प्रारम्भ होती है, तर्जनी की ओर जाने वाली जो रेखा दिखाई गई है उसे हमारे आर्य भारतीय मतानुसार 'आयु-रेखा' कहते है । संस्कृत साहित्य में उपलब्ध 'गरुड़ पुराण', 'भविष्य-पुराण', 'स्कान्द शारीरिक, 'विवेक-विलास' आदि ग्रंथों में तथा समुद्र ऋषि, वराह मिहिर आदि सामुहिक के आचार्यों की कृतियों में इस रेखा को आयु-निर्णय करने में (अर्थात् यह व्यक्ति कितना जियेगा) बहुत महत्व दिया गया है इस कारण इसका नाम 'आयु-रेखा' रखा अन्य शरीर-लक्षणों से भी…दीर्धा३यु, मध्यामु, अत्पायु-कितनी आयु होगी ये निष्कर्ष निकाले जाते है । ललाट की रेखा, कान, उगलियों की लम्बाई आदि के जो लक्षण आयु-निर्णय करने में सहायक होते है वे, उन-उन प्रकरणों में दिये गये है । इसलिये आयु-रेखा से जो निष्कर्ष निकले उसका अन्य रुस्वीर-लक्षग्नर्गि से समन्वय कर अन्तिम परिणाम पर पहुँचना चाहिये । इस बात पर यहाँ जोर इसीलिये दिया जा रहा है कि आयु-रेखा की लम्बाई देखते ही 'यह इतने वर्ष जियेगा' यह नतीजा हड़बड़ी में निकालना उचित नहीं है ।
किन्तु यदि यह रेखा छिन्न हो तो वहाँ जीवन का भय होता है अर्थात् मृत्यु की आशंका होती है । जिस स्थान पर छिन्न हो उसके अनुसार वय (उम्र) में मृत्यु की शंका (मृत्यु या मृत्यु-तुल्य कष्ट) कहना चाहिये ।इस मत से आयु-रेखा तर्जनी ऊँगली तक जानी चाहिये-अर्थात् गुरु-क्षेत्र तक जाने से काम नहीं चलेगा-तर्जनी उगती के तृतीय पर्व को छूना चाहिये । समुद्र ऋषि इस सम्बन्ध में कहते हैं कि कनिष्टिका से तर्जनी तक रेखा "अक्षता' होनी चाहिये । यदि ऐसा हो तो मनुष्य १२० वर्ष जीता है । यहाँ दो शंका होना स्वाभाविक है ।
प्रथम शंका के सम्बन्ध में यह विचार करना चाहिये कि जिस समय ये आर्ष ग्रन्थ लिखे गये उस समय यम, नियम, प्राणायाम, आहार, विहार, संयम के कारण तथा संक्रामक रोगों के अत्यल्प होने से बहुत लोग १ २ ० वर्ष जीते थे । आजकल की परिस्थिति में यदि परमायु १०० वर्ष मान ले या इससे भी कुछ कम तो इसी तारतम्य से आगे जहाँ ८० वर्ष या ६० वर्ष कहे गये हैं उन वर्ष-प्रमाणों को अनुपात से कम करके कहना चाहिये । इसके अतिरिक्त अन्य शरीर-लक्षणों की ओर भी ध्यान देना उचित है ।
"अक्षता' से तात्पर्य है कि टूटी-फूटी, कटी-फटी न हो और सुन्दर, स्वस्थ एकरूप हो । कोई दाग या विवर्णता भी नहीं होनी चाहिये । यदि मध्यमा ऊँगली तक आयु-रेखा न पहुँचे, अर्थात् अनामिका प्रान्त (सूर्य-क्षेत्र) के अन्त पर ही अन्त हो जावे तो ६० वर्ष की आयु कहना । वराह मिहिराचार्य का इस विषय में मंतव्य है कि यदि प्रदेशिनी (तर्जनी) संगनी तक आयु-रेखा जावे तो यह व्यक्ति १०० वर्ष जियेगा यह समझना चाहिये । यदि यह रेखा छिन्न (टूटी या कटी) हो तो पेड़ से गिरने का भय होता है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त कर, शरीर के क्रमश: जीर्ण होने के कारण स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती किन्तु अकस्मात् बाह्य कारण से (जैसे पेड़ से गिरना) अपमृत्यु होती है । पुराने समय में पेड़ से गिरने, से पानी में डूबने से, शेर, चीता