Sunday, 12 April 2015

राशि और नाम


जन्म राशि के आधार पर शादी-ब्याह, सभी मंगल कार्य, ग्रहों के शुभ-अशुभ प्रभाव और वास्तविक स्थिति पर विचार किया जाता है. हिन्दू धर्म संस्कारों में नामकरण इसी राशि नाम से जुड़ा हुआ है. नाम के साथ मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है. नाम से संबंधित राशि का प्रभाव व्यक्ति पर अवश्य पड़ता है. सभी राशियों का अलग-अलग प्रभाव और स्वभाव होता है. इसी के अनुसार सभी ग्रह और नक्षत्र हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं. कौन-कौन से नाम अक्षर किस राशि के लिए उपयुक्त होते हैं वह इस प्रकार हैं -
मेष राशि: मेष राशि भचक्र की पहली राशि होती है. यह अग्नि तत्व राशि है, इसका स्वामी मंगल अग्नि ग्रह है, मेष राशि के जातक ओजस्वी, साहसी तथा दृढ इच्छाशक्ति वाले होते हैं. मेष राशि वाले व्यक्तियों के नाम के अक्षर की शुरूआत चू, चे, चो, ला, ली, लू, ले, लो, आ अक्षर से होती है.
वृष राशि: वृषभ राशि दूसरी राशि है. यह पृथ्वी तत्व राशि है अत: इस राशि के जातकों में सहन शक्ति अच्छी होती है तथा यह लोग व्यवहारिक होते हैं. इस प्रकार के लोग सामाजिक होते हैं और अन्य लोगों को आदर की नजर से देखते है तथा सत्कार करने में हमेशा आगे रहते हैं. इनके नाम के अक्षर की शुरुआत ई, ऊ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो अक्षरों से होती है.
मिथुन राशि: मिथुन राशि तीसरी राशि है यह द्विस्वभाव वाली राशि होती है. इस राशि के जातक में बहुमुखी प्रतिभा होती है. कार्य को जल्दी और चतुरायी से करने की क्षमता रखते हैं. संवेदनशीलता और चंचलता इनके व्यक्तित्व में समाहित है. इनके नाम के अक्षर की शुरुआत - का, की, कू, घ, ङ, छ, के, को, ह जैसे अक्षरों से होती है.
कर्क राशि: राशि चक्र की चौथी राशि है. कर्क राशि वालों में अपने विचारों के प्रति दृढ़ रहने की शक्ति होती है. इनमें अपार कल्पना शक्ति होती है, स्मरण शक्ति बहुत तीव्र होती है, इनके नाम के अक्षर की शुरुआत -ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे, डो अक्षरों से होती है.
सिंह राशि: यह राशिचक्र की पांचवीं राशि है. इस राशि वाले लोग जुबान के पक्के होते हैं, शाही जीवन जीना पसंद होता है. मर्यादा में रहना अच्छा लगता है और निडर होते हैं. इस राशि के नाम के अक्षर की शुरुआत- मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू, टे जैसे अक्षरों से होती है.
कन्या राशि: यह भचक्र की छठी राशि है. इस राशि के जातक दिमाग की अपेक्षा ह्रदय से काम लेना अधिक पसंद करते हैं. इस राशि के लोग संकोची और शर्मीले स्वभाव के होते हैं. इस राशि के नाम के अक्षर की शुरूआत - ढो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो अक्षरों से होते हैं.
तुला राशि: यह भचक्र की सातवीं राशि है. तुला राशि के जातक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं. जीवन की कठिन परिस्थितियों को भी सहजता से लेते है. इस राशि का जातक सुलझा हुआ होता है तथा कूटनितिज्ञता से युक्त होता है. निर्णय लेने से पूर्व खूब सोच-विचार कर लेना उचित समझते है. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते अक्षरों से होती है.
वृश्चिक राशि: यह आठवीं राशि है. इस राशि के जातकों का स्वभाव रहस्यमयी होता है. इस राशि के व्यक्ति गहरी भावनाओं से युक्त होते है. इस राशि के व्यक्ति सोच विचार कर बोलने वाले होते हैं. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत - तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू अक्षरों से होती है.
धनु राशि: यह राशिचक्र की नवीं राशि होती है. इस राशि के जातक में फुर्तीलापन देखा जा सकता है. ओज पूर्ण एवं आशावादी होते है. उत्तम वक्ता और सक्रिय रहते है. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत - ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे अक्षरों से होती है.
मकर राशि: यह राशिचक्र की दसवीं राशि है. इस राशि के जातक व्यवहारिक होते हैं. मजबूते इरादों वाले तथा आगे बढऩे की उच्च महत्वाकांक्षा से पूर्ण होते हैं. इनमें जीवन शक्ति की अधिकता होती है. परिस्थितियों से समझौता करने में कुशल होते हैं. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत - भो, जा, जी, खी, खू, खे, खो, गा, गी अक्षरों से होती है.
कुंभ राशि: यह भचक्र की ग्यारहवीं राशि है. इस राशि के जातकों को स्वतन्त्र रुप से कार्य करना पसन्द होता है. इनमें अच्छे मित्र बनाने का गुण विद्यमान होता है. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत - गू, गे, गो, सा, सी, सू, से, सो, दा जैसे अक्षरों से होती है.
मीन राशि: यह चक्र की बारहवीं राशि है. इस राशि के जातक धार्मिक, भगवान से डरने वाले होते है. इनके भीतर संयमी, रुढ़ीवादी, अन्तर्मुखी एहसास देखा जा सकता है. इस राशि के नाम अक्षरों की शुरुआत - दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा, ची अक्षरों से होती है.

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यक्ष लोक




भारतीय साधना या यूँ कहे तो साधना जगत में कुछ ऐसे ज्ञान की दृष्टी से आयाम हैं जिन पर एक आदमी तो क्या समाज के उच्च संभ्रांत वर्ग के व्यक्ति भी विश्वास नहीं कर पायेगें या करते हैं, उसे मन गढ़ंत या कपोल कल्पना ही मानते हैं और अभी तक मानते आये भी हैं पर प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा के आधार पर तो ये अत्यंत गोपनीय उच्च रहस्य केवल इसलिए तो दिखाए जा सकते कि कोई कहता हैं कि मैं नहीं मानता व्यक्ति को अपनी योग्यता, स्वयं सिद्ध करनी पढ़ती हैं या पड़ेगी केवल ये कहने मात्र कि मैं नहीं मानता से तो जीवन में कुछ उपलब्ध, खास कर इन विषयों का नहीं हो पायेगा।
हमारे साधनात्मक ग्रन्थ ही नहीं अनेको पवित्र किताबो में अनेको लोक लोकांतर, आयामों की चर्चा बार बार आई हैं जैसे भुव: लोक, जन लोक, सत्य लोक, तप लोक और इनके साथ अनेक ऐसे लोकों के नाम भी लगातार आते रहे हैं जैसे गन्धर्व लोक, यक्ष लोक, पित्र लोक, देव लोक और इन सभी की इस दृश्य/अदृश्य ब्रम्हांड में उपस्थिति हैं ही। मानव त्रिआयामात्मक हैं वही इनमें से अनके लोक या उनमें निवासरत व्यक्तित्व द्वि आयामात्मक हैं इस तथ्य का कोई सत्यता या प्रमाण हैं क्या? सबसे साधारणत तो हम सोचे कि हमारे पूर्वजो को यह सब लिख कर क्या फायदा होना था, क्या वे हमें दिग्भ्रमित करना चाहते थे (उन्हें इससे क्या लाभ होता), क्या उन्हें कोई रायल्टी मिल रही थी कि चलो लिख दो। ऐसा कुछ भी नहीं हैं यह तो हमारी सोच ही पंगु हो गयी हैं इस कारण हम हर चीज तथ्य कि सत्यता का प्रमाण मांगते रहते हैं। देख कर तो कोई भी मान लेगा, धन्य हैं वह जो बिना देखे मान लेता है। यहाँ पर अवैज्ञानिक होने को नहीं कह रहे हैं, पर प्रारंभ में तो ऐसा करना पड़ेगा ही। हम में से अनेक गणित के प्रश्न हल करते हैं ही उसमे तो पहली लाइन होती हैं कि मानलो ये वस्तु कि कीमत बराबर हैं तो जब कि हम सभी जानते हैं वह वस्तु कि कीमत, बराबर कभी नहीं होता हैं, पर अगर ये भी ना माने तो वह प्रश्न हल कैसे हो।
ये सभी लोक (यक्ष लोक) भी हमारे बहुत पास हैं यु कहे तो हमारे साथ ही साथ खड़ा है बस आयाम अलग हैं दूसरे अर्थो में कहे तो यथा पिंडे तथा ब्रम्हांड कि अब तक की धारणा के हिसाब से तो हमारे अन्दर ही है। ऐसे अनेको उदाहरण यदा कदा पाए गए हैं जब किसी अगोचर प्राणी या व्यक्ति ने अचानक मदद की हैं, अब इस तथ्य के प्रमाण के बारे में तो उसी से पूछिए, हर अंतर्मन की बातों का कोई प्रमाण तो नहीं है। वास्तव में यक्ष या यक्षिणी एक शापित देव/ देवी हैं जो किसी गलती या अपराध के कारण इस योनी में आ गए हैं और जब तक वे एक निश्चित संख्या में मानव लोक के निवासरत व्यक्तियों की सहायता न कर ले, वे इस से मुक्त नहीं हो सकते हैं। इन्हें भूत प्रेत पिशाच वर्ग के समकक्ष न माने, और वैसे भी भूत प्रेत डरावने नहीं होते हैं इन वर्गों के बारे में एक तो हमारा चिंतन स्वथ्य नहीं है साथ ही साथ हमारा स्वानुभूत ज्ञान भी इस ओर नगण्य है, जो भी या जिसे भी हम ज्ञान मानते आये हैं वह रटी रटाई विद्या है उसमें हमारा स्वानुभूत ज्ञान कहाँ हैं, तीसरा, जो मन में बाल्यकाल से भय बिठा दिया गया हैं वह भी समय समय पर सामने सर उठाता ही रहता है। हमारी अपनी ही कल्पना हमें भय कम्पित करती रहती है।
हम में से अधिकाश ने महान रस विज्ञानी नागार्जुन के बारे में तो सुना ही होगा उन्होंने लगभग 12 वर्ष की कठिन साधना से वट यक्षिणी साधना संपन्न की और पारद/ रस विज्ञान के अद्भुत रहस्य प्राप्तकर इतिहास में एक अमर व्यक्तित्व रूप में आज भी अमर है। ये यक्ष लोक से सबंधित साधनाए अत्यंत सरल हैं इन्हें कोई भी स्त्री या पुरुष, बालक या बालिका आसानी से संपन्न कर सकता है। यक्ष लोक के निवासी अत्यंत ही मनोहारी होते हैं साथ ही साथ वैभव और विलास के प्रति उनकी रूचि अधिक होती है, हमेशा उत्सव में या जहाँ उत्सव हो रहे हों वहां उपस्थित रहते हैं इसका साधारणत: अर्थ तो यही हैं की माधुर्यता और आनंदता इनके मूल में ही समाहित हैं पर इनकी वेश भूषा हमसे इतनी अधिक मिलती हैं की इन्हें पहचान पाना बेहद कठिन है।
यह अद्भुत आश्चर्य जनक तथ्य है कि हर किताब इनके बारे में एक भय का निर्माण करती हैं, हमें इसके बारे में चेतावनी देती हैं, इन साधनाओ को न किया जाये, करने पर यह या वह हो सकता है, और उस साधक के साथ तो ऐसा हुआ। हम दीपावली की रात्रि को कुबेर (यक्ष और यक्षिणीयों के अधिपति हैं) का पूजन क्यों करते हैं कारण एक दम साफ है की वे देवताओं के प्रमुख खजांची माने गए हैं और उनकी साधना उपसना से भौतिक सफलता के नए आयाम जीवन में खुल जाते हैं, यक्षिणी वर्ग नृत्य कला में भी अपना कौशल रखता हैं और वे अपने नृत्य के मध्यम से साधक को प्रसन्नचित्त बनाये रखती हैं साथ ही साथ यदि साधक चाहे तो इनसे ये भारतीय संस्कृति की अद्भुत कला विद्याये सीख भी सकता हैं।
यह लोक भी हमारे साथ ही उपस्थित हैं पर उसका आयाम अलग हैं साधन के माध्यम से आयाम भेद मिट जाता हैं। हमारी आँखों में यह क्षमता जाती हैं की हम इस लोक या अन्य लोकों भी देख सकते हैं, आप के और हम सभी के ऊपर जब हमारे आध्यात्मिक पिता का वरद हस्त हैं तो आगे बढे आपको सफलता प्राप्त होगी ही।

