शुक्र की महादशा मेष लग्न में शुक्र धन भाव का स्वामी होता है और जन्म कुंडली में किस भाव में स्थित है उसका भी विशेष महत्व है। जब भी शुक्र की दशा आयेगी धन योग का फल मिलेगा लेकिन दशा के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल प्राप्त होगा। लग्न में शुक्र मेष लग्न में शुक्र लग्न में ही हो तो इस महादशा में धन और सुख का नाश होता है। वह सदा भ्रमणकारी होता है, व्यसनी और चंचल स्वभाव का होता है। द्वितीय भाव में शुक्र द्वितीय भाव में होने पर शुक्र की महादशा में कृषि करने वाला, सत्यवादी और ज्ञानी होता है। उसके सुख की वृद्धि और शास्त्रों की ओर विलक्षण रूचि होती है। उसे कन्या संतान होती है। तृतीय भाव में शुक्र इस भाव में होने पर शुक्र की महादशा में काव्य-कला का जानने वाला, हास्य विलास प्रिय, कथा इत्यादि में रूचि रखने वाला होता है। चतुर्थ भाव में शुक्र चतुर्थ भाव में होने पर शुक्र की दशा में जातक अपने कार्य में दक्ष, उद्यमी और अपनी स्त्री के लिए उत्सुक व कृतज्ञ होता है। पंचम भाव में शुक्र पंचम भाव में होने पर शुक्र की दशा में स्त्रियों से धन प्राप्त करने वाला, पराये धन से जीवन व्यतीत करने वाला पुत्र और चैपाये जीवों से कुछ सुखी तथा पुराने मकान में वास करने वाला होता है। स्त्री का नाश, भ्रातृ-वियोग, स्वजनों से विरोध और कलह होता है। छठे भाव में शुक्र षष्ठ भाव में होने पर शुक्र की महादशा में सुख का नाश, धन की कमी, मन में चंचलता, मनोरथ का नाश और अपने स्थान से विचलन होता है। सप्तम भाव में शुक्र जन्म कुंडली के योग जीवन में हर समय ही फल नहीं देते रहते हैं। जब उनकी दशा या अंतर्दशा आती है, तब वे विशेष फल प्रदान करते हैं। विंशोत्तरी दशा से फल जानने के लिये आठ सूत्र होते हैं, जिन्हें पहले समझते हैं: 1. जिस ग्रह की महादशा है, वह किस भाव का स्वामी है और उसकी अंतर्दशा में शुभ और अशुभ ग्रहों की अंतर्दशा का क्या फल होता है। 2. दशानाथ की भिन्न-भिन्न भावों में स्थिति के अनुसार अंतर्दशा फल। 3. अन्तर्दशा स्वामी जिस भाव में बैठा है उसके अनुसार फल। 4. दशानाथ से अन्तर्दशा किस स्थान में है यानि दशानाथ से अन्तर्दशा द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ आदि स्थान में है, और उस स्थान में रहने के कारण क्या फल होता है? 5. अन्तर्दशा की अवस्था आदि का विचार एवं अन्तर्दशा की शुभ, अशुभ दृष्टि आदि के फल का निर्णय। 6. प्रत्येक ग्रह की दशा में अन्यान्य ग्रहों की अंतर्दशा का स्वाभाविक फल। 7. कुछ छोटे-छोटे योगों द्वारा दशा-अंतर्दशा के फल। 8. ग्रह गण किन-किन कारणों से कब-कब फल देने में समर्थ होते हैं? एवं वर्ष, ऋतु, मास, नक्षत्र, तिथि, करण, वार और योग आदि काल किस समय में विकास दिखलाता है। सप्तम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में जातक खेती करने वाला, धन वाहनों से युक्त और अपनी जाति में मान एवं प्रतिष्ठा पाने वाला होता है। अष्टम भाव में शुक्र अष्टम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में परोपकार-निरत प्रतापी एवं विदेशवासी होता है। परंतु ़णग्रस्त और कलहकारी होता है। नवम भाव में शुक्र नवम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में राज द्वार से यथेष्ट सम्मान एवं प्रतिष्ठा पाने वाला और शिल्पविद्या में निपुण होता है परंतु उसके शत्रुओं की वृद्धि होती है और वह दुखी रहता है। दशम भाव में शुक्र दशम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में शत्रुओं की विजय करने वाला, सहनशील, कुटंुबीजन से चिंतित और कफ, वात-रोग से निर्बल होता है। एकादश भाव में शुक्र एकादश भाव में होने पर शुक्र की दशा में व्यसनों से व्याकुल, रोगी, श्रेष्ठ कर्मों से रहित और मिथ्यावादी होता है। द्वादश भाव में शुक्र द्वादश भाव में होने पर शुक्र की दशा में राज्य का प्रधान, धनी, कृषि से लाभ करने वाला और अनेक सुखों से युक्त होता है।
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Monday, 21 September 2015
मेष लग्न के विभिन्न भावों में शुक्र की दशा का फल
शुक्र की महादशा मेष लग्न में शुक्र धन भाव का स्वामी होता है और जन्म कुंडली में किस भाव में स्थित है उसका भी विशेष महत्व है। जब भी शुक्र की दशा आयेगी धन योग का फल मिलेगा लेकिन दशा के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल प्राप्त होगा। लग्न में शुक्र मेष लग्न में शुक्र लग्न में ही हो तो इस महादशा में धन और सुख का नाश होता है। वह सदा भ्रमणकारी होता है, व्यसनी और चंचल स्वभाव का होता है। द्वितीय भाव में शुक्र द्वितीय भाव में होने पर शुक्र की महादशा में कृषि करने वाला, सत्यवादी और ज्ञानी होता है। उसके सुख की वृद्धि और शास्त्रों की ओर विलक्षण रूचि होती है। उसे कन्या संतान होती है। तृतीय भाव में शुक्र इस भाव में होने पर शुक्र की महादशा में काव्य-कला का जानने वाला, हास्य विलास प्रिय, कथा इत्यादि में रूचि रखने वाला होता है। चतुर्थ भाव में शुक्र चतुर्थ भाव में होने पर शुक्र की दशा में जातक अपने कार्य में दक्ष, उद्यमी और अपनी स्त्री के लिए उत्सुक व कृतज्ञ होता है। पंचम भाव में शुक्र पंचम भाव में होने पर शुक्र की दशा में स्त्रियों से धन प्राप्त करने वाला, पराये धन से जीवन व्यतीत करने वाला पुत्र और चैपाये जीवों से कुछ सुखी तथा पुराने मकान में वास करने वाला होता है। स्त्री का नाश, भ्रातृ-वियोग, स्वजनों से विरोध और कलह होता है। छठे भाव में शुक्र षष्ठ भाव में होने पर शुक्र की महादशा में सुख का नाश, धन की कमी, मन में चंचलता, मनोरथ का नाश और अपने स्थान से विचलन होता है। सप्तम भाव में शुक्र जन्म कुंडली के योग जीवन में हर समय ही फल नहीं देते रहते हैं। जब उनकी दशा या अंतर्दशा आती है, तब वे विशेष फल प्रदान करते हैं। विंशोत्तरी दशा से फल जानने के लिये आठ सूत्र होते हैं, जिन्हें पहले समझते हैं: 1. जिस ग्रह की महादशा है, वह किस भाव का स्वामी है और उसकी अंतर्दशा में शुभ और अशुभ ग्रहों की अंतर्दशा का क्या फल होता है। 2. दशानाथ की भिन्न-भिन्न भावों में स्थिति के अनुसार अंतर्दशा फल। 3. अन्तर्दशा स्वामी जिस भाव में बैठा है उसके अनुसार फल। 4. दशानाथ से अन्तर्दशा किस स्थान में है यानि दशानाथ से अन्तर्दशा द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ आदि स्थान में है, और उस स्थान में रहने के कारण क्या फल होता है? 5. अन्तर्दशा की अवस्था आदि का विचार एवं अन्तर्दशा की शुभ, अशुभ दृष्टि आदि के फल का निर्णय। 6. प्रत्येक ग्रह की दशा में अन्यान्य ग्रहों की अंतर्दशा का स्वाभाविक फल। 7. कुछ छोटे-छोटे योगों द्वारा दशा-अंतर्दशा के फल। 8. ग्रह गण किन-किन कारणों से कब-कब फल देने में समर्थ होते हैं? एवं वर्ष, ऋतु, मास, नक्षत्र, तिथि, करण, वार और योग आदि काल किस समय में विकास दिखलाता है। सप्तम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में जातक खेती करने वाला, धन वाहनों से युक्त और अपनी जाति में मान एवं प्रतिष्ठा पाने वाला होता है। अष्टम भाव में शुक्र अष्टम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में परोपकार-निरत प्रतापी एवं विदेशवासी होता है। परंतु ़णग्रस्त और कलहकारी होता है। नवम भाव में शुक्र नवम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में राज द्वार से यथेष्ट सम्मान एवं प्रतिष्ठा पाने वाला और शिल्पविद्या में निपुण होता है परंतु उसके शत्रुओं की वृद्धि होती है और वह दुखी रहता है। दशम भाव में शुक्र दशम भाव में होने पर शुक्र की महादशा में शत्रुओं की विजय करने वाला, सहनशील, कुटंुबीजन से चिंतित और कफ, वात-रोग से निर्बल होता है। एकादश भाव में शुक्र एकादश भाव में होने पर शुक्र की दशा में व्यसनों से व्याकुल, रोगी, श्रेष्ठ कर्मों से रहित और मिथ्यावादी होता है। द्वादश भाव में शुक्र द्वादश भाव में होने पर शुक्र की दशा में राज्य का प्रधान, धनी, कृषि से लाभ करने वाला और अनेक सुखों से युक्त होता है।
कर्ज को बढाने वाले अशुभ रोग
मनुष्य जीवन अमूल्य है - ऐसा जानकर हमारे ऋषियों ने चार पुरुषार्थ घर्मं, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किए हैं। ज्योतिष में अर्थ प्राप्ति और अर्थ संचय का ज्ञान जन्म पत्रिका के प्रथम, द्वितीय, पंचम, नवम,दशम एवं एकादश भाव से होता है। प्रथम भाव से जातक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व व स्वास्थ्य का आकलन करते हैं। द्वितीय भाव से धन संचय, पंचम से धन-प्राप्ति, बुद्धि, नवम से भाग्य, दशम से व्यवसाय तथा एकादश भाव से लाभ का ज्ञान होता है। बृहस्पति धन का कारक ग्रह है। उपरोक्त भावों व भावेशों में गुरु की युति दृष्टि संबंध शुभ हैं। वर्तमान भौतिक युग में व्यकित अर्थ अभाव का संकट नहीं झेल सकता। अर्थ अभाव, दरिद्रता से उसमें मानसिक तनाव, अवसाद, कुंठा, मानसिक रोग, रचंतचाप, हदय रोग उत्पन्न हो रहे हैं। व्यकित कठोर परिश्रम के पश्चात् भी अर्थ सुख नहीं पा रहा हैं। जातक की कुंडली में उपरोक्त भाव- भावेश पीड़ित होते हैं या उन पर क्रूर ग्रहों और त्रिक स्थानों, षष्ट, अष्टम, द्वादश भाव का प्रभाव होता है तो आर्थिक अभाव व समस्याओं का सामना करते हैं। महर्षि वराहमिहिर, वैद्यनाथ, कल्याणवर्मा, सत्याचार्य, इत्यादि देवज्ञों अनुसार निम्न अशुभ योग धन हानि कराते हैं-यदि कुण्डली में राज रोग या शुभ धन योग का अभाव होता है तो व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते है।
शकट :- लग्न कुण्डली में चन्द्रमा से छठे या आठवें स्थान में गुरु हो तथा यह गुरु लग्न से केन्द्र स्थान में न हो तो शकट योग बनता है। शकट का अर्थ वाहन का पहिया । जिस प्रकार वाहन में चलता हुआ पहिया कभी ऊपर तो कभी नीचे होता है, उसी प्रकार जातक का यश और भाग्य उन्नती और अवनति होकर कोई न कोई संकट आता रहता है। यह योग भाग्यहीन बनाएगा तथा जीवन में कितने ही उतार-चढाव देखने पड़ेंगे। आर्थिक स्थिति साधारण रहेगी तथा उन्नति करने के प्रयास सफल नहीं होगी कर्ज के भार से दबे रहेंगे तथा सगे-सम्बंन्धी भी आपके कार्यों से घृणा करेंगे।
हमेशा मुश्किल में फंसा हुआ सबका अप्रिय रहता है। जातक अनासक्त (अलग), गृह विहीन साधारण जीवन व्यतीत करेगा। कमी ऐसे व्यकित का सितारा बहुत तेज तो कभी सितारा बिलकूल गिर जाता है।
जब चन्द्रमा जन्म के गुरु से 6, 8, 12 भाव में गोचर आता है तब शकट योग का प्रभाव दरिद्रता आदि देता है।
अन्य मत से लग्न और सप्तम में सभी ग्रहों हों तो भी शकट योग होता है। जातक रोग पीड़ित, खींचतान कर आजीविका चलाने वाला, निर्धन, मित्रवर्ग तथा आत्मीय जनों से विहीन होता है।
आश्रय योग :- यदि लग्न चर राशि में हो तथा कई ग्रह चर राशि में हो तो रज्जुयोग होता है। रज्जुयोग वाला महत्वाकांक्षी, नाम और यश की चाह वाला, यात्रा प्रिय, शीघ्र निर्णय लेने वाला, बौद्धिक रूप से गतिशील और खुले दिमाग का होता है। कमी-कभी अत्यधिक परिवर्तनीय स्वभाव, अनिर्णय, अविश्वसनीय और किसी एक कार्य में संलग्न रहने में असमर्थ होता है। जातक लगातार संघर्ष में रहता है और सामान्यत: स्थिर सम्पति बनाने में सफलता नहीं मिलती व व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते हैं।
रन्ध्र मालिका योग :- यदि जन्य कुण्डली में अष्टम भाव से लगातार सात भावों में सातों ग्रह हों तो यह रन्ध्रमालिका योग कहलाता है। यह मिश्रित फल दाता योग है। ये दीर्घायु होंगे, किन्तु जीवन में सदा धन की चिंता लगी रहेगी। प्रतिष्ठा तथा सफलता के बाद भी पारिवारिक मतभेदों से पीडित हो सकते हैं। इस कारण कर्ज के भार से दबे रहते हैं।
राज भंग योग :- यदि लग्न कुण्डली में सूर्य तुला राशि में परम नीच
अंशों (0 से 10 अंशों तक) में हो तथा मंगल से दृष्ट हो या शनि जन्म लग्न या केंद्र स्थान में हो तो राजभंग योग होता है | यह योग राजयोग तथा अन्य शुभ योगों को कमजोर बनाता है | मानसिक चिंता,अनावश्यक व्यय,शारीरिक कष्ट आदि से पीड़ित हो सकते है किनती ये अशुभ फल राजभंग योग कारक ग्रहों की दशान्तार्दशा में ही प्राप्त होगे।
चन्द्र क्रितोरिष्ट भंग योग :- यदि शुक्ल पक्ष में रात्रि या कृष्या पक्ष में दिन में जन्म हो तो चन्द्र कृतोरिष्ट भंग योग बनता है। चन्द्रमा मन है, अत: सर्वाधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। यह योग भाग्योंन्नती में पग-पग पर बाधा दल सकता है |
लग्नेश क्रितोरिष्ट योग :लग्नेश की निर्बल अथवा 6, 8, 12वें भाव में स्थिति अनिष्ट कारक मानी जाती है। यह योग कर्ज को बढ़ाते हैं।
ग्रहण योग. लग्न कुण्डली में चन्द्रमा व राहु दोनों एक ही भाव में स्थित हो या चन्द्रमा को राहु पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो ग्रहण योग होगा। जिनके यह योग सुजीत हो वह परेशानियों से ग्रस्त परिश्रमी, आत्मबल की कमी, मानसिक कष्ट तथा व्यर्थ की चिंताओं से ग्रसित रहेगे।
नल योग :- यदि कुण्डली में सभी ग्रह द्विस्वभाव राशियों (3, 6, 9, 12) में स्थित हों या लग्न द्विस्वभाव राशि में हो तो नलयोग होता है। यह योग व्यग्र, अस्थिर विचारों वाले, चिन्तित, हतोत्साहित तथा आत्मकेंद्रित प्रक्रति व किसी भी कार्य की शुरूआत जौर-रुगोर से, परंतु मानसिक अस्थिरता वा। उसे पूर्ण करना कठिन प्रतीत होगा व्यवसाय परिवर्तन,आर्थिक प्रगति में विलम्ब,आत्मबल की कमी से आपके कार्यों की सफलता में बढ़ा हो सकती है | अवसर चुकने की प्रवित्ति होती है,जिससे निराशा और उदासी होती है व् व्यक्ति के कर्ज लेने के योग बनते हैं |
शकट :- लग्न कुण्डली में चन्द्रमा से छठे या आठवें स्थान में गुरु हो तथा यह गुरु लग्न से केन्द्र स्थान में न हो तो शकट योग बनता है। शकट का अर्थ वाहन का पहिया । जिस प्रकार वाहन में चलता हुआ पहिया कभी ऊपर तो कभी नीचे होता है, उसी प्रकार जातक का यश और भाग्य उन्नती और अवनति होकर कोई न कोई संकट आता रहता है। यह योग भाग्यहीन बनाएगा तथा जीवन में कितने ही उतार-चढाव देखने पड़ेंगे। आर्थिक स्थिति साधारण रहेगी तथा उन्नति करने के प्रयास सफल नहीं होगी कर्ज के भार से दबे रहेंगे तथा सगे-सम्बंन्धी भी आपके कार्यों से घृणा करेंगे।
हमेशा मुश्किल में फंसा हुआ सबका अप्रिय रहता है। जातक अनासक्त (अलग), गृह विहीन साधारण जीवन व्यतीत करेगा। कमी ऐसे व्यकित का सितारा बहुत तेज तो कभी सितारा बिलकूल गिर जाता है।
जब चन्द्रमा जन्म के गुरु से 6, 8, 12 भाव में गोचर आता है तब शकट योग का प्रभाव दरिद्रता आदि देता है।
अन्य मत से लग्न और सप्तम में सभी ग्रहों हों तो भी शकट योग होता है। जातक रोग पीड़ित, खींचतान कर आजीविका चलाने वाला, निर्धन, मित्रवर्ग तथा आत्मीय जनों से विहीन होता है।
आश्रय योग :- यदि लग्न चर राशि में हो तथा कई ग्रह चर राशि में हो तो रज्जुयोग होता है। रज्जुयोग वाला महत्वाकांक्षी, नाम और यश की चाह वाला, यात्रा प्रिय, शीघ्र निर्णय लेने वाला, बौद्धिक रूप से गतिशील और खुले दिमाग का होता है। कमी-कभी अत्यधिक परिवर्तनीय स्वभाव, अनिर्णय, अविश्वसनीय और किसी एक कार्य में संलग्न रहने में असमर्थ होता है। जातक लगातार संघर्ष में रहता है और सामान्यत: स्थिर सम्पति बनाने में सफलता नहीं मिलती व व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते हैं।
रन्ध्र मालिका योग :- यदि जन्य कुण्डली में अष्टम भाव से लगातार सात भावों में सातों ग्रह हों तो यह रन्ध्रमालिका योग कहलाता है। यह मिश्रित फल दाता योग है। ये दीर्घायु होंगे, किन्तु जीवन में सदा धन की चिंता लगी रहेगी। प्रतिष्ठा तथा सफलता के बाद भी पारिवारिक मतभेदों से पीडित हो सकते हैं। इस कारण कर्ज के भार से दबे रहते हैं।
राज भंग योग :- यदि लग्न कुण्डली में सूर्य तुला राशि में परम नीच
अंशों (0 से 10 अंशों तक) में हो तथा मंगल से दृष्ट हो या शनि जन्म लग्न या केंद्र स्थान में हो तो राजभंग योग होता है | यह योग राजयोग तथा अन्य शुभ योगों को कमजोर बनाता है | मानसिक चिंता,अनावश्यक व्यय,शारीरिक कष्ट आदि से पीड़ित हो सकते है किनती ये अशुभ फल राजभंग योग कारक ग्रहों की दशान्तार्दशा में ही प्राप्त होगे।
चन्द्र क्रितोरिष्ट भंग योग :- यदि शुक्ल पक्ष में रात्रि या कृष्या पक्ष में दिन में जन्म हो तो चन्द्र कृतोरिष्ट भंग योग बनता है। चन्द्रमा मन है, अत: सर्वाधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। यह योग भाग्योंन्नती में पग-पग पर बाधा दल सकता है |
लग्नेश क्रितोरिष्ट योग :लग्नेश की निर्बल अथवा 6, 8, 12वें भाव में स्थिति अनिष्ट कारक मानी जाती है। यह योग कर्ज को बढ़ाते हैं।
