Sunday, 12 April 2015

विवाह योग





वस्तुत: ज्योतिषशास्त्र मानता है कि जब विवाह योग बनते हैं, तब यदि उन्हें टाल दिया जाए तो आगे विवाह में बहुत देरी हो जाती है। कई मर्तबा तो विवाह करना चिंता का विषय बन जाता है। वैसे विवाह में देरी होने का एक कारण जातकों का मंगली होना भी है। ऐसे में जिन जातकों के विवाह में विलंब हो जाता है, उनके ग्रहों की दशा ज्ञात कर विवाह योग का काल जाना जा सकता है। आचार्यों के अनुसार जिस वर्ष शनि और गुरु दोनों सप्तम भाव या लग्न को देखते हों, तब विवाह के योग बनते हैं। सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह की महादशा-अंतरदशा में विवाह संभव है। सप्तमेश की महादशा-अंतरदशा या शुक्र-गुरु की महादशा-अंतरदशा में विवाह का प्रबल योग रहता है।
विवाह के शुभाशुभ योग: सप्तम भाव का स्वामी अपने भाव में बैठकर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है तो विवाह के योग बनते हैं। किसी अन्य पाप ग्रह की दृष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर न हो तो विवाह के योग बनते हैं। कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा न हो तो शीघ्र विवाह के योग बनते हैं।
यदि सप्तम भाव में सम राशि हो अथवा सप्तमेश और शुक्र सम राशि में हों तो। सप्तमेश बली हो तो शीघ्र विवाह होता है। दूसरे, सातवें व बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु से दृष्ट हों तो।
सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में क्रूर ग्रह न हो तो विवाह के योग बनते हैं। विवाह कब होगा इस प्रश्न का विचार करने के लिए द्वितीय, सप्तम, तथा एकादश भाव में कौन से ग्रह हैं इनको देखा जाता है। विवाह का विचार सप्तम भाव के साथ साथ द्वितीय और एकादश भाव से भी किया जाता है। सप्तम भाव जीवनसाथी, संधि, और साझेदारी का घर होता है अत: विवाह के विषय में इस भाव से विचार किया जाता है। भारतीयदर्शन में विवाह को, सम्बन्ध में वृद्धि की दृष्टि से भी देखा जाता है अत: एकादश भाव से भी विचार किया जाता है। इन भावों के नक्षत्र कौन कौन से हैं इन भावों के स्वामी के नक्षत्र में स्थित ग्रह इन भावो के स्वामी तथा इन भाव में स्थित ग्रह के मध्य दृष्टि और युति सम्बन्ध को भी देखा जाता है।
प्रश्न ज्योतिष में विवाह के लिए शुभ स्थिति: विवाह का कारक स्त्री की कुण्डली मे गुरू और पुरूष की कुण्डली में शुक्र होता है। प्रश्न ज्योतिष में विवाह का विचार करते समय पुरूष की कुण्डली में चन्द्र और शुक्र को देखा जाता है तो स्त्री की कुण्डली में सूर्य और मंगल को देखा है। प्रश्न कुण्डली के कुछ सामान्य नियम हैं जिनके अनुसार चन्द्रमा जब तृतीय, पंचम, षष्टम, सप्तम और एकादश भाव में होता है और गुरू, सूर्य एवं बुध उसे देखता है तो विवाह की शुभ स्थिति बनती है। अगर त्रिकोण स्थान पंचम और नवम तथा केन्द्र स्थान यानी प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव शुभ प्रभाव में हो तो विवाह जल्दी होने की संभावना बनती है। लग्न में अगर कोई स्त्री ग्रह हो अथवा लग्न और नवम में स्त्री राशि हो तथा चन्द्र व शुक्र इन भावों में बैठकर एक दूसरे को देखते हों तब विवाह का शुभ संयोग बनता है। प्रश्न कुण्डली में लग्न का स्वामी और चन्द्र अथवा शुक्र सप्तम में स्थित होता है और सप्तम भाव का स्वामी लग्न में आकर बैठता है तो शहनाई गूंजती है। लग्न में गुरू और सातवे घर में बुध बैठा हो तथा चन्द्रमा अपने घर में हो, सूर्य दसवें घर में और शुक्र दूसरे घर में बैठा हो, तब विवाह का शुभ संयोग बनता है। अगर आप किसी से बहुत अधिक प्यार करते हैं और जानना चाहते है कि आपकी शादी उससे होगी या नहीं उस स्थिति में अगर प्रश्न कुण्डली में चन्द्रमा तृतीय, छठे, सातवें, दशवें अथवा ग्यारहवें घर में शुभ स्थिति में हो और सूर्य, बुध और गुरू उसे देख रहे हों तो शुभ संकेत समझना चाहिए अगर ऐसा नहीं हो तब प्रथम और सप्तम स्थान के स्वामी एवं प्रथम और द्वादश भाव के स्वामी को देखना चाहिए। अगर इन दोनों भावों के स्वामी एक दूसरे के घर में स्थान परिवर्तन कर रहे हैं तब भी प्रेम विवाह की पूरी संभावना बनती है।