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विवाह योग





वस्तुत: ज्योतिषशास्त्र मानता है कि जब विवाह योग बनते हैं, तब यदि उन्हें टाल दिया जाए तो आगे विवाह में बहुत देरी हो जाती है। कई मर्तबा तो विवाह करना चिंता का विषय बन जाता है। वैसे विवाह में देरी होने का एक कारण जातकों का मंगली होना भी है। ऐसे में जिन जातकों के विवाह में विलंब हो जाता है, उनके ग्रहों की दशा ज्ञात कर विवाह योग का काल जाना जा सकता है। आचार्यों के अनुसार जिस वर्ष शनि और गुरु दोनों सप्तम भाव या लग्न को देखते हों, तब विवाह के योग बनते हैं। सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह की महादशा-अंतरदशा में विवाह संभव है। सप्तमेश की महादशा-अंतरदशा या शुक्र-गुरु की महादशा-अंतरदशा में विवाह का प्रबल योग रहता है।
विवाह के शुभाशुभ योग: सप्तम भाव का स्वामी अपने भाव में बैठकर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है तो विवाह के योग बनते हैं। किसी अन्य पाप ग्रह की दृष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर न हो तो विवाह के योग बनते हैं। कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा न हो तो शीघ्र विवाह के योग बनते हैं।
यदि सप्तम भाव में सम राशि हो अथवा सप्तमेश और शुक्र सम राशि में हों तो। सप्तमेश बली हो तो शीघ्र विवाह होता है। दूसरे, सातवें व बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु से दृष्ट हों तो।
सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में क्रूर ग्रह न हो तो विवाह के योग बनते हैं। विवाह कब होगा इस प्रश्न का विचार करने के लिए द्वितीय, सप्तम, तथा एकादश भाव में कौन से ग्रह हैं इनको देखा जाता है। विवाह का विचार सप्तम भाव के साथ साथ द्वितीय और एकादश भाव से भी किया जाता है। सप्तम भाव जीवनसाथी, संधि, और साझेदारी का घर होता है अत: विवाह के विषय में इस भाव से विचार किया जाता है। भारतीयदर्शन में विवाह को, सम्बन्ध में वृद्धि की दृष्टि से भी देखा जाता है अत: एकादश भाव से भी विचार किया जाता है। इन भावों के नक्षत्र कौन कौन से हैं इन भावों के स्वामी के नक्षत्र में स्थित ग्रह इन भावो के स्वामी तथा इन भाव में स्थित ग्रह के मध्य दृष्टि और युति सम्बन्ध को भी देखा जाता है।
प्रश्न ज्योतिष में विवाह के लिए शुभ स्थिति: विवाह का कारक स्त्री की कुण्डली मे गुरू और पुरूष की कुण्डली में शुक्र होता है। प्रश्न ज्योतिष में विवाह का विचार करते समय पुरूष की कुण्डली में चन्द्र और शुक्र को देखा जाता है तो स्त्री की कुण्डली में सूर्य और मंगल को देखा है। प्रश्न कुण्डली के कुछ सामान्य नियम हैं जिनके अनुसार चन्द्रमा जब तृतीय, पंचम, षष्टम, सप्तम और एकादश भाव में होता है और गुरू, सूर्य एवं बुध उसे देखता है तो विवाह की शुभ स्थिति बनती है। अगर त्रिकोण स्थान पंचम और नवम तथा केन्द्र स्थान यानी प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव शुभ प्रभाव में हो तो विवाह जल्दी होने की संभावना बनती है। लग्न में अगर कोई स्त्री ग्रह हो अथवा लग्न और नवम में स्त्री राशि हो तथा चन्द्र व शुक्र इन भावों में बैठकर एक दूसरे को देखते हों तब विवाह का शुभ संयोग बनता है। प्रश्न कुण्डली में लग्न का स्वामी और चन्द्र अथवा शुक्र सप्तम में स्थित होता है और सप्तम भाव का स्वामी लग्न में आकर बैठता है तो शहनाई गूंजती है। लग्न में गुरू और सातवे घर में बुध बैठा हो तथा चन्द्रमा अपने घर में हो, सूर्य दसवें घर में और शुक्र दूसरे घर में बैठा हो, तब विवाह का शुभ संयोग बनता है। अगर आप किसी से बहुत अधिक प्यार करते हैं और जानना चाहते है कि आपकी शादी उससे होगी या नहीं उस स्थिति में अगर प्रश्न कुण्डली में चन्द्रमा तृतीय, छठे, सातवें, दशवें अथवा ग्यारहवें घर में शुभ स्थिति में हो और सूर्य, बुध और गुरू उसे देख रहे हों तो शुभ संकेत समझना चाहिए अगर ऐसा नहीं हो तब प्रथम और सप्तम स्थान के स्वामी एवं प्रथम और द्वादश भाव के स्वामी को देखना चाहिए। अगर इन दोनों भावों के स्वामी एक दूसरे के घर में स्थान परिवर्तन कर रहे हैं तब भी प्रेम विवाह की पूरी संभावना बनती है।
विवाह समय निर्धारण: कुण्डली में विवाह के योग के लिये सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र से संबंध बनाने वाले ग्रहों का विश्लेषण किया जाता है। जन्म कुण्डली में जो भी ग्रह अशुभ या पापी ग्रह होकर इन ग्रहों से दृष्टि, युति या स्थिति के प्रभाव से इन ग्रहों से संबंध बना रहा होता है वह ग्रह विवाह में विलम्ब का कारण बन रहा होता है। इसलिये सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव जितना अधिक हो, उतना ही शुभ रहता है तथा अशुभ ग्रहों का प्रभाव न होना भी विवाह का समय पर होने के लिये सही रहता है। क्योकि अशुभ/ पापी ग्रह जब भी इन तीनों को या इन तीनों में से किसी एक को प्रभावित करते है, विवाह की अवधि में देरी होती ही है।
जन्म कुण्डली में जब योगों के आधार पर विवाह की आयु निर्धारित हो जाये तो, उसके बाद विवाह के कारक ग्रह शुक्र व विवाह के मुख्य भाव व सहायक भावों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है। विवाह के समय निर्धारण में दशाओ का योग:
1. सप्तमेश की दशा- अन्तर्दशा में विवाह: जब कुण्डली के योग विवाह की संभावनाएं बना रहे हों, तथा व्यक्ति की ग्रह दशा में सप्तमेश का संबंध शुक्र से हो तों इस अवधि में विवाह होता है। इसके अलावा जब सप्तमेश जब द्वितीयेश के साथ ग्रह दशा में संबंध बना रहे हों, उस स्थिति में भी विवाह होने के योग बनते है।
2. सप्तमेश में नवमेश की दशा- अन्तद्र्शा में विवाह: ग्रह दशा का संबंध जब सप्तमेश व नवमेश का आ रहा हों तथा ये दोनों जन्म कुण्डली में पंचमेश से भी संबंध बनाते हों तो इस ग्रह दशा में प्रेम विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
3. सप्तम भाव में स्थित ग्रहों की दशा में विवाह: सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित हो या उनसे पूर्ण दृष्टि संबंध बना रहे हों, उन सभी ग्रहों की दशा - अन्तर्दशा में विवाह हो सकता है।
इसके अलावा निम्न योगों में विवाह होने की संभावनाएं बनती है:
क) सप्तम भाव में स्थित ग्रह, सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर शुभ भाव में हों तो व्यक्ति का विवाह संबंधित ग्रह दशा की आरम्भ की अवधि में विवाह होने की संभावनाएं बनाती है।
ख) शुक्र, सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर अशुभ भाव या अशुभ ग्रह की राशि में स्थित होने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा के मध्य भाग में विवाह की संभावनाएं बनाता है।
ग) इसके अतिरिक्त जब अशुभ ग्रह बली होकर सप्तम भाव में स्थित हों या स्वयं सप्तमेश हों तो इस ग्रह की दशा के अन्तिम भाग में विवाह संभावित होता है।
4. शुक्र का ग्रह दशा से संबंध होने पर विवाह: जब विवाह कारक ग्रह शुक्र नैसर्गिक रुप से शुभ हों, शुभ राशि, शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट हो तो गोचर में शनि, गुरु से संबंध बनाने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने का संकेत करता है।
5. सप्तमेश के मित्रों की ग्रह दशा में विवाह: जब किसी व्यक्ति कि विवाह योग्य आयु हों तथा महादशा का स्वामी सप्तमेश का मित्र हों, शुभ ग्रह हों व साथ ही साथ सप्तमेश या शुक्र से सप्तम भाव में स्थित हों, तो इस महादशा में व्यक्ति के विवाह होने के योग बनते है।
6. सप्तम व सप्तमेश से दृष्ट ग्रहों की दशा में विवाह: सप्तम भाव को क्योंकि विवाह का भाव कहा गया है। सप्तमेश इस भाव का स्वामी होता है इसलिये जो ग्रह बली होकर इन सप्तम भाव, सप्तमेश से दृष्टि संबंध बनाते है, उन ग्रहों की दशा अवधि में विवाह की संभावनाएं बनती है।
7. लग्नेश व सप्तमेश की दशा में विवाह: लग्नेश की दशा में सप्तमेश की अन्तर्दशा में भी विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
8. शुक्र की शुभ स्थिति: किसी व्यक्ति की कुण्डली में जब शुक्र शुभ ग्रह की राशि तथा शुभ भाव (केन्द्र, त्रिकोण) में स्थित हों, तो शुक्र का संबंध अन्तर्दशा या प्रत्यन्तर दशा से आने पर विवाह हो सकता है। कुण्डली में शुक्र पर जितना कम पाप प्रभाव कम होता है वैवाहिक जीवन के सुख में उतनी ही अधिक वृ्द्धि होती है।
9. शुक्र से युति करने वाले ग्रहों की दशा में विवाह: शुक्र से युति करने वाले सभी ग्रह, सप्तमेश का मित्र, अथवा प्रत्येक वह ग्रह जो बली हों, तथा इनमें से किसी के साथ दृष्टि संबंध बना रहा हों, उन सभी ग्रहों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है।
10. शुक्र का नक्षत्रपति की दशा में विवाह: जन्म कुण्डली में शुक्र जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हों, उस ग्रह की दशा अवधि में विवाह होने की संभावनाएँ बनती है।
प्रेम विवाह-योग:
1. राहु के योग से प्रेम विवाह की संभावनाएं: जब राहु लग्न में हो परन्तु सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि हो तो व्यक्ति का प्रेम विवाह होने की संभावनाए बनती है। राहु का संबंध विवाह भाव से होने पर व्यक्ति पारिवारिक परम्परा से हटकर विवाह करने का सोचता है। राहु को स्वभाव से संस्कृति व लीक से हटकर कार्य करने की प्रवृति का माना जाता है। जब जन्म कुण्डली में मंगल का शनि अथवा राहु से संबन्ध या युति हो रही हों तब भी प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है। कुण्डली के सभी ग्रहों में इन तीन ग्रहों को सबसे अधिक अशुभ व पापी ग्रह माना गया है इन तीनों ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब विवाह भाव, भावेश से संबंध बनाता है तो व्यक्ति के अपने परिवार की सहमति के विरुद्ध जाकर विवाह करने की संभावनाएं बनती है।
जिस व्यक्ति की कुण्डली में सप्तमेश व शुक्र पर शनि या राहु की दृष्टि हो, उसके प्रेम विवाह करने की सम्भावनाएं बनती है। जब पंचम भाव के स्वामी की उच्च राशि में राहु या केतु स्थित हों तब भी व्यक्ति के प्रेम विवाह के योग बनते है।
मांगलिक दोष एवं उसका निदान: विवाह के अवसर पर वर एवं वधू की कुण्डली मिलान करते समय अष्टकूट के साथ-साथ मांगलिक दोष पर भी विचार किया जाता है। इसे शास्त्रों में कुज दोष या भौम दोष का नाम भी दिया गया है। इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि इसका भय दूर हो सके। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तो मंगल दोष माना जाता है। विद्वानों ने राशि से भी उक्त स्थानों पर मंगल के होने पर यह दोष बताया है। किसी भी जातक पत्रिका में यह योग हो तो उस कुण्डली या जातक को मंगली कहा जाता है। वर-वधू में से किसी एक की कुण्डली के इन भावों में मंगल हो तथा दूसरे की पत्रिका में नहीं तो ऐसी परिस्थिति को वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है तथा ज्योतिषी उन दोनों का विवाह न करने की सलाह दे देते हैं। यदि वर-वधू दोनों की कुण्डली में उक्त दोष हो तो विवाह करना शुभ समझा जाता है। यह दोष तब और प्रबल हो जाता है जब जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ अन्य क्रूर ग्रह (शनि, राहू, केतु) बैठे हों। बृहत् पाराशर के अनुसार विकल: पाप संयुत: अर्थात पापी ग्रह से युक्त ग्रह विकल अवस्था का होगा तथा दोष कारक होगा। अत: शनि या राहु की युति से मांगलिक दोष में अभिवृद्धि हो जाती है।
''नीचादी दु:स्थगे भूमिसुते बलविवर्जिते।
पापयुक्ते पापदृष्टे सादशा नेष्टदायिका।। (बृहत् पाराशर होराशास्त्र)
मंगल दोष को लेकर भ्रम: मंगल ग्रह को ज्योतिष ग्रंथों में रक्त प्रिय एवम हिंसा व विवाद का कारक कहा गया है। सातवाँ भाव जीवन साथी एवम गृहस्थ सुख का है। वहीं प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश भावों में स्थित मंगल अपनी दृष्टि या स्थिति से सप्तम भाव अर्थात दाम्पत्य सुख को नुकसान पहुँचाता है। ऐसे में उपरोक्त स्थानों पर मंगल को देखकर वर या कन्या को तत्काल मंगली घोषित कर देते हैं, फिर चाहे मंगल नीच राशि में हो या उच्च में, मित्र राशि में हो या शत्रु में। मंगल दोष के परिहार को या तो अनदेखा किया जाता है या शास्त्रीय नियमों की अवहेलना करने वाले परिहार वाक्यों को लागू कर त्रुटियुक्त मिलान कर दिया जाता है। ऐसे में परिणाम भावी युगल एवं उनके परिवार को भोगना पड़ता है। अत: जरूरी है कि इन भावों में और मंगल को समझ लिया जाए।
लग्न भाव तथा मंगलदोष: लग्न (प्रथम) भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है। लग्न में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है। यह मंगल जिद्दी और आक्रमक भी बनाता है। इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है। सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है। अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है।
चतुर्थ भाव तथा मंगलदोष: चतुर्थ में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है। यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है। मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है। मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है। मंगली दोष के कारण पति-पत्नी के बीच दूरियाँ बढ़ जाती हैं और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है।
सप्तम भाव तथा मंगलदोष: यह भाव जीवनसाथी का कारक होता है। इसमें बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है। यहाँ से मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है। जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है। यह मंगल लग्न, धन एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। इस वजह से आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की आशंका बनती है। यह चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेतर सम्बन्ध भी बनाने के योग प्रबल कर देता है। पति-पत्नी में दूरियाँ बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं। संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है।
अष्टम भाव तथा मंगलदोष:
यह स्थान दु:ख, कष्ट, संकट एवं आयु का होता है। इसमें मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है। अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है। जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है। धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है। रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है। ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंगलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है। इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है। मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।
द्वादश भाव तथा मंगलदोष:
कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है। इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है। इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है। धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं। व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है। अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है। भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी आशंका रहती है।
मंगल दोष परिहार
फलित ज्योतिष के सर्वमान्य ग्रंथों के अनुसार जो ग्रह अपनी उच्च, मूल त्रिकोण, मित्र, स्वराशि, नवांश में स्थित, वर्गोत्तम, षड्बली, शुभ ग्रहों से युक्त-दृष्ट हो वह सदैव शुभकारक होता है। इसी प्रकार नीचस्थ,अस्त, शत्रु राशिस्थ,पापयुक्त, पाप दृष्ट,षड्बल विहीन ग्रह अशुभ कारक होता है।
''नीचारिगो भाव विनाश कृत्खग: सम: समक्र्षे सखिभे त्रिकोणभे।
स्वोच्चे स्वभे भावचयप्रद: फलदु:स्थेस्वसत्सत्सु विलोम:।। (ज्योतिष्तत्वम्)
''नीचस्थो रिपु राशिस्थ खेटो भावविनाशक:।
मूल स्व तुंग मित्रस्थो भाव वृद्धि करो भवेत। (जातक-पारिजात)
इसी प्रकार भाव मंञ्जरी में कहा गया है कि -''स्वीय तुंग सखि सदभ संस्थित पामरोऽपि यदि सत्फलम व्रजेत ।
अर्थात पाप ग्रह भी यदि स्व, उच्च, मित्र राशि, नवांश, वर्गोत्तम, शुभ युक्त, शुभ दृष्ट हो तो शुभता को देने वाला होता है। जातकमार्ग देश का भी यही मत है- ''पापग्रहा बलयुता: शुभवर्गस्थिता सौम्या भवन्ति शुभवर्गसौम्य दृष्टा:।
उपरोक्त सन्दर्भों से यह स्पष्ट है कि कुण्डली के 1, 4, 7, 8व 12 वें भाव में स्थित मंगल यदि स्व, उच्च, मित्र आदि राशि, नवांश का, वर्गोत्तम, षड्बली होकर शुभता से युक्त हो जाता है तो मांगलिक दोष का परिहार माना जाएगा।
इसी प्रकार सप्तम भाव का स्वामी बलवान हो तथा अपने भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो मांगलिक दोष का परिहार हो जाता है। इनके अतिरिक्त भी शास्त्रीय ग्रंथों मंगल दोष का परिहार माना गया है, जिसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है-
1. यदि मंगल इन भावों में स्व, उच्च, मित्र राशि: -नवांश का हो।
2. यदि मंगल इन भावों में वर्गोत्तम नवांश का हो।
3. यदि इन भावों में स्थित मंगल पर बलवान शुभ ग्रहों की पूर्ण दृष्टि हो।
इसके विपरीत एक विसंगतिपूर्ण मान्यता चल रही है कि वर-वधू की आयु के 28वर्ष बीत जाने पर मांगलिक दोष नहीं लगता। साथ ही मंगल के अशुभ फल समाप्त होकर मात्र शुभ फल प्रदान करता है। लेकिन उम्र के 28वर्ष बीतने के बाद भी मंगल अपनी महादशा, अन्तरदशा, प्रत्यंतर या गोचर में कभी भी अपना अशुभ फल प्रगट कर सकता है। अत: मांगलिक दोष के साथ ही इन बातों का भी अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
''नीचशत्रुगृहं प्राप्ता: शत्रु निम्नांश सूर्यगा:।
विवर्णा: पापसंबंधा दशां कुर्मुरशोभनाम।। (सारावली)
उपरोक्त तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि मांगलिक दोष का निर्णय वर-वधू की कुण्डलियों का सावधानीपूर्वक अनुशीलन करके करना चाहिए तथा जल्दबाजी से किसी परिणाम पर नहीं पहुँचना चाहिए।
मांगलिक दोष की निवृत्ति हेतु मंगल तथा अन्य ग्रहों की शांति एवं सफल वैवाहिक जीवन हेतु लडको का अर्क विवाह एवं कन्याओं हेतु कुंभ विवाह कराना चाहिए।

