Monday, 13 April 2015

बस्तर के तीर्थ



भौगोलिक दृष्टि से केरल जैसे राज्य से बड़े बस्तर नामक इस भू-भाग को प्रकृति ने छप्पर फाड़कर प्राकृतिक सौंदर्य दिया है। छत्तीसगढ़ का भू-भाग, पुरातात्विक, सांस्कृतिक और धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है फिर चाहे वह कांकेर घाटी हो, विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट का जलप्रपात हो या फिर कुटुंबसर की गुफाएं ही क्यों न हों। प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर सदाबहार लहलहाते सुरम्य वन, जनजातियों का नृत्य-संगीत और घोटुल जैसी परंपरा यहाँ का मुख्य आकर्षण हैं। त्रेतायुग में राम के वनगमन का रास्ता भी इसी भू-भाग से गुजरता है। जिस दंडक वन से राम गुजरे थे उसे अब दंडकारण्य कहा जाता है। वैसे भी खूबसूरती प्राय दुर्गम स्थानों पर ही अपने सर्वाधिक नैसर्गिक रूप में पाई जाती है। कारण बड़ा साफ है, ये दुर्गम स्थान प्रकृति के आगोश में होते हैं। प्रकृति के रचयिता रंगों को मनमाफिक रंग से भर खूबसूरती की मिसाल गढ़ते हैं। यह खूबसूरती बस्तर की घाटियों में देखी जा सकती है जो हिमाचल की भांति हैं।
रायपुर से तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक मनोरम स्थल है- जगदलपुर। छत्तीसगढ़ प्रान्त के बस्तर जिले का एक प्रमुख शहर है। यह इस जिले का मुख्यालय भी है। जगदलपुर चारो ओर से पहाडिय़ों एवं घने जंगलो से घिरा है। काकतिया राजा जिसे पाण्डुओं का वंशज कहा जाता है ने जगदलपुर को अपनी अंतिम राजधानी बनाया एवं इसे विकसित किया। जगदलपुर का नाम पूर्व में जगतुगुड़ा था। जगदलपुर को चौराहों का शहर भी कहा जाता है। यह बहुत ही खूबसूरत तरीके से बसाया गया है। यहॉ विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। यहॉ जगन्नाथ पीठ का भव्य मंदिर एवं देवी दंतेश्वरी का मंदिर है। जगदलपुर का दशहरा बहुत मशहूर है, जिसकी भव्यता देखते ही बनती है, इसे देखने के लिए देश एव विदेश से अनेक पर्यटन आते है। वैसे तो बस्तर में जलप्रपात की लंबी श्रृंखला है। इस प्रपात की ठीक दूसरी दिशा में जगदलपुर जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात में सफेद पानी की धार पर्यटकों को आकर्षित करती है। जगदलपुर से 30 किलोमीटर दूर प्राकृतिक गुफाओं की काफी लंबी श्रृंखला है। विश्वप्रसिद्ध कोटमसर गुफा के भीतर जलपुंड तथा जलप्रवाह से बनी पत्थर की संरचनाएँ रहस्य और रोमांच से भर देती हैं। पूरा बस्तर घाटियों से घिरा हुआ है। उत्तर में केशकाल तथा चारामा घाटी तो दक्षिण में दरबा की झीरम घटी, पूर्व में अरकू तथा पश्चिम में बंजारा घाटी पर्यटकों को अलग-अलग रंग-रूप की प्राकृतिक सुरम्यता से आकर्षित करती हैं। दंतेवाड़ा के घनघोर जंगल एवं पहाड़ों, नदियों, नालों को पार करने के बाद दसवीं शताब्दी के सूर्य मंदिर एवं गणेशजी की प्रतिमा लगभग चार हजार फीट की उंचाई पर दुर्गंम पहाड़ों के बीच स्थित है। दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से महज सत्रह किलोमीटर दूर फरसपाल ग्राम है जहां से बैलाडीला पर्वत श्रृंखलाएं शुरू होती है। इन श्रृंखलाओं से करीब दस किलोमीटर की ऊंची खड़ी पहाड़ी चोटी पर ढोल आकार की दो पर्वत शिखर हैं जिसे स्थानीय आदिवासी ढोलकाल पर्वत के नाम से जानते हैं। इन शिखरों की ऊंचाई लगभग चार हजार फीट है, जिससे पहले शिखर पर गणेशजी की दशवीं शताब्दी की प्रतिमा एवं दूसरे शिखर पर सूर्य मंदिर स्थापित है। गणेश भगवान की यह प्रतिमा पूरे छत्तीसगढ़ में सबसे ऊंची चोटी पर स्थित प्रतिमा है जिसे एक हजार वर्ष से भी पूर्व साधु संतों एवं कर्मकांडियों द्वारा स्थापित किया गया था। ये दोनों अब पूरी तरह से उपेक्षित है। पुरातत्व विभाग के अनुसार यह एक नई खोज है। स्थानीय आदिवासियों के अनुसार इस पर्वत शिखर पर ही सूर्य की प्रथम किरणें पडऩे के कारण यहां पर सूर्य मंदिर की स्थापना की गई है। छत्तीसगढ़ के सबसे ऊंचे पर्वत चोटी कही जाने वाली ढोलकाल पर्वत चोटी पर हजारों वर्ष पुरानी गणेशप्रतिमा की ऊंचाई लगभग साढ़े तीन फीट है, जोकि काले पत्थरों से निर्मित है। बताया जाता है कि वर्ष 1994 के बाद यहां पूजा अर्चना नहीं हुई है। पौराणिक मान्यतानुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे थे वहां-वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई है। शंखिनी एवं डंकनी नदी के किनारे सती के दांत गिरे, इसलिए यहां दंतेश्वरी पीठ की स्थापना हुई और माता के नाम पर गाँव का नाम दंतेवाड़ा पड़ा। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।
माँ दंतेश्वरी: माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान हैं, जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ है।
गरुड़ स्तंभ: बत्तीस काष्ठ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। दंतेश्वरी माई में मनौती वाली पशु बलि भी दी जाती है। देवी दंतेश्वरी का मंदिर अपनी प्रसिद्व के लिए जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ दर्शन करने से मुरादें पूरी हो जाती है और निवासियों का विश्वास अटल है।
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान: बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से दक्षिण में 35 किलोमीटर की दूरी पर कांकेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। यह उद्यान अपने जलप्रपातों, गुफाओं एवं जैव विविधता के लिये प्रसिद्ध है। कांकेर घाटी के मुख्य पर्यटन स्थल निम्नानुसार हैं -
बारसूर: बस्तर के सदर मुकाम जगदलपुर से 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बारसूर तक पहुँचने के लिये गीदम से होकर जाना पड़ता है। बारसूर गीदम से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ गणेश जी की विशाल मूर्ति है। बारसूर नाग राजाओं एवं काकतीय शासकों की राजधानी रहा है। बारसूर ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी के मंदिरो के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मंदिरों में मामा-भांजा मंदिर मूलत: शिव-मंदिर है। मामा-भांजा मंदिर दो गर्भगृह युक्त मंदिर है। इनके मंडप आपस में जुड़े हुये हैं। यहाँ के भग्न मंदिरों में मैथुनरत प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है। चन्द्रादित्य मंदिर का निर्माण नाग राजा चन्द्रादित्य ने करवाया था एवं उन्हीं के नाम पर इस मंदिर को जाना जाता है। बत्तीस स्तंभों पर खड़े बत्तीसा मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थर से हुआ है। इसका निर्माण गुण्डमहादेवी ने सोमेश्वर देव के शासन काल में किया। इस मंदिर में शिव एवं नंदी की सुन्दर प्रतिमायें हैं। एक हजार साल पुराने इस मंदिर को बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से पत्थरों को व्यवस्थित कर बनाया गया है। ये मंदिर आरकियोलाजी विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक हैं। गणेश भगवान की दो विशाल बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमायें आश्चर्यचकित कर देती है। मामा-भांजा मंदिर शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं दर्शनीय है।
तीरथगढ़ प्रपात: जगदलपुर से 35 किलामीटर की दूरी पर स्थित यह मनमोहक जलप्रपात पर्यटकों का मन मोह लेता है। पर्यटक इसकी मोहक छटा में इतने खो जाते हैं कि यहाँ से वापिस जाने का मन ही नहीं करता। मुनगाबहार नदी पर स्थित यह जलप्रपात चन्द्राकार रूप से बनी पहाड़ी से 300 फिट नीचे सीढ़ी नुमा प्राकृतिक संरचनाओं पर गिरता है, पानी के गिरने से बना दूधिया झाग एवं पानी की बूंदों का प्राकृतिक फव्वारा पर्यटकों को मन्द-मन्द भिगो देता है। करोड़ो वर्ष पहले किसी भूकंप से बने चन्द्र-भ्रंस से नदी के डाउन साइड की चट्टाने नीचे धसक गई एवं इससे बनी सीढ़ी नुमा घाटी ने इस मनोरम जलप्रपात का सृजन किया होगा।
कंगेड़ घाटी राष्ट्रीय पार्क: प्रकृति-प्रेमियों के लिए कंगेड़ घाटी राष्ट्रीय पार्क किसी स्वर्ग से कम नहीं है। साल और टीक के वृक्ष यहां पर मुख्य रूप से पाए जाते हैं। यह पार्क लगभग 34 कि.मी. लंबा और लगभग 6कि.मी. चौड़ा है। पर्यटक इस पार्क में वन्य जीवन के शानदार दृश्य देख सकते हैं। पार्क में पर्यटक चीता, जंगली सुअर, गीदड़, लंगूर, उडऩे वाली गिलहरी, सांभर, खरगोश, मगरमच्छ और सियार आदि देख सकते हैं।
पार्क का नाम कंगेड़ नदी के नाम पर रखा गया है, जो इसके मध्य से होकर बहती है। पार्क में वन्य जीवन के अलावा कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों की यात्रा की जा सकती है। इनमें कोटामसर गुफाएं, कैलाश गुफाएं, चुना पत्थर की गुफाएं और तीर्थगढ़ के झरने प्रमुख हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। पर्यटकों के ठहरने के लिए यहां पर दो पिकनिक रिसोर्ट भी बनाए गए हैं। इनके नाम कंगेड़ धारा और भमसा धारा है। भमसा धारा क्रोकोडाईल पार्क भी है।
इन्द्रावती राष्ट्रीय पार्क: यह राष्ट्रीय पार्क नारायणपुर तहसील में जगदलपुर से 200 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। जंगली भैंस और चीते के लिए यह पार्क प्रसिद्ध है। नारायणपुर से 40 कि.मी. की दूरी पर मनोरम कुरशल घाटी स्थित है।
तामड़ाघुमड़ जलप्रपात: चित्रकोट जलप्रपात से 10 किलोमीटर की दूरी पर तामड़ाघुमड़ जलप्रपात है। तामड़ाघुमड़ जलप्रपात में एक छोटी सरिता सीधे लगभग 100 फिट की ऊँचाई से निचले भाग में गिरकर एक मनोरम जलप्रपात का निर्माण करती है। प्रपात को नीचे से उतरकर देखना अच्छा लगता है किंतु उतरने का मार्ग दुर्गम है।
पहुॅच मार्ग और विश्रामगृह: रायपुर से तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मनोरम स्थल तक पहुँचने के लिए लक्जरी बसें उपलब्ध हैं। यहाँ पर देश के सभी प्रमुख हवाई मार्गों से हवाई सेवा उपलब्ध हैं।
सड़क मार्ग: रायपुर से बस्तर 300 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 49 से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा पर्यटक आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम से भी बस्तर तक पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग: विशाखापट्टनम से किनाडुल तक रेलवे लाईन बिछाई गई है। इस रेलवे लाईन पर जगदलपुर स्टेशन का निर्माण किया गया है। यहां से पर्यटक आसानी से बस्तर तक पहुंच सकते हैं। विशाखापट्टनम से प्रात: 7:10 पर प्रतिदिन जगदलपुर के लिए रेल छुटती है।
जगदलपुर में ठहरने के लिए विश्राम गृह, होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं। जिनमें से प्रमुख हैं- आकांक्षा होटल, पूनम लॉज, आनंद लॉज, अतिथि होटल, आकाश होटल इत्यादि।
वैसे तो पिछड़ेपन का ही परिणाम है कि यहाँ नक्सलवाद अपने चरम पर है लेकिन प्रकृति की गोद में बसे दर्शनीय स्थल नक्सल गतिविधियों से मुक्त है। दुनिया के लोगों की नजर में भले ही सबसे पिछड़ा इलाका हो लेकिन प्रकृति, पर्यटन व सौंदर्य प्रेमियों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है।

