Monday, 13 April 2015

कर्णवेध संस्कार


सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहींं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है। प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढ़ती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम-स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास-स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है।
शिशु की शारीरिक व्याधियों से रक्षा करने के उद्देश्य से किया जाने वाला यह कर्णवेधन संस्कार, दशम संस्कार है। कर्णवेधन का अर्थ होता है, कान छेदना। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। कान हमारे श्रवण के दरवाजे हैं, कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं और सुनने की शक्ति भी बढ़ती है। हवन करने के बाद इस संस्कार को करने का विधान है। इस संस्कार में पिता प्रार्थना करता है कि हे विद्वानों! हम कानों से अच्छी बातें सुने, आँखों से अच्छी वस्तुएँ देखें और हमारे शरीर के भिन्न अंग सुदृढ़ और अपने- अपने कर्तव्य पालने में समर्थ हो और हमारी आयु संसार के हित में व्यय हो। इसका यह अर्थ है कि पिता यह प्रार्थना करता है कि बालक का जीवन भी समाज के हितों में व्यय हो। बौधायन गृह्य-शेष-सूत्र के अनुसार बालक के जन्म से सातवें या आठवें महीने में उसके कानों की पालि छेदनी चाहिए।
कर्णवेध का महत्व:
एक संस्कार विशेष अथवा अनुष्ठान विशेष के रुप में इसे प्रतिष्ठापित किये जाने के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में आयुर्विज्ञान संबंधी ग्रंथों में कर्णवेधन को स्वास्थ्यरक्षक तथा रोगोवरोधक माने जाने के कारण व्यक्ति की स्वास्थ्य रक्षा के लिए इसकी अनिवार्यता को ध्यान में रखकर इसे एक संस्कार का रुप देकर अन्य संस्कारों के समान ही इसे भी अनिवार्य कर दिया गया। इस संदर्भ में आचार्य सुश्रुत का कहना है, रोगादि से रक्षा एवं कर्णाभूषणों को धारण करने के लिए कानों का वेधन कराना चाहिए। इसके साथ ही उनका यह भी कहना है कि अंडकोष की वृद्धि, आंतों की वृद्धि ( हर्निया ) के निरोध के लिए भी कर्णवेध कराना चाहिए। उल्लेख है कि यह औकूपंचर के नाम से जानी जाने वाली आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का ही एक रुप था।
क्रियाविधि:
कर्मकाण्डप्रदीप के अनुसार बालक का पिता प्रात: कालीन स्नान संध्या से निवृत्त होकर पूर्वांग पूजा के निमित्त संकल्प लेकर गणेशपूजन, गौर्यादि षोडश मातृका पूजन, नान्दीश्राद्ध, पुण्याहवाचन करके कलशस्थापन पूर्वक नवग्रहपूजन करे। माता की गोदी में स्थित भूषणवस्रादि से अलंकृत शिशु को खाने के लिए तिलादि के लड्डू देकर लग्नदान संकल्प के बाद सोने या चाँदी की बाली से पहले भद्रंकर्णेभि मंत्र के साथ दाहिने कान को फिर वक्ष्यंत्री वेदागनीगन्ति से बांये कान को बींधे। ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर उनसे अभिषेक, तिलक, रक्षाबंधन, घृतच्छाया आदि करवा कर जीव मातृ का पूजन, नीराजन करे। यह संस्कार इसलिए किया जाता है कि ताकि संतान स्वस्थ रहे, उन्हें रोग और व्याधि परेशान न करें। गौर करने वाली बात यह है कि बालक शिशु का पहले दाहिना कान फिर बायां कान और कन्या का पहले बायां कान फिर दायां कान छेदना चाहिए यानी कर्णवेधन करना चाहिए।
समय का आंकलन:
कर्ण वेध के विषय में कहा जाता है कि यह संस्कार बालक के जन्म से दसवें, बारहवें, सोलहवें दिन या छठे, सातवें आठवें महीने में किया जा सकता है।
कर्णवेधन का नक्षत्र:
कर्णवेध संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय यह देखना चाहिए कि नक्षत्र कौन सा है। इस संस्कार के लिए मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजीत, श्रवण, घनिष्ठा और पुनर्वसु अति शुभ माने जाते हैं। इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र में आप यह संस्कार कर सकते हैं।
वार:
वार का विचार करते समय देखना चाहिए कि कर्णवेध के दिन सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार में से कोई वार हो। इन वारों को इस कर्म हेतु शुभ और उत्तम माना गया है।
तिथि:
कर्णवेध संस्कार के लिए चतुर्थ, नवम एवं चतुर्दशी तिथियों एवं अमावस्या तिथि को छोड़कर सभी तिथि शुभ मानी गयी है। आप जब भी अपनी संतान का कर्णवेध करवाएं उस समय ध्यान रखें कि ये तिथि न हो, बाकि किसी भी तिथि में उपरोक्त स्थिति होने पर यह संस्कार सम्पन्न किया जा सकता है।
लग्न:
ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि वैसे तो सभी लग्न जिसके केन्द्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम) एवं त्रिकोण (पंचम, नवम) भाव में शुभ ग्रह हों तथा (तृतीय, षष्टम, एकादश) भाव में पापी ग्रह हों तो वह लग्न उत्तम कहा जाता है। यहां वृष, तुला, धनु व मीन को विशेष रूप से शुभ माना जाता है। यदि बृहस्पति लग्न में हो तो यह सर्वोत्तम स्थिति कही जाती है।
निषेध:
कर्णवेध के लिए खर मास यानी (जब सूर्य धनु/ मीन राशि में हो), क्षय तिथि, हरिशयन (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक जन्म मास (चन्द्र मास), सम वर्ष (द्वितीय, चतुर्थ) इत्यादि को कर्ण-वेध संस्कार में त्याज्य किया जाना चाहिए। चन्द्र शुद्धि एवं तारा शुद्धि अवश्य की जानी चाहिए।

Pt.P.S Tripathi
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