Monday, 13 April 2015

किस जातक में होता है कितना अनुशासन??????


इस सृष्टि में सब कुछ नियमित और अनुशासित ढंग से चल रहा है। स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता यदा-कदा दीखती तो है पर थोड़ी गहराई में उतरते ही उसके पीछे भी कोई न कोई अनुबन्ध काम करता दिखाई देता है। साइबेरिया के पक्षी वहाँ मौसम अनुकूल न रहने पर हजारों मील की यात्रा करके भारत आ जाते हैं और परिस्थिति बदलते ही वे उसी क्रम से वापस लौट जाते हैं। कुछ जाति की मछलियाँ प्रजनन की उमंग आते ही हजारों मील की लम्बी यात्रा पर निकल पड़ती हैं और जहाँ उनके लिए अनुकूलता है वहाँ पहुँच कर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति करती हैं। यह सब इस प्रकार होता है कि मानो उसके लिए किसी ने पहले से ही प्रशिक्षित किया हो अथवा समय पर किसी सशक्त ने हण्टर लेकर वह कष्ट साध्य काम उनसे कराया हो।
सूर्य चन्द्रमा अपनी गतिविधियों में समय चक्र का बिना रंच मात्र व्यवधान किये पालन करते हैं। इतना ही नहीं वे अपने परिभ्रमण मार्ग पर चलते रहने में भी राई रत्ती चूक नहीं करते हैं। ऋतुएं अपने समय पर आती हैं और अवधि पूरी होते ही चली जाती हैं। सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम ऐसा है, मानो नियति ने इस सुनिश्चित व्यवस्था को बहुत समझ-बूझकर बनाया हो। अणु परमाणुओं से लेकर प्रकृति के हर क्रम में जो चक्र चलता है उसमें सौर मण्डल का नियम अनुशासन और विधि-विधान भली प्रकार लागू होता है।
मनुष्य को बाह्य जीवन में इच्छानुसार काम करने की एक सीमा तक छूट मिली हुई है। उसमें व्यतिरेक बरतने पर राजदण्ड, समाज दण्ड, प्रकृति दण्ड के हण्टर बरसने लगते हैं। फिर आन्तरिक क्रिया-कलापों में तो कहीं कोई अव्यवस्था है ही नहीं। रक्त प्रवाह, धड़कन, पाचन, शयन, जागरण, ग्रहण, विसर्जन की प्रक्रिया सुनियोजित रीति से चलती रहने तक ही जीवन स्थिर रहता है।
समय के अनुशासन में मनुष्य का भीतरी ढांचा मजबूती के साथ कसा हुआ है। मांसपेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष आदि में यदि तालबद्धता रहती है तो मनुष्य प्रसन्न भी रहता है और निरोगी भी। पर जब भी अस्त-व्यस्तता चढ़ती और मनुष्य स्वच्छन्दता बरतकर निर्धारित क्रम बिगाड़ता है तो क्रमबद्धता लडख़ड़ाने के कारण उसे अनेकानेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। प्रकृति के अन्य जीव-जन्तु प्रकृति प्रेरणा के सहारे उस समय सारिणी का बहुत कुछ परिपालन करते हैं। एक मनुष्य ही है जो दिनचर्या में अनियमितता बरतता है और अनेकों परोक्ष कठिनाईयां बटोर लेता है।
जीवन को शक्तिशाली बनाने के तीन सूत्र हैं- आत्म-ज्ञान, आत्म-संयम और आत्म-सम्मान:
अनुशासन ही एक ऐसा गुण है, जिसकी मानव जीवन में पग-पग पर आवश्यकता पड़ती है। अत: इसका आरंभ जीवन में बचपन से ही होना चाहिए। इसी से ही चरित्र का निर्माण हो सकता है। अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है। अनुशासित नागरिक ही एक अनुशासित आदर्श समाज का निर्माण करते हैं। और एक अनुशासित समाज पीढियों तक चलने वाली संस्कृृति की ओर पहला कदम है। अनुशासन का पाठ वास्तव में प्रेम का पाठ होता है, कठोरता का नहीं। अत: इसे प्रेम के साथ सीखना चाहिए। बालक को अनुशासन का पाठ पढ़ाते समय कुछ कठोर कदम उठाने आवश्यक हैं, परंतु अनुशासन रहित रखकर हम बालक को अवश्य ही अवन्नति की ओर धकेल देंगे। जो जीवन में अनुशासित जीना और रहना सीख लेते हैं, वे लोग अपने जीवन में कठिनाइयों और बाधाओं को हंसते-हंसते पार कर जाते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्व है। अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है। समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। इससे कार्य क्षमता का विकास होता है तथा व्यक्ति में नेतृत्व की शक्ति जाग्रत होने लगती है। इसलिए हमे हमेशा अनुशासनपूर्वक आगे बढने का प्रयत्न करना चाहिए।
अनुशासन सामाजिक सन्तुलन को बनाये रखने के लिए अत्यावश्यक कारक है। अनुशासन के बिना श्रेष्ठ समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती, वर्तमान की बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धात्मक जीवन शैली में अनुशासित व्यक्ति सफलता को शीघ्रता से प्राप्त कर सकता है। अनुशासन विकासपथ है, जिस पर चलकर सम्भावित उद्देश्यों को पूर्ण किया जा सकता है। अनुशासन हमारे द्वारा निर्धारित लक्ष्यों व उसकी उपलब्धि के बीच में सेतु का कार्य करता है। यह अनुशासन रूपी सेतु जितना दृढ़ होगा उतनी ही शीघ्रता से हम अपने लक्ष्यों को पा सकते हैं। अनुशासन को व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र की नींव कहा जा सकता है। अनुशासन संस्कृति का मेरुदण्ड है। किसी भी देश की सांस्कृतिक व सांस्कारिक परम्परा को वहां के युवाओं द्वारा किये जा रहे व्यवहारों व क्रियाकलापों से जाना जा सकता है। फूलों का खिलना, फलों का पकना, वर्षा का आना भी प्राकृतिक अनुशासन के ही दायरे में आता है। अगर मनुष्य इस प्रकृति का अनुगामी बनकर अनुशासन का पालन करता है तो वास्तव में वह ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहलाने का हकदार है। सृष्टि क्रम नियमबद्ध अनुशासन का परिपालन करते हुए चल रहा है। मनुष्य के लिए भी मर्यादा पालन और नियम निर्धारण आवश्यक है। स्वच्छन्दता का उदत्त उपयोग करने वाले अहंकारी देर तक मनमर्जी नहीं चला सकते और उन्हें अंकुश अनुशासन के परिपालन में बाधित होना ही पड़ता है। अच्छा हो, वस्तुस्थिति को समझें और अनुशासित नियमित जीवन जीने की आदत डालें।
ज्योतिष के अनुसार जीवन में अनुशासन किसी भी जातक के कुंडली में लग्रेश, तृतीयेश, पंचमेश एवं भाग्येश तथा एकादशेश, उसकी जीवन शैली को प्रदर्शित करते हैं। अगर किसी व्यक्ति का लग्रेश शुभ ग्रह हो एवं शुभ स्थिति के हो तो व्यक्ति में आत्मनियंत्रण होता है जिससे उसका जीवन अपने बनाए अनुशासन एवं नियमों पर चलता है। इसी प्रकार कुंडली का तीसरा घर मनोबल का होता है अगर तीसरा घर उच्च तथा स्वग्रही एवं शुभ ग्रहों से युत तथा दृष्ट हो तो जीवन में व्यक्ति अनुशासित होता है। किसी की कुंडली का पंचम भाव उसकी मनोदशा तथा एकाग्रता को दर्शाता है। अगर किसी की कुंडली में उसका पंचम भाव एवं पंचमेश उच्च का हो तो ऐसे व्यक्ति के जीवन मेें एकाग्रता तथा कर्म की समझ उसे अनुशासित रखती है। इसी प्रकार किसी जातक के एकादशेश से उस व्यक्ति की नियमित दिनचर्या देखी जाती है। अगर एकादशेश या एकादश भाव अच्छी स्थिति मेें हो या उसके ग्रह स्वग्रही, उच्च तथा सौम्य ग्रह हों तो ऐसे व्यक्ति की दिनचर्या नियमित तथा अनुशासित होती है।
इन ग्रहों के अनुकूल न होने पर इन ग्रहों की शांति कराने से जीवन में अनुशासन का स्तर बढ़ाया जा सकता है। जिससे जीवन में सफलता तथ समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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महाभारत युग में राखी का बंधन


हमारे पुराण आख्यानों में रक्षाबंधन के जुड़े कई संदर्भ आते हैं। महाभारत में भी इस पवित्र रिश्ते के दर्शन होते हैं और ऐसे होते हैं कि वह पूरी दुनिया के लिए भाई-बहिन के रिश्ते के लिए सबसे उत्कर्ष उदाहरण के रूप में देखे जाते हैं। जब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। कृष्ण और द्रौपदी से संबंधित वृत्तांत में कहा गया है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी थी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।

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भाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली जाने हाथों की रेखाओं से