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निष्क्रमण संस्कार




निष्क्रमण का अर्थ है - बाहर निकालना। बच्चे को पहली बार जब घर से बाहर निकाला जाता है, उस समय निष्क्रमण-संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का फल विद्धानों ने शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है।
जन्म के चौथे मास में निष्क्रमण-संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कर्मेंन्द्रियों सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती हैं। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओं का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चंद्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बनता है, इसलिए बच्चे के कल्याण की कामना करते हुए कहा जाता है कि ''हे बालक! तेरे निष्क्रमण के समय भूलोक तथा पृथ्वीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हों। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो। दिव्य जल वाली गंगा-यमुना नदियाँ तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करें। निष्क्रमण संस्कार को सोलह संस्कारों में छठा स्थान प्राप्त है, अर्थात यह संस्कार सनातन धर्म में छठा संस्कार माना जाता है। नामकरण के पश्चात सनातन धर्म में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है।
यह संस्कार शिशु के जन्म से 12 वें दिन से लेकर 4 महीने तक कभी भी किया जा सकता है। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को ईश्वर की सुन्दर दुनिया से रूबरू करना है। इस संस्कार के अन्तर्गत शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाकर उनसे आशीर्वाद लेने का विधान है।
सूर्य से आशीर्वाद का उद्देश्य है कि शिशु को सूर्य देव के समान तेज प्राप्त हो और चन्द्रमा से कोमल हृदय और शीतलता प्राप्त हो। संक्षेप में कहें तो इस संस्कार के द्वारा ईश्वर से यह आशीर्वाद मांगा जाता है कि संतान तेजस्वी होने के साथ ही विनम्र हो। इस शुभ संस्कार को किस मुहुर्त में करना चाहिए इसके लिए ज्योतिषशास्त्री बताते है कि, ज्योतिषशास्त्र में इस संस्कार के लिए मुर्हुत ज्ञात करने हेतु कुछ नियम बताये गये हैं
नक्षत्र का आंकलन: यह संस्कार 12 वें दिन से 4 महीने तक कभी भी किया जा सकता है परंतु जिस दिन यह संस्कार करें उस दिन नक्षत्र के रूप में श्रवण, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, पुष्य, पुनर्वसु, अश्विनी, रेवती या घनिष्ठा में से कोई भी नक्षत्र मौजूद हो। इन नक्षत्रों को इस संस्कार हेतु बहुत ही शुभ माना जाता है।
तिथि: नक्षत्र के समान तिथि का आंकलन भी इसमें बहुत आवश्यक होता है। ज्योतिषशास्त्र कहता है निष्क्रमण संस्कार के लिए सभी तिथि शुभ होती है परंतु रिक्ता यानी चतुर्थ, नवम व चतुर्दशी तिथि इसके लिए शुभ नहीं मानी जाती है ज्योतिष विधा में इस तिथि का त्याग करने हेतु परामर्श दिया जाता है। इस शुभ शुभ संस्कार के लिए अमावस्या तिथि का त्याग करना चाहिए ऐसी सलाह भी दी जाती है। रिक्ता और अमावस्या को छोड़कर आप किसी भी तिथि में यह संस्कार कर सकते हैं।
वार: रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार इस संस्कार के लिए शुभ माने गये हैं। मंगलवार और शनिवार को इस संस्कार के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। इन दो वारों को छोड़कर किसी भी वार को अगर उपरोक्त तिथि व नक्षत्र हो तो यह संस्कार सम्पन्न कर सकते हैं।
निषेध: ज्योतिषशास्त्र में निष्क्रमण संस्कार के लिए तृतीय, पंचम व सप्तम का तारा शुभ नहीं माना गया है। भद्रा तिथि को भी इस कर्म हेतु अशुभ कहा गया है। जिस दिन अशुभ योग हो उस दिन यह संस्कार नही करना चाहिए ऐसा ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है।
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सास की बलि


सास की बलि
आज भी सुबह तड़के उठी सास नहा-धो कर पूजा वंदना करने जा रही थी, तभी बहू की आवाज आई- ''माँजी, आज चाय मिलेगी या नहीं? सास गंभीर शांत स्वभाव की मृदु भाषिणी परिपक्व स्त्री है, आज भी चुप रही। बहू आधुनिक युग की काम करने वाली, सदैव जल्दबाजी में रहने वाली और मुँहफट, गुस्सैल लड़की है, चुप रहना जैसे उसने सीखा ही नहीं है। वो आज भी चिल्लाती रही, परन्तु आज उसका गुस्सा चिल्लाने तक सीमित नहीं रहा, उसने देखा कि सास ने कुछ भी जवाब नहीं दिया और सूर्य देव को अघ्र्य देने जा रही है तो गुस्से में उसने सोचा कि आज एक ही बार से सास को सबक सिखाया जाए, ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी और क्रोध की अग्नि में रसोई घर में जाकर गैस का बटन खोल कर आ गई, ताकि जैसे ही सास रसोई में आकर चाय बनाने के लिए गैस जलाए तो ख़ुद भी जलकर राख हो जाए. और जाते-जाते सास को फि र से हुक्म सुनाती हुई गई -''मांजी , मैं ब्रश करने जा रही हूँ ,चाय बनाकर रखियेगा।
बहू ब्रश करने चली गई, सास जब ठाकुर जी की पूजा अर्चना खत्म करके रसोई में आई तो उसने गैस की गंध महसूस की, तभी उसने ध्यान से देखा तो पाया कि गैस का बटन खुला हुआ है, उसने तुरंत गैस का मुख्य बटन बंद किया, सास पढ़ी-लिखी आज के युग में जीने वाली स्त्री है, वो जानती है कि गैस के रिसने से क्या हो सकता है इसलिए उसने रसोई के सारे दरवाजे खिड़कियाँ खोल दिए और घर के अन्य खिड़की दरवाजे खोलने चल दी।
बहू जल्दबाजी में झल्लाते हुए बाहर आई, चाय अभी तक तैयार नहीं है ये देख कर वो फि र से आग बबूला हो गई -''इस घर में ठीक समय पर कुछ मिलता ही नहीं है, मांजी से एक चाय बनाने को कहा है तो वो सुबह से नदारद हैं , इधर आफिस जाने के लिए देर हो रही है और अब चाय भी खुद ही बनाओ!!!!!!
हडबड़ाहट में वो यह भूल ही गई कि उसने स्वयं गैस का बटन खुला छोड़ दिया था, बिना कुछ सोचे समझे उसने तपेली में चाय के लिए पानी डाला और चूल्हे पर रखा, माचिस हाथ में उठाया ही था कि मांजी की आवाज़ आई, ''बहू, माचिस मत जलाना, पूरे घर में गैस फैल चुकी है। और बहू सिर से पैर तक कांपती हुई होंठो को सिले खड़ी रह गयी।
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भाग्य और वर्तमान परिदृश्य ने मोदी को बनाया महानायक





