यदि मंगल शुभ स्थानस्थ हो, अपनी उच्च राशि, मूल त्रिकोण राशि, स्वराशि (मेष या वृविचक) या मित्र राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में हो तो अपनी दशा में जातक को शुभ फल प्रदान करता है। ऐसे मंगल की दशा में जातक स्त्री एवं सन्तान का पूर्ण सख प्राप्त कर लेता है। भूमि सम्बन्धी कार्यों से उसे विशेष लाभ मिलता है। भूमि क्रय करने, आवास बनाकर विक्रय करने अथवा आवास योग्य भूमि के क्रय-विक्रय से या भूमिगत धन मिलने से जातक अत्यन्त सुखी होता है।समाज में मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है तथा जातक अपने समाज को दिशा-निर्देश देने की क्षमता पा लेता है । आय के अवांछित साधन भी हो सकते हैं । यह सहीं है कि मंगल की शुभ दशा जातक को धनार्जन कराती है,भले ही वह किसी रीती से हो लेकिन यह भी सही है की ऐसी आय शुभ अथवा मंगल कार्यों में व्यय नहीं होती | बुद्धि का विकास तो होता है, लेकिन जातक बौद्धिक कार्यों की अपेक्षा बल्युक्त एवं पराक्रम के कार्य अधिक करते हैं । इसलिए यदि हम यह कहें कि जातक में बल-पराक्रम की वृद्धि होती है एवं वह युद्धकला में प्रवीण होता है तो अतिश्योक्ति न होगी । जातक सेना अथवा पुलिस में कर्मचारी हो तो इन दिनों पदोन्नति पा लेता है, मान-सम्मान में वृद्धि होती है तथा राजकीय सम्मान पाकर कीर्ति अजित कर लेता है। बन्धु-बांधवों से भी उसे सहयोग एवं सुख मिलता है |यदि मंगल उच्च राशि का होकर धन अथवा आय स्थान में हो तो जातक को मानसिक शान्ति प्राप्त होती है, उसकी आय के एक से अधिक साधन बनते हैं, उच्च वाहन एव उत्तम वस्त्राभूषण प्राप्त होते हैं, प्रवास पर जाने से अच्छा लाभ मिलता है । उच्च नवांशगत मंगल भले ही कुण्डली में नीच का हो तो भी अपनी दशा में पराक्रम से द्रव्य लाभ एव शत्रु पर विजय प्राप्त करा देता है ।
यदि मंगल अपनी नीच राशी में हो, शत्रुक्षेत्री हो, अशुभ स्थानस्थ हो या पाप प्रभाव में हो तो अपनी दशा में अशुभ फल ही देता है । अशुभ मंगल की दशा में जातक का परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, बंधुवर्ग से सप्पत्ति के बंटवारे को लेकर विरोध बढाता है तथा नौबत न्यायालय जाते तक आ जाती है। जातक को इस काल में चोरों और शत्रुओं से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा उसे आर्थिक हानि युवं दैहिक कष्ट मिल सकते हैं।
यदि मंगल नीच राशि में होकर वक्री हो, अस्त हो या उच्च राशि का होकर नीच नवांश में हो, अशुभ भावस्थ हो, पाप मध्यत्व में हो तो अपनी दशा में जातक को अनेक प्रकार से प्रताडित करता है। जातक पित्त प्रकोप, दुक्त सन्यासी रोग, ज्वर,रक्तातिसार,मिर्गी, लकवा आदि रोगों से पीडित होता है| नित्य नईं-नई परेशानियां आती रहती है, अपने उच्चाधिकारियों के कोप का भाजन होना पड़ता है । बन्धु-बांधवों से उसका झगडा होता है अथवा किसी सहोदर की मृत्यु से संताप पहुँचता है । पत्नी से विरोध होने के कारण घर में भी कलह का वातावरण बनता है | शत्रु प्रबल हो जाते है तथा उनके कारण शस्त्रधात का भय बनता है, अग्निकाण्ड से आर्थिक हानि होती है । अतीव अशुभ मंगल की दशा मे स्वय के आग में जलने का भय रहता है,पित्त के कारण देह में खुजली एव चकते निकल जाते हैं, दृष्टि मन्द पड़ जाती है। गले और छाती में जलन का अनुभव होता है, प्यास अधिक लगती है।