ऐसा क्यूं होता है कि कभी-कभी अपने काम में जान तक झोंक देने वाले को सफलता नहीं मिलती और किसी-किसी को छोटी कोशिश से ही बुलंदियां मिल जाती हैं। क्यूं कोई मुकद्दक का सिकंदर कहलाता है और क्यूं कोई किस्तमत का गरीब कहलाता है। क्यूं लोग भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली कहे जाते हैं। दरअसल ये सब हमारे हाथ की लकीरों में पहले से लिखा रहता है बस हमें उन लकीरों को फलित करना होता है याने उसके अनूरूप पुरूषार्थ करना होता है, सफलता खुद ही मिल जाती है।
हृदय रेखा के मध्य से शुरु होकर मणिबन्ध तक जाने वाली सीधी रेखा को भाग्य रेखा कहते हैं। स्पष्ट रुप से दिखाई देने वाली रेखा उत्तम भाग्य का प्रतीक है। यदि भाग्य रेखा को कोइ अन्य रेखा न काटती हो तो भाग्य में किसी प्रकार की रुकावट नही आती। परन्तु यदि जिस बिन्दु पर रेखा भाग्य को काटती है तो उसी वर्ष व्यक्ति को भाग्य की हानि होती है। कुछ लोगों के हाथ में जीवन रेखा एवं भाग्य रेखा में से एक ही रेखा होती है। इस स्थिति में वह व्यक्ति असाधारण होता है, या तो एकदम भाग्यहीन या फिर उच्चस्तर का भाग्यशाली होता है। ऐसा व्यक्ति मध्यम स्तर का जीवन कभी नहीं जीता है। भाग्य रेखा की बनावट पर निर्भर करता है कि व्यक्ति भाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली। हथेली में मध्यमा उंगली के नीचे शनि पर्वत होता है इसे ही भाग्यस्थान माना जाता है। हथेली में कहीं से भी चलकर जो रेखा इस स्थान तक पहुंचती है उसे भाग्य रेखा कहते हैं।
जिनकी हथेली में कलाई के पास से कोई रेखा सीधी चलकर शनि पर्वत पर पहुंचती है वह व्यक्ति बहुत ही भाग्यशाली होता है। ऐसा व्यक्ति बहुत महत्वाकांक्षी और लक्ष्य पर केन्द्रित रहने वाला होता है। शनि पर्वत पर पहुंचकर रेखा अगर बंट जाए और गुरू पर्वत यानी तर्जनी उंगली के नीचे पहुंच जाए तो व्यक्ति दानी एवं परोपकारी होता है। यह उच्च पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। लेकिन इस रेखा को कोई अन्य रेखा काटती नहीं हो। जिस स्थान पर भाग्य रेखा कटी होती है जीवन के उस पड़ाव में व्यक्ति को संघर्ष और कष्ट का सामना करना पड़ता है। भाग्य रेखा लंबी होकर मध्यमा के किसी पोर तक पहुंच जाए तो परीश्रम करने के बावजूद सफलता उससे कोसों दूर रहती है।
अंगूठे के नीचे जीवन रेखा से घिरा होता शुक्र पर्वत, अगर इस स्थान से कोई रेखा निकलकर शनि पर्वत पर पहुंचता है तो विवाह के बाद व्यक्ति को भाग्य का सहयोग मिलता है। ऐसा व्यक्ति किसी कला के माध्यम से प्रगति करता है। लेकिन इनके जीवन पर कई बार संकट के बादल मंडराते हैं क्योंकि भाग्य रेखा जीवनरेखा को काटकर आगे बढ़ती है। हथेली के मध्यम में मस्तिष्क रेखा से निकलकर कोई रेखा शनि पर्वत तक जाना बहुत ही उत्तम होता है। ऐसा व्यक्ति सामान्य परिवार में जन्म लेकर भी अपनी योग्यता और लगन से सफलता के शिखर पर पहुंच जाता है। शनि पर्वत पर जाकर रेखा दो भागों में बंट जाना और भी उत्तम फलदायी होता है।
मध्यमा अंगुली के नीचे शनि पर्वत का स्थान है। यह पर्वत बहुत भाग्यशाली मनुष्यों के हाथों में ही विकसित अवस्था में देखा गया है। इस पर्वत के अभाव होने से मनुष्य अपने जीवन में अधिक सफलता या सम्मान नहीं प्राप्त कर पाता। मध्यमा अंगुली भाग्य की देवी है। भाग्यरेखा की समाप्ति प्राय: इसी अंगुली की मूल में होती है। पूर्ण विकसित शनि पर्वत वाला मनुष्य प्रबल भाग्यवान होता है। ऐसे मनुष्य जीवन में अपने प्रयत्नों से बहुत अधिक उन्नति प्राप्त करते हैं शनि के क्षेत्र पर भाग्य रेखा कही जाने वाली शनि रेखा समाप्त होती है। भाग्य रेखा मणिबंद्ध से लेकर शनि पर्वत तक जाती हो, सभी ग्रह उन्नत हो या जीवन रेखा से शनि रेखाएं निकलती हों, तो आप बहुत बड़ी संपत्ति के मालिक बन सकते हैं। इस पर शनि वलय भी पायी जाती है और शुक्र वलय इस पर्वत को घेरती हुई निकलती है। इसके अतिरिक्त हृदय रेखा इसकी निचली सीमा को छूती हैं। इन महत्वपूर्ण रेखाओं के अतिरिक्त इस पर्वत पर एक रेखा जहां सौभाग्य सूचक है। यदि रेखायें गुरु की पर्वत की ओर जा रही हों तो मनुष्य को सार्वजनिक मान-सम्मान प्राप्त होता है। हस्तरेखा ज्योतिष में जितना महत्व रेखाओं तथा पर्वतों का है। उतना ही महत्व हाथों में बनने वाले छोटे-छोटे चिन्हों का भी है। इन चिन्हों मे से ही एक चिन्ह त्रिभुज का है, जो भाग्य पर विशेष प्रभाव डालती है। त्रिभुज हाथ में सपष्ट रेखाओं से मिलकर बना हो तो वह शुभ व फलदायी कहा जाता है। साथ ही हथेली में जितना बड़ा त्रिभुज होगा उतना ही लाभदायक होगा। बड़ा त्रिभुज व्यक्ति के विशाल हृदय का परिचायक है। हाथ में एक बड़े त्रिभुज में छोटा त्रिभुज बनता है तो व्यक्ति को निश्चय ही जीवन मे उच्च पद प्राप्त होता है। हथेली के मध्य बड़ा त्रिभुज हो तो वह व्यक्ति समाज में खुद अपनी पहचान बनाता है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास रखने वाला व उन्नतशील होता है। मोटी से पतली होती भाग्य रेखा और जीवन रेखा से दूर हो तो 25 वर्ष की आयु के बाद व्यक्ति भरपूर सुख और वैभव प्राप्त करता है। लेकिन यदि हृदय रेखा टूट जाए या उसकी एक मोटी शाखा मस्तिष्क रेखा पर आ जाए तो बनी बनाई संपत्ति भी नष्ट हो जाती है। हाथ में यदि जीवन रेखा गोल हो, शुक्र पर तिल हो और अंगुलिया सीधी हों अथवा आधार बराबर हों तो मनुष्य के भाग्य में निश्चित रूप से अथाह धन-संपत्ति का मालिक बनना तय होता है। भाग्य रेखा जीवन रेखा से दूर हो, चंद्र पर्वत पर ज्ञान रेखा मिले एवं शनि ग्रह उन्नत हो तो मनुष्य को देश-विदेश दोनों ही स्थानों से लाभ एवं धन अर्जन की स्थिति बनती है।
जिनकी भाग्य रेखाएं एक से अधिक होती हैं और सभी ग्रह पूर्ण विकसित नजर आते हैं, कहा जाता है ऐसे लोग करोड़पति होते हैं। जिनकी उंगलियां सीधी और पतली होती हैं तथा हृदय रेखा बृहस्पति से नीचे जाकर समाप्त नजर आए तो समझिए उस व्यक्ति को धन-संपत्ति की कभी कोई कमी नहीं होती। भाग्यरेखा जीवन रेखा से निकलती प्रतीत होती है और हथेली सॉफ्ट तथा पिंक हो तो ऐसे लोगों के नसीब में अथाह संपत्ति होता है। जिनके हाथ नरम होने के साथ-साथ भारी और चौड़े हों उन्हें धन की कभी कोई कमी नहीं होती। भाग्य रेखा अधिक होने के साथ-साथ शनि उत्तम हो और जीवन रेखा घुमावदार हो तो ऐसे व्यक्ति के पास धन-समृद्धि की कभी कोई कमी नहीं होती। जिनके दाएं हाथ में बुध से निकलने वाली रेखा चंद्र के पर्वत से मिलती हुई नजर आती हो और जिनकी जीवनरेखा भी चंद्र पर्वत पर जाकर रुक जाती हो, ऐसे जातकों का भाग्य अचानक मोड़ ले लेता है और उन्हें धन की प्राप्ति होती है। जब जीवन रेखा के साथ-साथ मंगल रेखा अंत तक नजर आए तो पैतृक संपत्ति से धन-संपत्ति प्राप्त होना है। जिनकी भाग्य रेखाएं एक से अधिक नजर आती हैं और उंगलियों के आधार एक समान हो तो समझिए उन्हें कहीं से अनायास ही धन मिलने वाला है। भाग्य रेखा जीवन रेखा से दूर हो और चंद्र से निकलकर कोई पतली रेखा भाग्य रेखा में मिलती नजर आती हो और इसके अलावा चंद्र, भाग्य और मस्तिष्क रेखाएं ऐसी दिखे जिससे त्रिकोण बना नजर आए और ये सारी रेखाएं दोष रहित हों, उंगलियां सीधी और सभी ग्रह पूर्ण रूप से विकसित हो तो ऐसे लोगों को अकस्मात धन मिलता है। चंद्र के उभरे हुए भाग पर तारे का चिह्न है और जिनकी अंत:करण रेखा शनि के ग्रह पर ठहरती है, ऐसे व्यक्तियों को आकस्मिक लाभ मिलता है। जिनके दाहिने हाथ की बुध से निकलने वाली रेखा चंद्र के पर्वत से जा मिलती है और जिनकी जीवन रेखा भी चंद्र पर्वत पर जाकर रुक जाती है, ऐसे व्यक्तियों को अचानक भारी लाभ होता है।

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ज्योतिषीय दृष्टि से क्रोध और उपाय


