाकारक ग्रह सूर्य हो तो पितरों का शाप संतान में बाधा देता है। वहीं यदि चंद्रमा प्रतिबंधक ग्रह हो तो माता या किसी स्त्री को दुख पहुॅचाने के कारण संतानबाधक योग बनता है। यदि मंगल से संतान बाधक हो तो भाईबंधुओं के शाप से संतानसुख में कमी होती है। यदि गुरू संतानहीनता में कारक ग्रह बनता हो तो कुलगुरू के शाप के कारण संतानबाधा होती है। यदि शनि के कारण संतान बाधा हो तो पितरों को दुखी करने के कारण संतान में बाधा होती है तथा राहु के कारण संतान प्राप्ति के मार्ग में बाधा हो तो सर्पदोष के कारण संतानसुख बाधित होता है। इसी प्रकार ग्रहों की युक्ति या ग्रह दषाओं के कारण भी संतान में बाधा या हीनता का कारण बनता हो तो उचित ज्योतिषीय निदान द्वारा संतानहीनता के दुख को दूर किया जा सकता है। उक्त ग्रह दोष निवारण उपाय के साथ पयोव्रत करना लाभकारी होता है। पयोव्रत का व्रत फाल्गुनमास की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से त्रयोदषी तक किया जाता है। विधिविधान से किया गया व्रत संतानहीनता का दोष दूर कर संतान सुख प्रदान करता है।





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संतानसुख में बाधा-कारण और ज्योतिषीय निवारण



संतानसुख में बाधा-कारण और ज्योतिषीय निवारण -

पिता बनने की आकांक्षा हर व्यक्ति का स्वभावतः रहता है वहीं हर स्त्री के मन मे अलक्षित रूप से मातृत्व के लिए उत्सुकता विद्यमान होती है। यह प्रकृति का सहज रूप है, इसमें कोई अवरोध है तो इसका कारण क्या है और इसका विष्लेषण कई बार चिकित्सकीय परामर्ष द्वारा प्राप्त किया जाना संभव नहीं होता है किंतु ज्योतिषीय आकलन से इसका कारण जाना जा सकता है। चूॅकि ज्योतिष एक सूचना शास्त्र है जिसमें ग्रहों के माध्यम से एक विष्लेषणात्मक संकेत प्राप्त होता है अतः ग्रहों की स्थिति तथा दषाओं के आकलन से कारण जाना जा सकता है। संतान संबंधी ज्ञान कुंडली के पंचम भाव से जाना जाता है अतः पंचम स्थान का स्वामी, पंचमस्थ ग्रह और उनका स्वामीत्व तथा संतानकारक ग्रह बृहस्पति की स्थिति से संतान संबंधी बाधा या विलंब को ज्ञात किया जा सकता है। पंचमेष यदि 6, 8 या 12 भाव में हो तो संतानपक्ष से चिंता का द्योतक होता है। जिसमें संतान का ना होना, बार-बार गर्भपात से संतान की हानि, अल्पायु संतान या संतान होकर स्वास्थ्य या कैरियर की दृष्टि से कष्ट का पता लगाया जा सकता है। पंचम भाव में बृहस्पति हो तो भी उस स्थान की हानि होती है चूॅकि स्थानहानिकरो जीवः गुरू की अपनी स्थान पर हानि का कारक होता है अतः पंचम में गुरू संतान से संबंधी हानि दे सकता है। पंचम भाव पर मंगल की दृष्टि या राहु से आक्रांत होना भी संतान से संबंधित कष्ट देता है। संतान से संबंधित कष्ट से राहत हेतु संतान गोपाल का अनुष्ठान और मंगल का व्रत करना चाहिए।




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तनाव और मोटापा का कारण और निवारण



तनाव मनःस्थिति से उपजा विकार है। मनःस्थिति एवं परिस्थिति के बीच असंतुलन एवं असामंजस्य उत्पन्न होने के कारण तनाव पैदा होता है। तनाव के कारण मन पर गहरी दरार पड़ती है, जिससे कई प्रकार के मनोविकार दिखाई देते हैं, जिसके कारण मन अषांत होना, अस्वस्थता महसूस होने के साथ कई बार तनाव की इस स्थिति में लगातार भूख का अहसास होता है। चूॅकि तनाव में कार्य के प्रति अनिच्छा होने के साथ ही नींद कम होती है अतः इस स्थिति में लगातार भूख का अहसास होने से भोजन या किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ का लगातार सेवन करने के कारण व्यक्ति मोटापा का षिकार होने लगता है। अगर तनाव की दषा में भूख बढ़ गई हो या मोटापा बढ़े तो उस तनाव के कारण उत्पन्न मोटापा को दूर करने हेतु तनाव के कारण कारणों की खोज कर दूर करने हेतु ज्योतिषय निदान लाभकारी उपाय हो सकता है। चूॅकि तनाव के लिए जातक का तृतीयेष भाव या भावेष कारक होता है। अगर तनाव के कारण ओवर इटिंग हो तो इसका कारण जातक के तृतीयेष का षष्ठम, अष्टम या द्वादष स्थान में होने के साथ शनि या शुक्र का लग्नस्थ या चतुर्थ भाव में होकर राहु से पापाक्रंात होने पर या दूसरे या छठवें स्थान से किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करने पर जातक तनाव की स्थिति में ज्यादा भोजन करने लगता है। ऐसी स्थिति में तनाव को उत्पन्न उस ग्रह की शांति तथा उपाय कर तनाव को कम कर मोटापे को दूर किया जा सकता है। अगर तनाव के कारण मोटापा उत्पन्न हो रहा हो तो जातक को ग्रह शांति के साथ नित्य एक माला उॅ नमः भगवते वायुदेवाय का जाप करना चाहिए।



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तनाव और परीक्षा का डर



तनाव  और परीक्षा का डर -

परीक्षा के समय ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की होड़, साथी बच्चों से तुलना, लक्ष्य का पूर्व निर्धारित कर उसके अनुरूप प्रदर्षन तथा इसी प्रकार के कई कारण से परीक्षा के पहले बच्चों के मन में तनाव का कारण बनता है। परीक्षा में अच्छे अंक की प्राप्ति के लिए किया गया तनाव अधिकांषतः नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है क्योंकि तनाव के कारण स्मरणषक्ति कम होती है, जिसके कारण पूर्व में तैयार विषय भी याद नहीं रह जाता, घबराहट के कारण स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है, साथ ही अनिद्रा, सिरदर्द तथा स्टेसहार्मोन के कारण एकाग्रता की कमी से परीक्षा का परिणाम भी विपरीत आता है, जोकि डिप्रेषन का कारण बनता है। अतः परीक्षा के डर के कारण उत्पन्न तनाव को दूर करने हेतु ज्योतिषीय तथ्य का सहारा लिया जा सकता है। जब भी परीक्षा से पहले तनाव के कारण सिरदर्द या अनिद्रा की स्थिति बने तो तृतीयेष ग्रह को शांत करने का उपाय आजमाते हुए चंद्रमा तथा राहु की स्थिति तथा दषाओं एवं अंतरदषाओं का निरीक्षण कर उक्त ग्रहों के लिए उचित मंत्र जाप, दान द्वारा मनःस्थिति पर नियंत्रण किया जा सकता है। साथ ही ऐसे में जातक को चाहिए कि हनुमान जी के दर्षन कर हनुमान चालीसा का पाठ कर एकाग्रता बढ़ाते हुए शांत मन से पढ़ाई करनी चाहिए साथ ही मन को प्रसन्न करने का उचित उपाय आजमाने से तनाव से मुक्त हुआ जा सकता है। 



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जीवन के सुख साधन प्राप्ति और ज्योतिष