ग्रहण योग. लग्न कुण्डली में चन्द्रमा व राहु दोनों एक ही भाव में स्थित हो या चन्द्रमा को राहु पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो ग्रहण योग होगा। जिनके यह योग सुजीत हो वह परेशानियों से ग्रस्त परिश्रमी, आत्मबल की कमी, मानसिक कष्ट तथा व्यर्थ की चिंताओं से ग्रसित रहेगे।
नल योग :- यदि कुण्डली में सभी ग्रह द्विस्वभाव राशियों (3, 6, 9, 12) में स्थित हों या लग्न द्विस्वभाव राशि में हो तो नलयोग होता है। यह योग व्यग्र, अस्थिर विचारों वाले, चिन्तित, हतोत्साहित तथा आत्मकेंद्रित प्रक्रति व किसी भी कार्य की शुरूआत जौर-रुगोर से, परंतु मानसिक अस्थिरता वा। उसे पूर्ण करना कठिन प्रतीत होगा व्यवसाय परिवर्तन,आर्थिक प्रगति में विलम्ब,आत्मबल की कमी से आपके कार्यों की सफलता में बढ़ा हो सकती है | अवसर चुकने की प्रवित्ति होती है,जिससे निराशा और उदासी होती है व् व्यक्ति के कर्ज लेने के योग बनते हैं |
Heart diseases and its astrological causes and Remedies
The heart is a four-chambered Electro-muscular pump designed to circulate the blood around the whole body continuously, without even a pause, till the end of life, Infact, it is a pair of pumps placed side by side. The heart is positioned in the chest just over the lower side of the left loave of the lungs. The first situated on the right side of the heart. This pump recovers blood from the body through the veins and ills right ventricle of the heart and then pumps right blood to lungs. The second pump on the left recovers purified bood back from the lungs and fills the left ventricle of the heart and then pumps the blood to the body. Four valves control these functions. The blood supply to the heart muscle (the myocardium) itself is provided by special arteries, called CORONARY arteries. The function of the heart is controlled and regulated by electrical impulses, originating in the sinus node, structure embedded in the heart muscle. Nearly 72 impulses are passed every minute through myocardium, this generates equal number of heartbeats. In this process, heart muscle develops pressure (blood-pressure) which is responsible for the flow of blood in the body. The nature has created another mechanical pumps (two in number) which are situated in each of the calf muscles of the legs. These pumping systems is only operative when a person is walking, running of performing some specific exercises and help the heart in accelerating the flow of blood supply in the body. These pumps do not operate when body is in resting mode. This is the board on which heart helps to maintain the circulation of blood in the body. Type of main Diseases of Heart (1) Congenital Heart Diseases. (a) The child may born with some defects in the heart like: abnormality in aortic and Pulmonary valves, deformation in both or either of the ventricles (general both ventricles are connected by a hole) etc. (b) Abnormalities caused during pregnancy like defects arising out during formation on account of drugs taken by mother etc. (c) On account of infects. German measles, rhecmatic fever etc. (2) Disease of the Valves On account of rheumatic fever. Claudication of valves etc., the flow of blood becomes restricted. This results in High blood pressure and related diseases of the heart. (3) Coronary heart Disease On account of several factors, the gradual narrowing of coronary arteries of excessive deposits of fats inside the walls of arteries occur. This results in the reduced supply of blood to heart muscle and myocardial infarction may result, which is called “Heat Attack”. (4) Cardiac muscle disease On account of infection, high blood pressure, congenital diseases etc. the heart muscles become weak and diseased. These are called as Cardio-myopathic. (5) Disturbance in Heart’s electrical system As healthy car engine cannot run without proper electrical system, similarly a healthy heart can perform properly if its electric system is sending proper and timely impulse. Many problems arise on account of mall functioning of heart’s electrical system. This is a broad and layman’s view about the possible causes of heart disease. This may help to identify astrological reasons for specific heart diseases in broader perspective. Astrological Principle 1. Significators for Heart (Positive Factors) (a) The Fourth House: The Fourth House indicates the heart of the native. Mind is also the seat of the fourth house. Heart and mind are very closely associated with each other. (b) Lord of the Fourth House : The second important significator of the heart is the Lord of fourth House. This is in accordance with the basic principle of predictive astrology. (c) Moon : The Moon is Natural ruler as well as signficator of fourth house. Moon is also significator of mind, thus Moon becomes important signficator of the heart. (d) Sign Cancer : Moon is the ruler of sign Cancer. This sign plays important Role as significators of heart. (c) Nakshatra ANURADHA : Anuradha is Heart of the KALAPURUSHA (Lord Vishnu). Thus this Nakshatra acts as significator of Heart. 2. Significators for the disease of heart (Negative factors) a) The Sun : Sun is the significator of the heart disease. When malefic influences operate on the Sun, heart diseases may be indicated. This also depends on other adverse indications such as malefie Dasas and transits. This is not important factor for the disease of the heart. b) Sign Leo : Sun being its natural associate, any affliction to this sign may promote heart disease. c) The Fifth House : The fifth house is the natural seat of sign Leo and its Lord Sun. Affliction to this house becomes a strong factor in causing heart disease, further, this is the house of intellect which has a direct bearing on the well being of the heart muscle as well as its functioning. On account of this reason, some authorities have even advocated that real seat of heart is fifth house in comparison with fourth house. However, as heart is more akin to watery element (then five), we feel it is more appropriate that forth house should be considered the prime seat of the heart. The fifth house either help in the growth and well being of the heart or if fifth house is afflicted it promotes the disease of the heart. The fifth house is a Marka house for heart muscle being second house from fourth house. d) The Lord of the Fifth House : The Lord of the fifth house acts as a Marka to heart muscle as well as if afflicted causes heart disease. 3. Secondary Significators for the disease of the heart (Secondary Negative Factors) (A) 2nd Drekkana: In case, ascendant falls in the 2nd Drekkana of the rising sign, the fifth and the ninth houses in Rashi chart become the indicator of Right and left sides of the heart muscle respectively. In case of any affliction to those houses indicate the strong possibility of heart disease depending upon the type of malefic influences operating on these houses. (B) Sign Aquarius: In chapter 1 sloka 8 of srihatlatak Varah Mihira identified Aquarius as “Hirdyaroga”. The placement of Sun in this sign does not augur well for heart. (C) The Eleventh House: Eleventh House is the natural seat of sign Aquarius. This is the house of fulfilment of desire, which has a strong bearing both on mind and Intellect. The two Calf-muscles of both legs are also signified by eleventh house and sign Aquarius. Thus, this house becomes one of the strong significator for heart disease. This house is eighth from the fourth house. Any affliction to the fifth and eleventh house axis may cause heart disease. (D) Nakshatra Magha(Leo 0 degree - 13 degree 20') (Yavan jatak) An afflicted planet in this Nakshatra may cause sudden shock and pollution to the heart. Ketu is the ruler of this Nakshatra and triggers accidents and sudden events. (E) Nakshatra Purva Phalguni (Leo 13 degree 20' to 26 degree 40') (Yavan Jatak) This star has a strong signification over heart and generates swelling of heart Muscles.. (F) Dhanista- Last two charan (Aquarius 0 degree - 6 degree 40') This star may trigger sudden failure of heart and carries the influence of sign Aquarius and Mars. (G) Shatabhisha(Aquarius 6 degree 40' -20 degree) This star rules over Electricity, which is vital for proper and regular functioning of the heart. Both Rahu and Hershel rule over Electricity and are the co-rulers of sign Aquarius. This star rules Rheumatic heart disease, high blood pressure, palpitation and other mal-functioning in the heart on account of its electrical system. Both Rahu and Hershel play vital Role for such problems in the heart. (H) Poorva Bhadarpad -First three Quarters: (Aquarius 20 degree to 30 degree) This rules over the irregularities in function, swelling and dilation of heart muscle. The Jupiter is the Ruler of this star and represents expansions, swelling, dilation etc when afflicted. Indication for prevention of heart disease 1. In case Fourth house, its Lord, its Karka Moon, sign Cancer and Nakshatra Anuradha are in auspicious influence, the heart would be strong and would resist any indications and yoga(s) which may exist in the birth chart for the disease of heart. These are summarised as under: (A) If Moon and Lord of the fourth house are: i. In their Exaltation, Mooltrikona and own Rashi(s). ii. Conjunct, hemmed or/and aspected by benefic planets. iii.. Placed in good Bhavas-Kendra and trikona (it would be better if both from Ascendant and fourth house) iv. Moving towards their exaltation sign. v. Vargottama, exaltation or own Navmasas. vi. With six or more in their own Astak Vargas and more than 32 bindus in Sarva Astakvarga. vii. Dispositor of these planets are similarly in auspicious influence. viii. These planets have acquired requisite Shad-Bala and Vimshopak strength. ix. Placed in auspicious Shashtiyamsa (60th part of the rashi) These are indications for strong and healthy heart. (B) On the contrary, the following factors will promote illness, if Moon and lord of fourth house are: (1) In their debilitation or enemy sign (2) Placement in 6th, 8th or/and 12th house from Ascendant and fourth house (3) Hemmed by Malefics. (4) Conjunction or aspect of Melefics (Mars, Saturn, Rahu, Ketu and lords of 6th 8th and 12th house) (5) Relationship (Sambandh) with the Lords of 6th, 8th and 12th Lords from fourth as Well as ascendant. (6) Melefics in 6,8 and 12 or 5 or 9th houses from fourth house. (7) Relationship with significators of diseases of heart.. (8) Placement of planets in debilitation, Enemy and malefic Navmasa or in the Navamasa of rashis falling in trik Bhavas (9) Planets with 3 or less Bindus in their own respective Astakvarga and 22 or less Bindus Sarvastak Vargas. (10) Bhavas, their Lords and Karka do not have requisite Shad-Bala and Vimshopak Strength (11) Placed in inauspicious Shashtiyamsa. (12) Fourth house and Cancer Rashi are occupied. aspected or hemmed by Malefics. Indication of Cardiac Illness. The following points are to be examined: I. Affliction to Sun: this is by far the most important factor in causing cardiac illness affliction from Saturn causes palpitation and shivering of heart. Ketu causes pain in the heart. Mars causes problem of blood circulation. Sun’s debilitation and relationship with 6, 8th and 12th houses or their Lords causes heart disease. II. Affliction to fifth house and 11th house and their Lords. III. Affliction to sign Leo and Aquarius. IV. Affliction to Lagna and its Lord. - This also causes diseases. V. Affliction to fourth and fifth houses from Moon and Sun respectively. VI. In the main Dasa of a malefic planet, if Antardasa lord is retrograde and situated in fifth house from Lagna or Sun, promotes Cardiac illness. VII. In the presence of sufficient affliction, the Dasa of planets associating with SUN, the 5th house, the 5th lord leads to Cardiac illness. VIII. Affiliction to seventh house from Moon or Darapada (Jaimini sutra 4.1.2). Any melific in seventh house will bring affliction and provide melefic argala on fifth house. IX. In the basic scheme, Lagna is the house of health, sixth is for disease, 8th for death, 2nd and 7th are Marka houses nand 12th is the house of decay. The ninth house is for growth and 11th house for recovery. When we consider similar scheme from house of heart i.e. the fourth house, the fourth house is for health of the heart, Ninth house is for its disease, 11th is for its death, 3rd for decay, 5th and 10th act as its Marka, 12th for growth and 2nd house from Lagna is for recovery of heart from disease. This gives some interesting information with regard to heart disease. 9th, 11th 12th and 2nd houses from Lagna are common in both schemes. Thus 9th house may promote growth of the whole body but at the cost of heart. Similarly 11th house may promote recovery of the body from other illnesses but may adversely harm the heart. 12th house may weaken the body but may contribute to the health of the heart. 2nd house may help from the recovery of heart from the of disease but may sometimes be fatal to the native on account other reasons. These are the contradictions which Doctors and native face in life in actual practice. The astrologer should be very careful while assessing the recovery of a particular organ of the body. All these factors are to be properly weighed before reaching a prediction on the recovery of the Native from the illness. When main Karka of heart are strong and in good influence like fourth house, Moon, Lord of the fourth house, sign Cancer, and star Anuradha, the heart would be strong. If these factors are WEAK AND AFFLICTED the heart would be weak and liable to contact disease. On the other hand, if Karkas for promoting disease of the heart are in benefic influence, they would not promote disease. If thee are afflicted they would certainly promote disease even if heart Muscle and its function both are in healthy condition both the above factors, the Karkas of heart and its disease are afflicted the disease in the heart would be of serious nature.