ज्योतिषीय दृष्टि से क्रोध: ज्योतिषीय दृष्टि से क्रोध के मुख्य कारण मंगल, सूर्य, शनि, राहु तथा चंद्रमा हैं। इनमें से यदि मंगल ग्रह सूर्य (पहचान और सहनशक्ति) और चांद (शारीरिक और भावनात्मक जरूरत) के समान व्यवहार कर सकता है, यदि जन्मकुंडली में सूर्य और चंद्रमा, मंगल ग्रह से संबंधित हो तो क्रोध व्यक्त करने में कामयाब हो जाता है। सामान्य तौर पर एक छोटा लक्षण भी लंबे समय के क्रोध के लिए काफी होता है। क्रोध, आलोचना और बौद्धिक/ सामाजिक श्रेष्ठता की भावना की ओर ले जाता है। अभिव्यक्ति ज्ञान के साथ संतुलित होती है। मंगल ग्रह का शनि से युति गुस्से को नियंत्रित करने में असमर्थ होती है। यह अत्यधिक विघटन का भाव पैदा कर सकते हैं।
ज्योतिष के अनुसार, क्रोध अग्नि तत्व द्वारा द्योतक है। अग्नि तत्व के साथ संबंधित ग्रहों और राशियों के नकारात्मक या विपरीत होने से संबंधित व्यक्ति प्रतिकूल ग्रहों की अवधि के दौरान, अत्यधिक क्रोध करता है। मंगल के साथ नीच चंद्रमा घरेलु शांति के लिए शुभ नहीं है. दूसरे घर (तीसरे और छठे घर के स्वामी) और मंगल / शनि के कारण जातक का स्वभाव अपने कैरियर में गंभीर समस्याओं का सामना कराता है। यदि चंद्रमा लग्र में या तीसरे स्थान में मंगल, शनि या केतु के साथ युत हो तो क्रोध के साथ चिडचिडापन देता है। वहीं यदि सूर्य मंगल के साथ योग बनाये तो अहंकार के साथ क्रोध का भाव आता है। मंगल शनि की युति क्रोध जिद के रूप में व्यक्त होती है। राहु के लग्र, तीसरे अथवा द्वादश स्थान में होने पर काल्पनिक अहंकार के कारण अपने आप को बडा मानकर अंहकारी बनाता है जिससे क्रोध उत्पन्न हो सकता है।
क्रोध के वाहक हालात यदि अपरिहार्य हों तो उनका सामना करने के शांत तरीके खोजें ओर उनके अनुरूप आचरण करें। समय का पालन करें। चिंतन-मनन करें। थोड़े से संकल्प से क्रोध पर नियंत्रण किया जा सकता है। उन हालात पर गौर करें जो अकसर आपको उत्तेजित करते रहते हैं। ध्यान दें कि उन हालात को रोकने के लिए आप क्या कर सकते हैं? जब कभी आपको क्रोध आए उस समय अपने आचरणों पर गौर करें। यह देखें कि उनमें से किस आचरण में सुधार की जरूरत है। आपके अंदर क्रोध की भावना नहीं उठे इसके लिए रणनीति तैयार करें। ऐसी रणनीतियां भी अपनाएं जो क्रोध पर शीघ्र नियंत्रण में आपकी सहायता कर सकं। अपने परिजनों के साथ क्रोध पर नियंत्रण की विधियों पर चर्चा करें ताकि आपको उनसे सुझाव मिल सकें।
मंत्रजाप और सूर्य नमस्कार: शारीरिक और मानसिक दोनों कमजोरियों पर विजय पाने के लिए मंत्रजाप और सूर्य नमस्कार अचूक अस्त्र हैं, इन्हें प्रमाणित करने की भी आवश्यकता नहीं है। सूर्य नमस्कार, हमारे आत्मविश्वास, आरोग्य को बढ़ाने में सहायक होता है। मंत्रजाप मन की शक्ति को बढ़ाता है और निरंतर अभ्यास से एकाग्रता और धैर्य बढ़ता है।
मोती नहीं है गुस्सा कम करने का हल: मैंने बहुत से लोगों को यह कहते सुना है कि हमें बहुत क्रोध आता है, क्या हम मोती पहन लें, यह महज कल्पना और मिथ्या भ्रम है कि मोती गुस्सा कम करता है। इसलिए सिर्फ क्रोध कम करने के लिए मोती पहनना उचित नहीं है

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क्रोध क्यूं आता है


आज की भागदौड़ की जिंदगी में तनाव से मुक्ति हासिल करना न केवल मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है बल्कि इससे अनेक सामाजिक समस्याओं, हिंसा व अन्य नकारात्मक प्रवृतियों का निदान भी होता है। तनाव गुस्से का मूल कारण है और गुस्से में आदमी विवेक को भूलकर गलत काम कर बैठता है। क्रोध एक स्वाभाविक आवेग है। यह जिसे आता है उसके लिए कभी-कभी ऊर्जा का काम करता है। वह प्राय: दो बार सोचता है, अगली बार उस आचरण को अपनाने के पूर्व जिसके कारण क्रोध आता है। क्रोध कभी-कभी मन का गुबार निकालने में सहायता करता है।
मन की बातों या भावनाओं को दबाए रखने की बजाय उन्हें प्रकट करना श्रेयस्कर होता है। ऐसा करने में यदि क्रोध आए तो वह सकारात्मक होता है। किंतु, क्रोध सामान्यत: एक नुकसानदेह आवेग है। यह नुकसानदेह इसलिए है कि इससे वे शारीरिक अनुक्रियाएं उत्पन्न होती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर होती हंै। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को जब क्रोध आता है तो उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है और खून का वेग तेज हो जाता है। इन अनुक्रियाओं के कारण उसके दिल पर दबाव बढ़ता है। एक तरफ जहां क्रोध और विद्वेष के बीच सीधा संबंध होता है, वहीं दूसरी तरफ दिल की बीमारी में वृद्धि भी होती है। क्रोध परिवार के लिए भी नुकसानदेह होता है। क्रोध करने के बाद व्यक्ति स्वयं पछताता है क्योंकि क्रोध के समय बुद्धि कार्य करना बंद कर देती है। इससे परिवार में तनावपूर्ण तथा अप्रीतिकर वातावरण उत्पन्न होता है। बच्चों के प्रति हमारा बार-बार क्रोध करना उन्हें अति संवेदनशील बनाता है, वे चिड़चिड़े हो जाते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। परिस्थितिवश क्रोध यदि स्वाभाविक अनुक्रिया हो ही, तो भी स्वयं से पूछें कि क्या आपके क्रोध करने से आपको बेहतर परिणाम मिलेंगे? और क्या आपके क्रोध करने से आपको आपकी मनचाही चीज मिल जाएगी? स्वयं से पूछें कि परिस्थिति उपयुक्त है या नहीं। मसलन, यदि आप जोर से बोलें या चिल्लाएं तो क्या आपकी प्रतिष्ठा धूमिल होगी? क्या आप कहीं बेवजह किसी का ध्यान तो आकर्षित नहीं कर रहे? आपकी इस प्रतिक्रिया से आपकी कंपनी को कोई परेशानी तो नहीं होगी? आपने जो कुछ कहा या किया उस पर आप परेशान तो नहीं होंगे? या क्या आपको जब क्रोध आया था तब आप परेशान थे? इससे आप तथा अन्य लोग भी ईष्र्या से बचेंगे। इससे दूसरों के दिलों में आपके प्रति अच्छी भावना भी पनपेगी। जिनके कारण आपके अंदर क्रोध उपजा हो उन हालात को समझें। उन्हें नजरअंदाज करने या उनकी उपेक्षा के उपाय ढूंढें।
इस पृथ्वी पर शायद ही कोई प्राणी होगा जिसे गुस्सा नहीं आता, जब भी कुछ हमारे मन मुताबिक नहीं होता, तब प्रतिकार स्वरूप जो प्रतिक्रिया हमारा मन करता है, वही गुस्सा है। मानों यह बहुत ही स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर सच यह नहीं है। गुस्सा एक सुनामी जैसा है, जो जाने के बाद बर्बादी के निशान छोड़ जाता है। गुस्से में सबसे पहले जबान आपा खोती है, वह सब कहती है, जो नहीं कहना चाहिए और रिश्तों में क डवाहट घोलती है। गुस्सा आए और जल्दी शांत हो जाए तब भी किसी हद तक ठीक है परन्तु चिंता का विषय तब होता है। जब गुस्सा आए परंतु जल्दी शांत न हो। यही गुस्सा जब ज्यादा देर हमारे दिमाग में रह जाता है तो बदले की भावना में बदलने लगता है। बहुत से अपराधों की जड में यही गुस्सा और बदले की भावना होती है। इसी सिक्के का दूसरा पहलू है कि गुस्से में हम किसी का अपमान करते हैं, यही गुस्सा उसके मन में बदले की भावना में बदलता है और हम अपने लिए शत्रुओं की कतार खडी कर लेते हैं। मानसिक तनाव बढ़ता है, जिसका विपरीत प्रभाव स्वास्थ्य पर, सामाजिक प्रतिष्ठा पर और हमारे रिश्तों पर पडता है।
क्रोध और अवसाद: यदि किसी दिन हम मानसिक रूप से परेशान होते हैं, उस दिन हमें गुस्सा अधिक आता है। छोटी-छोटी बातों पर अधिक तीखी प्रतिक्रिया देते हैं। क्रोध और तनाव का सीधा संबंध है। इस तरह भी समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति जीवन में किसी चीज या स्थिति से असंतुष्ट है, वह अधिक क्रोध करता है। सपने पूरे न हो पाएँ, यह हम सब के साथ कभी न कभी होता है परन्तु जब हम इस सच्चाई को दिल से स्वीकार नहीं कर पाते तो टूटे सपनों की टीस हमें मानसिक रूप से बेचैन करती है और हम क्रोध करते हैं। ऐसे ही किसी दिन जब हमारी तबियत ठीक नहीं होती है, तब भी हम गुस्सा करते हैं। किसी भी तरह की लाचारी के कारण भी हम अधिक चिडचिडे हो जाते हैं, अधिक गुस्सा करते हैं। स्पष्ट है किसी भी तरह की कमजोरी शारीरिक या मानसिक हमें अधिक क्रोधी बना देती है।
क्रोध का एक कारण बीमारी है, धैर्य की कमी है। स्पष्ट है क्रोध को कम करने के लिए कमजोरी को कम करना होगा और शक्ति को बढ़ाना होगा। समस्या की जड क्रोध नहीं है बल्कि क्रोध में कमजोरी को छुपाने का प्रयास है इसलिए क्रोध के मामलों को हर दृष्टिकोण से जाँचा जाना चाहिए। इसी संदर्भ में तुलसीदास जी ने लिखा - भय बिन होत न प्रीति। यदि हम चाहें तो क्रोध को अपने व्यक्तित्व का एक गुण बना सकते हैं। आपका क्रोध पे्रेशर कुकर की सीटी जैसा न हो बल्कि लावे जैसा हो। लोग यह विश्वास करें कि आप बिना बात गुस्सा नहीं होते। किसी ठोस कारण से ही आपको गुस्सा आता है और जब आता है तो वह बहुत खतरनाक होता है। आप हमेशा शांत कर रहे हैं, और शायद ही कभी गुस्सा आता है। लेकिन आप खुशी भी महसूस नहीं करते। कई बार आप दूसरों के प्रति पूर्वानुमान लगाकर व्यवहार करते हैं और पहले से नकारात्मक सोच रखते हैं। आपसे अतीत में दुव्र्यवहार किया गया है, लेकिन पूरी बात याद नहीं कर पाते हैं। परंतु परिस्थितियों में स्वयं वैसा ही व्यवहार औरों से करते हैं। अकसर आप अपने मनोभावों को व्यक्त नहीं करते क्योंकि आपको दुख होता है मन को चोट आदि लगती है, लेकिन किसी को नाराज नहीं कर सकते। हिंसक कल्पनाओं से संतुष्ट होते हैं.
क्रोध का मौलिक उद्देश्य अपने जीवन की रक्षा की है। एक बच्चे को पहले पोषण और अपनी जरूरत को पूरा करना होता है जब मनचाही जरूरत पूरी नहीं होती तब क्रोध व्यक्त करना शुरू होता है -पहले स्तर पर क्रोध, शारीरिक और भावनात्मक अस्तित्व के लिए रोना एक तरीका होता है। बाद के जीवन में, अहंकार भी महसूस करते हैं और अपनी पहचान की रक्षा के क्रम में क्रोध व्यक्त करना शुरू होता है। किशोर अपराध अनुपात भी दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। किशोरों द्वारा किये गए अपराधों की सबसे बडी वजह क्रोध या लालच के लिए भी हैं. कभी कभी, हम इसे अपने जीवन में किसी भी गंभीर समस्या का कारण नहीं मानते है।
हालाँकि तुलनात्मक रूप से देखें तो सफलताओं की दर बढ़ी है, लेकिन इच्छाओं को क्या कहिए, जो तमाम बढ़ी हुई सफलताओं को भी बौना साबित कर देती हैं? छोटी-छोटी वजहों से लोग भड़क उठते हैं। अगर गुस्से को विज्ञान की नजर से देखें तो किसी व्यक्ति के खुश रहने या नाराज होने की स्थिति के लिए उसके दिमाग में मौजूद सेरोटोनिन का स्तर जिम्मेदार होता है। लंबे समय तक अगर कोई तनाव में रहता है, खुश रहने की उसे वजह ढूँढे नहीं मिलतीं तो ऐसे लोगों के दिमाग में सेरोटोनिन का स्तर 50 फीसद तक घट जाता है यानी कुदरती तौर पर एक सामान्य इंसान के दिमाग में सेरोटोनिन का जो स्तर मौजूद रहना चाहिए, उससे यह 50 फीसदी कम हो जाता है। जैसे-जैसे शरीर में सेरोटोनिन की मात्रा कम होती है, गुस्से की मात्रा बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जब सेरोटोनिन की मात्रा घटकर 10 फीसदी के आसपास पहुँच जाती है तो ऐसे लोग जरा-सी बात पर ही उखड़ जाते हैं और जान लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। दरअसल जो लोग ज्यादा समय तक तनाव में रहते हैं या जिन लोगों की जिंदगी में खुश रहने के अवसर कम होते हैं, ऐसे लोगों की मस्तिष्क की कोशिकाएँ गुस्से के लिए अनुकूल स्थिति में ढली होती हैं।

