Sunday, 12 April 2015

जीवन उन्नति का मार्ग: दान


मनुष्य मेंं सबसे बड़ा गुण है-देने का भाव। इसी का नाम दान है। दान प्रसन्न मन से दिया जाता है। दान देने से किसी को तृप्त करने के संस्कार रूपी बीज, दानी की सूक्ष्म देह मेंं समाविष्ट हो जाते हैं। पदार्थ मेंं जब परमार्थ का भाव जुड़ जाता है तो वह वस्तु देने योग्य हो जाती है। वस्तु सत्य, भाव सत्य मेंं बदल जाता है। दान का यह भाव महापुरुषों का एक प्रमुख गुण है। दान मेंं आत्मा का अंश रच बस जाने से यह मानव धर्म और कल्याण का स्वरूप पा जाता है। दान अपने सुख को व्यापक बनाने का एक साधन है। अपने अकेलेपन से जूझने के लिए यह ज्योति स्तंभ है। दान हमेंं बड़ा बनाता है। यह दूसरों की आंखों के आंसू पोंछकर सब कुछ पाकर सब कुछ छोडऩे का प्रयास है। दान पर दुख कातरता का भाव है। जनक देह से विदेह की ओर चलना सिखाते हैं। हरिश्चंद्र और रघु की दानशीलता विश्व प्रसिद्ध है। जो देता है वह देवता है। देने का भाव जाग्रत होने पर पुण्य उदित होता है। भामाशाह, कर्ण, दधीचि और राजा भोज को कौन नहीं जानता। दान कल्पवृक्ष है।
कर्तव्यों का विशद विवेचन धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों मेंं मिलता है। वेद, पुराण, गीता और स्मृतियों मेंं उल्लेखित चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को ध्यान मेंं रखते हुए प्रत्येक सनातनी (हिंदू या आर्य) को कर्तव्यों के प्रति जाग्रत रहना चाहिए ऐसा ज्ञानीजनों का कहना है। कर्तव्यों के पालन करने से चित्त और घर मेंं शांति मिलती है। चित्त और घर मेंं शांति मिलने से मोक्ष व समृद्धि के द्वार खुलते हैं। कर्तव्यों के कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण और लाभ हैं। जो मनुष्य लाभ की दृष्ट् िसे भी इन कर्तव्यों का पालन करता है वह भी अच्छाई के रास्ते पर आ ही जाता है। दुख: है तो दुख से मुक्ति का उपाय भी कर्तव्य ही है। प्रमुख कर्तव्य निम्न है- संध्योपासन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, सेवा, दान, यज्ञ और संस्कार। यहाँ हम जानते हैं दान के महत्व को।
किसी फल की इच्छा से किया गया दान सकाम दान है। किसी कामना या फल के बगैर दिया गया निष्काम दान है जो सात्विक और सर्वश्रेष्ठ होता है। दान देने से धन नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन शुद्ध और श्रेष्ठ होता है। स्नेह, प्रेम, सेवा और प्रिय वचन से दान किया जाता है। कहा गया है कि दानी को दान देने मेंं अहं नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए कि हमारा दान स्वीकार करने वाला कोई सुपात्र मिला तो। दाएं हाथ द्वारा दिया गया दान बाएं हाथ को नहीं बताना चाहिए। विक्रमादित्य ने वह दिया जो किसी ने नहीं दिया। अपने कोषाध्यक्ष को उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब कोई गुणी मेरे आगे हो तो उससे एक सहस्न वार्तालाप करें और दस सहस्न मुद्राएं दान मेंं दी जानी चाहिए। सभी धर्मों मेंं गुप्त दान की महिमा वर्णित है। दान मानवता को बचाता है। यह जीवन मेंं सिद्धि और प्रसिद्धि प्रदान करता है। शास्त्रों मेंं खास तौर पर चार प्रकार के दान बताए गए हैं। पहला नित्यदान-परोपकार की भावना और किसी फल की इच्छा न रखकर यह दान दिया जाता है। दूसरा नैमित्तिक दान-यह दान जाने-अंजाने मेंं किए पापों की शांति के लिए विद्वान ब्राह्मणों को दिया जाता है। तीसरा काम्यदान-संतान, जीत, सुख-समृद्धि और स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से यह दान दिया जाता है। चौथा दान है विमलदान-यह दान ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए दिया जाता है। ऐसा कहा गया है कि न्यायपूर्वक यानी ईमानदारी से अर्जित किए धन का दसवां भाग दान करना चाहिए। कहते हैं लगातार दान देने वाले से ईश्वर सदैव प्रसन्न रहते हैं। ग्रहों को अनुकूल बनाता है दान। कुंडली मेंं जब कोई ग्रह विपरीत परिणाम दे रहा हो तो उससे संबंधित उपाय करने आवश्यक होते हैं। ग्रहों की अनुकूलता पाने के लिए उनसे संबंधित मंत्रों का जाप, उपवास, नित्य विशिष्ट पूजा के अलावा दान करना भी एक उपाय माना जाता है।
