यदि शनि उच्च राशि का हो तो वह जातक को सत्ता व समुदाय में प्रमुख पद-अधिकार प्रदान करता है । इस स्थिति में जातक को सुबोध- भोग के विभिन्न अवसर प्राप्त होते हैं । किन्तु इसका एक नकारात्मक पक्ष यह है कि जातक के पिता को मृत्युतुल्य कष्ट होता है तथा आत्मीय से विवाद होता है । यदि नीच राशि का शनि हो तो निश्चय ही सत्ता-प्रक्रोप आमंत्रित करता है । उसे अनेक प्रकार से क्षति होती है अथर्रत्स्वदेश का परित्याग, व्यावसायिक क्षति और कृषिकर्म की असफलता से क्लेश में वृद्धि होती है। यदि शनि की आरोहिणी दशा हो तो सत्ता के संरक्षण से जातक का भाग्य प्रशस्त होता है । सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं । किंतु यदि शनि की अवरोही दशा हो तो परिणति सर्वथा विपरीत रहते है । सुखों का नाश, पराधीनता, शरीर में रोगों को उत्पत्ति तथा भाग्यक्षति सदृश परिणाम उपस्थित होते हैं ।
यदि शनि मुलत्रीकोणस्थ हो तो जातक को सम्मान तथा पद की प्राप्ति होती है। स्वगृही शनि विविध ऐश्वर्य प्रदान करता है 1 जातक को सत्ता की अनुकंपा मिलती है । वस्त्राभूषण-धनादि को प्राप्ति होती है । यश-कीर्ति बढ़ती है । पराक्रम एवं सदणुण विकसित होते हैं । यदि धानि अतिमित्रगृही हो तो जातक की राजकीय प्रतिष्ठा होती है । व्यवसाय से धन-लाभ होता है । पुत्रादि का पुष्ट मिलता है । यदि शनि केवल मित्रगृही हो तो भी जातक को अनेक प्रकार के लाभ मिलते हैं । अगर शनि समगृही हो तो जातक का शरीर विकारग्रस्त रहता है। स्मरण शक्ति का हास होता है । शनि शत्रुगृही हो तो कुत्सित स्त्रियों से धन प्राप्त होता है । पदाधिकार का हरण होता है । भूमि, कृषि एवं दैनिक सुख न के बराबर मिलता है । शनि अतिशत्रुगृही हो तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जातक का पतन होता है ।
शनि उच्च नावंश्स्थ हो तो जातक स्वदेश, परदेश, नगर या समुदाय में उच्च पदाधिकार प्राप्त करता है । उसे सभी प्रकार के सुख मिलते हैं । शनि नीच नावंश्स्थ हो तो जातक को किसी भी प्रकार का सुख नहीं मिलता । यदि शनि उच्चग्रहयुत हो तो जातक सुख पाता है । यदि शनि नीचग्रहयुत हो तो जातक का श्रेष्ठजनों से विवाद होता है | आजीविका के निंदित माध्यम प्राप्त होते है ।
यदि शनि पापग्रहयुत हो तो स्तरहीन लोगों से विवाद तथा कुत्सित यौनोपभोग के लक्षण प्रकट होते है। यदि शनि शुभग्रहयुत हो तो भक्त से संरक्षण होता है। समाज सेवा, आर्थिक लाभ, कार्य से धन-लाभ एवं बुद्धि का विकास होता है।
यदि शनि सूर्य से रहित हो तो जातक को व्यभिचार-वृति प्रबल होती है। आत्मीय जनों से मतभेद रहता है । संतान पक्ष की ओर से मन दुखित रहता है । जातक बुरे कार्य करने को उधत होता है । यदि शनि पर पापग्रह का दृष्टि निक्षेप हो तो जातक की मानहानि होती है और उस पर आरोप लगते हैं, कुत्सित भोजन प्राप्त होता है तथा संतति आदि की क्षति होती है।
यदि शनि पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो जातक को सभी प्रकार के लाभ होते हैं, जिससे उसका जीवन सुखी होता है। किंतु दशा के अवसान पर सुख भी लोप हो जाते हैं । यदि शनि उच्च नवशंस्थ हो तो दशा का प्रारंभ दुखपूर्ण एवं अंत सुखमय होता है । यदि उच्च शनि-नीच नवशंस्थ हो तो दशारंभ सुखपूर्ण एवं अंत दुखपूर्ण होता है ।
यदि शनि स्थानबली हो तो भुजा या गुदा में पीड़ा होती है । नेत्रों में कष्ट रहता है । सत्ता, चीर और अग्नि से भय होता है । आत्मीय जनों की क्षति होती है । पुत्र संतति का सुख मिलता है। यदि शनि दिग्बली हो तो कृषि एवं संपत्ति परिवर्धित होती है। जातक को औषधि का सेवन बडी सावधानी के साथ करना चाहिए, क्योंकि विष का प्रयोग संभव है ।
अगर शनि पाप षष्ठंशगत हो तो जातक का पद जाता रहता है । उसे सत्ता का आतंक दुखी करता है । किसी कारणवश कारावास भी संभव है। यदि शनि शुभ षष्ठंशगत हो तो यश, सम्मान एवं संपत्ति का सुख मिलता है ।