जीवन के सुख साधन प्राप्ति हेतु व्यक्ति हर संभव प्रयास करता है। किंतु कभी अवसर की कमी तो कभी प्रयास में चूक या कोई अन्य कारण से इच्छित सफलता प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होने से व्यक्ति कई बार असफलता प्राप्त होती है। इस असफलता के कारण तनाव कई बार इतना ज्यादा हो जाता है कि उसे तनाव से बाहर आने के लिए व्यसन का सहारा लेना पड़ता है और यह व्यसन शौक या तनाव दूर करने से शुरू होते हुए व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसक ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेष अगर छठवे, आठवें या द्वादष स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसके प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेषन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिपे्रषन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादष भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दषाओं के अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मनःस्थिति को और कमजोर करता है अतः यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अतः व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।



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कर्ज द्वारा उत्पन्न तनाव से मुक्ति का ज्योतिषीय समाधान



कर्ज द्वारा उत्पन्न तनाव से मुक्ति का ज्योतिषीय समाधान -
प्राचीन काल से आज आधुनिक जीवनषैली की आवष्यकता को देखते हुए कर्ज लेना मजबूरी है किंतु कई बार यहीं लिया गया कर्ज तनाव तथा रोग का कारण होता है तो वहीं पर सामाजिक प्रतिष्ठा तथा विष्वसनीयता पर भी प्रष्नचिन्ह लग जाता है। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति प्रायः कर्ज लेकर उससे मुक्ति हेतु परेषान हो तथा कर्ज चुकने का ही नाम ना लें, कर्ज से अपनी प्रतिष्ठा, सुखषांति समाप्त होने लगे तो कर्ज मुक्ति हेतु ज्योतिषीय उपाय करने चाहिए। जिसमें अपनी ग्रह स्थिति तथा दषाओं के अनुकूल होने की जानकारी प्राप्त कर शुभ मूहुर्त में किसी भी रविपुष्य या गुरूपुष्य के दिन ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण मंगलयंत्र की प्राणप्रतिष्ठा करके यंत्र पूजा स्थान पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित कर दें। नित्य पूजन करें तथा मंत्र -‘उॅ ऐं हीं क्लीं मम वांछित देहि मे स्वाहा’ का जाप कर हवन करना चाहिए। पूजन में एक सफेद फूल वाला आक का पौधा लें, उसे जिस शुभ मूर्हूत में पूजन करना है, उसके एक दिन पूर्व जैसे रविपुष्य नक्षत्र को करना हो तो शनिवार को अर्क पौधे को जल से धो कर धूप-दीप से पूजन कर ‘मम कार्य सिद्धि कुरू कुरू स्वाहा’ जाप करते हुए पौधे को नियंत्रण दें। रविवार को सूर्य उदय से पहले स्नान करके पौधे की पूजन अर्जन आरती आदि कर मंत्र ‘उॅ आं हीं क्रौं श्रीं श्रियै नमः ममालक्ष्मी नाषय नाषय मामृणोत्ती्रर्णे कुरू कुरू संपदं वर्धय वर्धय स्वाहा का जाप करें तथा उसके उपरांत दान करने के बाद मुक्ति की कामना से कर्ज की किस्त देना प्रारंभ करें तो इससे आप को कर्ज की समस्या से निजात मिलकर समृद्धि बढ़ेगी।



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कैरियर प्राप्ति में सहायक प्रमुख योग


कैरियर प्राप्ति में सहायक प्रमुख योग-

एजुकेषन तथा कैरियर में सफलता एवं उन्नति हेतु जातक में अनेक गुण होने चाहिए, जोकि एक ही व्यक्ति में संभव नहीं है। किसी व्यक्ति के पास वाकशक्ति होती है तो किसी के पास कार्यनिष्ठा तो कोई कार्य में दक्ष होने से सफल होता है।
किसी व्यक्ति में कार्यक्षमता का स्तर कितना है यह शनि की स्थिति से देखना चाहिए। यदि शनि उत्तम या अनुकूल है तो व्यक्ति में कार्यक्षमता अच्छी होगी, जिससे उसके सफलता प्राप्ति के अवसर ज्यादा होंगे।
किसी व्यक्ति में यदि अच्छी समझ होगी तो उसे समझने में दिक्कतों का सामना कम करना पड़ेगा। किसी व्यक्ति की कुंडली में यदि गुरू उत्तम स्थिति या अनुकूल हो तो उसकी समझने की क्षमता अच्छी होगी। साथ ही स्मरणशक्ति प्रबल बनाने में भी गुरू का प्रभाव होता है, जिससे सही समय तथा सही जगह पर उसे प्रयोग करने से अच्छी सफलता की प्राप्ति हो सकती है।
किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य अनुकूल हो तो अनुशासन तथा जिम्मेदार होेने से भी उन्नति में सहायक होता है। यांत्रिक ज्ञान तथा वाकशक्ति उत्तम होना भी सफलता में सहयोगी हो सकता है, इसके लिए जन्म कुंडली का तीसरा भाव तथा बुध एवं मंगल की स्थिति उत्तम होनी चाहिए।
इस प्रकार व्यक्तित्व के साथ प्रयास का स्तर तथा बौद्धिक क्षमता किसी जातक के उन्नति तथा सफलता में सहायक होता है। यदि इन में किसी प्रकार की परेषानी हो रही हो तो उस क्षेत्र विषेष से संबंधित उपाय तथा आवष्यक सावधानी इच्छुत सफलता प्राप्ति का रास्ता आसान बनाता है।




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बच्चों की दोस्ती से कैरियर पर आती बाधा



बच्चों की दोस्ती से कैरियर पर आती बाधा का कारण और निवारण -

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जिस प्रकार ग्रहों में आपस में मित्रता-श्षत्रुता तथा समता होती है, उसी का असर जीवन में दोस्तो या साथियों तथा उसके लाभ तथा हानि से होता है। जिस प्रकार जीवन साथी के चयन में गुण मेलापक को महत्व दिया जाता है, उसी के अनुरूप कैरियर या षिक्षा के दौरान दोस्त या सहपाठियों में गुण-दोषों का मिलान कर जीवन में कैरियर या अध्ययन के प्रयास में सफलता तथा दोस्तों के गुण-दोष से लाभ या हानि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए दोस्त का चयन करते समय अपनी ग्रह स्थितियों के अलावा, अपने ग्रहों की दिषा, दषा तथा स्थिति के अनुरूप व्यक्तियों से नजदीकी या दूरी बनाकर तथा किस व्यक्ति का संबंध किस स्थान है, जानकारी प्राप्त कर उस व्यक्ति से उस स्तर का संबंध बनाकर समस्या से निजात पाया जा सकता है। दोस्तो के चुनाव तथा व्यवहारगत संबंध तथा साथ में अध्ययन या प्रतियोगिता में लाभ-हानि तथा मानसिक शांति हेतु आवष्यक भूमिका का निभाता है।