या सीगवाले पशुओं के आघात से, सर्पदंश आदि से कुछ लोगों की अपमृत्यु होती थी, इस कारण द्रुम-पतन इस एक बाह्य कारण से अन्य आकस्मिक अप-मृत्युओं का संकेत कर दिया है । आजकल की परिस्थिति में, मोटर या रेल के नीचे आ जाना, बिजली से, संक्रामक रोगों से या अत्यधिक मदिरापान, सिगरेट-बीड़ी आदि से जो फेफडे या हृदय की बीमारियाँ होती हैं वे सब अपमृत्यु है | इसका विचार हस्तपरीक्षकों को सदैव रखना चाहिये और देश, काल, पात्र, परिस्थिति आदि के विचार से फलादेश में तारतम्य हो जाता है ।
यदि रेखा तर्जनी प्रान्त तक गई हो तो १०० वर्ष । इससे न्यून (छोटी) हो तो न्यून (अपेक्षाकृत थोडी) आयु कहना । कुछ कम हो तो ९० वर्ष, उससे भी कुछ कम हो तो ८० वर्ष । यदि मध्यमा (बीच की उंगली के प्रान्त तक अर्थात् प्रान्त के अन्त तक) तो ७५ वर्ष कहना चाहिये । उससे भी कुछ कम हो तो ७० वर्ष ऐसी कल्पना करना ।
कनिष्ठिका से आयु-रेखा निकलकर यदि मध्यमा (बीच की उँगली) को पार कर तर्जनी तक जावे तो वह कन्या दीर्धायु होती है हैं "सामुद्रतिलक" में आयु-रेखा के सम्बन्ध में लिखा है कि जितनी जगह टूटी या फटी या कटी हो उतने ही अवसरों पर "अपमृत्यु" का भय रहता है । यदि यह रेखा 'पल्लविता' हो (अर्थात् यदि इस पर पत्ते के निशान हों जिसे आजकल अग्रेजी भाषानुसार द्वीप-चिन्ह कहा गया है) तो क्लेश होता है । यदि छिन्न हो, यदि कटी हो तो जीवन में ही सदेह होता है (अर्थात् जिस अवस्था पर कटी हो उस उम्र में संभवत: मृत्यु हो जावे या मृत्यु के मुख से निकल भी आवे) यदि किसी स्थान पर पल्लवित' हो, या कहीं 'छिन्न' हो या 'विषम' हो या 'परुष' हो तो किस उम्र में इसका दोषप्रयुक्त फल होगा यह ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित उपाय है---
आयु-रेखा की लम्बाई के अनुसार पहले 'आयु' का निर्णय करे अर्थात् वह व्यक्ति कितने वर्ष जियेगा, यह निर्णय करना चाहिये ।फिर आयु-रेखा को दस खण्डों में विभाजित करे । जिस खण्ड में पल्लवित, छिन्न आदि हो आयु के उसी खण्ड में कष्ट रहेगा ।
किन्तु यदि यह रेखा छिन्न हो तो वहाँ जीवन का भय होता है अर्थात् मृत्यु की आशंका होती है । जिस स्थान पर छिन्न हो उसके अनुसार वय (उम्र) में मृत्यु की शंका (मृत्यु या मृत्यु-तुल्य कष्ट) कहना चाहिये ।इस मत से आयु-रेखा तर्जनी ऊँगली तक जानी चाहिये-अर्थात् गुरु-क्षेत्र तक जाने से काम नहीं चलेगा-तर्जनी उगती के तृतीय पर्व को छूना चाहिये । समुद्र ऋषि इस सम्बन्ध में कहते हैं कि कनिष्टिका से तर्जनी तक रेखा "अक्षता' होनी चाहिये । यदि ऐसा हो तो मनुष्य १२० वर्ष जीता है । यहाँ दो शंका होना स्वाभाविक है ।
प्रथम शंका के सम्बन्ध में यह विचार करना चाहिये कि जिस समय ये आर्ष ग्रन्थ लिखे गये उस समय यम, नियम, प्राणायाम, आहार, विहार, संयम के कारण तथा संक्रामक रोगों के अत्यल्प होने से बहुत लोग १ २ ० वर्ष जीते थे । आजकल की परिस्थिति में यदि परमायु १०० वर्ष मान ले या इससे भी कुछ कम तो इसी तारतम्य से आगे जहाँ ८० वर्ष या ६० वर्ष कहे गये हैं उन वर्ष-प्रमाणों को अनुपात से कम करके कहना चाहिये । इसके अतिरिक्त अन्य शरीर-लक्षणों की ओर भी ध्यान देना उचित है ।
