Monday, 7 September 2015

Asirgarh Fort, mysterious castle.

Here is the Shiva temple Mahabartkal ashwatthama still come to worship. When asked by the strange tales told us about the fort. Someone said, '' his grandfather told him many times there is the story of ashwatthama see. 'Then someone said: "When they catch fish there were in the pond, then quickly pushed them in the dark Someone was. Probably did not like my coming there that push. '' Many of the elders of the village were filled with things such tales. Someone once said that ashwatthama takes a look at his mental balance is disrupted.
After discussion, we moved from the old fort at Asirgarh. The fort is still in the Stone Age won mirrored. In the era of electric nights here are steeped in darkness. From six o'clock in the evening darkness fortress 'ghost' takes the form. The deserted fort while climbing some villagers were with us.
Our travel was the head of the village, a guide and two or three local people. Our clock was playing six of chopsticks evening. After about half an hour's walk uphill, we knocked on the door of the fort, the outer large.
Obviously, the fort was the door open. We turned to the inside. Among the long grass, removing weeds we were going to proceed. Then our eye fell on some graves. A look old enough to view the graves were known. He came up with the guide are the graves of the British soldiers.
After staying here for a while we were moving. We divided into pieces appeared a pond. Given the guide started telling pond, the pond in which they bathe in the temple to offer prayers go ashwatthama While some say they did not 'Utalvi-river' come here for worship by bathing in . We looked carefully at the pond. Think of this place surrounded by hills rainwater accumulates. Due to green cleaning water was visible, but it is surprising that the sweltering heat of Burhanpur not fail in this pond.
Iron us to walk a few steps and saw two large angle. Guide said it is Faँsigr. Here was sentenced to death. After whipping dead body was hung on a whim. Finally, the skeleton falls into the abyss below was made. We hear it all the soul tremble.
We preferred to move forward from here. We were a little ahead of us Gupteshwar Mahadev temple appeared. The temple was surrounded by trenches from Chuँor. According to the legend in one of these trenches have remained secret, which Khandw Forest (Khandwa district) directly from the
Temple survives. Given the way ashwatthama come inside the temple. We entered inside the temple. The steps were curved and had been around the moat. Just a little mistake, we would have fallen into the abyss.
With great care we entered inside the temple. Temple felt seeing that even though the temple is not a light and modern system, not even here parinda kills, but the ritual continues. There appeared quince pieces. Gulal lingam was offered. We decided to spend the night in the temple. There were just twelve midnight. Guides took us to request landing. She not here to stay the night, but to our pressure he stayed with us.
This sounded terrible night in the wilderness. It seemed that the time to cancel, do not. That temperature was reached at two o'clock hour hand suddenly decreased. So cold in the sweltering heat of June in the area of ​​Burhanpur. I did notice that I had read somewhere that '' where souls are around, there is the temperature very cold. '' What was something around us to do the same. Some of our partners
Began to panic. We both cold and fear had lit bonfires to drive.
The surrounding atmosphere was very scary. What sounds strange insects on trees were removed. Say-Say was hit by the ruins empty air. Crawly time was cut. Around four o'clock in the sky appeared Llima mild. Was the dawn. Come with head suggested that should go out to the pond. What there is to see. We went to the pond.
We briefly looked at the pond, stroll around the fort reviewed. We did not see anything. Ujas light of dawn each and spread. We turned to the temple. But what, Shiva Rose was riding. Our surprise was a sack. After all how it happened. The answer was no. Now it was true or mischief or a saint cultivate in these trenches, nobody knows about it, nor from these trenches are finding the tunnel is found, but so must the many secrets of the past The ruins of the fortress walls are closing in, the wounds need.

Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

युवा होते बच्चों में अनुशासनहीनता और आज्ञापालन का आभाव : भृगुकालेंद्र पूजन

आज की इस भागती दौड़़ती जिन्दगी में जहॉं सब कुछ बदल रहा है, वहॉं बच्चों के बिहेवियर में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। आज 80-90 प्रतिशत बच्चों में मनमानी, क्रोध, जिद्धी और शैतानी जैसी अन्य कई हरकतो ने अपना घर बना लिया है। कम्प्यूटर-टीवी के चलन और एकाकी परिवारो की बढ़ती संख्या भी बच्चो की बदलती मानसिकता का बड़ा कारण है। इस व्यवहार वाले बच्चों को देखकर कोई कहता है कि ‘बहुत चंचल बच्चा है’ कोई कहता है कि ‘जिद्धी और शैतान है’। जबकि वही बालक बड़ा होकर एक विकृत युवा का रूप ले लेता है, जो स्वयं से भी परेशान है और इस दुनिया से भी। ऐसे में वह अपने माता-पिता के द्वारा देखे गए सपनों को किसी भी तरह से पूरा नहीं कर पता और जीवन में एक असफल व्यक्ति का ही जीवन जीता है।
पता और जीवन में एक असफल व्यक्ति का ही जीवन जीता है।
आज के आधुनिक युग में प्राप्त सुविधाएं जैसे गाड़ी, मोबाईल इत्यादि की सुविधा का बच्चों द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं को अपने बच्चों को जरूरत हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएं बच्चों को गलत दिशा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे भी युवा अवस्था में अपनी दिशा से भटक कर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्ट्रानिक्स
गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बातें बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवश्यक है। शारीरिक दुष्प्रभावों के साथ-साथ मानसिक क्षमता का भी ह्रास दिखाई दे जैसे व्यसन, क्रोध, चिड़चिड़ा होने के साथ-साथ अपनी बौद्धिक शक्ति के साथ सहिष्णुता भी खो दे, तब किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दशा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शनि, शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दशा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो अपने संतान के लिए ज्योतिषीय काउंसिलिंग करायें इसके साथ भृगु-कालेंद्र पूजन करायें साथ ही नियम से मंत्र जाप करने की आदत डलवायें|
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

