Saturday, 29 August 2015

अगर कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो क्या करें????

कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति को सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त नहीं हो पाती हैं। साथ ही, वैवाहिक जीवन में भी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। शुक्र के दोषों के दूर करने के लिए शुक्रवार को विशेष उपाय किए जा सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार शुक्रवार को देवी लक्ष्मी के लिए भी खास उपाय किए जा सकते हैं। यहां जानिए ​छोटे-छोटे 5 उपाय...
1. हर शुक्रवार शिवलिंग पर दूध और जल चढ़ाएं। साथ ही, ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करें। मंत्र का जप कम से कम 108 बार करना चाहिए। जप के लिए रुद्राक्ष की माला का उपयोग करना चाहिए।
2. किसी गरीब व्यक्ति को या किसी मंदिर में दूध का दान करें।
3. शुक्रवार को किसी विवाहित स्त्री को सुहाग का सामान दान करें। सुहाग का सामान जैसे चूड़ियां, कुमकुम, लाल साड़ी। इस उपाय से देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
4. शुक्र से शुभ फल पाने के लिए शुक्रवार को शुक्र मंत्र का जप करें। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। शुक्र मंत्र: द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:।
5. शुक्र ग्रह के लिए इन चीजों का दान भी किया जा सकता है... हीरा, चांदी, चावल, मिश्री, सफेद वस्त्र, दही, सफेद चंदन आदि। इन चीजों के दान से शुक्र के दोष कम हो सकते हैं।

कैसे करें देवी सरस्वती का व्रत


शुभ फल पाने के लिए हिंदू नववर्ष गुड़ी पड़वा से देवी सरस्वती का व्रत शुरू करना चाहिए। यदि ऐसा न कर सकें तो किसी भी महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी से व्रत शुरू कर सकते हैं। इस दिन सुबह जल्दी उठ कर, स्नान करके साफ कपड़े पहनना चाहिए। इसके बाद पूरे विधि-विधान से देवी सरस्वती की पूजा करके इस मंत्र का जाप करें-
वेदशास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकं त यत्।
वाहितं यत् त्वया देवि तथा मे सन्तु सिद्धयः।।
अर्थात- हे देवी, वेदों और सभी शास्त्रों तथा नृत्य-संगीत की जो भी विधाएं हैं, वे सभी आप के अधीन ही रहती हैं। वे सभी विधाएं मुझे प्रदान करें।
व्रत खत्म होने पर करें ब्राह्मणों को दान
साल भर देवी सरस्वती का व्रत करने पर आखरी व्रत के दिन ब्राह्मणों को भोजन के लिए एक पात्र में चावल भर कर दान करें। साथ ही दो सफेद कपड़े, चंदन और गायों का भी दान करें। ऐसा करने से साल भर किए गए व्रत का फल जरूर मिलता है।

देवी सरस्वती का नाम जप करने से एजुकेशन में सफलता

जीवन में हर व्यक्ति अच्छी शिक्षा पाना चाहता है, जिसके लिए गुरु से विद्या लेने से साथ-साथ वह भगवान की पूजा अर्चना भी करता है। देवी सरस्वती को विद्या की देवी कहा जाता है। सद्बुद्धि और विद्या के लिए भगवान गणेश के साथ देवी सरस्वती की पूजा करने का विधान है। देवी सरस्वती के किन नामों का उच्चरण करने और किस तरह व्रत करने से देवी सरस्वती को प्रसन्न किया जा सकता है और उनसे अच्छी विद्या के साथ-साथ घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहने का भी आशीर्वाद पाया जा सकता है, इसके संबंध में भविष्य पुराण से जाना जा सकता है।
देवी सरस्वती की कृपा पाने के लिए करें इन नामों का उच्चारण
भविष्य पुराण में देवी सरस्वती के आठ नामों के बारे में बताया गया है। विद्या की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इस मंत्र में बताए गए नामों से रोज देवी सरस्वती का ध्यान करना चाहिए।
मंत्र-
लक्ष्मीर्मेया वरा रिष्टिगौंरी तुष्टिः प्रभा मतिः।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वतिः।।
अर्थात- देवी सरस्वती आप अपने लक्ष्मी, मेधा, वरा, रिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा और मति इन आठों रूपों से हर बुराई से मेरी हमेशा रक्षा करती रहें।

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मंगलवार को हनुमानजी के लिए विशेष उपाय

मंगलवार को हनुमानजी के लिए विशेष उपाय करेंगे तो कुंडली के ग्रह दोष दूर हो सकते हैं और कार्यों में आ रही बाधाएं भी दूर हो सकती हैं। हनुमानजी शिवजी के ही अंशावतार हैं। इसी वजह से सावन माह में हनुमानजी की पूजा से शिवजी और सभी देवी-देवता भी प्रसन्न होते हैं। यहां जानिए मंगलवार को कौन-कौन से उपाय किए जा सकते हैं...
1. हनुमानजी को सिंदूर और चमेली का तेल चढ़ाएं। इस उपाय से सभी परेशानियां दूर हो सकती हैं।
2. लाल मसूर की दाल का दान किसी जरुरतमंद व्यक्ति को करें। इस उपाय से मंगल ग्रह के दोषों की शांति हो सकती है। मसूर की दाल शिवलिंग पर भी अर्पित कर सकते हैं।
3. हनुमानजी के सामने दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें।
4. शिवलिंग पर लाल पुष्प अर्पित करें। शिवलिंग पर लाल फूल चढ़ाने से मंगल ग्रह की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
5. किसी ऐसे तालाब या सरोवर पर जाएं, जहां मछलियां हों। वहां पहुंचकर मछलियों को आटे की गोलियां बनाकर खिलाएं। यह उपाय हर रोज किया जा सकता है।

ज्योतिष में पूर्णिमा का महत्व

29 अगस्त शनिवार को पूर्णिमा है और इसी दिन रक्षाबंधन भी है। ज्योतिष में पूर्णिमा का विशेष महत्व बताया गया है। इस दिन किए गए उपायों से सभी दुख दूर हो सकते हैं और कार्यों में सफलता मिल सकती है। यहां जानिए शनिवार की पूर्णिमा पर कौन-कौन से उपाय किए जा सकते हैं...
पहला उपाय- भगवान को बांधे राखी
रक्षाबंधन पर बहन अपने भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती है। रक्षा सूत्र यानी रक्षा का सूत्र। ये सूत्र भाई को इस बात का हमेशा ही अहसास कराता रहता है कि उसे बहन की रक्षा करनी है। इसी प्रकार हम भगवान को भी रक्षा सूत्र बांध सकते हैं। रक्षा सूत्र बांधते समय में भगवान से प्रार्थना करें कि वे सभी परेशानियों से आपकी रक्षा करें।
दूसरा उपाय- लक्ष्मी की पूजा करें
पूर्णिमा तिथि पर महालक्ष्मी के लिए विशेष पूजन किया जाता है। महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए इस शनिवार मंदिर जाएं और लक्ष्मी को कमल का फूल चढ़ाएं। प्रतिमा के सामने सुगंधित अगरबत्ती और दीपक जलाएं। यदि आप चाहें तो लक्ष्मी का पूजन घर पर भी कर सकते हैं। लक्ष्मी पूजन में दक्षिणावर्ती शंख, कमल गट्टे, गोमती चक्र भी रखें।
लक्ष्मी मंत्र- महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णुपत्नी च धीमहि। तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।।
पूजा करते समय इस मंत्र का जप करें। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। जप के लिए कमल गट्टे की माला का उपयोग करें।
तीसरा उपाय- दीपक जलाएं
पूर्णिमा को सूर्यास्त के बाद किसी शिव मंदिर जाएं और शिवलिंग के पास दीपक जलाएं। यदि आप चाहें तो हनुमानजी के सामने भी दीपक जला सकते हैं। यह नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
चौथा उपाय- सुहाग का सामान दान करें
इस दिन किसी गरीब विवाहित स्त्री को सुहाग का सामान दान करें। सुहाग का सामान जैसे चूड़ियां, साड़ी, कुमकुम, बिंदी आदि। इस उपाय से लक्ष्मी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
पांचवां उपाय- शनि को तेल चढ़ाएं
शनिवार शनिदेव की पूजा का विशेष दिन है। इस दिन शनि के लिए तेल का दान करें और शनि की प्रतिमा पर तेल चढ़ाएं। तेल का दान करने से पहले तेल में अपनी परछाई देख लेना चाहिए। ऐसा करने से शनि के दोष शांत होते हैं।

ज्योतिष में पूर्णिमा का महत्व

29 अगस्त शनिवार को पूर्णिमा है और इसी दिन रक्षाबंधन भी है। ज्योतिष में पूर्णिमा का विशेष महत्व बताया गया है। इस दिन किए गए उपायों से सभी दुख दूर हो सकते हैं और कार्यों में सफलता मिल सकती है। यहां जानिए शनिवार की पूर्णिमा पर कौन-कौन से उपाय किए जा सकते हैं...
पहला उपाय- भगवान को बांधे राखी
रक्षाबंधन पर बहन अपने भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती है। रक्षा सूत्र यानी रक्षा का सूत्र। ये सूत्र भाई को इस बात का हमेशा ही अहसास कराता रहता है कि उसे बहन की रक्षा करनी है। इसी प्रकार हम भगवान को भी रक्षा सूत्र बांध सकते हैं। रक्षा सूत्र बांधते समय में भगवान से प्रार्थना करें कि वे सभी परेशानियों से आपकी रक्षा करें।
दूसरा उपाय- लक्ष्मी की पूजा करें
पूर्णिमा तिथि पर महालक्ष्मी के लिए विशेष पूजन किया जाता है। महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए इस शनिवार मंदिर जाएं और लक्ष्मी को कमल का फूल चढ़ाएं। प्रतिमा के सामने सुगंधित अगरबत्ती और दीपक जलाएं। यदि आप चाहें तो लक्ष्मी का पूजन घर पर भी कर सकते हैं। लक्ष्मी पूजन में दक्षिणावर्ती शंख, कमल गट्टे, गोमती चक्र भी रखें।
लक्ष्मी मंत्र- महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णुपत्नी च धीमहि। तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।।
पूजा करते समय इस मंत्र का जप करें। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। जप के लिए कमल गट्टे की माला का उपयोग करें।
तीसरा उपाय- दीपक जलाएं
पूर्णिमा को सूर्यास्त के बाद किसी शिव मंदिर जाएं और शिवलिंग के पास दीपक जलाएं। यदि आप चाहें तो हनुमानजी के सामने भी दीपक जला सकते हैं। यह नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
चौथा उपाय- सुहाग का सामान दान करें
इस दिन किसी गरीब विवाहित स्त्री को सुहाग का सामान दान करें। सुहाग का सामान जैसे चूड़ियां, साड़ी, कुमकुम, बिंदी आदि। इस उपाय से लक्ष्मी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
पांचवां उपाय- शनि को तेल चढ़ाएं
शनिवार शनिदेव की पूजा का विशेष दिन है। इस दिन शनि के लिए तेल का दान करें और शनि की प्रतिमा पर तेल चढ़ाएं। तेल का दान करने से पहले तेल में अपनी परछाई देख लेना चाहिए। ऐसा करने से शनि के दोष शांत होते हैं।

