नवग्रह को प्रसन्न करने से निश्चित ही आने वाले शिशु के ग्रह उसे आशीर्वाद देंगे तथा उसकी कुंडली में अच्छी स्थिति का निर्माण करेंगे। प्रारब्ध के ग्रह उसके कुछ अनुकूल बन सकते हैं। यह माता के हाथ में है। इस नश्वर संसार में जो आया है उसे जाना ही पड़ता है। उसके बाद जीव का अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म होता है। जरूरी नहीं कि बार-बार उसे मनुष्य का तन ही प्राप्त हो। यह तो उसके कर्मो के अनुसार परमात्मा निश्चित करता है। इस लौकिक जगत में मनुष्य देह के समान कोई शरीर नहीं, कोई योनि नहीं है। सभी जीव मानव देह ही प्राप्त करना चाहते हैं। मानव योनि सर्वश्रेष्ठ योनि है। इसी तन से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्रभू का भजन एवं भक्ति की जा सकती है। प्रभु को पाया जा सकता है। यह शरीर ही स्वर्ग तथा मोक्ष की सीढ़ी है। नर तन सम नहि कवनिऊ देही, जीव चराचर जाचत तेही नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी, ग्यान विराग भगति सुभदेनी रामचरितमानस व्यास जी ने भी भागवत पुराण में कहा है- सवार्थ सम्भवोदेहः भागवत पुराण 10/65/51 देह ही समस्त अर्थों की प्राप्ति का साधन है। मनुष्य देह दुलर्भ है। देह धारण करने के लिए जीव को माता की आवश्यकता होती है। बिना माता पिता के संयोग के जीव को शरीर नहीं प्राप्त हो सकता है। पुरूष का एकादश भाव स्त्री का उदर है। उदर के अंतर्गत ही गर्भाशय है। गर्भधारण करने पर माता का उदर बढ़ता है। यदि इस उदर पर एकादश भाव शनि का प्रभाव है तो माता का पेट ज्यादा उभार न लेकर दबा रहता है। यदि इस पर गुरु का प्रभाव है ता ज्यादा उभार विस्तृत स्वरूप होता है। स्त्री जीव को जनम देने के लिए अपनी ओर आकर्षित करती है इसी लिए ये हिरण्यगर्भा है। श्रेष्ठ माता के गर्भ से श्रेष्ठ पुत्र का जन्म होता है। जिसकी भी संतान श्रेश्ठ है तो यह अनुमान लगा लिया जाता है कि माता श्रेष्ठ है। जीव को जब तक उसके संस्कारों के अनुरूप गर्भ नहीं मिलता है वह अंतरिक्ष में भटकता है। उपयुक्त गर्भ की प्राप्ति होने पर वह जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करती है। ज्योतिष का एक सूत्र यह है कि गर्भाधान के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है जातक के जन्म के समय उसकी लग्न वही होती है। जैस्े-गर्भाधान के समय चंद्रमा वृष राशि में है तो जातक की राशि भी वृष ही होगी। यदि व्यक्ति इच्छित संतान चाहता है, सुंदर, योग्य और गुणवान संतान चाहता है, अच्छे चरित्रवान एवं दीर्घायु संतान चाहता है तो चावल पकाकर उसमें घी डालकर दही के साथ सपत्नीक खाये। ऐसा करने के बाद ही संतान प्राप्त करने की इच्छा रखें। गर्भाधान के समय पुरूष का सूर्य स्वर चलता है तो पुत्र संतान पैदा होती है। पुरुश का चंद्र स्वर चलता है तो कन्या संतान पैदा होती है। यदि पुरुष का दोनों स्वर चलता है तो नपुंसक संतान पैदा होती है। यदि गर्भाधान काल में स्त्री का दोनों स्वर चलता है तो नपुंसक कन्या पैदा होती है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि पत्नी को पति के बायीं तरफ सोना चाहिए। स्त्री के मासिक धर्म की सम राशियों में जब चंद्र स्वर चले तो उस समय गर्भाधान करने से पुत्र संतान पैदा होती है एवं विषम राशियों राशियों में सूर्य स्वर चल रहा हो तो कन्या संतान पैदा होती है। मनोनुकूल, इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु दंपति