गणेशजी दूर करते हैं वास्तु दोष

गणेशजी दूर करते हैं वास्तु दोष सुन्दर व अच्छा घर बनाना या उसमें रहना हर व्यक्ति की इच्छा होती है। लेकिन थोड़ा सा वास्तु दोष आपको काफी कष्ट दे सकता है। लेकिन वास्तु दोष निवारण के महंगे उपायों को अपनाने से पहले विघ्नहर्ता गजानन के आगे मस्तक जरूर टेक लें। क्योंकि आपके कई वास्तु दोषों का ईलाज गणपति पूजा से ही हो जाता है।
वास्तु पुरुष की प्रार्थना पर ब्रह्मजी ने वास्तुशास्त्र के नियमों की रचना की थी। यह मानव कल्याण के लिए बनाया गया था, इसलिए इनकी अनदेखी करने पर घर के सदस्यों को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है।
अत: वास्तु देवता की संतुष्टि के लिए भगवान गणेश जी को पूजना बेहतर लाभ देगा। इनकी आराधना के बिना वास्तुदेवता को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। बिना तोड़-फोड़ अगर वास्तु दोष को दूर करना चाहते हैं तो इन्हें आजमाएं।
गणपति जी का वंदन कर वास्तुदोषों को शांत किए जाने में किसी प्रकार का संदेह नहीं होता है। मान्यता यह है कि नियमित गणेश जी की आराधना से वास्तु दोष उत्पन्न होने की संभावना बहुत कम होती है। इससे घर में खुशहाली आती है और तरक्की होती है।
यदि घर के मुख्य द्वार पर एकदंत की प्रतिमा या चित्र लगाया गया हो तो उसके दूसरी तरफ ठीक उसी जगह पर गणेश जी की प्रतिमा इस प्रकार लगाए कि दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे। इस प्रकार से दूसरी प्रतिमा या चित्र लगाने से वास्तु दोषों का शमन होता है। भवन के जिस भाग में वास्तु दोष हो उस स्थान पर घी मिश्रित सिंदूर से स्वास्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।
घर या कार्यस्थल के किसी भी भाग में वक्रतुण्ड की प्रतिमा अथवा चित्र लगाए जा सकते हैं। किंतु प्रतिमा लगाते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह
दक्षिण दिशा या नैर्ऋ त्य कोण में नहीं हो। इसका विपरीत प्रभाव होता है।
घर में बैठे हुए गणेश जी तथा कार्यस्थल पर खड़े गणपति जी का चित्र लगाना चाहिए, किंतु यह ध्यान रखें कि खड़े गणेश जी के दोनों पैर जमीन का स्पर्श करते हुए हों। इससे कार्य में स्थिरता आने की संभावना रहती है।
भवन के ब्रह्म स्थान अर्थात् केंद्र में, ईशान कोण एवं पूर्व दिशा में सुखकर्ता की मूर्ति अथवा चित्र लगाना शुभ रहता है। किंतु टॉयलेट अथवा ऐसे स्थान पर गणेशजी का चित्र नहीं लगाना चाहिए जहां लोगों को थूकने आदि से रोकना हो। यह गणेशजी के चित्र का अपमान होगा। सुख, शांति, समृद्धि की चाह रखने वालों के लिए घर में सफेद रंग के विनायक की मूर्ति, चित्र लगाना चाहिए।
सर्व मंगल की कामना करने वालों के लिए सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। इससे शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। विघ्नहर्ता की मूर्ति अथवा चित्र में उनके बाएं हाथ की ओर संूड घुमी हुई हो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। दाएं हाथ की ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेश जी हठी होते हैं तथा उनकी साधना-आराधना कठिन होती है। शास्त्रों में कहा गाया है कि दाएं सूंड वाले गणपति देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।
मंगल मूर्ति भगवान को मोदक एवं उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। अत: घर में चित्र लगाते समय ध्यान रखें कि चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा अवश्य होना चाहिए। इससे घर में बरकत होती है। इस तरह आप भी बिना तोड़-फोड़ के गणपति पूजन के द्वारा से घर के वास्तुदोष को दूर कर सकते हैं?


Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

कैंसर रोगी ज्योतिष्य आंकलन

भारतीय दर्शन में निरोगी रहना प्रथम सुख माना गया है. यथा- ‘‘पहला सुख निरोगी काया’’ यह बिल्कुल सत्य है कि निरोगी शरीर ही प्रथम सुख है और बाकी सभी सुख निरोगी शरीर पर ही निर्भर करते हैं. आजकल के दौड़ धूप के युग में पूर्णत: निरोगी रहना अधिकांश व्यक्तियों के लिये एक स्वपन के समान ही है. निरोगी शरीर का अर्थ है शरीर रोग का से रहित होना. रोग दो प्रकार के होते है एक- साध्य रोग जो कि उचित उपचार, आहार, व्यबहार से ठीक हो जाते हैं. दूसरे- असाध्य रोग जो कि उपचार के बाद भी व्यक्तिओं का पीछा नही छोडते हंै. इन्ही असाध्य रोगों मे अधिकांश रोग जिन्दगी भर साथ रहते हैं तथा उचित उपचार के साथ जिन्दगी के लिये घातक नही होते हैं. परन्तु एक असाध्य रोग ऐसा है जिसका कोई उपचार नहीं है और है भी तो बहुत सीमित. और उसका नाम है कैंसर.
इस आलेख मे कैंसर रोग के ज्योतिषीय पहलू का विवेचन करते हैं. आइये पहले यह जाने कि कैंसर रोग क्या है. आयुर्वेद के अनुसार त्वचा की छठी परत जिसे आयुर्वेद मे रोहिणी कहते है जिसका संस्कृत मे अर्थ है कोशिकाओं की रचना. जब ये कोशिकायें क्षतिग्रस्त होती हैं तो शरीर के उस हिस्से मे एक ग्रन्थि बन जाती है. इस ग्रन्थि को असमान्य शोथ भी कहती है. जिसे आयुर्वेद मे विभिन्न स्थान और
प्रकार के नामों से जाना जा ता है जैस: अर्बुद, गुल्म, शालुका आदि. जब ये शोथ त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) के नियंत्रण से परे हो जाते हैं, तब यह ग्रन्थि कैंसर क रूप ले लेती हैं.
ज्योतिष पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों का आधार है अर्थात हम ज्योतिष द्वारा ज्ञात कर सकते हैं कि हमारे पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों का परिणाम हमें इस जन्म मे किस प्रकार प्राप्त होगा. ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार कोई भी रोग पूर्व जन्मकृत कर्मों का ही फल होता है. ग्रह उन फलों के संकेतक हैं, ज्योतिष विज्ञान कैंसर सहित सभी रोगों की पहचान में बहुत ही सहायक होता है. पहचान के साथ-साथ यह भी मालूम किया जा सकता है कि कैंसर रोग किस अवस्था मे होगा तथा उसके कारण मृत्यु आयेगी या नहीं, यह सिद्ध ज्योतिष द्वारा सटीक जाना जा सकता है. कैंसर रोग की पहचान निम्न ज्योतिषीय योग होने पर बड़ी आसानी से की जा सकती है.
ज्योतिष रत्न के पाठ 24 के अनुसार:
1. राहु को विष माना गया है यदि राहु का किसी भाव या भावेश से संबन्ध हो एवम इसका लग्न या रोग भाव से भी सम्बन्ध हो तो शरीर मे विष की मात्रा बढ जाती है.
2. षष्टेश लग्न, अष्टम या दशम भाव में स्थित होकर
राहु से दृष्ट हो तो कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है.
3. बारहवे भाव मे शनि-मंगल या शनि-राहु, शनि-केतु की युति हो तो जातक को कैंसर रोग देती है.
4. राहु की त्रिक भाव या त्रिकेश पर दृष्टि हो भी कैंसर रोग की संभावना बढ़ाती है.
इनके अलावा निम्न बिन्दु भी कैसर रोग की पहचान के लिये बताए गए हैं:
1. षष्टम भाव तथा षष्ठेश पीडि़त या क्रूर ग्रह के नक्षत्र मे स्थित हों.
2. बुध ग्रह त्वचा का कारक है अत: बुध अगर क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो तथा राहु से दृष्ट हो तो जातक को कैंसर रोग होता है.
3. बुध ग्रह की पीडि़त या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र मे स्थिति भी कैंसर को जन्म देती है.
बृहत पाराशरहोरा शास्त्र के अनुसार षष्ठ पर क्रूर ग्रह का प्रभाव स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है यथा ‘‘रोग स्थाने गते पापे, तदीशी पाप’’. अत: जातक रोगी होगा और यदि षष्ठ भाव में राहु व शनि हो तो असाध्य रोग से पीडि़त हो सकता है. किसी सिद्ध ज्योतिषाचार्य के कुंडली विश£ेषण से कैंसर रोग की संभावना को आंका जा सकता है एवं इसके होने से पहले ही सावधानी रखी जा सकती है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