क्या होता है मौत के बाद

कहते हैं मौत के बाद का जीवन किसी ने नहीं देखा। इसलिए मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। इस विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है। यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य बताए गए हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु से जुड़े संवाद हैं। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है।
प्रसंग के मुताबिक ऋषि वाजश्रवस (उद्दालक) नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने विश्वजीत नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत ही उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि आप मुझे किसे देंगे। उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना। उसने वही सवाल बार-बार पूछा इससे क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।
यम के यहां पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है। फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटा रहा। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता को पिता की आज्ञा का पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा।
तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की। साथ ही, उसके बदले नचिकेता को कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया। नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।
क्या है आत्मा का स्वरूप?
यमदेव के मुताबिक शरीर का नाश होने के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से कोई लेना-देना नहीं है। यह अनंत, अनादि और दोष रहित है। इसका न कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न ये
मरती है।
किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है। अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के ह्रदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी भगवद् ध्यान और चिंतन करता है। वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानी जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।
क्या आत्मा मरती या मारती है?
वे लोग जो आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।
क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम?
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता। नीचे की ओर बहकर कई तरह के रंग-रुप और गंध में बदल चारों तरफ फैलता है। उसी तरह एक ही परमात्मा से जन्में देव, असुर और मनुष्यों को जो भगवान से अलग मानता और अलग मानकर ही उनकी पूजा, उपासना करता है, उसे बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर के लोकों और कई योनियों में भटकना पड़ता है।
कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।
आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है?
एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है। उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है। यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है। हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन-सी योनियां मिलती हैं?
यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं। वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं।

स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद रक्षा सूत्र बांधना

हिंदू धर्म में मनाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों के पीछे मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पक्ष भी होते हैं। रक्षाबंधन का अर्थ सिर्फ भाई-बहन के अटूट रिश्ते तक ही सीमित नहीं है। इसके पीछे विज्ञान व मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है।
शास्त्रों के अनुसार रक्षा सूत्र बांधने से त्रिदोष यानी वात, पित्त और कफ का शरीर में तालमेल बना रहता है। रक्षा सूत्र का शाब्दिक अर्थ यह है कि वह सूत्र (धागा) जो विभिन्न रोगों से शरीर की रक्षा करता है। ये पर्व वर्षा ऋतु में मनाया जाता है, इस समय में बारिश के कारण हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है। ऐसे में कलाई पर रक्षा सूत्र बांधने से इस धागे का दबाव कलाई की नस पर पड़ता है, जिससे हमारे शरीर में वात, पित्त और कफ नियंत्रित रहते हैं। इन तीनों में से किसी एक तत्व का भी संतुलन बिगड़ जाए तो शरीर में बीमारियों की शुरुआत हो सकती है। इससे बचने के लिए कलाई पर धागा बांधा जाता है।
कलाई पर बांधा गया यह धागा हमारे मन में यह विश्वास भी जगाता है कि इसके प्रभाव से हम सभी रोगों, कष्टों से सुरक्षित रहेंगे। इस विश्वास से बीमारी की अवस्था में भी मनुष्य में साहस बना रहता है। इस साहस के कारण हमारे स्वास्थ्य को लाभ मिलते रहते हैं।
बहन भाई की कलाई पर राखी बांधती है तो ये धागा भाई को भी इस बात का अहसास कराता रहता है कि उसे हमेशा बहन की रक्षा करनी है। बहन भी ये धागा बांधकर भाई के अच्छे स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य की कामना करती है।

Thursday, 27 August 2015

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Wednesday, 26 August 2015

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देवी पुराण

इन दिनों सावन का पवित्र महीना चल रहा है। ये महीना भगवान शिव को बहुत प्रिय है। भगवान शंकर त्रिदेवों में प्रमुख देवता हैं। वे भगवान विष्णु व ब्रह्मा के भी आराध्य देव हैं। महादेव को किसी का भी भय नहीं है, लेकिन देवी पुराण के एक प्रसंग के अनुसार, एक बार भगवान शिव माता सती के रौद्र रूप से घबराकर भाग गए थे।
पिता के घर जाना चाहती थी सती
देवी पुराण के अनुसार, भगवान शिव का प्रथम विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री सती से हुआ था। एक बार सती के पिता दक्ष प्रजापति ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती और दामाद शिव को निमंत्रित नहीं किया। यज्ञ के बारे में जान कर सती बिना निमंत्रण ही पिता के यज्ञ में जाने की जिद करने लगी।
तब भगवान महादेव ने सती से कहा कि- किसी भी शुभ कार्य में बिना बुलाए जाना और मृत्यु- ये दोनों ही एक समान है। मेरा अपमान करने की इच्छा से ही तुम्हारे पिता ये महायज्ञ कर रहे हैं। यदि ससुराल में अपमान होता है तो वहां जाना मृत्यु से भी बढ़कर होता है। ये बात सुनकर सती बोलीं- महादेव। आप वहां जाएं या नहीं, लेकिन मैं वहां अवश्य जाऊंगी।
देवी सती के ऐसा कहने पर शिवजी ने कहा- मेरे रोकने पर भी तुम मेरी बात नहीं सुन रही हो। दुर्बुद्धि व्यक्ति स्वयं गलत कार्य कर दूसरे पर दोष लगाता है। अब मैंने जान लिया है कि तुम मेरे कहने में नहीं रह गई हो। अत: अपनी रूचि के अनुसार तुम कुछ भी करो, मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा क्यों कर रही हो।
जब महादेव ने यह बात कही तो सती क्षणभर के लिए सोचने लगीं कि इन शंकर ने पहले तो मुझे पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की थी और अब ये मेरा अपमान कर रहे हैं। इसलिए अब मैं इन्हें अपना प्रभाव दिखाती हूं। यह सोचकर देवी सती ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया।
क्रोध से फड़कते हुए ओठों वाली तथा कालाग्नि के समान नेत्रों वाली उन भगवती सती को देखकर महादेव ने अपने नेत्र बंद कर लिए। भयानक दाढ़ों से युक्त मुख वाली भगवती ने अचानक उस समय अट्टहास किया, जिसे सुनकर महादेव भयभीत हो गए। बड़ी कठिनाई से आंखों को खोलकर उन्होंने भगवती के इस भयानक रूप को देखा।
देवी भगवती के इस भयंकर रूप को देखकर भगवान शिव भय के मारे इधर-उधर भागने लगे। शिव को दौड़ते हुए देखकर देवी सती ने कहा-डरो मत-डरो मत। इस शब्द को सुनकर शिव अत्यधिक डर के मारे वहां एक क्षण भी नहीं रुके और बहुत तेजी से भागने लगे इस प्रकार अपने स्वामी को भयभीत देख देवी भगवती अपने दस श्रेष्ठ रूप धारण कर सभी दिशाओं में स्थित हो गईं। महादेव जिस ओर भी भागते उस दिशा में वे भयंकर रूप वाली भगवती को ही देखते थे। तब भगवान शिव ने अपनी आंखें बंद कर ली और वहीं ठहर गए।
जब भगवान शिव ने अपनी आंखें खोली तो उन्होंने अपने सामने भगवती काली को देखा। तब उन्होंने कहा- श्याम वर्ण वाली आप कौन हैं और मेरी प्राणप्रिया सती कहां चली गईं? तब देवी काली बोलीं- क्या अपने सामने स्थित मुझ सती को आप नहीं देख रहे हैं। ये जो अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं ये मेरे ही रूप हैं। इनके नाम काली, तारा, लोकेशी, कमला, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरसुंदरी, बगलामुखी, धूमावती और मातंगी हैं। देवी सती की बात सुनकर शिवजी बोले- मैं आपको पूर्णा तथा पराप्रकृति के रूप में जान गया हूं। अत: अज्ञानवश आपको न जानते हुए मैंने जो कुछ कहा है, उसे क्षमा करें। ऐसा कहने पर देवी सती का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने महादेव से कहा कि- यदि मेरे पिता दक्ष के यज्ञ में आपका अपमान हुआ तो मैं उस यज्ञ को पूर्ण नहीं होने दूंगी। ऐसा कहकर देवी सती अपने पिता के यज्ञ में चली गईं।

future for you astrological news sawal jawab 26 08 2015

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Tuesday, 25 August 2015

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आकस्मिक खर्चों में कमी कैसे करें

धन कमाना जितना मुश्किल है उससे कुछ ज्यादा धन बचाना है। कई बार आप चाहते भी हैं तब भी धन बचाकर नहीं रख पाते हैं, आकस्मिक खर्च आकर बजट बिगाड़ जाते हैं। वास्तुशास्त्र में कुछ सामान्य उपाय बताए गये हैं जिन्हें आजमाने से आकस्मिक खर्चों में कमी आती है और बचत बढऩे लगता है।
धन रखने की दिशा
धन में वृद्धि और बचत के लिए तिजोड़ी अथवा आलमारी जिसमें धन रखते हों उसे दक्षिण की दिवार से सटा कर इस प्रकार रखें कि, इसका मुंह उत्तर दिशा की ओर रहे। पूर्व की दिशा की ओर आलमारी का मुंह होने पर भी धन में वृद्धि होती है लेकिन उत्तर दिशा उत्तम मानी गयी है।
नल को बदलें
नल से पानी का टपकते रहना वास्तुशास्त्र में आर्थिक नुकसान का बड़ा कारण माना गया है, जिसे बहुत से लोग अनदेखा कर जाते हैं। वास्तु के नियम के अनुसार नल से पानी का टपकते रहना धीरे-धीरे धन के खर्च होने का संकेत होता है। इसलिए नल में खराबी आ जाने पर तुरंत बदल देना चाहिए।
दीवार पर लटकाएं धातु का सामान
शयनकक्ष में कमरे के प्रवेश द्वार के सामने वाली दीवार के बाएं कोने पर धातु की कोई चीज लटकाकर रखें। वास्तुशास्त्र के अनुसार यह स्थान भाग्य और संपत्ति का क्षेत्र होता है। इस दिशा में दिवार में दरारें हों तो उसकी मरम्मत करवा दें। इस दिशा का कटा होना भी आर्थिक नुकसान का कारण होता है।
घर में नहीं रखें कबाड़
घर में टूटे-फूटे बर्तन एवं कबाड़ को जमा करके रखने से घर में नकारात्मक उर्जा का संचार होता है। टूटा हुआ बेड एवं पलंग भी घर में नहीं रखना चाहिए इससे आर्थिक लाभ में कमी आती है और खर्च बढ़ता है। बहुत से लोग घर की छत पर अथवा सीढ़ी के नीचे कबाड़ जमा करके रखते हैं जो धन वृद्धि में बाधक होता है।
जल का निकासी
बहुत से लोग इस बात का ध्यान नहीं रखते हैं कि उनके घर का पानी किस दिशा में निकल रहा है। वास्तु विज्ञान के अनुसार जल की निकासी कई चीजों को प्रभावित करती है। जिनके घर में जल की निकासी दक्षिण अथवा पश्चिम दिशा में होती है उन्हें आर्थिक समस्याओं के साथ अन्य कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उत्तर दिशा एवं पूर्व दिशा में जल की निकासी आर्थिक दृष्टि से शुभ माना गया है।
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जलीय रोग - ज्योतिष कारण:

जलीय रोग - ज्योतिष कारण:
जल या पानी अनेक अर्थों में जीवनदाता है। इसीलिए कहा भी गया है। जल ही जीवन है। मनुष्य ही नहीं जल का उपयोग सभी सजीव प्राणियों के लिए अनिवार्य होता है। पेड़ पौधों एवं वनस्पति जगत के साथ कृषि फसलों की सिंचाई के लिए भी यह आवश्यक होता है। यह उन पांच तत्वों में से एक है जिससे हमारे शरीर की रचना हुई है और हमारे मन, वाणी, चक्षु, श्रोत तथा आत्मा को तृप्त करती है। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। शरीर में इसकी कमी से हमें प्यास महसूस होती है और इससे पानी शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। अत: यह हमारे जीवन का आधार है। अब तक प्राप्त जानकारियो के अनुसार यह स्पष्ट हो गया है कि जल अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक है इसलिए इसका शुद्ध साफ होना हमारी सेहत के लिए जरूरी है। शुद्ध और साफ जल का मतलब है वह मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अशुद्धियों और रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं से मुक्त होना चाहिए वरना यह हमारे काम नहीं आ सकता है।
रोगाणुओं, जहरीले पदार्थों एवं अनावश्यक मात्रा में लवणों से युक्त पानी अनेक रोगों को जन्म देता है। विश्व भर में 80 फीसदी से अधिक बीमारियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदूषित पानी का ही हाथ होता है। प्रति घंटे 1000 बच्चों की मृत्यु मात्र अतिसार के कारण हो जाती है जो प्रदूषित जल के कारण होता है। याज्ञवल्क्य संहिता ने जीवाणुयुक्त गंदे, फेनिल, दुर्गन्धयुक्त, खारे, हवा के बुलबुल उठ रहे जल से स्नान के लिए भी निषेध किया है। लेकिन आज की स्थिति बड़ी चिन्ताजनक है। शहरों में बढ़ती हुई आबादी के द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले मल-मत्र, कूड़े-करकट को पाइप लाइन अथवा नालों के जरिए प्रवाहित करके नदियों एवं अन्य सतही जल को प्रदूषित किया जा रहा है। इसी प्रकार विकास के नाम पर कल-कारखानों, छोटे-बड़े उद्योगों द्वारा भी निकले बहि:स्रावों द्वारा सतही जल प्रदूषित हो रहे हैं। जहां भूमिगत एवं पक्के सीवर/नालों की व्यवस्था नहीं है यदि है भी तो टूटे एवं दरार युक्त हैं अथवा जहां ये मल/कचरे युक्त जल भूमिगत पर या किसी नीची भूमि पर प्रवाहित कर दिए जाते हैं वहां ये दूषित जल रिस-रिसकर भूगर्भ जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। बरसात के मौसम में मजा, हरियाली और इसके साथ ठंडी जलवायु बहुत भाता है.
कैसी विडम्बना है कि हम ऐसे महत्वपूर्ण जीवनदायी जल को प्रगति एवं विकास की अंधी दौड़ में रोगकारक बना रहे हैं। जब एक निश्चित मात्रा के ऊपर इनमें रोग संवाहक तत्व विषैली रसायन सूक्ष्म जीवाणु या किसी प्रकार की गन्दगी/अशुद्धि आ जाती है तो ऐसा जल हानिकारक हो जाता है। इस प्रकार के जल का उपयोग सजीव प्राणी करते हैं तो जलवाधित घातक रोगों के शिकार हो जाते हैं। दूषित जल के माध्यम से मानव स्वास्थ्य को सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाले कारक रोगजनक सूक्ष्म जीव हैं। इनके आधार पर दूषित जल रोगों को आमंत्रित करता है। बारिश का एक जलजनित रोग है, अमीबियासिस, संक्रामक जल लेने से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में यह आसानी से पहुँच जाता है।
इसमें प्रोटोजोन, एंट-अमीबा हिस्टोलाइटिका, बड़ी आँत को अपना घर बनाता है। अमीबियासिस के लक्षण - पतले दस्त, परिवर्तित पाखाने की आदत, भोजन पश्चात दस्त, पेट में दर्द, जो रुक-रुक कर हो, कब्ज एवं दस्त बारी-बारी से हों, अपच वायु-विकार हो।
भोजन निर्माण एवं संग्रहण से संबंधित समस्त तत्व शुद्धता तथा कीट से बचाव पर केंद्रित होते हैं। विशेष रूप से होटल, ठेले आदि पर अशुद्ध पानी से बने चटखारेदार खाद्य पदार्थ, वेटर द्वारा नाखून, सिर एवं शरीर के अन्य खुले भाग का ध्यान नहीं रखे जाने के कारण अमीबियासिस का जीवाणु एक से दूसरे तक पहुँचता है।
यह एक कोशीय जीवाणु बड़ी आँत के अतिरिक्त लीवर, फेफड़ों, हृदय, मस्तिष्क, वृक्क, अंडकोष, अंडाशय, त्वचा आदि तक में पाया जा सकता है।
सबसे आम बीमारी श्वसन प्रणाली और पानी और खाद्य जनित रोगों से संबंधित है। कोल्ड और फ्लू जैसी आम बीमारी बरसात के मौसम में ही पायी जाती है और यह आमतौर पर तापमान में अस्थिरता की वजह से होती है।
आम बीमारी जो बरसात के मौसम के दौरान होती है, उनमें से डेंगू, फ्लू, खाद्य संक्रमण, जल संक्रमण, हैजा। पानी के ये रोग व्यक्ति या जानवर द्वारा या तो किया जा सकता है अथवा बैक्टीरिया के कारण होता है। इसकी गंभीर रूप से गुर्दे, लीवर, दिमागी बुखार और सांस की विफलता को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
दूषित जल से रोगजनक जीवों से उत्पन्न रोग:
विषाणु द्वारा: पीलिया, पोलियो, गैस्ट्रो-इंटराइटिस, जुकाम, संक्रामक यकृत षोध, चेचक।
जीवाणु द्वारा: अतिसार, पेचिस, मियादी बुखार, अतिज्वर, हैजा, कुकुर खांसी, सूजाक, उपदंश, जठरांत्र शोथ, प्रवाहिका, क्षय रोग।
प्रोटोजोआ द्वारा: पायरिया, पेचिस, निद्रारोग, मलेरिया, अमिबियोसिस, रूग्णता, जियार्डियोसिस रूग्णता।
कृमि द्वारा: फाइलेरिया, हाइडेटिड सिस्ट रोग तथा पेट में विभिन्न प्रकार के कृमि का आ जाना जिसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
लैप्टास्पाइरल वाइल्स रोग।
रोग उत्पन्न करने वाले जीवों के अतिरिक्त अनेकों प्रकार के विषैले तत्व भी पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इन विषैले तत्वों में प्रमुख हैं कैडमियम, लेड, मरकरी, निकल, सिल्वर, आर्सेनिक आदि। जल में लोहा, मैंगनीज, कैल्सीयम, बेरियम, क्रोमियम कापर, सीलीयम, यूनेनियम, बोरान, तथा अन्य लवणों जैसे नाइट्रेट, सल्फेट, बोरेट, कार्बोनेट, आदि की अधिकता से मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आंतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आंतों में पहुंचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का केंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली कीटनाशी दवाईयों एवं उर्वरकों के विषैले अंश जल स्रोतों में पहुंचकर स्वास्थ्य की समस्या को भयावह बना देते हैं। प्रदूषित गैसे कार्बन डाइआक्साइड तथा सल्फर डाइआक्साइड जल में घुसकर जलस्रोत को अम्लीय बना देते हैं। अनुमान है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं लापरवाही से जहां एक ओर प्रदूषण बढ़ रहा है वहीं ऊर्जा की मांग एवं खपत के अनुसार यह मंहगा भी हो रहा है। इसका पेयजल योजनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। ऊर्जा की पूर्ति हेतु जहां एक ओर एक विशाल बांध बनाकर पनबिजली योजनाओं से लाभ मिलेगा वहीं इसका प्रभाव स्वच्छ जल एवं तटीय पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ेगा जिसके कारण अनेक क्षेत्रों के जलमग्न होने व बड़ी आबादी के स्थानान्तरण के साथ सिस्टोमायसिस तथा मलेरिया आदि रोगों में वृद्धि होगी। जल प्रदूषण की मात्रा जो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विकराल रूप धारण करेगी।
जलरोग का ज्योतिषीय कारण:
चंद्रमा कफ प्रवृति कारक माना जाता है जिसमें वात का भी संयोग होता है। अत: इसकी प्रतिकूलता से रक्तविकार, डायरिया, ड्राप्सी, पीलिया, टी.बी,. त्वचारोग, भय आदि रोग को जन्म देता है। बृहस्पति कफ से संबंध रखता है। यह लिवर, गॉलब्लैडर, प्लीहा, पैंक्रियाज, कान एवं वसा को नियंत्रित करता है। इन अंगों से उत्पन्न विकृतियां इस ग्रह की महादशा में देखी जाती हैं। शनि कफ प्रकृति का होता है। छाती, पैर, पांव, गुदा, स्नायुतंत्र आदि अंगों का यह जनक है। इसके दुष्प्रभाव से अत्यंत घातक और असाध्य जलीय रोग होते हैं। जलीय ग्रह शरीर की अंत: स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है, जिससे समस्त जननांगीय विकृतियां, मूत्ररोग, आलस्य, थकान आदि पनपते हैं। मनुष्य का जन्म ग्रहों की शक्ति के मिश्रण से होता है। यदि यह मिश्रण उचित मात्रा में न हो अर्थात किसी तत्व की न्यूनाधिकता हो, तो ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है। शरीर के समस्त अव्यवों, क्रियाकलापों का संचालन करने वाले सूर्यादि यही नवग्रह हैं तो जब भी शरीर में किसी ग्रह प्रदत तत्व की कमी या अधिकता हो, तो व्यक्ति को किसी रोग-व्याधि का सामना करना पडता है। यूँ तो स्वस्थता-अस्वस्थता एक स्वाभाविक विषय है। किंतु यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते। यह स्थिति तब भी उत्पन हो सकती है, जब अपनी निश्चित मात्रा के अनुसार कोई ग्रह प्राणी पर प्रभाव न डाल पाए। यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते। डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से संबंधित रोग, उल्टी किडनी संबंधित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग, मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका संबंधी रोग, पीलियाब्राह्मंड की भांति ही मानवी शरीर भी जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु एवं आकाश नामक इन पंचतत्वों से ही निर्मित है और ये पँचोंतत्व मूलत: ग्रहों से ही नियन्त्रित रहते हैं। आकाशीय नक्षत्रों(तारों, ग्रहों) का विकिरणीय प्रभाव ही मानव शरीर के पंचतत्वों को उर्जा शक्ति प्रदान करता है। इस उर्जाशक्ति का असंतुलन होने पर अर्थात जब भी कभी इन पंचतत्वों में वृद्धि या कमी होती है या किसी तरह का कोई कार्मिक दोष उत्पन होता है, तब उन तत्वों में आया परिवर्तन एक प्रतिक्रिया को जन्म देता है। यही प्रतिक्रिया रोग के रूप में मानव को पीडित करती है। हमारे इस शरीर की स्थिति के लिए जन्मकुंडली का लग्न(देह) भाव, पंचमेश और चतुर्थेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लग्न भाव देह को दर्शाता है, चतुर्थेश मन की स्थिति और पंचमेश आत्मा को। जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह), चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है, वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है। चंद्र और शुक्र के साथ जब भी पाप ग्रहों का संबंध होगा तो जलीय रोग जैसे शुगर, मूत्र विकार और स्नायुमंडल जनित बीमारियां होती है। मिथुन राशि पर सूर्य के आते ही गर्मी अपने चरम पर पहुँच जाती है व सूर्य के चंद्रमा की जलीय राशि पर आते ही भरपूर बरसात होने लगती है(ऋतुओं का संवाहक सूर्य ही है)अपनी राशि पर प्रवेश कर सूर्य धरती में समा रहे जल को अपनी प्रचंड गर्मी से खराब कर उसमे विकृतियाँ पैदा करने लगता है अत: सभी प्रकार के जल प्रदूषण से बचने के लिए आवश्यक है कि पूरे जल प्रबंधन में जल दोहन उनके वितरण तथा प्रयोग के बाद जल प्रवाहन की समुचित व्यवस्था हो। सभी विकास योजनाएं सुविचरित और सुनियोजित हो। कल-कारखानें आबादी से दूर हों। जानवरों-मवेशियों के लिए अलग-अलग टैंक और तालाब की व्यवस्था हो। नदियां झरनों और नहरों के पानी को दूषित होने से बचाया जाए। इसके लिए घरेलू और कल-कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों को जल स्रोत में मिलने से पहले भली-भांति नष्ट कर देना चाहिए। डिटरजेंट्स का प्रयोग कम करके प्राकृतिक वनस्पति पदार्थ का प्रचलन करना होगा। इन प्रदूषणों को रोकने के लिए कठोर नियम बनाना होगा और उनका कठोरता से पालन करना होगा। मोटे तौर पर घरेलू उपयोग में पानी का प्रयोग करने से पहले यह आश्वस्त हो जाना चाहिए कि वह शुद्ध है या नहीं? यदि संदेह हो कि यह शुद्ध नहीं है तो निम्न तरीकों से इसे शुद्ध कर लेना चाहिए: पीने के पानी के लिए फिल्टर का प्रयोग करना चाहिए। पानी को कीटाणु रहित करने के लिए उचित मात्रा में ब्लीचिंग पाउडर का उपयोग प्रभावी रहता है। वैसे समय-समय पर लाल दवा डालते रहना चाहिए। पानी को उबाल लें फिर ठंडा कर अच्छी तरह हिलाकर वायु संयुक्त करने के उपरान्त इसका प्रयोग करना चाहिए। पीने के पानी को धूप में, प्रकाश में रखना चाहिए। तांबे के बर्तन में रखे तो यह अन्य बर्तनों की अपेक्षा सर्वाधिक शुद्ध रहता है। एक गैलेन पानी को दो ग्राम फिटकरी या बीस बूंद टिंचर आयोडीन या तनिक या ब्लीचिंग पाउडर मिलाकर शुद्ध किया जा सकता है। चारकोल, बालू युक्त बर्तन से छानकर भी पानी शुद्ध किया जा सकता है। हमेशा बरसात के मौसम में बरसाती जूते के साथ एक रेनकोट रखें। विटामिन सी की मात्रा बढ़ाने से ठंड-गर्म, वायरस, दूर करने में मदद मिलेगी। हालांकि, विटामिन की एक स्वस्थ आपूर्ति एंटीबॉडी को सक्रिय करेंगे। अगर आप बारिश में भीग गए हैं तो एक और शॉवर लेना चाहिए जिससे स्वच्छ पानी से शरीर को सुरक्षित किया जा सके। उसके बाद कम से कम गर्म दूध का एक कप पीयें। इस से आपको संक्रमण से बचाव होगा। पानी के सेवन की वजह से अपने शरीर से विषाक्त पदार्थों को कम करने में मदद मिलेगी। इन सब चिकित्सकीय उपाय के अलावा ज्योतिषीय सलाह से अपने पीडित ग्रह की शांति करानी चाहिए। ग्रह शांति से आपके कमजोर ग्रहों को मजबूत करने से आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होगी जिससे आप स्वास्थ्यलाभ प्राप्त कर पायेंगे।
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राजा गंधर्व सेना का मंदिर जहॉ चूहे लगाते हैं इच्छाधारी नाग की परिक्रमा:

राजा गंधर्व सेना का मंदिर जहॉ चूहे लगाते हैं इच्छाधारी नाग की परिक्रमा:
आस्था और अंधविश्वास की कड़ी में इस बार एक ऐसा मंदिर है, जिसका अपना ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व भी है और जिससे जुड़े हैं कई चमत्कार। यह है राजा गंधर्वसेन की नगरी गंधर्वपुरी का गंधर्वसेन मंदिर। देवास की सोनकच्छ तहसील में स्थित है गंधर्वपुरी। यह सिंहासन बत्तीसी की एक कहानी का स्थान है।
भारत की प्राचीन और ऐतिहासिक नगरी गंधर्वपुरी के गंधर्वसेन मंदिर के गुंबद के नीचे एक ऐसा स्थान है, जिसके बीचोबीच बैठता है पीले रंग का एक इच्छाधारी नाग, जिसके चारों ओर दर्जनों चूहे परिक्रमा करते हैं। आखिर क्यों इस रहस्य को कोई आज तक नहीं जान पाया। गाँव के लोग इसे नागराज का चूहापाली स्थान कहते हैं और इस स्थान को हजारों वर्ष पुराना बताते हैं। कहते हैं कि नाग और चूहे आज तक नहीं दिखे, लेकिन परिक्रमा पथ पर चूहों की सैकड़ों लेंडियाँ और उसके बीचोबीच नाग की लेंडी पाई जाती है। गाँव वालों ने उस स्थान को कई बार साफ कर दिया, लेकिन न मालूम वे लेंडियाँ कहाँ से आ जाती हैं।
इस प्राचीन मंदिर में राजा गंधर्वसेन की मूर्ति स्थापित है। मालवा क्षत्रप गंधर्वसेन को गर्धभिल्ल भी कहा जाता था। वैसे तो राजा गंधर्वसेन के बारे में कई किस्से-कहानियाँ प्रचलित हैं, लेकिन इस स्थान से जुड़ी उनकी कहानी अजीब ही है। ग्रामीणों का मानना है कि यहाँ पर राजा गंधर्वसेन का मंदिर सात-आठ खंडों में था। बीचोबीच राजा की मूर्ति स्थापित थी। अब राजा की मूर्ति वाला मंदिर ही बचा है, बाकी सब काल कवलित हो गए। यहाँ नाग की बहुत ही प्राचीन बाम्बी है और आसपास जंगल और नदी होने की वजह से कई नाग देखे गए हैं, लेकिन इस मंदिर में चूहों को देखना मुश्किल ही है, फिर भी न जाने कहाँ से चूहों की लेंडी आ जाती हैं, जबकि ऊपर और नीचे साफ-सफाई रखी जाती है। पूर्वजों से सुनते आए हैं कि इस मंदिर की रक्षा एक इच्छाधारी नाग करता है।
यहाँ के स्थानीय निवासी बताते हैं कि शुरू से ही चूहापाली के इस चमत्कार को देखते आए हैं। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि यहाँ इस बाम्बी में एक इच्छाधारी पीला नाग रहता है, जो हजारों वर्ष पुराना है। उसकी लम्बी-लम्बी मूँछें हैं और वह लगभग 12 से 15 फीट का है।
जिनके घर मंदिर के निकट हैं वे रोज ब्रह्ममुहूर्त में मंदिर से घंटियों की कभी-कभार आवाज सुनी गई है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन अकसर ऐसा होता है कि जब मंदिर का ताला खोला जाता है तो पूजा-आरती के पूर्व ही मंदिर अंदर से साफ-सुथरा मिलता है और ऐसा लगता है जैसे किसी ने पूजा की हो। जिस तरह इस मंदिर में चूहे नाग की परिक्रमा करते हैं वैसे ही यहाँ की नदी सोमवती भी इस मंदिर का गोल चक्कर लगाते हुए कालीसिंध में जा मिली है। यहाँ परिक्रमा के अवशेष पाए जाते हैं, लेकिन आज तक किसी ने देखा नहीं। गाँव के बड़े-बूढ़ों से सुनते आए हैं।
यह एक प्राचीन नगरी है और यहाँ आस्था की बात पर ग्रामीणजन कहते हैं कि गंधर्वसेन के मंदिर में आने वाले का हर दु:ख मिटता है। जो भी यहाँ आता है उसको शांति का अनुभव होता है। यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना है। इसका गुंबद परमारकाल में बना है, लेकिन नींव और मंदिर के स्तंभ तथा दीवारें बौद्धकाल की मानी जाती हैं। राजा गंधर्वसेन उज्जैन के राजा विक्रमादित्य और भर्तृहरि के पिता थे।
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ज्योतिष शास्त्र में बुध का प्रभाव और महत्व