Heart diseases and its astrological causes and Remedies
The heart is a four-chambered Electro-muscular pump designed to circulate the blood around the whole body continuously, without even a pause, till the end of life, Infact, it is a pair of pumps placed side by side. The heart is positioned in the chest just over the lower side of the left loave of the lungs. The first situated on the right side of the heart. This pump recovers blood from the body through the veins and ills right ventricle of the heart and then pumps right blood to lungs. The second pump on the left recovers purified bood back from the lungs and fills the left ventricle of the heart and then pumps the blood to the body. Four valves control these functions. The blood supply to the heart muscle (the myocardium) itself is provided by special arteries, called CORONARY arteries. The function of the heart is controlled and regulated by electrical impulses, originating in the sinus node, structure embedded in the heart muscle. Nearly 72 impulses are passed every minute through myocardium, this generates equal number of heartbeats. In this process, heart muscle develops pressure (blood-pressure) which is responsible for the flow of blood in the body. The nature has created another mechanical pumps (two in number) which are situated in each of the calf muscles of the legs. These pumping systems is only operative when a person is walking, running of performing some specific exercises and help the heart in accelerating the flow of blood supply in the body. These pumps do not operate when body is in resting mode. This is the board on which heart helps to maintain the circulation of blood in the body. Type of main Diseases of Heart (1) Congenital Heart Diseases. (a) The child may born with some defects in the heart like: abnormality in aortic and Pulmonary valves, deformation in both or either of the ventricles (general both ventricles are connected by a hole) etc. (b) Abnormalities caused during pregnancy like defects arising out during formation on account of drugs taken by mother etc. (c) On account of infects. German measles, rhecmatic fever etc. (2) Disease of the Valves On account of rheumatic fever. Claudication of valves etc., the flow of blood becomes restricted. This results in High blood pressure and related diseases of the heart. (3) Coronary heart Disease On account of several factors, the gradual narrowing of coronary arteries of excessive deposits of fats inside the walls of arteries occur. This results in the reduced supply of blood to heart muscle and myocardial infarction may result, which is called “Heat Attack”. (4) Cardiac muscle disease On account of infection, high blood pressure, congenital diseases etc. the heart muscles become weak and diseased. These are called as Cardio-myopathic. (5) Disturbance in Heart’s electrical system As healthy car engine cannot run without proper electrical system, similarly a healthy heart can perform properly if its electric system is sending proper and timely impulse. Many problems arise on account of mall functioning of heart’s electrical system. This is a broad and layman’s view about the possible causes of heart disease. This may help to identify astrological reasons for specific heart diseases in broader perspective. Astrological Principle 1. Significators for Heart (Positive Factors) (a) The Fourth House: The Fourth House indicates the heart of the native. Mind is also the seat of the fourth house. Heart and mind are very closely associated with each other. (b) Lord of the Fourth House : The second important significator of the heart is the Lord of fourth House. This is in accordance with the basic principle of predictive astrology. (c) Moon : The Moon is Natural ruler as well as signficator of fourth house. Moon is also significator of mind, thus Moon becomes important signficator of the heart. (d) Sign Cancer : Moon is the ruler of sign Cancer. This sign plays important Role as significators of heart. (c) Nakshatra ANURADHA : Anuradha is Heart of the KALAPURUSHA (Lord Vishnu). Thus this Nakshatra acts as significator of Heart. 2. Significators for the disease of heart (Negative factors) a) The Sun : Sun is the significator of the heart disease. When malefic influences operate on the Sun, heart diseases may be indicated. This also depends on other adverse indications such as malefie Dasas and transits. This is not important factor for the disease of the heart. b) Sign Leo : Sun being its natural associate, any affliction to this sign may promote heart disease. c) The Fifth House : The fifth house is the natural seat of sign Leo and its Lord Sun. Affliction to this house becomes a strong factor in causing heart disease, further, this is the house of intellect which has a direct bearing on the well being of the heart muscle as well as its functioning. On account of this reason, some authorities have even advocated that real seat of heart is fifth house in comparison with fourth house. However, as heart is more akin to watery element (then five), we feel it is more appropriate that forth house should be considered the prime seat of the heart. The fifth house either help in the growth and well being of the heart or if fifth house is afflicted it promotes the disease of the heart. The fifth house is a Marka house for heart muscle being second house from fourth house. d) The Lord of the Fifth House : The Lord of the fifth house acts as a Marka to heart muscle as well as if afflicted causes heart disease. 3. Secondary Significators for the disease of the heart (Secondary Negative Factors) (A) 2nd Drekkana: In case, ascendant falls in the 2nd Drekkana of the rising sign, the fifth and the ninth houses in Rashi chart become the indicator of Right and left sides of the heart muscle respectively. In case of any affliction to those houses indicate the strong possibility of heart disease depending upon the type of malefic influences operating on these houses. (B) Sign Aquarius: In chapter 1 sloka 8 of srihatlatak Varah Mihira identified Aquarius as “Hirdyaroga”. The placement of Sun in this sign does not augur well for heart. (C) The Eleventh House: Eleventh House is the natural seat of sign Aquarius. This is the house of fulfilment of desire, which has a strong bearing both on mind and Intellect. The two Calf-muscles of both legs are also signified by eleventh house and sign Aquarius. Thus, this house becomes one of the strong significator for heart disease. This house is eighth from the fourth house. Any affliction to the fifth and eleventh house axis may cause heart disease. (D) Nakshatra Magha(Leo 0 degree - 13 degree 20') (Yavan jatak) An afflicted planet in this Nakshatra may cause sudden shock and pollution to the heart. Ketu is the ruler of this Nakshatra and triggers accidents and sudden events. (E) Nakshatra Purva Phalguni (Leo 13 degree 20' to 26 degree 40') (Yavan Jatak) This star has a strong signification over heart and generates swelling of heart Muscles.. (F) Dhanista- Last two charan (Aquarius 0 degree - 6 degree 40') This star may trigger sudden failure of heart and carries the influence of sign Aquarius and Mars. (G) Shatabhisha(Aquarius 6 degree 40' -20 degree) This star rules over Electricity, which is vital for proper and regular functioning of the heart. Both Rahu and Hershel rule over Electricity and are the co-rulers of sign Aquarius. This star rules Rheumatic heart disease, high blood pressure, palpitation and other mal-functioning in the heart on account of its electrical system. Both Rahu and Hershel play vital Role for such problems in the heart. (H) Poorva Bhadarpad -First three Quarters: (Aquarius 20 degree to 30 degree) This rules over the irregularities in function, swelling and dilation of heart muscle. The Jupiter is the Ruler of this star and represents expansions, swelling, dilation etc when afflicted. Indication for prevention of heart disease 1. In case Fourth house, its Lord, its Karka Moon, sign Cancer and Nakshatra Anuradha are in auspicious influence, the heart would be strong and would resist any indications and yoga(s) which may exist in the birth chart for the disease of heart. These are summarised as under: (A) If Moon and Lord of the fourth house are: i. In their Exaltation, Mooltrikona and own Rashi(s). ii. Conjunct, hemmed or/and aspected by benefic planets. iii.. Placed in good Bhavas-Kendra and trikona (it would be better if both from Ascendant and fourth house) iv. Moving towards their exaltation sign. v. Vargottama, exaltation or own Navmasas. vi. With six or more in their own Astak Vargas and more than 32 bindus in Sarva Astakvarga. vii. Dispositor of these planets are similarly in auspicious influence. viii. These planets have acquired requisite Shad-Bala and Vimshopak strength. ix. Placed in auspicious Shashtiyamsa (60th part of the rashi) These are indications for strong and healthy heart. (B) On the contrary, the following factors will promote illness, if Moon and lord of fourth house are: (1) In their debilitation or enemy sign (2) Placement in 6th, 8th or/and 12th house from Ascendant and fourth house (3) Hemmed by Malefics. (4) Conjunction or aspect of Melefics (Mars, Saturn, Rahu, Ketu and lords of 6th 8th and 12th house) (5) Relationship (Sambandh) with the Lords of 6th, 8th and 12th Lords from fourth as Well as ascendant. (6) Melefics in 6,8 and 12 or 5 or 9th houses from fourth house. (7) Relationship with significators of diseases of heart.. (8) Placement of planets in debilitation, Enemy and malefic Navmasa or in the Navamasa of rashis falling in trik Bhavas (9) Planets with 3 or less Bindus in their own respective Astakvarga and 22 or less Bindus Sarvastak Vargas. (10) Bhavas, their Lords and Karka do not have requisite Shad-Bala and Vimshopak Strength (11) Placed in inauspicious Shashtiyamsa. (12) Fourth house and Cancer Rashi are occupied. aspected or hemmed by Malefics. Indication of Cardiac Illness. The following points are to be examined: I. Affliction to Sun: this is by far the most important factor in causing cardiac illness affliction from Saturn causes palpitation and shivering of heart. Ketu causes pain in the heart. Mars causes problem of blood circulation. Sun’s debilitation and relationship with 6, 8th and 12th houses or their Lords causes heart disease. II. Affliction to fifth house and 11th house and their Lords. III. Affliction to sign Leo and Aquarius. IV. Affliction to Lagna and its Lord. - This also causes diseases. V. Affliction to fourth and fifth houses from Moon and Sun respectively. VI. In the main Dasa of a malefic planet, if Antardasa lord is retrograde and situated in fifth house from Lagna or Sun, promotes Cardiac illness. VII. In the presence of sufficient affliction, the Dasa of planets associating with SUN, the 5th house, the 5th lord leads to Cardiac illness. VIII. Affiliction to seventh house from Moon or Darapada (Jaimini sutra 4.1.2). Any melific in seventh house will bring affliction and provide melefic argala on fifth house. IX. In the basic scheme, Lagna is the house of health, sixth is for disease, 8th for death, 2nd and 7th are Marka houses nand 12th is the house of decay. The ninth house is for growth and 11th house for recovery. When we consider similar scheme from house of heart i.e. the fourth house, the fourth house is for health of the heart, Ninth house is for its disease, 11th is for its death, 3rd for decay, 5th and 10th act as its Marka, 12th for growth and 2nd house from Lagna is for recovery of heart from disease. This gives some interesting information with regard to heart disease. 9th, 11th 12th and 2nd houses from Lagna are common in both schemes. Thus 9th house may promote growth of the whole body but at the cost of heart. Similarly 11th house may promote recovery of the body from other illnesses but may adversely harm the heart. 12th house may weaken the body but may contribute to the health of the heart. 2nd house may help from the recovery of heart from the of disease but may sometimes be fatal to the native on account other reasons. These are the contradictions which Doctors and native face in life in actual practice. The astrologer should be very careful while assessing the recovery of a particular organ of the body. All these factors are to be properly weighed before reaching a prediction on the recovery of the Native from the illness. When main Karka of heart are strong and in good influence like fourth house, Moon, Lord of the fourth house, sign Cancer, and star Anuradha, the heart would be strong. If these factors are WEAK AND AFFLICTED the heart would be weak and liable to contact disease. On the other hand, if Karkas for promoting disease of the heart are in benefic influence, they would not promote disease. If thee are afflicted they would certainly promote disease even if heart Muscle and its function both are in healthy condition both the above factors, the Karkas of heart and its disease are afflicted the disease in the heart would be of serious nature.