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Friday, 1 May 2015

आपको नौकरी करनी चाहिए या व्यापार


कैरियर का क्षेत्र और आय के साधन संबंधी ज्योतिष विवेचन -
शिक्षा पूर्ण करते ही हर व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता होती है धन कमाना। किंतु कई बार व्यक्ति असमंजस में होता है कि उसे नौकरी करनी चाहिए या व्यापार। कई बार व्यक्ति नौकरी में असफल या शिक्षा में असफल होने पर व्यापार करना चाहता है। किंतु कभी भी किसी प्रकार का व्यापार करने से पूर्व अपनी जन्म कुंडली की विवेचना कर कर यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि उसे कौन सा व्यापार लाभ देगा। इसके अतिरिक्त यह भी देख लेना चाहिए कि व्यापार या कार्य की दिशा कौन सी होगी। साझेदारी में व्यापार फलदायी होगा या नहीं। यदि साझेदारी में व्यापार सफल होगा तो किस राशि, नक्षत्र के व्यक्ति के साथ व्यापार उचित होगा। साथ ही अपने कार्य-व्यवसाय में सहायक ग्रह नक्षत्र एवं प्रतिकूल ग्रह दशाओं की जानकारी तथा उससे संबंधित उपाय आपके व्यापार को सफल ही नहीं बनाते अपितु आपको अच्छी व्यवसायिक सफलता के साथ पर्याप्त मात्रा में धन, ऐश्वर्या तथा यश भी दिलाते हैं। अतः व्यापार से धन कमाने के लिए किस माध्यम से धन प्राप्ति का योग बन सकता है, इसके लिए आपकी कुंडली का लग्न, तृतीयेश, सप्तमेश, भाग्येश, दशमेश एवं चंद्रमा से दशम में कौन सा ग्रह बलवान होगा यह देखना चाहिए। लग्न या चंद्र लग्न से दशम का स्वामी तथा उस राशि का स्वामी किस नंवाश में है, उससे संबंधित व्यापार से धन प्राप्त होने के योग बनते हैं। अगर दशमेश स्थिर है तो अपने देश में धन कमाने के योग और चर राशि का हो तो विदेश से धन कमाने के योग बनते हैं और यदि द्विस्भाव है तो दोनों स्थानों से धन प्राप्ति में सफलता प्राप्त होती है। साथ ही तृतीयेश अगर बलवान नहीं है या प्रतिकूल स्थिति में स्थित होगा तो आपका मनोबल कम होने से भी आपको कार्य में अच्छी सफलता प्राप्त होने में बाधक हो सकता हैै। अतः यदि आप व्यापार से संबंधित क्षेत्र से धन कमाने के इच्छुक हैं तो सर्वप्रथम अपने ग्रह दशाओं के अतिरिक्त ग्रह स्थिति एवं साझेदारी में संबंधित व्यक्ति की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर उचित समय, स्थान, वित्तीय स्थिति, साझेदारी का फैसला करते हुए सावधानी से निर्णय आपको धन प्राप्ति में सहायक होगा।


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सर्वबाधा निवारण मंगलव्रत तथा मंगलयंत्र की उपयोगिता



सर्वबाधा निवारण मंगलव्रत तथा मंगलयंत्र की उपयोगिता-
सर्व सुख, रक्त विकार, राज्य सम्मान तथा संतान की प्राप्ति तथा यशस्वी होने हेतु मंगलयंत्र का पूजन करना चाहिए। मंगलयंत्र की स्थापना के साथ मंगलवार का व्रत अति उत्तम माना जाता है। इस व्रत को 51 सप्ताह तक करना चाहिए। इस व्रत के पूजन के लिए लाल पुष्पों तथा लाल वस्त्रों का चढ़ावा चढ़ाकर गेहूॅ और गुड़ से बने मिष्ठान का भोग लगायें और हनुमान की पूजन तथा कथा के उपरांत एक बार इसी आहार को ग्रहण करना चाहिए। इस व्रत के करने से मनुष्य के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं।
कथा -
कहा जाता है कि एक बुढिया को मंगल देवता पर बहुत श्रद्धा थी। वह नियम से मंगलवार का व्रत रखा करती और पूजन करती थी। मंगलदेव का नाम सदा जपती रहे इस हेतु उसने अपने पुत्र का नाम ही मंगलिया रखा था। एक बार मंगल देवता उसकी श्रद्धा की परीक्षा करने के लिए उसके घर पर साधु का वेश धारण कर आये। उस बुढिया का उस दिन मंगलवार का व्रत था तथा वह मंगलवार के व्रत में घर को लीपना या पृथ्वी खोदना या तेल का उपयोग नहीं करती थी। अतः उस साधु ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा करने हेतु बुढि़या से कहा कि आप हम भूखें हैं और आज हम अपना भोजन तुम्हारे आंगन में बनाना चाहते हैं। बुढि़या ने सहर्ष ही सभी सामग्री साधु को देकर निवेदन किया कि प्रभु आप के ऐसा करने से मुझे भी आशीष प्राप्त होगा। किंतु साधु ने कहा कि पहले आंगन को लीप दो जिससे मैं अपना भोजन स्वच्छता से बना सकू। बुढि़या ने कहा कि महाराज आज मैं व्रती हॅू तथा इस व्रत में मैं आंगन नहीं लीप सकती। इसके अलावा आप जो भी मांग करेंगे मैं उसकी पूर्ति करूॅगी। साधु ने कहा कि पहले सोच लें उसके बाद वचन देना। बुढि़या ने तीन बार संकल्प कर अपना वचन कायम रखा। तब साधु ने कहा कि तू अपने पुत्र को लेटा दे, जिससे मैं उसके उपर अपना भोजन बनाउॅगा। बुढि़या ने बिना सोचे मंगलिया को आवाज लगाकर कहा कि महाराज जैसा कहें वैसा करना ऐसा आज्ञा देकर वह अपने कार्य में लग गई। भोजन बनने के उपरांत जब साधु ने बुढि़या को प्रसाद ग्रहण करने हेतू आवाज लगाई तो उसने देखा कि उसका पुत्र तो सुरक्षित खड़ा है। तब उसने आश्चर्य से साधु से पूछा कि महाराज यह कैसे संभव हुआ। तब मंगल ने अपना रूप दिखाकर कहा कि मैं तेरी परीक्षा करने हेतु आया था। तेरी सभी मनोकामना की पूर्ति मैं करता हूॅ। तब से बुढि़या और उसका पुत्र संपन्न और समृद्धिपूर्वक जीवन जीने लगे।



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जानिये आज 01/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "कोई अपना जब दूर होने लगे तो दिखायें अपनी कुंडली"

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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 01/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज के सवाल जवाब 01/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



जानिये आज का राशिफल 01/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का पंचांग 01/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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करियर, पुरूषार्थ और ग्रह, नक्षत्र का प्रभाव



करियर, पुरूषार्थ और ग्रह, नक्षत्र का प्रभाव -
वर्तमान दौर में व्यक्ति को करियर के क्षेत्र में अपनी योग्यता के अनुरूप कई बार कम प्रयास से भी लाभ हो जाता है तो कई बार लगातार मेहनत करने के उपरांत भी इच्छित सफलता प्राप्त होने में कठिनाई आती है। करियर में पुरूषार्थ के साथ व्यक्ति की ग्रह, नक्षत्र तथा ग्रह दषाओं का प्रभाव उसके करियर में पड़ता है। अतः करियर चयन तथा प्रयास का निर्णय लेते समय नक्षत्र, लग्न एवं राषि पर विचार करते हुए अपनी ग्रह दषाओं के अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्णय लेते हुए प्रयास किया जाए तो सफलता प्राप्ति में सहायक होकर ऐष्वर्या तथा उन्नति बढ़ाने का साधन भी बन सकता है। अतः 27 नक्षत्रों में से 1.अष्विनी, 2.मृगषिरा, 3.पुनवर्सु, 5.चित्रा, 6.विषाखा, 8.अनुराधा, 9.श्रवण, 10.ज्येष्ठा, 11.धनिष्ठा, 12.षतभिषा, 13.रेवती ये नक्षत्र कार्यसिद्धि हेतु उचित नक्षत्र हैं, जिनमें किये गये कार्य को सफल बनाने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता वहीं पर हस्त, भरणी, पुष्य, स्वाति इत्यादि नक्षत्र करियर बनाने में प्रतिकूल फल देते हैं। उसी प्रकार चर लग्न में कार्य प्रारंभ अशुभ होता है क्योंकि इस लग्न में प्रयास के बीच मनोबल में परिवर्तन प्रयास में उतार-चढ़ाव से सफलता प्राप्ति में कमी देता है। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में अपनी राषि तथा ग्रह स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए उसके अनुरूप करियर का निर्णय कर प्रयास करना चाहिए। अगर कोई ग्रह प्रतिकूल हैं उनकी स्थिति तथा दषाओं में प्रयास करने से करियर में बाधा हो सकती है अतः अनुकूल ग्रह स्थिति तथा उसके अनुसार उपाय आजमाते हुए प्रयास से करियर में उन्नति तथा सुख की प्राप्ति का योग बनता है।



