मनुष्य जीवन अमूल्य है - ऐसा जानकर हमारे ऋषियों ने चार पुरुषार्थ घर्मं, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किए हैं। ज्योतिष में अर्थ प्राप्ति और अर्थ संचय का ज्ञान जन्म पत्रिका के प्रथम, द्वितीय, पंचम, नवम,दशम एवं एकादश भाव से होता है। प्रथम भाव से जातक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व व स्वास्थ्य का आकलन करते हैं। द्वितीय भाव से धन संचय, पंचम से धन-प्राप्ति, बुद्धि, नवम से भाग्य, दशम से व्यवसाय तथा एकादश भाव से लाभ का ज्ञान होता है। बृहस्पति धन का कारक ग्रह है। उपरोक्त भावों व भावेशों में गुरु की युति दृष्टि संबंध शुभ हैं। वर्तमान भौतिक युग में व्यकित अर्थ अभाव का संकट नहीं झेल सकता। अर्थ अभाव, दरिद्रता से उसमें मानसिक तनाव, अवसाद, कुंठा, मानसिक रोग, रचंतचाप, हदय रोग उत्पन्न हो रहे हैं। व्यकित कठोर परिश्रम के पश्चात् भी अर्थ सुख नहीं पा रहा हैं। जातक की कुंडली में उपरोक्त भाव- भावेश पीड़ित होते हैं या उन पर क्रूर ग्रहों और त्रिक स्थानों, षष्ट, अष्टम, द्वादश भाव का प्रभाव होता है तो आर्थिक अभाव व समस्याओं का सामना करते हैं। महर्षि वराहमिहिर, वैद्यनाथ, कल्याणवर्मा, सत्याचार्य, इत्यादि देवज्ञों अनुसार निम्न अशुभ योग धन हानि कराते हैं-यदि कुण्डली में राज रोग या शुभ धन योग का अभाव होता है तो व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते है।
शकट :- लग्न कुण्डली में चन्द्रमा से छठे या आठवें स्थान में गुरु हो तथा यह गुरु लग्न से केन्द्र स्थान में न हो तो शकट योग बनता है। शकट का अर्थ वाहन का पहिया । जिस प्रकार वाहन में चलता हुआ पहिया कभी ऊपर तो कभी नीचे होता है, उसी प्रकार जातक का यश और भाग्य उन्नती और अवनति होकर कोई न कोई संकट आता रहता है। यह योग भाग्यहीन बनाएगा तथा जीवन में कितने ही उतार-चढाव देखने पड़ेंगे। आर्थिक स्थिति साधारण रहेगी तथा उन्नति करने के प्रयास सफल नहीं होगी कर्ज के भार से दबे रहेंगे तथा सगे-सम्बंन्धी भी आपके कार्यों से घृणा करेंगे।
हमेशा मुश्किल में फंसा हुआ सबका अप्रिय रहता है। जातक अनासक्त (अलग), गृह विहीन साधारण जीवन व्यतीत करेगा। कमी ऐसे व्यकित का सितारा बहुत तेज तो कभी सितारा बिलकूल गिर जाता है।
जब चन्द्रमा जन्म के गुरु से 6, 8, 12 भाव में गोचर आता है तब शकट योग का प्रभाव दरिद्रता आदि देता है।
अन्य मत से लग्न और सप्तम में सभी ग्रहों हों तो भी शकट योग होता है। जातक रोग पीड़ित, खींचतान कर आजीविका चलाने वाला, निर्धन, मित्रवर्ग तथा आत्मीय जनों से विहीन होता है।
आश्रय योग :- यदि लग्न चर राशि में हो तथा कई ग्रह चर राशि में हो तो रज्जुयोग होता है। रज्जुयोग वाला महत्वाकांक्षी, नाम और यश की चाह वाला, यात्रा प्रिय, शीघ्र निर्णय लेने वाला, बौद्धिक रूप से गतिशील और खुले दिमाग का होता है। कमी-कभी अत्यधिक परिवर्तनीय स्वभाव, अनिर्णय, अविश्वसनीय और किसी एक कार्य में संलग्न रहने में असमर्थ होता है। जातक लगातार संघर्ष में रहता है और सामान्यत: स्थिर सम्पति बनाने में सफलता नहीं मिलती व व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते हैं।
