माँ बम्लेश्वरी देवी के मंदिर के लिए विख्यात है डोंगरगढ़। यह एक ऐतिहासिक नगरी है। यहाँ माँ बम्लेश्वरी देवी के दो मंदिर हैं। पहला एक हजार फीट पहाड़ी पर स्थित है जो कि बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है तथा इसके समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है। माँ बम्लेश्वरी के मंदिर में प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो विराट मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे लाखों की संख्या में दर्शनार्थी भाग लेते हैं। चारों ओर हरे-भरे वनों, पहाडियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्चिम में 'पनियाजोब जलाशय, उत्तर में 'ढारा जलाशय तथा दक्षिण में 'मदियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण स्थान है डोंगरगढ़।
कामाख्या नगरी व डुंगराख्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ़ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी-काल का निर्माण बताया है। डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले के दक्षिण-पूर्वी मध्य रेलवे के हावड़ा-मुम्बई रेल मार्ग पर और रायपुर-नागपुर राष्ट्रीय राजमार्ग में महाराष्ट्र प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। ब्रिटिश शासन काल में यह एक जमीदारी थी। प्राचीन काल से बिमलाई देवी यहाँ की अधिष्ठात्री हैं, जो आज बमलेश्वरी देवी के नाम से विख्यात है।
डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं, जिसकी मूर्तिकला पर गौंड़ संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ अधिकांशत: 15वीं-16वीं शता. ई. में निर्मित की गई थीं। स्टेशन के समीप की पहाड़ी पर 'बिमलाई देवी का सिद्धपीठ है।
पहाड़ी के पीछे 'तपसी काल नामक एक दुर्ग है, जिसके अंदर भगवान विष्णु का एक मंदिर अवस्थित है। कुछ लोगों के मत में बिमलाई देवी, मैना जाति के आदिवासियों की कुलदेवी हैं। धमतरी, रायपुर जिला में भी इस देवी का स्थान है। लगभग एक हजार सीढिय़ों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर माता के दर्शन होते ही जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठता है।
भारतीय साहित्य में देवी-देवताओं, गंधर्वों, किन्नरों और अप्सराओं के मनोरम विहार स्थलों एवं ऋषि-मुनियों की तपोस्थली पर्वतों में बतायी गयी है। माया मोह से उबर चुके मोक्षार्थियों को पर्वत में जाने का उल्लेख शास्त्रों में है। महाकवि कालिदास ने तो हिमालय को देवताओं का निवास स्थान बताया है। कवियों ने पर्वत मालाओं में देवी-देवताओं की कल्पना की है। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में बमलेश्वरी देवी विराजमान हैं। पहाड़ी के नीचे छोटी बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। पहाड़ में गुफाओं के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक खंड हैं जो अपनी विकरालता के साथ विचित्रता के लिए प्रसिद्ध है। सन् 1968में सीढिय़ों का निर्माण और विद्युतीकरण का कार्य कराया गया। यात्रियों की सुविधा के लिए पहाड़ के ऊपर जनसहयोग से पेय जल की सुगम व्यवस्था, ठहरने के लिए धर्मशालाएं, प्रतीक्षालय, सुलभ काम्पलेक्स और भोजनालय आदि की व्यवस्था की गयी है। पहाड़ी में जाने के लिए 'रोप-वे की भी सुविधा है। सीढिय़ों को भी सुगम बनाया गया है। डोंगरगढ़ जाने के लिए सड़क मार्ग, रेल मार्ग आदि की सुविधा है।