"अक्षता' से तात्पर्य है कि टूटी-फूटी, कटी-फटी न हो और सुन्दर, स्वस्थ एकरूप हो । कोई दाग या विवर्णता भी नहीं होनी चाहिये । यदि मध्यमा ऊँगली तक आयु-रेखा न पहुँचे, अर्थात् अनामिका प्रान्त (सूर्य-क्षेत्र) के अन्त पर ही अन्त हो जावे तो ६० वर्ष की आयु कहना । वराह मिहिराचार्य का इस विषय में मंतव्य है कि यदि प्रदेशिनी (तर्जनी) संगनी तक आयु-रेखा जावे तो यह व्यक्ति १०० वर्ष जियेगा यह समझना चाहिये । यदि यह रेखा छिन्न (टूटी या कटी) हो तो पेड़ से गिरने का भय होता है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त कर, शरीर के क्रमश: जीर्ण होने के कारण स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती किन्तु अकस्मात् बाह्य कारण से (जैसे पेड़ से गिरना) अपमृत्यु होती है । पुराने समय में पेड़ से गिरने, से पानी में डूबने से, शेर, चीता या सीगवाले पशुओं के आघात से, सर्पदंश आदि से कुछ लोगों की अपमृत्यु होती थी, इस कारण द्रुम-पतन इस एक बाह्य कारण से अन्य आकस्मिक अप-मृत्युओं का संकेत कर दिया है । आजकल की परिस्थिति में, मोटर या रेल के नीचे आ जाना, बिजली से, संक्रामक रोगों से या अत्यधिक मदिरापान, सिगरेट-बीड़ी आदि से जो फेफडे या हृदय की बीमारियाँ होती हैं वे सब अपमृत्यु है | इसका विचार हस्तपरीक्षकों को सदैव रखना चाहिये और देश, काल, पात्र, परिस्थिति आदि के विचार से फलादेश में तारतम्य हो जाता है ।
यदि रेखा तर्जनी प्रान्त तक गई हो तो १०० वर्ष । इससे न्यून (छोटी) हो तो न्यून (अपेक्षाकृत थोडी) आयु कहना । कुछ कम हो तो ९० वर्ष, उससे भी कुछ कम हो तो ८० वर्ष । यदि मध्यमा (बीच की उंगली के प्रान्त तक अर्थात् प्रान्त के अन्त तक) तो ७५ वर्ष कहना चाहिये । उससे भी कुछ कम हो तो ७० वर्ष ऐसी कल्पना करना ।
कनिष्ठिका से आयु-रेखा निकलकर यदि मध्यमा (बीच की उँगली) को पार कर तर्जनी तक जावे तो वह कन्या दीर्धायु होती है हैं "सामुद्रतिलक" में आयु-रेखा के सम्बन्ध में लिखा है कि जितनी जगह टूटी या फटी या कटी हो उतने ही अवसरों पर "अपमृत्यु" का भय रहता है । यदि यह रेखा 'पल्लविता' हो (अर्थात् यदि इस पर पत्ते के निशान हों जिसे आजकल अग्रेजी भाषानुसार द्वीप-चिन्ह कहा गया है) तो क्लेश होता है । यदि छिन्न हो, यदि कटी हो तो जीवन में ही सदेह होता है (अर्थात् जिस अवस्था पर कटी हो उस उम्र में संभवत: मृत्यु हो जावे या मृत्यु के मुख से निकल भी आवे) यदि किसी स्थान पर पल्लवित' हो, या कहीं 'छिन्न' हो या 'विषम' हो या 'परुष' हो तो किस उम्र में इसका दोषप्रयुक्त फल होगा यह ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित उपाय है---
आयु-रेखा की लम्बाई के अनुसार पहले 'आयु' का निर्णय करे अर्थात् वह व्यक्ति कितने वर्ष जियेगा, यह निर्णय करना चाहिये ।फिर आयु-रेखा को दस खण्डों में विभाजित करे । जिस खण्ड में पल्लवित, छिन्न आदि हो आयु के उसी खण्ड में कष्ट रहेगा ।
No comments:
Post a Comment