Heart diseases and its astrological causes and Remedies
The heart is a four-chambered Electro-muscular pump designed to circulate the blood around the whole body continuously, without even a pause, till the end of life, Infact, it is a pair of pumps placed side by side. The heart is positioned in the chest just over the lower side of the left loave of the lungs. The first situated on the right side of the heart. This pump recovers blood from the body through the veins and ills right ventricle of the heart and then pumps right blood to lungs. The second pump on the left recovers purified bood back from the lungs and fills the left ventricle of the heart and then pumps the blood to the body. Four valves control these functions. The blood supply to the heart muscle (the myocardium) itself is provided by special arteries, called CORONARY arteries. The function of the heart is controlled and regulated by electrical impulses, originating in the sinus node, structure embedded in the heart muscle. Nearly 72 impulses are passed every minute through myocardium, this generates equal number of heartbeats. In this process, heart muscle develops pressure (blood-pressure) which is responsible for the flow of blood in the body. The nature has created another mechanical pumps (two in number) which are situated in each of the calf muscles of the legs. These pumping systems is only operative when a person is walking, running of performing some specific exercises and help the heart in accelerating the flow of blood supply in the body. These pumps do not operate when body is in resting mode. This is the board on which heart helps to maintain the circulation of blood in the body. Type of main Diseases of Heart (1) Congenital Heart Diseases. (a) The child may born with some defects in the heart like: abnormality in aortic and Pulmonary valves, deformation in both or either of the ventricles (general both ventricles are connected by a hole) etc. (b) Abnormalities caused during pregnancy like defects arising out during formation on account of drugs taken by mother etc. (c) On account of infects. German measles, rhecmatic fever etc. (2) Disease of the Valves On account of rheumatic fever. Claudication of valves etc., the flow of blood becomes restricted. This results in High blood pressure and related diseases of the heart. (3) Coronary heart Disease On account of several factors, the gradual narrowing of coronary arteries of excessive deposits of fats inside the walls of arteries occur. This results in the reduced supply of blood to heart muscle and myocardial infarction may result, which is called “Heat Attack”. (4) Cardiac muscle disease On account of infection, high blood pressure, congenital diseases etc. the heart muscles become weak and diseased. These are called as Cardio-myopathic. (5) Disturbance in Heart’s electrical system As healthy car engine cannot run without proper electrical system, similarly a healthy heart can perform properly if its electric system is sending proper and timely impulse. Many problems arise on account of mall functioning of heart’s electrical system. This is a broad and layman’s view about the possible causes of heart disease. This may help to identify astrological reasons for specific heart diseases in broader perspective. Astrological Principle 1. Significators for Heart (Positive Factors) (a) The Fourth House: The Fourth House indicates the heart of the native. Mind is also the seat of the fourth house. Heart and mind are very closely associated with each other. (b) Lord of the Fourth House : The second important significator of the heart is the Lord of fourth House. This is in accordance with the basic principle of predictive astrology. (c) Moon : The Moon is Natural ruler as well as signficator of fourth house. Moon is also significator of mind, thus Moon becomes important signficator of the heart. (d) Sign Cancer : Moon is the ruler of sign Cancer. This sign plays important Role as significators of heart. (c) Nakshatra ANURADHA : Anuradha is Heart of the KALAPURUSHA (Lord Vishnu). Thus this Nakshatra acts as significator of Heart. 2. Significators for the disease of heart (Negative factors) a) The Sun : Sun is the significator of the heart disease. When malefic influences operate on the Sun, heart diseases may be indicated. This also depends on other adverse indications such as malefie Dasas and transits. This is not important factor for the disease of the heart. b) Sign Leo : Sun being its natural associate, any affliction to this sign may promote heart disease. c) The Fifth House : The fifth house is the natural seat of sign Leo and its Lord Sun. Affliction to this house becomes a strong factor in causing heart disease, further, this is the house of intellect which has a direct bearing on the well being of the heart muscle as well as its functioning. On account of this reason, some authorities have even advocated that real seat of heart is fifth house in comparison with fourth house. However, as heart is more akin to watery element (then five), we feel it is more appropriate that forth house should be considered the prime seat of the heart. The fifth house either help in the growth and well being of the heart or if fifth house is afflicted it promotes the disease of the heart. The fifth house is a Marka house for heart muscle being second house from fourth house. d) The Lord of the Fifth House : The Lord of the fifth house acts as a Marka to heart muscle as well as if afflicted causes heart disease. 3. Secondary Significators for the disease of the heart (Secondary Negative Factors) (A) 2nd Drekkana: In case, ascendant falls in the 2nd Drekkana of the rising sign, the fifth and the ninth houses in Rashi chart become the indicator of Right and left sides of the heart muscle respectively. In case of any affliction to those houses indicate the strong possibility of heart disease depending upon the type of malefic influences operating on these houses. (B) Sign Aquarius: In chapter 1 sloka 8 of srihatlatak Varah Mihira identified Aquarius as “Hirdyaroga”. The placement of Sun in this sign does not augur well for heart. (C) The Eleventh House: Eleventh House is the natural seat of sign Aquarius. This is the house of fulfilment of desire, which has a strong bearing both on mind and Intellect. The two Calf-muscles of both legs are also signified by eleventh house and sign Aquarius. Thus, this house becomes one of the strong significator for heart disease. This house is eighth from the fourth house. Any affliction to the fifth and eleventh house axis may cause heart disease. (D) Nakshatra Magha(Leo 0 degree - 13 degree 20') (Yavan jatak) An afflicted planet in this Nakshatra may cause sudden shock and pollution to the heart. Ketu is the ruler of this Nakshatra and triggers accidents and sudden events. (E) Nakshatra Purva Phalguni (Leo 13 degree 20' to 26 degree 40') (Yavan Jatak) This star has a strong signification over heart and generates swelling of heart Muscles.. (F) Dhanista- Last two charan (Aquarius 0 degree - 6 degree 40') This star may trigger sudden failure of heart and carries the influence of sign Aquarius and Mars. (G) Shatabhisha(Aquarius 6 degree 40' -20 degree) This star rules over Electricity, which is vital for proper and regular functioning of the heart. Both Rahu and Hershel rule over Electricity and are the co-rulers of sign Aquarius. This star rules Rheumatic heart disease, high blood pressure, palpitation and other mal-functioning in the heart on account of its electrical system. Both Rahu and Hershel play vital Role for such problems in the heart. (H) Poorva Bhadarpad -First three Quarters: (Aquarius 20 degree to 30 degree) This rules over the irregularities in function, swelling and dilation of heart muscle. The Jupiter is the Ruler of this star and represents expansions, swelling, dilation etc when afflicted. Indication for prevention of heart disease 1. In case Fourth house, its Lord, its Karka Moon, sign Cancer and Nakshatra Anuradha are in auspicious influence, the heart would be strong and would resist any indications and yoga(s) which may exist in the birth chart for the disease of heart. These are summarised as under: (A) If Moon and Lord of the fourth house are: i. In their Exaltation, Mooltrikona and own Rashi(s). ii. Conjunct, hemmed or/and aspected by benefic planets. iii.. Placed in good Bhavas-Kendra and trikona (it would be better if both from Ascendant and fourth house) iv. Moving towards their exaltation sign. v. Vargottama, exaltation or own Navmasas. vi. With six or more in their own Astak Vargas and more than 32 bindus in Sarva Astakvarga. vii. Dispositor of these planets are similarly in auspicious influence. viii. These planets have acquired requisite Shad-Bala and Vimshopak strength. ix. Placed in auspicious Shashtiyamsa (60th part of the rashi) These are indications for strong and healthy heart. (B) On the contrary, the following factors will promote illness, if Moon and lord of fourth house are: (1) In their debilitation or enemy sign (2) Placement in 6th, 8th or/and 12th house from Ascendant and fourth house (3) Hemmed by Malefics. (4) Conjunction or aspect of Melefics (Mars, Saturn, Rahu, Ketu and lords of 6th 8th and 12th house) (5) Relationship (Sambandh) with the Lords of 6th, 8th and 12th Lords from fourth as Well as ascendant. (6) Melefics in 6,8 and 12 or 5 or 9th houses from fourth house. (7) Relationship with significators of diseases of heart.. (8) Placement of planets in debilitation, Enemy and malefic Navmasa or in the Navamasa of rashis falling in trik Bhavas (9) Planets with 3 or less Bindus in their own respective Astakvarga and 22 or less Bindus Sarvastak Vargas. (10) Bhavas, their Lords and Karka do not have requisite Shad-Bala and Vimshopak Strength (11) Placed in inauspicious Shashtiyamsa. (12) Fourth house and Cancer Rashi are occupied. aspected or hemmed by Malefics. Indication of Cardiac Illness. The following points are to be examined: I. Affliction to Sun: this is by far the most important factor in causing cardiac illness affliction from Saturn causes palpitation and shivering of heart. Ketu causes pain in the heart. Mars causes problem of blood circulation. Sun’s debilitation and relationship with 6, 8th and 12th houses or their Lords causes heart disease. II. Affliction to fifth house and 11th house and their Lords. III. Affliction to sign Leo and Aquarius. IV. Affliction to Lagna and its Lord. - This also causes diseases. V. Affliction to fourth and fifth houses from Moon and Sun respectively. VI. In the main Dasa of a malefic planet, if Antardasa lord is retrograde and situated in fifth house from Lagna or Sun, promotes Cardiac illness. VII. In the presence of sufficient affliction, the Dasa of planets associating with SUN, the 5th house, the 5th lord leads to Cardiac illness. VIII. Affiliction to seventh house from Moon or Darapada (Jaimini sutra 4.1.2). Any melific in seventh house will bring affliction and provide melefic argala on fifth house. IX. In the basic scheme, Lagna is the house of health, sixth is for disease, 8th for death, 2nd and 7th are Marka houses nand 12th is the house of decay. The ninth house is for growth and 11th house for recovery. When we consider similar scheme from house of heart i.e. the fourth house, the fourth house is for health of the heart, Ninth house is for its disease, 11th is for its death, 3rd for decay, 5th and 10th act as its Marka, 12th for growth and 2nd house from Lagna is for recovery of heart from disease. This gives some interesting information with regard to heart disease. 9th, 11th 12th and 2nd houses from Lagna are common in both schemes. Thus 9th house may promote growth of the whole body but at the cost of heart. Similarly 11th house may promote recovery of the body from other illnesses but may adversely harm the heart. 12th house may weaken the body but may contribute to the health of the heart. 2nd house may help from the recovery of heart from the of disease but may sometimes be fatal to the native on account other reasons. These are the contradictions which Doctors and native face in life in actual practice. The astrologer should be very careful while assessing the recovery of a particular organ of the body. All these factors are to be properly weighed before reaching a prediction on the recovery of the Native from the illness. When main Karka of heart are strong and in good influence like fourth house, Moon, Lord of the fourth house, sign Cancer, and star Anuradha, the heart would be strong. If these factors are WEAK AND AFFLICTED the heart would be weak and liable to contact disease. On the other hand, if Karkas for promoting disease of the heart are in benefic influence, they would not promote disease. If thee are afflicted they would certainly promote disease even if heart Muscle and its function both are in healthy condition both the above factors, the Karkas of heart and its disease are afflicted the disease in the heart would be of serious nature.
Sunday, 20 September 2015
Saturday, 19 September 2015
कुंडली में राहु का प्रभाव
प्रथम भाव में राहु का फल राहु यदि लग्न में हो तो जातक लापरवाह, पराक्रमी और अभिमानी होता है। उसे शीघ्र कीर्ति मिलती है। शक्तिवान होकर जातक लोगों की दृष्टि में श्रेष्ठ कहा जाता है। शिक्षा की ओर ऐसे जातकों का रूझान नहीं होता, इसलिये ये उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। दूसरे भाव में राहु का फल यदि किसी जातक की कुंडली में दूसरे भाव में राहु हो तो जातक रोगी और चिड़चिडे़ स्वभाव का होता है तथा पारिवारिक जीवन में उसे कई व्याघात सहन करने पड़ते हैं। यदि अन्य धन योग न हो तो आर्थिक दृष्टि से स्थिति डावांडोल ही रहती है। फिर भी ऐसा जातक बाल्यावस्था में तो द्रव्याभाव से पीड़ित रहता है, परंतु ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है उसके पास अर्थ संचय होता रहता है। तृतीय भाव में राहु का फल तीसरे भाव में राहु हो तो वह जातक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति होता है। पराक्रम एवं बल में उसकी समानता कम ही लोग कर पाते हैं। जातक की जान पहचान भी विस्तृत क्षेत्र में होती है एवं अपने प्रभाव से वह लोगों को अपने पक्ष में करने की युक्ति जानता है। सुंदर, दृढ़ शरीर, मांसल भुजाएं, उन्नत वक्ष स्थल एवं सामथ्र्ययुक्त व्यक्ति होता है। जातक प्रारंभ में संकट देखता है व शीघ्र ही उसे मन लायक पद प्राप्त हो जाता है एवं उत्तरोत्तर उन्नति करता है। ऐसा जातक पुलिस या सेना में विशेष सफल होता है। इसके छोटे भाई नहीं होते, अगर होते भी हैं तो जातक को उनसे नहीं के बराबर लाभ प्राप्त होता है। बोलने में असभ्यता प्रकट करता है तथा कई बार वाणी के कारण अपना कार्य बिगाड़ देता है। धोखा देने में यह जातक कुशल होता है तथा समय पड़ने पर बड़े से बड़ा झूठ बोल लेता है। राजनीतिक क्षेत्र में यह पूर्ण सफलता प्राप्त करता है। पुत्रों की अपेक्षा कन्या संतान इसके ज्यादा होती है। पंचम भाव में राहु का फल पंचम भाव में राहु की स्थिति नुकसानदायक ही होती है। जीवन में मित्रों का अभाव रहता है। लेकिन शत्रुओं से प्रताड़ित होने पर भी यह जीवट वाला व्यक्ति होता है। संतान-दुख इसे सहन करना पड़ता है तथा गृह-कलह से भी यह चिंतित रहता है, ऐसा जातक क्रोधी एवं हृदय का रोगी होता है। छठे भाव में राहु का फल राहु छठे भाव में बैठकर जातक की कठिनाइयों को सुगम कर देता है। शत्रुओं से वह सम्मान प्राप्त करता है। ऐसा व्यक्ति प्रबलरूपेण शत्रु संहारक तथा बलवान होता है। जातक की बहुत आयु होती है तथा उसे धन लाभ भी श्रेष्ठ रहता है। पूर्ण सुख सुविधा इस जातक को प्राप्त होती रहती है। शत्रु निरंतर इसके विरूद्ध षड्यंत्र करते ही रहते हैं। इसका मस्तिष्क अस्थिर रहता है तथा मानसिक परेशानियां दिन प्रतिदिन बढ़ती रहती हैं। जातक परस्त्रीगामी होता है। ऐसा जातक दो प्रकार के जीवन को जीने वाला होता है। ऐसा जातक लेखक होता है और जीवन में उसे बहुत शोक झेलने पड़ते हैं। मुकदमों का सामना करना पड़ता है। 42 वर्ष के बाद उसके तमाम संकट समाप्त हो जाते हैं तथा उसे यश प्राप्त होता है। सप्तम भाव में राहु का फल यदि सप्तम भाव में राहु हो तो जातक को रोगिणी पत्नी/पति मिलती/ मिलता है तथा धन हानि करता है। वह स्त्री दुर्बुद्धि एवं संकीर्ण मनोवृत्ति की भी हो सकती है। यदि कोई शुभ ग्रह उसको नहीं देख रहा हो तो यह स्त्री विलासी प्रकृति की होती है। ऐसा जातक कई मामलों में भाग्यहीन होता है। बाल्यावस्था में इसे कठोर श्रम करना पड़ता है। साथ ही यह सद्गुणों को लेकर चलने पर भी कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करता है। वैवाहिक सुख में बाधा उत्पन्न होती है। ष्टम भाव में राहु का फल जिस व्यक्ति के अष्टम भाव में राहु होता है, वह दीर्घजीवी होता है। ऐसा व्यक्ति कवि, लेखक, क्रिकेटर, पत्रकार होता है। धर्म कर्म को समझते हुए भी, यह उसमें आंशिक अभिरूचि रखता हुआ विद्रोही स्वभाव का होता है। जातकों का बचपन परेशानियों में बीतता है। जलघात एवं वृक्षपात दोनों ही संभव है। गृहस्थ जीवन सुखद कहा जा सकता है। जातक की आयु 70 वर्ष से ज्यादा होती है।अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ऐसा जातक सचेष्ट रहता है तथा अधिकारियों से जो भी आदेश मिलता है उसका कठोरता से पालन करता है। स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक की कुंडली में राहु की यही स्थिति थी। दशम भाव में राहु का फल दशम भाव में राहु की स्थिति इस बात की सूचक है कि जातक देर सवेर निश्चय ही राजनीति के क्षेत्र में घुसेगा और सफलता प्राप्त करेगा। राजनीतिक दांव-पेंच जितनी कुशलता से यह जानता है उतना अन्य नहीं।
Education in Biotechnology:Astrological preview
Biotechnology is one such subject which has become popular in recent times.Biotechnology consists of two terms Biology and technology. It is the use of living systems and organisms to develop or manufacture useful products. Biotechnology encompasses a wide range of procedures for modifying living organisms according to human purposes. Biotechnology has applications in four major varied industrial areas including healthcare, agriculture, industries and foodstuffs. Thus Biotechnology is the application of science and technology to living organisms. Therefore, the role of many important planets signifying the particular area come into play. Jupiter is the planet of living organisms (the Jeeva). Saturn and Mars are considered to be the technical planets, so their role is also prominent. In Biotechnology chemical processing also takes place, so the Rashis and the Planets representing water element also come to the forefront. Moon is considered to be the planet representing water elements. So, it is essential to take into accounts the combination of all above mentioned factors while deciding the study of Biotechnology by a particular native.In Birth Chart, fifth house from Lagna and Mercury is Aquarius. Fifth lord, Saturn is exalted in Lagna and is in nakshatra of Jupiter, the planet of living organisms (the Jeeva). Saturn is conjoined with Moon, Mercury and debilitated Sun making neech bhanga Raja yoga in lagna and exalted Saturn is also aspecting Jupiter and Mars. Thus there is combined influence of all the planets required for the study of Biotechnology i.e. Jupiter, Saturn, Mars and Moon. In Navamsha chart, 5th house is Cancer, a watery sign owned by the Moon and aspected by Saturn. Fifth lord Moon is placed in Aquarius with Rahu and aspected by Saturn and Jupiter. So, all the parameters and conditions are fulfilled which clearly confirm the study of Biotechnology.