रन्ध्र मालिका योग :- यदि जन्य कुण्डली में अष्टम भाव से लगातार सात भावों में सातों ग्रह हों तो यह रन्ध्रमालिका योग कहलाता है। यह मिश्रित फल दाता योग है। ये दीर्घायु होंगे, किन्तु जीवन में सदा धन की चिंता लगी रहेगी। प्रतिष्ठा तथा सफलता के बाद भी पारिवारिक मतभेदों से पीडित हो सकते हैं। इस कारण कर्ज के भार से दबे रहते हैं।
राज भंग योग :- यदि लग्न कुण्डली में सूर्य तुला राशि में परम नीच
अंशों (0 से 10 अंशों तक) में हो तथा मंगल से दृष्ट हो या शनि जन्म लग्न या केंद्र स्थान में हो तो राजभंग योग होता है | यह योग राजयोग तथा अन्य शुभ योगों को कमजोर बनाता है | मानसिक चिंता,अनावश्यक व्यय,शारीरिक कष्ट आदि से पीड़ित हो सकते है किनती ये अशुभ फल राजभंग योग कारक ग्रहों की दशान्तार्दशा में ही प्राप्त होगे।
चन्द्र क्रितोरिष्ट भंग योग :- यदि शुक्ल पक्ष में रात्रि या कृष्या पक्ष में दिन में जन्म हो तो चन्द्र कृतोरिष्ट भंग योग बनता है। चन्द्रमा मन है, अत: सर्वाधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। यह योग भाग्योंन्नती में पग-पग पर बाधा दल सकता है |
लग्नेश क्रितोरिष्ट योग :लग्नेश की निर्बल अथवा 6, 8, 12वें भाव में स्थिति अनिष्ट कारक मानी जाती है। यह योग कर्ज को बढ़ाते हैं।
ग्रहण योग. लग्न कुण्डली में चन्द्रमा व राहु दोनों एक ही भाव में स्थित हो या चन्द्रमा को राहु पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो ग्रहण योग होगा। जिनके यह योग सुजीत हो वह परेशानियों से ग्रस्त परिश्रमी, आत्मबल की कमी, मानसिक कष्ट तथा व्यर्थ की चिंताओं से ग्रसित रहेगे।
नल योग :- यदि कुण्डली में सभी ग्रह द्विस्वभाव राशियों (3, 6, 9, 12) में स्थित हों या लग्न द्विस्वभाव राशि में हो तो नलयोग होता है। यह योग व्यग्र, अस्थिर विचारों वाले, चिन्तित, हतोत्साहित तथा आत्मकेंद्रित प्रक्रति व किसी भी कार्य की शुरूआत जौर-रुगोर से, परंतु मानसिक अस्थिरता वा। उसे पूर्ण करना कठिन प्रतीत होगा व्यवसाय परिवर्तन,आर्थिक प्रगति में विलम्ब,आत्मबल की कमी से आपके कार्यों की सफलता में बढ़ा हो सकती है | अवसर चुकने की प्रवित्ति होती है,जिससे निराशा और उदासी होती है व् व्यक्ति के कर्ज लेने के योग बनते हैं |
शकट :- लग्न कुण्डली में चन्द्रमा से छठे या आठवें स्थान में गुरु हो तथा यह गुरु लग्न से केन्द्र स्थान में न हो तो शकट योग बनता है। शकट का अर्थ वाहन का पहिया । जिस प्रकार वाहन में चलता हुआ पहिया कभी ऊपर तो कभी नीचे होता है, उसी प्रकार जातक का यश और भाग्य उन्नती और अवनति होकर कोई न कोई संकट आता रहता है। यह योग भाग्यहीन बनाएगा तथा जीवन में कितने ही उतार-चढाव देखने पड़ेंगे। आर्थिक स्थिति साधारण रहेगी तथा उन्नति करने के प्रयास सफल नहीं होगी कर्ज के भार से दबे रहेंगे तथा सगे-सम्बंन्धी भी आपके कार्यों से घृणा करेंगे।
हमेशा मुश्किल में फंसा हुआ सबका अप्रिय रहता है। जातक अनासक्त (अलग), गृह विहीन साधारण जीवन व्यतीत करेगा। कमी ऐसे व्यकित का सितारा बहुत तेज तो कभी सितारा बिलकूल गिर जाता है।