कामाख्या नगरी व डुंगराख्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ़ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी-काल का निर्माण बताया है। डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले के दक्षिण-पूर्वी मध्य रेलवे के हावड़ा-मुम्बई रेल मार्ग पर और रायपुर-नागपुर राष्ट्रीय राजमार्ग में महाराष्ट्र प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। ब्रिटिश शासन काल में यह एक जमीदारी थी। प्राचीन काल से बिमलाई देवी यहाँ की अधिष्ठात्री हैं, जो आज बमलेश्वरी देवी के नाम से विख्यात है।
डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं, जिसकी मूर्तिकला पर गौंड़ संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ अधिकांशत: 15वीं-16वीं शता. ई. में निर्मित की गई थीं। स्टेशन के समीप की पहाड़ी पर 'बिमलाई देवी का सिद्धपीठ है।
पहाड़ी के पीछे 'तपसी काल नामक एक दुर्ग है, जिसके अंदर भगवान विष्णु का एक मंदिर अवस्थित है। कुछ लोगों के मत में बिमलाई देवी, मैना जाति के आदिवासियों की कुलदेवी हैं। धमतरी, रायपुर जिला में भी इस देवी का स्थान है। लगभग एक हजार सीढिय़ों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर माता के दर्शन होते ही जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठता है।
भारतीय साहित्य में देवी-देवताओं, गंधर्वों, किन्नरों और अप्सराओं के मनोरम विहार स्थलों एवं ऋषि-मुनियों की तपोस्थली पर्वतों में बतायी गयी है। माया मोह से उबर चुके मोक्षार्थियों को पर्वत में जाने का उल्लेख शास्त्रों में है। महाकवि कालिदास ने तो हिमालय को देवताओं का निवास स्थान बताया है। कवियों ने पर्वत मालाओं में देवी-देवताओं की कल्पना की है। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में बमलेश्वरी देवी विराजमान हैं। पहाड़ी के नीचे छोटी बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। पहाड़ में गुफाओं के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक खंड हैं जो अपनी विकरालता के साथ विचित्रता के लिए प्रसिद्ध है। सन् 1968में सीढिय़ों का निर्माण और विद्युतीकरण का कार्य कराया गया। यात्रियों की सुविधा के लिए पहाड़ के ऊपर जनसहयोग से पेय जल की सुगम व्यवस्था, ठहरने के लिए धर्मशालाएं, प्रतीक्षालय, सुलभ काम्पलेक्स और भोजनालय आदि की व्यवस्था की गयी है। पहाड़ी में जाने के लिए 'रोप-वे की भी सुविधा है। सीढिय़ों को भी सुगम बनाया गया है। डोंगरगढ़ जाने के लिए सड़क मार्ग, रेल मार्ग आदि की सुविधा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
आज भी बमलेश्वरी पहाड़ अपने गर्भ में अतीत के अनेक ऐतिहासिक एवं रोमांचकारी तथ्य छुपाये हुए है। यह प्राचीन काल की कामावती नगर की वैभवशाली और अनेक स्मरणीय यादों को अपने गर्भ में समेटे अविचल, अडिग, अनादिकाल से खड़ा है। इसमें मां बमलेश्वरी की सत्ता सर्वोच्च शिखर पर इसका साक्षी है। इस पहाड़ पर ऋषि-मुनियों की कठोर तपस्या किये जाने के अवशेष यहां की गुफाओं में मिलते हैं। इसके अलावा इस पहाड़ के दूसरे किनारे पर अति दुर्गम चट्टान हैं। इस चट्टान पर खुले आसमान के नीचे साधना स्थल और जल कुंड के अवशेष हैं। पहाड़ी के नीचे ऋषि-मुनियों का आश्रम और सरोवर था। लोगों का ऐसा विश्वास है कि इस सरोवर में स्नान करने, इसका जल ग्रहण करने से रोगों से मुक्ति मिलती है। इस आश्रम को आज 'तपस्वी मंदिर के नाम से जाना जाता है।
किंवदंती है कि यहाँ पहाड़ी पर किसी समय एक दुर्ग था, जिसमें माधवानल-कामकन्दला नामक प्रसिद्ध उपाख्यान की नायिका 'कामकंदला का निवास स्थान था। इसी दुर्ग में कामकंदला की भेंट माधवानल से हुई थी। यह प्रेम कहानी छत्तीसगढ़ में सर्वत्र प्रचलित है।