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व्यापार में दिषा, स्थान का महत्व राषियों के अनुसार



व्यापार में दिषा, स्थान का महत्व राषियों के अनुसार-
प्राचीन भारतीय शास्त्र अनुसार प्रत्येक ग्रह की अपनी एक दिषा तथा स्थान निर्धारित है जोकि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी सच साबित हुई है। माना जाता है कि प्रत्येक ग्रह की अपनी एक उॅर्जा होती है उसी के अनुरूप उसकी दिषा तथा स्थान तय करते हैं। सूर्य के लिए पूर्व दिषा निर्धारित है चूॅकि सूर्य तेजोमय तथा प्रकाष का कारक है अतः सूर्य को पूर्व दिषा तथा उच्च स्थान का स्वामी माना जाता है। उत्तर पूर्व पर गुरू का अधिकार है चूॅकि गुरू को सकारात्मक और तेज का ग्रह माना जाता है अतः उत्तर पूर्व दिषा तथा धनु एवं मीन राषि प्रदान किया गया है। उत्तर पर बुध का अधिकार इस उद्देष्य से दिया गया है कि बुध सक्रियता तथा रचनात्मकता का स्वामी होता है अतः उत्तर दिषा में इस प्रकार के कर्म से जीवन में रचनात्मकता तथा सक्रियता के कारण सफलता प्राप्ति में सहायता मिल सकती है। मिथुन तथा कन्या राषियों वालों के लिए उत्तर दिषा लाभदायी होती है। उसी प्रकार चंद्रमा को उत्तर पष्चिम का स्वामी माना जाता है क्योंकि यह रचनात्मकता विचार ज्यादा करने का कारक होता है। कर्क राषि वाले इस क्षेत्र में ज्यादा सफल हो सकते हैं। शनि को पष्चिम दिषा का अधिकार है क्योंकि शनि ग्रह को नाकारात्मक तथा धीमा ग्रह माना जाता है। पष्चिम दिषा तथा कमजोर लोग के साथ मकर तथा कुंभ राषि वाले सफल होते हैं। दक्षिण दिषा में मंगल का अधिकार है चूॅकि मंगल उग्र तथा दाह देने वाला ग्रह माना जाता है अतः मेष तथा वृष्चिक राषि वाले दक्षिण दिषा कू्रर तथा भारी कार्य में सफल बनते हैं। उसी प्रकार दक्षिण पष्चिम दिषा को राहु का कारक माना जाता है क्योंकि रहस्य और नाकारात्मक प्रभाव राहु से आता है। इलेक्टानिक तथा लिक से हटकर कार्य करने में राहु से प्रभावित कुंडली ज्यादा सक्षम होती है। दक्षिण पष्चिम पर शुक्र का राज है क्योंकि उष्ण और तेजयुक्त माना जाता है अतः दक्षिण-पष्चिम दिषा तथा सुख तथा भोग के साधन एवं वृषभ तुला राषि वाले उन्नति प्राप्त करते हैं। साथ ही उत्तर पूर्व पर केतु का अधिकार काल्पनिक तथा तेज के कारण प्रदान किया गया है। अतः यदि जीवन में अपनी राषि एवं दिषा के अनुरूप व्यवसाय या कार्य का चयन किया जाय तो परिणाम साकारात्मक हो सकता है।
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कार्यक्षेत्र में सहयोगियों तथा साझेदारों में तनाव के कारण और उपाय-



कार्यक्षेत्र में सहयोगियों तथा साझेदारों में तनाव के कारण और उपाय-
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जिस प्रकार ग्रहों में आपस में मित्रता-षत्रुता तथा समता होती है, उसी का असर जीवन में सहयोगियों या साझेदारों से बनता है फिर वह जीवन में नीति संबंधों का हो या व्यवसायिक संबंधों का सहभागिता, अनुकूलता तथा सहिष्णुता ज्योतिष गणना का विषय है। कार्यक्षेत्र में सहयोगियों या साझेदारों के साथ तनाव का प्रमुख कारण सोच-विचार, पसंद-नापसंद, निर्णय की क्षमता तथा आपसी समझ होती है। कार्यक्षेत्र में कार्य करने की समझ, कार्य के प्रति झुकाव तथा जानकारी से आपसी रिष्तें मजबूत या कमजोर होते हैं, जिसकी जानकारी सहायोगियों तथासाझेदारों के तीसरे एवं सप्तम स्थान से जाना जा सकता है। लग्न, तीसरे, सप्तम तथा एकादष स्थान से कार्य के प्रति निरंतरता, सोच तथा पसंद को जाना जा सकता है। जिस प्रकार जीवन साथी के चयन में गुण मेलापक को महत्व दिया जाता है, उसी के अनुरूप कार्य में साझेदार या सहकर्मी या अधिनस्थों के गुण-दोषों का मिलान कर जीवन में व्यवसायिक तथा सामाजिक जीवन को सफल बनाया जा सकता है। इसके लिए कार्य से संबंधित क्षेत्र का चयन करते समय अपनी ग्रह स्थितियों के अलावा, अपने ग्रहों की दिषा, दषा तथा भाव के अनुकूल व्यक्तियों से नजदीकी या दूरी बनाकर तथा किस व्यक्ति का संबंध किस स्थान है, जानकारी प्राप्त कर उस व्यक्ति से उस स्तर का संबंध बनाकर समस्या से निजात पाया जा सकता है। साझेदारों के चुनाव तथा व्यवहारगत संबंध तथा व्यक्ति का चुनाव कार्यक्षेत्र में लाभ-हानि तथा मानसिक शांति हेतु आवष्यक भूमिका का निभाता है।

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नौकरी में परिवर्तन तथा स्थाईत्व


नौकरी में परिवर्तन तथा स्थाईत्व -
सभी व्यक्ति की दिली तमन्ना होती है कि उसे अच्छी तथा स्थाई नौकरी प्राप्त हो। किंतु कई बार योग्यता तथा प्रयास के बावजूद नौकरी मनचाही नहीं मिल पाती, जिसके कारण उत्पन्न असंतुष्टि से नौकरी बदलने की स्थिति बनती है तो कई बार बिना किसी कारण के नौकरी छूट जाती है, इस प्रकार कई कारणों से नौकरी में स्थाईत्व की कमी दिखाई देती है। नौकरी में बार-बार बदलाव तथा अस्थाईत्व का कारण जातक की कुंडली में उसके तृतीय भाव या भावेष का संबंध छः, आठ, या बारहवें भाव से बने या तृतीय भाव या भावेष राहु से पीडि़त हो तो नौकरी में परिवर्तन तथा स्थाईत्व की कमी देता हैं साथ ही दसम, एकादष या भाग्य भाव क्रूर ग्रह या विपरीत स्थिति में हो तो जीवन में आय तथा कर्म भाव प्रभावित होता है। कई बार चंद्रमा तथा राहु की स्थिति तथा दषाएॅ जीवन में अनिर्णय तथा भ्रम की स्थिति उत्पन्न करता है, जिससे नौकरी में स्थाईत्व की कमी के कारण बार-बार परिर्वतन की स्थिति बनती है। जीवन में स्थाईत्व की कामना तथा उन्नति हेतु शनिवार का व्रत करते हुए सायंकाल सूर्यास्त के उपरांत निष्ठाभाव से शाबरमंत्र का जाप करें, ऐसा नियम से सवामाह करें तो जीवन में अस्थाईत्व समाप्त होकर इच्छित सफलता प्राप्त होगी तथा संतुष्टि तथा सुख प्राप्ति होगी।