जब चन्द्रमा जन्म के गुरु से 6, 8, 12 भाव में गोचर आता है तब शकट योग का प्रभाव दरिद्रता आदि देता है।
अन्य मत से लग्न और सप्तम में सभी ग्रहों हों तो भी शकट योग होता है। जातक रोग पीड़ित, खींचतान कर आजीविका चलाने वाला, निर्धन, मित्रवर्ग तथा आत्मीय जनों से विहीन होता है।
आश्रय योग :- यदि लग्न चर राशि में हो तथा कई ग्रह चर राशि में हो तो रज्जुयोग होता है। रज्जुयोग वाला महत्वाकांक्षी, नाम और यश की चाह वाला, यात्रा प्रिय, शीघ्र निर्णय लेने वाला, बौद्धिक रूप से गतिशील और खुले दिमाग का होता है। कमी-कभी अत्यधिक परिवर्तनीय स्वभाव, अनिर्णय, अविश्वसनीय और किसी एक कार्य में संलग्न रहने में असमर्थ होता है। जातक लगातार संघर्ष में रहता है और सामान्यत: स्थिर सम्पति बनाने में सफलता नहीं मिलती व व्यकित के कर्ज लेने के योग बनते हैं।
रन्ध्र मालिका योग :- यदि जन्य कुण्डली में अष्टम भाव से लगातार सात भावों में सातों ग्रह हों तो यह रन्ध्रमालिका योग कहलाता है। यह मिश्रित फल दाता योग है। ये दीर्घायु होंगे, किन्तु जीवन में सदा धन की चिंता लगी रहेगी। प्रतिष्ठा तथा सफलता के बाद भी पारिवारिक मतभेदों से पीडित हो सकते हैं। इस कारण कर्ज के भार से दबे रहते हैं।
राज भंग योग :- यदि लग्न कुण्डली में सूर्य तुला राशि में परम नीच
अंशों (0 से 10 अंशों तक) में हो तथा मंगल से दृष्ट हो या शनि जन्म लग्न या केंद्र स्थान में हो तो राजभंग योग होता है | यह योग राजयोग तथा अन्य शुभ योगों को कमजोर बनाता है | मानसिक चिंता,अनावश्यक व्यय,शारीरिक कष्ट आदि से पीड़ित हो सकते है किनती ये अशुभ फल राजभंग योग कारक ग्रहों की दशान्तार्दशा में ही प्राप्त होगे।
चन्द्र क्रितोरिष्ट भंग योग :- यदि शुक्ल पक्ष में रात्रि या कृष्या पक्ष में दिन में जन्म हो तो चन्द्र कृतोरिष्ट भंग योग बनता है। चन्द्रमा मन है, अत: सर्वाधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। यह योग भाग्योंन्नती में पग-पग पर बाधा दल सकता है |
लग्नेश क्रितोरिष्ट योग :लग्नेश की निर्बल अथवा 6, 8, 12वें भाव में स्थिति अनिष्ट कारक मानी जाती है। यह योग कर्ज को बढ़ाते हैं।
ग्रहण योग. लग्न कुण्डली में चन्द्रमा व राहु दोनों एक ही भाव में स्थित हो या चन्द्रमा को राहु पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो ग्रहण योग होगा। जिनके यह योग सुजीत हो वह परेशानियों से ग्रस्त परिश्रमी, आत्मबल की कमी, मानसिक कष्ट तथा व्यर्थ की चिंताओं से ग्रसित रहेगे।
नल योग :- यदि कुण्डली में सभी ग्रह द्विस्वभाव राशियों (3, 6, 9, 12) में स्थित हों या लग्न द्विस्वभाव राशि में हो तो नलयोग होता है। यह योग व्यग्र, अस्थिर विचारों वाले, चिन्तित, हतोत्साहित तथा आत्मकेंद्रित प्रक्रति व किसी भी कार्य की शुरूआत जौर-रुगोर से, परंतु मानसिक अस्थिरता वा। उसे पूर्ण करना कठिन प्रतीत होगा व्यवसाय परिवर्तन,आर्थिक प्रगति में विलम्ब,आत्मबल की कमी से आपके कार्यों की सफलता में बढ़ा हो सकती है | अवसर चुकने की प्रवित्ति होती है,जिससे निराशा और उदासी होती है व् व्यक्ति के कर्ज लेने के योग बनते हैं |
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