What is "Panchang"
Vedic Astrology divides time into five fundamental parts together called the Panchang. The Panchang is used by Vedic Astrologers to judge the auspiciousness of the time and is also used to calculate the vedic birth chart or Janam Patrika of a person. The word panchang is derived from the Sanskrit word panchangam (pancha, five; anga, limb), which refers to the five limbs of the calendar or the five parameters – day/vaar, tithi, star/nakshatra, yoga and karana corresponding to that day. It is called by different names in India - Tamil panchangam, Telugu Panchangam, Kannada Panchangam, Gujarati Panchang, Marathi Panchang, Hindi Panchang, Bengali Panchang etc. Hindu Panchang or the Indian calendar is basically based on Nakshatra.
12 months in Hindu Panchang
Indian Month Name Of Month Derived From Nakshatra
Chaitra (March - April) Chitra Nakshatra
Vaisakh (April - May) Vishakha Nakshatra
Jyeshta (May - June) Jyeshtha Nakshatra
Aashaadh (June - July) Ashaada Nakshatra
Shravan (July - August) Shravana Nakshatra
Bhadra (August - September) Purva and Uttara Bhadrapada Nakshatra
Ashwin (September - October) Ashwini Nakshatra
Kartik (October - November) Kritika Nakshatra
Margasheersh (November - December) Mrigshira Nakshatra
Paush (December - January) Paush Nakshatra
Maagh (January - February) Masha Nakshatra
Phagun (February - March) PurvaPhalguni and UttaraPhalguni Nakshatra
Necessity of Panchang
A Panchang tells about the five elements – Tithi, Vaar, Nakshatra, Yoga and Karan. Any new venture started on an shubh tithi/muhurat will fetch prosperity, a deed done on the right day of the week – shubh vaar will enhance longevity. Any deed done on a day with a favorable star or shubh nakshatra will destroy all sorts of ill effects on the person; diseases will disappear if deeds are performed at a time of shubh yoga and objectives will be achieved without hurdles if started during a shubh karan.
Panchang is an online astrological diary, based on placement of planets in the zodiac, daily moon position and nakshatra.
Panchang is an ancient science that helps in knowing when to synchronize your actions with good times and helps you increase your chances for success.
Panchang is a ready reckoner to know what days and times are good for you, and which ones may cause problems.
Panchang is ancient Vedic astrology applied to the practical needs of your day-to-day life.
The following 2010 Panchang shows the five elements of Hindu Panchang – Tithi, Vaar, Nakshatra, Yoga and Karan.
12 months in Hindu Panchang
Indian Month Name Of Month Derived From Nakshatra
Chaitra (March - April) Chitra Nakshatra
Vaisakh (April - May) Vishakha Nakshatra
Jyeshta (May - June) Jyeshtha Nakshatra
Aashaadh (June - July) Ashaada Nakshatra
Shravan (July - August) Shravana Nakshatra
Bhadra (August - September) Purva and Uttara Bhadrapada Nakshatra
Ashwin (September - October) Ashwini Nakshatra
Kartik (October - November) Kritika Nakshatra
Margasheersh (November - December) Mrigshira Nakshatra
Paush (December - January) Paush Nakshatra
Maagh (January - February) Masha Nakshatra
Phagun (February - March) PurvaPhalguni and UttaraPhalguni Nakshatra
Necessity of Panchang
A Panchang tells about the five elements – Tithi, Vaar, Nakshatra, Yoga and Karan. Any new venture started on an shubh tithi/muhurat will fetch prosperity, a deed done on the right day of the week – shubh vaar will enhance longevity. Any deed done on a day with a favorable star or shubh nakshatra will destroy all sorts of ill effects on the person; diseases will disappear if deeds are performed at a time of shubh yoga and objectives will be achieved without hurdles if started during a shubh karan.
Panchang is an online astrological diary, based on placement of planets in the zodiac, daily moon position and nakshatra.
Panchang is an ancient science that helps in knowing when to synchronize your actions with good times and helps you increase your chances for success.
Panchang is a ready reckoner to know what days and times are good for you, and which ones may cause problems.
Panchang is ancient Vedic astrology applied to the practical needs of your day-to-day life.
The following 2010 Panchang shows the five elements of Hindu Panchang – Tithi, Vaar, Nakshatra, Yoga and Karan.
हृदय रेखा का प्रभाव
हथेली पर मौजूद हर रेखा अपने आपमें एक प्रकार के जीवन शक्ति प्रवाह की परिचायक होती है, तथा यही रेखायें व्यक्ति के जीवन की सूक्ष्मतर स्थितियों का संकेत करती हैं। इन्ही रेखाओं के दोषी होने पर व्यक्ति के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट और अटूट रेखाएँ व्यक्ति के जीवन के सफलता को प्रमाणित करती हैं। हस्त रेखाएँ पूरे जीवन की व्याख्या कर देती हैं। हथेली की प्रत्येक रेखा व्यक्ति के किसी न किसी घटना को स्पष्ट करती है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि घटनाओं की निश्चित् तिथियाँ नहीं बतायी जा सकती पर स्थान, नाम आदि बताना सम्भव है। गहन अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर घटित घटनाओं को ठीक पास में लाया जा सकता है। अधिक अभ्यास हो जाने के बाद आप घटना के लिए जो तिथि निर्णय करेंगे तो आम तौर पर उस तिथि पर वह घटना घटेगी, यह परिश्रम अध्ययन और फलादेश की प्रमाणिक युक्ति है। यह भी ध्यान रखना होता है कि मस्तिष्क के गुणों, दोषों के अनुसार रेखायें परिवर्तित होती रहती हैं।
हृदय रेखा 16 प्रकार की मानी गई हैः- जगती , राजपददात्री , कुमारी , गान्धारी , सेनानित्वप्रदा , दरिद्रकारी , धृती , वासवी , चम्पकमाला ,वैश्वदेवी , त्रिपदी , महाराजकरी , रमणी , चपलवदना , कुग्रहणी आदि।कभी-कभी हथेली पर बहुत अधिक और कभी-2 बिल्कुल कम रेखाएँ देखने में आती हैं। जीवन रेखा एक ऐसी रेखा है जो प्रत्येक मनुष्य के हथेली में होती है, अन्य रेखाओं की अनुपस्थिति में दूसरी छोटी रेखाओं द्वारा पूर्ण की जाती है।प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती हैं। अतः इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती है। अतः
इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है। मुख्यतः रेखायें चार प्रकार की होती हैं।
1. गहरी रेखा- यह रेखा पतली होने के साथ-2 गहरी (मोटी) भी होती है।
2. ढलुआ रेखा- यह रेखा शुरु में मोटी होती है तथा ज्यों-जयों आगे बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पतली होती जाती है।
3. पतली रेखा- वह रेखा शुरु से आखिर तक एक आकार (पतली) में होती है।
4. मोटी रेखा- यह रेखा चैड़ायी लिये होती है और पूर्णतः स्पष्ट होती है। मनुष्य के हाथ में गहरी, स्पष्ट और सरल रक्त वर्ण की, हृदय रेखा व्यक्ति को मानवीय गुणों से सम्पन्न करती है। दाहिने हाथ की हृदय रेखा जितनी ज्यादा साफ और गहराई लिये होगी व्यक्ति उतना ही अधिक सरस, न्यायप्रिय तथा परोपकारी माना जाता है। किन्तु हृदय रेखा यदि कटी, टूटी या अस्पष्ट होगी, तो व्यक्ति देखने में, चाहे जितना सज्जन क्यों न हो वह दिल से पापी और कलुषित होगा। ऐसा व्यक्ति असभ्य, बद्चलन चरित्रहीन विवेकशून्य आदि अवगुणों वाला होगा। ऐसे व्यक्तियों का आसानी से यकीन करना अपने आप को धोखा देने के बराबर है। इसका हृदय से सीधा सम्बन्ध माना गया है। जो कि जीवन का प्राथमिक अंग है, जहां से संचालन का नियन्त्रण होता है। निर्दोष और सबल हृदय रेखा स्वस्थ्य हृदय की परिचायक है। करीब एक सौ हाथों में एकाध हथेली ही ऐसी होती है जिसमें हृदय रेखा का अभाव होता है। हथेली में इस रेखा की अनुपस्थिति व्यक्ति के अमानवीय प्रवृत्तियों को स्पष्ट करती है। यह रेखा व्यक्ति को दुर्गुण एवं गुण दोनों प्रदान करती है। प्राचीन हस्तरेखा ग्रन्थों के अनुसार हृदय रेखा तीन स्थानों से शुरु होती है। 1. शनि और गुरु पर्वत के मध्य से 2. गुरु पर्वत के केन्द्र से 3. शनि पर्वत के केन्द्र से।
हृदय रेखा 16 प्रकार की मानी गई हैः- जगती , राजपददात्री , कुमारी , गान्धारी , सेनानित्वप्रदा , दरिद्रकारी , धृती , वासवी , चम्पकमाला ,वैश्वदेवी , त्रिपदी , महाराजकरी , रमणी , चपलवदना , कुग्रहणी आदि।कभी-कभी हथेली पर बहुत अधिक और कभी-2 बिल्कुल कम रेखाएँ देखने में आती हैं। जीवन रेखा एक ऐसी रेखा है जो प्रत्येक मनुष्य के हथेली में होती है, अन्य रेखाओं की अनुपस्थिति में दूसरी छोटी रेखाओं द्वारा पूर्ण की जाती है।प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती हैं। अतः इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती है। अतः
इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है। मुख्यतः रेखायें चार प्रकार की होती हैं।
1. गहरी रेखा- यह रेखा पतली होने के साथ-2 गहरी (मोटी) भी होती है।
2. ढलुआ रेखा- यह रेखा शुरु में मोटी होती है तथा ज्यों-जयों आगे बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पतली होती जाती है।
3. पतली रेखा- वह रेखा शुरु से आखिर तक एक आकार (पतली) में होती है।
4. मोटी रेखा- यह रेखा चैड़ायी लिये होती है और पूर्णतः स्पष्ट होती है। मनुष्य के हाथ में गहरी, स्पष्ट और सरल रक्त वर्ण की, हृदय रेखा व्यक्ति को मानवीय गुणों से सम्पन्न करती है। दाहिने हाथ की हृदय रेखा जितनी ज्यादा साफ और गहराई लिये होगी व्यक्ति उतना ही अधिक सरस, न्यायप्रिय तथा परोपकारी माना जाता है। किन्तु हृदय रेखा यदि कटी, टूटी या अस्पष्ट होगी, तो व्यक्ति देखने में, चाहे जितना सज्जन क्यों न हो वह दिल से पापी और कलुषित होगा। ऐसा व्यक्ति असभ्य, बद्चलन चरित्रहीन विवेकशून्य आदि अवगुणों वाला होगा। ऐसे व्यक्तियों का आसानी से यकीन करना अपने आप को धोखा देने के बराबर है। इसका हृदय से सीधा सम्बन्ध माना गया है। जो कि जीवन का प्राथमिक अंग है, जहां से संचालन का नियन्त्रण होता है। निर्दोष और सबल हृदय रेखा स्वस्थ्य हृदय की परिचायक है। करीब एक सौ हाथों में एकाध हथेली ही ऐसी होती है जिसमें हृदय रेखा का अभाव होता है। हथेली में इस रेखा की अनुपस्थिति व्यक्ति के अमानवीय प्रवृत्तियों को स्पष्ट करती है। यह रेखा व्यक्ति को दुर्गुण एवं गुण दोनों प्रदान करती है। प्राचीन हस्तरेखा ग्रन्थों के अनुसार हृदय रेखा तीन स्थानों से शुरु होती है। 1. शनि और गुरु पर्वत के मध्य से 2. गुरु पर्वत के केन्द्र से 3. शनि पर्वत के केन्द्र से।
1)i. शनि गुरु के मध्य से- ऐसे व्यक्ति व्यवहार कुशल और स्नेही होते हैं। इनका प्रेम जीवन की प्राथमिकता पूर्ति के बाद शुरु होता है।
ii. गुरु पर्वत के केन्द्र से- यह हृदय रेखा मनुष्य के प्रणव सम्बन्धों और स्नेह को आदर्शवादी आधार प्रदान करती है। ऐसे व्यक्ति विषम परिस्थिति एवं आपत्ति काल में भी सम्बन्धों का निर्वाह करने में सफल होते हैं।
iii. शनि पर्वत से- यह हृदय रेखा स्वार्थ भावना उत्पन्न करती है तथा ऐसे लोग वासना के प्रति यकीन रखते हैं। ऐसी भावना रखते हैं कि जिसमें अपना स्वार्थ झलकता हो और प्रेम वासना अधिक पायी जाती है, इसलिए प्रेम सम्बन्धों में स्वार्थी होते हैं।
ii. गुरु पर्वत के केन्द्र से- यह हृदय रेखा मनुष्य के प्रणव सम्बन्धों और स्नेह को आदर्शवादी आधार प्रदान करती है। ऐसे व्यक्ति विषम परिस्थिति एवं आपत्ति काल में भी सम्बन्धों का निर्वाह करने में सफल होते हैं।
iii. शनि पर्वत से- यह हृदय रेखा स्वार्थ भावना उत्पन्न करती है तथा ऐसे लोग वासना के प्रति यकीन रखते हैं। ऐसी भावना रखते हैं कि जिसमें अपना स्वार्थ झलकता हो और प्रेम वासना अधिक पायी जाती है, इसलिए प्रेम सम्बन्धों में स्वार्थी होते हैं।
2.i. मस्तिष्क रेखा के निकट से आरम्भ होने वाली हृदय रेखा असाधारण रूप से दीर्घ हो तो ईष्र्या की भावना उत्पन्न करती है तथा प्रेम सम्बन्धों में ये असफल होते हैं।
2.ii. अधिक दीर्घ हृदयरेखा भावनात्मक प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाली होती है, तथा छोटी हृदय रेखा अच्छी मानी गयी है।
2.iii. हृदय रेखा जिस पर्वत को छूती हुई या स्पर्श करती हुई आगे की ओर जाती है या वहीं झुक जाती है, तो ऐसी हालत में पर्वत विशेष का गुण हृदय में अधिक पाया जाता है।
2.ii. अधिक दीर्घ हृदयरेखा भावनात्मक प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाली होती है, तथा छोटी हृदय रेखा अच्छी मानी गयी है।
2.iii. हृदय रेखा जिस पर्वत को छूती हुई या स्पर्श करती हुई आगे की ओर जाती है या वहीं झुक जाती है, तो ऐसी हालत में पर्वत विशेष का गुण हृदय में अधिक पाया जाता है।
3.i. यदि हृदय रेखा मस्तिष्क रेखा में पूरी तरह शामिल हो जाय, तो उस आयु में हृदय की स्वतंत्र ईकाई नष्ट हो जाती है और हृदय मस्तिष्क को प्रभावित करता है।
3.ii. जब कई सूक्ष्म रेखायें नीचे से चलकर हृदय रेखा पर धावा बोल दें तो व्यक्ति प्रेम का जाल इधर उधर फेंकता फिरता है। निरन्तर किसी को प्रेम न करके वे व्यभिचारी बन जाते हैं।
3.iii. यदि हृदय रेखा चैड़ी और श्रृंखला युक्त हो तथा शनि क्षेत्र से शुरु हो तो वह स्त्री या पुरुष विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित नहीं होता तथा एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखता है।
3.ii. जब कई सूक्ष्म रेखायें नीचे से चलकर हृदय रेखा पर धावा बोल दें तो व्यक्ति प्रेम का जाल इधर उधर फेंकता फिरता है। निरन्तर किसी को प्रेम न करके वे व्यभिचारी बन जाते हैं।
3.iii. यदि हृदय रेखा चैड़ी और श्रृंखला युक्त हो तथा शनि क्षेत्र से शुरु हो तो वह स्त्री या पुरुष विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित नहीं होता तथा एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखता है।
4.i. हृदय रेखा लाल और चमकीले रंग की होने पर व्यक्ति को हिंसात्मक वासना (बलात्कार) पूर्ति के लिए उत्सुक करती है।
4.ii. यदि बृहस्पति क्षेत्र से दोमुंही हृदय रेखा आती है तो व्यक्ति प्रेम के क्षेत्र में उत्साही, इमानदार और सच्चे दिल का स्वामी होता है।
4.iii. हृदय रेखा शाखाहीन और पतली होने से व्यक्ति रुखे स्वभाव का होता है तथा उसके प्रेम में गरिमा नहीं होती।