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कारोबार में असफलता





कारोबार में असफलता  -
व्यक्ति के जीवन में कई बार कारोबार में आकस्मिक हानि प्राप्त होती है साथ ही कई बार योग्यता तथा सामथ्र्य होने के बावजूद कारोबार में वह सफलता प्राप्त नहीं होती, जिसकी चाहत होती है। इस प्रकार का कारण ज्योतिषषास्त्र द्वारा किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य, शनि के होने पर यह प्रभाव जातक के व्यवसाय या कार्य पर भी दिखाई देता है। अगर प्रथम भाव में राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होेने पर वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू कलह से संबंधित कष्ट के कारण कारोबार में पर्याप्त समय तथा क्षमता नहीं दे पाता है। पंचम स्थान में होने पर अच्छी व्यवायिक रिष्तें ना बनने के कारण कारोबार में प्रसिद्धि संबंधित बाधा तथा दुख का कारण बनता है। अष्टम में होने पर आकस्मिक हानि, विवाद तथा न्यायालयीन विवाद, उन्नति तथा धनलाभ में बाधा देता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या व्यवसाय में परितर्वतन करना, सामाजिक अपयष अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। बुध के साथ राहु होने पर जडत्व दोष बनता है, जिसमें नई विकास तथा सोच प्रभावित होती है, जिसके कारण कारोबार में नयापन ना ला पाने के कारण असफलता प्राप्त होती है। यदि लगातार कारोबार में असफलता प्राप्त हो रहा हो तो श्री नारायण गायत्री मंत्र का नित्य जाप कर थोड़ा दान करें तो जीवन में सुख तथा समृद्धि का रास्ता प्रष्स्त करता है।



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क्या आपकी सफलता में सहायक होगा अच्छे गुरू का साथ



क्या आपकी सफलता में सहायक होगा अच्छे गुरू का साथ -
किसी भी व्यक्ति के जीवन में षिक्षा ग्रहण करने से लेकर जीवन में सफलता प्राप्त करने तक एक गुरू का होना आवष्यक है। मार्गदर्षन हेतु गुरू का साथ महत्वपूर्ण होता है। कहा जाता है कि प्रथम गुरू माता होती है जोकि संसार से परिचित कराती है उसी प्रकार जीवन में यष व उन्नति प्राप्ति हेतु गुरू का साथ जीवन संघर्ष को कम करता है। कई बार व्यक्ति को कोई अच्छा मार्गदर्षन प्राप्त नहीं होता परंतु वह व्यक्ति फिर भी सफलता प्राप्त करने में सफल होता है। किसी व्यक्ति को जीवन में सफलता हेतु गुरू का साथ मिलेगा या उसका गुरू कौन होगा, कब प्राप्त होगा तथा किस सीमा तक सफलता प्राप्ति में सहायक होगा इसका पता व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पिति ग्रह को गुरू भी कहा जाता है वहीं जीवन में अध्यापकों, दार्षनिकों, लेखकों आदि को गुरू कहा जाता है। वेद में गुरू को समस्त देवताओं तथा ग्रहों का गुरू माना जाता है। किसी व्यक्ति की सफलता में गुरू का अहम हिस्सा होता है। सामान्यतः जिन व्यक्तियों की कुंडली में गुरू केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होता है। विषेषतः मेष, कर्क और वृष्चिक लग्न की कुंडली में गुरू शुभ भावों में स्थित हो तो व्यक्ति को अच्छे गुरू का मार्गदर्षन अवष्य प्राप्त होगा। यदि गुरू पंचम या नवम में स्थित हो तो गुरू की कृपा से भाग्योदय होता है। यदि गुरू चतुर्थ या दषम भाव में हो तो क्रमषः माता-पिता ही गुरू रूप में मार्गदर्षन व सहायता देते हैं। गुरू यदि 6, 8 या 12 भाव में हो तो गुरू कृपा से प्रायः वंचित ही रहना पड़ता है।
यदि गुरू लग्न में अनुकूल हो तो व्यक्ति को स्वयं ही ज्ञान व आध्यात्म के रास्ते पर जाने को प्रेरित करता है। यदि गुरू पर पाप प्रभाव न हो तो व्यक्ति स्व-परिश्रम तथा स्व-प्रेरणा से ज्ञानार्जन करता है। दूसरों को भी मार्गदर्षन देने में सक्षम होता है। अच्छे सलाहकार भी बनने में सफल होता है। यदि गुरू का संबंध तीसरे स्थान या बुध के साथ बनें तो व्यक्ति वाणी के द्वारा मार्गदर्षन में सफल होता है वहीं यदि गुरू का संबंध मंगल के साथ बने तो व्यक्ति कौषल द्वारा मार्गदर्षक बनता है शुक्र के साथ अनुकूल संबंध बनने पर कला या आर्ट के माध्यम से मार्गदर्षक बनता है चंद्रमा के साथ संबंध बनने पर लेखन द्वारा मार्गदर्षन बनता है। अतः गुरू का उत्तम स्थिति में होना अच्छे मार्गदर्षक की प्राप्ति या मार्गदर्षन में सफलता का द्योतक होता है।


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चिकित्सकीय सेवा संबंधी आवष्यक ग्रह योग तथा प्रतिकूलता को दूर करने के उपाय


चिकित्सकीय सेवा संबंधी आवष्यक ग्रह योग तथा प्रतिकूलता को दूर करने के उपाय -
ज्योतिष विज्ञान के आधार पर किसी जातक की कुंडली में चिकित्सकीय सेवा से जुड़कर यष तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के योग हैं या नहीं अथवा केाई जातक किस बीमारी का इलाज करने में समर्थ होगा यह जातक की ग्रह दषाओं तथा ग्रह स्थिति के आधार पर आसानी से लगाया जा सकता है। किसी जातक में लाभेष और रोगेष की युति लाभभाव या मंगल, चंद्र, सूर्य भी शुभ होकर अच्छी स्थिति में हो, तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ने की संभावना बनती है। यदि किसी का पंचम भाव में सूर्य-राहु, बुध-राहु या दषमेष की इन पर दृष्टि हो, मंगल, चंद्र तथा गुरू भी अनुकूल स्थिति में हो तो सफल चिकित्सक बनने के योग बनते हैं। कोई दो केंद्राधिपति अनुकूल स्थिति में होकर उस कुंडली में उच्च के हों तो यदि उनमें से सूर्य, मंगल, चंद्र हो तो जातक के चिकित्सा विज्ञान में अध्ययन की प्रबल संभावना बनती है। किसी की कुंडली में मंगल उच्च या स्वग्रही हो तो जातक को सर्जरी में निपुण बनाता है। छठवा भाव सेवा का भाव कहा जाता है यदि छठवें भाव का संबंध कर्म या आयभाव से बनता है तो जातक को सेवा तथा दवाईयों के क्षेत्र में कर्म की संभावना बनती है। लाभेष मंगल से चंद्रमा का नवम पंचम योग भी चिकित्सकीय पेषे में महारथ एवं यष देने में समर्थ होता है। इस प्रकार यदि कुंडली में अनुकूल ग्रह हों तो दषाएॅ एवं उनके विपरीत परिणाम का उपाय कर चिकित्सकीय क्षेत्र में प्रवेष किया जा सकता है। जिसके लिए गणपति मंत्र का जाप, हवन तथा तर्पण आदि कराना चाहिए।



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क्या हैं आपकी कुंडली में आईआईटी में सफलता के योग