विवाह समय निर्धारण: कुण्डली में विवाह के योग के लिये सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र से संबंध बनाने वाले ग्रहों का विश्लेषण किया जाता है। जन्म कुण्डली में जो भी ग्रह अशुभ या पापी ग्रह होकर इन ग्रहों से दृष्टि, युति या स्थिति के प्रभाव से इन ग्रहों से संबंध बना रहा होता है वह ग्रह विवाह में विलम्ब का कारण बन रहा होता है। इसलिये सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव जितना अधिक हो, उतना ही शुभ रहता है तथा अशुभ ग्रहों का प्रभाव न होना भी विवाह का समय पर होने के लिये सही रहता है। क्योकि अशुभ/ पापी ग्रह जब भी इन तीनों को या इन तीनों में से किसी एक को प्रभावित करते है, विवाह की अवधि में देरी होती ही है।
जन्म कुण्डली में जब योगों के आधार पर विवाह की आयु निर्धारित हो जाये तो, उसके बाद विवाह के कारक ग्रह शुक्र व विवाह के मुख्य भाव व सहायक भावों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है। विवाह के समय निर्धारण में दशाओ का योग:
1. सप्तमेश की दशा- अन्तर्दशा में विवाह: जब कुण्डली के योग विवाह की संभावनाएं बना रहे हों, तथा व्यक्ति की ग्रह दशा में सप्तमेश का संबंध शुक्र से हो तों इस अवधि में विवाह होता है। इसके अलावा जब सप्तमेश जब द्वितीयेश के साथ ग्रह दशा में संबंध बना रहे हों, उस स्थिति में भी विवाह होने के योग बनते है।
2. सप्तमेश में नवमेश की दशा- अन्तद्र्शा में विवाह: ग्रह दशा का संबंध जब सप्तमेश व नवमेश का आ रहा हों तथा ये दोनों जन्म कुण्डली में पंचमेश से भी संबंध बनाते हों तो इस ग्रह दशा में प्रेम विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
3. सप्तम भाव में स्थित ग्रहों की दशा में विवाह: सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित हो या उनसे पूर्ण दृष्टि संबंध बना रहे हों, उन सभी ग्रहों की दशा - अन्तर्दशा में विवाह हो सकता है।
इसके अलावा निम्न योगों में विवाह होने की संभावनाएं बनती है:
क) सप्तम भाव में स्थित ग्रह, सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर शुभ भाव में हों तो व्यक्ति का विवाह संबंधित ग्रह दशा की आरम्भ की अवधि में विवाह होने की संभावनाएं बनाती है।
ख) शुक्र, सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर अशुभ भाव या अशुभ ग्रह की राशि में स्थित होने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा के मध्य भाग में विवाह की संभावनाएं बनाता है।
ग) इसके अतिरिक्त जब अशुभ ग्रह बली होकर सप्तम भाव में स्थित हों या स्वयं सप्तमेश हों तो इस ग्रह की दशा के अन्तिम भाग में विवाह संभावित होता है।
4. शुक्र का ग्रह दशा से संबंध होने पर विवाह: जब विवाह कारक ग्रह शुक्र नैसर्गिक रुप से शुभ हों, शुभ राशि, शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट हो तो गोचर में शनि, गुरु से संबंध बनाने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने का संकेत करता है।