देवायत का बलिदान कहानी

जूनागढ़ का पतन हो रहा था। राजा वीरता से युद्ध करते हुए रणक्षेत्र में सो चुके थे। महल में हाहाकार मच रहा था, किन्तू फिर भी पट्टन की सेनाएं दुर्ग को घेरे हुए थीं। सेना अंदर घुसकर राजा के पुत्र युवराज नौघड़ को पकडक़र मार डालना चाहती थी।
राजमंत्री ने दुर्ग का गुप्त द्वार खोला और रानी को राजकुमार के साथ बाहर निकाल दिया। रात्रि के घने अंधकार में अपने पुत्र को शत्रु के सैनिकों की आंखों से बचाती हुई रानी एक गरीब अहीर के द्वार पर खड़ी थी। उसका नाम देवायत था।
‘मुझे पहचानते हो भैया!’ रानी ने गृहपति से पूछा।
‘अपनी रानी माता को कौन नहीं पहचानेगा?’देवायत ने उत्तर दिया।
‘और इसे?’ रानी ने नौघड़ की ओर संकेत करते हुए देवायत से प्रश्न किया।
‘हां-हां क्यों नहीं?’ युवराज हैं न। कहिए, कैसे आगमन हुआ मेरी झोंपड़ी में? क्या आज्ञा है मेरे लिए? उसने हाथ जोडक़र प्रश्न किया।
‘हम तुम्हारी शरण में आए हैं भैया!’ रानी ने उत्तर दिया, ‘यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि जूनागढ़ का पतन हो चुका है और तुम्हारे महाराज मारे जा चुके हैं। अब शत्रु तुम्हारे इस युवराज की जान के ग्राहक हैं, वे इसकी खोज में हैं।’
‘आप चिंता न करें रानी माता!’ देवायत ने कहा, ‘अंदर आइए। मेरे घर में जो भी रूखा-सूखा है, वह सब कुछ आपका दिया हुआ ही तो है।’
देवायत ने रानी को अपने घर में आश्रय दिया। वह जानता था कि जूनागढ़ पर शत्रुओं का अधिकार हो चुका है और इसलिए राजवंश के किसी भी व्यक्ति का पक्ष लेना उसके लिए महान संकट का कारण बन सकता है, किन्तु वह राजपूत था और शरणागत के प्रति राजपूत के कर्तव्य को निभाना भी जानता था, और यही कारण था कि वह पहले रानी
और युवराज को खिलाकर स्वयं पीछे खाता और उन्हें शैय्या पर सुलाकर स्वयं धरती पर सोता।
पर बात कब तक छिपती। आखिर शत्रु को अपने गुप्तचरों द्वारा पता लग ही गया कि जूनागढ़ की रानी और उनका पुत्र देवायत के घर में मेहमान हैं। अगले ही दिन पट्टन की सेनाओं ने देवायत के मकान को घेर लिया।
‘देवायत!’ सेनापति ने कडक़कर पूछा, ‘कहां है राजकुमार नौघड़?’
‘मुझे क्या पता अन्नदाता!’ देवायत ने हाथ जोडक़र नम्रता से उत्तर दिया।
‘झूठ न बोलो देवायत!’ सेनापति ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘नहीं तो कोड़ों की मार से शरीर की चमड़ी उधेड़ दी जाएगी।’
‘जो चाहे करो मालिक!’ देवायत ने उत्तर दिया।
‘अच्छा।’ सेनापति ने अपने सैनिकों की ओर देखते हुए कहा, ‘इसे बांध दो इस पेड़ से और देखो की घर में कौन-कौन हैं?’
देवायत को पेड़ से बांध दिया गया। सैनिक घर में घुसकर उसकी तलाशी लेने को तैयार होने लगे।
‘अब क्या होगा?’ देवायत मन ही मन सोचने लगा,’सामने ही तो बैठे हैं राजकुमार। कैसे बच पाएंगे वे इन यमदूतों के हाथों से।’
और दूसरे ही क्षण उसने एक मार्ग खोज लिया।
‘ठहरो।’ वह पेड़ से बंधा बंधा ही चिल्ला उठा, ‘ मैं ही बुलवाए देता हूं राजकुमार को।’
घर में घुसने वालों के कदम रुक गए। देवायत ने पत्नी को पास बुलाया और उसे संकेत से कुछ समझाया और फिर बोला, ‘जा, देख क्या रही है? नौघड़ को लाकर सेनापति के सामने खड़ा कर दे।’
पत्नी अंदर गई। नौघड़ और उसका पुत्र घर में एक साथ खेल रहे थे। उसने अपने पुत्र को उठाया,’ उसे छाती से लगाया, उसका मुख चूमा, उसे कुछ समझाया और फिर नौघड़ के वस्त्र पहनाकर वह सेनापति के सामने उसे बाहर ले आई।
‘क्या नाम है तुम्हारा?’ सेनापति ने पूछा। ‘ नौघड़।’ अहीर के पुत्र ने निर्भयता के साथ उत्तर दिया। और दूसरे ही क्षण सेनापति की तलवार से उसका सिर कटकर पृथ्वी पर जा गिरा।
शत्रु की सेनाएं देवायत को वृक्ष से खोलकर लौट गईं तो तब तक अपने आंसुओं को अपने नयनों में दबाए हुए अहीर दंपति बिलख उठे। रानी भी बाहर निकली और नौघड़ भी, किंतु वहां उन्होंने जो कुछ भी देखा उसे देखकर वे सबकुछ समझ गए।
‘यह तुमने क्या किया भैया!’ रानी चीख उठी।
‘वही, जो मुझे करना चाहिए था रानी माता! देवायत ने रोते हुए उत्तर दिया, मैं गरीब हूं तो क्या, हूं तो राजपूत ही।’ शरणागत के लिए बलिदान की ऐसी गाथाएं भारत के इतिहास की अपनी एक विशेषता है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