कुटम्ब-परिवार से मजबूरी से विलग होना पड़ता है| जातक का अधिक समय और धन शत्रुओं और रोगों से संघर्ष करने में ही व्यय होता है । ऋण लेना पड़ता है तथा त्रदृणभार दिनो-दिन बढता रहता है । मन में अधार्मिक विचार बढने से जातक अपने हिंतैषियों को ही अपना शत्रु मान लेता है, जिनके कारण राजकीय दण्ड मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है तथा मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को आंच आती है । शत्रु भावस्थ अशुभ मंगल की दशा में जातक अनैतिक कार्यो और क्रूर कर्मों से धनार्जन का प्रयास करता है| खाना-पीना और मौज-मस्ती करना ही उसका जीवन-दर्शन बन जाता है । कारावास हो जाने की आशंका रहती है । आयु भाव में स्थितमंगल की दशा में जातक की यौन रोगो, जैसे उपदंश, सूजाक, एडूस आदि से देहपीड़ा मिलती है, प्रवास करने पड़ते हैं और धनहानि होती है। व्यय स्थानगत मंगल की दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है, शय्या सुख का नाश होता है, चल-अचल सप्पत्ति की हानि होती है तथा उसे राजकीय दण्ड भोगना पड़ता है।
यदि मंगल अपनी नीच राशी में हो, शत्रुक्षेत्री हो, अशुभ स्थानस्थ हो या पाप प्रभाव में हो तो अपनी दशा में अशुभ फल ही देता है । अशुभ मंगल की दशा में जातक का परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, बंधुवर्ग से सप्पत्ति के बंटवारे को लेकर विरोध बढाता है तथा नौबत न्यायालय जाते तक आ जाती है। जातक को इस काल में चोरों और शत्रुओं से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा उसे आर्थिक हानि युवं दैहिक कष्ट मिल सकते हैं।
यदि मंगल नीच राशि में होकर वक्री हो, अस्त हो या उच्च राशि का होकर नीच नवांश में हो, अशुभ भावस्थ हो, पाप मध्यत्व में हो तो अपनी दशा में जातक को अनेक प्रकार से प्रताडित करता है। जातक पित्त प्रकोप, दुक्त सन्यासी रोग, ज्वर,रक्तातिसार,मिर्गी, लकवा आदि रोगों से पीडित होता है| नित्य नईं-नई परेशानियां आती रहती है, अपने उच्चाधिकारियों के कोप का भाजन होना पड़ता है । बन्धु-बांधवों से उसका झगडा होता है अथवा किसी सहोदर की मृत्यु से संताप पहुँचता है । पत्नी से विरोध होने के कारण घर में भी कलह का वातावरण बनता है | शत्रु प्रबल हो जाते है तथा उनके कारण शस्त्रधात का भय बनता है, अग्निकाण्ड से आर्थिक हानि होती है । अतीव अशुभ मंगल की दशा मे स्वय के आग में जलने का भय रहता है,पित्त के कारण देह में खुजली एव चकते निकल जाते हैं, दृष्टि मन्द पड़ जाती है। गले और छाती में जलन का अनुभव होता है, प्यास अधिक लगती है।
कुटम्ब-परिवार से मजबूरी से विलग होना पड़ता है| जातक का अधिक समय और धन शत्रुओं और रोगों से संघर्ष करने में ही व्यय होता है । ऋण लेना पड़ता है तथा त्रदृणभार दिनो-दिन बढता रहता है । मन में अधार्मिक विचार बढने से जातक अपने हिंतैषियों को ही अपना शत्रु मान लेता है, जिनके कारण राजकीय दण्ड मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है तथा मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को आंच आती है । शत्रु भावस्थ अशुभ मंगल की दशा में जातक अनैतिक कार्यो और क्रूर कर्मों से धनार्जन का प्रयास करता है| खाना-पीना और मौज-मस्ती करना ही उसका जीवन-दर्शन बन जाता है । कारावास हो जाने की आशंका रहती है । आयु भाव में स्थितमंगल की दशा में जातक की यौन रोगो, जैसे उपदंश, सूजाक, एडूस आदि से देहपीड़ा मिलती है, प्रवास करने पड़ते हैं और धनहानि होती है। व्यय स्थानगत मंगल की दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है, शय्या सुख का नाश होता है, चल-अचल सप्पत्ति की हानि होती है तथा उसे राजकीय दण्ड भोगना पड़ता है।
Pt.P.S.Tripathi
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