5. सप्तमेश के मित्रों की ग्रह दशा में विवाह: जब किसी व्यक्ति कि विवाह योग्य आयु हों तथा महादशा का स्वामी सप्तमेश का मित्र हों, शुभ ग्रह हों व साथ ही साथ सप्तमेश या शुक्र से सप्तम भाव में स्थित हों, तो इस महादशा में व्यक्ति के विवाह होने के योग बनते है।
6. सप्तम व सप्तमेश से दृष्ट ग्रहों की दशा में विवाह: सप्तम भाव को क्योंकि विवाह का भाव कहा गया है। सप्तमेश इस भाव का स्वामी होता है इसलिये जो ग्रह बली होकर इन सप्तम भाव, सप्तमेश से दृष्टि संबंध बनाते है, उन ग्रहों की दशा अवधि में विवाह की संभावनाएं बनती है।
7. लग्नेश व सप्तमेश की दशा में विवाह: लग्नेश की दशा में सप्तमेश की अन्तर्दशा में भी विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
8. शुक्र की शुभ स्थिति: किसी व्यक्ति की कुण्डली में जब शुक्र शुभ ग्रह की राशि तथा शुभ भाव (केन्द्र, त्रिकोण) में स्थित हों, तो शुक्र का संबंध अन्तर्दशा या प्रत्यन्तर दशा से आने पर विवाह हो सकता है। कुण्डली में शुक्र पर जितना कम पाप प्रभाव कम होता है वैवाहिक जीवन के सुख में उतनी ही अधिक वृ्द्धि होती है।
9. शुक्र से युति करने वाले ग्रहों की दशा में विवाह: शुक्र से युति करने वाले सभी ग्रह, सप्तमेश का मित्र, अथवा प्रत्येक वह ग्रह जो बली हों, तथा इनमें से किसी के साथ दृष्टि संबंध बना रहा हों, उन सभी ग्रहों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
10. शुक्र का नक्षत्रपति की दशा में विवाह: जन्म कुण्डली में शुक्र जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हों, उस ग्रह की दशा अवधि में विवाह होने की संभावनाएँ बनती है।
प्रेम विवाह-योग:
1. राहु के योग से प्रेम विवाह की संभावनाएं: जब राहु लग्न में हो परन्तु सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि हो तो व्यक्ति का प्रेम विवाह होने की संभावनाए बनती है। राहु का संबंध विवाह भाव से होने पर व्यक्ति पारिवारिक परम्परा से हटकर विवाह करने का सोचता है। राहु को स्वभाव से संस्कृति व लीक से हटकर कार्य करने की प्रवृति का माना जाता है। जब जन्म कुण्डली में मंगल का शनि अथवा राहु से संबन्ध या युति हो रही हों तब भी प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है। कुण्डली के सभी ग्रहों में इन तीन ग्रहों को सबसे अधिक अशुभ व पापी ग्रह माना गया है इन तीनों ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब विवाह भाव, भावेश से संबंध बनाता है तो व्यक्ति के अपने परिवार की सहमति के विरुद्ध जाकर विवाह करने की संभावनाएं बनती है।
जिस व्यक्ति की कुण्डली में सप्तमेश व शुक्र पर शनि या राहु की दृष्टि हो, उसके प्रेम विवाह करने की सम्भावनाएं बनती है। जब पंचम भाव के स्वामी की उच्च राशि में राहु या केतु स्थित हों तब भी व्यक्ति के प्रेम विवाह के योग बनते है।
मांगलिक दोष एवं उसका निदान: विवाह के अवसर पर वर एवं वधू की कुण्डली मिलान करते समय अष्टकूट के साथ-साथ मांगलिक दोष पर भी विचार किया जाता है। इसे शास्त्रों में कुज दोष या भौम दोष का नाम भी दिया गया है। इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि इसका भय दूर हो सके। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तो मंगल दोष माना जाता है। विद्वानों ने राशि से भी उक्त स्थानों पर मंगल के होने पर यह दोष बताया है। किसी भी जातक पत्रिका में यह योग हो तो उस कुण्डली या जातक को मंगली कहा जाता है। वर-वधू में से किसी एक की कुण्डली के इन भावों में मंगल हो तथा दूसरे की पत्रिका में नहीं तो ऐसी परिस्थिति को वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है तथा ज्योतिषी उन दोनों का विवाह न करने की सलाह दे देते हैं। यदि वर-वधू दोनों की कुण्डली में उक्त दोष हो तो विवाह करना शुभ समझा जाता है। यह दोष तब और प्रबल हो जाता है जब जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ अन्य क्रूर ग्रह (शनि, राहू, केतु) बैठे हों। बृहत् पाराशर के अनुसार विकल: पाप संयुत: अर्थात पापी ग्रह से युक्त ग्रह विकल अवस्था का होगा तथा दोष कारक होगा। अत: शनि या राहु की युति से मांगलिक दोष में अभिवृद्धि हो जाती है।
