Monday, 13 April 2015

दशहरा विजयादशमी


मातृशक्तियों की पुजा-आराधना हमारें धर्म की सबसे बड़ी विषेशता ही नहीं, बल्कि मुलाधार भी है। भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी जी शिवजी के साथ पार्वती जी, श्रीराम के साथ सीता माता और नटवर नागर गिरधारी के साथ राधारानी जी की पूजा तो होती है, स्वतंत्र रूप से भगवती भवानी की पूजा आराधना तथा माता के भवानी जागरण भी होते ही रहते है। मातेश्वरी भवानी के अनेक रूप और अवतारों की नवरात्रि के नौ दिन भगत अपनी भावना और श्रृद्धा के अनुसार पूजा-आराधना करते है. हमारें नववर्ष के प्रथम दिन अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के नवमी तक के नौ दिन प्रथम नवरात्रि कहलाते है और अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन शारदीय नवरात्र कहलाते है. इन दोनों ही नवरात्रो मेंं दुर्गा मंदिरों में विशेष उत्सव और समारोह तो होते ही है, प्रत्येक परिवार में देवी की विशेष पूजा और हवन भी किया जाता है। नवरात्रों के इन नौ दिनों में देवी के निभित्त व्रत रखने का विशिष्ट विधान है। शास्त्रों के अनुसार, ''रवैतीति रावणÓ जो अपने कथित ज्ञान का स्वयं ढोल पीटता है। वही रावण है। यही वृत्ति राक्षसी है। जिस पर नियंत्रण करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम की आवश्यकता होती है। इसी वृत्ति पर विजय प्राप्त करने का त्योहार है विजयदशमी। आश्विन शुक्ल दशमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, विजयदशमी। क्षत्रियों के यहाँ शस्त्र की पूजा होती है। ब्रज के मन्दिरों में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। यह त्योहार क्षत्रियों का माना जाता है। इसमें अपराजिता देवी की पूजा होती है। यह पूजन भी सर्वसुख देने वाला है। दशहरा या विजया दशमी नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है। इस दिन राम ने रावण का वध किया था। रावण राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले गया था। भगवान राम युद्ध की देवी मां दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक मां दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन दुष्ट रावण का वध किया। इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान, और बंदरों की सेना के साथ एक बड़ा युद्ध लड़कर सीता को छुड़ाया। इसलिए विजयादशमी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है। इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले खुली जगह में जलाए जाते हैं। कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और आग के तीर से इन पुतलों को मारते हैं जो पटाखों से भरे होते हैं। पुतले में आग लगते ही वह धू धू कर जलने लगता है और इनमें लगे पटाखे फटने लगते हैं और जिससे इनका अंत हो जाता है। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
शास्त्रों के अनुसार:
आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसका विशद वर्णन हेमाद्रि, सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थ-चिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है।
कालनिर्णय के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं। हेमाद्रि ने विजयादशमी के विषय में दो नियम प्रतिपादित किये हैं-
1. वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है।
2. वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।
स्कंद पुराण में आया है- जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।
यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहीं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीकृत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहीं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहीं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी ना अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं।

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