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नौकरी में दोनो चाहिये योग्यता और योग


नौकरी करवाना और नौकरी करना दो अलग अलग बातें है। जन्म कुन्डली में अगर शनि नीच का है तो नौकरी करवायेगा और शनि अगर उच्च का है तो नौकरों से काम करवायेगा। तुला का शनि उच्च का होता है और मेष का शनि नीच का होता है। मेष राशि से जैसे जैसे शनि तुला राशि की तरफ़ बढता जाता है उच्चता की ओर अग्रसर होता जाता है,और तुला राशि से शनि जैसे जैसे आगे जाता है नीच की तरफ बढता जाता है, अपनी कुंडली में देख कर पता किया जा सकता है कि शनि की स्थिति कहां पर है और जिस स्थान पर शनि होता है उस स्थान के साथ शनि अपने से तीसरे स्थान पर सातवें स्थान पर और दसवें स्थान पर अपना पूरा असर देता है। इसके साथ ही शनि पर राहु, केतु, मंगल अगर असर दे रहे है तो शनि के अन्दर इन ग्रहों का भी असर शुरु हो जाता है, मतलब जैसे शनि नौकरी का मालिक है और शनि वृष राशि का है वृष राशि धन की राशि है और भौतिक सामान की राशि है वृष राशि से अपनी खुद की पारिवारिक स्थिति का पता किया जाता है। वृष राशि में शनि नीच का होगा लेकिन उच्चता की तरफ बढता हुआ होगा। इसके प्रभाव से जातक धन और भौतिक सामान के संस्थान के प्रति काम करने के लिये उत्सुक रहेगा इसके साथ ही शनि की तीसरी निगाह कर्क राशि पर होगी। कर्क राशि चन्द्रमा की राशि है और कर्क राशि के लिये माता मन मकान पानी वाली वस्तुयें चांदी चावल जनता और वाहन आदि के बारे में जाना जाता है तो जातक का ध्यान काम करने के प्रति भौतिक साधनों तथा धन के लिये इन क्षेत्रों में सबसे पहले ध्यान जायेगा। उसके बाद शनि की सातवीं निगाह वृश्चिक राशि पर होगी यह भी जल की राशि है और मंगल इसका स्वामी है। यह मृत्यु के बाद प्राप्त धन की राशि है, जो सम्पत्ति मौत के बाद प्राप्त होती है उसके बारे में इसी राशि से जाना जाता है। किसी की सम्पत्ति को बेचकर उसके बीच से प्राप्त किये जाने वाले कमीशन की राशि है, तो जातक जब नौकरी करेगा तो उसका ध्यान इन कामों की तरफ भी जायेगा। इसके बाद शनि का असर दसवें स्थान में जायेगा। वृष राशि से दसवीं राशि कुम्भ राशि है, इसका मालिक शनि ही है और अधिकतर मामलों में इसे यूरेनस की राशि भी कहा जाता है। कुम्भ राशि को मित्रों की राशि और बडे भाई की राशि कहा जाता है,जातक का ध्यान उपरोक्त कामों के लिये अपने मित्रों और बडे भाई की तरफ भी जाता है अथवा वह इन सबके सहयोग के बिना नौकरी नही प्राप्त कर सकता है, यह राशि संचार के साधनों की राशि भी कही जाती है, जातक अपने कार्यों और जीविकोपार्जन के लिये संचार के अच्छे से अच्छे साधनों का प्रयोग भी करेगा। अगर इसी शनि पर मंगल अपना असर देता है तो जातक के अन्दर तकनीकी भाव पैदा हो जायेगा वह चन्द्रमा की कर्क राशि का प्रयोग मंगल के असर के कारण भवन बनाने और भवनों के लिये सामान बेचने का काम करेगा। वह चन्द्रमा से खेती और मंगल से दवाइयों वाली फ़सलें पैदा करने का काम करेगा, वह खेती से सम्बन्धित औजारों के प्रति नौकरी करेगा।
इसी तरह से अन्य भावों का विवेचन किया जाता है। शनि के द्वारा नौकरी नही दी जाती है तो शनि पर किसी अन्य ग्रह का प्रभाव माना जाता है। अन्य ग्रहों के द्वारा दिये जाने वाले प्रभावों से और शनि की कमजोरी से अगर नौकरी मिलती है तो शनि को मजबूत किया जा सकता है। वैदिक ज्योतिष में तथा अन्य प्रकार के ग्रंथों में शनि को बली बनाने के लिये उपाय बताये गये हैं।
नौकरी के लिये शनि के उपाय: नौकरी का मालिक शनि है लेकिन शनि की युति अगर छठे भाव के मालिक से है और दोनो मिलकर छठे भाव से अपना सम्बन्ध स्थापित किये है तो नौकरी के लिये फ़लदायी योग होगा, अगर किसी प्रकार से छठे भाव का मालिक अगर क्रूर ग्रह से युति किये है अथवा राहु केतु या अन्य प्रकार से खराब जगह पर स्थापित है अथवा नौकरी के भाव का मालिक धन स्थान या लाभ स्थान से सम्बन्ध नही रखता है तो नौकरी के लिये फ़लदायी समय नहीं होगा।
नौकरी से मिलने वाले लाभ का घर चौथा भाव है। चौथे भाव में अगर कोई खराब ग्रह है और नौकरी के भाव के मालिक का दुश्मन ग्रह है तो वह चाह कर भी नौकरी नहीं करने देगा, इसके लिये उसे चौथे भाव की ग्रह शांति करनी चाहिये। जैसे अगर मंगल चौथे भाव मे है और नौकरी के भाव का मालिक बुध है तो मंगल की शांति करनी है और अगर शनि चौथे भाव में है और नौकरी के भाव का मालिक सूर्य है तो सूर्य की शांति करनी है। इसी प्रकार से अन्य ग्रहों का उपाय किया जाता है।
शनि कर्म का दाता है और केतु कर्म को करवाने के लिये आदेश देता है। लेकिन बिना गुरु के केतु आदेश भी नही दे सकता है। गुरु भी तभी आदेश दे सकता है जब उसके पास सूर्य का बल है और सूर्य का बल भी तभी काम करता है जब मंगल की शक्ति और उसके द्वारा की जाने वाली सुरक्षा उसके पास है। सुरक्षा को भी दिमाग से किया जाता है अगर सही रूप से किसी सुरक्षा को नियोजित नही किया गया है तो कहीं से भी नुकसान हो सकता है। इसके लिये बुध का सहारा लेना पडता है। बुध भी तभी काम करता है जब शुक्र का दिखावा उसके पास होता है।

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जलरोग का ज्योतिषीय कारण और उपचार