Pt.P.S Tripathi
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भाग्योदय में बाधा


कठिन परिश्रम के बाद भी किस्मत साथ नहीं दे, और धक्के खाने पड़े तो व्यक्ति निराश हो जाता है। कहावत है कि जैसा करोगे वैसा ही भरोगे। लगातार मेहनत और व्यापार करने पर लाभ की जगह घटा हो रहा हो। ईमानदारी से और कठिन परिश्रम करने के बावजूद भी नौकरी नहीं मिलती हो। योग्यता व पात्रता के आधार पर अच्छा वेतन नहीं मिलता है। आपके जूनियर तरक्की करते जाय आप इसी पद पर वर्षों से रहे। आप अपने आपको कोस रहे हैं। जी हां यदि मेहनत, श्रम और ईमानदारी से काम करने और योग्यता के आधार पर यश, धन, नौकरी, व्यापार, पढ़ाई, विवाह, मकान, दुकान, रोग और सेहत में सुख नहीं मिले लगातार निरंतर हानि, अपयश, रोग, दरिद्रता कम तनख्वाह किराये का मकान में रहना आदि दुख पीछा नहीं छोड़ता है, तो समझ लेना चाहिए, कि भाग्य साथ नहीं दे रहा है।
प्रश्न उठता है कि आखिर आप के साथ ही क्यों होता है?
1 भाग्य की बाधा के लिये जन्मपत्री में नवम भाव व नवमेश का गहराई से अध्ययन करना चाहिए।
2 नवम से नवम अर्थात पंचम भाव व पंचमेश की स्थिति का भी निरीक्षण ध्यानपूर्वक करना चाहिए।
3 भाग्य-यश के दाता सूर्य की स्थिति, पाप ग्रहों की दृष्टि नीच ग्रहों की दृष्टि नीच ग्रहों की दृष्टि के प्रभाव में तो नहीं है।
4 धन, वैभव, नौकरी, पति, पुत्र व समृद्धि का दायक गुरु कहीं नीच का होकर पाप प्रभाव में तो नहीं है।
5 लग्नेश व लग्न पर कहीं पाप व नीच ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
भाग्य में बाधा डालने वाले कुछ दोष:
1. लग्नेश यदि नीच राशि में, छठे, आठवे, 12 भाव में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
2. राहू यदि लग्न में नीच का शनि जन्मपत्री में किसी भी स्थान में हो, तथा मंगल चतुर्थ स्थान में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
3. लग्नेश सूर्य चंद्र व राहू के साथ 12वें भाव में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
4. लग्नेश यदि तुला राशि के सूर्य तथा शनि के साथ छठे, 8वें में हो तो जातक का भाग्य साथ नहीं देता।
5. पंचम भाव का स्वामी यदि नीच का हो या वक्री हो तथा छठे, आठवें, 12वें भाव में स्थित हो तो भाग्य के धोखे सहने पड़ते हैं।
6.पंचम भाव का स्वामी तथा नवमेश यदि नीच के होकर छठे भाव में हो तो शत्रुओं द्वारा बाधा आती है।
7. पंचम भाव पर राहु, केतु तथा सूर्य का प्रभाव हो लग्नेश छठे भाव में हो पितृदोष के कारण भाग्य में बाधा आती है।
8. मकर राशि का गुरु पंचम भाव में यदि हो तो भाग्य के धक्के सहने पड़ते हैं।
9. पंचमेश यदि 12वें भाव में मीन राशि के बुध के साथ हो भाग्य में बाधा आती है।
10. पंचम या नवम भाव में सूर्य उच्च के शनि के साथ हो तो भाग्य में बाधा देखी जाती है।
11. नवम भाव में यदि राहु के साथ नवमेश हो तो भाग्य बन जाता है।
12. नवम भाव में सूर्य के साथ शुक्र यदि शनि द्वारा देखा जाता हो। तो भाग्य साथ नहीं देता।
13. नवमेश यदि 12वें या 8वें भाव में पाप ग्रह द्वारा देखा जाता हो, तो भाग्य साथ नही देता।
14. नवम भाव का स्वामी 8वें भाव में राहु के साथ स्थित हो तो पग-पग पर ठोकरे खानी पड़ती है।
15. नवमेश यदि द्वितीय भाव में राहु-केतु के साथ, शनि द्वारा देखा जाता है, तो व्यक्ति का भाग्य बंध जाता है।
16. नवमेश यदि द्वादश भाव में षष्ठेश के साथ स्थित होकर पाप ग्रहों द्वारा देखा जाता हो, तो बीमारी कर्जा व रोग के कारण कष्ट उठाने पड़ते है।
17. नीच का गुरु नवमेश के साथ अष्टम भाव में राहु, केतु द्वारा दृष्ट हो तो गुरु छठे, 8वें, 12वें राहु शनि द्वारा देखा जाता हो तो भाग्य साथ नहीं देता।
18. नीचे का गुरु छठे, 8वें, और 12वें राहु शनि द्वारा देखा जाता हो तो भाग्य साथ नहीं देता।
भाग्य बाधा निवारण के उपाय:
सूर्य गुरु लग्नेश व भाग्येश के शुभ उपाय करने से भाग्य संबंधी बाधाएं दूर हो जाती है।
1. गायत्री मंत्र का जाप करके भगवान सूर्य को जल दें।
2. प्रात:काल उठकर माता-पिता के चरण छूकर आशीर्वाद लें।
3. अपने ज्ञान, सामर्थ और पद प्रतिष्ठा का कभी भी अहंकार न करें।
4. किसी भी निर्बल व असहाय व्यक्ति की बददुआ न ले।
5. वद्धाश्रम और कमजोर वर्ग की यदाशक्ति तन, मन और धन से मदद करें।
6. सप्ताह में एक दिन मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा जाकर ईश्वर से शुभ मंगल की प्रार्थना करें। मंदिर निर्माण में लोहा, सीमेंट, सरिया इत्यादि का दान देकर मंदिर निर्माण में मदद करें।
7. पांच सोमवार रुद्र अभिषेक करने से भाग्य संबंधी अवरोध दूर होते है।
8. 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय इस मंत्र का जाप 108 बार रोज करने से बंधा हुआ भाग्य खुलने लगता है।
9. भाग्यस्थ अथवा अष्टमस्थ राहु अथवा इन दोनों स्थानों पर राहु की दृष्टि भाग्योदय में बाधा का बडा कारण होती है। राहु की दशा, अंतदर्शा अथवा प्रत्यंतर दशा में अकसर भाग्य बाधित होता है। अत: कुंडली में इस प्रकार के योग बन रहे हों तो उक्त राहु की शांति करानी चाहिए। इसके लिए अज्ञात पितर दोष निवृत्ति हेतु नारायणबली, नागबली एवं कालसर्प शांति कराने से जीवन में भाग्योदय का रास्ता खुलता है।

यज्ञ से देवत्व की प्राप्ति


यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंत:करण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं। नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं। पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं, वरन् दूसरों के लिए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है। इस प्रकार जिधर भी दृष्टि डाली जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलम्बित है। यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी। ऋषियों ने कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्रकी धुरी है। धुरी टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है।
मन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं। जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है। दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयत्न न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है। मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंत:करण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है। यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं। फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है। यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्व, ऋषि तत्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है। ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए यज्ञ कर्म करना चाहिए।
विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है। शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है।
अग्निहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं। वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानों के धुआँ आदि से गन्दा करते हैं। गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है। वायु को जितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए। यज्ञों से वायु शुद्ध होती है। इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर खाद बनकर मिल जाता है। वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं। यज्ञाग्नि के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरह मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है।
अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ, अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं। दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट सन्तानें प्राप्त की थीं, अग्निपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं। विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल में असुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था। लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करना ही था। जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता। आज पिछले दो महायुद्धों के कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है। उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है- जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। जिस प्रकार बाल फ्रेम में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनती सिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति यज्ञ भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए।
हम यज्ञ आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें। हमारा जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो। गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षण मिलता है। अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है, उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-
1- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
2- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह खुद में आत्मसात कर लेती है। आप भी पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूरा करें।
3- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पडऩे पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।
4- अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कत्र्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए।
5- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मु_ी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं। प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की
एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है।
धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है। उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्म आयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है। लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं। संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी उसी की प्रधानता है।