क्या हैं आपकी कुंडली में आईआईटी में सफलता के योग -

आजकल हर माॅ-बाप यही चाहते हैं कि उनकी संतान उच्च तकनीकी या व्यवसायिक षिक्षा अच्छे से अच्छे संस्थान से करें। यह इच्छा आजकल इसलिए भी बलवती है क्योंकि तकनीकी क्षेत्र में रोजगार के अवसर ज्यादा से ज्यादा देष व विदेषों में मिलते हैं। तकनीकी षिक्षा में सर्वश्रेष्ठ षिक्षा का क्षेत्र आईआईटी का माना जाता है अतः हर एक आईआईटी जैसे संस्थान में प्रवेष हेतु इच्छुक होता है जिसमें अति कठिन परीक्षा के माध्यम से प्रवेष संभव होता है। इसके लिए मेहनत के साथ भाग्य का होना भी आवष्यक माना जाता है किंतु सच्चाई यह है कि किसी विद्यार्थी के ऐसे कौन सी ग्रह दषाएॅ होती हैं, जिससे उसे अच्छी सफलता या बहुत प्रयास के उपरांत भी कोई बाधा हो सकती है। अलग-अलग विषयों में तकनीकी षिक्षा की पढ़ाई हेतु ग्रह, ग्रहयोग, विषिष्ठ ग्रह संबंध होते हैं जिसका फल जातक के जीवन में दिखाई देता है। जिस भी जातक की कुंडली में मंगल और शनि उच्च या स्वग्रही होकर केंद्र या त्रिकोण में हों साथ ही सूर्य का संबंध किसी भी प्रकार से भाग्येष या भाग्यस्थ से बने साथ ही केतु तथा बुध की स्थिति अनुकूल हो तो जातक का उच्च संस्थान से इंजीनियरिंग का योग बनता है। इन ग्रह स्थिति के साथ ग्रह दषाएॅ अनुकूल होना आवष्यक है। यदि गुरू का बल सूर्य को मिल रहा हो तो अच्छी सफलता के साथ आईआईटी में प्रवेष के योग बनते हैं। यदि किसी जातक का शनि और बुध अनुकूल स्थिति में हो और गोचर में दषाएॅ भी चल रही हो तो प्रवेष की संभावना भरपूर बनती है। अतः यदि ग्रह, ग्रह संयोग अनुकूल हो तो उचित उपाय के माध्यम से ग्रहों को अनुकूल किया जाकर उच्च तकनीकी संस्थान में प्रवेष तथा सफलता का प्रयास लाभकारी परिणाम दे सकता है।



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कैरियर में उतार-चढ़ाव से वैवाहिक जीवन में कष्ट



कैरियर में उतार-चढ़ाव से वैवाहिक जीवन में कष्ट -

कैरियर या व्यवसायिक अपडाउन के कारण वैवाहिक जीवन में रिष्ते खराब हो सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य, शनि के होने पर यह प्रभाव जातक के स्वयं के जीवन के अलावा यह दुष्प्रभाव उसके परिवार पर भी दिखाई देता है। अगर प्रथम भाव में राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होेने पर परिवार में वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू सुख, मकान, वाहन से संबंधित कष्ट पाता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या नौकरी छूटना, सामाजिक अपयष अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। सामान्यतः चंद्रमा के साथ राहु का दोष होने पर वैवाहिक जीवन में परेषानी, गुप्तरोग, उन्नति में कमी तथा अनावष्यक तनाव दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का दोष दिखाई दे तो अपनी कुंडली की विवेचना कराकर उसे शनिवार का व्रत कर धन की प्राप्ति के लिए कनकधारा स्तोत्र का पाठ करें तथा पाठ पूर्ण करने के उपरांत सवापाव तिल का दान करें। इस प्रकार का उपाय जीवन में एक साल करने के उपरांत हवन करा कर कुछ समय के उपरंात फिर प्रारंभ किया जा सकता है। ऐसा करने से जीवन में कैरियर संबंधी बाधा समाप्त होकर अच्छी आर्थिक स्थिति प्राप्त होने के साथ रिष्तों में भी मधुरता लाता है।



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आर्थिक कष्ट और वैवाहिक जीवन में तनाव


आर्थिक कष्ट और वैवाहिक जीवन में तनाव - सुख का आसान उपाय -
लग्नेष एवं सप्तमेष का 6, 8 या 12 भाव में हो तो आर्थिक कष्ट या धन संबंधित कमी से गृहस्थ जीवन बाधित होता है। 6, 8 या 12 भाव के स्वामी होकर सप्तम भाव से संबंध स्थापित होने पर वैवाहिक सुख में बाधा का कारण धन संबंधी विवाद बनता है। इसके अलावा लग्नेष या सप्तमेष का निर्बल होकर क्रूर स्थान या क्रूर ग्रहों के साथ होना भी वैवाहिक जीवन में दुख तथा कष्ट का कारण बनता है। द्वितीय, पंचम, सप्तम, अष्टम या द्वादष भाव पर क्रूर ग्रह का होना भी वैवाहिक जीवन में कष्ट का कारण घरेलू या आर्थिक कमी बनता है। यदि किसी के जीवन में वैवाहिक कष्ट उत्पन्न हो रहा हो गजेंद्र मोक्ष को अपने आप में एक अद्भुत सतुति कहा जाता है। इसके प्रयोग से किसी भी प्रकार के कष्टनिवारण में आषातीत सफलता प्राप्त होती है। कलयुग में गजेंद्र मोक्ष की स्तुति हर प्रकार के सुख सौभाग्य हेतु तथा हर प्रकार के समस्याओं से मुक्ति में पूरी तरह से सफल है। गजेंद्रमोक्ष के प्रयोग हेतु किसी शुभ मुहूर्त में स्वार्थ सिद्धि योग या अमृत सिद्धि योग में प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर विष्णुजी की प्रतिमा के समक्ष, उन या कुष के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर बैठ जाएॅ। धूप-दीप आरती के उपरांत गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र-श्रीमद्भागवत का पाठ कर भगवान विष्णुजी की आरती कर हवन आदि करें, उसके उपरांत नित्य एक माला गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से जीवन में अर्थ, कर्ज के तनाव से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, जिससे वैवाहिक जीवन सुचारू रूप से सुखपूर्वक बितता है।



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विवाह में मूहुर्त गणना की उपयोगिता



विवाह में मूहुर्त गणना की उपयोगिता -
विवाह संस्कार को भारतीय समाज में एक धर्म का दर्जा दिया गया है, जिसमें दो व्यक्ति का जीवन एक होकर उनका नया जन्म माना जाता है। इस आधार पर देखा जाए तो विवाह के समय शुभ लग्न उसी प्रकार महत्व रखता है, जिस प्रकार जन्म का समय। विवाह का मूहुर्त निकालते समय वर एवं वधु की कुंडलियों का परीक्षण कर दोनों की कुंडली के मिलान तथा नक्षत्रों की अनुकूल स्थिति के अनुरूप अनुकूल ग्रह दषाओं के अनुसार विवाह का समय निर्धारित करना चाहिए। माना जाता है जिस समय वर-कन्या का विवाह संस्कार होता है, उसी तिथि तथा समय को वर-कन्या का नया जन्म मान कर विवाह का समय निर्धारित करते हुए उन ग्रह दषाओं का अनुकूल और प्रतिकूल असर उनके वैवाहिक जीवन के सुख-दुख तथा आपसी संबंधों में मिठास या मतभेद का पता लगाया जा सकता है। विवाह का समय निर्धारित करते समय विषेष रूप से तीन महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहला वर का सूर्य बल अर्थात् जिस तिथि में विवाह हो रहा हो, उस समय वर के सूर्य की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण होती है। वर की जन्मराषि से तीसरे, छठे, दसवें, ग्यारहवे स्थान में सूर्य होतो शुभ होता है, पाॅचवें, दूसरे, सांतवें, नवें में मध्यम तथा चार, आठ, बारहवें भाव में अषुभ फल देता है। इसी तरह से विवाह के समय कन्या की बृहस्पति की स्थिति अनुकूल होनी चाहिए बृहस्पति की अच्छी स्थिति दो, पाॅच, सात, नौ, ग्यारह में उत्तम एक, तीन, छः, दस भाव में मध्यम और चार, आठ, बारह में अषुभ होता है। साथ ही दोनों की मिलाकर चंद्रमा की स्थिति बेहतर होनी चाहिए। दोनों की कुंडलियों में जन्मराषि से चंद्रमा की स्थिति दो, पाॅच, सात, नौ, ग्यारह में उत्तम, एक, तीन, छः भाव में मध्यम तथा चार, आठ, बारह भाव में अषुभकारी होता है। अतः इन ग्रह दषाओं तथा ग्रहों के अनुकूल स्थिति पर विवाह होने पर वैवाहिक सुख तथा जीवन में प्रेमभाव बना रहता है साथ ही जीवन के सभी सुख समय पर प्राप्त होते हैं।