डोंगरगढ़ के अतीत में कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी दफन है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व यहां राजा कामसेन की वैभवशाली कामाख्या नगरी थी जो उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कला, नृत्य और संगीत के लिए विख्यात् इस नगरी में कामकंदला नाम की राज नर्तकी थी। वह नृत्यकला में निपुण और अनिंद्य सुन्दरी थी। एक बार राज दरबार में उसका नृत्य हो रहा था। उसी समय माधवानल नाम का एक निष्णात् संगीतज्ञ वहां आया। संगीत प्रेमी होने के कारण उन्होंने राज दरबार में प्रवेश करना चाहा लेकिन दरबान उन्हें भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब वह वहीं बैठकर तबले और घुंघरुओं का आनंद लेने लगा। अचानक उन्हें लगा कि तबलची का बायां अंगूठा नकली है और नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरुओं में एक घुंघरू में कंकड़ नहीं होने से ताल में अशुद्धि है। वह बोल पड़ा- 'मैं व्यर्थ में यहां चला आया। यहां के राज दरबार में ऐसा एक भी संगीतज्ञ नहीं है जो ताल की अशुद्धियों को पहचान सके। द्वारपाल उस अजनबी से अपने राजा और राज दरबार के बारे में सुना तो उसे तत्काल रोककर राज दरबार में जाकर राजा से सारी बात कह सुनाया। राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल उन्हें सादर राज दरबार में ले गया। उनके कथन की पुष्टि होने पर उन्हें संगत का मौका दिया गया। यहां से कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी शुरू हुई लेकिन राजा स्वयं् कामकंदला पर मोहित थे, अत: दोनों का मेल संभव नहीं हो पाया। तब माधवानल और कामकंदला ने जीवनरक्षा हेतु उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य की शरण ली और उनसे दया और सहयोग की भीख मांगी।
राजा विक्रमादित्य ने उन्हें न्याय दिलाकर दोनों में मेल कराया। यहां ऐसी किंवदंती प्रचलित है कि माधवानल को न्याय दिलाने के लिए उन्हें कामावती के राजा से युद्ध करना पड़ा था जिसे रोकने के लिए मां भवानी और महादेव को आना पड़ा था। डोंगरगढ़ का 'कामकंदला-माधवानल सरोवर इसका साक्षी है।
एक अन्य किंवदंती का उल्लेख यहां मिलता है। उनके अनुसार एक बार सात आगर, सात कोरी यानी 147 मोटियारी नर्तकियां अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करने नांदगांवराज से डोंगरगढ़ आयीं। राजमाता को जब यह समाचार ज्ञात हुआ तब वह चिंतित हो गयी। उन्हें राजकुमार के किसी मोटियारी नर्तकी के ऊपर मोहित हो जाने का डर हो गया। अत: उन्होंने हल्दी के घोल में अभिमंत्रित जल मिलाकर राजकुमार को नृत्य शुरू होने के पूर्व नर्तकियों के उपर छिड़कने को कहा। राजकुमार द्वारा ऐसा करने पर सभी नर्तकियां शिलाखंड में परिवर्तित हो गयीं। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में ऐसे अनेक शिलाखंड हैं जिन्हें नर्तकियों का शिलाखंड माना है।
डोंगरगढ़ के मोतीबीर तालाब में एक 10 फीट शिला स्तम्भ मिला है जिसमें फारसी में एक लेख उत्कीर्ण है। स्तम्भ रायपुर के घासीदास संग्रहालय में संग्रहित है। इसी प्रकार यहां की पहाड़ी में एक अन्य स्तम्भ है जिस पर उत्कीर्ण लेख को आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। तथ्य चाहे जो भी हो, लेकिन डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी माता आज भी लोगों की आराध्य देवी हैं, श्रद्धा की प्रतिमूर्ति हैं। उन्हें हमारा शत् शत् नमन।
आज भी बमलेश्वरी पहाड़ अपने गर्भ में अतीत के अनेक ऐतिहासिक एवं रोमांचकारी तथ्य छुपाये हुए है। यह प्राचीन काल की कामावती नगर की वैभवशाली और अनेक स्मरणीय यादों को अपने गर्भ में समेटे अविचल, अडिग, अनादिकाल से खड़ा है। इसमें मां बमलेश्वरी की सत्ता सर्वोच्च शिखर पर इसका साक्षी है। इस पहाड़ पर ऋषि-मुनियों की कठोर तपस्या किये जाने के अवशेष यहां की गुफाओं में मिलते हैं। इसके अलावा इस पहाड़ के दूसरे किनारे पर अति दुर्गम चट्टान हैं। इस चट्टान पर खुले आसमान के नीचे साधना स्थल और जल कुंड के अवशेष हैं। पहाड़ी के नीचे ऋषि-मुनियों का आश्रम और सरोवर था। लोगों का ऐसा विश्वास है कि इस सरोवर में स्नान करने, इसका जल ग्रहण करने से रोगों से मुक्ति मिलती है। इस आश्रम को आज 'तपस्वी मंदिर के नाम से जाना जाता है।