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नामकरण संस्कार


शिशु जन्म के दसवें या बारहवें दिन बच्चे का नाम रखा जाता है, इसे नामकरण संस्कार कहते हैं। इस संस्कार के समय माता, बालक को शुद्ध वस्र से ढंक कर एवं उसके सिर को जल से गीला कर पिता की गोद में देती है। इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियाँ दी जाती हैं। तत्पश्चात् पिता शिशु के दाहिने कान की ओर झुकता हुआ उसके नाम का उच्चारण करता है।
ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य: हिंदू संस्कारों का शुभारंभ नामकरण संस्कार से ही होता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसका सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में पाया जाता है, इनमें इसके संबंध में जो विवरण पाया जाता है, उसके अनुसार शिशु का पिता जननाशौच काल के व्यतीत होने पर अगले दिन प्रात: काल स्नानादि करके तीन ब्राह्मणों को भोजन कराकर वर्ण तथा लिंग के अनुसार शिशु के नाम का चयन कर उसे रख लेता था।
प्रसवाशौच: नामकरण संस्कार के संदर्भ में गृह्यसूत्रों में प्राप्त संक्षिप्त विवरणों से व्यक्त है कि इससे संबद्ध अनेक आनुष्ठानिक तत्वों का विकास का मात्र उद्देश्य था, प्रसवजन्य अशौच की शुद्धि तथा शिशु को लोकव्यवहार के लिए एक व्यक्तिगत नाम देना। इससे संबद्ध वैदिक मंत्रों का प्रयोग भी सर्वप्रथम गोभिल में ही पाया जाता है। इसकी समयावधि के विषय में मनु दसवें के अतिरिक्त बारहवें अथवा अन्य किसी भी शुभ दिन में इसे किये जाने का विधान करते हैं, पर साथ- ही यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकतर गृह्यसूत्रों में ग्यारहवें दिन को ही इसके लिए अधिक उपयुक्त माना गया है।
नामचयन: नवजात शिशु के नामचयन के संदर्भ में वैदिक तथा वैदिकोत्तर साहित्य में अनेक प्रकार का वैविध्य पाया जाता है, पर भाष्य करते हुए सायण ने वैदिक काल में चार प्रकार के नामों के प्रचलन का उल्लेख किया है, जो कि इस प्रकार हुआ करते थे -
(1) शिशु के जन्म के नक्षत्र पर आधारित- नक्षत्र नाम, (2) जातकर्म के समय माता पिता के द्वारा रखा गया- गुप्त नाम, (3) नामकरण संस्कार के समय रखा गया- व्यावहारिक नाम, (4) यज्ञकर्म विशेष के संपादन के आधार पर रखा जाने वाला - याज्ञिक नाम।
किसी बालक या बालिका का नामकरण बच्चे के जन्म नक्षत्र एवं उसके चरनानुसार रखने की परिपाटी भारत-वर्ष में रही है । नक्षत्रों के चरण भी हिंदी वर्णमाला के अनुसार ही अभिव्यक्त किये जाते हैं , अर्थात नक्षत्र के जिस चरण पर बच्चे का जन्म होगा, उसी के अनुसार उसका नाम रखा जाता है ।
नामकरण संस्कार की आनुष्ठानिक प्रक्रिया: जन्म नक्षत्र के अनुसार शिशु का नाम का चयन कर, उसे एक कांसे की थाली या काष्ट पट्टिका पर केसर युक्त चंदन से अथवा रोली से लिखकर उसे एक नूतन वस्र खण्ड से आच्छादित कर देते हैं। कर्मकाण्ड की आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के उपरांत पुरोहित एक श्वेत वस्र खण्ड पर कुंकुम या रोली से शिशु के जन्मनक्षत्रानुरुप नाम के साथ उसके कुलदेवता, जन्ममास से संबद्ध दो अन्य नाम तथा साथ में माता- पिता द्वारा सुझाया गया स्वचयित व्यावहारिक नाम लिखता है। उसे एक शंख में आवेष्टित कर शिशु के कान के पास ले जाकर पिता, माता तथा पारिवारिक वृद्ध जनों के द्वारा इन नामों को अमुक शर्मा / वर्मासि दीर्घायुर्भव कह कर बारी- बारी से उच्चारित किया जाता है।
कई पद्धतियों में जातकर्म के स्थान पर नामकर्म के समय पर शिशु की वाणी में माधुर्य का आधार किये जाने के उद्देश्य से मधुप्राशन कराया जाता है। श्वेत को पवित्रता एवं निर्विकारता का प्रतीक माने जाने के कारण इसके लिए चाँदी के चम्मच का प्रयोग किया जाता है। कतिपय संस्कार पद्धतियों में नामकर्म संबंधी सारी क्रियाओं की समाप्ति पर आचार्य द्वारा शिशु को गोदी में लेकर उसके कान में निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करने तथा अन्य में आचार्य तथा अन्य सभी अभिभावकों के द्वारा उसे हे बाल ! त्वमायुष्मान, वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान् भूय: कह कर आशीर्वाद देने का भी विधान पाया जाता है। इस प्रकार नामकरण संस्कार के माध्यम से शिशु को समाज से और समाज को शिशु से परिचय कराया जाता है इसलिए शिशु को एक संबोधन शब्द दिया जाता है। तात्पर्य है कि हम शिशु का जो भी नाम रखें उस नाम का गुण, कर्म, विशेषता बताकर उसी अनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा देकर, हम बच्चे को जैसा चाहते हैं, उसी अनुरूप बना सकते हैं, ढाल सकते हैं। नाम की विशेषता को उसके जीवन का साँचा बना सकते हैं, और उस साँचे से एक महामानव, देवमानव बना सकते हैं। यथा नाम तथा गुण होता है। इसलिए शिशु को अच्छा नाम देना चाहिए ताकि जीवन भर उसे भाव ऊर्जा मिलती रहे।

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भटकाव ज्योतिष कारण व निवारण


आज के आधुनिक युग में जहाँ सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाने का प्रयास हर जातक करता है, वहीं पर उन सुविधाओं के उपयोग से आज की युवा पीढ़ी भटकाव की दिशा में अग्रसर होती जा रही है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं की सुविधाएँ अपने बच्चों को उपयेाग हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएँ बच्चों को गलत दिशा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे भी ठीक कैरियर के समय अपनी दिशा से भटक कर अपने अध्ययन तथा लक्ष्य से भटकर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। कई बार माता-पिता इन सभी बातों से पूर्णत: अनजान रहते हैं और कई बार जानते हुए भी कोई हल निकालने में असमर्थ होते हैं। सभी इन समस्याओं का दोषारोपण आधुनिक सुविधाओं को देते हुए मूक दर्शक बने रहना चाहते हैं किंतु सच्चाई यह है कि यदि आप थोड़े से ज्योतिष और समय रहते उनके प्रतिकूल असर पर काबू पाने का प्रयास कर उपयुक्त समाधान तलाश लें तो भटकाव से पूर्व ही अपने संतान को सही मार्गदिशा देकर उन्हें उचित निर्णय तथा कैरियर हेतु लक्ष्य मेंं बनाये रखने में सक्षम हो सकते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्टानिक्स गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बाते बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवश्यक है। किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दशा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शुक्र, राहु, सप्तमेश, पंचमेश की दशा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो उपयुक्त उपाय तथा थोड़े से अनुशासन से अपने संतान के भटकाव पर काबू पाते हुए उसके लक्ष्य के प्रति एकाग्रता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
बढ़ते बच्चों की चिंता का एक कारण उनके गलत संगत में पड़कर कैरियर बर्बाद करने के साथ व्यसन या गलत आदतों की ओर अग्रसर होना भी है। दिखावें या शौक से शुरू हुई यह आदत व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसका ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेश अगर छठवे, आठवें या द्वादश स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसका अकेलापन उसे दोस्ती की ओर अग्रेषित करता है। कई बार यह दोस्ती गलत संगत में पड़कर गलत आदतों का शिकार बनता है उसके अलावा लक्ष्य हेतु प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेशन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिप्रेशन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादश भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दशाओं के अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मन:स्थिति को और कमजोर करता है। अत: यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अत: व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।

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जातकर्म संस्कार


हिन्दू धर्म संस्कारों में जातकर्म संस्कार चतुर्थ संस्कार है। गर्भस्थ बालक के जन्म होने पर यह संस्कार किया जाता है - ''जाते जातक्रिया भवेत्। इसमें सोने की शलाका से विषम मात्रा में घृत और मधु घिस करके बालक को चटाया जाता है। इससे माता के गर्भ में जो रस पीने का दोष है, वह दूर हो जाता है और बालक की आयु तथा मेधाशक्ति को बढ़ाने वाली औषधि बन जाती है। सुवर्ण वातदोष को दूर करता है, मूत्र को भी स्वच्छ बना देता है और रक्त के ऊर्ध्वगामी दोष को भी दूर कर देता है। मधु लार का संचार करता है और रक्त का शोधक होने के साथ-साथ बलपुष्टिकारक भी है।
* उत्पन्न हुए बालक के जो कर्म किए जाते हैं, उनको जातकर्म कहा जाता है। इन कर्मों में बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ करना, मधु और घी आदि चटाया जाता है।, स्तनपान तथा आयुष्यकरण है। इतने कर्म सूतिका घर में बच्चे के करने होते हैं। इसलिये इनको संस्कार का रुप दिया गया है।
* शिशु के उत्पन्न हो जाने पर अपने कुल देवता और वृद्ध पुरुषों को नमस्कार कर पुत्र का मुख देखकर नदी-तालाब आदि में शीतल जल से उत्तराभिमुख हो, स्नान करें। यदि मूल-ज्येष्ठा आदि अनिष्ट काल में शिशु उत्पन्न हुआ हो तो मुख देखे बिना स्नान कर लें।
स्नान- इसके लिए बच्चों के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। साबुन भी बरता जाता है। परंतु साबुन से उबटन सही है। उबटन में चने का बारीक मैदा, (बेसन) नेल, दही मिलाकर मलते हैं। चने की अपेक्षा मसूर या मूंग का बारीक आटा उत्तम है।