खल्लारी के अद्भूत नजारे

महासमुन्द जिले से लगभग 22 किमी. दूर स्थित है। यहां पास की एक पहाड़ी पर एक शिलाखण्ड है, जो सती स्तम्भ का एक भाग प्रतीत होता है। यह सिन्दूर से पुता हुआ है और खल्लारी माता के रुप में पूजनीय है। चैत्र माह में पूर्णिमा को खल्लारी ग्राम में देवी के सम्मान में एक मेला लगता है।
कभी सोमवंसिया सम्राटों के शासन में रहा, महासमुंद पारंपरिक कला और संस्कृति का एक केंद्र है। महासमुंद छत्तीसगढ़ के मध्य पूर्वी हिस्सा में है। सिरपुर, इस क्षेत्र का सांस्कृतिक केंद्र है, जिसकी वजह से काफी बड़ी संख्या में पर्यटक साल भर यहाँ आते है। यह महानदी के किनारों पर बसा हुआ है। यह क्षेत्र चूना पत्थर और ग्रेनाइट चट्टानों से भरा पड़ा है।
कई जनजातियां जैसे बहलिया, हल्बा, मुंडा , सोनार , संवारा , पारधी, आदि इस क्षेत्र में रहते हैं। जनजातीय संस्कृति, आदिवासी मेले और त्योहार यहाँ रोज़मर्रा के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यहाँ के
लोगों का पहनावा एकदम पारंपरिक है, पुरुष धोती, कुर्ता, पगड़ी और चमड़े का जूता पहनते है और महिलाएं साड़ी पहेनती हैं। अत्करिया पारंपरिक जूते है। बिछिया , करधन या कमर बंद , पर्पत्ति या कोण बैंड, फूली या चांदी की बालियों जैसे गहने यहाँ की महिलाएं पहनती हैं। त्योहारों को धूम धाम से मनाना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
महासमुंद और आसपास, पर्यटकों के आकर्षण के लिए लक्ष्मण मंदिर, आनंद प्रभु कुटी विहार, भाम्हिनी की स्वेत गंगा, खाल्लारिमाता मंदिर , घुघरा (दलदली), चंडी मंदिर (बिरकोनी), चंडी मंदिर (गुछापाली), स्वास्तिक विहार, गंधेस्वर
मंदिर, खल्लारी माता मंदिर आदि है।
छत्तीसगढ़ में खल्लारी माता के दरबार में ऐसे-ऐसे अद्भूत नजारे हैं जो वास्तव में आंखों को प्यारे लगते हैं। यहां आने के बाद जिस तरह की शांति का अहसास होता है, उस शांति की तलाश आज की भागमभाग वाली जिंदगी में सभी को रहती है। 355 मीटर की ऊंचाई पर 981 सीढिय़ों को लांघने के बाद जब आप ऊपर पहुंचते हैं तो वहां की छटा देखकर सारी थकान गायब हो जाती है। ऊपर से जब नीचे का नजारा देखो तो देखते ही रह जाते हैं। पहाड़ के चारों तरफ प्रकृति के ऐसे नजारे हैं जिनको शब्दों में बयान करना आसान नहीं है। ऊपर से जिस दिशा में नजरें जाती थीं लगता था कि प्रकृति अपनी गोद में सारे जहान का सौंदर्य लिए हुए है। एक ऐसा सौंदर्य जिसको हर कोई कैमरे में कैद करना चाहेगा।
यहां पर 14 वीं शताब्दी का दंतेश्वरी देवी का ऐतिहासिक मंदिर है। इसके अलावा वहां पर भीम पांव के साथ उनके चूल्हे और साथ ही डोंगा पत्थर के हैं। यहां पत्थरों में राम और लक्ष्मण को भी दिखाया गया है। दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर, भैरव गुफा, सिंह गुफा, शीत बाबा, राम जानकी निषाद राज, जंवारा खोल, शिव गंगा भागीरथी के भी दर्शन होते हैं। जहां पर भीम पांव हैं वहां की छठा निराली है। यहां पर पहाड़ों के चारों तरफ का सौंदर्य निराला है। ऊपर ने नीचे देखने पर सडक़ का भी अद्भूत नजारा नजर आता है। आस-पास जो तालाब हैं वे भी काफी सुंदर लगते हैं।
बारिश के समय में यहां की छठा और ज्यादा निराली रहती हैं। जब आसमान में इन्द्रधनुष दिखता है तो पहाड़ के चारों तरफ का नजारा वास्तव में देखने योग्य होता है। तब यहां आने वाले लोग अपने को धन्य समझते हैं। खल्लारी माता के दरबार को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है। आने वाले दर्शनार्थियों के लिए मंदिर के पहले एक गार्डन भी बनाया गया है। पानी आदि की समुचित व्यवस्था है। यहां पर साल में दो बार आने वाली नवरात्रि पर मेला लगता है जिसमें काफी दूर-दूर से लोग आते हैं माता के दरबार में। खल्लारी आने वालों को आस-पास में और भी कई दर्शनीय स्थालों पर जाने का मौका मिल सकता है।
भीम के पांव देखने हैं तो खल्लारी आएं....
छत्तीसगढ़ में जो भी पर्यटन और धार्मिक स्थल हैं वहां पर रामायण और महाभारत की गाथा से जुड़ी कई चीजें हैं। महाभारत के महारथी और परम शक्तिशाली भीम का छत्तीसगढ़ से नाता रहा है। नाता तो सारे पांडवों का रहा है। राजधानी रायपुर से करीब 80 किलो मीटर की दूरी पर खल्लारी में माता खल्लारी देवी का मंदिर है। पहाड़ों पर बसे इस मंदिर के पास में ही भीम के पैरों के निशानों के साथ उनका चूल्हा भी है जहां पर वे खाना बनाते थे। वैसे यहां आने के बाद महज भीम के पांव के ही दर्शन नहीं होंगे, यहां देखने लायक काफी कुछ है। लेकिन फिलहाल हम चर्चा भीम पांव की करने वाले हैं।
महाभारत के जुड़े पांडवों के छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर आने के अवशेष हैं। वैसे भी बताया जाता है कि सिरपुर में ही देश का प्रमुख चौराहा था और किसी को भी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम जाने के लिए इस चौराहे से गुजरना ही पड़ता था। ऐसे में जबकि पांडवों को भी अपना अज्ञातवाश काटना था तो उनका छत्तीसगढ़ के
जंगलों में आना हुआ। मप्र के पंचमढ़ी में भी पांडवों का स्थान है। बहरहाल हम बातें करें पांच पांडवों में से एक शक्तिशाली भीम की। भीम के बारे में ऐसा कहा जाता है कि विशालकाय शरीर के भीम जब चलते थे तो धरती पर जब उनके पैर पड़ते थे तो लगता था कि धरती हिल रही है। इस बात का प्रमाण वास्तव में भीम के पैर देखने के बाद होता है और इन पैरों को जब 355 मीटर ऊंची पहाड़ी पर देखने से मालूम होता है कि वास्तव में भीम कितने शक्तिशाली रहे होंगे।
पहाड़ी में उनके पैरों के जो निशाने हैं वो एक तरह से पहाड़ के पत्थर में गड्ढ़ा है। जानकारों का ऐसा मानना कि जब भीम यहां आते होंगे तो उनके पैरों से पहाड़ों में भी गड्ढ़ा हो जाता था। जहां पर भीम के पैरों के निशाने हैं, वहीं पर एक और बहुत बड़ा गड्ढ़ा है जिसे उनका चूल्हा बताया जाता है। इस चूल्हें में ही वे खाना बनाते थे। खल्लारी मंदिर के पुजारी महेन्द्र पांडे बताते हैं कि खल्लारी के पास में ही उस लाक्ष्यागृह के अवशेष हैं जिसमें पांडवों को रखा गया था और बाद में इसमें आग लगा दी गई थी। लेकिन पांडव उस आग से बच गए थे क्योंकि विदुर ने उनको आग से बचने का उपाय कुछ इस तरह से बताया कि आग में ऐसा कौन सा जीव है जो बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। इसका जवाब पांडवों ने दिया था कि चूहा। चूहा जिस तरह से सुरंग बनाकर अपनी जान बचा लेता है उसी तरह से पांडवों ने भी लाक्ष्यागृह के नीचे से सुरंग बनाकर अपनी जान बचाई थी।
खल्लारी आने पर भीम पांव और चूल्हे के साथ और भी प्रकृति के कई अद्भूत नजारे देखने को मिलते हैं। इन बाकी नजारों की बातें अब बाद में होंगी। फिलहाल इतना ही। खल्लारी तक पहुंचने के लिए पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तक ट्रेन या फिर हवाई मार्ग से आना पड़ेगा। रायपुर से खल्लारी तक बस से या फिर ट्रेन से जाने का रास्ता है। ट्रेन के रास्ते से जाने पर भीमखोज में उतरना पड़ेगा। बस से सीधे खल्लारी पहुंचा जा सकता है।
महासमुंद तक कैसे पहुंचे:
सडक़ मार्ग अथवा रेल यात्रा कर बड़ी ही आसानी से महासमुंद तक जाया जा सकता है तथा २२ किमी दूर खल्लारी बस के द्वारा खल्लारी पहुंचा जाता है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