वराह पुराण के अनुसार सभी दानों मेंं अन्न व जल का दान सर्वश्रेष्ठ है। हर सक्षम व्यक्ति को सूर्य संक्रांति, सूर्य व चंद्र ग्रहण, अधिक मास व कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अन्न व जल का दान अवश्य करना चाहिए। ज्योतिष मेंं मूल रूप से नव ग्रहों की विभिन्न प्रकृति होती है। जैसे सौम्य व पाप ग्रह, शीतल व अग्नि तत्व वाले, वक्री और सीधी गति वाले। प्रत्येक ग्रह का एक मूल स्वभाव होता है और उसी अनुरूप दान करना चाहिए।
सूर्य देव उपवास, कथा श्रवण व नमक के परित्याग से, चंद्र भगवान शिव के मंत्रों के जाप से, मंगल ग्रह उपवास के अलावा मंत्रजाप से, तो बुध ग्रह गणपति की आराधना के साथ दान से सर्वाधिक प्रसन्न होते हैं। देव गुरु सात्विक रूप से उपवास रखने मात्र से प्रसन्न होते हैं। दैत्य गुरु शुक्र गौ सेवा और दान व कन्याओं को उपहार देने से प्रसन्न होते हैं। न्याय के देवता शनि महाराज को मनाने के लिए जप, तप, उपवास व दान के अलावा शुद्ध व सात्विक जीवन शैली होनी चाहिए। छाया ग्रह राहु व केतु जाप के साथ दान से ही प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार नौ मेंं से पांच ग्रह हैं, बुध, शुक्र, शनि, राहु व केतु जो दान के बिना प्रसन्न नहीं होते और न ही जातकों पर कृपा दृष्टि रखते हैं।
वेदों मेंं तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1. उक्तम, 2. मध्यम और 3.निकृष्ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्या गमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्ट माना गया है। पुराणों मेंं अनेको दानो का उल्लेख मिलता है जिसमेंं अन्नदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है।
दान का महत्व: दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल मेंं लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों मेंं दान के महत्व का वर्णन किया गया है।
मनोवैज्ञानिक कारण: किसी भी वस्तु का दान करते रहने से विचार और मन मेंं खुलापन आता है। आसक्ति (मोह) कमजोर पड़ती है, जो शरीर छुटने या मुक्त होने मेंं जरूरी भूमिका निभाती है। हर तरह के लगाव और भाव को छोडऩे की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। दानशील व्यक्ति से किसी भी प्रकार का रोग या शोक भी नहीं चिपकता है। बुढ़ापे मेंं मृत्यु सरल हो, वैराग्य हो इसका यह श्रेष्ठ उपाय है और इसे पुण्य भी माना गया है।
ग्रहों के दान योग्य पदार्थ -
सूर्य: लाल चंदन, लाल वस्त्र, गेहूं, गुड़, स्वर्ण, माणिक्य, घी व केसर का दान सूर्योदय के समय करना लाभप्रद होता है।
चंद्रमा: चांदी, चावल, सफेद चंदन, मोती, शंख, कर्पूर, दही, मिश्री आदि का दान संध्या के समय मेंं फलदायी है।
मंगल: स्वर्ण, गुड़, घी, लाल वस्त्र, कस्तूरी, केसर, मसूर की दाल, मूंगा, ताम्बे के बर्तन आदि का दान सूर्यास्त से पौन घंटे पूर्व करना चाहिए।
बुध: कांसे का पात्र, मूंग, फल, पन्ना, स्वर्ण आदि का दान अपराह्न मेंं करें।
गुरु: चने की दाल, धार्मिक पुस्तकें, पुखराज, पीला वस्त्र, हल्दी, केसर, पीले फल आदि का दान संन्ध्या के समय करना चाहिए।
शुक्र: चांदी, चावल, मिश्री, दूध, दही, इत्र, सफेद चंदन आदि का दान सूर्योदय के समय करना चाहिए।
शनि: लोहा, उड़द की दाल, सरसों का तेल, काले वस्त्र, जूते व नीलम का दान दोपहर के समय करें।
राहु: तिल, सरसों, सप्तधान्य, लोहे का चाकू व छलनी व छाजला, सीसा, कम्बल, नीला वस्त्र, गोमेंद आदि का दान रात्रि समय करना चाहिए।
केतु: लोहा, तिल, सप्तधान, तेल, दो रंगे या चितकबरे कम्बल या अन्य वस्त्र, शस्त्र, लहसुनिया व बहुमूल्य धातुओं मेंं स्वर्ण का दान निशा काल मेंं करना चाहिए।
दान से बढ़कर श्रेष्ठ कोई कार्य नहीं। धन प्राप्ति के लिए मनुष्य प्राणों का मोह त्याग दुष्कर कठिन कार्य करता है। अपनी मान-मर्यादा भुलाकर धन कमाता है। कष्ट से कमाए धन का ही दान संसार मेंं सर्वश्रेष्ठ है। शुद्ध अंत:करण से सुपात्र को थोड़ा दान भी अनंत सुखदायी और फलदायी है।

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