मुख को साफ  करना- बच्चा जब गर्भ में होता है, तब न तो श्वास लेता है, और न मुख ही खोलता है। ये दोनों अवश्य बंद रहे इसलिये प्रकृति इनमें कफ भर देती है। बंद रहने के कारण से बच्चा गर्भोदक को अंदर पी नहीं सकता। परंतु उत्पन्न होने पर इन मार्गों को कफ से खाली करके खोलना जरुरी होता है। इसलिए इस कफ को साधारणतया अंगुलि से साफ  कर दें। पंरतु अगुंली से तो कफ मुख के अंदर का या जहाँ तक अँगुली जाती है, वहां तक का बाहर आ सकता है। आमाशय या फेफड़ों में भरा कफ बाहर नहीं आता। उसके लिए तो बच्चे को वमन ही कराना चाहिए अथवा उसे ऐसी वस्तु देनी चाहिए जिससे कफ निकले। इसके लिए आयुर्वेद में सैंधव (नमक) उत्तम माना है। इसे अकेला ना देकर घी में मिलाकर देते हैं।

सिर पर तेल या घी लगाना- तालु को दृढ और मजबूत बनाने के लिए बच्चे के तालु पर घी या तेल लगाया जाता है। ताकि बच्चे का पोषण हो। धृत, बुद्धि, स्मृति, प्रज्ञा, अग्नि, आयु, वीर्य, आखों की रोशनी, बालक वृद्ध के लिए सुकुमारता और स्वर की शक्ति को बढ़ाता है। यह नाना योजनाओं से हजारों काम करता है। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पानी नहीं लगता, वैसे ही स्वर्ण खाने वाले के शरीर को विष प्रभावित नहीं करता। इसलिए सीमंतोन्नयन एवं जातकर्म संस्कार विधिवत अवश्य ही कराना चाहिए।

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अंधकार के प्रति आकर्षण


असल में जो हमें पसंद नहीं है, मन होता है कि वह शैतान ने किया होगा। जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा। ऐसा हमने सोच रखा है कि हम केंद्र पर हैं जीवन के, और जो हमारे पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है, भगवान हमारी सेवा कर रहा है। जो पसंद नहीं पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है शैतान हमसे दुश्मनी कर रहा है। यह मनुष्य का अहंकार है, जिसने शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में लगा रखा है।
भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसे हम शैतान कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। और अगर हम बुरे में भी गहरे देख पाएं, तो फौरन हम पाएंगे कि बुरे में भला छिपा होता है। दुख में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि सुख छिपा होता है। अभिशाप में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि वरदान छिपा होता है। असल में बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शैतान के खिलाफ जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा। मैं अज्ञात उसे कह रहा हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है। उस अस्तित्व के आधार से ही रावण भी निकलता है, उस अस्तित्व के आधार से ही राम भी निकलते हैं। उस अस्तित्व से अंधकार भी निकलता है, उस अस्तित्व से प्रकाश भी निकलता है।
हमें अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है, अंधकार शैतान पैदा करता होगा। हमें रोशनी अच्छी लगती है, तो मन होता है कि भगवान पैदा करता होगा। लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, रोशनी में कुछ भी भला नहीं है। और जो अस्तित्व को प्रेम करता है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पाएगा और प्रकाश में भी परमात्मा को पाएगा।
सच तो यह है कि अंधकार को भय के कारण हम कभी उसके सौंदर्य को जान ही नहीं पाते, उसके रस को, उसके रहस्य को हम कभी जान ही नहीं पाते। हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है। कंदराओं से आ रहे हैं हम, जंगली कंदराओं से होकर गुजरे हैं हम। अंधेरा बड़ा खतरनाक था। जंगली जानवर हमला कर देता, रात डराती थी। इसलिए अग्नि जब पहली दफा प्रकट हो सकी, तो हमने उसे देवता बनाया। क्योंकि रात निश्चिंत हो गई, आग जलाकर हम निर्भय हुए। अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है। रोशनी हमारे हृदय में अभय से जुड़ गई है।
लेकिन अंधेरे का अपना रहस्य है, रोशनी का अपना रहस्य है। और इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटित होता है, वह अंधेरे और रोशनी दोनों के सहयोग से घटित होता है। एक बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, फूल आता है रोशनी में। बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, जमीन में जड़ें फैलती हैं अंधेरे में, जमीन में। फूल खिलते हैं आकाश में, रोशनी में। एक बीज को रोशनी में रख दें, फिर फूल कभी न आएंगे। एक फूल को अंधेरे में गड़ा दें, फिर बीज कभी पैदा न होंगे। एक बच्चा पैदा होता है मां के पेट के गहन अंधकार में, जहां रोशनी की एक किरण नहीं पहुंचती। फिर जब बड़ा होता है, तो आता है प्रकाश में। अंधेरा और प्रकाश एक ही जीवन-शक्ति के लिए आधार हैं। जीवन में विभाजन, विरोध, पोलेरिटी मनुष्य की है। नहीं, कोई शैतान नहीं है। और अगर शैतान हमें दिखाई पड़ता है, तो कहीं न कहीं हमारी बुनियादी भूल है। धार्मिक व्यक्ति शैतान को देखने में असमर्थ है। परमात्मा ही है। और अचेतन, जहां से वैज्ञानिक सत्य को पाता है या धार्मिक सत्य को पाता है, वह परमात्मा का द्वार है। धीरे-धीरे हम उसकी गहराई में उतरेंगे, तो खयाल में निश्चित आ सकता है।