ज्योतिष के अनुसार शुभ-अशुभ जन्म समय

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रह स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं?
अमावस्या में जन्म:
ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता-पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है। अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।
संक्रान्ति में जन्म:
संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है। अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।
भद्रा काल में जन्म:
जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।
कृष्ण चतुर्दशी में जन्म:
पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है। कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का अभिषेक करना चाहिए साथ ही ब्राह्मण भोजन एवं छाया पात्र दान देना चाहिए।
समान जन्म नक्षत्र:
ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है। इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, ब्राह्मणों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।
सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म:
सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है। सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।
सर्पशीर्ष में जन्म:
अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सर्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सर्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है। जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर रूद्राभिषेक कराना चाहिए और ब्रह्मणों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।
इन्हें भी देखें:
गण्डान्त योग में जन्म:
गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय संतान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। पराशर महोदय के अनुसार तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है। संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का अभिषेक कराने से दोष कटता है।
त्रिखल दोष में जन्म:
जब तीन पुत्री के बाद पुत्र का जन्म होता है अथवा तीन पुत्र के बाद पुत्री का जन्म होता है तब त्रिखल दोष लगता है। इस दोष में माता पक्ष और पिता पक्ष दोनों को अशुभता का परिणाम भुगतना पड़ता है। इस दोष के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए माता पिता को दोष शांति का उपाय करना चाहिए।
मूल में जन्म दोष:
मूल नक्षत्र में जन्म अत्यंत अशुभ माना जाता है। मूल के प्रथम चरण में पिता को दोष लगता है, दूसरे चरण में माता को, तीसरे चरण में धन और अर्थ का नुकसान होता है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1 वर्ष के अंदर पिता की, 2 वर्ष के अंदर माता की मृत्यु हो सकती है। 3 वर्ष के अंदर धन की हानि होती है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1वर्ष के अंदर जातक की भी मृत्यु की संभावना रहती है। इस अशुभ स्थित का उपाय यह है कि मास या वर्ष के भीतर जब भी मूल नक्षत्र पड़े मूल शान्ति करा देनी चाहिए। अपवाद स्वरूप मूल का चौथ चरण जन्म लेने वाले व्यक्ति के स्वयं के लिए शुभ होता है।
अन्य दोष:
ज्योतिषशास्त्र में इन दोषों के अलावा कई अन्य योग और हैं जिनमें जन्म होने पर अशुभ माना जाता है इनमें से कुछ हैं यमघण्ट योग, वैधृति या व्यतिपात योग एव दग्धादि योग हें। इन योगों में अगर जन्म होता है तो इसकी शांति अवश्य करानी चाहिए।

सावन सोमवार व्रत

सावन सोमवार के व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। सोमवार व्रत की विधि सभी व्रतों में समान होती है। इस व्रत को सावन माह में आरंभ करना शुभ माना जाता है।
सावन सोमवार व्रत सूर्योदय से प्रारंभ कर तीसरे पहर तक किया जाता है। शिव पूजा के बाद सोमवार व्रत की कथा सुननी आवश्यक है।
* व्रत करने वाले को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए।
* सावन सोमवार को ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठें।
* पूरे घर की सफाई कर स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।
* गंगा जल या पवित्र जल पूरे घर में छिडक़ें।
* घर में ही किसी पवित्र स्थान पर भगवान शिव की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
* पूरी पूजन तैयारी के बाद निम्न मंत्र से संकल्प लें- ‘‘मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्ये’’
* इसके पश्चात निम्न मंत्र से ध्यान करें-
ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
* ध्यान के पश्चात ‘‘ऊँ नम: शिवाय’’ से शिवजी का तथा ‘‘ऊँ नम: शिवायै’’ से पार्वतीजी का षोडशोपचार पूजन करें।
* पूजन के पश्चात व्रत कथा सुनें।
* तत्पश्चात आरती कर प्रसाद वितरण करें।
* इसकें बाद भोजन या फलाहार ग्रहण करें।
सावन सोमवार व्रत फल:
* सोमवार व्रत नियमित रूप से करने पर भगवान शिव तथा देवी पार्वती की अनुकम्पा बनी रहती है।
* जीवन धन-धान्य से भर जाता है।
* सभी अनिष्टों का भगवान शिव हरण कर भक्तों के
कष्टों को दूर करते हैं।
सावन के महीने में सोमवार का विशेष महत्व होता है। इसे भगवान शिव का दिन माना जाता है। इसलिए सोमवार के दिन शिव भक्त शिवालयों में जाकर शिव की विशेष पूजा अर्चना करते हैं। इस वर्ष सावन के महीने में चार सोमवार है। इन चारों सोमवार का अपना विशेष महत्व है।
सावन का पहला सोमवार: बाधाओं से मुक्ति पाएं:
सावन का पहला सोमवार एक साथ दो शुभ योग लेकर आया है। इस दिन शोभन योग बन रहा है। साथ ही अमृत योग भी कुछ समय तक रहेगा। माना जाता है कि इस योग में भगवान शिव की पूजा करने से बाधाओं से मुक्ति मिलती है और योजनाओं को पूरा करने में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं।
शोभन योग के विषय में माना जाता है कि इस योग में जन्म लेने वाले बच्चे धैर्यवान और ज्ञानी होते हैं। इस योग में अगर कोई काम शुरू करेंगे तो कार्य लंबे समय तक चलता रहेगा। इसलिए नया व्यवसाय और लंबी अवधि की योजनाओं को शुरू करने के लिए सावन का पहला सोमवार उत्तम है।
सावन का दूसरा सोमवार: शिव से पाएं स्वास्थ्य और बल
सावन का दूसरा सोमवार भी सर्वार्थ सिद्घ योग लेकर आ रहा है। इसके साथ ही इस दिन अमृत सिद्ध नामक योग भी बन रहा है। इस दोनों योगों के कारण सावन का दूसरा सोमवार विशेष फलदायक बन गया है। इस दिन भगवान शिव की पूजा से बल एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस सोमवार के दिन भगवान शिव को भांग, धतूरा एवं शहद अर्पित करना उत्तम फलदायी रहेगा।
सावन का तीसरा सोमवार: शिव मंत्र की सिद्घि करें
सावन का तीसरा सोमवार शिव योग लेकर आ रहा है। इस योग को साधना और भक्ति के लिए उत्तम माना गया है। शिव भक्त इस दिन भगवान शिव के मंत्रों का जप करके मंत्र सिद्घि प्राप्त कर सकते हैं। माना जाता है कि शिव योग में भगवान शिव की पूजा करने से कठिन कार्य भी आसानी से बन जाता है।
सर्वोत्तम है सावन का चौथा सोमवार
सावन का चौथा सोमवार प्रदोश व्रत को साथ लेकर आ रहा है। प्रदोष व्रत भी भगवान शिव को समर्पित होता है इसलिए इस सोमवार का महत्व और भी बढ़ गया है। शास्त्रों के अनुसार सावन के महीने में प्रदोष व्रत के दिन खासतौर पर सोमवार भी हो तो शिव की पूजा करने से अन्य दिनों की अपेक्षा कई गुणा पुण्य प्राप्त होता है।
इस दिन भक्ति पूर्वक शिव की पूजा करने से शत्रुओं पर विजय मिलती है। कार्य क्षेत्र एवं जीवन के दूसरे क्षेत्रों में आने वाली बाधाओं का निवारण होता है। जीवन पर आने वाले संकट टल जाते हैं।
इसके अलावा इस दिन वैधृति योग एवं रवि योग भी बन रहा है। इस शुभ योग में भगवान शिव की पूजा करने से दांपत्य जीवन में आपसी प्रेम और सहयोग बढ़ता है। आर्थिक परेशानियों में कमी आती है तथा जीवन पर आने वाले संकट से भगवान शिव रक्षा करते हैं।
माना जाता है कि सावन माह में हर सोमवार को किया जाने वाला शिवपूजन आम दिनों के पूजा की तुलना में 108गुना अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली होता है। सभी श्रद्धालु इस दिन श्रावण सोमवार व्रत करते है और भगवान शिव की पूजा करते है। इस बार सावन में कुल 29 दिनों है ज?िनमें इस बार 4 सोमवार के अलावा, सर्वार्थ सिद्धि योग, कामिका एकादशी, पुष्य योग, अमृत योग, आयुष्मान योग एवं प्रदोष व्रत भी आ रहे हैं।
इस दरम्यान श्रावण मास में कई शुभ योगों, मुहूर्त और पर्वों का संयोग बन रहा है। सावान के दूसरे सोमवार को एकादशी का संयोग बन रहा है। कामिका एकादशी में वैसे तो भगवान विष्णु की आराधना की जाती है, लेकिन सावन का दूसरा सोमवार होने की वजह से भगवान शिव का आशीर्वाद भी प्राप्त होगा।
एकादशी का व्रत करने से जीवात्माओं को उनके पापों से मुक्ति मिलती है। कामिका एकादशी उपासकों के कष्ट दूर करती है और उनकी इच्छापूर्ती करती है। ऐसे में सावन का दूसरा सोमवार में व्रत और पूजा से शवि के साथ वष्णिु की कृपा भी मलिेगी।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