जलरोग का ज्योतिषीय कारण:
चंद्रमा कफ प्रवृति कारक माना जाता है जिसमें वात का भी संयोग होता है। अत: इसकी प्रतिकूलता से रक्तविकार, डायरिया, ड्राप्सी, पीलिया, टी.बी,. त्वचारोग, भय आदि रोग को जन्म देता है। बृहस्पति कफ से संबंध रखता है। यह लिवर, गॉलब्लैडर, प्लीहा, पैंक्रियाज, कान एवं वसा को नियंत्रित करता है। इन अंगों से उत्पन्न विकृतियां इस ग्रह की महादशा में देखी जाती हैं। शनि कफ प्रकृति का होता है। छाती, पैर, पांव, गुदा, स्नायुतंत्र आदि अंगों का यह जनक है। इसके दुष्प्रभाव से अत्यंत घातक और असाध्य जलीय रोग होते हैं। जलीय ग्रह शरीर की अंत: स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है, जिससे समस्त जननांगीय विकृतियां, मूत्ररोग, आलस्य, थकान आदि पनपते हैं। मनुष्य का जन्म ग्रहों की शक्ति के मिश्रण से होता है। यदि यह मिश्रण उचित मात्रा में न हो अर्थात किसी तत्व की न्यूनाधिकता हो, तो ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है। शरीर के समस्त अव्यवों, क्रियाकलापों का संचालन करने वाले सूर्यादि यही नवग्रह हैं तो जब भी शरीर में किसी ग्रह प्रदत तत्व की कमी या अधिकता हो, तो व्यक्ति को किसी रोग-व्याधि का सामना करना पडता है। यूँ तो स्वस्थता-अस्वस्थता एक स्वाभाविक विषय है। किंतु यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते। यह स्थिति तब भी उत्पन हो सकती है, जब अपनी निश्चित मात्रा के अनुसार कोई ग्रह प्राणी पर प्रभाव न डाल पाए। यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते।
डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से संबंधित रोग, उल्टी किडनी संबंधित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग, मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका संबंधी रोग, पीलियाब्राह्मंड की भांति ही मानवी शरीर भी जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु एवं आकाश नामक इन पंचतत्वों से ही निर्मित है और ये पँचोंतत्व मूलत: ग्रहों से ही नियन्त्रित रहते हैं। आकाशीय नक्षत्रों(तारों, ग्रहों) का विकिरणीय प्रभाव ही मानव शरीर के पंचतत्वों को उर्जा शक्ति प्रदान करता है। इस उर्जाशक्ति का असंतुलन होने पर अर्थात जब भी कभी इन पंचतत्वों में वृद्धि या कमी होती है या किसी तरह का कोई कार्मिक दोष उत्पन होता है, तब उन तत्वों में आया परिवर्तन एक प्रतिक्रिया को जन्म देता है। यही प्रतिक्रिया रोग के रूप में मानव को पीडित करती है। हमारे इस शरीर की स्थिति के लिए जन्मकुंडली का लग्न(देह) भाव, पंचमेश और चतुर्थेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लग्न भाव देह को दर्शाता है, चतुर्थेश मन की स्थिति और पंचमेश आत्मा को। जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह), चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है, वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है। चंद्र और शुक्र के साथ जब भी पाप ग्रहों का संबंध होगा तो जलीय रोग जैसे शुगर, मूत्र विकार और स्नायुमंडल जनित बीमारियां होती है। मिथुन राशि पर सूर्य के आते ही गर्मी अपने चरम पर पहुँच जाती है व सूर्य के चंद्रमा की जलीय राशि पर आते ही भरपूर बरसात होने लगती है(ऋतुओं का संवाहक सूर्य ही है)अपनी राशि पर प्रवेश कर सूर्य धरती में समा रहे जल को अपनी प्रचंड गर्मी से खराब कर उसमे विकृतियाँ पैदा करने लगता है अत: सभी प्रकार के जल प्रदूषण से बचने के लिए आवश्यक है कि पूरे जल प्रबंधन में जल दोहन उनके वितरण तथा प्रयोग के बाद जल प्रवाहन की समुचित व्यवस्था हो। सभी विकास योजनाएं सुविचरित और सुनियोजित हो। कल-कारखानें आबादी से दूर हों। जानवरों-मवेशियों के लिए अलग-अलग टैंक और तालाब की व्यवस्था हो। नदियां झरनों और नहरों के पानी को दूषित होने से बचाया जाए। इसके लिए घरेलू और कल-कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों को जल स्रोत में मिलने से पहले भली-भांति नष्ट कर देना चाहिए। डिटरजेंट्स का प्रयोग कम करके प्राकृतिक वनस्पति पदार्थ का प्रचलन करना होगा। इन प्रदूषणों को रोकने के लिए कठोर नियम बनाना होगा और उनका कठोरता से पालन करना होगा। मोटे तौर पर घरेलू उपयोग में पानी का प्रयोग करने से पहले यह आश्वस्त हो जाना चाहिए कि वह शुद्ध है या नहीं? यदि संदेह हो कि यह शुद्ध नहीं है तो निम्न तरीकों से इसे शुद्ध कर लेना चाहिए: पीने के पानी के लिए फिल्टर का प्रयोग करना चाहिए।
पानी को कीटाणु रहित करने के लिए उचित मात्रा में ब्लीचिंग पाउडर का उपयोग प्रभावी रहता है। वैसे समय-समय पर लाल दवा डालते रहना चाहिए। पानी को उबाल लें फिर ठंडा कर अच्छी तरह हिलाकर वायु संयुक्त करने के उपरान्त इसका प्रयोग करना चाहिए। पीने के पानी को धूप में, प्रकाश में रखना चाहिए। तांबे के बर्तन में रखे तो यह अन्य बर्तनों की अपेक्षा सर्वाधिक शुद्ध रहता है। एक गैलेन पानी को दो ग्राम फिटकरी या बीस बूंद टिंचर आयोडीन या तनिक या ब्लीचिंग पाउडर मिलाकर शुद्ध किया जा सकता है। चारकोल, बालू युक्त बर्तन से छानकर भी पानी शुद्ध किया जा सकता है। हमेशा बरसात के मौसम में बरसाती जूते के साथ एक रेनकोट रखें। विटामिन सी की मात्रा बढ़ाने से ठंड-गर्म, वायरस, दूर करने में मदद मिलेगी। हालांकि, विटामिन की एक स्वस्थ आपूर्ति एंटीबॉडी को सक्रिय करेंगे। अगर आप बारिश में भीग गए हैं तो एक और शॉवर लेना चाहिए जिससे स्वच्छ पानी से शरीर को सुरक्षित किया जा सके। उसके बाद कम से कम गर्म दूध का एक कप पीयें। इस से आपको संक्रमण से बचाव होगा। पानी के सेवन की वजह से अपने शरीर से विषाक्त पदार्थों को कम करने में मदद मिलेगी। इन सब चिकित्सकीय उपाय के अलावा ज्योतिषीय सलाह से अपने पीडित ग्रह की शांति करानी चाहिए। ग्रह शांति से आपके कमजोर ग्रहों को मजबूत करने से आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होगी जिससे आप स्वास्थ्यलाभ प्राप्त कर पायेंगे।

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पानी से होने वाले बीमारियाँ



ज ल या पानी अनेक अर्थों में जीवनदाता है। इसीलिए कहा भी गया है। जल ही जीवन है। मनुष्य ही नहीं जल का उपयोग सभी सजीव प्राणियों के लिए अनिवार्य होता है। पेड़ पौधों एवं वनस्पति जगत के साथ कृषि फसलों की सिंचाई के लिए भी यह आवश्यक होता है। यह उन पांच तत्वों में से एक है जिससे हमारे शरीर की रचना हुई है और हमारे मन, वाणी, चक्षु, श्रोत तथा आत्मा को तृप्त करती है। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। शरीर में इसकी कमी से हमें प्यास महसूस होती है और इससे पानी शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। अत: यह हमारे जीवन का आधार है। अब तक प्राप्त जानकारियो के अनुसार यह स्पष्ट हो गया है कि जल अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक है इसलिए इसका शुद्ध साफ होना हमारी सेहत के लिए जरूरी है। शुद्ध और साफ जल का मतलब है वह मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अशुद्धियों और रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं से मुक्त होना चाहिए वरना यह हमारे काम नहीं आ सकता है।
रोगाणुओं, जहरीले पदार्थों एवं अनावश्यक मात्रा में लवणों से युक्त पानी अनेक रोगों को जन्म देता है। विश्व भर में 80 फीसदी से अधिक बीमारियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदूषित पानी का ही हाथ होता है। प्रति घंटे 1000 बच्चों की मृत्यु मात्र अतिसार के कारण हो जाती है जो प्रदूषित जल के कारण होता है। याज्ञवल्क्य संहिता ने जीवाणुयुक्त गंदे, फेनिल, दुर्गन्धयुक्त, खारे, हवा के बुलबुल उठ रहे जल से स्नान के लिए भी निषेध किया है। लेकिन आज की स्थिति बड़ी चिन्ताजनक है। शहरों में बढ़ती हुई आबादी के द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले मल-मत्र, कूड़े-करकट को पाइप लाइन अथवा नालों के जरिए प्रवाहित करके नदियों एवं अन्य सतही जल को प्रदूषित किया जा रहा है। इसी प्रकार विकास के नाम पर कल-कारखानों, छोटे-बड़े उद्योगों द्वारा भी निकले बहि:स्रावों द्वारा सतही जल प्रदूषित हो रहे हैं। जहां भूमिगत एवं पक्के सीवर/नालों की व्यवस्था नहीं है यदि है भी तो टूटे एवं दरार युक्त हैं अथवा जहां ये मल/कचरे युक्त जल भूमिगत पर या किसी नीची भूमि पर प्रवाहित कर दिए जाते हैं वहां ये दूषित जल रिस-रिसकर भूगर्भ जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। बरसात के मौसम में मजा, हरियाली और इसके साथ ठंडी जलवायु बहुत भाता है।
कैसी विडम्बना है कि हम ऐसे महत्वपूर्ण जीवनदायी जल को प्रगति एवं विकास की अंधी दौड़ में रोगकारक बना रहे हैं। जब एक निश्चित मात्रा के ऊपर इनमें रोग संवाहक तत्व विषैली रसायन सूक्ष्म जीवाणु या किसी प्रकार की गन्दगी/अशुद्धि आ जाती है तो ऐसा जल हानिकारक हो जाता है। इस प्रकार के जल का उपयोग सजीव प्राणी करते हैं तो जलवाधित घातक रोगों के शिकार हो जाते हैं। दूषित जल के माध्यम से मानव स्वास्थ्य को सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाले कारक रोगजनक सूक्ष्म जीव हैं। इनके आधार पर दूषित जल रोगों को आमंत्रित करता है। बारिश का एक जलजनित रोग है, अमीबियासिस, संक्रामक जल लेने से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में यह आसानी से पहुँच जाता है।
इसमें प्रोटोजोन, एंट-अमीबा हिस्टोलाइटिका, बड़ी आँत को अपना घर बनाता है। अमीबियासिस के लक्षण - पतले दस्त, परिवर्तित पाखाने की आदत, भोजन पश्चात दस्त, पेट में दर्द, जो रुक-रुक कर हो, कब्ज एवं दस्त बारी-बारी से हों, अपच वायु-विकार हो।
भोजन निर्माण एवं संग्रहण से संबंधित समस्त तत्व शुद्धता तथा कीट से बचाव पर केंद्रित होते हैं। विशेष रूप से होटल, ठेले आदि पर अशुद्ध पानी से बने चटखारेदार खाद्य पदार्थ, वेटर द्वारा नाखून, सिर एवं शरीर के अन्य खुले भाग का ध्यान नहीं रखे जाने के कारण अमीबियासिस का जीवाणु एक से दूसरे तक पहुँचता है।
यह एक कोशीय जीवाणु बड़ी आँत के अतिरिक्त लीवर, फेफड़ों, हृदय, मस्तिष्क, वृक्क, अंडकोष, अंडाशय, त्वचा आदि तक में पाया जा सकता है।
सबसे आम बीमारी श्वसन प्रणाली और पानी और खाद्य जनित रोगों से संबंधित है। कोल्ड और फ्लू जैसी आम बीमारी बरसात के मौसम में ही पायी जाती है और यह आमतौर पर तापमान में अस्थिरता की वजह से होती है।
आम बीमारी जो बरसात के मौसम के दौरान होती है, उनमें से डेंगू, फ्लू, खाद्य संक्रमण, जल संक्रमण, हैजा। पानी के ये रोग व्यक्ति या जानवर द्वारा या तो किया जा सकता है अथवा बैक्टीरिया के कारण होता है। इसकी गंभीर रूप से गुर्दे, लीवर, दिमागी बुखार और सांस की विफलता को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
दूषित जल से रोगजनक जीवों से उत्पन्न रोग:
विषाणु द्वारा: पीलिया, पोलियो, गैस्ट्रो-इंटराइटिस, जुकाम, संक्रामक यकृत षोध, चेचक।
जीवाणु द्वारा: अतिसार, पेचिस, मियादी बुखार, अतिज्वर, हैजा, कुकुर खांसी, सूजाक, उपदंश, जठरांत्र शोथ, प्रवाहिका, क्षय रोग।
प्रोटोजोआ द्वारा: पायरिया, पेचिस, निद्रारोग, मलेरिया, अमिबियोसिस, रूग्णता, जियार्डियो-सिस रूग्णता।
कृमि द्वारा: फाइलेरिया, हाइडेटिड सिस्ट रोग तथा पेट में विभिन्न प्रकार के कृमि का आ जाना जिसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
रोग उत्पन्न करने वाले जीवों के अतिरिक्त अनेकों प्रकार के विषैले तत्व भी पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इन विषैले तत्वों में प्रमुख हैं कैडमियम, लेड, मरकरी, निकल, सिल्वर, आर्सेनिक आदि। जल में लोहा, मैंगनीज, कैल्सीयम, बेरियम, क्रोमियम कापर, सीलीयम, यूनेनियम, बोरान, तथा अन्य लवणों जैसे नाइट्रेट, सल्फेट, बोरेट, कार्बोनेट, आदि की अधिकता से मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आंतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आंतों में पहुंचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का केंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली कीटनाशी दवाईयों एवं उर्वरकों के विषैले अंश जल स्रोतों में पहुंचकर स्वास्थ्य की समस्या को भयावह बना देते हैं। प्रदूषित गैसे कार्बन डाइआक्साइड तथा सल्फर डाइआक्साइड जल में घुसकर जलस्रोत को अम्लीय बना देते हैं। अनुमान है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं लापरवाही से जहां एक ओर प्रदूषण बढ़ रहा है वहीं ऊर्जा की मांग एवं खपत के अनुसार यह मंहगा भी हो रहा है। इसका पेयजल योजनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। ऊर्जा की पूर्ति हेतु जहां एक ओर एक विशाल बांध बनाकर पनबिजली योजनाओं से लाभ मिलेगा वहीं इसका प्रभाव स्वच्छ जल एवं तटीय पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ेगा जिसके कारण अनेक क्षेत्रों के जलमग्न होने व बड़ी आबादी के स्थानान्तरण के साथ सिस्टोमायसिस तथा मलेरिया आदि रोगों में वृद्धि होगी। जल प्रदूषण की मात्रा जो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विकराल रूप धारण करेगी।