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सप्तम भाव के ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति से बाधित वैवाहिक जीवन



सप्तम भाव के ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति से बाधित वैवाहिक जीवन -
सप्तमभाव लग्न कुंडली में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। लग्न से सातवाॅ भाव ही दांपत्य व विवाह का ग्रह माना जाता है। इस भाव एवं इस भाव के स्वामी के साथ स्थिति ग्रहों की स्थिति और दृष्टि संबंध के अनुसार जातक का वैवाहिक जीवन के सुख-दुख का निर्धारण किया जाता है। विवाह से संबंधित विष्लेषण करते समय तीन बातें महत्वपूर्ण होती हैं, पहला सप्तमभाव, दूसरा सप्तमाधिपति, तीसरा कारक ग्रह जोकि कालपुरूष का शुक्र है। अन्य विचारयोग्य बातें हैं सप्तमस्थ ग्रह तथा सप्तमेष ग्रह से अन्य ग्रहों की संबंध स्थापना कैसी है। सातवां भाव में यदि नवमेष या राषिस्वामी संबंधित है तो वैवाहिक सुख प्राप्त होगा, सप्तमभाव किसी प्रकार से द्वितीय, सप्तम या ग्यारहवें भाव से संबंधित हो तो पति-पत्नी को सभी प्रकार का सुख मिलेगा तथा जीवनसाथी भाग्यषाली होगा। किंतु सातवाभाव किसी प्रकार से छः आठ बारह भाव से संबंधित हो तो जीवन में वैवाहिक कष्ट, विवाद तथा अलगाव की स्थिति निर्मित होती है। इसी प्रकार सप्तमाधिपति यदि उत्तम स्थिति में हो तो जीवनसाथी से आनन्द, सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा भौतिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। सप्तमाधिपति यदि बुरी स्थिति में हो तो हर प्रकार से वैवाहिक जीवन कष्टकारी होता है। इसी प्रकार सुख तथा समृद्धि का कारक ग्रह शुक्र को माना जाता है जोकि द्वितीय तथा सप्तम स्थान का स्वामी होता है अतः हर प्रकार के सुख हेतु शुक्र की अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति पर विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। सप्तमभाव, सप्तमाधिपति अनुकूल होने पर भी शुक्र की अनुकूल तथा प्रतिकूल स्थिति वैवाहिक जीवन में सुख तथा अन्य सुविधा प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण होता है।


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सप्तमस्थ शनि से प्रभावित वैवाहिक जीवन


सप्तमस्थ शनि से प्रभावित वैवाहिक जीवन -
सप्तम भाव में यदि शनि स्थित होता है तो जातक का विवाह में विलंब व बाधा का संकेत माना जाता है। यदि सप्तम भाव में षनि हो तो या सप्तमेष से युक्त शनि हो तो जातक का वैवाहिक जीवन पारिवारिक सदस्यों के कारण बाधित होता है। वहीं पर यदि शनि के साथ चंद्रमा हो तो जातक का अपने जीवनसाथी के प्रति लगाव ना होकर अन्य किसी से प्रेम संबंध जातक के वैवाहिक जीवन में दुख का कारण बनता है। यदि सप्तम स्थान में शनि के साथ सूर्य की युति बनती हो तो जातक का अविवाहित बनने का योग बन जाता है। यदि शनि से युत राहु हो तो जातक का वैवाहिक जीवन एक रहस्य की तरह असफल माना जाती है। सप्तम स्थान पर शनि मंगल के होने से जातक को जीवनसाथी से प्रताडित होने के योग बनते हैं। इस प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेष का शनि से युत होने पर वैवाहिक जीवन बाधित ही होता है। किंतु सप्तमभाव में शनि शुक्र या बृहस्पति के साथ हो तो वैवाहिक जीवन में प्यार एवं आपसी समझ दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में वैवाहिक विलंब तथा कष्ट का कारण शनि हो तो बाधा को दूर करने हेतु सौभाग्याष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् का पाठ किसी विद्वान आचार्य के द्वारा कराया जाकर हवन, तर्पण, मार्जन आदि कराने से वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है।




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पुत्रदा एकादषी



पुत्रदा एकादषी -

पौष मास की शुक्लपक्ष की एकादषी को पुत्रदा एकादषी के रूप में मनाया जाता है। पद्यपुराण के अनुसार श्री कृष्ण ने इस व्रत का वर्णन युधिष्ठिर से किया था। चराचर प्राणियों सहित त्रिलोक में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है, जो संतान कष्ट से संबंधित दुखों को हर सके। इस दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है। सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने के पष्चात् श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए। सबसे पहले धूप-दीप आदि से भगवान नारायण की अर्चना की जाती है। इसके बाद फल-फूल, नारियल, पान, सुपारी, लौंग, बेर, आंवला आदि व्यक्ति अपनी सामथ्र्य अनुसार भगवान नारायण को अर्पित करते हैं। पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनकर संतान गोपाल स्तोत्र का पाठ करने के पष्चात् फलाहार किया जाता है। इस दिन दीप दान करने का महत्व है। जैसा के इसके नाम से ज्ञात होता है कि जिन व्यक्तियों को संतान होने में बाधाएॅ होती हो अथवा जो व्यक्ति पुत्र प्राप्ति की कामना करते हों, उनके लिए पुत्रदा एकादषी का व्रत बहुत ही शुभ फलदायक होता है। इसलिए संतान प्राप्ति के लिए इस व्रत को विषेष रूप से करना चाहिए। साथ ही यदि कोई संतान संबंधी कष्ट जैसे संतान के स्वास्थ्य, षिक्षा या अन्य संतान से संबंधित अन्य सुखों को प्राप्त करने का अभिलाषी हो, उसे इस व्रत के करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है।



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आप क्यों चिंतित या तनाव में रहते हैं


आप क्यों चिंतित या तनाव में रहते हैं -
आधुनिक भागदौड़ के इस जीवन में प्रायः सभी व्यक्तियों को चिंता सताती रहती है। हर आयुवर्ग तथा हर प्रकार के क्षेत्र से संबंधित अपनी-अपनी चिंता होती हैं। चिंता को भले ही हम आज रोग ना माने किंतु इसके कारण कई प्रकार के लक्षण ऐसे दिखाई देते हैं जोकि सामान्य रोग को प्रदर्षित करते हैं। अगर यह चिंता कारण विषेष या समय विषेष पर हो तो चिंता की बात नहीं होती किंतु कई बार व्यक्ति चिंता करने का आदि होता है, जिसके कारण उसे हर छोटी बात पर चिंता हो जाती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे रासायनिक स्त्राव का असंतुलन माना जाता है किंतु वैदिक ज्योतिष के अनुसार इस चिंता का दाता मन को संचालित करने वाला ग्रह चंद्रमा तथा व्यक्ति की जन्मकुंडली में तृतीय स्थान को माना जाता है। चंद्रमा के प्रत्यक्ष प्रभाव को आप सभी महसूस करते हैं जब ज्वार-भाठा या पूर्णिमा अमावस्या आती है। चंद्रमा का पूर्ण संबंध हमारे मानसिक क्रियाकलापों से है अगर चंद्रमा या तृतीयेष नीच राषि में स्थिति हो या षष्ठेष से युति या षष्ठस्थ हो या राहु केतु से युत हो तो व्यक्ति में तनाव जन्मजात गुण होता है। चूॅकि कालपुरूष का चतुर्थभाव चंद्रमा का भाव होता है अतः बहुत हद तक चतुर्थभाव का प्रतिकूल होना या चतुर्थेष का प्रतिकूल होना भी तनाव का कारण होता है। चंद्रमा या तृतीयेष का अष्टमस्थ या द्वादषस्थ होना भी लगातार तनाव का कारण देता रहता है। विषेषकर इन ग्रह या इनसे संबंधित ग्रहों की गोचर में व्यक्ति पर मानसिक असंतुलन दिखाई देती है। चिंता से मुक्ति हेतु पीडि़त व्यक्ति को अपनी वर्तमान परिथितियों पर नजर रखते हुए उनमें बदलाव का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा अपने जीवन में लगातार चिंता के कारणों तथा उससे जुड़े लोग तथा स्थिति को बेहतर करने का प्रयास करने के अलावा चंद्रमा को मजबूत करने तथा राहु की शांति के अलावा तृतीयेष का उपयुक्त उपाय करने से व्यक्ति को चिंता से मुक्ति मिल सकती है।