4.ii. यदि बृहस्पति क्षेत्र से दोमुंही हृदय रेखा आती है तो व्यक्ति प्रेम के क्षेत्र में उत्साही, इमानदार और सच्चे दिल का स्वामी होता है।
4.iii. हृदय रेखा शाखाहीन और पतली होने से व्यक्ति रुखे स्वभाव का होता है तथा उसके प्रेम में गरिमा नहीं होती।
5.i. यदि हृदय रेखा है पर बाद में फीकी पड़ जाय तो प्रेम में भीषण निराशा का सामना होता है। जिस कारण वह हृदय हीन और प्रेम विमुख हो जाता है।
5.ii. हृदय रेखा पर क्रास या नक्षत्र का निशान होने से हृदय गति प्रभावित होती है।
5.iii हृदय रेखा बुध पर्वत के नीचे से निकल कर शनि पर्वत के नीचे तक जाते-जाते समाप्त हो जाये, तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धोखेबाज होता है।
5.iv. बुध पर्वत के नीचे से निकलकर गुरु पर्वत के नीचे तक आती हुई प्रतीत हो तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धैर्यवान होता है तथा पत्नी को महत्त्व देता है और ईश्वर से डरने वाला तथा विशुद्ध प्रेम का पुजारी होता है।
5.ii. हृदय रेखा पर क्रास या नक्षत्र का निशान होने से हृदय गति प्रभावित होती है।
5.iii हृदय रेखा बुध पर्वत के नीचे से निकल कर शनि पर्वत के नीचे तक जाते-जाते समाप्त हो जाये, तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धोखेबाज होता है।
5.iv. बुध पर्वत के नीचे से निकलकर गुरु पर्वत के नीचे तक आती हुई प्रतीत हो तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धैर्यवान होता है तथा पत्नी को महत्त्व देता है और ईश्वर से डरने वाला तथा विशुद्ध प्रेम का पुजारी होता है।
Shani dev : from astrological point of view
Shani is one of the three children of Sun and Chhaya Devi. From the Vedic texts, we can learn a lot about Shani. Many times the power of his gaze has been mentioned in the classics. We learn that right after Shani was born, his gaze caused Sun’s charioteer to fall down and break his thigh. Sun’s horses to get blind and Sun himself caught slowed down because of Shani’s powerful gaze on him. They were healed only when Shani moved his gaze away and looked somewhere else.
In Jyotish, Shani is considered a very malefic planet. The nine planets are the incarnation of Lord to bestow on us the result of our Karma, which are the lessons we need to learn. And most of the times, the toughest lessons are taught by Shani. In our school, we always have different teachers for different subjects like Maths, Physics, Language etc. Just like that, different planets teach us different kinds of lessons and most of the times Shani the teacher teaches us very painful lessons. This is not something to be doubted when we learn from Parashar's Hora Shastra that Shani is the natural giver of grief.
In general, Shani is considered the most malefic planet, and the most painful, stressful Yogas involve Shani most of the times. When Shani maleficaly affect something, it slows the matter down and causes obstructions and delays in it’s fruitfulness. Shani also rules separation. It hurts us by taking things away from us. When we face a painful separation from our parents, spouse, friends, or anyone we care for, Shani is always a possibile cause for that. Ketu also causes separation as it rules non-attachment, but separations and delays are among the main significations of Shani. It’s association with Venus / 7th lord causes separation from spouse most of the time. Though the final comment should be made seeing Shani’s strength, placement and lordship, as for Taurus and Libra natives, Shani is a functional benefic being a Yoga Karaka. But even then Shani will not forget to remind his nature sometimes. That is my personal view on this.
Shani is a planet of Tamasik quality. It is a planet of extreme nature. When it favours someone, it gives very favourable effects. On the other hand, when anyone receives it’s curse, he or she faces indescribable pain and miseries in life. Shani purifies a person by giving immense sorrow and pain, like fire purifies the gold.
Favourable effects of Shani on one’s nature include in-depth knowledge, sensibility, wisdom, justice, broadness of mind, honesty, patience, ability to work hard etc. In life, he may give wealth, fortune, long life etc. when auspicious and well placed.
On the other hand, when badly afflicting a person’s nature, Shani can make one sadistic, greedy, lazy, dishonest, fearful, irresponsible and even addicted to drugs. Shani causes obstruction, delay, grief, poverty, short life etc. It makes a person totally lonely, helpless and can make one suffer from enmity, theft, lawsuits etc. Shani can also give imprisonment, since it rules obstruction, loneliness and grief.
When causing diseases, Shani generally gives chronic diseases, which the person suffers for a long time. By this it shows again it's nature of slowness and delays.
When badly affecting one’s profession, Shani makes one work very hard, but does not give proper reward he deserves. That is why social servants and people, who earn their living by physical labour, are ruled by Shani. For the same reason Shani rules the Shudras (4th caste) and abodes in filthy places.
For the power of his gaze, Shani has tremendous afflicting ability by it's mere aspects, which it casts on 3rd, 7th and 10th houses from his own position.
Among other planets used in Vedic astrology, Saturn is the last one counted from Sun’s position. That is why Shani Dev rules ‘The last’ or ‘the end’ of anything. It is the ‘Last answer’ in anything. In our material world, death is the end of everything and that is why, Shani rules death and longevity issues. It is the natural significator of 8th house in Astrology. We know that 8th house deals with sorrows, shock, pain, depressions and also occult. That is why Shani also deals with magic, Tantra Jyotish etc.
Shani was lamed by another son of the Sun, named Yama (God of death) when he hit Shani's leg. So Shani is always very slow in it's movement. One name of Shani, as already mentioned, is ‘Shanaischaram’, which means the slow mover. It takes around 2.5 years to pass through a sign. Thus it takes around 30 years to complete it's travel over the whole zodiac. So it rules slowness and delays and it teaches us how to tolerate slowness and delays, by patience. It is generally pleased with people having patience.
The great phase (Mahadasha) of Shani lasts for 19 years. Even during Mahadasha, Shani gets the strong hold of a person by his transit over the 12th, 1st and 2nd signs from it's or her natal Moon. This is called ‘Sade Sati’, since it lasts for about 7.5 years.
Shani lords over the signs Capricorn (Makara) and Aquarius (Kumbha) with Aquarius being his Mool Trikona sign. It is exalted in Libra and debilitated in Aries. It's natural friends are Mercury, Venus and Rahu, while enemies are Sun, Moon, Mars and Ketu. It has neutral relationship with Deva Guru Jupiter. It is ruler of the three Nakshatras named Pushya (8) Anuradha (17) and Uttara Bhadrapada (26). It rules 8 in the numbers, saturday in the weekdays and aqua blue and black in colours. It's favourite gemstone is blue sapphire, strengthens Shani’s effect on a person.
To pecify Shani Dev donate black clothes, mustard oil, black gram, sesame etc. to the poor and help and serve the old and needy people, since Shani signifies all these. Maharishi Parashara suggests donating a black cow, or feeding Brahmins with rice cooked with powder of sesame seeds to appease Shani Dev. Shani Dev is a great devotee of Lord Krishna. That is why it has been said that Shani Dev does not create problems for people who worships Lord Krishna (especially on Saturdays)
In Jyotish, Shani is considered a very malefic planet. The nine planets are the incarnation of Lord to bestow on us the result of our Karma, which are the lessons we need to learn. And most of the times, the toughest lessons are taught by Shani. In our school, we always have different teachers for different subjects like Maths, Physics, Language etc. Just like that, different planets teach us different kinds of lessons and most of the times Shani the teacher teaches us very painful lessons. This is not something to be doubted when we learn from Parashar's Hora Shastra that Shani is the natural giver of grief.
In general, Shani is considered the most malefic planet, and the most painful, stressful Yogas involve Shani most of the times. When Shani maleficaly affect something, it slows the matter down and causes obstructions and delays in it’s fruitfulness. Shani also rules separation. It hurts us by taking things away from us. When we face a painful separation from our parents, spouse, friends, or anyone we care for, Shani is always a possibile cause for that. Ketu also causes separation as it rules non-attachment, but separations and delays are among the main significations of Shani. It’s association with Venus / 7th lord causes separation from spouse most of the time. Though the final comment should be made seeing Shani’s strength, placement and lordship, as for Taurus and Libra natives, Shani is a functional benefic being a Yoga Karaka. But even then Shani will not forget to remind his nature sometimes. That is my personal view on this.
Shani is a planet of Tamasik quality. It is a planet of extreme nature. When it favours someone, it gives very favourable effects. On the other hand, when anyone receives it’s curse, he or she faces indescribable pain and miseries in life. Shani purifies a person by giving immense sorrow and pain, like fire purifies the gold.
Favourable effects of Shani on one’s nature include in-depth knowledge, sensibility, wisdom, justice, broadness of mind, honesty, patience, ability to work hard etc. In life, he may give wealth, fortune, long life etc. when auspicious and well placed.
On the other hand, when badly afflicting a person’s nature, Shani can make one sadistic, greedy, lazy, dishonest, fearful, irresponsible and even addicted to drugs. Shani causes obstruction, delay, grief, poverty, short life etc. It makes a person totally lonely, helpless and can make one suffer from enmity, theft, lawsuits etc. Shani can also give imprisonment, since it rules obstruction, loneliness and grief.
When causing diseases, Shani generally gives chronic diseases, which the person suffers for a long time. By this it shows again it's nature of slowness and delays.
When badly affecting one’s profession, Shani makes one work very hard, but does not give proper reward he deserves. That is why social servants and people, who earn their living by physical labour, are ruled by Shani. For the same reason Shani rules the Shudras (4th caste) and abodes in filthy places.
For the power of his gaze, Shani has tremendous afflicting ability by it's mere aspects, which it casts on 3rd, 7th and 10th houses from his own position.
Among other planets used in Vedic astrology, Saturn is the last one counted from Sun’s position. That is why Shani Dev rules ‘The last’ or ‘the end’ of anything. It is the ‘Last answer’ in anything. In our material world, death is the end of everything and that is why, Shani rules death and longevity issues. It is the natural significator of 8th house in Astrology. We know that 8th house deals with sorrows, shock, pain, depressions and also occult. That is why Shani also deals with magic, Tantra Jyotish etc.
Shani was lamed by another son of the Sun, named Yama (God of death) when he hit Shani's leg. So Shani is always very slow in it's movement. One name of Shani, as already mentioned, is ‘Shanaischaram’, which means the slow mover. It takes around 2.5 years to pass through a sign. Thus it takes around 30 years to complete it's travel over the whole zodiac. So it rules slowness and delays and it teaches us how to tolerate slowness and delays, by patience. It is generally pleased with people having patience.
The great phase (Mahadasha) of Shani lasts for 19 years. Even during Mahadasha, Shani gets the strong hold of a person by his transit over the 12th, 1st and 2nd signs from it's or her natal Moon. This is called ‘Sade Sati’, since it lasts for about 7.5 years.
Shani lords over the signs Capricorn (Makara) and Aquarius (Kumbha) with Aquarius being his Mool Trikona sign. It is exalted in Libra and debilitated in Aries. It's natural friends are Mercury, Venus and Rahu, while enemies are Sun, Moon, Mars and Ketu. It has neutral relationship with Deva Guru Jupiter. It is ruler of the three Nakshatras named Pushya (8) Anuradha (17) and Uttara Bhadrapada (26). It rules 8 in the numbers, saturday in the weekdays and aqua blue and black in colours. It's favourite gemstone is blue sapphire, strengthens Shani’s effect on a person.