जब भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था, तब किसी को सपने में भी उम्मीद नहीं थी वे भाजपा को इतनी बड़ी जीत दिलायेंगे। मगर उन्होंने पीएम उम्मीदवारी को अपना लक्ष्य बनाया।
नरेंद्र मोदी ने कई बार अपने चुनावी भाषणों में कहा था कांग्रेस इस बार के चुनाव में खाता तक नहीं खोल पाएगी। राज -स्थान, गुजरात और गोवा इन तीन राज्यों में जो मोदी ने कहा वैसा ही हुआ। राजस्थान में 25, गुजरात में 26और गोवा में 2 सीटों पर बीजेपी ने काबिज होकर कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। साथ ही उत्तरप्रदेश एवं बिहार जैसे जातीय मुद्दों पर चुनाव लडऩे वाले प्रदेशों में भी भारी जीत दर्ज कर दी। कुछेक पार्टियों को तो जैसे बैकफ ुट पर पहुंचा दिया। चुनाव में मोदी आंधी की तरह नहीं सुनामी की तरह आए और कांग्रेस को बहाकर सत्ता से किनारे कर दिया।
अपने ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार अभियान के दौरान विकास को अपना मुख्य मुद्दा बनाते हुए मोदी ने देश की युवा शक्ति, मध्यवर्ग और ग्रामीण लोगों को 'बदलाव की बयार लाने का भरोसा दिलाने के लिए संपर्क साधने की पुरजोर कोशिश की और शायद उनकी यही कोशिश रंग लाई। हालांकि बीच बीच में कभी कभार भगवा ताकतों के कुछ पसंदीदा विषयों को उठाकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिशें भी उनके अभियान में दिखीं। मोदी बिना रुके, बिना थके अनवरत मेहनत करते रहे। आलम यह था कि वह एक दिन में चार से लेकर छह रैलियों तक को संबोधित कर रहे थे। कई हफ्तों तक उनका गला बैठ गया। फिर भी वह सियासात की बेहतरी की खातिर चिल्लाते रहे, गरजते रहे, जनता से वोट देने की अपील करते रहे। मोदी ने अपने धुंआधार प्रचार अभियान से लोकसभा चुनाव प्रचार का रिकार्ड ब्रेक कर दिया। मोदी ने इस दौरान देश भर में तीन लाख किलोमीटर से अधिक दूरी तय कर एक अनूठा रिकार्ड बना दिया। कुल 5827 कार्यक्रमों में भाग लिया। उन्होंने बीते साल सितंबर महीने से अब तक 25 राज्यों में 437 जनसभाओं को संबोधित किया और 1350 3डी रैलियों में शिरकत की। 5827 सार्वजनिक कार्यक्रमों के जरिये मोदी ने करीब 10 करोड़ लोगों तक अपनी पहुंच बनाई। मोदी का यह प्रचार अभियान 'ऐतिहासिक और 'अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इस दौरान वह देश के हर राज्य और बड़े शहर में जा पहुंचे। पूरे देश को नाप लिया। मोदी चलते गए, बढ़ते गए और उन्होंने आखिरकार मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनकर ही दम लिया। एक कुशल योजनाकार मोदी ने, रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले से लेकर भारत का एक लोकप्रिय नेता बनने तक का सफर बड़ी सफलता से पूरा किया हालाकि उनके बहुत से विरोधी उनके इस दावे से सहमत नहीं हैं कि वे कभी चाय भी बेचा करते थे। भाजपा ने उनके नेतृत्व में जबरदस्त बहुमत प्राप्त करने का ऐसा कारनामा अंजाम दिया है जैसा 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 400 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कर किया था और ऐसा इस बीच कोई भी अन्य दल नहीं कर पाया।
यूं तो मोदी ने अपने शुरूआती राजनैतिक कैरियर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक रहते हुए देश को करीब से जाना-समझा, लेकिन लोकसभा चुनाव के संग्राम में उन्होंने अपने ''उत्साह का रथÓÓ देश के चारों कोनों में दौड़ाया और लक्ष्य पूरा होने के बाद भी नहीं थमे। अब प्रधानमंत्री बनने के बाद नया लक्ष्य और नई चुनौतियां भी उनका इंतजार कर रही हैं, यदि उनमें वे खरा उतरते हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आने वाले समय में उनकी राहें और आसान हो जाएंगी और वे देश के सर्वोत्तम लोकप्रिय नेता या महानायक बन जाऐंगे।
जैसा कि पहले भी बताया गया कि मोदी जी की जन्म लग्र वृश्चिक और राशि भी वृश्चिक है। शुक्र के महा दशा और शनि के अंतर में उनके राजनैतिक जीवन की शुरूआत २००१ से २०१३ अनवरत प्रसिद्धि, ताकत और गरिमा प्राप्त करते रहे। लग्रस्थ: मंगल के कारण एक आक्रामक एवं कठोर हिन्दुवादी नेता की छवि रखते हैं जिनके कुछ भी बोलने पर विवाद हो जाता है मगर ये विवाद इन्हें जनता के बीच बहुत प्रसिद्धी दिलाते हैं। इस बार के लाकसभा चुनाव में भी यह देखने को मिला कि उनके विरोधियों ने उनकी बुराई की, जबकि उससे उनका हुआ प्रचार। १६ जून के मतगणना के पहले जो यह चर्चा थी कि देश में ''मोदी लहर जैसी कोई चीज है भी कि नहीं, तो मतगणना के परिणाम सबके सामने है। साफ दिखाई दे रहा है कि यकीनन् मोदी लहर था और इस लहर ने अपने समर्थक पार्टियों को पार लगा दिया और विरोधी पार्टियों को किनारे कर दिया। भाजपा को मोदी का भरपूर लाभ मिला, साथ ही भाजपा को तमाम एलाइंस पार्टियों को भी मिला। यद्यपि आने वाले समय में मोदी के लिए कुछेक चुनौतियाँ जरूर हैं लेकिन मोदी में क्षमता है, व साहस है कि वो तमाम चुनौतियों को पार करके अवाम की आशाओं पर खरा उतरेंगे और उनके सितारे भी यही कह रहे हैं।

लकी कलर




रंगों का अपना एक विशेष महत्व है। रंग व्यक्तित्व को निखारते हैं। खुशी का अहसास कराते हैं। मन की भावनाएं भी दर्शाते हैं। कई रोग भी रंगों द्वारा ठीक किए जाते हैं जिन्हें हम कलर थैरेपी के नाम से जानते हैं। तो क्या रंग हमारे भाग्य को तय करने में भी कोई भूमिका निभाते हैं? जो लोग इस पर विश्वास करते हैं, उनका तो जवाब यही है कि हां! दिन के हिसाब से रंग का चुनाव फायदेमंद है....।
सोमवार- सोमवार यानी सौम्य शीतल चंद्रमा का दिन। इसलिए इस दिन का रंग है सफेद, चमकीला या सिल्वर कलर। इस दिन पीच,बेबी पिंक, क्रीम, आसमानी और हल्का पीला भी पहना जा सकता है। लेकिन निर्विवाद रूप से सफेद पहनना शुभ होता है। दिन को खुशनुमा व शांतिपूर्ण चाहते हैं तो सफेद के सिवा कोई दूसरा विकल्प मत सोचिए।
मंगलवार - यह हनुमानजी का दिन है। हनुमानजी को भगवा केसरिया रंग पसंद है। इसलिए इस दिन का विशेष रंग है भगवा, जिसे अंग्रेजी में ऑरेंज कलर कहते हैं। इस दिन के ग्रह ''मंगल के हिसाब से चैरी रेड या लाल के मिलते-जुलते शेड्स भी सौभाग्य के द्वार खोल सकते हैं। दुश्मन को परास्त करना हो तो इस दिन पराक्रम बढ़ाने के लिए लाल रंग अवश्य धारण करें।
बुधवार- तीसरा दिन होता है देवों के देव गणपति का, जिन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है दूर्वा। इसलिए इस दिन हरे कलर का महत्व है। बुध ग्रह स्वयं भी हरे रंग का होता है। अत: जिन लोगों की वाणी में अवरोध हो या जिनकी वाणी कर्कश हो उन्हें हल्का हरा रंग सूट करेगा। लेकिन जो लोग उग्र वाणी के हैं उन्हें श्वेत रंग पहनना चाहिए। ज्योतिष के अनुसार चन्द्र बुध की माता है और बुध के दोषों का शमन करने के लिए चन्द्र को तेजस्वी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में चन्द्र से बुध दबता है।
गुरुवार- यानी हफ्ते का चौथा दिन, जो बृहस्पति देव और साईं बाबा का है। बृहस्पति देव स्वयं पीले हैं, तो इस दिन का रंग है पीला। इस दिन पीले के अलावा सुनहरा, गुलाबी, नारंगी और पर्पल भी ट्राय कर सकते हैं। लेकिन पीले के सभी शेड उत्तम है। दिन विजयी होगा।
शुक्रवार- यह देवी मां का दिन होता है, जो सर्व व्यापी जगत जननी हैं। इस लिए यह दिन सभी रंगों का मिक्स या प्रिंटेड कपड़ों का होता है। इस दिन विशेष रूप से गुलाबी के सारे शेड्स और रंगबिरंगे फ्लोरल प्रिंटेड परि-धान पहने जा सकते हैं। लंबी धारी वाले, चैक्स और छोटी प्रिंट के कपड़े इस दिन पहनिए और सफलता हासिल कीजिए। इस दिन हमेशा साफ-सुथरे उजले कपड़े पहनना चाहिए।
शनिवार- शनि देवता को समर्पित इस दिन नीला कलर पहना जाता है। यह रंग मन के उतार-चढ़ाव का होता है। आत्मविश्वास में वृद्धि के लिए जामुनी, बैंगनी, गहरा नीला और व्यवस्थित दिनचर्या के लिए नेवी ब्लू, स्काय ब्लू उचित रहेंगे। आमतौर पर शनिवार को नौकरी और शादी की पहली बातचीत के लिए अच्छा दिन माना जाता है। शनि अगर अनुकूल हो तो स्थिरता देते हैं। अत: इस दिन नीले के सारे शेड आपको सफलता देंगे।
रविवार- सूर्य की उपासना के इस दिन गुलाबी, सुनहरे और संतरी रंग का ...विशेष महत्व है। इस दिन नए कपड़े नहीं पहनने की सलाह दी जाती है। लेकिन खिले-खिले रंगों के पुराने परिधानों को रविवार के दिन पहनने से सप्ताह भर की थकान दूर हो जाती है। कुछ रंगों से हमारा अच्छा तालमेल होता है, जो हमें 'पॉजीटिव एनर्जी देते हैं। इसलिए कुछ खास रंग हमें ज्यादा आकर्षित करते हैं। इसे ही कलर साइंस या रंग विज्ञान कहा जाता है। लेकिन ज्योतिष पर यकीन करने वाले भी दिन के लिहाज से रंगों का चयन करने लगे हैं। बड़े लोगों और बड़े शहरों से शुरू हुआ यह विश्वास अब मझोले शहरों के लोगों में पैठ बनाता जा रहा है। छोटे शहर में भी ऐसे कई लोग हैं, जो खास दिन में खास रंग के कपड़े पहनने को वरीयता देते हैं।