''नीचादी दु:स्थगे भूमिसुते बलविवर्जिते।
पापयुक्ते पापदृष्टे सादशा नेष्टदायिका।। (बृहत् पाराशर होराशास्त्र)
मंगल दोष को लेकर भ्रम: मंगल ग्रह को ज्योतिष ग्रंथों में रक्त प्रिय एवम हिंसा व विवाद का कारक कहा गया है। सातवाँ भाव जीवन साथी एवम गृहस्थ सुख का है। वहीं प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश भावों में स्थित मंगल अपनी दृष्टि या स्थिति से सप्तम भाव अर्थात दाम्पत्य सुख को नुकसान पहुँचाता है। ऐसे में उपरोक्त स्थानों पर मंगल को देखकर वर या कन्या को तत्काल मंगली घोषित कर देते हैं, फिर चाहे मंगल नीच राशि में हो या उच्च में, मित्र राशि में हो या शत्रु में। मंगल दोष के परिहार को या तो अनदेखा किया जाता है या शास्त्रीय नियमों की अवहेलना करने वाले परिहार वाक्यों को लागू कर त्रुटियुक्त मिलान कर दिया जाता है। ऐसे में परिणाम भावी युगल एवं उनके परिवार को भोगना पड़ता है। अत: जरूरी है कि इन भावों में और मंगल को समझ लिया जाए।
लग्न भाव तथा मंगलदोष: लग्न (प्रथम) भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है। लग्न में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है। यह मंगल जिद्दी और आक्रमक भी बनाता है। इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है। सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है। अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है।
चतुर्थ भाव तथा मंगलदोष: चतुर्थ में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है। यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है। मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है। मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है। मंगली दोष के कारण पति-पत्नी के बीच दूरियाँ बढ़ जाती हैं और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है।
सप्तम भाव तथा मंगलदोष: यह भाव जीवनसाथी का कारक होता है। इसमें बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है। यहाँ से मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है। जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है। यह मंगल लग्न, धन एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। इस वजह से आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की आशंका बनती है। यह चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेतर सम्बन्ध भी बनाने के योग प्रबल कर देता है। पति-पत्नी में दूरियाँ बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं। संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है।
अष्टम भाव तथा मंगलदोष:
यह स्थान दु:ख, कष्ट, संकट एवं आयु का होता है। इसमें मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है। अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है। जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है। धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है। रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है। ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंगलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है। इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है। मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।