पितृपक्ष के श्राद्ध क्या करें, क्या न करें

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 9 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे। आखिरी मातामह का श्राद्ध 23 सितम्बर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओंं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओंं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
मान्यता है कि जो लोग अपने शरीर को छोडक़र चले जाते है, वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष में वे पृथ्वी पर आते हैं और उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध होता है। विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक के निमित अर्पित किए जाने वाले पदार्थ की बनाई गई गोलाकृति पिंड होती है। इसे जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाया जाता है।
श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराया जाता है।
शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओंं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों के श्रेणी में आते हैं। श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है। पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है। मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा अन्न आदि उन्हें समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है। जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है। यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है। पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है।
पितृ पक्ष का महत्व:
देवताओं से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी ज्यादा पितृकार्य का महत्व होता है। वायु पुराण, मत्स्य पुराण, गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है। पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है। पूरे 16दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है। पितृ श्राद्ध पक्ष में
ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान -दक्षिणा दी जाती है।
श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति:
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृत्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं। श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है।
श्राद्ध करते समय इन बातों
का रखें विशेष ध्यान:
शास्त्रों में बताए गए विधि-विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।
1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।
2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है।
4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।
5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
6- केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।
7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी,
अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध:
हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए। यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है-
- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।
- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।
- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।
शास्त्रों के अनुसार देवों से पहले पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृ दोष हो, संतान हीन योग बन रहा हो या फिर नवम भाव में राहू नीच के होकर स्थित हो, उन व्यक्तियों को यह श्राद्ध अवश्य रखना चाहिए। इस को करने से मनोवांछित उद्देश्य की प्राप्ति होती है। विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धा भाव से अमावस्या का उपवास रखने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होकर प्रसन्न होते हैं। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि श्राद्धपक्ष में किया गया हर तर्पण में पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाता है।
स्थल वर्णन
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ‘‘उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय’’ में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।
अमलेश्वर महाकाल धाम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से दक्षिण पश्चिम में रिंग रोड नं. 1 से 5 कि.मी. दूर रायपुर पाटन रोड पर खारून नदी के किनारे निर्माणाधीन है जिसका पटवारी खसरे में नं.-786 है जो इस्लाम में पवित्रतम् माना जाता है तथा इस धाम के पूर्व में पूर्व से उत्तर की ओर बहने वाली पवित्र खारून नदी छत्तीसगढ़ की प्राण वहिनी दुर्ग की ओर जाती है। इस स्थान पर स्वयंभू भगवान श्री अमलेश्वर का पवित्र धाम है। इसी के प्रांगण में यह क्रिया संपन्न करायी जाती है। इस स्थल के निर्माण में लगभग साढ़े आठ करोड़ की लागत का दो तल्ला भव्य मंदिर की कल्पना की गई है। इसके तट पर महाकाल श्री अमलेश्वर धाम के पावन सान्निध्य में नारायण नागबलि की क्रिया की जाती है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

राधा-कृष्ण विवाह


हममें से सभी लोग यही जानते हैं कि राधाजी श्रीकृष्ण की प्रेयसी थीं परन्तु इनका विवाह नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण के गुरू गर्गाचार्य जी द्वारा रचित ‘‘गर्ग संहिता’’ में यह वर्णन है कि राधा-कृष्ण का विवाह हुआ था। एक बार नन्द बाबा कृष्ण जी को गोद में लिए हुए गाएं चरा रहे थे। गाएं चराते-चराते वे वन में काफी आगे निकल आए। अचानक बादल गरजने लगे और आंधी चलने लगी। नन्द बाबा ने देखा कि सुन्दर वस्त्र आभूषणों से सजी राधा जी प्रकट हुई। नन्द बाबा ने राधा जी को प्रणाम किया और कहा कि वे जानते हैं कि उनकी गोद मे साक्षात श्रीहरि हैं और उन्हें गर्ग जी ने यह रहस्य बता दिया था। भगवान कृष्ण को राधाजी को सौंप कर नन्द बाबा चले गए। तब भगवान कृष्ण युवा रूप में आ गए। वहां एक विवाह मण्डप बना और विवाह की सारी सामग्री सुसज्जित रूप में वहां थी। भगवान कृष्ण राधाजी के साथ उस मण्डप में सुंदर सिंहासन पर विराजमान हुए। तभी वहां ब्रम्हा जी प्रकट हुए और भगवान कृष्ण का गुणगान करने के बाद कहा कि वे ही उन दोनों का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न कराएंगे। ब्रम्हा जी ने वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ विवाह कराया और दक्षिणा में भगवान से उनके चरणों की भंक्ति मांगी। विवाह संपन्न कराने के बाद ब्रम्हा जी लौट गए। नवविवाहित युगल ने हंसते खेलते कुछ समय यमुना के तट पर बिताया। अचानक भगवान कृष्ण फिर से शिशु रूप में आ गए। राधाजी का मन तो नहीं भरा था पर वे जानती थीं कि श्री हरि भगवान की लीलाएं अद्भुत हैं। वे शिशु रूपधारी श्री कृष्ण को लेकर माता यशोदा के पास गई और कहा कि रास्ते में नन्द बाबा ने उन्हें बालक कृष्ण को उन्हें देने को कहा था। राधा जी उम्र में श्रीकृष्ण से बडी थीं। यदि राधा-कृष्ण की मिलन स्थली की भौगोलिक पृष्ठभूमि देखें तो नन्द गांव से बरसाना 7 किमी है तथा वह वन जहाँ ये गायें चराने जाते थे नंद गांव और बरसाना के ठीक मघ्य में है। भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को अध्यात्मिक प्रेम की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।



Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

असीरगढ़ के किले में रोज आते हैं अश्वत्थामा कथा-प्रसंग

असीरगढ़ का किला, रहस्यमय किला। कहते हैं यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहां पूछने पर लोगों ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी ने बताया ‘‘उनके दादा ने उन्हें कई बार वहाँ अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है।’’ तो किसी ने कहा- ‘‘जब वे मछली पकडऩे वहाँ के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को मेरा वहाँ आना पसंद नहीं आया।’’ गाँव के कई बुजुर्गों की बातें ऐसे ही किस्सों से भरी हुई थीं। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया असीरगढ़ के किले की तरफ। यह किला आज भी पाषाण युग में जीता नजर आता है। बिजली के युग में यहाँ की रातें अंधकार में डूबी रहती हैं। शाम छह बजे से किले का अंधकार ‘भुतहा’ रूप ले लेता है। इस सुनसान किले पर चढ़ाई करते समय कुछ गाँव वाले हमारे साथ हो गए।
हमारे इस सफर के साथी थे गाँव के सरपंच, एक गाइड और दो-तीन स्थानीय लोग। हमारी घड़ी का काँटा शाम के छह बजा रहा था। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।
जाहिर है, किले का दरवाजा खुला हुआ था। हमने अंदर की तरफ रुख किया। लंबी घास के बीच जंगली पौधों को हटाते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तभी हमारी नजर कुछ कब्रों पर पड़ी। एक नजर देखने पर कब्रें काफी पुरानी मालूम हुईं। साथ आए गाइड ने बताया कि यह अंग्रेज सैनिकों की कब्रें हैं।
कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद हम आगे बढ़ते गए। हमें टुकड़ों में बँटा एक तालाब दिखाई दिया। तालाब को देखते ही गाइड बताने लगा, यही वो तालाब है जिसमें स्नान करके अश्वत्थामा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करने जाते हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना था नहीं वे ‘‘उतालवी-नदी’’ में स्नान करके पूजा के लिए यहाँ आते हैं। हमने तालाब को गौर से देखा। लगता है पहाडिय़ों से घिरी इस जगह पर बारिश का पानी जमा हो जाता है। सफाई न होने के कारण यह पानी हरा नजर आ रहा था, लेकिन आश्चर्य यह कि बुरहानपुर की तपती गरमी में भी यह तालाब सूखता नहीं।
कुछ कदम और चलने पर हमें लोहे के दो बड़े एंगल दिखाई दिए। गाइड ने बताया यह फाँसीघर है। यहाँ फाँसी की सजा दी जाती थी। सजा के बाद मुर्दा शरीर यूँ ही लटका रहता था। अंत में नीचे बनी खाई में उसका कंकाल गिर जाता था। यह सुन हम सभी की रूह काँप गई।
हमने यहाँ से आगे बढऩा ही बेहतर समझा। हम थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि हमें गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर दिखाई दिया। मंदिर चहुँओर से खाइयों से घिरा हुआ था। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ सीधे इस
मंदिर में निकलता है। इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर के अंदर आते हैं। हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। यहाँ की सीढिय़ां घुमावदार थीं और चारों तरफ खाई बनी हुई थी। जरा-सी चूक से हम खाई में गिर सकते थे।
बड़ी सावधानी से हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। मंदिर देखकर महसूस हो रहा था कि भले ही इस मंदिर में कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहाँ परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। वहाँ श्रीफल के टुकड़े नजर आए। शिवलिंग पर गुलाल चढ़ाया गया था। हमने रात इसी मंदिर में गुजारने का फैसला कर लिया। अभी रात के बारह बजे थे। गाइड हमसे नीचे उतरने की विनती करने लगा। उसने कहा यहाँ रात रुकना ठीक नहीं, लेकिन हमारे दबाव देने पर वह भी हमारे साथ रुक गया।
इस वीराने में रात भयानक लग रही थी। लग रहा था कि समय न जाने कैसे कटेगा। घड़ी की सूई दो बजे पर पहुँची ही थी कि तापमान एकदम से घट गया। बुरहानपुर जैसे इलाके में जून की तपती गरमी में इतनी ठंड। मुझे ध्यान आया कि मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘‘जहाँ आत्माएँ आसपास होती हैं, वहाँ का तापमान एकदम ठंडा हो जाता है।’’ क्या हमारे आसपास भी ऐसा ही कुछ था। हमारे कुछ साथी
घबराने लगे थे। हमने ठंड और डर दोनों को भगाने के लिए अलाव जला लिया था।
आसपास का माहौल बेहद डरावना हो गया था। पेड़ों पर मौजूद कीड़े अजीब-अजीब-सी आवाजें निकाल रहे थे। खाली खंडहरों से टकराकर हवा साँय-साँय कर रही थी। समय रेंगता हुआ कट रहा था। चार बजे के लगभग आसमान में हलकी-सी ललिमा दिखाई दे रही थी। पौ फटने को थी। साथ आए सरपंच ने सुझाव दिया कि बाहर जाकर तालाब को देखना चाहिए। देखें क्या वहाँ कोई है। हम सभी तालाब की ओर निकल पड़े।
कुछ देर हमने तालाब को निहारा, इधर-उधर टहलकर किले का जायजा लिया। हमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। भोर का हलका उजास हर और फैलने लगा। हम सभी मंदिर की ओर मुड़ गए। लेकिन यह क्या, शिवलिंग पर गुलाब चढ़े हुए थे। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न था। आखिर यह कैसे हुआ। किसी के पास इसका जवाब नहीं था। अब यह सच था या किसी की शरारत या फिर इन खाइयों में कोई महात्मा साधना करते हैं, इस बारे में कोई भी नहीं जानता न ही इन खाइयों से जाती सुरंग का ही पता लग पाया है, लेकिन इतना अवश्य है कि अतीत के कई राज इस खंडहर के किले की दीवारों में बंद हैं, जिन्हें कुरेदने की जरूरत है।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

विनाशकाले विपरीत बुद्धि

महाभारत के वन पर्व का प्रसंग है। जुए में हारने के बाद पाण्ड़व वन में चले गए। एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर को बलाया और दुखी होकर कहा कि तुम सबका भला सोचते हो, इसलिए कुछ ऐसा बताओ कि कौरवों और पाण्डवों दोनों का हित हो। विदुर बोले कि किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है। आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिए और दुर्योधन को काबू कीजिए।
राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच न करें। यदिआप ऐसा नहीं करेगें तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्यों कि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नही छोड़ेगें। विदुर की यह बात धृतराष्ट्र के सीने में कांटों की तरह चुभ गई, और उसने कहा तुम केवल पाड़वों का भला चाहते हो इसलिए यहां से  अभी चले जाओ। असल में उस समय धृतराष्ट्र केवल कौरवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्यों कि वे सब उनके सगे बेटे थे। धृतराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ और कौरवों का समूल नाश हो गया। इसलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि।

वास्तु में दिशाओं और विदिशाओं का महत्व

दिशाओं का ध्यान रखे बिना निर्मित मकान में अगर्थिक नुकसान, पारिवारिक एवं शारीरिक समस्याएँ. कलह आदि बढ़ जाती हैं | अपने घर या कार्यालय में अच्छे परिणाम लेने के लिए हमें इन पंच तत्वों का ध्यान रखकर निर्माण करवाना चाहिए

पूर्व दिशा - यह दिशा अग्नि तत्व को प्रभावित करती है । मकान की कुण्डली में लग्न में पूर्व दिशा को लेते है । या पितृ स्थान है यह दिशा पुरुषों पर प्रभाव डालती है | इस दिशा में गलत निर्माण होने से मकान में रहने वालों के मान-सम्मान की हानि होती हैं । धन-धान्य की वृद्धि नहीं हो पाती है आकस्मिक धन की कमी से ऋण बढ़ जाता है । ऐसा पूर्व दिशा में आने वाली सूर्य की किरणों का घर में प्रवेश रूकने या बाधा पहुँचने अथवा किरणों की दूषित होने से होता है । यहाँ सिंह राशि का प्रभाव होता है |