बुध इसी नाम के खगोलीय ग्रह के लिये भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नियत एक ग्रह है। बुध चंद्रमा का तारा या रोहिणी से पुत्र कहलाता है। बुध को माल और व्यापारियों का स्वामी और रक्षक माना जाता है।
बुध हल्के स्वभाव के, सुवक्ता और एक हरे वर्ण वाले कहलाते हैं। उन्हें कृपाण, फऱसा और ढाल धारण किये हुए दिखाया जाता है और सवारी पंखों वाला सिंह बताते हैं। एक अन्य रूप में इन्हें राजदण्ड और कमल लिये हुए उडऩे वाले कालीन या सिंहों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ दिखाया गया है।
बुध का राज बुधवार दिवस पर रहता है। बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुया। इला से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया। कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। तदुपरान्त वह सुद्युम्न बन गयी और उसने अत्यन्त धर्मात्मा तीन पुत्रों से मनु के वंश की वृध्दि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व।
बुध का उद्भव: चंद्रमा के गुरु थे देवगुरु बृहस्पति। बृहस्पति की पत्नी तारा चंदमा की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दैत्य गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर हो गये और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिये। अब युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अत: यह तारकाम्यम कहलाया। इस वृहत स्तरीय युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि को ही लील न कर जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा। इस बीच तारा के एक सुंदर पुत्र जन्मा जो बुध कहलाया। चंद्र और बृहस्पति दोनों ही इसे अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप ही रही। माता की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुद्ध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चंद्र को बताया।
बुध का जीवन: नक्षत्र मण्डलों में बुध का स्थान बुध मण्डल में है। चंद्र ने बालक बुध को रोहिणी और कृत्तिका नक्षत्र-रूपी अपनी पत्नियों को सौंपा। इनके लालन पालन में बुध बड़ा होने लगा। बड़े होने पर बुध को अपने जन्म की कथा सुनकर शर्म व ग्लानि होने लगी। उसने अपने जन्म के पापों से मुक्ति पाने के लिये हिमालय में श्रवणवन पर्वत पर जाकर तपस्या आरंभ की। इस तप से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उसे दर्शन दिये। उसे वरदान स्वरूप वैदिक विद्याएं एवं सभी कलाएं प्रदान की। एक अन्य कथा के अनुसार बुध का लालन-पालन बृहस्पति ने किया व बुध उनका पुत्र कहलाया।
ज्योतिष रूप: ज्योतिष शास्त्र में बुद्ध को एक शुभ ग्रह माना जाता है। किसी हानिकर या अशुभकारी ग्रह के संगम से यह हानिकर भी हो सकता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार सूर्य और शुक्र, बुध के मित्र ग्रह हैं तथा बुध, चन्द्रमा को अपना शत्रु मानता है। बुध शनि, मँगल व गुरु से सम सम्बन्ध रखता है। बुध मिथुन व कन्या राशि का स्वामी है। बुध कन्या राशि में 15 अंश से 20 अंश के मध्य होने पर अपनी मूलत्रिकोण राशि में होता है। बुध कन्या राशि में 15 अंश पर उच्च स्थान प्राप्त करता है। बुध मीन राशि में होने पर नीच राशि में होता है। बुध को पुरुष व नपुंसक ग्रह माना गया है तथा यह उत्तर दिशा का स्वामी हैं। बुध का शुभ रत्न पन्ना है। यह ग्रह बुद्धि, बुद्धिवर्ग, संचार, विश्लेषण, चेतना (विशेष रूप से त्वचा), विज्ञान, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व करता है। सभी प्रकार के लिखित शब्द और सभी प्रकार की यात्राएं बुध के अधीन आती हैं।
बुध तीन नक्षत्रों का स्वामी है- अश्लेषा, ज्येष्ठ, और रेवती (नक्षत्र)। हरे रंग, धातु, पीतल और रत्नों में पन्ना बुद्ध की प्रिय वस्तुएं हैं। इसके साथ जुड़ी दिशा उत्तर है, मौसम शरद ऋतु और तत्व पृथ्वी है। बुध से प्रभावित जातक हंसमुख, कल्पनाशील, काव्य, संगीत और खेल में रुचि रखने वाले, शिक्षित, प्रतिभावान, गणितज्ञ, वाणिज्य में पटु और व्यापारी होते हैं। वे बहुत बोलने वाले और अच्छे वक्ता होते हंै। वे हास्य, काव्य और व्यंग्य प्रेमी भी होते हैं। इन्हीं प्रतिभाओं के कारण वे अच्छे सेल्समैन और मार्केटिंग में सफल होते हैं। इसी कारण वे अच्छे अध्यापक और सभी के प्रिय भी होते हैं और सभी से सम्मान पाते हैं। बुध बहुत सुंदर हैं। इसलिए उन्हें आकाशीय ग्रहों में राजकुमार की उपाधि प्राप्त है। उनका शरीर अति सुंदर और छरहरा है। वह ऊंचे कद गोरे रंग के हैं। उनके सुंदर बाल आकर्षक हैं वह मधुरभाषी हैं। बुध, बुद्धि, वाणी, अभिव्यक्ति, शिक्षा, शिक्षण, गणित, तर्क, यांत्रिकी ज्योतिष, लेखाकार, आयुर्वेदिक ज्ञान, लेखन, प्रकाशन, नृत्य-नाटक, और निजी व्यवसाय का कारक है। बुध मामा और मातृकुल के संबंधियों का भी कारक है।
बुध मस्तिष्क, जिह्वा, स्नायु तंत्र, कंठ -ग्रंथि, त्वचा, वाक-शक्ति, गर्दन आदि का प्रतिनिधित्व करता है। यह स्मरण शक्ति के क्षय, सिर दर्द, त्वचा के रोग, दौरे, चेचक, पिश्र, कफ और वायु प्रकृति के रोग, गूंगापन, उन्माद जैसे विभिन्न रोगों का कारक है।
बुध एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के सानिध्य में ही रहता है। जब कोई ग्रह सूर्य के साथ होता है तो उसे अस्त माना जाता है। यदि बुध भी 14 डिग्री या उससे कम में सूर्य के साथ हो, तो उसे अस्त माना जाता है। लेकिन सूर्य के साथ रहने पर बुध ग्रह को अस्त होने का दोष नहीं लगता और अस्त होने से परिणामों में भी बहुत अधिक अंतर नहीं देखा गया है। बुध ग्रह कालपुरुष की कुंडली में तृतीय और छठे भाव का प्रतिनिधित्व करता है। बुध की कुशलता को निखारने के लिए की गयी कोशिश, छठे भाव द्वारा दिखाई देती है। जब-जब बुध का संबंध शुक्र, चंद्रमा और दशम भाव से बनता है और लग्न से दशम भाव का संबंध हो, तो व्यक्ति कला-कौशल को अपने जीवन-यापन का साधन बनाता है। जब-जब तृतीय भाव से बुध, चंद्रमा, शुक्र का संबंध बनता है तो व्यक्ति गायन क्षेत्र में कुशल होता है। अगर यह संबंध दशम और लग्न से भी बने तो इस कला को अपने जीवन का साधन बनाता है। इसी तरह यदि बुध का संबंध शनि केतु से बने और दशम लग्न प्रभावित करे, तो तकनीकी की तरफ व्यक्ति की रुचि बनती है। कितना ऊपर जाता है या कितनी उच्च शिक्षा ग्रहण करता है, इस क्षेत्र में, यह पंचम भाव और दशमेश की स्थिति पर निर्भर करता है। पंचम भाव से शिक्षा का स्तर और दशम भाव और दशमेश से कार्य का स्तर पता लगता है। बुध लेख की कुशलता को भी दर्शाता है। यदि बुध पंचम भाव से संबंधित हो, और यह संबंध लग्नेश, तृतीयेश और दशमेश से बनता है, तो संचार माध्यम से जीविकोपार्जन को दर्शाता है और पत्रकारिता को भी दर्शाता है। मंगल से बुध का संबंध हो और दशम लग्न आदि से संबंध बनता हो और बृहस्पति की दृष्टि या स्थान परिवर्तन द्वारा संबंध बन रहा हो, तो इंसान को वाणिज्य के कार्यों में कुशलता मिलती है।
चंद्रमा के पुत्र होने तथा बृहस्पति द्वारा पुत्र माने जाने के कारण स्वयं के गुणधर्म के अतिरिक्त बुध पर इन दोनों ग्रहों का प्रभाव भी स्पष्टत: देखने को मिलता है। चन्द्रमा और बृहस्पति के आशीर्वाद के कारण ही बुध के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय विस्तृत हैं। गंधर्वराज के पुत्र होने के कारण जहाँ ललित-कलाओं पर बुध का अधिकार है वहीं बृहस्पति के प्रभाव से विद्या, पाण्डित्य, शास्त्र, उपासना आदि बुध के प्रमुख विषय बन जाते हैं। अभिव्यक्ति की क्षमता बुध ही दे सकते हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में सफलता के लिए जिस प्रस्तुतिकरण की आवश्यकता होती है वह सिर्फ बुध ही दे सकते हैं। अन्य ग्रह जैसे चन्द्रमा, शुक्र, बृहस्पति, कला, विद्या, कल्पनाशक्ति प्रदान कर सकते हैं परन्तु यदि जन्मपत्रिका में बुध बली न हों तो अपनी प्रतिभा का आर्थिक लाभ उठाने की कला से व्यक्ति वंचित रहता है। वाणी बुध एवं बृहस्पति दोनों का विषय है परन्तु जहाँ वाणी में ओजस्विता बृहस्पति का क्षेत्र है, वहीं वाक्चातुर्य एवं पटुता बुध का ही आशीर्वाद है। स्पष्ट है कि सही समय पर, सही जवाब या कार्य के लिए बुद्धि में जिस पैनीधार की आवश्यकता होती है वह बुध की कृपा से ही प्राप्त होती है।
बुध से जुड़ा सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण धर्म है अनुकूलनशीलता हर हाल में खुद को ढाल लेना सिर्फ बुध प्रधान व्यक्ति ही कर सकता है। अनुकूलनशीलता का ही दूसरा रूप सामंजस्य भी है। बुध प्रधान व्यक्ति की शिकायत करते शायद ही सुनने को मिलें। बुध प्रधान व्यक्ति में इनकी अवस्था के अनुरूप ही एक छोटा बच्चा सदा जीवित रहता है, जो हंसना, खेलना चाहता है, जिंदादिल रहना और जिंदगी के हर पल को भरपूर जीना चाहता है। ज्योतिषीय परिपेक्ष्य में देखें तो बुध का वर्गीकरण नैसर्गिक शुभ या अशुभ ग्रह के रूप में नहीं किया गया है। वे जिस ग्रह के साथ बैठते हैं या प्रभाव क्षेत्र में होते हैं, उसी के अनुरूप आचरण करते हैं परन्तु अपनी पहचान नहीं खोते हैं, जो इनकी मुख्य विशेषता है। सूर्य के साथ युति करके बुधादित्य योग बनाते हैं। सूर्य की ऊर्जा लेकर बुध जहाँ एक ओर बुद्धि को प्रखर करते हैं वहीं दूसरी ओर अनुशासन लेकर इन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं। यद्यपि चन्द्रमा के प्रति बुध के मन में नाराजगी है तथापि बुध का हास्य-विनोद, चन्द्रमा के साथ से निखर उठता है। चन्द्रमा की कल्पनाशक्ति और उडान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति इस युति में मिल सकती है। मंगल के साथ बुध की युति होने पर बुध की वणिक बुद्धि अत्यधिक जाग्रत हो जाती है और इस युति को यदि शुक्र की अमृत दृष्टि मिल जाए तो उच्चकोटि का धन योग बनता है। बुध और बृहस्पति की युति अद्भुत है। वाणी, बुद्धि, ज्ञान, संगीत से जुड़ी नैसर्गिक प्रतिभा उसमें विद्यमान रहती है अर्थात् व्यक्तित्व में संपूर्णता होती है और व्यक्ति उसे अधिक से अधिक निखारने के लिए प्रयासरत रहता है। यह योग लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को पाने की इच्छा देता है। बुध, शुक्र के साथ मिलकर लगभग ऐसे ही परिणाम देते हैं। शनि के साथ मिलकर बुध, शनि के कठोर श्रम के गुण को अपनाकर ज्ञान और कला की वृद्धि का प्रयास करते हैं परन्तु यदि शनि ग्रह का ठण्डापन भी इस युति पर हावी हो जाता है तो निराशाजनक सोच जन्म लेती है। सीखने की गहरी ललक बुध की कृपा से ही आती है। बुध बालक हैं और एक बच्चो में ही सीखने की इच्छा सबसे तीव्र होती है। जन्मकुण्डली में बुध शक्तिशाली हों तो यह इच्छा सदा बनी रहती है। अभिव्यक्ति और मनोरंजन का मिश्रित रूप (दूसरों की आवाज आदि की नकल करना) की कला है जो बुध की कृपा से ही संभव है। बुध गणितज्ञ हैं और लाभ के लिए जोड-तोड भी बिठा ही लेते हैं। बुध की कृपा से व्यक्ति सुलझी हुई गणित करके गुणा-भाग के साथ जोखिम उठाता है, और यही सफलता की कँुजी भी है।
बुध ग्रह को भगवान विष्णु का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इसीलिए धन, वैभव आदि का संबंध बुध से है। बुध की दिशा उत्तर है तथा उत्तर दिशा कुबेर का स्थान भी है। वास्तु-योजना में उत्तर दिशा को तिजोरी के लिए प्रशस्त बताया गया है। कार्यालयों में लेखाकार व कैशियर के लिए प्रशस्त स्थान उत्तर दिशा को ही बताया गया है। चूंकि बुध, बुद्धि के कारक हैं अत: अपराध का स्वरूप और हथियार इसी के अनुरूप हो जाते हैं। इंटरनेट के माध्यम से होने वाले अपराध, कागजों में की जाने वाली हेरा-फेरी आदि प्रतिकूल बुध से ही होते हैं। इस प्रकार बुध विद्या रूपी वह शक्तिपुंज है जो सकारात्मक हो जाएं तो ज्ञान, संगीत, ललितकलाएं, मार्केटिंग, वाणी कौशल, लेखन आदि क्षेत्रों में उन्नति देते हैं परंतु यदि नकारात्मक हो जाएं तो व्यक्ति अपराध के रास्ते खोज लेता है जिसकी कल्पना भी दूसरे नहीं कर सकते। इंटरनेट पर नासा की वेबसाइट को या इंटरनेट बैंकिंग में किसी के खाते को क्रेक करना नकारात्मक बुध के कारण ही संभव है। जन्मपत्रिका में बुध का शुभ होना या शुभ ग्रहों के प्रभाव में होना एक वरदान है।
बुध ग्रह की शांति के उपाय:
बुध के लिए उपासना का समय सूर्योदय से 2 घंटे तक। भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। बुध के मूल मंत्र का सवेरे 5 घटी के अंदर पाठ करें। 9,000 या 16,000 पाठ 40 दिन में करें।
मंत्र: उॅ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:
दान-द्रव्य: पन्ना, सोना, कांसी, मूंग, खांड, घी, हरा कपड़ा, सभी फूल, हाथी दांत, कपूर, शस्त्र, फल।
बुधवार का व्रत करना चाहिए। विष्णु भगवान का पूजन करना चाहिए।
1. छेद वाले तांबे के सिक्के जल में प्रवाहित करें
2. सटटेबाजी में पैसा ना लगाए
3, गाय को हरा चारा खिलाये
4, बुधवार को गरीब लड़कियों को भोजन व हरा कपड़ा दें
5, बुध के दिन हरे रंग की साड़ी का दान करे
6, उॅ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: तथा सामान्य मंत्र बुं बुधाय नम: है
7, बुधवार के दिन हरे रंग के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की तरफ मुख करके बुध मंत्र का जाप करें,
8, माँ दुर्गा की आराधना करे,
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भाई की रक्षा:

अपनी माँ की आँखों का तारा और बहन का इकलौता दुलारा भाई था अजेय। जिसे किसी ने कभी कोसा न हो अभिशाप न दिया हो कहते हैं ऐसे व्यक्ति को बुरी नजर जल्दी लगती है काल भी जैसे उसके लिये तैयार रहता है। भाई दौज आई तो वह माँ से बोला -मैं बहन से टीका कराने जाऊँगा। माँ कैसे भेजे। बहुत ही प्यारा और बूढी माँ का इकलौता सहारा। ऊपर से रास्ता बडे खतरों से भरा।
बेटा ना जा। बहन परदेश में है। तू अकेला है रस्ता बियाबान है। तेरे बिना मैं कैसे रहूँगी।
जैसे भी रह लेना मैया। बहन मेरी बाट देखती होगी।
बेटा आखिर चल ही दिया। पर जैसे ही दरवाजे से निकला दरवाजे की ईँटें सरकीं।
तुम्हें मुझे दबाना है तो ठीक है पर पहले मैं बहन से टीका तो कराके आ जाऊँ फिर मजे में दबा देना.। अजेय ने कहा तो दरवाजा मान गया। एक वन पार किया तो शेर मिला। अजेय को देखते ही झपटा।
अरे भैया ठहरो। मेरी बहन टीका की थाली सजाए भूखी बैठी होगी। पहले मैं बहन से टीका करा के लौट आऊँ तब मुझे खा लेना। शेर मान गया। आगे बियाबान जंगल के बीच एक नदी मिली। अजेय जैसे ही नदी पार करने लगा नदी उमड कर उसे डुबाने चली।
नदी माता, मुझे शौक से डुबा लेना पर पहले मैं बहन से टीका तो करवा आऊँ। वह मेरी बाट देखती होगी। नदी भी शान्त हो गई।
भाई बहन की देहरी पर पहुँचा। बहन अपने भाई के आंवडे-पाँवडे (कुशलता की प्रार्थना) बाँचती चरखा कात रही थी कि तागा टूट गया। वह तागा जोडने लग गई। अब न तागा जुडे न बहन भाई को देखे। भाई खिन्न मन सोचने लगा कि मैं तो इतनी मुसीबतें पार कर आया हूँ और बहन को देखने तक की फुरसत नही। वह लौटने को हुआ तभी तागा जुड गया बहन बोली--अरे भैया मैं तो चरखा चलाती हुई तेरे नाम के ही आँवडे-पाँवडे बाँच रही थी।
बहन ने भाई को बिठाया। दौडी-दौडी सास के पास गई, पूछा--अम्मा-अम्मा सबसे प्यारा पाहुना आवै तो क्या करना चाहिये? सास ने कहा कि करना क्या है गोबर माटी से आँगन लीप ले और दूध में चावल डाल दे। बहन ने झट से आँगन लीपा, दूध औटा कर खोआ खीर बनाई। भाई की आरती उतारी, टीका किया, रक्षा सूत्र बांधा। पंखा झलते हुए भाई को भोजन कराया।
दूसरे दिन तडके ही ढिबरी जलाकर बहन ने गेहूँ पीसे। रोटियाँ बनाई और अचार के संग कपडे में बाँधकर भाई को दे दीं। भाई को भूख कहाँ। आते समय सबसे कितने-कितने कौल वचन हार कर आया था। मन में एक तसल्ली थी कि बहन से टीका करवा लिया।
उधर उजाला हुआ। बच्चे जागे। पूछने लगे---माँ मामा के लिये तुमने क्या बनाया। बच्चों को देने के लिये बहन ने बची हुई रोटियाँ उजाले में देखीं तो रोटियों में साँप की केंचुली दिखी। कलेजा पकडकर बैठ गई - हाय राम! मैंने अपना भाई अपने हाथों ही मार दिया।
बस दूध चूल्हे पर छोडा, पूत पालने में छोडा और जी छोड कर भाई के पीछे दौड पडी। कोस दो कोस जाकर देखा, भाई एक पेड के नीचे सो रहा है और छाक (कपडे में बँधी रोटियाँ) पेड से टँगी है। बहन ने चैन की साँस ली। भाई को जगाया। भाई ने अचम्भे से बहन को देखा। बहन ने पूरी बात बताई। भाई बोला--तू मुझे कहाँ-कहाँ बचाएगी बहन। बहन बोली--मुझसे जो होगा मैं करूँगी पर अब तुझे अकेला नही जाने दूँगी।
भाई ने लाख रोका पर बहन न मानी। चलते-चलते रास्ते में वही नदी मिली। भाई को देख जैसे ही उमडने लगी। बहन ने नदी को चुनरी चढाई। नदी शान्त हो गई। शेर मिला तो उसे बकरा दिया। शेर जंगल में चला गया। दरवाजे के लिये बहन ने सोने की ईँट रख ली। चलते-चलते बहन को प्यास लगी।
भाई ने कहा--बहन मैंने पहले ही मना किया था। अब इस बियाबान जंगल में पानी कहाँ मिलेगा ? बहन बोली-- मिलेगा कैसे नही, देखो दूर चीलें मँडरा रहीं हैं वहाँ जरूर पानी होगा।
ठीक है, मैं पानी लेकर आता हूँ।
बहन बोली--पानी पीने तो मैं ही जाऊँगी? अभी पीकर आती हूँ। तब तक तू पेड के नीचे आराम करना।
बहन ने वहाँ जाकर देखा कि कुछ लोग एक शिला गढ रहे है।
भैया ये क्या बना रहे हो?
तुझे मतलब? पानी पीने आई है तो पानी पी और अपना रस्ता देख।
एक आदमी ने झिडककर कहा तो बहन के कलेजे में सुगबुगाहट हुई। जरूर कोई अनहोनी है। बोली- भैया बतादो ये शिला किसके लिये गढ रहे हो? मैं पानी तभी पीऊँगी।
बडी हठी औरत है। चल नही मानती तो सुन। एक अजेय पूत है। उसी की छाती पर सरकाने के लिये ऊपर से हुकम हुआ है।
बहन को काटो तो खून नही। माँ-जाए के लिये हर जगह काल बैरी बन कर खडा है।
उसने ऐसी क्या गलती करी है जो....?
तुझे आम खाने कि पेड गिनने? तू पानी पी और अपना रास्ता देख। दूसरा आदमी चिल्लाकर बोला पर वह नही गई। वही खडी गिडगिडाने लगी --सुनो भैया ! वह भी किसी दुखियारी माँ का लाल होगा। किसी बहन का भाई होगा। तुम्हें दौज मैया की सौगन्ध। बताओ, क्या उसे बचाने का कोई उपाय नही है?
हाँ उपाय तो है । आदमी हार मानकर बोला--उसे किसी ने कभी कोसा नही है। अगर कोई कोसना शुरु करदे तो अलह टल सकती।
बस बहन को कैसी प्यास! कहाँ का पानी! उसी समय से उसने भाई को कोसना चालू कर दिया और कोसती-कोसती भाई के पास आई--अरे तू मर जा। धुँआ सुलगे, मरघट जले.।
मेरी अच्छी-भली बहन बावली भी हो गई। मैंने कितना मना किया था कि मत चल मेरे संग। नही मानी। भाई ने दुखी होकर सोचा। जैसे-तैसे घर पहुँचे तो माँ हैरान। अच्छी भली बेटी को कौन सा प्रेत लग गया है कौन से भूत-चुडैल सवार हो गए हैं, जो भाई को कोसे जा रही थी। लडकी तो बावरी हो गई?
माँ कोई बात नही। बावरी है भूतरी है, जैसी भी है तो मेरी बहन। तू नाराज मत हो।
माँ चुप हो गई बहन रोज उठते ही भाई को कोसती और दिन भर कोसती रहती। ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए। एक दिन भाई की सगाई आई। बहन आगे आ गई, इस जनम जले की सगाई कैसे होगी?
सबको बहुत बुरा लगा पर भाई ने कहा -मेरी बहन की किसी बात का कोई बुरा मत मानो। वह जैसी भी है मेरी बहन है।
फिर तो हर रस्म पर बहन इसी तरह भाई को रोकती रही टोकती रही और कोसती रही। भाई का ब्याह हो गया।
अब आई सुहागरात। बहन पहले ही पलंग पर जाकर लेट गई।
यह अभागा सुहागरात कैसे मनाएगा? मैं भी वही सोऊँगी।
और सब तो ठीक पर सुहागरात में कैसे क्या होगा। ऐसी अनहोनी तो न देखी न सुनी। पर भाई ने कहा -कोई बात नही। मेरी बावरी बहन है। मैं उसका जी नही दुखाऊँगा। हम जैसे भी रात काट लेंगे। फिर कोई क्या कहता।
बहन रात में भाई और भौजाई के बीच लेट गई। पर पलकों में नींद कहाँ से आती। सोने का बहाना करती रही। आधी रात को भगवान का नागदेवता को हुकम हुआ कि फलां घर में एक नया-नवेला जोडा है उसमें से दूल्हा को डसना है। नागदेवता आए। पलंग के तीन चक्कर लगाए पर जोडा नही वहाँ तो तीन सिर और छह पाँव दिख रहे थे। जोडा होता तो डसता। बहन सब देख-समझ रही थी। चुपचाप उठी। तलवार से साँप को मारा और ढाल के नीचे दबा कर रख दिया। और भगवान का नाम लेकर दूसरे कमरे में चली गई।
सुबह उसने सबको मरा साँप दिखाया और बोली-मैं बावरी आवरी कुछ नही हूँ। बस अपने भाई की जान, मैया की गोद और भौजाई का एहवात (सुहाग) बचाने के लिये यह सब किया। जो भूल चूक हुई उसे माफ करना।
भाई-भौजाई ने बहन का खूब मान-पान रखा। बहन खुशी-खुशी अपने घर चली गई।
जैसे इस बहन ने भाई की रक्षा की और भाई ने बहन का मान रखा वैसे ही सब रखें । जै दौज मैया की।
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चूड़ा-कर्म संस्कार का ज्योतिष्य यथार्थ और विधि