किंवदंती है कि यहाँ पहाड़ी पर किसी समय एक दुर्ग था, जिसमें माधवानल-कामकन्दला नामक प्रसिद्ध उपाख्यान की नायिका 'कामकंदला का निवास स्थान था। इसी दुर्ग में कामकंदला की भेंट माधवानल से हुई थी। यह प्रेम कहानी छत्तीसगढ़ में सर्वत्र प्रचलित है।
डोंगरगढ़ के अतीत में कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी दफन है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व यहां राजा कामसेन की वैभवशाली कामाख्या नगरी थी जो उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कला, नृत्य और संगीत के लिए विख्यात् इस नगरी में कामकंदला नाम की राज नर्तकी थी। वह नृत्यकला में निपुण और अनिंद्य सुन्दरी थी। एक बार राज दरबार में उसका नृत्य हो रहा था। उसी समय माधवानल नाम का एक निष्णात् संगीतज्ञ वहां आया। संगीत प्रेमी होने के कारण उन्होंने राज दरबार में प्रवेश करना चाहा लेकिन दरबान उन्हें भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब वह वहीं बैठकर तबले और घुंघरुओं का आनंद लेने लगा। अचानक उन्हें लगा कि तबलची का बायां अंगूठा नकली है और नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरुओं में एक घुंघरू में कंकड़ नहीं होने से ताल में अशुद्धि है। वह बोल पड़ा- 'मैं व्यर्थ में यहां चला आया। यहां के राज दरबार में ऐसा एक भी संगीतज्ञ नहीं है जो ताल की अशुद्धियों को पहचान सके। द्वारपाल उस अजनबी से अपने राजा और राज दरबार के बारे में सुना तो उसे तत्काल रोककर राज दरबार में जाकर राजा से सारी बात कह सुनाया। राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल उन्हें सादर राज दरबार में ले गया। उनके कथन की पुष्टि होने पर उन्हें संगत का मौका दिया गया। यहां से कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी शुरू हुई लेकिन राजा स्वयं् कामकंदला पर मोहित थे, अत: दोनों का मेल संभव नहीं हो पाया। तब माधवानल और कामकंदला ने जीवनरक्षा हेतु उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य की शरण ली और उनसे दया और सहयोग की भीख मांगी।
राजा विक्रमादित्य ने उन्हें न्याय दिलाकर दोनों में मेल कराया। यहां ऐसी किंवदंती प्रचलित है कि माधवानल को न्याय दिलाने के लिए उन्हें कामावती के राजा से युद्ध करना पड़ा था जिसे रोकने के लिए मां भवानी और महादेव को आना पड़ा था। डोंगरगढ़ का 'कामकंदला-माधवानल सरोवर इसका साक्षी है।
एक अन्य किंवदंती का उल्लेख यहां मिलता है। उनके अनुसार एक बार सात आगर, सात कोरी यानी 147 मोटियारी नर्तकियां अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करने नांदगांवराज से डोंगरगढ़ आयीं। राजमाता को जब यह समाचार ज्ञात हुआ तब वह चिंतित हो गयी। उन्हें राजकुमार के किसी मोटियारी नर्तकी के ऊपर मोहित हो जाने का डर हो गया। अत: उन्होंने हल्दी के घोल में अभिमंत्रित जल मिलाकर राजकुमार को नृत्य शुरू होने के पूर्व नर्तकियों के उपर छिड़कने को कहा। राजकुमार द्वारा ऐसा करने पर सभी नर्तकियां शिलाखंड में परिवर्तित हो गयीं। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में ऐसे अनेक शिलाखंड हैं जिन्हें नर्तकियों का शिलाखंड माना है।
