विवाह के अवसर पर वर एवं वधू की कुण्डली मिलान करते समय अष्टकूट के साथ-साथ मांगलिक दोष पर भी विचार किया जाता है। इसे शास्त्रों में कुज दोष या भौम दोष का नाम भी दिया गया है। इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि इसका भय दूर हो सके। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तो मंगल दोष माना जाता है। विद्वानों ने राशि से भी उक्त स्थानों पर मंगल के होने पर यह दोष बताया है। किसी भी पत्रिका में यह योग हो तो उस कुण्डली को मंगली कहा जाता है। वर-वधू में से किसी एक की कुण्डली के इन भावों में मंगल हो तथा दूसरे की पत्रिका में नहीं तो ऐसी परिस्थिति को वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है तथा ज्योतिषी उन दोनों का विवाह न करने की सलाह दे देते हैं। यदि वर-वधू दोनों की कुण्डली में उक्त दोष हो तो दोष समाप्त समझा जाता है। यह दोष तब और प्रबल हो जाता है जब जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ अन्य क्रूर ग्रह (शनि, राहू, केतु) बैठे हों। बृहत् पाराशर के अनुसार विकलरू पाप संयुतरू अर्थात पापी ग्रह से युक्त ग्रह विकल अवस्था का होगा तथा दोष कारक होगा। अतः शनि या राहु की युति से मांगलिक दोष में अभिवृद्धि हो जाती है।
मांगलिक दोष की निवृत्ति हेतु मंगल तथा अन्य ग्रहों की शांति एवं सफल वैवाहिक जीवन हेतु लडको का अर्क विवाह एवं कन्याओं हेतु कुंभ विवाह कराना चाहिए। साथ ही पावर्ती-मंगल स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। वैवाहिक जीवन के कष्ट को दूर करने के लिए मंगल का व्रत करने से मंगल दोष की निवृत्ति होती है।
Pt.P.S Tripathi
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