हस्तरेखा


हस्तरेखा के अनुसार- जिनके दाहिने हाथ पर चंद्र के उभरे हुए भाग पर तारे का चिह्न है और जिनकी अंत:करण रेखा शनि के ग्रह पर ठहरती है, ऐसे व्यक्तियों को आकस्मिक लाभ मिलता है। जिनके दाहिने हाथ की बुध से निकलने वाली रेखा चंद्र के पर्वत से जा मिलती है और जिनकी जीवन रेखा भी चंद्र पर्वत पर जाकर रुक जाती है, ऐसे व्यक्तियों को अचानक भारी लाभ होता है।
जिनकी भाग्य रेखा चंद्र पर्वत से निकलकर प्रभावी शनि में संपूर्ण विलीन हो जाती है, ऐसे भाग्यवान व्यक्तियों को अल्पकालीन धन-लाभ होता है (यहां अल्पकालीन का मतलब है कि उन्हें धन तो मिलता है पर व्यर्थ में सारा खर्च भी हो जाता है)। जिनके दाहिने हाथ पर दोहरी अंत:करण रेखा है और गौण रेखा बुध तथा शनि के ग्रहों से जुड़ी हुई है, ऐसे व्यक्तियों को अचानक भारी लाभ होगा। इसके विपरीत जिनके हाथों की आयुष्य रेखा नेपच्युन ग्रह पर गई हों, चंद्र और नेपच्युन पर्वत एक-दूसरे में घुल-मिल गए हों, अंत:करण रेखा गुरु पर्वत पर ठहर गई हो, ऐसे व्यक्तियों को रेस, लॉटरी इत्यादि में धन-लाभ कभी नहीं होगा, उनका पूरा जीवन कड़ा परिश्रम करने में ही गुजरता है। वे पैसे कमाने के बाद भी कंगाल बने रहते हैं।
चंद्र और शनि पर्वत उच्च का हो तो या उभार लिया हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति की पत्नी को आकस्मिक धन-लाभ होता है, जब उनकी आयु 37 से 43 वर्ष के मध्य हो। चंद्रमा और बुध पर्वत मजबूत हों तो अच्छा धन-लाभ होता है। चंद्र और मंगल का क्षेत्र भी अचानक धन-लाभ कराता है।
चंद्र, बुध और शनि का स्थान दबा हुआ हो तो रेस, सट्टा, लॉटरी से कोई लाभ नहीं होता। व्यक्ति को तभी आकस्मिक लाभ होगा जब हथेली में राहु का स्थान मजबूत हो।
शुक्र पर्वत एवं भाग्य रेखा बलवान हो तो ऐसे व्यक्ति को विवाह के उपरांत धन एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। किसी भी हस्तरेखा में मध्य का भाग अर्थात जीवन रेखा, हृदय रेखा एवं भाग्य रेखा के बीच का स्थान राहु का स्थान माना जाता है। अगर इस स्थान में पर्याप्त गहराई या गड्ढा बने, साथ ही इस स्थान पर किसी भी प्रकार का क्रोस या कट का निशान न हो तो अचानक धन लाभ जैसे कि लॉटरी, शेयर, सट्टा, पराया धन मिल जाना या किसी के द्वारा वारिस बनाया जाना आदि से अच्छे धन लाभ की स्थिति बनती है। राहु के स्थान के साथ ही मंगल एवं चंद्र का पर्वत भी बलवती हो तो पार्टनर/साझेदार अथवा जीवन साथी की पैतृक सम्पत्ती होती है।

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रथयात्रा



दक्षिण भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पर्यटन और धार्मिक महत्व:
यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मंदिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफ़ाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफ़ाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मंदिर दर्शनीय है। पुरी और चंद्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चंदन तालाब, जनकपुर और नंदनकानन अभ्यारण्य बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। सब मनिसा मोर परजा (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।
महाप्रसाद का गौरव:
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। संध्या तक ये तीनों ही रथ मंदिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मंदिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मंदिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतया प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मंदिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।
जनकपुर मौसी का घर:
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं..विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैतापति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भूत समन्वय देखने को मिलता है।
देवर्षि नारद को वरदान:
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है - द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अंत: पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अंत:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।
अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्ववत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।
रथ यात्रा का प्रारंभ:
कहते हैं कि राजा इंद्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।
महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ''व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।ÓÓ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मंदिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।
पृष्ठभूमि में स्थित दर्शन और इतिहास:
कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भूत समन्वय है। जगन्नाथ मंदिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मंदिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गई है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मंदिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मंदिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मंदिर के पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चौंकाने वाली है। यहाँ तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के उपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इंद्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
संपूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस, वैशाखी की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मंदिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।
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नारायण नागबलि का विधिवत पूजा





नारायण नागबलि पूजा विधि, मानव की अपूर्ण इच्छा, कामना पूर्ण करने के उद्देश्य से किया जाता है इसीलिए यह विधि काम्य-कर्म कहलाता है। नारायणबलि और नागबलि ये अलग-अलग विधियां हैं। नारायण बलि का उद्देश्य मुख्यत: पितृदोष निवारण करना है। नागबलि का उद्देश्य सर्प/ सांप/ नाग हत्या का दोष निवारण करना है। चूंकि केवल नारायण बलि या नागबलि कर नहीं सकते, इसलिए ये दोनों विधियां एक साथ ही करनी पड़ती हैं। निम्नलिखित कारणों के लिए भी नारायण नागबलि की जाती है:-
तृदोष निवारण के लिए नारायण नागबलि कर्म करने के लिये शास्त्रों में निर्देशित किया गया है । प्राय: यह कर्म जातक के दुर्भाग्य संबधी दोषों से मुक्ति दिलाने के लिए किये जाते हैं। ये कर्म किस प्रकार व कौन इन्हें कर सकते हैं, इसकी पूर्ण जानकारी होना अति आवश्यक है। ये कर्म जिन जातकों के माता पिता जीवित हैं वे भी ये कर्म विधिवत सम्पन्न कर सकते है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद ब्राह्मण यह कर्म सम्पन्न करा सकते हैं। संतान प्राप्ति एवं वंशवृध्दि के लिए ये कर्म सपत्नीक करने चाहिए। यदि पत्नी जीवित न हो तो कुल के उद्धार के लिए पत्नी के बिना भी ये कर्म किये जा सकते है। यदि पत्नी गर्भवती हो तो गर्भ धारण से पांचवे महीने तक यह कर्म किया जा सकता है।
नारायण बलि कर्म विधि हेतु मुहुर्त-
सामान्यतया नारायण बलि कर्म पौष तथा माघ महिने में तथा गुरु, शुक्र के अस्तंगत होने पर नहीं किये जाने चाहिए। परन्तु 'निर्णय सिंधु के मतानुसार इस कर्म के लिए केवल नक्षत्रों के गुण व दोष देखना ही उचित है। नारायण बलि कर्म के लिए धनिष्ठा, पंचक एवं त्रिपाद नक्षत्र को निषिद्ध माना गया है । धनिष्ठा नक्षत्र के अंतिम दो चरण, शत्भिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती इन साढ़े चार नक्षत्रों को धनिष्ठा पंचक कहा जाता है। कृतिका, पुनर्वसु, उत्तरा विशाखा, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद, ये छ: नक्षत्र 'त्रिपाद नक्षत्र माने गये है।
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किंवदन्ति खास कारणों से प्रचरित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- २22 में ''उद्धृत नारायण बली प्रकरण निर्णय में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तीर कराई जा सकती है अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है वैसे छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि विशेष कर संतानहीनता दूर करने के लिए संतति सुख प्राप्ति के लिए की जाती है। इसके लिए पति-पत्नी के शारीरिक दोष भी प्रमुख कारण हैं।
शरीर में दोष बाह्य कारणों से भी हो सकते हैं। बाह्य गर्मी सर्दी विकारों से शरीर में शितोष्ण बाधाएँ उत्पन्न होती है, ऐसा अनुभव है। उसी प्रकार संतानहीनता के भी दो कारण हो सकते हैं। एक इंद्रियजन्य कारण, दूसरा इंद्रियातीत कारण हो सकते हैं। जो बात बुद्धि की समझ में नहीं आती, वहां बुद्धि की गति कुंठित हो जाती है, ऐसे समय मानव वेद शास्त्र का आधार लेता है, कारण हमारा वैदिक तत्वज्ञान अदृश्य कारणों का साध्य साधनों का अविष्कार वेदों में बतलाया गया है। वे वेद जिन ऋषियों ने लिखे हैं, उनहें मंत्रदृष्टा कहते हैं। उन मंत्र दृष्टा ऋषियों ने मानव कल्याण हेतु जो-जो कर्म बतलायें हैं, उनमें यह एक भाग है जिस समय शरीरिक दोष न होते हुए भी संतति प्राप्त नहीं होती है ऐसा अनुभव आता है, उस समय उसे अदृश्य कारण परंपरा का समन्वय कर वेदों ने यह अनुष्ठान बतलाया है।