To pecify Shani Dev donate black clothes, mustard oil, black gram, sesame etc. to the poor and help and serve the old and needy people, since Shani signifies all these. Maharishi Parashara suggests donating a black cow, or feeding Brahmins with rice cooked with powder of sesame seeds to appease Shani Dev. Shani Dev is a great devotee of Lord Krishna. That is why it has been said that Shani Dev does not create problems for people who worships Lord Krishna (especially on Saturdays)
Kaalsarp Yog
Kaalsarp yoga is said to be formed if all the planets are situated on one side of Rahu/Ketu axis and fi ve houses on the other side of Rahu/ Ketu axis lie vacant. Strictly speaking Kaalsarp Yoga does not fi nd a place in classical astrological literature. How this yoga gained currency and gathered a sinister meaning is still a unsolved riddle. As far as the defi nition of Kaalsarpa Yoga as given above generally holds good but it does not mean that the said Yoga is so dreadful as projected by fellow astrologers so as to create a sense of fear in the minds of common men. Some of the learned persons opine that if all the planets are situated between Ketu and Rahu this yoga does not exist. But irrespective of whether the planets are between Rahu and Ketu or Ketu and Rahu the Yoga technically exists. The general belief is that Kaasarp Yoga is evil restraining all other good yogas present in the horoscope and those having Kaalsarpa Yoga in their horoscopes will have set-backs and reverses in life
(1) In kaalsarp yoga horoscope, the evil gets intensified if the lagna is between Ketu-Rahu. But in case lagna and its lord are strong and well placed these results should not be pronounced.
(2) The evil gets neutralised if lagna is between Rahu-Ketu and lord of lagna is well placed in the horoscope.
(3) The yoga can be considered as defunct even if a single planet is with Rahu or Ketu or out side the Rahu-Ketu-Rahu axis. Thus it is very much loud and clear there is no place for "aanshik kaalsarp yoga".
Rahu must be the main or prominent planet meaning by the yoga is effective only if planets are between Rahu and Ketu. Another factor worth remembering is if the planet/planets associated with Rahu or Ketu are strongly disposed by being in its sign of exaltation or in its mooltrikona or in its own house the impact of Rahu and Ketu is nullified.
The common fear that if Kaalsarp yoga is fully present in the birth chart the effects of other good planetary combinations get nullified, whereas this statement does not have any logic since kaalsarp yoga itself does not harm but problem arises when the other planet/planets are not in state of delivering good results. These are horoscopes having complete kaalsarp yoga but the native to whom chart belongs have progressed in every sphere of life.
(1) In kaalsarp yoga horoscope, the evil gets intensified if the lagna is between Ketu-Rahu. But in case lagna and its lord are strong and well placed these results should not be pronounced.
(2) The evil gets neutralised if lagna is between Rahu-Ketu and lord of lagna is well placed in the horoscope.
(3) The yoga can be considered as defunct even if a single planet is with Rahu or Ketu or out side the Rahu-Ketu-Rahu axis. Thus it is very much loud and clear there is no place for "aanshik kaalsarp yoga".
Rahu must be the main or prominent planet meaning by the yoga is effective only if planets are between Rahu and Ketu. Another factor worth remembering is if the planet/planets associated with Rahu or Ketu are strongly disposed by being in its sign of exaltation or in its mooltrikona or in its own house the impact of Rahu and Ketu is nullified.
The common fear that if Kaalsarp yoga is fully present in the birth chart the effects of other good planetary combinations get nullified, whereas this statement does not have any logic since kaalsarp yoga itself does not harm but problem arises when the other planet/planets are not in state of delivering good results. These are horoscopes having complete kaalsarp yoga but the native to whom chart belongs have progressed in every sphere of life.
सूर्य का व्रत
सूर्य के अरिष्ट अर्थात पीड़ा निवृत्ति के लिये चैत्र, मार्गशीर्ष (अगहन) के शुक्ल पक्ष से रविवार का व्रत सूर्यं नारायण के निमित्त रखना चाहिये । शुक्ल पक्ष के पहले रविवार से प्रारम्भ करके १२ व्रत कम से कम रखने चाहियें ।
सर्वप्रथम प्रात:काल उठकर शौच, स्नान आदि से निवृत होकर लाल रंग का वस्त्र धारण करना चाहिये । यदि लाल वस्त्र न धारण कर सके तो व्रत वाले दिन आप एक लाल रंग का अंगोछा (नैपकिन) रूमाल या तौलिया इत्यादि उपयोग करके व्रत की उपयोगिता सिद्ध का सकते हैं ।
भगवान सूर्य नारायण को गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध से भगवान सूर्य को जल (अध्र्य) चढाना चाहिये तथा १०८ बार सूर्यं नारायण के बीज मन्त्र क्रा जप करना चाहिये ।
बीज यन्त्र- ॐ हाँ हीं हौं स:सूर्याय नम: ।
रविवार को सूर्यदेव के व्रत का पारण सूर्यास्त से एक घंटा पूर्व ही करना चाहिए |
उस दिन गेहूँ का दलिया गुड़ में पकाकर खाना चाहिये । गुड़, घी से गेहूँ की रोटी भी सायंकाल में खा सकते हैं । इस व्रत में अथवा किसी भी व्रत में नमक का प्रयोग करना सर्वथा वर्जित है ।
रविवार के दिन (व्रत वाले दिन) जलेबी, गुड़ या मसूर की दाल, भोजन वस्त्र ड्रत्यादि का दान भी अपनी समथर के अनुसार भी करना चाहिये इस प्रकार व्रत रखने से शरीरिक रोगों की शान्ति प्राप्त होकर तेज, तथा सूर्य ग्रह के अरिष्ट का नाश होता है ।
सर्वप्रथम प्रात:काल उठकर शौच, स्नान आदि से निवृत होकर लाल रंग का वस्त्र धारण करना चाहिये । यदि लाल वस्त्र न धारण कर सके तो व्रत वाले दिन आप एक लाल रंग का अंगोछा (नैपकिन) रूमाल या तौलिया इत्यादि उपयोग करके व्रत की उपयोगिता सिद्ध का सकते हैं ।
भगवान सूर्य नारायण को गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध से भगवान सूर्य को जल (अध्र्य) चढाना चाहिये तथा १०८ बार सूर्यं नारायण के बीज मन्त्र क्रा जप करना चाहिये ।
बीज यन्त्र- ॐ हाँ हीं हौं स:सूर्याय नम: ।
रविवार को सूर्यदेव के व्रत का पारण सूर्यास्त से एक घंटा पूर्व ही करना चाहिए |
उस दिन गेहूँ का दलिया गुड़ में पकाकर खाना चाहिये । गुड़, घी से गेहूँ की रोटी भी सायंकाल में खा सकते हैं । इस व्रत में अथवा किसी भी व्रत में नमक का प्रयोग करना सर्वथा वर्जित है ।
रविवार के दिन (व्रत वाले दिन) जलेबी, गुड़ या मसूर की दाल, भोजन वस्त्र ड्रत्यादि का दान भी अपनी समथर के अनुसार भी करना चाहिये इस प्रकार व्रत रखने से शरीरिक रोगों की शान्ति प्राप्त होकर तेज, तथा सूर्य ग्रह के अरिष्ट का नाश होता है ।
शीर्ष-रेखा का प्रारम्भ
बृहस्पति-क्षेत्र के नीचे तथा जीवन-रेखा के प्रारम्भ के ऊपरी भाग से प्रारम्भ होकर मंगल के प्रथम क्षेत्र या चन्द्र-गोत्र की ओर यह जाती है । बहुत से हाथों में यह वृहस्पति-क्षेत्र के अन्दर से प्रारम्भ होती है या कभी-कभी जीवन-रेखा के भीतर मंगल के द्वितीय क्षेत्र से ही प्रारम्भ हो जाती है । यदि बृह्रस्पति-क्षेत्र से प्रारम्भ हो और शीर्ष-रेखा तथा जीवन-रेखा प्रारम्भ में एक दूसरे से स्पर्श करती हों तो इसका प्रारम्भ शुभ समझना चाहिये । यह योग रेखा को बल प्रदान करता है और यदि रेखा लम्बी भी हो तो बलिष्ठ रेखा समझनी चाहिए । ऐसा व्यक्ति शासन में निपुण होता है और उसमें अधिकार तथा महत्वाकांक्षा की भावना प्रबल होती है । बुहस्पति-क्षेत्र से संयोग होने के कारण शीर्ष-रेखा में उदात्त भावना और महत्वाकांक्षा के साथ-साथ न्यायप्रियता, दयालुता और समझदारी भी होती है, इस कारण वह अधिकार प्रयोग में उद्दण्डता या कठोरता का व्यवहार नहीं करता । जीवन-रेखा से योग होने के कारण उससे बौद्धिक शक्ति का प्राणशक्ति से समन्वय होता है । वह साहसपूर्वक कार्य को आगे बढाता है किन्तु विचार, सावधानी और सतर्कता भी उसमें पर्याप्त मात्रा में होती है ।यदि वृहस्पति के क्षेत्र से तो शीर्ष-रेखा प्रारम्भ हो किन्तु जीवन-रेखा से इसका योग न हो, दोनों में थोडा अन्तर हो तो ऐसे जातक में उपर्युक्त गुण तो विद्यामान होंगे किन्तु सतर्कता और सावधानी कम होगी । साहस अधिक होने से बिना गुण-दोष का विचार किये वह काम को जरुदी से कर डालेगा । 'नीति' की अपेक्षा उसमें साहस विशेष होगा । इसलिए जिन कार्यों में सहसा साहसपूर्वक कार्य निपटा लेना चाहिए उनमें उसे सफलता मिलेगी किन्तु अदूरदर्शिता के दुष्परिणाम से भी ऐसे लोग नहीं बच सकते ।
Friday, 18 September 2015
Smoking and its astrological effects
Smoking is one of the bad habits which are diffi cult to quit. There are many people who ask about the best ways to quit smoking cigarette through astrology remedies. They want to know how they can quit smoking and what are the causes of smoking habits and the best ways to quit it. Many people want to quit smoking. Smoking is the single greatest avoidable risk factor for cancer; worldwide, tobacco consumption caused an estimated 100 million deaths in the last century and if current trends continue, it will kill 1,000 million in the 21st century. Causes of Smoking in Astrology Moon's connection with Mars and Saturn makes the native smoking prone. Mercury must also be affl icted. Moon's affl iction shows unstable mind, emotional disturbance due to which native feels uncomfortable to adjust in his environment. Native does not feel good from inside. Moon must be in malefic houses specially 8th house under bad influence or in bad position. There must be affliction to 8th house also; it denotes long term bad habits. 6th lord must have connection with 4th house, 4th lord or Cancer sign. Usually Moon is in waning position in these persons chart. 2nd house represent food, mouth, throat so it must be afflicted with malefi cs. Mercury indicates swift movement, hands, mouth which must be afflicted by malefics. So 2nd, 4th , 6th houses with afflicted Moon and Mercury play an important role making person addicted to smoking/cigarettes. In the example charts natives are badly addicted to the habit of smoking. In both charts Moon were found to be in 8th house of birth chart with afflicted Mercury by Saturn. Example Chart One Moon debilitated in 8th house in the sign of Saturn sitting in 4th house in Moon sign aspected by Mercury the 6th lord. Mercury in 10th house aspected by Saturn causes continuous movements of mouth and hands. Gemini rules 3rd house under Papkartari yoga. In Navamsha chart, Mercury is in 5th house. Gemini occupied by Node aspected by Saturn. In Trimshamsha chart, Moon is in 10th house aspected by Saturn. Lagna is Gemini aspected by Saturn, Rahu with Mercury in 12th. Moon is in Saturn sign in 8th house aspected by Saturn and Rahu indicating that native will be in habit of drinking along with smoking. Saturn is aspecting 4th house while 6th lord is placed in Cancer sign. Here Moon is combust too. Mercury is in 8th house afflicted by Saturn with other malefics also. Gulika one of the malefics like Saturn is placed in Gemini. In Navamsha chart Moon is afflicted by Mars, nodes. Mercury in 8th house aspected by Saturn. In Trimshamsha chart Moon again is placed in 8th house with 4th lord Mercury aspected by Rahu and Ketu in Gemini, 6th lord Sun with Saturn aspected by nodes. Mars' involvement is also seen in these charts. Mars planet of energy represents fire giving boost to negative habits. People with strong Gemini energy (negatively strong) tend to be cigarette smokers. Gemini can be restless and jittery in nature, and those who are strongly influenced by this sign often chain smoke mainly in an effort to calm themselves. Effective healing will not only break the addiction to nicotine, but substitute healthy methods to calm the nerves and mind. Quit Smoking with Astrology Moon governs your habits, emotions, conditioning, moods and your attachments. The moon governs your emotional connection to your environment and how you feel inside. The moon influences your emotions driven moods and your will to succeed. Saturn is the planet of discipline, maturity, restriction, darkness, limitation, and structure. Saturn wants you to progress through hard work and diligent effort. The Moon must be at an angle to Saturn that provides an easy flow of energy. When determining the best aspects between the Moon and Saturn, the Moon should be waning. The waning Moon occurs after the Full Moon. As the moon waxes or reaches its fullness our desires increase. When the Moon is waning, our desires decrease. You can quit smoking when you are determined to do so. For this you need to check in transit the Moon's placement and the energy of Saturn to become smoke free forever. Saturn energy is a great guide and teacher. Saturn will reward you for your hard work and efforts. When you decide to quit smoking you will need discipline as much as you need motivation and this is where Saturn will help you
रक्तचाप के ज्योतिष्य कारण और उपाय