डोंगरगढ़ के मोतीबीर तालाब में एक 10 फीट शिला स्तम्भ मिला है जिसमें फारसी में एक लेख उत्कीर्ण है। स्तम्भ रायपुर के घासीदास संग्रहालय में संग्रहित है। इसी प्रकार यहां की पहाड़ी में एक अन्य स्तम्भ है जिस पर उत्कीर्ण लेख को आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। तथ्य चाहे जो भी हो, लेकिन डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी माता आज भी लोगों की आराध्य देवी हैं, श्रद्धा की प्रतिमूर्ति हैं। उन्हें हमारा शत् शत् नमन।
डोंगरगढ़: साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल- डोंगरगढ़, राजनांदगांव जिले की इस तहसील को कौमी एकता की मिसाल और तपोभूमि कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मां बम्लेश्वरी मंदीर के लिए विख्यात ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है और तो और सभी पूजा-स्थलों की मान्यताएं व किवदंतियां हैं। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरु द्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का चर्च यहां पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। कहा जाता है कि ब्रिटिश शासनकाल में बना ये चर्च छत्तीसगढ़ का पहला चर्च है। आदिवासियों के आराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैय्या भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊँची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। बौद्ध धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित कर डोंगरगढ़ को धार्मिक एकता के सूत्र में मजबूती से बांधने का काम किया है। सभी समाजों के पूजा-स्थलों की मान्यताओं के साथ डोंगरगढ़ विख्यात है मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर के लिए।
माँ बम्लेश्वरी सबकी इच्छाएं पूरी करती है। हर समस्या का निदान मां के चरणों में है। सभी धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं ने ये स्वीकार किया है कि आराधना और प्रार्थना अद्भत तरीके से फलदायी होती है। इसी चमत्कार के कारण डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी मंदिर की स्थापना हुई।
माँ बम्लेश्वरी सबकी इच्छाएं पूरी करती है। हर समस्या का निदान मां के चरणों में है। सभी धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं ने ये स्वीकार किया है कि आराधना और प्रार्थना अद्भत तरीके से फलदायी होती है। इसी चमत्कार के कारण डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी मंदिर की स्थापना हुई।
डोंगरगढ़ पहुंच-मार्ग: मुंबई-हावड़ा रेल लाइन के बीच स्थित डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से मात्र एक सौ चार किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से यहां पहुंचने के लिए रास्ता प्रसिद्ध जी. ई. रोड के तुमड़ीबोड़ से मुड़ता है। राजनांदगांव जिले की यह सबसे बड़ी तहसील है।
पहाड़ी से घिरे इस नगर में हर धर्म के लोग अलग-अलग समय में जुटते हैं। चैत्र और आश्विन नवरात्रि में करीब दस से बारह लाख लोग यहां आते हैं तो 6फरवरी को प्रज्ञागिरी में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु, गुड फ्राईडे को मध्यभारत का मसीही समाज यहां पूजा करने आता है, तो टेकरी वाले बाबा के उर्स पार्क पर पहुँचने है मुस्लिम भाई।
पहाड़ी से घिरे इस नगर में हर धर्म के लोग अलग-अलग समय में जुटते हैं। चैत्र और आश्विन नवरात्रि में करीब दस से बारह लाख लोग यहां आते हैं तो 6फरवरी को प्रज्ञागिरी में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु, गुड फ्राईडे को मध्यभारत का मसीही समाज यहां पूजा करने आता है, तो टेकरी वाले बाबा के उर्स पार्क पर पहुँचने है मुस्लिम भाई।
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