मृत्यु: एक अटल सत्य




मृत्यु क्या है? मृत्यु के समय क्या होता है? मृत्यु के पश्चात क्या होता है? मृत्यु के अनुभव के बारे में कोई किस प्रकार बता सकता है? मृत व्यक्ति अपना अनुभव नहीं बता सकता, जिनका जन्म हुआ है उन्हें अपने पिछले जन्म के बारे में कुछ याद नहीं, कोई नहीं जानता कि जन्म से पहले और मृत्यु के बाद में क्या होता है। क्या पुनर्जन्म एक सच्चाई है? ड़ारविन के उत्पत्ति के नियम के अनुसार जीवन एक कोशीय जीव से शुरू होकर मनुष्य में पहुँचने तक विकसित होता है। इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि उसके बाद में क्या होता है।
ात्मा के अस्तित्व में विश्वास के बिना पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है? जब आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाएगा तो सभी पहेलियाँ सुलझ जाएँगी। पहले आत्मज्ञान प्राप्त कर लें और उसके बाद सभी पहेलियाँ सुलझ जाएँगी। आत्मा कभी भी मरता नहीं है, लेकिन जब तक आप आत्मभाव में नहीं आ जाते, आपको मृत्यु का डर बना रहेगा। जब मृत्यु के बारे में सभी तथ्य पता चल जाएँगे, तो मृत्यु का डर गायब हो जाएगा।
पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की बात याद आ जाना ऐसी घटनाएं समय-समय पर होती रहती हैं। विज्ञान इस तरह की बातों को पूरी तरह स्वीकार नहीं करता है। लेकिन वेदों पुराणों में यह स्पष्ट लिखा गया है कि आत्माओं का सफर निरंतर चलता रहता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है कि आत्मा एक शरीर का त्याग करके दूसरा शरीर धारण कर लेता है। यानी जिसकी भी मृत्यु हुई है फिर से लौटकर किसी दूसरे रुप में आएगा।
महाभारत में एक कथा का उल्लेख है कि, भीष्म श्रीकृष्ण से पूछते हैं, आज मैं वाणों की शय्या पर लेटा हुआ हूं, आखिर मैंने कौन सा ऐसा पाप किया था जिसकी यह सजा है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं आपको अपने छ: जन्मों की बातें याद हैं। लेकिन सातवें जन्म की बात याद नहीं है जिसमें आपने एक नाग को नागफनी के कांटों पर फेंक दिया था। यानी भीष्म के रुप में जन्म लेने से पहले उनके कई और जन्म हो चुके थे। इन्हें अपने पूर्व जन्मों की बातें भी याद थी। महाभारत का एक प्रमुख पात्र है शिखंडी। कथा है कि शिखंडी को भी अपने पूर्व जन्म की बातें याद थी। वह पूर्व जन्म में काशी की राजकुमारी था। उस जन्म में हुए अपमान का बदला लेने के लिए ही उसने शिखंडी के रुप में जन्म लिया था।
महर्षि वामदेव को माता के गर्भ में ही आत्मज्ञान हो गया था। जिससे उन्होंने अनेक जन्मों की बातें जान ली थी। वेदों और पुराणों में ऐसी अनेकों कथाएं हैं जो बताती हैं कि मौत और पुनर्जन्म निश्चित सत्य है। मनुष्य में सोचने जैसी अद्भुत क्षमता है। यही कारण है की आज मनुष्य चराचर जगत में सर्वोच्च है। यदा कदा ये सोच भी आती ही है की मौत के बाद क्या होता है। अगर हम जीव हैं तो शरीर त्याग करने के बाद जीव कहां जाता है? भिन्न-भिन्न मतमतांतर हैं, कोई कहता है ब्रह्म में लीन हो जाता है, कोई कहता है पशु पक्षी या अपने कर्मों के आधार पर दूसरा शरीर प्राप्त करता है, किसी भी योनी में। जीव की गुह्य गतियों को समझने के लिए पहले जीवात्मा की जानकारी आवश्यक है -
जीवात्मा के तीन शरीर बताये गए हैं:
(1) स्थूल शरीर (पंचभूतात्मक)
(2) कारण शरीर (आत्मा)
(3) सूक्ष्म शरीर (जीव- मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार)
1.स्थूल शरीर पंचभूतात्मक होता है, जो कर्म का माध्यम होता है।
2.कारण शरीर, जिसे हम परमात्मा का अंश आत्मा कहते हैं। जो शरीर का वास्तविक कारण स्वरूप है।
3. सूक्ष्म शरीर- जीव/प्रेत- इसके चार अंग हैं मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार। जो इंद्रियों से संस्कारित होते हैं और जो कर्मबंध की मूल वजह होते हैं। जो देह में जीव कहलाता है और देहगत होने पर प्रेत कहलाता है। जिससे आत्मा संसर्ग करके पंचभूतात्मक देह को धारण कर जीवात्मा का कारण होती है और जो आत्मा के देह से गत होने पर स्थूल शरीर को शव और जीव को प्रेत की संज्ञा प्रदान करती है।
तब मौत के बाद क्या होता है ?
एक आदमी जिसका एक्सीडेंट किसी गाड़ी से हो रहा है घबराया हुआ वो आदमी भागने की कोशिश करता है पर गाड़ी के चक्कों ने उसे कुचल दिया फिर भी वो भागता है और दूर चला जाता है उसकी समझ से परे की आखिर वो कैसे बच गया दूर जाकर देखता है कि किसी का एक्सीडेंट हो गया और भीड़ जमा है वो भी देखने के लिए उत्सुकता वश जाता है तो भीड़ के अंदर हवा की तरह घुसता है उसे अजीब लगता है पर समझ से परे की बात होती है घटना स्थल पर अपना ही शरीर देखने पर उसकी हैरत का अंदाजा नहीं रहता वो जोर से चिल्लाता है की मैं यहाँ हूँ पर स्थूल कोई भी अंग नहीं है आवाज़ निकले कहाँ से?
सूक्ष्म शरीर में विद्यमान आत्मा ही सूक्ष्म शरीर को देख पाती है उस वक्त उस आत्मा को पता चलता है की वो कभी मरती नहीं मौत के बाद आत्मा सूक्ष्म शरीर में रहती है कुछ भी नहीं बदलता सिर्फ वो गायब रहती है पर अंग सूक्ष्म होने की वजह से किसी को भी कुछ भान कराने में असमर्थ होती है अपने प्रियजनों के आस पास भटकती रहती हैं तब तक भटकती है जब तक उसका निर्धारित गर्भ में समय नहीं आता।
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बस्तर के तीर्थ