Sunday, 12 April 2015

वैवाहिक जीवन मेंं हस्तरेखा का प्रभाव


किसी व्यक्ति का विवाह कब होगा, पत्नी कैसी मिलेगी, दाम्पत्य कैसा रहेगा, ये सारे तथ्य उसकी विवाह रेखा मेंं छिपे होते हैं। यह रेखा उसके जीवन मेंं अहम भूमिका निभाती है। इसे प्रणय रेखा व स्नेह रेखा भी कहते हैं। समाज मेंं एक भ्रांति है कि जितनी संख्या मेंं यह रेखा होगी, जातक के उतने ही विवाह होंगे। ऐसे अनेकानेक लोग हैं, जिनकी हथेलीे मेंं एक से अधिक विवाह रेखाएं हैं, किंतु उनका विवाह या तो एक ही बार हुआ, या हुआ ही नहीं। वहीं ऐसे भी अनेक लोग हैं, जिनके हाथ मेंं विवाह रेखा नहीं है, लेकिन उनका विवाह हुआ है और दाम्पत्य जीवन सुखमय रहा है। अत: उक्त मान्यता केवल भ्रम है, भ्रम के सिवा कुछ नहीं। कौन रेखा किस स्थिति मेंं जातक के विवाह पक्ष को किस तरह प्रभावित करेगी इसका विश्लेषण यहां प्रस्तुत है। जिस जातक की प्रणय अर्थात विवाह रेखाएं एक से अधिक हों उसका अपनी पत्नी के प्रति प्रेम गहरा होता है। यदि यह रेखा प्रारंभ मेंं गहरी और आगे चलकर पतली हो तो ऐसे जातक का प्रेम धीरे-धीरे उदासीनता मेंं बदल जाता है इसके विपरीत यदि रेखा पतली से गहरी हो तो प्रेम बढ़ता ही जाता है। इस रेखा पर द्वीप हो तो जातक विवाह करने मेंं सहमत नहीं होता और यदि क्रॉस हो तो विवाह अथवा प्रेम प्रसंग मेंं विघ्न की संभावना रहती है। यदि यह रेखा आगे चलकर दो शाखाओं मेंं बंटे तो जीवनसाथी से अलगाव तो हो सकता है, किंतु तलाक हो यह जरूरी नहीं। रेखा अनेक शाखाओं मेंं बंटे तो प्रेम का अंत समझना चाहिए। यदि किसी जातक की विवाह रेखा दो भागों मेंं बंटे और एक शाखा हृदय रेखा को छूए व्यक्ति तो विवाहेतर संबंध होने की संभावना रहती है। यदि किसी के शुक्र पर्वत पर द्वीप हो और उससे एक रेखा बुध पर्वत पर जाकर समाप्त होती हो तो इस स्थिति मेंं भी विवाहेतर संबंध की संभावना रहती है। यदि कोई रेखा विवाह रेखा से आकर मिले तो वैवाहिक जीवन कष्टमय हो सकता है। यदि विवाह रेखा पर कोई काला धब्बा हो, तो पत्नी का पर्याप्त सुख नहीं मिलता है। रेखाओं का विष्लेषण करते समय यह देखना भी जरूरी होता है कि जातक का हाथ किस पर्वत से प्रभावित है क्योंकि उसके जीवन पर उसके हाथों के विभिन्न पर्वत भी रेखाओं की तरह ही प्रभाव डालते हैं। जिस जातक का शनि पर्वत अधिक स्पष्ट हो उसमेंं विवाह करने की इच्छा प्रबल नहीं होती। यदि चंद्र पर्वत से कोई रेखा आकर विवाह रेखा से मिले तो ऐसा व्यक्ति भोगी और कामासक्त होता है। इस प्रकार रेखाओं के ऐसे बहुत से योग हैं जो किसी व्यक्ति के वैवाहिक जीवन को प्रभावित करते हैं। ये योग यदि अनुकूल हों तो दाम्पत्य सुखमय होता है, अन्यथा उसके कष्टमय होने की प्रबल संभावना रहती है। प्रतिकूल होने की स्थिति मेंं किसी हस्तरेखा विशेषज्ञ से परामर्श लेकर उसमेंं सुधार लाने का प्रयास किया जा सकता है।
हमारे हाथों की अलग-अलग रेखाएं जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे मेंं बताती हैं। विवाह रेखा से वैवाहिक जीवन के भविष्य के निम्नानुसार बातें पता चलती हैं -
1. यदि बुध क्षेत्र के आसपास विवाह रेखा के साथ-साथ दो-तीन रेखाएं चल रही हों तो व्यक्ति अपने जीवन मेंं पत्नी के अलावा और भी स्त्रियों से संबंध रखता है।
2. शुक्र पर्वत पर टेढ़ी रेखाओं की संख्या यदि ज्यादा हैं तो ऐसे व्यक्ति के जीवन मेंं किसी एक स्त्री या पुरुष का विशेष प्रभाव रहता है।
3. यदि प्रारम्भ मेंं विवाह रेखा एक, किन्तु बाद मेंं दो से अधिक रेखाओं मेंं विभक्त हो जाए तो ऐसी स्थिति मेंं व्यक्ति एक साथ कई रिश्तों मेंं रहता है।
4. किसी व्यक्ति के विवाह रेखा मेंं आकर या विवाह रेखा स्थल पर आकर कोई अन्य रेखा मिल रही हो तो प्रेमिका के कारण उसका गृहस्थ जीवन नष्ट होने की संभावना रहती है।
5. यदि प्रणय रेखा आरम्भ मेंं पतली और बाद मेंं गहरी होने का मतलब है कि किसी स्त्री अथवा पुरुष के प्रति आकर्षण एवं लगाव आरम्भ मेंं कम था, किन्तु बाद मेंं धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता गया है।
6. किसी की हथेली मेंं विवाह रेखा एवं कनिष्ठका अंगुली के मध्य से जितनी छोटी एवं स्पष्ट रेखाएं होंगी, उस स्त्री या पुरुष के विवाहोपरान्त अथवा पहले उतने ही प्रेम सम्बन्ध होते हैं।
7. विवाह रेखा आपके सुखी वैवाहिक जीवन के बारे मेंं भी बताती है। यदि आपकी विवाह रेखा स्पष्ट तथा ललिमा लिए हुए है तो आपका वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखमय होगा।
8. गुरू पर्वत पर यदि क्रॉस का निशान लगा हो तो यह शुभ विवाह का संकेत होता है। यदि यह क्रॉस का निशान जीवन रेखा के नज़दीक हो तो विवाह शीघ्र ही होता है।
हस्तरेखा द्वारा विवाह का समय निर्धारण: हस्त रेखा के आधार पर विवाह का संभावित समय कैसे निकाल सकते हैं। इस पद्धति द्वारा वैवाहिक जीवन के बारे मेंं भविष्य कथन के नियम व विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन करें। इस विषय पर भी चर्चा करें कि क्या वर-वधु का मिलान हस्त रेखा से संभव है? हस्तरेखा के आधार पर विवाह का संभावित समय देशकाल की परंपराओं के अनुसार जातक के विवाह की उम्र का अनुमान किया जाना चाहिये। सामान्य नियम यह है कि हृदय रेखा से कनिष्ठिका मूल तक के बीच की दूरी को पचास वर्ष की अवधि मानकर उसका विभाजन करके समय की गणना करनी चाहिये। इस संपूर्ण क्षेत्र को बीच से विभाजित करने पर पच्चीस वर्ष की आयु प्राप्त होती है। यदि इस क्षेत्र को चार बराबर भागों मेंं विभाजित करने के लिये इसके बीच मेंं तीन आड़ी रेखाएं खीच दी जायें तो हृदय रेखा के निकट की पहली रेखा वाले भाग से बचपन मेंं विवाह (लगभग 14 से 18वर्ष की अवस्था मेंं) होता है। दूसरी रेखा वाले भाग से युवावस्था मेंं विवाह (लगभग 21 से 28वर्ष की अवस्था मेंं) होता है। तीसरी रेखा वाले भाग से विवाह लगभग 28से 35 वर्ष की अवस्था मेंं होता है, जबकि चौथे भाग अर्थात् तीसरी रेखा व कनिष्ठिका मूल के बीच वाले भाग से प्रौढ़ावस्था मेंं अर्थात् 35 वर्ष की आयु के बाद विवाह समझना चाहिए। विवाह की उम्र का यथार्थ बोध और समय का अनुमान जीवन रेखा, भाग्य रेखा, सूर्य रेखा व उनकी अन्य प्रभाव रेखाओं के द्वारा अधिक यथार्थ और विश्वसनीय ढंग से होता है।
हस्तरेखा के आधार पर वैवाहिक जीवन: विवाह रेखा को अनुराग रेखा, प्रेम संबंध रेखा, ललना रेखा, जीवन साथी रेखा, आसक्ति रेखा आदि नामों से जाना जाता है। विवाह रेखा के स्थान के बारे मेंं प्राचीन विचारक एकमत नहीं थे। कुछ विचारकों ने शुक्र क्षेत्र की रेखाओं को, तो कुछ ने चंद्र क्षेत्र की रेखाओं को विवाह रेखा के रूप मेंं स्वीकार किया है। किंतु अधिकांश प्राचीन ग्रंथों विवेक विलास, शैव सामुद्रिक, हस्त संजीवन, प्रयोग पारिजात, करलक्खन आदि मेंं हृदय रेखा के ऊपर बुध क्षेत्र मेंं स्थित आड़ी रेशाओं को ही विवाह रेखा माना गया है। बुध क्षेत्र के भीतर आड़ी रेखाओं की तरह हों, वे विवाह की सूचक नहीं, बल्कि बुध क्षेत्र के गुणों मेंं विपरीत या दूषित प्रभाव उत्पन्न करती हैं। करतल के बाहर से आकर बुध क्षेत्र मेंं प्रवेश करने वाली सीधी, स्पष्ट और सुंदर रेखाएं ही सुखद वैवाहिक जीवन का संकेत देती है। यदि विवाह रेखा का आरंभ हृदय रेखा के भीतर से हो या उच्च मंगल क्षेत्र से निकलकर बुध क्षेत्र मेंं चाप खंड की तरह प्रवेश करे तो ऐसे जातक का विवाह अबोध अवस्था मेंं हो जाता है। ऐसे विवाह प्राय: बेमेंल होते हैं जो आगे चलकर अस्थिरता या दुख का कारण बनते हैं।
यदि इस योग के साथ जातक के हाथ मेंं मध्य बुध क्षेत्र मेंं दूसरी स्पष्ट विवाह रेखा मौजूद हो तो दूसरे विवाह की संभावना अधिक रहती है। यदि विवाह रेखा कनिष्ठिका के मूल से निकलकर चाप खंड की तरह बुध क्षेत्र मेंं प्रवेश करें तो जातक को वृद्धावस्था मेंं परिस्थितियों के दबाव मेंं विवाह करना पड़ता है। यदि विवाह रेखा का आरंभ द्वीप चिह्न से हो, तो जातक के विवाह के पीछे कोई गोपनीय रहस्य छिपा होता है। यदि किसी महिला के हाथ मेंं इस प्रकार का योग हो, तो उसको फंसाकर या धोखा देकर, मजबूरी मेंं शादी की जाती है, ऐसे मेंं आरंभिक वैवाहिक जीवन कष्टकर होता है। यदि बाद मेंं रेखा शुभ हो, तो परिस्थितियां सामान्य हो जाती हैं। यदि विवाह रेखा के आरंभ की एक शाखा कनिष्ठिका मूल की ओर जाये और दूसरी शाखा हृदय रेखा की ओर झुक जाये तो पति-पत्नी को आरंभिक वैवाहिक जीवन मेंं एक दूसरे से दूर रहना पड़ता है। यदि आगे जाकर ये दोनों शाखाएं मिल गयी हों तो पति-पत्नी का संबंध पुन: जुड़ जाता है। यदि विवाह रेखा सूर्य क्षेत्र मेंं समाप्त हो, तो जातक को विवाह के कारण प्रतिष्ठा और धन-लाभ होता है।
यदि विवाह रेखा ऊपर की ओर मुड़कर सूर्य रेखा से मिल जाये, तो जातक का जीवनसाथी उच्चकुल का तथा प्रतिभा से संपन्न होता है। ऐसा विवाह जातक के लिये शुभ होता है, किंतु आजीवन जीवन साथी के प्रभाव मेंं रहना पड़ता हैं यदि सूर्य क्षेत्र तक जाने वाली विवाह रेखा नीचे मुड़कर सूर्य रेखा को काट दे, तो जातक का वैवाहिक संबंध उससे निम्न कोटि के व्यक्ति के साथ होता है और इस विवाह के कारण उसकी प्रतिष्ठा को हानि पहुंचती है व दुख उठाना पड़ता है। यदि विवाह रेखा शनि क्षेत्र तक चली जाये, तो यह एक बहुत अशुभ योग माना जाता है। ऐसी स्थिति मेंं जातक अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये जीवन-साथी को घायल करता है या उसे मार डालता है। यदि इस योग मेंं शनि क्षेत्र पर भाग्य रेखा के अंत मेंं क्रास का चिह्न हो, तो जातक को अपने जीवन-साथी की हत्या के आरोप मेंं मृत्युदंड दिया जाता है।
यदि विवाह रेखा नीचे की ओर मुड़कर हृदय रेखा की ओर झुक जाये, तो इस बात की सूचक है कि जातक के जीवन-साथी की मृत्यु उससे पहले होगी। यदि ऐसी रेखा धीरे-धीरे एक ढलान के साथ नीचे की ओर मुड़ जाये तो, ऐसा समझना चाहिये कि जीवन-साथी की मृत्यु का कारण कोई लंबी बीमारी होगी। ऐसी रेखा के ढलान मेंं यदि क्रॉस चिह्न हो या आड़ी रेखा हो तो मृत्यु अचानक किसी रोग या दुर्घटना के कारण होती है। द्वीप चिह्न होने से शारीरिक निर्बलता या बीमारी के कारण मृत्यु होती है। यदि विवाह रेखा शुक्र क्षेत्र मेंं जाकर समाप्त हो, और यह योग सिर्फ बायें हाथ मेंं ही हो, तो वैवाहिक संबंध विच्छेद करने की इच्छा ही व्यक्त करता है। दोनों हाथों मेंं यही योग हो तो निश्चित ही संबंध विच्छेद होता है। यदि विवाह रेखा बुध-क्षेत्र मेंं ऊपर की ओर मुड़ जाये और कनिष्ठका मूल को स्पर्श करने लगे, तो जातक आजीवन अविवाहित रहता है। यदि विवाह रेखा का समापन उच्च मंगल के मैदान मेंं हो तो जीवन साथी के व्यवहार के कारण वैवाहिक जीवन दुखी रहता है। यदि विवाह रेखा का अंत उच्च मंगल के क्षेत्र मेंं हो और समापन स्थान पर क्रॉस चिह्न हो, तो जातक के जीवन-साथी के जीवन मेंं अनियंत्रित ईष्र्या व द्वेष के कारण कोई प्राण घातक दुर्घटना घटित होती है। यदि विवाह रेखा का अंत त्रिशूल चिह्न से हो, तो जातक पहले अपने प्रेम की अति कर देता है और बाद मेंं संबंधों के प्रति उदासीन हो जाता है।

प्रेत बाधा (गरुड़ पुराण मीमांसा)


वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है और शोक संतप्त परिवार को इसके सुनने से राहत और तसल्ली मिलती है कि उनके द्वारा दिवंगत आत्मा का सही ढंग से क्रियाकर्म हो रहा है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में प्रेतों से संबंधित लोक कथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। जिसमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और चीनी, जापानी एवं अफ्रीकन संस्कृति प्रमुख है! मिस्र के पिरामिड भी भूतों के स्मारक है। इन स्मारकों को सिर्फ बाहर से ही देखने की अनुमति है अन्दर जाने की नहीं।
हिन्दू धर्म में ''प्रेत योनि इस्लाम में ''जिन्नात आदि का वर्णन प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व जीव अथवा प्रेत के रूप में होता है।
प्रेत का पौराणिक आधार: गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पडऩे का वृतान्त है। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है प्रेत योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा पितरों के दारुण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
कर्मफल अवस्था: गरूड़ पुराण धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है।
पहली अवस्था: समस्त अच्छे बुरे कर्मो का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियां है, उसी प्रकार असंख्य नर्क भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। 'गरूड़ पुराण ने इसी स्वर्ग नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
प्रेत योनी किसे प्राप्त होती हैं ?
'प्रेत कल्पÓ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताडि़त करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राहमण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का घात करता है, माता, बहन, पुत्र-पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषिहानि, संतानमृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे अकाल मृत्यु में धकेल देते हैं।
गरुड़ पुराण में प्रेत योनि और नर्क में पडऩे से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान, यज्ञ, सत्संग, नाम संकीर्तन, स्वाध्याय, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में आत्मज्ञान के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत गरुड़ पुराण में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
जीवों का सूक्ष्म विवेचन: इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसे जीवों को पुन: जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं वे भी इस जनम मृत्यु के बंधनों से मुकत हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है उनका व्यक्तित्व ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रेत भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हैं:
चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ये जीव भटकते रहते हैं। प्रतीक्षा करते रहते हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरे पूर्वाग्रह वाले प्रेत कहते हैं और मृत्यु के बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये जीव जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ये ही मनुष्य के शरीर में प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें कई तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।
जिस व्यक्ति के जीव में अपने प्रति लगाव होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही सबकुछ संचालित करता है। जब जीव का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर का सबसे बड़ा गुण है, यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है।
ब्रह्मा का अर्थ होता है - विस्तार होना। जो निरंतर बढ़ता हुआ हो। इस ब्रहमांड को ब्रह्मा से इसलिए जोड़ा गया कि यह ब्रह्माण्ड नित्य प्रति विस्तृत होता जा रहा है, निरंतर फैलता जा रहा है। आज के वैज्ञानिकों का भी मानना है, यह ब्रह्माण्ड निरंतर विस्तृत होता जा रहा है। जब संकल्प प्रगाढ़ होता है, मनोबल ऊंचा होता है, जब आत्मसम्मान के भाव से भरे रहते हैं, तो सूक्ष्म शरीर भी विस्तीर्ण होता है, बढ़ता है और शरीर को भी व्याप्त किये रहता है। ऐसे किसी भी व्यक्ति के पास जायें, तो उससे प्रभावित होते हैं।
ज्योतिष के अनुसार वे लोग प्रेतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में राहु से पापाक्रांत प्रमुख ग्रहों के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति के कारण:
* कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं।
* कुंडली में बनने वाले कुछ प्रेत बाधा दोष इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रहों की स्थिति हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर प्रेत-पिशाच या नकारात्मक जीवों का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि या मंगल में से कोई भी ग्रह राहु से आक्रांत होकर सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी प्रेत बाधा या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. उक्त योगों की दशा-अंतर्दशा और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान होगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए पितृ शांति कराना चाहिए।
4. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव में हों तो भी प्रेत बाधा बनते हैं।
5. प्रेत-बाधा अक्सर उन लोगों को कष्ट देता है जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
6. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और प्रेत बाधा देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को ज्यादा कष्टकारी माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। प्रेत बाधा दोष राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है।
प्रेतबाधा दोष जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है उसमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं और उनके अनुसार बुरे कर्म करने लगते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। स्वयं ही अपना तथा अपनों का नुकसान कर बैठते हैं।
7. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई उसका विनाश करने में लगा हुआ है और किसी भी इलाज पर उसे भरोसा नहीं होता।
8. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी प्रेतबाधा का प्रभाव आसानी से होने की संभावनाएं बनती हैं।
इस प्रकार परेशानियों से मुक्ति हेतु नारायण बलि, नागबलि, रुद्राभिषेक अर्थात पितृ शांति विद्वान आचार्य से किसी नदी के तट पर देवता के मंदिर प्रांगण में कराना चाहिए।
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ''उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।
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गुरु पूर्णिमा


गुरु पूर्णिमा

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:। अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं.
उक्त वाक्य उस गुरु की महिमा का बखान करते हैं जो हमारे जीवन को सही राह पर ले जाते हैं. गुरु के बिना यह जीवन बहुत अधूरा है. यूं तो हम इस समाज का हिस्सा हैं ही लेकिन हमें इस समाज के लायक बनाता है गुरु. शिक्षक दिवस के रूप में हम अपने शिक्षक को तो एक दिन देते हैं लेकिन गुरु जो ना सिर्फ शिक्षक होता है बल्कि हमें जीवन के हर मोड़ पर राह दिखाने वाला शख्स होता है उसको समर्पित है गुरु पूर्णिमा.
वेद व्यास की जयंती: गुरु पूर्णिमा गुरु माने जाने वाले वेद व्यास को समर्पित है. माना जाता है कि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा को हुआ था. वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी वेदव्यास ने आज ही के दिन की थी. वेद व्यास ने ही वेद ऋचाओं का संकलन कर वेदों को चार भागों में बांटा था. उन्होंने ही महाभारत, 18पुराणों व 18उप पुराणों की रचना की थी जिनमें भागवत पुराण जैसा अतुलनीय ग्रंथ भी शामिल है. ऐसे जगत गुरु के जन्म दिवस पर गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है.
बुद्ध ने दिया था प्रथम उपदेश: बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पांच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने सारनाथ पहुंच आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अपने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिया था. इसे बौद्ध ग्रंथों में 'धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है. बौद्ध धर्मावलंबी इसी गुरु-शिष्य परंपरा के तहत गुरु पूर्णिमा मनाते हैं.
गुरुपूर्णिमा का महत्व: गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा. गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं हो सकती. जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है. पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है. इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए. यह पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा भी कहलाती है. गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है. गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है.
गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व अपने आराध्य गुरु को श्रद्धा अर्पित करने का महापर्व है। योगेश्वर भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवतगीता (8-12) मेंं कहते हैं, हे अर्जुन! तू मुझमेंं शिष्यभाव से पूरी तरह अपने मन और बुद्धि को लगा ले। ऐसा करने से तू मुझमेंं ही निवास करेगा, इसमेंं कोई संशय नहीं. यह पुण्य दिवस उस महान ज्ञान के प्रति कृतज्ञ होने का दिन है, जो हमेंं गुरुओं से प्राप्त हुआ है। गुरु की महत्ता के बारे मेंं संत कबीर ने गुरु को ईश्वर से ऊंचा स्थान देते हुए कहा है- गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागहुं पायं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय। गुरु केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि अपनी कृपा से शिष्य को सब पापों से मुक्त भी कर देता है। गुरु तत्व का सिद्धांत और बुद्धिमत्ता है, आपके भीतर की गुणवत्ता, यह एक शरीर या आकार तक सीमित नहीं है।
छत्तीसगढ़ में कबीरपंथियों के द्वारा अपने गुरू की पूजा की जाती है। इस पावन पर्व में कबीर के अनुयायियों की मान्यता होती है कि उनके सद्गुरू ही इस जीवन-मरण के पाप-लीला से मुक्त करायेंगे। देश भर में अलग-अलग पंथों में अपने गुरूओं की इस दिन पूजा की जाती है।
शास्त्रों मेंं कहा गया है कि गुरु से मंत्र लेकर वेदों का पठन करने वाला शिष्य ही साधना की योग्यता पाता है। व्यावहारिक जीवन मेंं भी देखने को मिलता है कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या सहायता के किसी कार्य या परीक्षा मेंं सफलता कठिन हो जाती है। लेकिन गुरु मिलते ही लक्ष्य आसान हो जाता है। गुरु ऐसी युक्ति बता देते हैं, जिससे सभी काम आसान हो जाते हैं। गुरु का मार्गदर्शन किसी ताले की चाभी की तरह है। इस प्रकार गुरु शक्ति का ही रूप है। वह किसी भी व्यक्ति के लिए एक अवधारणा और राह बन जाते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति मनोवांछित परिणाम पा लेता है।
पुराणों मेंं एक प्रसंग मिलता है कि जिसके अनुसार संतों, ऋषियों और देवताओं ने महर्षि व्यास से अनुरोध किया था कि जिस तरह सभी देवी-देवताओं की पूजा के लिए कोई न कोई दिन निर्धारित है उसी तरह गुरुओं और महापुरुषों की अर्चना के लिए भी एक दिन निश्चित होना चाहिए। इससे सभी शिष्य और साधक अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता दर्शा सकेंगे। इस अनुरोध पर वेद व्यास ने आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन से ब्रह्मासूत्र की रचना शुरू की और तभी से इस दिन को व्यास पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा के रूप मेंं मनाया जाने लगा। गुरु वह है, जिसमेंं आकर्षण हो, जिसके आभा मंडल मेंं हम स्वयं को खिंचते हुए महसूस करते हैं। जितना ज्यादा हम गुरु की ओर आकर्षित होते हैं, उतनी ही ज्यादा स्वाधीनता हमेंं मिलती जाती है। कबीर, नानक, बुद्ध का स्मरण ऐसी ही विचित्र अनुभूति का अहसास दिलाता है। गुरु के प्रति समर्पण भाव का मतलब दासता से नहीं, बल्कि इससे मुक्ति का भाव जागृत होता है। गुरु के मध्यस्थ बनते ही हम आत्मज्ञान पाने लायक बनते हैं।
गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान देने के साथ-साथ जीवन मेंं अनुशासन मेंं जीने की कला भी सिखाते हैं। वह व्यक्ति मेंं सत्कर्म और सद्विचार भर देते हैं। इसलिए गुरु पूणिर्मा को अनुशासन पर्व के रूप मेंं भी मनाया जाता है। गुरु हमारे अंदर संस्कार का सृजन, गुणों का संवर्धन और वासनाओं एवं हीन ग्रंथियों का विनाश करते हैं।
पुराणों मेंं दिए प्रसंग यह संदेश भी देते हैं कि अगर मन मेंं लगन हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति मेंं गुरु को ढूंढ लिया और महान धनुर्धर बन गया। जगत गुरु दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए थे। उन्होंने दुनिया मेंं मौजूद हर उस वनस्पति, प्राणी और ग्रह-नक्षत्र को अपना गुरु माना, जिसकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। उन्होंने पृथ्वी से क्षमा और निस्स्वार्थ भाव, वायु से दूसरे के प्राणों की रक्षा, आकाश से सीमित मेंं असीमित दिखना, समुद से किसी भी परिस्थिति मेंं एक जैसा रहना, जल से पालन-पोषण की भावना और अग्नि से शुद्धता का भाव सीखा। नक्षत्रों मेंं उन्होंने चंद्रमा से घटने-बढऩे के बावजूद एक ही स्वभाव रखना और सूर्य से सर्वव्यापी व अहंकार मुक्त होना सीखा। इसी तरह कबूतरों से परिवार मेंं बहुत अधिक लिप्तता से बचना, अजगर से जो भी मिला वही भोजन कर लिया, जुगनू से इच्छाओं के वशीभूत न होना, मधुमक्खी से बिना किसी का नुकसान किए कार्यसिद्धि करना सीखा। इंद्रिय संयम करना उन्होंने हाथी से सीखा, जबकि हिरन से पथभ्रष्ट होने से बचने की युक्ति और मछली से लालची प्रवृत्ति से दूर रहने की प्रवृत्ति सीखी। गौरैया से उन्होंने यह सीखा कि ताकतवर दुश्मन से बचना ही श्रेयस्कर है। सांप से भीड़भाड़ मेंं न फंसना, मकड़ी से अपनी सुरक्षा स्वयं निर्धारित करने और भ्रमर से एकनिष्ठता अपनाना सीखा।
भारतीय संस्कृति में सदा से ही गुरू को सर्वोच्च माना गया है और गुरूपूर्णिमा के दिन अपने गुरू अर्थात जिस किसी से भी आपने सीखा है, का अभिनंदन करना चाहिए, पूजा करना चाहिए। वह गुरू ही है, जिससे जो हमें इस भवसागर से पार लगाता है।