रक्तचाप या सामान्य रक्तचाप न रहना एक जीर्ण व्याधि है, जो कि युवा व्यक्तियों की अपेक्षा वृद्धावस्था में अधिक मिलती है। रक्तचाप को जानने के लिए निम्नलिखित जानकारियां आवश्यक प्रतीत होती हैं - यह हृदय व रक्तवाहिन्यों के अपगलन ;क्महमदमतंजपवदद्ध का रोग है। इसमें रक्त वाहिन्यों की आंतरीक दीवार टूटने लगती है जिस पर बहने वाला वसा जमा होने लगता है। भारत में प्रति एक हजार पुरुषों व स्त्रियों में क्रमशः 59.9 व 69.9 रोगी मिलती हैं। शहरों में प्रति हजार 35.5 तथा गांवों में 35.9 रोगी मिलते हैं।उच्च रक्तचाप लगातार काफी समय रहने से प्रायः रोगी के हृदय, वृक्क, रक्तवाहिन्यां, आंख का पर्दा, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है। उच्च रक्तचाप सायलेंट किलर के रूप में काम करता है। करीब 85 प्रतिशत रोगियों में इसका कारण आरंभ में पता लगना मुश्किल होता है। इस जगह ज्योतिष अपनी ज्योति दिखा सकता है।वयस्कों में सामान्यतः सिस्टोलीक बी.पी. 160 एम.एम. आॅफ एचजी तथा डायस्टोलीक बी.पी. 95 एम.एम. आॅफ एचजी से उपर रहता है। पर यह मापदंड जाति, स्थान, देशकाल आदि के आधार पर परिवर्तित भी हो सकता है। निदानार्थकर रोग: मधुमेह, स्थौल्य, हृदयरोग, वृक्करोग के उपद्रव स्वरूप, उच्च रक्तचाप मिलता है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण रक्तगतवात: रक्त में वायु के बढ़ने से तीव्रशूल, जलन, त्वचा वैवण्र्य, शरीर कृशता, भूख न लगना, त्वचा पर धब्बे, भोजन के तुरंत बाद शरीर में भारीपन। रुजःस्तीव्राः ससंतापा वैवण्र्य कृषताऽरूचिः। गात्रे चारूंषि भुक्तस्य स्तम्भश्चासृग्गतेऽनिले।। धमनी प्रतिचय: धमनी प्रतिचय में धमनी प्रतिचय को कफनानात्मज विकार के रूप में लिया है जिसके कारण उच्च रक्तचाप होता है। शिरोगतवात: शिर में वायु के प्रकोप से हल्का शूल, शरीर में शोथ, धातुक्षय, शिर में थ्रोबींग सेंसेशन होता है। शरीरं मन्दरूक्शोफं शुष्यति स्पन्दते तथा। सुप्तास्तन्व्यो महत्यो वा सिरा वाते सिरागते।। धमनी काठिन्य: हृदय रोग, यकृत, वृक्क आदि रोगों में धमनी काठिन्य होता है। रक्तचाप किसी भी चिकित्सा शास्त्र में रोग के रूप में न होकर लक्षणपुंज के रूप में वर्णित है। इसलिए ज्योतिष में भी रक्तचाप के परिज्ञान हेतु निम्नलिखित तीन उपकरण आवश्यक है। 1. योग, 2. दशा, 3. गोचर इनमें से दशा तथा गोचर का ज्ञान तो तात्कालिक रूप से किया जा सकता है परंतु उसके लिए भी रक्तचाप के संदर्भ में योग के तीन प्रमुख घटकों (क) गृह (ख) राशि (ग) भाव का चिंतन आवश्यक है। संबंधित ग्रह 1. सूर्यः अग्नि तत्व तथा मध्यम कद वाला शुष्क ग्रह है। मनुष्यों में नेत्र, आयु, सिर, हृदय, प्राणशक्ति, रक्त, पित्त का प्रतिनिधि है। आयुर्वेद मत से जाठराग्निमान्ध, रक्ताग्निमान्ध इस रोग का प्रमुख कारण है। पाचक व साधक पित्त सम्प्राप्ति के घटक हैं। अतः सूर्य का पापाक्रांत नीच का होना आवश्यक प्रतीत होता है। 2. चंद्रमा: जल तत्व व दीर्घ कद वाला है। यह व्यक्ति के मन-मस्तिष्क, रस रक्तधातु, कफ का प्रतिनिधि है। यह चतुर्थ स्थान का एक कारक होने के कारण रस-रक्त धातु का प्रतिनिधि है। इस कारण चंद्रमा का शुद्ध एवं शुभ होना अति आवश्यक है। 3. मंगल: अग्नि तत्व व छोटे कद वाला शुष्क ग्रह है। मज्जा, शारीरिक शक्ति, संघर्षशीलता, उत्तेजना व पित्त का प्रतिनिधि है। निर्बल होने पर रक्त विकार, रक्तचाप, रक्तस्राव निराशा का एक कारण है। चतुर्थ स्थान के एक कारण होने के कारण इसका सामान्य होना आवश्यक है। 4. बुध: पृथ्वी तत्व तथा सामान्य कद वाला जलीय ग्रह है। जिह्वा, वाणी, स्वर चक्र, त्रिधातु का प्रतिनिधि है। बलवान होने पर मस्तिष्क संतुलित रहता है। तृतीय व चतुर्थ भाव दोनों का कारक होने के कारण रक्तचाप को प्रभावित करता है। 5. गुरु: आकाश तत्व, मध्यम कद वाला जलीय ग्रह है। शरीर में वसा, वीर्य, यकृत, रक्त धमनी विशेष रूप से कफ का प्रतिनिधि है। धमनी प्रतिचय होने पर रक्तचाप का कारण हो सकता है। 6. शुक्र: जल तत्व - मध्यम कद वाला जलीय ग्रह। शुक्राणु, नेत्र, स्वर, संवेग, शक्ति का प्रतिनिधि चतुर्थ स्थान के एक कारक होने के कारण संभावित ग्रह है। 7. शनि: वायु तत्व तथा लंबे कद वाला शुष्क ग्रह वात संस्थान, स्नायु मंडल, साहस, क्रिया शक्ति का प्रतिपादक। निर्बल होने पर वात-विकार, स्नायु विकार, संधिवात, निराशाजन्य मानसिक रोग। रक्तचाप में हृदय रोगों के कारक ग्रहों के साथ-साथ वात प्रकोपक शनि का प्रकोप संभावित। 8. राहु: वायु तत्व, मध्यम कद शरीर के मस्तिष्क रक्त, त्वचा, वात का प्रतिनिधि। 9. केतु: वायु तत्व, छोटे कद, वात, रक्त का प्रतिनिधि। रक्तचाप में हृदय रोगों का कारण ग्रहों के साथ-साथ राहु के अपेक्षा केतु का संयोग अधिक संभावित होता है। संबंधित राशि: राशियों में मेष राशि - मानसिक रोग, मिथुन राशि- रक्त विकार, कर्क राशि - हृदय रोग, मकर राशि - वात रोग व रक्तचाप, कुंभ राशि - मानसिक रोगों से संबंधित होने के कारण रक्तचाप व्याधि से अधिक संबंधित प्रतीत होती है। संबंधित भाव: यद्यपि चतुर्थ भाव हृदय का प्रतिनिधि है। अतः चतुर्थ भाव एवं चतुर्थेष पर पाप प्रभाव हृदय रोगों का सूचक है। परंतु रक्तचाप प्रधानतः मन एवं मस्तिष्क पर दबाव के कारण होता है। अतः चतुर्थ भाव के साथ-साथ तृतीय एवं पंचम भाव को भी देखना चाहिए। यद्यपि सामान्य रोग विचार की दृष्टि से प्रथम, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भावों का अध्ययन आवश्यक है, जबकि द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक होने से मृत्युदायक होते हैं। तृतीय भाव: सर्वाधिक महत्वपूर्ण, यह अष्टम से अष्टम होने के कारण आयुष्य के संबंध में महत्वपूर्ण है। जीवन को प्रेरणास्रोत के भांति काम करता है। यह पंचम से एकादश स्थान होने के कारण उपचय स्थान भी है, मनोवृत्ति से संबंधित है। लग्न, चेतना मस्तिष्क है तो तृतीय स्थान अचेतन मस्तिष्क है। इसके पीड़ित होने पर जातक ईष्र्यालु होगा, शुद्ध चित्त नहीं होगा, चंद्रयुक्त होने पर जातक द्वारा किए गए पाप कर्म का सूचक है। काल पुरूष में तृतीय स्थान का स्वामी बुध है, जो बुद्धि कारक है। अवचेतन मस्तिष्क षष्ठ स्थान है। सुप्तावस्था रहने पर भी अवचेतन मस्तिष्क क्रियाशील रहता है। पराचेतन मस्तिष्क का बोध अचेतन मस्तिष्क के स्थान से सप्तम स्थान अर्थात नवम स्थान से होता है। तृतीय स्थान पितृ दोष का भी सूचक है। पापी सूर्य, शनि, नीचगत ग्रह, राहुयुत सूर्य या मृत्यु भाग में स्थित ग्रह पितृ श्राप का सूचक है। षष्टेश, रोग कारक केतु या शनि का संबंध जातक के रोग ग्रस्त होने का सूचक है। अतः राहु, सूर्य व बली मंगल का तृतीय स्थान से संबंध जातक के निरोगी होने का सूचक है। तृतीय स्थान के सर्वाधिक विलक्षण गुणों में से एक इसका अकाल मृत्यु निवारक उपाय जानने में सहायक होना है। चतुर्थ भाव: द्वितीय केंद्र नाम से प्रसिद्ध यह कालपुरूष के वक्ष स्थल का कारक है इसलिए पर्याप्त सुख आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का हृदय निर्मल होना चाहिए इसलिए चतुर्थ भाव सुस्थित व शुभ ग्रह से द्रष्ट होना चाहिए। चतुर्थ स्थान पीड़ित होने पर जातक मनःशांति से वंचित हो जाता है। यह सर्वाधिक शुद्ध केंद्र है। किसी कुंडली में चतुर्थेश व कारक चंद्र, बुध, शुक्र व मंगल सभी का चतुर्थ स्थान से अत्यधिक शुद्ध संबंध होना चाहिए परंतु व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं है। अतः इनमें से जिस किसी भी ग्रह का बल क्षय होता है उस ग्रह विशेष के चतुर्थ स्थान से संबंधित कारकत्व पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं। जातक उस क्षेत्र विशेष से अकिंचन हो जाता है। पंचम भाव: सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्रिकोण स्थान कुंडली के मूल की भांति कार्य करता है क्योंकि यह जन्मजात पूर्व पुण्यों का अभिज्ञान प्रदान करता है। किी भी भाव के विवेचन से पूर्व पंचम भाव का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि पंचम स्थान व पंचमेश पर शुभ ग्रह गोचर करे तभी परिणाम फलिभूत होंगे अथवा नहीं। आत्मा का प्रवेश पंचम स्थान से होता है। रक्तचाप विनिश्चय में जहां उपरोक्त ग्रह राशि व भाव का अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है पर उससे पूर्व हमें कालपुरूष के सापेक्ष राशि पुरूष का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि कालपुरूष प्राकृत है और राशि पुरूष वैकृत। चिकित्सा परिभाषा के अनुसार वैकृत को प्राकृत करना ही चिकित्सा है। रक्तचाप विनिश्चय से पूर्व द्वितीय द्रेष्यकाण का अध्ययन भी आवश्यक है। स्त्रियों में हृदय बाएं भाग में न होकर मध्य में होता है इसलिए स्त्रियों के संदर्भ में यह विनिश्चय भी आवश्यक है। यदि तृतीय, चतुर्थ व पंचम भाव में शुभ ग्रह देखते हों, इन भावों के स्वामी बलवान हों, तो शरीर में इन तीनों भावों से संबंधित अवयव पुष्प व सुंदर होंगे। रक्तचाप की संभावना नहीं होगी। लग्नेश का नीच राशि में होना व्याधि का सूचक है। क्रूर षष्ठयांश में स्थित ग्रह का अध्ययन भी इस हेतु आवश्यक है। नक्षत्र: ज्योतिष शास्त्र में शरीर के प्रत्येक भाग के नक्षत्र बताए गए हैं। हृदय का अनुराधा नक्षत्र है। अनुराधा नक्षत्र का ग्रह शनि है जिसके अन्य नक्षत्र पुष्य एवं उत्तरभाद्रपद हैं। हृदय रोग - रक्तचाप के अध्ययन में अनुराधा नक्षत्र की उपादेयता प्रकट होती है। चिकित्सा: सामान्यतः जिस ग्रह की महादशा अंतदर्शा में रोग होता है उस ग्रह से संबंधित देवता के अराधना से व्याधि शांत होती है। रक्तचाप में विशेष रूप से रूद्राक्ष ;म्संमवबंतचने ळंदपजतनइ त्वगइद्ध का धारण विशेष लाभदायक है। इसमें भी विशेष रूप से तीनमुखी रूद्राक्ष धारण अपेक्षित है। रूद्राक्षादिघनवटी का अंतःप्रयोग भी रक्तचाप में किया जाता है। महामृत्युंजय मंत्र का प्रयोग विशेष रूप से लाभप्रद होता है। आयुर्वेद मत से रक्तपित्त हर चिकित्सा, विरेचन, उपवास, रक्तमोक्षण लाभप्रद होता है। वाक्यों के चक्राधारित अर्थ 1. त्र्यंबकम: भूत शक्ति, भवेश, मूलाधार चक्र में स्थित। 2. यजामहे: शर्वाणी शक्ति, सर्वेश, स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित। 3. सुगंधिम: विरूपा शक्ति, रुद्रेश, मणिपुर चक्र में स्थित। 4. पुष्टिवर्धनम: वंशवर्धिनी शक्ति, पुरुशवरदेश, अनाहत चक्र में स्थित। 5. ऊर्वारूकमिव: उग्रा शक्ति, उग्रेश, विशुद्ध चक्र में स्थित। 6. बंधनान: मानवती शक्ति, महादेवेश, आज्ञा चक्र में स्थित। 7. मृत्योर्मुक्षीय: भद्रकाली शक्ति, भीमेश, सहस्रदल चक्र में स्थित। 8. मामृतात्: ईशानी शक्ति, ईशानेश, सहस्रदल चक्र में स्थित।
Effects of sade-sati
The sade-sati or adhaiya of transit saturn makes terror among the public . particularly public affrighted by sade-sati of saturn .The long duration of 7.5 years of sade-sati sufficient to give malefic or benific result . when the sade-sati gives good or bad result we can estimate by following short procedure . There are three methods .
FIRST METHOD:-
when the transit saturn inters previous sign of moon of natal horoscope , the sade-sati of saturn starts to candidate . The satun transits 2.5 years through each prefix and sufix sign of natal moon , including moon sign. Note down the sign of transit moon when the transit saturn crosses the natal moon at same degree . When the transit moon passes through 1,6,and 11 house from natal moon , the saturn enters in gold step ( sone ka paya) , which gives mental tention and sick .
When the transit moon passes through 2,5,and 9 house from natal moon , the saturn enters in silver step ( chandi ka paya) , which gives money , wealth,property and respect. .
When the transit moon passes through 3,7,and 10 house from natal moon , the saturn inters in copper step (tambey ka paya) , which gives auspicious life .This sade-sati fulfil all the desires.
When the transit moon passes through 4,8,and 12 house from natal moon , the saturn inters in Iron step ( Lohe ka paya) , which gives Troublesome life and malifics effect .This sade-sati does not fulfil the desires.
SECOND METHOD :-
The saturn gives good or bad result according to friend or enemy relation to lord of sign in which it transites during period of sade-sati . when saturn passes through its friend or self sign ,it gives benefic result during the period of sade-sati .When it passes through Taurus ,Gemini ,Virgo, Libra, Sagittarius ,Capricorn and Aqurius it gives benific result during sade-sati. When it passes through Aries, Cancer, Leo, Scorpio and Pisces it gives malefic result. It should be noticed that saturn gives good result during transition in mool trikon sign of jupiter sagittarius ,but during transition in pisces it gives malefic result.
THIRD METHOD :-
Note down the point of ashtak-varg of saturn is transiting through sign .If the ashtak varg point of saturn is 4 the effect of sade-sati will be neutral .If the ashtak-varg point is more than 4 it will give benefic result and if the point is less than 4 it will give malefic result .
If saturn gives result at least in two method out of above three ,the sade-sati become benefic , otherwise malefic . For example – according to first method – Let the moon situated in virgo at 27-15-13 degree in natal Horoscope of candidate . the transit Saturn reaches at same sign and same degree on 03.09.2011 at evening 16.50 PM. At this time moon transit through scorpio sign , which lies at third house from natal moon . So Saturn enters in copper steps (tambey ka paya ) . therefore this sade – sati gives him auspicious life.
According to second method – the transition of Saturn in virgo sign on 03.09.2011 is benefic According to third method – the ashtak-varg point of Saturn in virgo sign of natal horoscope of candidate is 6 which is more than 4 point . So this Saturn gives good result .
Above in all three method the sade-sati Saturn gives good result .It should not worship .If the ascendant be Taurus ,Gemini, Libra, Capricorn and Aqurius and Saturn does not lie at 6,8,and 12 house of horoscope then the candidate should wear the BLUE-SAPHIRE for more benefic.
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