को चाहिए कि उपरोक्त नियमों का ध्यान यदि रखेंगे तो निश्चित ही श्रेष्ठ एवं गुणगान संतान प्राप्त होगी। उपनिषद कहता है कि - ‘अथ य इच्छेत पुत्रों में कपिल: पिंगलो जायते द्वौ। वेदाबनुब्रवीत सर्वभायुरियादिति दध्योदनं पाचायित्वा।। सर्पिष्यन्तयश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै। जब तक बालक गर्भ में रहता है, सिर्फ माता के संपर्क में रहता है। इसलिए शास्त्र कहता है कि रेष्ठ माता ही श्रेष्ठ बालक को जन्म देती है। माता ही बालक की प्रथम गुरु होती है। गर्भाधान से लेकर प्रसव पर्यंत वह गर्भस्थ जीव में संस्कार डालती है। माता का खाया हुआ अन्न एवं पिया हुआ जल ही नाड़ी जाल के द्वारा गर्भस्थ शिशु का निर्माण होता रहता है। गर्भ में जीव को अपने पूर्व जन्म का स्मरण रहता है। अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों को वह जानता रहता है। गर्भ में उसे घोर पीड़ा भी रहती है। तब वह सोचता है कि यदि मैं इस पीड़ा रूपी गर्भ से बाहर आ गया तो सारे बुरे कर्म छोड़ प्रभु का ध्यान करूंगा। परंतु गर्भ के बाहर आते ही वैष्णवी वायु के स्पर्श से सभी बातें भूल जाता है। माता के गर्भ में संतान रहने पर तीसरे महीने से पांचवें महीने के बीच में इसीलिए गर्भ पूजन अथवा पुंसवन संस्कार कराया जाता है ताकि श्रेष्ठ संस्कारों वाली संतान का जन्म हो। सारे ग्रहों का आशीर्वाद उसे प्राप्त हो, नवग्रह अनुकूल बने। गुरुजनों का बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त हो। जिससे उसका भविष्य सुखद हो। आने वाले जीव को सभी आशीर्वाद देते हैं उसका जीवन मंगलमय हो। गर्भ से बाहर आने में उसे घोर पीड़ा नहीं उठानी पड़े। माता के गर्भ से ही बालक के सारे ग्रहों का निर्माण हो जाता है। क्योंकि हमारा पूर्व जन्म में किया पाप पुण्य ही हमारा प्रारब्ध है। उसी के अनुसार व्यक्ति की कुंडली भी तैयार होती है। बालक के पूर्वकृत्य कर्म को उसकी कुंडली को माता नहीं बदल सकती। परंतु गर्भावस्था के दौरान प्रथम से नौवें माह तक माता निम्न बातों को ध्यान में रखें तो निश्चित रूप से मेधावी संतान बनेगी। क्योंकि गर्भावस्था के दौरान प्रथम माह से नौवें माह तक कोई न कोई ग्रह का अधिपत्य रहता है। माता-पिता यदि उन नियमों का पालन करें तो वह ग्रह अवश्य रूप से उसके शरीर निर्माण में अपनी अनुकूलता प्रदान करेंगे। क्योंकि विज्ञान कहता है कि बालक के मस्तिष्क का 70 प्रतिशत विकास माता के गर्भ में हो जाता है। बालक अपना सुंदर आकार कैसे ग्रहण करता है यह माता पर निर्भर करता है। माता क्या सोचती है ? क्या करती है ? क्या खाती है, इसका सीधा असर बालक पर पड़ता है। माता को गर्भावस्था के दौरान पेट पर कभी-कभी ज्यादा गंभीर चोट लग जाती है तो वह बच्चा मस्तिष्क से विकलांग पैदा होता है। शारिरिक रूप से भी विकलांग हो सकता है। इसी प्रकार ग्रहण का भी सीधा असर बच्चे पर होता है। जिस राशि में चंद्र ग्रहण होता है अथवा जिस राशि पर सूर्य ग्रहण होता है उस राशि का शरीर के जिस अंग से संबंध होता है। ग्रहण काल में किये गये गर्भाधान से मानसिक रूप से विकलांग बच्चे पैदा होते हैं। ऐसा विशेषरूप से चंद्र ग्रहण के दौरान होता है। क्योंकि चंद्रमा को राहु ग्रसता है। मन ही चंद्रमा है। सूर्य ग्रहण काल में किये गर्भाधान से शारीरीक विकलांगता आती है। स्वास्थ्य खराब रहता है। क्योंकि सूर्य आत्मा एवं देह है। अब बारी आती है कि माता गर्भवती हो गयी तो