ऋषि मुनियों ने बृहस्पति की कल्पना ऐसे पुरूष के रूप में की है जो बृहदकाय, विद्वान, सात्विक एवं मिष्ठानप्रिय है। बृहस्पति देव की कृपा के बिना किसी भी जातक का जीवन सुखी एवं संतुष्ट होना असंभव है। जन्मकुंडली में बृहस्पति कर्क, धनु, मीन राशियों तथा केंद्र 1,4,7,10 या त्रिकोण 5,9 भावों में स्थित होने पर शुभ फल देने वाला और योगकारक कहा गया है। आइए जानते हैं कि किस प्रकार जन्म व चंद्र कुंडली में शुभ प्रभाव में स्थित देव गुरु बृहस्पति जातक को विद्यावान, धनवान, सद्चरित्रवान एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाता है। सौरमंडल के केंद्र, सूर्य के बाद विशाल आकार में बृहस्पति का स्थान आता है। यह सूर्य के अतिरिक्त शेष सभी ग्रहों से विशालकाय ग्रह है। ऋषि महात्मा ने बृहस्पति की कल्पना ऐसे पुरूष के रूप में की जो बृहद्काय विद्वान सात्विक एवं मिष्ठानप्रिय है। बिना बृहस्पति की कृपा दृष्टि के किसी भी जातक का जीवन सुखी और संतुष्ट होना असंभव है। भगवान विष्णु ने इन्हें लोक कल्याण के जो कार्य सौंपे हैं उनके अनुसार यह ग्रह लोक को एक दार्शनिक, आध्यात्मिक मार्ग का निर्देशन देता है और लोगों में धर्म, मर्यादा, सामाजिक कला, पितृ भक्ति, गुरु भक्ति और देव भक्ति की आध्यात्मिक भावना जागृत करता है। किसी जातक की कुंडली में शुभ बलि एवं दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा बृहस्पति उनके लिए वरदान है। इस रूप में बृहस्पति बुद्धि, सदव्यवहार, सम्मान, धन संपत्ति, पुत्र प्राप्ति, नैतिकता और उच्च तार्किक क्षमता आदि का दाता कारक एवं संचालक होता है। फलदीपिका में मंत्रेश्वर महाराज ने कहा है बृहस्पति लग्न वा चंद्र लग्न से दूसरे, पांचवें, नौवें, दसवें व ग्यारहवें भावों का कारक भी होता है। सबसे विशेष बात यह है कि बृहस्पति मूलतः सात्विक ग्रह होने के कारण जातक को यह ग्रह भौतिक सुख समृद्धि का विरोध नहीं करता है। हां, अलबता यह पूरी तरह भौतिकता में डूबे व्यक्ति को धर्म और अपनी मर्यादाओं का अहसास जरूर करवा देता है। उपरोक्त स्थिति के विपरीत यदि बृहस्पति कुंडली में बलहीन और दुष्प्रभावित होकर बैठा हो तो संबंधित जातक के लिए अभिशाप होता हैं ऐसी स्थिति में जातक मानवीय और धार्मिक भावनाओं से वंचित हो जाता है और अपना विवेक खो देता है और उसकी अंतरात्मा गूंगी हो जाती है। जन्मकुंडली में बृहस्पति कर्क, धनु, मीन राशियों तथा केंद्र (1, 4, 7, 10) या त्रिकोण (5, 9) भावों में स्थित होने पर शुभ फल देने वाला और योग कारक कहा गया है। बृहस्पति की केंद्रस्थ स्थिति की महत्ता इतनी अधिक है कि उत्तर कालामृत में कालीदास ने लिखा है कि ”किं कुर्वति सर्वेग्रहा यष्य केन्द्रे बृहस्पति“ अर्थात सब प्रतिकूल ग्रह मिलकर भी जातक का क्या बिगाड़ लेंगे जिसके केंद्र में बृहस्पति हो। उक्त स्थितियों में यदि बृहस्पति चंद्रमा या शुक्र या दोनों के साथ हो या उनकी शुभ दृष्टि में हो अथवा चंद्रमा से केंद्र में हो तो अत्यंत प्रभावशाली योग बनताता है। कुछ ज्योतिर्विदों ने केंद्र भाव के स्वामी होने पर बृहस्पति को अशुभ माना है और वह यदि स्व राशि में केंद्र में स्थित हो तो मारक माना है। उन विद्वानों का मत है कि बृहस्पति की यह मारक स्थिति अपनी राशि में लग्न से दसवें भाव में स्थित होने पर सर्वाधिक घातक होती है। लेकिन हम इससे सहमत नहीं है और इसके विपरीत केंद्र में स्वराशि में स्थित बृहस्पति हंस योग बनाता है जो जातक को दीर्घायु स्वस्थ सुखी और प्रतिष्ठित तथा संपन्न बनाता है। इसी प्रकार बृहस्पति यदि छठे भाव में स्थित हो तो जातक के लिए शत्रुनाशक होता हैं अष्टम भाव में बैठा बृहस्पति यद्यपि जातक को दीर्घायु बनाता है लेकिन कुछ विद्वानों के मतानुसार बृहस्पति धन संपत्ति का नाश करके जातक को गरीबी की ओर धकेल देता है। यहां भी हम सहमत नहीं है अष्टम भाव में बैठा बृहस्पति जातक को धनवान, बुद्धिमान एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाता है क्योंकि अष्टम भाव में स्थित बृहस्पति द्वितीय एवं चतुर्थ स्थान को देखकर उन भावों को पुष्ट करता है तथा षष्ठ से द्वादश एवं द्वितीय स्थान को दृष्टिपात करके लग्न को ‘शृभ मध्यत्तव’ का लाभ पहुंचाता है जिससे लग्न भाव को बल मिलता है। लग्न बलशाली होने से मनुष्य के जीवन में मूल्य की प्राप्ति होती है जो उसे स्वास्थ्य, बुद्धिमान, धनवान, सदचरित्रवान एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाता है। इसके अतिरिक्त द्वितीय स्थान का शासन से घनिष्ट संबंध है और द्वितीयेश का केंद्रादि में स्थित होकर बलवान होना राज्य की प्राप्ति करवाता है। आइए जानते हैं कि किस प्रकार जन्म व चंद्र कुंडली में शुभ प्रभाव में स्थित देव गुरु बृहस्पति व्यक्ति को विद्यावान, धनवान सदचरित्रवान एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाता है।
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