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बृहस्पतेश्वर महादेव की उपासना से प्रत्येक कामनाओं की पूर्ति


श्रवण - हिन्दू पंचांग का पांचवा माह श्रावण होता है। ज्योतिष के अनुसार इस मास के दौरान या पूर्णिमा के दिन आकाश में श्रवण नक्षत्र का योग बनता है इसलिए श्रवण नक्षत्र के नाम से इस माह का नाम श्रावण हुआ। इस माह से चातुर्मास की शुरुआत होती है। यह माह चातुर्मास के चार महीनों में बहुत शुभ माह माना जाता है। चातुर्मास धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। धर्म शास्त्रों में सावन में भगवान शिव की आराधना का महत्व अधिक बताया गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार ऋषि मार्कण्डेय ने लंबी उम्र के लिए शिव की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास में कठिन तप किया, जिसके प्रभाव से मृत्यु के देवता यमराज भी पराजित हो गए। यह भी मान्यता है कि सावन में शिव द्वारा पार्वती को सुनाई गई अमरत्व कथा सुनाने से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है। यही कारण है कि सावन में शिव आराधना का विशेष महत्व है। भगवान शिव पृथ्वी पर अपने निराकार-साकार रूप में निवास कर रहे हैं। भगवान शिव सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान हैं। महाशिवरात्रि पर्व भगवान शिवशंकर के प्रदोष तांडव नृत्य का महापर्व है। शिव प्रलय के पालनहार हैं और प्रलय के गर्भ में ही प्राणी का अंतिम कल्याण सन्निहित है। शिव शब्द का अर्थ है कल्याण और रा दानार्थक धातु से रात्रि शब्द बना है, तात्पर्य यह कि जो सुख प्रदान करती है, वह रात्रि है।
शिवस्य प्रिया रात्रियस्मिन व्रते अंगत्वेन विहिता तदव्रतं शिवरात्याख्याम्
इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है, वह रात्रि जो आनंद प्रदायिनी है और जिसका शिव के साथ विशेष संबंध है। शिवरात्रि, जो फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को है, उसमें शिव पूजा, उपवास और रात्रि जागरण का प्रावधान है। इस महारात्रि को शिव की पूजा करना सचमुच एक महाव्रत है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति महाशिवरात्रि के व्रत पर भगवान शिव की भक्ति, दर्शन, पूजा, उपवास एवं व्रत नहीं रखता, वह सांसारिक माया, मोह एवं आवागमन के बँधन से हजारों वर्षों तक उलझा रहता है। यह भी कहा गया है कि जो शिवरात्रि पर जागरण करता है, उपवास रखता है और कहीं भी किसी भी शिवजी के मंदिर में जाकर भगवान शिवलिंग के दर्शन करता है, वह जन्म-मरण पुनर्जन्म के बँधन से मुक्ति पा जाता है। शिवरात्रि के व्रत के बारे में पुराणों में कहा गया है कि इसका फल कभी किसी हालत में भी निरर्थक नहीं जाता है।
धार्मिक दृष्टि से गुरू यानि बृहस्पति को देवो का गुरू माना जाता है। ज्योतिष विज्ञान में गुरू को व्यक्ति के भाग्य का निर्णायक माना जाता है अत: गुरूवार के व्रत का बहुत महत्व है। सावन मास में गुरूवार व्रत में बृहस्पतेश्वर महादेव की उपासना की जाती है। जिनकी भी कुंडली में गुरू राहु से पीडि़त होकर विपरीत कारक हो, उन्हें बृहस्पतेष्वर महादेव की उपासना करने से लाभ प्राप्त होता है। जिन भी जातक के जीवन में विद्या तथा धन संबंधी कष्ट दिखाई दे, उसे बृहस्पतेश्वर महादेव की इस पूजा को जरूर करना चाहिए। बृहस्पतेश्वर महादेव की पूजा के लिए प्रात:काल स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर ब्रम्ह मूर्हुत में पूजन का विधान है, जिसमें बृहस्पति की प्रतिमा या बेसन से शिवलिंग बनाकर किसी पात्र में रखकर पीले वस्त्र, पीले फूल, चमेली के फूलों की माला अक्षत आदि से पूजन करें। पंचोपचार पूजा कर पीले फलों का भोग लगायें तथा दूध में केषर डालकर उॅ बृहस्पतेश्वराय नम: का जाप करते हुए रूद्राभिषेक करें। इसके उपरांत आरती आदि के बाद यथा संभव ब्रहम्णों को दान तथा भोज कराने के उपरंात चने या बेसन से बने मीठे खाद्य ग्रहण करें। श्रावण मास में किये गए बृहस्पतेष्वर महादेव के पूजन से गुरू ग्रहों के दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है तथा जीवन में आ रही विद्या तथा धन संबंधी कष्टों से राहत मिल सकती है।

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ज्योतिष का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण


ग्रहों और राशियों को भी स्त्री और पुरूष वर्गों में बांटा गया है। मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ को पुरूष राशि और वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियों को स्त्री राशि कहा गया है। इसी प्रकार चंद्रमा और शुक्र जहां स्त्री स्वभाव ग्रह है वहीं सूर्य, मंगल और गुरू पुरूष ग्रह हैं। स्त्री जातकों में स्त्री राशि और स्त्री ग्रहों का प्रभाव अधिक होने पर स्त्रैण गुण अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होंगे।
ऐसा देखा गया कि जिन मामलों में पुरूष जातकों की तुलना में स्त्री जातकों का विश्लेषण किया जाता है, उनमें स्त्री जातकों के लिए अलग नियम दिए गए हैं। शेष योगायोगों के मामले में स्त्री और पुरूष जातकों को कमोबेश एक ही प्रकार से फलादेश दिए जाते हैं। जिस स्त्री की कुण्डली में पुरूष राशियों और पुरूष ग्रहों की भूमिका अधिक होती है, उनका जीवन में कमोबेश पुरूषों की तरह होता है। भारी आवाज, बड़े डील-डौल, उत्साह के साथ आगे बढ़कर काम करने वाली महिलाओं को देखकर ही समझा जा सकता है कि उनकी कुंडली में पुरूष राशियों और सूर्य, मंगल और गुरू जैसे ग्रहों का प्रभाव अधिक है।
बृहस्पति देता है सांसारिक सुख
पुरूष कुंडली में जहां शुक्र सांसारिकता और दैहिक सुख के लिए देखा जाता है वहीं स्त्री जातक के लिए गुरू महत्वपूर्ण है। स्त्री जातक के लिए उसके पति का प्रगति करना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। जिस स्त्री जातक की कुंडली में वृहस्पति शुभ स्थान और शुभ प्रभाव में होता है, उसे सामाजिक मान प्रतिष्ठा और सांसारिक सुख सहजता से मिलते हैं। वृहस्पति खराब होने पर स्त्री जातक को अपमान और उपेक्षा झेलनी पड़ सकती है। ?से में अधिकांश स्त्री जातकों को गुरू का रत्न पुखराज पहनने की सलाह दी जाती है। पुखराज रत्न सोने की अंगूठी में पहनने से गुरू का प्रभाव बढ़ जाता है। जिन जातकों के गुरू मारक या बाधकस्थानाधिपति होता है, उनके अलावा सभी स्त्री जातकों को बेधड़क पुखराज पहनाया जा सकता है।
मंगल भाता है महिलाओं को सामान्य तौर पर ऋतुस्त्राव के दौरान स्त्रियों के रक्त की हानि होती है। ज्योतिष में इसे मंगल के ह्रास के रूप में देखा जाता है। मंगल के इस नुकसान की भरपाई के लिए सुहागिनों को लाल बिंदी लगाने, लाल चूडियां पहनने, लाल साड़ी एवं लाल रंग का सिंदूर लगाने की सलाह दी जाती है। लाल रंग को धारण करने से मंगल का तेज महिलाओं को फिर से प्राप्त हो सकता है।
हालांकि लोकमान्यता में अधिकांशतया इसे सुहाग से जोड़ा जाता है, लेकिन ज्योतिषीय दृष्टिकोण से यह मंगल के नुकसान की भरपाई है। सामाजिक मान्यताओं में वैधव्य का दोष स्त्रियों को दिया जाता है। स्त्री के मांगलिक हो और उसका पति मांगलिक न हो तो ?सा माना जाता है कि स्त्री हावी रहेगी और दांपत्य जीवन में तनाव रहेगा। अगर मंगल और शनि आठवें स्थान पर हो तो उसे चूंदड़ी मंगल कहा जाता है। ?सी स्थिति में मंगल वैधव्य के योग बनाता है। विधुर की तुलना में विधवा को पुरूष प्रधान समाज में अधिक समस्याओं को सामना करना पड़ सकता है। इसे देखते हुए कुंडली मिलान के समय पुरूष की तुलना में स्त्री के मंगल पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
बुध और शनि की भूमिका
बुध और शनि ग्रहों को नपुंसक ग्रह बताया गया है। पुरूष कुण्डली में जहां शनि पीड़ादायी ग्रह है वहीं स्त्री जातक के लिए बुध पीड़ादायी ग्रह सिद्ध होता है। बुध के प्रभाव में एक ही रूटीन में लंबे समय तक बने रहना और एक जैसी क्रियाओं को लगातार दोहराते रहना पुरूष के लिए आसान है, पर स्त्री जातकों के लिए यह पीड़ादायी सिद्ध होता है। ?से में महिलाओं को अपनी दिनचर्या, कपड़े, रहने का तौर तरीका लगातार बदलते रहने की सलाह दी जाती है। इससे उनकी जिंदगी में दुख और तकलीफ का असर कम होता है। परिधान की बात की जाए तो महिलाओं को परिधानों का रंग भी लगातार बदलना चाहिए।
चंद्रमा देता है रचनात्मकता
जिस स्त्री जातक की कुंडली में चंद्रमा अच्छी स्थिति में होता है, वे हंसमुख और रचनात्मक होती हैं। हर काम में सक्रिय रहती हैं और उनमें नया काम करने की ललक होती है। राहू, केतू, बुध और शनि के कारण चंद्रमा पीडित हो तो स्त्री कर्कशा, रूदन करने वाली या कलहप्रिय होती है। ?सी स्त्रियों को रोजाना सुबह खाली पेट मिश्री के साथ मक्खन खाने की सलाह दी जाती है। चंद्रमा पीडित होने पर शरीर में खनिज तत्वों और कैल्शियम की कमी हो जाती है। मक्खन में उपलब्ध खनिज तत्व एवं कैल्शियम जातक के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को फिर से दुरूस्त करता है और जातक हंसने खिलखिलाने लगता है।
स्त्री और अंग लक्षण
शारीरिक चिह्नों के आधार पर स्त्री को पुरूष के लक्षण अलग-अलग बताए गए हैं। पुरूष की कुंडली में जहां शंख, पद्म एवं चक्र जैसे चिह्न शरीर के दाएं अंग में शुभ बताए गए हैं, वहीं स्त्री जातक की कुंडली में ये चिह्न बाएं अंग में शुभ माने गए हैं। स्त्री जातक के ललाट, आंख, गाल, कंधे, हाथ, वक्ष, उदर एवं पांव के बाएं भागों में तिल को शुभ माना गया है। अंगों की स्फुरण के मामले में भी स्त्री के बाएं अंगों में स्फुरण को शुभ बताया गया है। हस्तरेखा शास्त्र में ?सा माना जाता है कि पुरूष का बायां हाथ उसे अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मिला है, जबकि दायां हाथ इस जीवन के भाग्य और कर्म का लेखा जोखा रखता है, इसके उलट स्त्री जातक के बाएं हाथ को अधिक तरजीह दी जाती रही है। बदलते जमाने के अनुसार अब कुछ ज्योतिषी कामकाजी या खुद निर्णय लेने वाली स्त्रियों के दाएं हाथ का निरीक्षण भी करने लगे हैं।

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शक्ति और ज्ञान का मद


एक बार यह गुरुकुल से चार युवक विद्या पूरी करने के उपरान्त अपने घर वापिस जा रहे थे। मार्ग में एक जंगल था, जिसको होकर वो गुजर रहे थे। उन चारों में तीन मेद्यावी छात्र थे व लौकिक विद्याओं में पांरगत थे। चैथा आध्यात्मिक रुचि का था व प्रज्ञा चलु सम्पन्न था। जंगल में एक स्थान पर उन्होंने देखा अस्थि पंजर, रक्त मांस बिखरा पड़ा था। तीन मेधावी छात्रों के मस्तिष्क में विचार आया क्यों न हम अपनी योग्यता का परीक्षण कर लें व जो जानवर मरा पड़ा है इसको संजीवनी विद्या से जीवित करके देंखे। तीनों इस कार्य में जुट गए।
चौथे छात्र चिल्लाया, अरे यह क्या करने जा रहे हो। सम्भवत: किसी ने शेर को मारा हो, यदि ऐसा हुआ तो शेर जीवित हो जाएगा। तीनो अपनी प्रतिभा के मद में चूर थे उन्होंने कुछ नहीं सुना व अपने कार्य में जुटे रहे। चौथा व्यक्ति ने देखा कि वो तीनों उसकी बात नहीं सुन रहे है तो वह आस पास सुरक्षित जगह देखने लगा। तभी उसे एक ऊँचा वृक्षा दिखायी दिया वह उस पर चढ़कर छुप गया। उसने देखा कि तीनों के परिश्रम से जो जानवर जीवित हुआ वह शेर ही था। शेर जिन्दा होते ही तीनों को खा गया।
यह घटना हम सभी पर लागू होती है हम भौतिकवाद की विद्या में इतने चूर हो चुके हैं कि इसके गलत परिमाण की हमें सुध ही नहीं है। भोगवाद रूपी दानव पल बढ़ रहा है एक दिन कहीं वो बड़ा होकर हम सबको न खा जाए। इसके लिए दिव्यद्रष्टा, दार्शनिक, आध्यात्मवादी व प्रज्ञावान लोग शोर मचा रहे है परन्तु अपनी शक्ति के मद में चूर आज के आधुनिक लोगों को कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा है। हम सोचते हैं कि हमने बहुत प्रगति की परन्तु क्या आने वाली पीढ़ी हमें मूर्ख नहीं कहेगी कि हम जानते हुए भी वो सब करे जा रहें है जो भारी विनाश को आमन्त्रित कर सकता है। आखिर हम क्यों यह भूल बैंठे हैं कि हमारी आज की सभी समस्याओं का समाधान कहीं न कहीं आध्यात्म में ही छुपी हुई है, न कि भौतिकवाद में।

अव्यवस्था...!!!