इसमें पहली बार बालक के सिर के बाल उतारे जाते हैं। यह कार्य जन्म से एक वर्ष या तीन वर्ष बाद होता है। चरक का विचार है कि केश, सिर एवं नखों के काटने एवं प्रसाधन से पौष्टिकता, बल, आयुष्य, शुचिता और सौंदर्य की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के पीछे स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की भावना ही प्रमुख थी। पहले यह घर पर होता था, किंतु बाद में देवालयों में।
काल निर्धारण: चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे चौलकर्म भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है शिशु का मुण्डन पूर्वक शिखा(चूड़ा) का निर्धारण करना। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है। अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा0 (2/8), पार0 गृ0 सू0 (2.1.1- 2) तथा मनु0 (2.35) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए, किंतु आश्व0 गृ0 सू0 (1/17/1 पर नारायणी टीका) तथा अन्य उत्तरकालीन संस्कार प्रकाश आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है, किंतु असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।
इस संदर्भ में गृह्यसूत्रकारों का यह भी कहना है कि इसके लिए उत्तरायण का समय अधिक उपयुक्त होता है। मासों की दृष्टि से राजमार्तण्ड के अनुसार इसके लिए चैत्र तथा पोष को अधिक उपयुक्त माना जाता है, किंतु सारसंग्रह में ज्येष्ठ तथा पौष को इसके लिए वर्जित कहा गया है।
चूड़ाकर्म का महत्व: इस संस्कार का संबंध प्रमुख रुप से शिशु की स्वास्थ्य रक्षा के साथ माना गया है। आश्व0 गृ0 सू0 के अनुसार इससे बालक की आयु वृद्धि होती है, वह यशस्वी एवं मंगल कार्यों में प्रवृत्त होता है। पुरातन आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों ने भी इसके स्वास्थ्य संबंधी महत्व को स्वीकार किया है। चरक तथा सुशरुत दोनों का ही कहना है कि केश, सिर तथा नखों के केर्तन एवं प्रसाधन से आयुष्य, शारीरिक पुष्टता, बल, शुचिता एवं सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। अर्थात् केशवपन से भी शरीर पुष्ट, नीरोग एवं सौंदर्य सम्पन्न होता है।
गर्भजन्य बालों की विषमता के कारण शिशु के बालों का विकास भी समरुप में नहीं हो पाता है। अत: शैशवास्था में एक बार क्षुर (उस्तरे) से उनका वपन आवश्यकता होता है। केशवपन की इस आवश्यकता का अनुपालन, हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में भी देखा जाता है।
क्रियाविधि: गृह्यसूत्रों में इसकी क्रिया विधि अति सरल एवं संक्षिप्त रुप में पायी जाती है। पार. गृ. सू. (2.1) के अनुसार इस दिन शिशु के माता-पिता इसके निमित्त तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरांत शिशु की माता उसे स्नान कराकर तथा नूतन वस्र पहना कर यज्ञशाला में जाकर गोदी में लेकर, पूर्वाभिमुख होकर यज्ञाग्नि के पश्चिम में जाकर बैठती थी। पति-पत्नी दोनों अग्नि में घी की चौदह आहुतियाँ देकर वहाँ पर रखे गये जल में गरम जल मिलाते थे। तदनन्तर उस जल में नवनीत या घी अथवा दही मिलाते थे। इस मिश्रित जल से शिशु के बालों को गीला करके उन्हें कांटे से तीन भागों में विभक्त करके उनके बीच में कुशांकुन ग्रथित करते थे। आश्वलापन गृ. सू. में यहाँ पर छुरे की प्रार्थना भी की गयी है। इसके बाद उन्हें पुन: इस जल से गीला करते हुए पहले दक्षिण के भाग को, फिर पश्चिम के भाग को तथा अंत में उत्तर के भाग को काटा जाता था। इस क्रम में छुरे से सिर को तीन बार साफ किया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपिट कर दिया जाता था। जिसे अन्त में गोष्ठ में अथवा किसी जलाशय अथवा जल धारा के समीप भूमि में दबा दिया जाता था।
मस्तकलेपन: सर्वप्रथम शीतोष्ण जल में गाय के घी, दूध, दही का मिश्रण कर वैदिक मंत्रों के साथ बालक के बालों को गीला किया जाता है, फिर उन्हें तीन भागों (दायां, बायां और मध्यस्थ) में विभक्त कर उनके बीच में मंत्रोच्चार के साथ कुशा के तृण रख कर उन्हें कलावे से जूड़े के रुप में बांधा जाता है। इसमें सृष्टि के सर्ग, स्थिति एवं संहार के तीनों अधिष्ठातृ देवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश से संबंद्ध मंत्रों के द्वारा सृष्टि का संचालन करने वाली इन तीनों महाशक्तियों का आवाहन इस भावना से किया जाता है कि इनके प्रभाव से बालक के मस्तिष्क में सत्कार्यों की सृष्टि, उनका पोषण एव असत्यकार्यों के विनाश की प्रवृतियों का संचार हो सके।
क्षुरपूजन: इसके बाद बालक के माता-पिता क्षुर (उस्तरे) की मूठ पर कलावा बांधकर रोली, अक्षत, धूप, दीप से वैदिक मंत्रों के साथ उसका पूजन करते हैं। तदनन्तर यज्ञ कुण्ड में पांच आहुतियां देकर बालक को यज्ञ स्थल से बाहर ले जाकर उसके बाल उतारे जाते हैं तथा उन्हें गोबर या आटे के पिण्ड में लपेट कर स्वच्छ भूमि में गाड़ दिया जाता है। बालक को स्नान करा कर पीतवस्र धारण कराये जाते हैं तथा उसके मुंडित सिर पर रोली या चन्दन से ऊँ का या स्वस्तिक का चिह्म बनाया जाता है। इसके बाद स्वस्तिवाचन तथा आशीर्वचन के साथ इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया पूरी हो जाती है। तदनन्तर बधाई, भोज आदि का कार्य होता है। केशबन्धन के समान ही केशवपन के समय भी तीनों ग्रंथियों के अधिष्ठातृ देवों से सम्बद्ध मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। बौधा0 शांखायन आदि गृह्यसूत्रों में नापित का कोई उल्लेख न होने से व्यक्त है कि पहले यह कार्य बालक के पिता के द्वारा ही किया जाता था, किन्तु आगे चलकर इसके लिए नापित का भी सहयोग लिया जाने लगा। (संस्काररत्नमाला, पृ0 901 )
केशाधिवासन: किन्तु उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि यह उपनयन के साथ किया जाता है, प्रचलित संस्कार पद्धतियों में इसके आनुष्ठानिक स्तर पर अनेक रुपों की भिन्नता पायी जाती है, यथा, केशाधिवासन। यह क्रिया मुण्डन संस्कार की पूर्वसन्ध्या में की जाती है, इसमें गणेश पूजन के उपरान्त एतदर्थ पीले वस्रखण्डों में हल्दी, दूब, सरसों, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों को रख कर उन्हें कलावे से बांध कर नौ पोटलियां बनायी जाती हैं और एक अलग से दसवीं भी बना ली जाती है। तदनन्तर बालक के माता - पिता संकल्प पूर्वक गणेशपूजन करके मुडन संस्कार के निमित्त प्रधान संकल्प लेते हैं, और उन पोटलियों को बालक के बालों को थोड़ा -थोड़ा इक_ा करके उन पर बांधते हैं। उनके बांधने का क्रम इस प्रकार होता है -सबसे पहले तीन पोटलियां दाहिने पक्ष की ओर, फिर तीन पीछे की ओर तथा अन्त में तीन बायें पक्ष की ओर और एक शिखा पर। इसके अतिरिक्त दो पोटलियाँ और भी बनाई जाती हैं जिनमें से एक को उस्तरे पर तथा एक को से ही के कांटों पर बांधा जाता है। वहाँ पर एक तांबे की परात में या कांसे की थाली में बैल का गोबर, गाय का घी, दूध, दही, तीखी धारवाला क्षुर, तीन - तीन करके त्रिगुणित सूत्र से लपेटे हुए कुशा के नौ तृणांकुरों को रख कर दक्षिणा संकल्प के साथ ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर पोटलियों को यथावत् सुरक्षित रखने के लिए बालक के सिर पर एक कपड़ा बांध दिया जाता है। इस प्रकार केशाधिवासन का अनुष्ठान किया जाता है। केश मानव शरीर के अंग होने के कारण इनके माध्यम से किसी प्रकार के जादू -टोने के परिहार के निमित्त ही इन्हें गोबर में स्थापित कर भूमि के गर्भ में रखा जाता है।
अगले दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर यज्ञशाला में जाकर संकल्प पूर्वक आचार्य का वरण करके यथाविधि वैदिक मंत्रों के साथ आज्यहोम तथा उसके बाद चूड़ांगहोम किया जाता है। तदनन्तर ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार एतदर्थ नियत मुहूर्त में लग्नदानसंकल्प करके वैदिक मंत्रों के साथ पूर्वोक्त रुप में केशकर्तन तथा शिखा को छोड़कर शीर्ष मुंडन किया जाता है। इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया मैदानी भागों की प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। अपिच, बटुक का कर्णवेध संस्कार भी इसी के साथ किया जाता है।
शिखा संचयन: यह कोई पृथक् संस्कार तो नहीं, किन्तु चूड़ाकर्म संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। जहां पर बालक का चौलकर्म बाल्यावस्था में सम्पूर्ण केशवपन के रुप में किया जाता है वहां पर शिखाचयन/शिखा स्थापन का कार्य उसके बाद केशवृद्धि हो जाने पर किसी भी दिन कर दिया जाता है और जहां पर चूड़ाकर्म का संस्कार कौमारावस्था में उपनयन के साथ ही किया जाता है वहां पर शिखास्थापन का कार्य उसी के साथ किया जाता है।
शिखासंचयन का महत्व: संस्कार ग्रंथों में शिखासंचयन संबंधी अनुष्ठानों का विश्लेषण करने पर देखा जाता है कि इसका संबंध हमारे शरीर के संचालन केंद्र मस्तिष्क की सुरक्षा के साथ होता है। शीर्ष के ऊपरी भाग को मस्तिष्क का मर्म स्थल माना जाता है। ब्रह्मरंध्र की स्थिति भी यहीं पर होती है और यही स्थान होता है, द्विदलीय आज्ञाचक्र का भी। आधुनिक चिकित्साविज्ञानियों का भी कहना है कि बालक को कौमारावस्था से किशोरावस्था की ओर अग्रसर करने वाली तथा हारमोंस के माध्यम से प्रत्येक आयु के व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया का नियमन करने वाली पीनियल नामक ग्रंथि भी यहीं पर होती है। मानव के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मर्मस्थल को सभी प्रकार के आघातों से बचाये रखने के लिए ही शास्रों में गोखुर प्रमाण शिखा रखने का विधान किया गया था।
हमारे आयुर्विज्ञान सम्बन्धी ग्रंथ भी इसका पूरा अनुमोदन करते हैं। आचार्य सुश्रुत का कहना है हमारे मस्तक के अंदर उसके शीर्ष भाग में शिरा संबंधी सन्निपात होता है वहीं पर हमारे मस्तिष्क का नियामक केंद्र भी होता है इस स्थान के आहत होने पर तत्काल मृत्यु हो सकती है।
नक्षत्र: चूड़ाकर्म संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय सबसे पहले नक्षत्र का विचार किया जाता है ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजीत, पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, रेवती, चित्रा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र को चूड़ाकर्म संस्कार के लिए बहुत ही अच्छा माना गया है।
तिथि: इस संस्कार के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है कि द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्टी, दशमी, एकादशी, द्वादशी तिथि अनुकूल होती है। आप इनमें से किसी भी तिथि को यह संस्कार कर सकते हैं।
वार: बात करें वार कि तो इस संस्कार के लिए सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को बहुत ही शुभ माना जाता है। माता पिता अपनी संतान का चूड़ाकर्म संस्कार इन वारों में से किसी वार को कर सकते हैं।
लग्न: चूड़ाकर्म संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय लग्न की स्थिति कैसी होनी चाहिए आइये इसे देखें। वृष, मिथुन, सप्तम में हों एवं दशम भाव में शुभ ग्रह हों व अष्टम भाव खाली हों तो यह उत्तम होता है
निषेध: ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि चन्द्र व तारा दोष होने पर चूड़ाकर्म संस्कार नहीं करना चाहिए। तारा और चन्द्र दोष से मुक्त होने पर ही इस संस्कार की शुरूआत करनी चाहिए।
विद्यारम्भ संस्कार:
जब विद्यारम्भ संस्कार आयोजित किया जाना चाहिए, इस संस्कार में गुरू बच्चे को पहली बार अक्षर से परिचय कराते हैं। विद्यारम्भ संस्कार में सबसे पहले गणेश जी, गुरू, देवी सरस्वती और पारिवारिक इष्ट की पूजा की जाती है। इन देवी देवताओं का आशीर्वाद लेने के बाद गुरू बच्चे को अक्षर का ज्ञान देते हैं। इस संस्कार में गुरू पूरब की ओर और शिष्य पश्चिम की ओर मुख करके बैठते हैं। संस्कार के अंत में गुरू को वस्त्र, मिठाई एवं दक्षिणा दी जाती है और गुरू बालक को आशीर्वाद देते हैं। विद्यारम्भ संस्कार जन्म के पांचवे वर्ष उत्तरायण में किया जाता है।
नक्षत्र: विद्यारम्भ संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय सबसे पहले नक्षत्र का विचार किया जाता है ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजीत, पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, रेवती, चित्रा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र को विद्यारम्भ संस्कार के लिए बहुत ही अच्छा माना गया है।
तिथि: इस संस्कार के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है कि द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्टी, दशमी, एकादशी, द्वादशी तिथि अनुकूल होती है। आप इनमें से किसी भी तिथि को यह संस्कार कर सकते हैं।
वार: बात करें वार कि तो इस संस्कार के लिए सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को बहुत ही शुभ माना जाता है। माता पिता अपनी संतान का विद्यारम्भ इन वारों में से किसी वार को कर सकते हैं।
लग्न: विद्यारम्भ संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय लग्न की स्थिति कैसी होनी चाहिए आइये इसे देखें। वृष, मिथुन, सप्तम में हों एवं दशम भाव में शुभ ग्रह हों व अष्टम भाव खाली हों तो यह उत्तम होता है
निषेध: ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि चन्द्र व तारा दोष होने पर विद्यारम्भ नहीं करना चाहिए। तारा और चन्द्र दोष से मुक्त होने पर ही इस संस्कार की शुरूआत करनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ में विख्यात भोरमदेव मंदिर

छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ के रूप में विख्यात भोरमदेव मंदिर रायपुर-जबलपुर मार्ग पर कवर्धा से लगभग 17 किमी पूर्व की ओर मैकल पर्वत श्रृंखला पर स्थित ग्राम छपरी के निकट चौरागांव नामक गांव में स्थित है। भोरमदेव मंदिर न केवल छत्तीसगढ़ अपितु समकालीन अन्य राजवंशों की कला शैली के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 11वीं शताब्दी के अंत में (लगभग 1089ई) निर्मित इस मंदिर में शैव, वैष्णव, एवं जैन प्रतिमाएं भारतीय संस्कृति एवं कला की उत्कृष्टता की परिचायक हैं। इन प्रतिमाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक व सहिष्णु राजाओं ने सभी धर्मों के मतावलम्बियों को उदार प्रश्रय दिया था।
रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अध्र्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा, लता, बेलों से अलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16 खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशाल शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरणयुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतजाम है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाडिय़ों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
मंदिर की खासियत: यह मंदिर चंदेलों द्वारा बनाये गए खजुराहो के मंदिरों की शैली से बना है। मंदिर वास्तु और शिल्प दोनों ही रूप में कला का एक उत्कृष्ट उदहारण है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन स्तरों में विभिन्न प्रकार की मूर्तियों को उकेरा गया है जिनमें शिव की लीलाओं, विष्णु के विभिन्न अवतारों और अन्य देवी देवताओं की कई मूर्तियां शामिल हैं। दीवारों पर नृत्य करते नायक, नायिकाओं, योद्धाओं, काम-कलाओं को प्रदर्शित करते युगलों का बेहद कलात्मक ढंग से अंकन किया गया है। दीवारों की काम-कला की मूर्तियों की तुलना खजुराहो की मूर्तियों से की जाती है जिस कारण इस मंदिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कहा जाता है।
कौन हैं भोरम देव? यह मंदिर एक शिव मंदिर है, स्थानीय गोंड समाज में कुल देवता को बूढ़ादेव, बड़ादेव या भोरमदेव कहा जाता है, इसीलिए इस मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा।
भोरमदेव मंदिर का निर्माण एक सुंदर और विशाल सरोवर के किनारे किया गया है, जिसके चारों और फैली पर्वत श्रृंखलाएं और हरी-भरी घाटियां पर्यटकों का मन मोह लेती हैं। भोरमदेव मंदिर मूलत: एक शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि शिव के ही एक अन्य रूप भोरमदेव गोंड समुदाय के उपास्य देव थे। जिसके नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। नागवंशी शासकों के समक्ष यहां सभी धर्मों के समान महत्व प्राप्त था जिसका जीता जागता उदाहरण इस स्थल के समीप से प्राप्त शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं हैं।
भोरमदेव मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल शैली की है और निर्माण योजना की विषय वस्तु खजुराहो और सूर्य मंदिर के समान है जिसके कारण इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो के नाम से भी जानते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरा गया है जिनमे से प्रमुख रूप से शिव की विविध लीलाओं का प्रदर्शन है। विष्?णु के अवतारों व देवी देवताओं की विभिन्न प्रतिमाओं के साथ गोवर्धन पर्वत उठाए श्रीकृष्ण का अंकन है। जैन तीर्थकरों की भी अंकन है। तृतीय स्तर पर नायिकाओं, नर्तकों, वादकों, योद्धाओं मिथुनरत युगलों और काम कलाओं को प्रदर्शित करते नायक-नायिकाओं का भी अंकन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है, जिनके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। नृत्य करते हुए स्त्री पुरुषों को देखकर यह आभास होता है कि 11वीं-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में नृत्यकला में लोग रुचि रखते थे। इनके अतिरिक्त पशुओं के भी कुछ अंकन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख रूप से गज और शार्दुल (सिंह) की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के परिसर में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाएं, सती स्तंभ और शिलालेख संग्रहित किए गए हैं जो इस क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इसी के साथ मंदिरों के बाई ओर एक ईंटों से निर्मित प्राचीन शिव मंदिर भी स्थित है जो कि भग्नावस्था में है। उक्त मंदिर को देखकर यह कहा जा सकता है कि उस काल में भी ईंटों से निर्मित मंदिरों की परंपरा थी।
अन्य स्थल:
छेरकी महल: भोरमदेव मंदिर के पास ही छेरकी महल है, यह भी शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। स्थानीय बोली में बकरी को छेरी कहा जाता है इसलिए यह मान्यता है कि यह मंदिर बकरी चराने वालों को समर्पित है। इस मंदिर की खासियत है कि इसके पास जाने पर बकरियों के शरीर से आने वाली गंध आती है। पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
मड़वा महल: भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम के निकट एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। उक्त मंदिर का निर्माण 1349 ईसवी में फणीनागवंशी शासक रामचंद्र देव ने करवाया था। उक्त मंदिर का निर्माण उन्होंने अपने विवाह के उपलक्ष्य में करवाया था। हैहयवंशी राजकुमार अंबिका देवी से उनका विवाह संपन्न हुआ था। मड़वा का अर्थ मंडप से होता है जो कि विवाह के उपलक्ष्य में बनाया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर 54 मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत कला?मकता से किया गया है जो कि आंतरिक प्रेम और सुंदरता को प्रदर्शित करती है।
कवर्धा महल: इटैलियन मार्बल से बना कवर्धा महल बहुत सुन्दर है। इसका निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था। यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्काशी की गई है। गुम्बद के अलावा इसकी सीढिय़ां और बरामदे भी बहुत खूबसूरत हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है।
राधाकृष्ण मन्दिर: इस मन्दिर का निर्माण राजा उजीयार सिंह ने 180 वर्ष पहले कराया था। प्राचीन समय में साधु-संत मन्दिर के भूमिगत कमरों में कठिन तपस्या किया करते थे। इन भूमिगत कमरों को पर्यटक आज भी देख सकते हैं। मन्दिर के पास एक तालाब भी बना हुआ है। इसका नाम उजीयार सागर है। तालाब के किनारे से मन्दिर के खूबसूरत दृश्य दिखाई देते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं।
राधाकृष्ण मन्दिर के अलावा पर्यटक यहां पर मदन मंजरी महल मन्दिर भी देख सकते हैं। भोरमदेव माण्डवा महल और मदन मंजरी महल मन्दिर पुष्पा सरोवर के पास स्थित हैं। इन दोनों मन्दिरों के निर्माण में मुख्य रूप से मार्बल का प्रयोग किया गया है। सरोवर के किनार पर्यटक चहचहाते पक्षियों को भी देख सकते हैं।
लोहारा बावली: कवर्धा की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित लोहारा बावली बहुत खूबसूरत है। बैजनाथ सिंह ने इसका निर्माण 120 वर्ष पहले कराया था। मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
भोरमदेव छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। जनजातीय संस्कृति, स्थापत्य कला और प्राकृतिक सुंदरता से युक्त भोरमदेव देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। प्रत्येक वर्ष यहां मार्च के महीने में राज्य सरकार द्वारा भोरमदेव उत्सव का आयोजन अत्यंत भव्य रूप से किया जाता है। जिसमें कला व संस्कृति के अद्भुत दर्शन होते हैं।
कंकालीन-बैजलपुर से एक किलोमीटर दूर बफेला-देवसरा में आठवी शताब्दी की जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भगवान की काले ग्रेनाइट की कलात्मक प्रतिमा भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं जो पंडरिया के जैन मंदिर में प्रस्थापित है। इस प्रतिमा को स्थानीय बैगा आदिवासी मंत्रित मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। तामेश्वरनाथ मंदिर संत कबीर नगर जनपद मुख्यालय खलीलाबाद से मात्र सात कि.मी. की दूरी पर स्थित देवाधिदेव महादेव बाबा तामेश्वरनाथ मंदिर (तामेश्वरनाथ धाम) की महत्ता अन्नत (आदि) काल से चली आ रही है।
जनश्रुति के अनुसार यह स्थल महाभारत काल में महाराजा विराट के राज्य का जंगली इलाका रहा। यहां पांडवों का वनवास क्षेत्र रहा है और अज्ञातवास के दौरान कुंती ने पांडवों के साथ यहां कुछ दिनों तक निवास किया था। इसी स्थल पर माता कुंती ने शिवलिंग की स्थापना की थी, यह वही शिवलिंग है।
यही वह स्थान है जहां कऱीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व दुनिया में बौद्ध धर्म का संदेश का परचम लहराने वाले महात्मा बुद्ध ने मुण्डन संस्कार कराने के पश्चात अपने राजश्री वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। भगवान बुद्ध के यहां मुण्डन संस्कार कराने के नाते यह स्थान मुंडन के लिए प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर यहां भारी संख्या में लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन कराने के लिए उपस्थित होते है।
कैसे पहुंचे:
वायुमार्ग: निकटतम हवाई अड्डा रायपुर (134 किमी) है जो कि मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग: हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर रायपुर(134किमी) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग: कवर्धा (18किमी), रायपुर (116किमी), बिलासपुर से 150 किमी, भिलाई से 150 किमी और जबलपुर से 150 किमी दूर दैनिक बस सेवा एवं टैक्सियां उपलब्ध है।
कहां ठहरें: कवर्धा में विश्रामगृह और निजी होटल है। भोरमदेव में भी पर्यटन मंडल का विश्रामगृह हैँ।
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