कर्म क्या है? भौतिक जगत का आधारभूत नियम कार्य-कारण का नियम है, इस बात को तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है. कोई कार्य ऐसा नहीं हो सकता जिसका कारण न हो और न ही कोई कारण ऐसा हो सकता है कि जिसका कोई कार्य न हो. यही कार्य-कारण का सिद्धान्त जब भौतिक जगत के स्थान पर आध्यात्मिक जगत में काम कर रहा होता है, तो इसे कर्म का सिद्धान्त कहते है. कार्य-कारण के भौतिक नियम का अध्यात्मिक रूप ही ''कर्म है.
कार्य-कारण का नियम भौतिक जगत का एक अटल नियम है. कारण उपस्थित होगा तो कार्य होकर रहेगा. किसी बात की सुनवाई नहीं, कोई रियायत नहीं. पत्थर से टक्कर होगी तो चोट लगेगी ही, अग्नि में हाथ डालोगे तो हाथ जलेगा ही, पानी में कपड़ा गिरेगा तो गीला अवश्य होगा- यह निर्दय, निर्मम कार्य-कारण का नियम विश्व का संचालन कर रहा है. इस नियम से ही सूर्य उदित होता है, चन्द्रमा अपनी रश्मियों का विस्तार करता है, पृथ्वी अपनी परिधि पर घूमती है, समुद्र में ज्वार-भाटा आता है. अवश्यंभावी तो कार्य-कारण के नियम की आत्मा है. कारण का अर्थ अवश्यंभावी है, उसे टाला नहीं जा सकता.
''अवश्यंभाविता के साथ कार्य-कारण का नियम एक 'चक्र में चलता चला जाता है. कारण कार्य को उत्पन करता है, यह कार्य फिर कारण बन जाता है, अपने से अगले कार्य को उत्पन कर देता है और इस प्रकार प्रत्येक कारण अपने से पिछले का कार्य और अगले का कारण बनता चला जाता है, और यह प्रवाह सृष्टि का अनन्त प्रवाह बन जाता है. बीज वृक्ष को जन्म देता है और यह परम्परा अनन्त की ओर मुख किए आगे ही आगे बढ़ती चली जाती है.
अब क्यों कि 'कर्म का सिद्धान्त कार्य-कारण का ही सिद्धान्त है इसलिए 'कर्म में भी कार्य-कारण की दोनों बातें अवश्यंभाविता और चक्रपना पाई जाती हैं. प्रत्येक 'कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है. यह 'अवश्यंभाविता है. प्रत्येक कर्म का फल फल ही न रहकर स्वयं एक कर्म बन जाता है, यह 'चक्र है.
'कर् का 'चक्र कैसे चलता है? हमें किसी नें मारा, यहाँ ये फल है या 'कर्म है या कार्य है या कारण है? या तो यह हमें अपने किसी कर्म का फल मिला है या जिसनें हमें मारा उसनें एक नया 'कर्म किया. एक नए कारण को उत्पन्न किया जिसका उसे फल मिलना है. अगर हमें 'फल मिला है तो यह किसी कारण का कार्य है और अगर हम थप्पड खाकर चुप रह जाएं, गुस्सा तक न करें तो फल शान्त हो जाए और अगली कार्य-कारण परम्परा को खड़ा न करे. परन्तु ऐसा नहीं होता. हमें किसी ने मारा तो हम उसका बदला अवश्य लेंगे, सीधे थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से न दे सकेंगे, तो दूसरे किसी उपाय को सोचेंगे. अगर और कुछ नहीं तो बैठे-बैठे मन में ही संकल्प, विकल्पों का ताना बाना बुनने लगेंगे. नतीजा यह हुआ कि अगर यह फल था, किसी पिछले कारण का कार्य था तो भी यह सिर्फ कार्य या फल न रहकर फिर से कारण बन जाता है और अगले कार्य के चक्कर को चला देता है. और अगर यह फल नहीं था, एक नया कारण था, जिसनें हमें थप्पड़ मारा उसका एक नया ही कर्म था, तब तो कार्य-कारण के नियम के अनुसार इसका फल मिलना ही है. इससे भी चक्र का चल पडऩा स्वाभाविक ही है. हर हालत में प्रत्येक 'कर्म चाहे वह कारण हो या कार्य- एक नए चक्र को चला देता है, और प्रत्येक कर्म पिछले कर्म का कार्य और अगले कर्म का कारण बनता चला जाता है. इस प्रकार यह 'आत्म-तत्व कर्मों के एक ऐसे जाल में बँध जाता है जिसमें से निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता. इसमें से निकलने का हर झटका एक दूसरी गाँठ बाँध देता है, और जितनी गाँठ खुलती जाती है उतनी ही नईं गाँठ पड़ती भी जाती है.
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
No comments:
Post a Comment