अगर शनि क्रूर द्रेश्कांग्त हो तो चीर, विष और अग्नि से पीड़ा होती है।चित्त उधेलित रहता है । सत्ता से विरोध और भय का साम्राज्य रहता है। यदि शनि वक्री हो तो अवरोध प्रबल होते हैं । प्रत्येक कार्य में असफलता मिलती है । आजीविका अवरुद्ध होती है तथा श्रम व्यर्थ चला जाता है ।
यदि शनि मुलत्रीकोणस्थ हो तो जातक को सम्मान तथा पद की प्राप्ति होती है। स्वगृही शनि विविध ऐश्वर्य प्रदान करता है 1 जातक को सत्ता की अनुकंपा मिलती है । वस्त्राभूषण-धनादि को प्राप्ति होती है । यश-कीर्ति बढ़ती है । पराक्रम एवं सदणुण विकसित होते हैं । यदि धानि अतिमित्रगृही हो तो जातक की राजकीय प्रतिष्ठा होती है । व्यवसाय से धन-लाभ होता है । पुत्रादि का पुष्ट मिलता है । यदि शनि केवल मित्रगृही हो तो भी जातक को अनेक प्रकार के लाभ मिलते हैं । अगर शनि समगृही हो तो जातक का शरीर विकारग्रस्त रहता है। स्मरण शक्ति का हास होता है । शनि शत्रुगृही हो तो कुत्सित स्त्रियों से धन प्राप्त होता है । पदाधिकार का हरण होता है । भूमि, कृषि एवं दैनिक सुख न के बराबर मिलता है । शनि अतिशत्रुगृही हो तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जातक का पतन होता है ।
शनि उच्च नावंश्स्थ हो तो जातक स्वदेश, परदेश, नगर या समुदाय में उच्च पदाधिकार प्राप्त करता है । उसे सभी प्रकार के सुख मिलते हैं । शनि नीच नावंश्स्थ हो तो जातक को किसी भी प्रकार का सुख नहीं मिलता । यदि शनि उच्चग्रहयुत हो तो जातक सुख पाता है । यदि शनि नीचग्रहयुत हो तो जातक का श्रेष्ठजनों से विवाद होता है | आजीविका के निंदित माध्यम प्राप्त होते है ।
यदि शनि पापग्रहयुत हो तो स्तरहीन लोगों से विवाद तथा कुत्सित यौनोपभोग के लक्षण प्रकट होते है। यदि शनि शुभग्रहयुत हो तो भक्त से संरक्षण होता है। समाज सेवा, आर्थिक लाभ, कार्य से धन-लाभ एवं बुद्धि का विकास होता है।
यदि शनि सूर्य से रहित हो तो जातक को व्यभिचार-वृति प्रबल होती है। आत्मीय जनों से मतभेद रहता है । संतान पक्ष की ओर से मन दुखित रहता है । जातक बुरे कार्य करने को उधत होता है । यदि शनि पर पापग्रह का दृष्टि निक्षेप हो तो जातक की मानहानि होती है और उस पर आरोप लगते हैं, कुत्सित भोजन प्राप्त होता है तथा संतति आदि की क्षति होती है।
यदि शनि पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो जातक को सभी प्रकार के लाभ होते हैं, जिससे उसका जीवन सुखी होता है। किंतु दशा के अवसान पर सुख भी लोप हो जाते हैं । यदि शनि उच्च नवशंस्थ हो तो दशा का प्रारंभ दुखपूर्ण एवं अंत सुखमय होता है । यदि उच्च शनि-नीच नवशंस्थ हो तो दशारंभ सुखपूर्ण एवं अंत दुखपूर्ण होता है ।
यदि शनि स्थानबली हो तो भुजा या गुदा में पीड़ा होती है । नेत्रों में कष्ट रहता है । सत्ता, चीर और अग्नि से भय होता है । आत्मीय जनों की क्षति होती है । पुत्र संतति का सुख मिलता है। यदि शनि दिग्बली हो तो कृषि एवं संपत्ति परिवर्धित होती है। जातक को औषधि का सेवन बडी सावधानी के साथ करना चाहिए, क्योंकि विष का प्रयोग संभव है ।
अगर शनि पाप षष्ठंशगत हो तो जातक का पद जाता रहता है । उसे सत्ता का आतंक दुखी करता है । किसी कारणवश कारावास भी संभव है। यदि शनि शुभ षष्ठंशगत हो तो यश, सम्मान एवं संपत्ति का सुख मिलता है ।
अगर शनि क्रूर द्रेश्कांग्त हो तो चीर, विष और अग्नि से पीड़ा होती है।चित्त उधेलित रहता है । सत्ता से विरोध और भय का साम्राज्य रहता है। यदि शनि वक्री हो तो अवरोध प्रबल होते हैं । प्रत्येक कार्य में असफलता मिलती है । आजीविका अवरुद्ध होती है तथा श्रम व्यर्थ चला जाता है ।
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