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आपके विवाह के योग कब बनेगा जाने कुंडली विश्लेषण द्वारा





किसी जातक का सामान्य प्रष्न होता है कि उसका विवाह कब होगा। इसकी जानकारी के लिए उस जातक की राषि में सप्तमेष जिस ग्रह में स्थित होता है उसके स्वामी या नवांष में जिस राषि में सप्तमेष स्थित है उसके स्वामी के दषाकाल में शादी का योग बनता है। कारक या सप्तमभाव का नैसर्गिक कारक शुक्र और चंद्रमा भी अपने दषा काल में शादी करा सकता है। इन स्वामियों में जो बली होता है वह अपनी दषा में शादी करा सकता है। सप्तमेष यदि शुक्र से युक्त हो तो वह अपनी दषा में शादी करा सकता है। द्वितीयेष या नवांष में द्वितीयेष जिस राषि में स्थित है, उसका स्वामी भी अपनी दषा में शादी कराने में सक्षम हैं यदि पहली दषा में किसी कारण वष शादी नहीं होती है तो नवमेष और दषमेष शादी कराने में सक्षम होता है। सप्तमेष के साथ युक्त ग्रह या सप्तमभाव में स्थित ग्रह की दषा में भी विवाह संभव है। जब भी गोचर में गुरू का भ्रमण सप्तमस्थान, द्वितीय स्थान या भाग्यस्थान में आता है तो विवाह का योग बनता है। अनुकूल दषाएॅ और विवाह में बाधक कारणों का उपयुक्त उपाय कर विवाह की बाधा दूर की जा सकती है। इसके विपरीत यदि विवाह में विलंब दिखाई पड़ रहा हो तो देखे कि शुक्र, सूर्य, चंद्रमा, सप्तमेष, द्वादषेष, सप्तमभाव या द्वादषभाव शनि या अन्य किसी कू्रर ग्रह से पीडि़त हो तो विवाह में अगणित विलंब की संभावना बनती है। इस स्थिति में विवाह के योग में लाभ प्राप्त करने के लिए किसी लड़के को अर्क विवाह कराना चाहिए तथा किसी लड़की की कुंडली में इस प्रकार के विलंब होने पर कुंभ विवाह कराना चाहिए। तथा मंगल का यंत्र लड़के को तथा लड़की को मंगलयंत्र की स्थापना के साथ मंगल का व्रत करना चाहिए।



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क्या आपको स्टॉक मार्किट से लाभ या हानि होगा



क्या आपको शेयर या स्टाॅक से धन लाभ या हानि होगा-
     
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आपके आजीविका का साधन क्या होगा जाने कुंडली से



      किसी जातक का आजीविका का साधन क्या हो सकता है। यह उसकी कुंडली से जाना जा सकता है। कई बार देखने में आता है कि जातक की षिक्षा किसी क्षेत्र में होती है और उसकी नौकरी का क्षेत्र उस षिक्षा से बिल्कुल भी विपरीत क्षेत्र में होता है। इस सबका कारण जातक की कुंडली से जाना जा सकता है। कोई जातक नौकरी करेगा या किसी और को नौकरी में रखने की क्षमता रखेगा, इसका पता जातक की कुंडली से जाना जा सकता है। कालपुरूष की कुंडली में दषमभाव को कर्म का भाव कहा जाता है तथा इस भाव का स्वामी ग्रह होता है शनि तथा एकादष भाव को आय का भाव कहा जाता है तथा इस ग्रह का स्वामी ग्रह भी होता है शनि। अतः कर्म और आय दोनों का स्वामी होता है शनि। किसी व्यक्ति की शनि की स्थिति तथा दषा उस व्यक्ति के कर्म तथा आय का तरीका तय करता है। अतः शनि की अनुकूल स्थिति तथा गोचर में शनि की दषा से कर्म तथा आय की शुरूआत मानी जाती है। शनि की उच्च राषि तुला तथा नीच राषि मेष मानी जाती है। मेष राषि से शनि जैसे-जैसे तुला राषि की ओर अग्रसर होता है, अपनी उच्चता की ओर बढ़ता जाता है इसके विपरीत जैसे-जैसे शनि तुला से मेष की ओर अग्रसर होता है, अपनी नीच राषि की ओर बढ़ता है। अर्थात् मेष से तुला की ओर बढ़ने पर किसी जातक की कुंडली में शनि की जो स्थिति होगी वही उसके कर्म तथा आय का साधन निर्धारित करती है। चूॅकि शनि की तीसरी, सातवी और दसवीं दृष्टि होती है अतः जातक की कुंडली में शनि जहाॅ हो, उसके साथ अपनी तीसरी दृष्टि, सांतवी दृष्टि और दसवीं दृष्टि के अनुरूप सम्मिलित फल प्रदान करता है। जैसे यदि किसी जातक की कुंडली में शनि वृष राषि में हों तो मेष से तुला की ओर बढ़ने पर उच्चता की ओर अग्रसर हैं चूॅकि वृष राषि भौतिक वस्तुओं, धन तथा कुटुंब का भाव होता है अतः जातक के आय का साधन भौतिक वस्तुएॅ, धन या पारिवारिक कर्म, तीसरी दृष्टि कर्क राषि पर होने से कर्क राषि का कारक माता, मकान, चावल, चांदी, जनता और वाहन होता है तथा धन तथा समृद्धि प्राप्ति का साधन, खेती अथवा कर्क से संबंधित समस्त कार्य या इन से संबंधित क्षेत्र, शनि की सातवीं दृष्टि वृष्चिक राषि, जिसका स्वामी मंगल होता है, जो भूमि, संपत्ति तथा विक्रय का कारक होता है अतः संपत्ति बेचना या पैतृक बटवारा या पारिवारिक कार्य अथवा इससे संबंधित कार्य से कमीषन प्राप्त करने अथवा दवाईयाॅ औजार इत्यादि का कार्य करेगा। शनि की दसवीं दृष्टि कुंभ राषि पर होगी, जिसका स्वामी स्वयं शनि होता है, जोकि भाई, दोस्त के सहयोग से कार्य करेगा साथ ही संचार के साधनों की राषि है अतः जीविकापार्जन हेतु संचार के अच्छे से अच्छे साधन का प्रयोग, तकनीकी साधन प्रयुक्त करेगा। इस प्रकार मेष में कार्य की स्थिति की अपेक्षा वृष राषि में बेहतर होगी। इस प्रकार तुला में उच्च अर्थात् कार्य करवाने में समक्ष होगा। इस प्रकार किसी जातक की शनि की स्थिति तथा गोचर में शनि की दषा को अनुकूल बनाकर कार्य तथा आय के साधन को मजबूत किया जा सकता है। 


Pt.P.S Tripathi
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