भौगोलिक दृष्टि से केरल जैसे राज्य से बड़े बस्तर नामक इस भू-भाग को प्रकृति ने छप्पर फाड़कर प्राकृतिक सौंदर्य दिया है। छत्तीसगढ़ का भू-भाग, पुरातात्विक, सांस्कृतिक और धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है फिर चाहे वह कांकेर घाटी हो, विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट का जलप्रपात हो या फिर कुटुंबसर की गुफाएं ही क्यों न हों। प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर सदाबहार लहलहाते सुरम्य वन, जनजातियों का नृत्य-संगीत और घोटुल जैसी परंपरा यहाँ का मुख्य आकर्षण हैं। त्रेतायुग में राम के वनगमन का रास्ता भी इसी भू-भाग से गुजरता है। जिस दंडक वन से राम गुजरे थे उसे अब दंडकारण्य कहा जाता है। वैसे भी खूबसूरती प्राय दुर्गम स्थानों पर ही अपने सर्वाधिक नैसर्गिक रूप में पाई जाती है। कारण बड़ा साफ है, ये दुर्गम स्थान प्रकृति के आगोश में होते हैं। प्रकृति के रचयिता रंगों को मनमाफिक रंग से भर खूबसूरती की मिसाल गढ़ते हैं। यह खूबसूरती बस्तर की घाटियों में देखी जा सकती है जो हिमाचल की भांति हैं।
रायपुर से तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक मनोरम स्थल है- जगदलपुर। छत्तीसगढ़ प्रान्त के बस्तर जिले का एक प्रमुख शहर है। यह इस जिले का मुख्यालय भी है। जगदलपुर चारो ओर से पहाडिय़ों एवं घने जंगलो से घिरा है। काकतिया राजा जिसे पाण्डुओं का वंशज कहा जाता है ने जगदलपुर को अपनी अंतिम राजधानी बनाया एवं इसे विकसित किया। जगदलपुर का नाम पूर्व में जगतुगुड़ा था। जगदलपुर को चौराहों का शहर भी कहा जाता है। यह बहुत ही खूबसूरत तरीके से बसाया गया है। यहॉ विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। यहॉ जगन्नाथ पीठ का भव्य मंदिर एवं देवी दंतेश्वरी का मंदिर है। जगदलपुर का दशहरा बहुत मशहूर है, जिसकी भव्यता देखते ही बनती है, इसे देखने के लिए देश एव विदेश से अनेक पर्यटन आते है। वैसे तो बस्तर में जलप्रपात की लंबी श्रृंखला है। इस प्रपात की ठीक दूसरी दिशा में जगदलपुर जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात में सफेद पानी की धार पर्यटकों को आकर्षित करती है। जगदलपुर से 30 किलोमीटर दूर प्राकृतिक गुफाओं की काफी लंबी श्रृंखला है। विश्वप्रसिद्ध कोटमसर गुफा के भीतर जलपुंड तथा जलप्रवाह से बनी पत्थर की संरचनाएँ रहस्य और रोमांच से भर देती हैं। पूरा बस्तर घाटियों से घिरा हुआ है। उत्तर में केशकाल तथा चारामा घाटी तो दक्षिण में दरबा की झीरम घटी, पूर्व में अरकू तथा पश्चिम में बंजारा घाटी पर्यटकों को अलग-अलग रंग-रूप की प्राकृतिक सुरम्यता से आकर्षित करती हैं। दंतेवाड़ा के घनघोर जंगल एवं पहाड़ों, नदियों, नालों को पार करने के बाद दसवीं शताब्दी के सूर्य मंदिर एवं गणेशजी की प्रतिमा लगभग चार हजार फीट की उंचाई पर दुर्गंम पहाड़ों के बीच स्थित है। दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से महज सत्रह किलोमीटर दूर फरसपाल ग्राम है जहां से बैलाडीला पर्वत श्रृंखलाएं शुरू होती है। इन श्रृंखलाओं से करीब दस किलोमीटर की ऊंची खड़ी पहाड़ी चोटी पर ढोल आकार की दो पर्वत शिखर हैं जिसे स्थानीय आदिवासी ढोलकाल पर्वत के नाम से जानते हैं। इन शिखरों की ऊंचाई लगभग चार हजार फीट है, जिससे पहले शिखर पर गणेशजी की दशवीं शताब्दी की प्रतिमा एवं दूसरे शिखर पर सूर्य मंदिर स्थापित है। गणेश भगवान की यह प्रतिमा पूरे छत्तीसगढ़ में सबसे ऊंची चोटी पर स्थित प्रतिमा है जिसे एक हजार वर्ष से भी पूर्व साधु संतों एवं कर्मकांडियों द्वारा स्थापित किया गया था। ये दोनों अब पूरी तरह से उपेक्षित है। पुरातत्व विभाग के अनुसार यह एक नई खोज है। स्थानीय आदिवासियों के अनुसार इस पर्वत शिखर पर ही सूर्य की प्रथम किरणें पडऩे के कारण यहां पर सूर्य मंदिर की स्थापना की गई है। छत्तीसगढ़ के सबसे ऊंचे पर्वत चोटी कही जाने वाली ढोलकाल पर्वत चोटी पर हजारों वर्ष पुरानी गणेशप्रतिमा की ऊंचाई लगभग साढ़े तीन फीट है, जोकि काले पत्थरों से निर्मित है। बताया जाता है कि वर्ष 1994 के बाद यहां पूजा अर्चना नहीं हुई है। पौराणिक मान्यतानुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे थे वहां-वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई है। शंखिनी एवं डंकनी नदी के किनारे सती के दांत गिरे, इसलिए यहां दंतेश्वरी पीठ की स्थापना हुई और माता के नाम पर गाँव का नाम दंतेवाड़ा पड़ा। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।
माँ दंतेश्वरी: माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान हैं, जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ है।
गरुड़ स्तंभ: बत्तीस काष्ठ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। दंतेश्वरी माई में मनौती वाली पशु बलि भी दी जाती है। देवी दंतेश्वरी का मंदिर अपनी प्रसिद्व के लिए जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ दर्शन करने से मुरादें पूरी हो जाती है और निवासियों का विश्वास अटल है।
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान: बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से दक्षिण में 35 किलोमीटर की दूरी पर कांकेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। यह उद्यान अपने जलप्रपातों, गुफाओं एवं जैव विविधता के लिये प्रसिद्ध है। कांकेर घाटी के मुख्य पर्यटन स्थल निम्नानुसार हैं -
बारसूर: बस्तर के सदर मुकाम जगदलपुर से 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बारसूर तक पहुँचने के लिये गीदम से होकर जाना पड़ता है। बारसूर गीदम से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ गणेश जी की विशाल मूर्ति है। बारसूर नाग राजाओं एवं काकतीय शासकों की राजधानी रहा है। बारसूर ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी के मंदिरो के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मंदिरों में मामा-भांजा मंदिर मूलत: शिव-मंदिर है। मामा-भांजा मंदिर दो गर्भगृह युक्त मंदिर है। इनके मंडप आपस में जुड़े हुये हैं। यहाँ के भग्न मंदिरों में मैथुनरत प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है। चन्द्रादित्य मंदिर का निर्माण नाग राजा चन्द्रादित्य ने करवाया था एवं उन्हीं के नाम पर इस मंदिर को जाना जाता है। बत्तीस स्तंभों पर खड़े बत्तीसा मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थर से हुआ है। इसका निर्माण गुण्डमहादेवी ने सोमेश्वर देव के शासन काल में किया। इस मंदिर में शिव एवं नंदी की सुन्दर प्रतिमायें हैं। एक हजार साल पुराने इस मंदिर को बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से पत्थरों को व्यवस्थित कर बनाया गया है। ये मंदिर आरकियोलाजी विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक हैं। गणेश भगवान की दो विशाल बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमायें आश्चर्यचकित कर देती है। मामा-भांजा मंदिर शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं दर्शनीय है।
तीरथगढ़ प्रपात: जगदलपुर से 35 किलामीटर की दूरी पर स्थित यह मनमोहक जलप्रपात पर्यटकों का मन मोह लेता है। पर्यटक इसकी मोहक छटा में इतने खो जाते हैं कि यहाँ से वापिस जाने का मन ही नहीं करता। मुनगाबहार नदी पर स्थित यह जलप्रपात चन्द्राकार रूप से बनी पहाड़ी से 300 फिट नीचे सीढ़ी नुमा प्राकृतिक संरचनाओं पर गिरता है, पानी के गिरने से बना दूधिया झाग एवं पानी की बूंदों का प्राकृतिक फव्वारा पर्यटकों को मन्द-मन्द भिगो देता है। करोड़ो वर्ष पहले किसी भूकंप से बने चन्द्र-भ्रंस से नदी के डाउन साइड की चट्टाने नीचे धसक गई एवं इससे बनी सीढ़ी नुमा घाटी ने इस मनोरम जलप्रपात का सृजन किया होगा।
कंगेड़ घाटी राष्ट्रीय पार्क: प्रकृति-प्रेमियों के लिए कंगेड़ घाटी राष्ट्रीय पार्क किसी स्वर्ग से कम नहीं है। साल और टीक के वृक्ष यहां पर मुख्य रूप से पाए जाते हैं। यह पार्क लगभग 34 कि.मी. लंबा और लगभग 6कि.मी. चौड़ा है। पर्यटक इस पार्क में वन्य जीवन के शानदार दृश्य देख सकते हैं। पार्क में पर्यटक चीता, जंगली सुअर, गीदड़, लंगूर, उडऩे वाली गिलहरी, सांभर, खरगोश, मगरमच्छ और सियार आदि देख सकते हैं।
पार्क का नाम कंगेड़ नदी के नाम पर रखा गया है, जो इसके मध्य से होकर बहती है। पार्क में वन्य जीवन के अलावा कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों की यात्रा की जा सकती है। इनमें कोटामसर गुफाएं, कैलाश गुफाएं, चुना पत्थर की गुफाएं और तीर्थगढ़ के झरने प्रमुख हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। पर्यटकों के ठहरने के लिए यहां पर दो पिकनिक रिसोर्ट भी बनाए गए हैं। इनके नाम कंगेड़ धारा और भमसा धारा है। भमसा धारा क्रोकोडाईल पार्क भी है।
इन्द्रावती राष्ट्रीय पार्क: यह राष्ट्रीय पार्क नारायणपुर तहसील में जगदलपुर से 200 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। जंगली भैंस और चीते के लिए यह पार्क प्रसिद्ध है। नारायणपुर से 40 कि.मी. की दूरी पर मनोरम कुरशल घाटी स्थित है।
तामड़ाघुमड़ जलप्रपात: चित्रकोट जलप्रपात से 10 किलोमीटर की दूरी पर तामड़ाघुमड़ जलप्रपात है। तामड़ाघुमड़ जलप्रपात में एक छोटी सरिता सीधे लगभग 100 फिट की ऊँचाई से निचले भाग में गिरकर एक मनोरम जलप्रपात का निर्माण करती है। प्रपात को नीचे से उतरकर देखना अच्छा लगता है किंतु उतरने का मार्ग दुर्गम है।
पहुॅच मार्ग और विश्रामगृह: रायपुर से तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मनोरम स्थल तक पहुँचने के लिए लक्जरी बसें उपलब्ध हैं। यहाँ पर देश के सभी प्रमुख हवाई मार्गों से हवाई सेवा उपलब्ध हैं।
सड़क मार्ग: रायपुर से बस्तर 300 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 49 से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा पर्यटक आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम से भी बस्तर तक पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग: विशाखापट्टनम से किनाडुल तक रेलवे लाईन बिछाई गई है। इस रेलवे लाईन पर जगदलपुर स्टेशन का निर्माण किया गया है। यहां से पर्यटक आसानी से बस्तर तक पहुंच सकते हैं। विशाखापट्टनम से प्रात: 7:10 पर प्रतिदिन जगदलपुर के लिए रेल छुटती है।
जगदलपुर में ठहरने के लिए विश्राम गृह, होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं। जिनमें से प्रमुख हैं- आकांक्षा होटल, पूनम लॉज, आनंद लॉज, अतिथि होटल, आकाश होटल इत्यादि।
वैसे तो पिछड़ेपन का ही परिणाम है कि यहाँ नक्सलवाद अपने चरम पर है लेकिन प्रकृति की गोद में बसे दर्शनीय स्थल नक्सल गतिविधियों से मुक्त है। दुनिया के लोगों की नजर में भले ही सबसे पिछड़ा इलाका हो लेकिन प्रकृति, पर्यटन व सौंदर्य प्रेमियों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
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