इन दिनों में विश्व तथा देश की सबसे बड़ी समस्या मुद्रा स्फीति या अन्य अर्थों में मंहगाई है। मैंने इस वक्त के अव्यवस्था पर गंभीरता पूर्वक चिंतन किया तो पाया जब-जब व्यवस्था (सिस्टम) ने, शनि की मर्यादा यानी नैसर्गिक न्याय और गुरू यानी धर्म की मर्यादा का उल्लंघन किया, उसके बहुत भयानक परिणाम हुये। इसे आप विश्व युद्ध के तौर पर देख सकते हैं। इसे आप वैश्विक मंदी के तौर पर भी देख सकते हैं। व्यक्ति समाज या देश मर्यादा का जितनी गंभीरता पूर्वक अतिक्रमण करता है, उतने ही भयानक और दीर्धकालिक परिणाम भुगतने पड़ते हैं। दीर्धकालिक परिणामों के लिए ज्योतिष में बड़े ग्रह यानी गुरू, शनि एवं छायाग्रह राहु, मौटे तौर पर कारक होते हैं और अल्पकालीन अव्यवस्था के लिए सूर्य, मंगल, बुध, शुक्र कारक होते हैं एवं अत्यंत अल्पकालीन परेशानियों की वजह चंद्रमा होता है। हम आज चर्चा दुनिया में छायी मंदी की कर रहे हैं जो सारी दुनिया में चर्चा का विषय है।
१८४७ से लेकर १९२९ और २००८ में हम एक सामान्य बात देखते हैं कि जब पूरा विश्व मंदी से संघर्षरत था, तब गुरू, धनु-मीन राशिगत हो अथवा राहु से आक्रांत हो अथवा शनि, उच्च राशिगत हो या राहु से आक्रांत हो। या उच्चस्थ कर्कगत गुरू हो या गुरु-शुक्र का मेल हो, तभी बाजार में मंदी और उपभोक्ताओं में निराशा दिखती है। मंदी की विभिषिका से बाहर आने के लिए व्यवस्था में भीषण रक्तपात होता है अर्थात इस अव्यवस्था का परिणाम राष्ट्र के अंतर ग्रहयुद्ध अथवा राष्ट्र के बीच में युद्ध की संभावना बढ़ाती है। इस वक्त भी जब मंदी की परेशानियों से लोग जूझ रहे हैं, तब भी उच्चस्थ कर्कगत गुरू तथा उच्चस्थ शनि सारी दुनिया में कठोर माप-दंड के साथ मर्यादाओं के पुनस्र्थापन के लिए अग्रसर हैं। कई बार मर्यादायें भीषण रक्तपात से ही स्थापित होती हैं, ऐसा मैं कहता नहीं, ऐसा इतिहास में पढ़ा है, महाभारत ने दिखाया है, हमने दो विश्व युद्ध भी देखे हैं। इन सब के पीछे कहीं न कहीं अर्थ एवं अतिशय महत्वाकांक्षा बड़ी वजह थी। तो क्या विश्व भयानक मंदी की ओर जा रहा है? अथवा कोई बड़ा युद्ध या बड़ी क्रांति या बड़े वर्गसंघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है? जवाब है- हां। २००८ से २०१४ तक लगातार चल रहे भयानक आर्थिक मंदी ने लोगों के अंदर भयानक निराशा पैदा कर दी है, और कहीं कहीं उन्माद भी। उच्चस्थ गुरू एवं उच्चस्थ शनि ने आईएसआईएस जैसे संगठनों का उदय किया। इस कहानी के प्रमुख पात्र बगदादी २००८ मेें अमेरिका की कैद में था। असल में व्यवस्था के परिवर्तनों को व्यापक दृष्टि से देखें सो समझ में आएगा, सारा संघर्ष असंतोष का है। असंतोष दो ही तरीके से खत्म हो सकता है, या तो असंतोष तुष्ट हो जाए या असंतोष का दमन कर दिया जाए। कुल मिलाकर पूरा विश्व एक भयानक युद्ध की ओर बढ़ रहा है, एक तरफ उन्माद है, तो दूसरी तरफ भयानक लोभ। यदि बहुत जल्दी मर्यादाओं का पुनस्र्थापन नहीं हुआ और बीते दिनों में की गई गल्तियों को सुधारा नहीं गया, चाहे वो ईराक और अफगास्तिान पर अमेरिका का हमला हो, या यूएसएसआर के पतन के लिए अमेरिका द्वारा की गई साजिशें हो, चाहे वो २-जी घोटाला हो या कोल-ब्लॉक घोटाला। यदि देश में या समाज में या व्यवस्था में सत्ता के लोभ में मदान्ध कुछ लोग समाज के बाकी लोगों का शोषण करते हैं और इससे जीवन स्तर में और संतुष्टि के स्तर में बड़ा अंतर आता है तो निश्चित मानिये, वह देश, वह समाज, वह व्यवस्था बीमार हो जाती है। देश के अंदर बीते दिनों में बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय नीतियां धनपतियों के हित में बनाई गईं, जिसका परिणाम देश में तीन स्पष्ट वर्ग तैयार हो गए, एक अत्यंत धनपति और एक अत्यंत संघर्षशील मध्यमवर्ग और एक अतिशय गरीब। परिणाम धनपति बाजार पर हावी हो गए और अपनी ईच्छा से मंहगाई बढ़ाई। मध्यम और अत्यंत गरीब की क्रयशक्ति कम होने लगी और बाजार में मांग कम हो गई। उत्पादन कम हो गया, उत्पादन लागत बढ़ गई और देश के अंदर भयानक असंतोष और नैराश्य पैदा हो गया। १४ सितंबर को फ्यूचर फ ॉर यू द्वारा आयोजित मुद्रा स्फ ीति पर केन्द्रित चर्चा में डॉ. अशोक पारख ने इसके भयानक परिणाम की छोटी सी झलक दिखलाई और कहा कि इसके कारण ही देश की पूरी सत्ता बदल गई। और साथ ही नई सरकार भी उपचुनाव में दो वजहों से परास्त हुई। एक- कि मूल आर्थिक वजहों से मुख मोड़ लिया, दूसरा- जनता का ध्यान बंटाने के लिए दूसरी सामाजिक मुद्दे तैयार करने की कोशिश हुई। जिसका परिणाम पुन: सरकार को मिल गया। मतलब बहुत साफ है कि विश्व एवं देश के महत्वपूर्ण लोगों को समझ लेना होगा कि जनता का सरोकार सर्वोपरि होना चाहिए और कठोर आदर्श के मापदण्डों का शुचिता पूर्वक पुनस्र्थापन शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए, ग्रहों की चाल इस वक्त यही दिखाती है। सभी आलोचनाओं से ऊपर आर्थिक सुधारवादी निर्णय दृढ़ता से लेने होंगे, नहीं तो उच्च के शनि के कारण आगे राह कठिन है।

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मरनें से पहले रावण ने लक्ष्मन को बताई थी तींन बातें


जिस समय रावण मरणासन्न अवस्था में था, उस समय भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि इस संसार से नीति, राजनीति और शक्ति का महान् पंडित विदा ले रहा है, तुम उसके पास जाओ और उससे जीवन की कुछ ऐसी शिक्षा ले लो जो और कोई नहीं दे सकता। श्रीराम की बात मानकर लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में पड़े रावण के सिर के नजदीक जाकर खड़े हो गए।
रावण ने कुछ नहीं कहा। लक्ष्मणजी वापस रामजी के पास लौटकर आए। तब भगवान ने कहा कि यदि किसी से ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके चरणों के पास खड़े होना चाहिए न कि सिर की ओर। यह बात सुनकर लक्ष्मण जाकर इस रावण के पैरों की ओर खड़े हो गए। उस समय महापंडित रावण ने लक्ष्मण को तीन बातें बताई जो जीवन में सफलता की कुंजी है
1. पहली बात जो रावण ने लक्ष्मण को बताई वह ये थी कि शुभ कार्य जितनी जल्दी हो कर डालना और अशुभ को जितना टाल सकते हो टाल देना चाहिए यानी शुभस्य शीघ्रम्। मैंने श्रीराम को पहचान नहीं सका और उनकी शरण में आने में देरी कर दी, इसी कारण मेरी यह हालत हुई।
2.दूसरी बात यह कि अपने प्रतिद्वंद्वी, अपने शत्रु को कभी अपने से छोटा नहीं समझना चाहिए, मैं यह भूल कर गया। मैंने जिन्हें साधारण वानर और भालू समझा उन्होंने मेरी पूरी सेना को नष्ट कर दिया। मैंने जब ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा था तब मनुष्य और वानर के अतिरिक्त कोई मेरा वध न कर सके ऐसा कहा था क्योंकि मैं मनुष्य और वानर को तुच्छ समझता था। मेरी मेरी गलती हुई।
3. रावण ने लक्ष्मण को तीसरी और अंतिम बात ये बताई कि अपने जीवन का कोई राज हो तो उसे किसी को भी नहीं बताना चाहिए। यहां भी मैं चूक गया क्योंकि विभीषण मेरी मृत्यु का राज जानता था। ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी।

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रसोई घरों के लिए निन्लिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें


निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें:
* किचन के ईशान में सिंक तो ठीक है, परन्तु वहां जूठे बर्तन न तो रखें या धुलाई करें।
* किचन के ईशान से सटाकर चूल्हा कदापि न रखें, वहां गैस सिलिन्डर भी न रखें।
* घर में प्रवेश करते वक्त एवं घर से बाहर जाते समय परिवार के सदस्यों को चूल्हे के दर्शन न हो, ऐसी व्यवस्था अवश्य करें। ड्राइंग टेबल पर भोजन करते समय भी चूल्हा नहीं दिखना चाहिये।
* भोजन बनाने की व्यवस्था सीढिय़ों के नीचे कदापि न करें। वहाँ अत्यन्त नकारात्मक ऊर्जा रहती हैं।
* किचन में दवाइयाँ कदापि न रखें। वहां पूजा/ मन्दिर भी न रखें।
* किचन के दक्षिण-पूर्व में एक छोटा सा पीला, नारंगी या हरा बल्ब लगायें, शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
* किचन के वायव्य कोण में परदा हरगिज न लगायें। यह छोटी सी भूल अत्यन्त प्रतिकूल परिणाम दे सकती है। किचन में झाड़ू न रखें।
* रसोईघर की दीवार, देहरी, खिड़कियाँ, अलमारियाँ, विद्युत उपकरण, भोजन पकाने के प्लेटफार्म, बर्तन इत्यादि टूटी-फूटी अवस्था में न रखें। उन्हें तुरंत ठीक करवायें या बदलने की व्यवस्था करें। मुड़े हुए कांटे चम्मच, चाकू आदि भी तुरंत हटा दें। अपने रसोईघर को पूर्ण रूप से साफ अवश्य करें, ताकि आपका पावर हाऊस सदैव पावर फुल बना रहे।
* नित्य प्रात:काल अपने रसोईघर के ईशान की खिड़की से थोड़ा सा जल बाहर प्रवाहित करके सूर्य देवता का एवं आग्नेय में कपूर जला कर अग्नि देवता का ध्यान करके उनकी कृपादृष्टि हेतु प्रार्थना करें। परिवार में सौहार्द एवं समरसता की वृद्धि होने लगेगी और रसोईघर की रौनक सारे घर में रौनक लाकर सुख एवं समृद्धि के दरवाजे खोलने लगेगी।
* किचन में सूर्य की रोशनी सबसे ज्यादा आए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।
* किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
* पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
* किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।
* भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
* भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें।
अगर आपके घर में किचन ईशान या नैऋत्य (ये दिशाएं किचन हेतु वर्जित है) दिशा में हैं जिसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है, तो उसे पिरामिड यंत्रों की सहायता से आसानी से सुधारा जा सकता है। अगर किसी कारणवश पूर्व दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाना सम्भव न हो तो जिस दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाते हैं, वहां चूल्हे के पास तीन पिरामिड लगाकर इस दोष को दूर किया जा सकता है। अगर सिंक एवं चूल्हा पास-पास रखे हों और उन्हें अलग जगह हटाना सम्भव न हो तो मध्य में एक छोटा सा पार्टीशन करके या सिंक पर एक पिरामिड लगाकर इस दोष से मुक्ति पा सकते हैं।
किचन के अगल-बगल या ऊपर-नीचे टायलेट अथवा पूजाघर हो या किचन के दरवाजे के ठीक सामने अन्य कमरों के दरवाजे पड़ते हों, तो सिंक पर पिरामिड लगाकर यह दोष सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है। अगर रसोईघर में बीम या दुच्छती हो, तो पिरामिड यंत्रों से उनकी नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। रसोई घर में रंगों का आयोजन बहुत हल्का होना चाहिए। वास्तु अनुसार ही रंगों का चयन हो तो रसोई समृद्धशाली बनती है। हल्का हरा, हल्का नींबू जैसा रंग, हल्का संतरी या हल्का गुलाबी।
इस तरह के कुछ सरल उपाए के द्वारा आप अपने घर कि स्त्रियो कि सेहत ठीक रखे व सेहतमंद भोजन करे

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