द्वादश भाव तथा मंगलदोष:
कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है। इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है। इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है। धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं। व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है। अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है। भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी आशंका रहती है।
मंगल दोष परिहार
फलित ज्योतिष के सर्वमान्य ग्रंथों के अनुसार जो ग्रह अपनी उच्च, मूल त्रिकोण, मित्र, स्वराशि, नवांश में स्थित, वर्गोत्तम, षड्बली, शुभ ग्रहों से युक्त-दृष्ट हो वह सदैव शुभकारक होता है। इसी प्रकार नीचस्थ,अस्त, शत्रु राशिस्थ,पापयुक्त, पाप दृष्ट,षड्बल विहीन ग्रह अशुभ कारक होता है।
''नीचारिगो भाव विनाश कृत्खग: सम: समक्र्षे सखिभे त्रिकोणभे।
स्वोच्चे स्वभे भावचयप्रद: फलदु:स्थेस्वसत्सत्सु विलोम:।। (ज्योतिष्तत्वम्)
''नीचस्थो रिपु राशिस्थ खेटो भावविनाशक:।
मूल स्व तुंग मित्रस्थो भाव वृद्धि करो भवेत। (जातक-पारिजात)
इसी प्रकार भाव मंञ्जरी में कहा गया है कि -''स्वीय तुंग सखि सदभ संस्थित पामरोऽपि यदि सत्फलम व्रजेत ।
अर्थात पाप ग्रह भी यदि स्व, उच्च, मित्र राशि, नवांश, वर्गोत्तम, शुभ युक्त, शुभ दृष्ट हो तो शुभता को देने वाला होता है। जातकमार्ग देश का भी यही मत है- ''पापग्रहा बलयुता: शुभवर्गस्थिता सौम्या भवन्ति शुभवर्गसौम्य दृष्टा:।
उपरोक्त सन्दर्भों से यह स्पष्ट है कि कुण्डली के 1, 4, 7, 8व 12 वें भाव में स्थित मंगल यदि स्व, उच्च, मित्र आदि राशि, नवांश का, वर्गोत्तम, षड्बली होकर शुभता से युक्त हो जाता है तो मांगलिक दोष का परिहार माना जाएगा।
इसी प्रकार सप्तम भाव का स्वामी बलवान हो तथा अपने भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो मांगलिक दोष का परिहार हो जाता है। इनके अतिरिक्त भी शास्त्रीय ग्रंथों मंगल दोष का परिहार माना गया है, जिसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है-
1. यदि मंगल इन भावों में स्व, उच्च, मित्र राशि: -नवांश का हो।
2. यदि मंगल इन भावों में वर्गोत्तम नवांश का हो।
3. यदि इन भावों में स्थित मंगल पर बलवान शुभ ग्रहों की पूर्ण दृष्टि हो।
इसके विपरीत एक विसंगतिपूर्ण मान्यता चल रही है कि वर-वधू की आयु के 28वर्ष बीत जाने पर मांगलिक दोष नहीं लगता। साथ ही मंगल के अशुभ फल समाप्त होकर मात्र शुभ फल प्रदान करता है। लेकिन उम्र के 28वर्ष बीतने के बाद भी मंगल अपनी महादशा, अन्तरदशा, प्रत्यंतर या गोचर में कभी भी अपना अशुभ फल प्रगट कर सकता है। अत: मांगलिक दोष के साथ ही इन बातों का भी अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
''नीचशत्रुगृहं प्राप्ता: शत्रु निम्नांश सूर्यगा:।
विवर्णा: पापसंबंधा दशां कुर्मुरशोभनाम।। (सारावली)
उपरोक्त तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि मांगलिक दोष का निर्णय वर-वधू की कुण्डलियों का सावधानीपूर्वक अनुशीलन करके करना चाहिए तथा जल्दबाजी से किसी परिणाम पर नहीं पहुँचना चाहिए।
मांगलिक दोष की निवृत्ति हेतु मंगल तथा अन्य ग्रहों की शांति एवं सफल वैवाहिक जीवन हेतु लडको का अर्क विवाह एवं कन्याओं हेतु कुंभ विवाह कराना चाहिए।

Pt.P.S Tripathi
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