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विकास के लिये जनता को दे रहें हैं कड़वी दवा






मोदी जी का जन्म लग्र और राशि भी वृश्चिक है। इस समय जब वे प्रधानमंत्री हैं, तब वर्तमान में चंद्रमा की महादशा में राहु का अंतर चल रहा है। मोदी जी की कुंडली में राहु पंचम स्थान में है तथा सूर्य राहु से पापाक्रांत है जो जबरदस्त यश और अपयश दोनों की वजह हो सकता है। बजट के पूर्व मोदी जी का लगातार विरोध हो सकता है, क्यूंकि विकास अभी परिदृश्य में नहीं है, पर मंहगाई का असर दिखने लगा है। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या मोदी जी, विकास और राजनैतिक शांति, दोनों चुनौतियों से निपटने में सफल रहेंगे? सबसे बड़ी बात यह है कि राहु के अंतर में मोदी जी जबरदस्त जनअपेक्षाओं के साथ बेहद ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में उभरे और विरासत में मिली मंहगाई, प्रशासनिक अव्यवस्था, पूर्व में लिए गए अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय साथ ही ईराक समस्या के रूप में आकस्मिक दुर्घटना एवं देश में वर्षा की अनिश्चित स्थिति और उस पर सर्वांगीण विकास की जबरदस्त इच्छा, ये सब मिलाकर मोदी जी की राहु-जन्य परीक्षा है और यह लगातार लगभग दो वर्षों तक चलेगा। अर्थात राहु के पश्चात गुरु डेढ़ वर्ष ऐसे ही उन्हें दबाव में रखने वाले हैं। जब शनि का अंतर आवेगा तब उन्हें कुछ राहत मिलती नजर आ रही है। परन्तु याद रहे, इससे पहले उन्हें लगातार अपने विरोधियों एवं सहयोगियों की टिप्पणियों का सामना करना पड़ेगा। संभव है यह विरोध, बड़ा भी हो। राहु की अंतरदशा में मोदी जी ने विकास के लिए कड़वी दवा का प्रयोग किया है जो बहुत जोखिम भरा भी हो सकता है। याद रहे, शनि की अंतरदशा में ही मोदी जी का राजनैतिक जीवन शुरू हुआ था। इसी बीच भाजपा की जन्म कुंडली भी देखनी होगी, जिसमें भाजपा की कुंडली में जन्म लग्र मिथुन, राशि वृश्चिक है। तीसरे स्थान में मंगल, गुरु तथा शनि, राहु से पापाक्रांत हैं। इस समय सूर्य की महादशा में गुरू की अंतरदशा तथा शनि की अंतरदशा फरवरी २०१६ तक चलेगी, जिसका मतलब साफ है कि पार्टी के बड़े शीर्षस्थ नेताओं पर भी लगातार आरोप लग सकते हैं, यह भी मोदी जी के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। इसके साथ ही अपने कम सक्रिय मंत्रियों, सहयोगियों, सांसदों की आलोचनाओं का दंश भी मोदी जी को झेलना पड़ सकता है।
महंगाई से मुक्ति दिलाने का दावा करने वाली मोदी सरकार की मुश्किलें बढ़ रही हैं। कमजोर मॉनसून के असर से बचने के उपाय सरकार कर ही रही थी कि इराक में संकट गहराने से कच्चे तेल के दाम उछाल मारने लगे हैं। इस सबके बीच सोमवार को थोक महंगाई दर के आंकड़ों ने टेंशन बढ़ा दी। इसका कारण फल, सब्जियां खासकर आलू और अनाज की ज्यादा कीमतें बताई गईं। हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में तेल और खाने-पीने की चीजों के दाम और बढ़ सकते हैं।
मोदी सरकार ने महंगाई कम करने को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है, लेकिन हालात ऐसे बन रहे हैं कि सरकार के लिए बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण मुश्किल हो सकता है। मई की महंगाई दर का आंकड़ा तो बढ़ कर आया ही है, अब आगे कीमतें और ऊपर जाने का खतरा बन गया है। प्याज की दर ही ऐसी है जो आम अवाम को सीधे तौर पर खटकती है। लोगों में फि र से असंतोष की लहर देखी जा सकती है।
महंगाई दर का आंकड़ा: देश में थोक मूल्य आधारित महंगाई दर मई में 6.01 फीसदी हो गई है। इससे पहले अप्रैल में यह 5.2 फीसदी थी। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, मई में थोक महंगाई दर, दिसंबर 2013 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। मई में खाने-पीने की महंगाई दर भी 8.64 से बढ़कर 9.5 फीसदी हो गई है।
रेल किराया भी रुलायगा: केंद्रीय रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने हाल ही में कहा था कि मंत्रालय रेल किराये की समीक्षा कर रहा है और अंतत: रेल किराया बढ़ा भी दिया गया। असल में सब्सिडी का आंकड़ा 26,000 करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है जिसकी भरपाई के बिना रेल का विकास संभव नहीं है, इसलिये मजबूरन सरकार को रेल किराया बढ़ाना पड़ा। मगर यह भी अंतत्वोगत्वा मंहगाई बढ़ाने में एक बड़ी वजह बनी जिसका तत्काल असर वस्तुओं की कीमतों पर पड़ा है और जिसका देश भर में चौतरफा विरोध हो रहा है।
परेशान कर रहा मानसून: इस साल भारत में सूखे का खतरा भी मंडरा रहा है। कमजोर मानसून के कारण खाने-पीने की चीजों में कमी की वजह से महंगाई के बढऩे का खतरा बढ़ गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि खराब मॉनसून मोदी के आर्थिक विकास के प्लान पर पानी फेर सकती है। अल नीन्यो का भी खतरा है। 2009 में जब पिछली बार अल-नीनो की स्थिति बनी थी तो लंबी अवधि में बारिश 22 फीसदी कम रही थी। ऐसे में फूड प्रॉडक्शन 7 फीसदी कम हो गया था। ऐसे हालात अगर दोबारा बने तो मोदी सरकार के लिए ''अच्छे दिन लाने का वादा पूरा करना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में मंहगाई को काबू करना और आम जनता को राहत देने की कोशिशें कितनी सफल होती हैं, देखने का विषय होगा। मगर यह संघर्ष सत्र सितंबर से लगभग डेढ़ वर्ष यानी मोदी सरकार के दो वर्ष तक रहेंगे। दो वर्ष बाद सरकार के द्वारा लिये गए निर्णयों के परिणाम आने शुरू होंगे, तभी सरकार का आत्मविश्वास बेहतर होगा, तब तक सरकार को अपना पक्ष मजबूती से रखना होगा और अपने निर्णयों में जनता को शामिल करना होगा। जैसा कि वे चुनाव के समय अपनी रैलियों में करते थे और जनता के बीच जाकर निर्णय लेने की कोशिश करना होगा ताकि उनके खिलाफ दुष्प्रचार न हो।
इराक में जारी युद्ध: इराक में संकट की वजह यह है कि सत्तारूढ़़ शिया समर्थक सरकार और विद्रोही सुन्नी जेहादी समूह में टकराव है, जिन्होंने उत्तर में मोसूल व तिकरित जैसे बड़े शहरों पर कब्जा कर लिया है। वर्ष 2003 में अमेरिका के नेतृत्व में किए गए हमले में जब से सद्दाम हुसैन का तख्ता पलटा गया, इराक लगातार आंतरिक संघर्ष से जूझ रहा है। मौजूदा प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी, जो वर्ष 2006 से सत्ता में बने हुए हैं, देश के तीस फीसदी सुन्नी अल्पसंख्यकों का विश्वास कभी नहीं जीत पाए। यही वजह है कि आईएसआईएस सुन्नी बहुल मोसूल व तिकरित में दो डिवीजन इराकी सेना के होने के बावजूद हल्के प्रतिरोध के बाद कब्जा करने में सफल रहा। आज भारत सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कैसे इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया के कब्जे से 86भारतीयों को छुड़ाया जाए , जिनका उत्तरी इराक में या तो अपहरण किया गया है या फिर उन्हें बंधक बनाकर रखा गया है। बताया जा रहा है कि भारत सरकार सऊदी अरब सरकार के संपर्क में है, जिसका आईएसआईएस के जेहादियों पर प्रभाव है। हालांकि सऊदी अरब सरकार इस बात से इनकार करती है कि उसने किसी भी तरह से आईएसआईएस की आर्थिक मदद की है।
लेकिन यदि इराक में किसी भी भारतीय की जान जाती है तो मोदी सरकार पर उसका बुरा असर पड़ेगा। पहले ही एनडीए सरकार और पंजाब सरकार की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की जाती रही है कि उत्तरी इराक में फंसे भारतीयों के बाबत समय रहते कार्रवाई नहीं की गई। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि केंद्र व राज्य सरकार वापस आने के इच्छुक लोगों को निकालने के लिए तत्काल कदम उठाएं। भारतीयों को कैद से रिहा कराने के अलावा इराक में तेल क्षेत्रों में चल रही हिंसक गतिविधियों और आतंकवादियों के कब्जे ने सरकार की चिंताएं बढ़ा दी हैं। इराक संकट की वजह से अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल और इसके आगे और बढऩे की आशंका से देश का वित्तीय घाटा बढऩे का खतरा मंडराने लगा है। सरकार को शनि-राहु के कारण उत्पन्न होने वाली अविश्वसनीयता से बचना होगा और हर मोर्चे पर विश्वसनीयता बनाने की कोशिश करनी होगी।