नौ माह तक माता क्या करे कि श्रेष्ठ संतान का जन्म हो वह निम्नलिखित है। प्रत्येक माह के गर्भ के देवता को प्रसन्न करे। प्रथम मास: यह शुक्र का महीना होता है। माता के रज पिता के बीज से अंड का निषेचन होता है। शुक्र अधिपत्य इस माह में माता-पिता का शुक्र या आने वाले जीव का शुक्र कमजोर है तो गर्भपात हो जायेगा। यदि गर्भाधान के समय, गर्भधारण करते समय माता-पिता का शुक्र अच्छा है तो बच्चा सुंदर होगा। दूसरा महीना: गर्भावस्था का दूसरा महीना मंगल का होता है। इस महीने का मालिक मंगल है यदि माता-पिता का मंगल गोचर में गर्भाधान के समय अच्छा है तो बच्चा बलशाली, पराक्रमी, वीर होगा नहीं तो रक्ताल्पता का रोगी होगा। उसे रक्त विकार की बीमारियां हो सकती है इस महीने में मां को गुड़ का दान करना चाहिए। गरम मसाला नहीं खाना चाहिए। सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए। नारियल, सौंफ, मिश्री, खोया डाला दूध पीना चाहिए। जिससे बालक का मंगल मजबूत हो सके एवं बच्चा बलशाली पराक्रमी, निरोग बने। इस महीने हनुमत अराधना परमावश्यक है। तीसरा महीना: इस महीने में गर्भस्थ शिशु पर बृहस्पति का अधिपत्य रहता है। ज्ञान, बुद्धि तथा नेत्रों का निर्माण इस महीने में होता है। माता को चंदन, केसर का तिलक लगाना चाहिए। गुरु के सान्निध्य में रहना चाहिए। ज्ञान विज्ञान की पुस्ताकें का अध्ययन करना चाहिए। जिससे बच्चा धार्मिक विचारों का, संस्कारवान, आज्ञाकारी, तेजस्वी, मेधावी तथा विद्वानों का सम्मान करने वाला गोरा एवं सुंदर हो। चतुर्थ माह: इस महीने का मालिक सूर्य है। इस महीने सूर्य को अघ्र्य देने, सूर्य का मंत्र जाप करने, उनका दर्शन अराधना करने, गायत्री मंत्र का जाप करने से गर्भस्थ शिशु को सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है। तांबे के गिलास से पानी पीना चाहिए। इस समय शरीर के सारे अंगों का निर्माण हो जाता है। नमक कम खाना चाहिए। गुड़ थोड़ा खाना चाहिए। पानी में गुलाब जल डालकर स्नान करना चाहिए। जिससे बालक का शरीर कांतीमय, तेजस्विता, ओजस्विता, आत्मबल मजबूत बने। पांचवा महीना: पांचवां महीना चंद्र का महीना होता है। माता को चांदी के गिलास में पानी पीना चाहिए। चांदी का टुकड़ा पास रखे या चांदी की अंगूठी पहनें। ठंडा पानी, ठंडे पेय पदार्थ, ठंडी वस्तुओं का सेवन न करें। सुबह-शाम गाय के दूध में गाय का घी डालकर ऊं नमः शिवाय का जप कर उस दूध को पीयें। इस पूरे महीने के बीच में एक बार शिवजी का रूद्राभिषेक करवा लेना चाहिए। मां न कर सके तो कोई भी उसके निमित्त करें। चंद्र मजबूत होगा एवं गर्भस्थ शिशु आगे चलकर अपनी बातों को अपने विचारों को स्पष्ट कह सकेगा। प्रसन्नचित रहेगा, गौर वर्ण का होगा। इस महीने में पूरी चमड़ी बन जाती है। दूध को पानी या गंगाजल में डालकर पूरे उदर पर लगायें। माता की सेवा करें उनका चरण स्पर्श करें। छठवां महीना: इस महीने का मालिक शनि होता है। माता पिता का शनि खराब है तो बच्चा कमजोर होगा। अतः घर की साफ सफाई का ध्यान रखें। इस महीने घर गंदा न रहे। अस्तव्यस्त न रहे। इस महीने में शिशु के बालों एवं भौहों का निर्माण होता है। आंख, कान, नाक, गला का निर्माण मजबूत होता है। पूजा स्थल, मंदिर की साफ-सफाई पति पत्नी मिलकर करें। नशीली चीज, मांसाहार का सेवन नहीं करें। ऐसा करने से शनि एवं राहु खराब हो जाएंगे। देश एवं समाज की चर्चा करे, पीपल का पेड़ लगाकर सेवा करें। नौकरों को