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जीवन उन्नति का मार्ग: दान


मनुष्य मेंं सबसे बड़ा गुण है-देने का भाव। इसी का नाम दान है। दान प्रसन्न मन से दिया जाता है। दान देने से किसी को तृप्त करने के संस्कार रूपी बीज, दानी की सूक्ष्म देह मेंं समाविष्ट हो जाते हैं। पदार्थ मेंं जब परमार्थ का भाव जुड़ जाता है तो वह वस्तु देने योग्य हो जाती है। वस्तु सत्य, भाव सत्य मेंं बदल जाता है। दान का यह भाव महापुरुषों का एक प्रमुख गुण है। दान मेंं आत्मा का अंश रच बस जाने से यह मानव धर्म और कल्याण का स्वरूप पा जाता है। दान अपने सुख को व्यापक बनाने का एक साधन है। अपने अकेलेपन से जूझने के लिए यह ज्योति स्तंभ है। दान हमेंं बड़ा बनाता है। यह दूसरों की आंखों के आंसू पोंछकर सब कुछ पाकर सब कुछ छोडऩे का प्रयास है। दान पर दुख कातरता का भाव है। जनक देह से विदेह की ओर चलना सिखाते हैं। हरिश्चंद्र और रघु की दानशीलता विश्व प्रसिद्ध है। जो देता है वह देवता है। देने का भाव जाग्रत होने पर पुण्य उदित होता है। भामाशाह, कर्ण, दधीचि और राजा भोज को कौन नहीं जानता। दान कल्पवृक्ष है।
कर्तव्यों का विशद विवेचन धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों मेंं मिलता है। वेद, पुराण, गीता और स्मृतियों मेंं उल्लेखित चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को ध्यान मेंं रखते हुए प्रत्येक सनातनी (हिंदू या आर्य) को कर्तव्यों के प्रति जाग्रत रहना चाहिए ऐसा ज्ञानीजनों का कहना है। कर्तव्यों के पालन करने से चित्त और घर मेंं शांति मिलती है। चित्त और घर मेंं शांति मिलने से मोक्ष व समृद्धि के द्वार खुलते हैं। कर्तव्यों के कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण और लाभ हैं। जो मनुष्य लाभ की दृष्ट् िसे भी इन कर्तव्यों का पालन करता है वह भी अच्छाई के रास्ते पर आ ही जाता है। दुख: है तो दुख से मुक्ति का उपाय भी कर्तव्य ही है। प्रमुख कर्तव्य निम्न है- संध्योपासन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, सेवा, दान, यज्ञ और संस्कार। यहाँ हम जानते हैं दान के महत्व को।
किसी फल की इच्छा से किया गया दान सकाम दान है। किसी कामना या फल के बगैर दिया गया निष्काम दान है जो सात्विक और सर्वश्रेष्ठ होता है। दान देने से धन नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन शुद्ध और श्रेष्ठ होता है। स्नेह, प्रेम, सेवा और प्रिय वचन से दान किया जाता है। कहा गया है कि दानी को दान देने मेंं अहं नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए कि हमारा दान स्वीकार करने वाला कोई सुपात्र मिला तो। दाएं हाथ द्वारा दिया गया दान बाएं हाथ को नहीं बताना चाहिए। विक्रमादित्य ने वह दिया जो किसी ने नहीं दिया। अपने कोषाध्यक्ष को उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब कोई गुणी मेरे आगे हो तो उससे एक सहस्न वार्तालाप करें और दस सहस्न मुद्राएं दान मेंं दी जानी चाहिए। सभी धर्मों मेंं गुप्त दान की महिमा वर्णित है। दान मानवता को बचाता है। यह जीवन मेंं सिद्धि और प्रसिद्धि प्रदान करता है। शास्त्रों मेंं खास तौर पर चार प्रकार के दान बताए गए हैं। पहला नित्यदान-परोपकार की भावना और किसी फल की इच्छा न रखकर यह दान दिया जाता है। दूसरा नैमित्तिक दान-यह दान जाने-अंजाने मेंं किए पापों की शांति के लिए विद्वान ब्राह्मणों को दिया जाता है। तीसरा काम्यदान-संतान, जीत, सुख-समृद्धि और स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से यह दान दिया जाता है। चौथा दान है विमलदान-यह दान ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए दिया जाता है। ऐसा कहा गया है कि न्यायपूर्वक यानी ईमानदारी से अर्जित किए धन का दसवां भाग दान करना चाहिए। कहते हैं लगातार दान देने वाले से ईश्वर सदैव प्रसन्न रहते हैं। ग्रहों को अनुकूल बनाता है दान। कुंडली मेंं जब कोई ग्रह विपरीत परिणाम दे रहा हो तो उससे संबंधित उपाय करने आवश्यक होते हैं। ग्रहों की अनुकूलता पाने के लिए उनसे संबंधित मंत्रों का जाप, उपवास, नित्य विशिष्ट पूजा के अलावा दान करना भी एक उपाय माना जाता है।
वराह पुराण के अनुसार सभी दानों मेंं अन्न व जल का दान सर्वश्रेष्ठ है। हर सक्षम व्यक्ति को सूर्य संक्रांति, सूर्य व चंद्र ग्रहण, अधिक मास व कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अन्न व जल का दान अवश्य करना चाहिए। ज्योतिष मेंं मूल रूप से नव ग्रहों की विभिन्न प्रकृति होती है। जैसे सौम्य व पाप ग्रह, शीतल व अग्नि तत्व वाले, वक्री और सीधी गति वाले। प्रत्येक ग्रह का एक मूल स्वभाव होता है और उसी अनुरूप दान करना चाहिए।
सूर्य देव उपवास, कथा श्रवण व नमक के परित्याग से, चंद्र भगवान शिव के मंत्रों के जाप से, मंगल ग्रह उपवास के अलावा मंत्रजाप से, तो बुध ग्रह गणपति की आराधना के साथ दान से सर्वाधिक प्रसन्न होते हैं। देव गुरु सात्विक रूप से उपवास रखने मात्र से प्रसन्न होते हैं। दैत्य गुरु शुक्र गौ सेवा और दान व कन्याओं को उपहार देने से प्रसन्न होते हैं। न्याय के देवता शनि महाराज को मनाने के लिए जप, तप, उपवास व दान के अलावा शुद्ध व सात्विक जीवन शैली होनी चाहिए। छाया ग्रह राहु व केतु जाप के साथ दान से ही प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार नौ मेंं से पांच ग्रह हैं, बुध, शुक्र, शनि, राहु व केतु जो दान के बिना प्रसन्न नहीं होते और न ही जातकों पर कृपा दृष्टि रखते हैं।
वेदों मेंं तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1. उक्तम, 2. मध्यम और 3.निकृष्ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्या गमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्ट माना गया है। पुराणों मेंं अनेको दानो का उल्लेख मिलता है जिसमेंं अन्नदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है।
दान का महत्व: दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल मेंं लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों मेंं दान के महत्व का वर्णन किया गया है।
मनोवैज्ञानिक कारण: किसी भी वस्तु का दान करते रहने से विचार और मन मेंं खुलापन आता है। आसक्ति (मोह) कमजोर पड़ती है, जो शरीर छुटने या मुक्त होने मेंं जरूरी भूमिका निभाती है। हर तरह के लगाव और भाव को छोडऩे की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। दानशील व्यक्ति से किसी भी प्रकार का रोग या शोक भी नहीं चिपकता है। बुढ़ापे मेंं मृत्यु सरल हो, वैराग्य हो इसका यह श्रेष्ठ उपाय है और इसे पुण्य भी माना गया है।
ग्रहों के दान योग्य पदार्थ -
सूर्य: लाल चंदन, लाल वस्त्र, गेहूं, गुड़, स्वर्ण, माणिक्य, घी व केसर का दान सूर्योदय के समय करना लाभप्रद होता है।
चंद्रमा: चांदी, चावल, सफेद चंदन, मोती, शंख, कर्पूर, दही, मिश्री आदि का दान संध्या के समय मेंं फलदायी है।
मंगल: स्वर्ण, गुड़, घी, लाल वस्त्र, कस्तूरी, केसर, मसूर की दाल, मूंगा, ताम्बे के बर्तन आदि का दान सूर्यास्त से पौन घंटे पूर्व करना चाहिए।
बुध: कांसे का पात्र, मूंग, फल, पन्ना, स्वर्ण आदि का दान अपराह्न मेंं करें।
गुरु: चने की दाल, धार्मिक पुस्तकें, पुखराज, पीला वस्त्र, हल्दी, केसर, पीले फल आदि का दान संन्ध्या के समय करना चाहिए।
शुक्र: चांदी, चावल, मिश्री, दूध, दही, इत्र, सफेद चंदन आदि का दान सूर्योदय के समय करना चाहिए।
शनि: लोहा, उड़द की दाल, सरसों का तेल, काले वस्त्र, जूते व नीलम का दान दोपहर के समय करें।
राहु: तिल, सरसों, सप्तधान्य, लोहे का चाकू व छलनी व छाजला, सीसा, कम्बल, नीला वस्त्र, गोमेंद आदि का दान रात्रि समय करना चाहिए।
केतु: लोहा, तिल, सप्तधान, तेल, दो रंगे या चितकबरे कम्बल या अन्य वस्त्र, शस्त्र, लहसुनिया व बहुमूल्य धातुओं मेंं स्वर्ण का दान निशा काल मेंं करना चाहिए।
दान से बढ़कर श्रेष्ठ कोई कार्य नहीं। धन प्राप्ति के लिए मनुष्य प्राणों का मोह त्याग दुष्कर कठिन कार्य करता है। अपनी मान-मर्यादा भुलाकर धन कमाता है। कष्ट से कमाए धन का ही दान संसार मेंं सर्वश्रेष्ठ है। शुद्ध अंत:करण से सुपात्र को थोड़ा दान भी अनंत सुखदायी और फलदायी है।