उपहार दें एवं कुष्ठ रोगी को दान दें। बादी चीजों का सेवन नहीं करें। लोहे का छल्ला पहनें। पानी में बेलपत्र, डालकर नहायें। झूठ नहीं बोलें। नाखून साफ रखें। इससे शिशु के शनि मजबूत होंगे। सातवां महीना: सातवें महीने का मालिक बुध है। बुध कमजोर होने से फेफड़ा कमजोर, सांस की बीमारी, स्नायुतंत्र कमजोर, पेट कमजोर होगा। माता-पिता का बुध कमजोर होने पर भी बालक को उपरोक्त बीमारियां हो सकती है। अतः मां-बाप नाड़ी शोधन करें। हरी घास पर टहलें। पत्तेदार हरी सब्जियों का सेवन करें। बहन एवं बुआ का सम्मान करें। बुध कमजोर होने से गणित कमजोर हो जायेगा। घर की उत्तर दिशा स्वच्छ रखें। आठवां महीना: इस महीने में मणिबंध के पास अंगूठे के नीचे एवं कनिष्ठिका अंगुली के प्रथम एवं द्वितीय पोर को दबाते रहें। नींद की दवाई नहीं लें। घर की नाली साफ रखें। नवग्रह मंत्र का जप एवं पूजन करें। कुत्ते को रोटी दें। गहरी सांस लेकर ‘ऊं’ का जप करें। गणित की पढ़ाई न आये तब भी सरल रूप में करें। सूर्यास्त के बाद गरिष्ठ भोजन नहीं लें। इस महीने लोहे का कड़ा उतार दें। दूध में केला डालकर ग्रहण करें। जल में बेलपत्र डालकर नहाएं। गायत्री मंत्र का जप करें। पिता का सुबह शाम चरण स्पर्श करें, इससे सूर्य मजबूत होंगे। माता का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लें, इससे चंद्र मजबूत होगा। भाईयों से प्रेम रखें। बड़े भाई का चरण छूकर आशीर्वाद लें। इससे मंगल बलवान होगा। बहन, बुआ, बेटी का सम्मान करें, उपहार दें। लटजीरा की तीन पत्तियां किसी बुधवार को गर्भिणी को खिला दें। बुध बलवान होगा। गुरु, ब्राह्मण, विद्वान का सम्मान करें। सदैव गुरु का चिंतन करें। बृहस्पति बलवान होगा। स्त्री का सम्मान करें। गाय को रोटी दें। शुक्र मजबूत होगा। नौकर, सेवक एवं अधीनस्थों को प्रसन्न रखें। उनकी दुआएं लें। शनि बलवान होगा। भंगी, मेहतर को दान देते रहें। भैरव मंदिर में प्रसाद चढ़ावें, कुत्ते को रोटी दें। इससे राहु बलवान होंगे। इस प्रकार नवग्रह को प्रसन्न करने से निश्चित ही आने वाले शिशु के ग्रह उसे आशीर्वाद देंगे तथा उसकी कुंडली में अच्छी स्थिति का निर्माण करेंगे। प्रारब्ध के ग्रह उसके कुछ अनुकूल बन सकते हैं। यह माता के हाथ में है। जीव को तो अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। चाहे वह शंकराचार्य हों या स्वामी रामकृष्ण परमहंस हों। भगवान भी मानवतन धारण किये तो कुछ कष्ट उन्हें भी सहने पड़ें। नौवा महीना: नौवें माह में ‘ऊं’ का जाप करते रहें। महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। अपने इष्ट का ध्यान करें। चांदी का छल्ला पहने रहें। दूध, केला लेते रहें। गर्भ में बालक के रहने पर माता को नवग्रह मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए। यदि संभव हो तो ‘विष्णुसहस्रनाम’ का पाठ करें। क्योंकि यह पाठ सारे पापों का विनाशक है। यदि गर्भिणी सारे नियमों का उपरोक्तानुसार पालन करती है तो निश्चित रूप से उसके गर्भ में जो जीव है उसके संचित या प्रारब्ध के पापों का क्षय हो जायेगा क्योंकि एक ही उपाय है इश्वर की भक्ति तथा संत की शरण। उसके शिशु को गर्भ से ही नवग्रहों का आशीर्वाद प्राप्त होता रहेगा। इस प्रकार जो जीव जनम लेगा वह स्वयं के लिए तो भाग्यशाली होगा, साथ ही साथ माता-पिता के लिए भी एवं राष्ट्र के लिए महान व्यक्ति होगा।
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