ईशान दिशा (उतर-पूर्व) - उतर-पूर्व दिशाओं को मध्य होने के कारण इस दिशा को पवित्र व ईश्वर तुल्य माना गया है | यह दिशा साहस, विवेक, धैर्य. ज्ञान और बुद्धि प्रदान करने के साथ-साथ कष्टों को भी दूर रखती है । यह दिशा पुरुष संतान का भी फल देती है । यदि यह दूषित या दोषपूर्ण हो तो तना-तनी का माहौल बना रहेगा। वहॉ कं निवासी रोग एवं मानसिक अशान्ति के शिकार वास्तु के सौं सूत्र था होगे तरह-तरह के कष्ट झेलने होने के लिए विवश होंगे। उत्तरी इंशान की राशि कर्क तथा पूर्वी ईशान श्री राशि मेष होती है। इसी दिशा में वास्तु पुरुष का सिर होने के  कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इस दिशा से वास्तुदोष होने पर उसका निदान उस दोष को मिटाना ही श्रेष्ठ है न की अन्य कोई पद्धति से उसका निराकरण करवाना ।
उत्तर दिशा :-जल तत्व इस दिशा का स्वामी माना गया है। यह दिशा मातृ स्थान है। बुध व केतु के शुभ होने पर घन, लाभ, कर्म व भाग्य तथा व्यापारिक वार्ता हेतु सभाकक्ष होता है। राचि में ध्रुव तारा इसी दिशा में निकलता है। यह दिशा जीवन से सभी प्रकार का सुख देने वाली है। विद्या-अध्ययन चिंतन-मनन अथवा कोई भी ज्ञान सम्बन्धी कार्य उत्तर दिशा की ओर मुँह करने से लाभ देता है। भवन में उत्तर दिशा का स्थान खाली रखना चाहिए अन्यथा घर की स्त्री सुख से वंचित रहेगी। इस दिशा से दरवाजे खिड़कियों होने से कुबेर देवता की सीधी दृष्टि गिरती है।
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) हैं- इस दिशा का स्वामी अग्नि तत्व माना गया है । इस दिशा से स्वास्थ्य की जाँच की जा सकती है। यह दिशा दोषपूर्ण या दूषित होने पर उस भवन में निवास करने वालों का रवास्थ्य हमेशा खराब रहता है। वहाँ आग लगने का भय भी हमेशा बना रहता है । गुरू व राहु के कास्था पूर्वी आग्नेय प्रभावित होता है। गुरु अच्छा होने पर दक्षिण आग्नेय मॅ द्वार निवास हेतु शुभ है।
दक्षिणा दिशा :- यह दिशा पृथ्वी तत्व एबं मृत्यु के देवता यम की दिशा है। यह दिशा बुराइयों का नाश करने वाली तथा धैर्य एव स्थिरता देने के साथ-साथ सभी अच्छी बातों हेतु शुभ है। इस दिशा को बंद रखने से रोग व शत्रुओं से रक्षा होती है। यह दिशा वृश्चिक राशि या कुण्डली में मंगल ग्रह के लिए उचित है । दक्षिण दिशा को भारी एवं ऊँचा बनाऐँ जिससे इसके शुभ फल प्राप्त हो सकें ।
पश्चिम दिशा -यह दिशा वायु तत्व से प्रभावित है। इस दिशा के भवन में रहने वाले प्राणी का मन सदैव चंचल बना रहता है। इस दिशा में दोषपूर्ण निर्माण होने से मानसिक तनाव बना रहता है। किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती। गृह स्वामी को अनावश्यक परिश्रम करना पड़ता है । बच्चों की शिक्षा एवं उन्नति में रूकावट आती है। व्यापारी वर्ग को यह दिशा अच्छा फल देती है, लक्ष्मी की विशेष कृपा बनी रहती है । यह दिशा कुम्भ राशि के जातकों के लिए भी लाभदायक है।
वायव्य दिशा (उत्तर-पश्चिम कोण) - यह वायु का स्थान माना जाता है। यह दिशा शक्ति, स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान यती है। इस दिशा के दूषित होने पर मित्र मी शत्रु बन जाते है। ऐसे दूषित स्थान पर रहने वाले घमण्डी होते हैं एवं इनका विश्वास नहीं किया जा सकता । यहाँ के निवासी अनेक आरोप-प्रत्यारोप के शिकार हो सकते है। पश्चिम वायव्य की स्वामी राशि गुरु वायव्य की वृष राशि तथा चन्द्रमा स्वामी होता है।

नैऋत्य दिशा (दक्षिण-पश्चिम कोण) - भवन के इस कोने में दोष होने पर वहाँ रहने वालों का चरित्र खराब हो जाता है। हमेशा शत्रुओं का भय बना रहता है। मकान के भुत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न हो सकती है। अपमृत्यु तथा आकस्मिक दुर्घटनाओं की संभावना रहती है। इसका प्रभाव चंचल या अस्थिर माना गया है। मिथुन राशि, दक्षिण नैत्रदृत्य दो तथा पश्चिमी नैऋत्य की तुला राशि मानी गई है।

ब्रहा स्थान (आंगन) :-भवन के मध्य खाली जगह आँगन,चौक अथवा ब्रहा स्थान कहलाता है। इसके कारण पारिवारिक वातावरण अच्छा रहता है परिवार ने आपसी प्रेम बहता है। इस क्षेत्र दो राशि धनु है । यह आकाश तत्व का स्थान है। कुंडली में बुध के कमजोर होने पर, गुरू के कमजोर होने पर तथा शनि, राहु व केतु के भी कमजोर होने के कारण आँगन ढका हुआ होगा। अंधेरा होगा तथा चौक खुला नहीं होगा ।

 

 
 







 






 
 
 
 
 
 
 


जब चोर बने गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य

एक बार गोस्वामी तुलसीदास रात्रि को कहीं से लौट रहे थे कि सामने से कुछ चोर आते दिखाई दिए। चोरों ने तुलसीदास जी से पूछा- ‘‘कौन हो तुम?’’
उत्तर मिला- ‘‘भाई, जो तुम सो मैं।’’ चोरों ने उन्हें भी चोर समझा, बोले- मालूम होता है, नए निकले हो। हमारा साथ दो।
उन्हें खींचकर वे एक ओर ले गए और पूछा- ‘‘शंख क्यों बजाया था?’’ ‘‘आपने ही तो बताया था कि जब कोई दिखाई दे तो खबर कर देना। मैंने अपने चारों तरफ देखा, तो मुझे प्रभु रामचंद्रजी दिखाई दिए। मैंने सोचा कि आप लोगों को उन्होंने चोरी करते देख लिया है और चोरी करना पाप है, इसलिए वे जरूर दंड देंगे, इसलिए आप लोगों को सावधान करना उचित समझा।’’
‘‘मगर रामचंद्रजी तु्म्हें कहां दिखाई दिए?’’ -एक चोर ने पूछ ही लिया। ‘‘भगवान का
वास कहां नहीं है? वे तो सर्वज्ञ हैं, अंतर्यामी हैं और उनका सब तरफ वास है। मुझे तो इस संसार में वे सब तरफ दिखाई देते हैं, तब किस स्थान पर वे दिखाई दिए, कैसे बताऊं?’’ तुलसीदास जी ने जवाब दिया।
चोरों ने सुना, तो वे समझ गए कि यह कोई चोर नहीं, महात्मा है। अकस्मात उनके प्रति श्रद्धाभाव जागृत हो गया और वे उनके पैरों में गिर पड़े। उन्होंने फिर चोरी करना छोड़ दिया और वे उनके शिष्य हो गए।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

future for you astrological news shaubhagya aur jyotish 07 09 2015

future for you astrological news panchang 07 09 2015

Sunday, 6 September 2015

कहीं आपका बच्चा दब्बू तो नहीं बन रहा है?

आपके बच्चे की शिकायत होती है कि स्कूल में हमेशा उसका लंच कोई बच्चा खा लेता है, कोई उसकी चीजें चुरा लेता है, तो कोई उसके कपड़ो को गंदा कर देता है। स्कूल के शुरुआती दिनों में अकसर बच्चों का संकोच कब उनकी झिझक में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। आप जब बच्चे को स्कूल ले जाते हैं तो वह रोता है, टीचर से बात नहीं करता, लंच पूरा नहीं करता जैसी कई बाते हैं जो शुरू में तो हर बच्चे के व्यवहार में इस तरह के बदलावों को सामान्य माना जाता है लेकिन इन्हें अनदेखा करने से कई बार बच्चों की यही झिझक उन्हें दब्बू बना देती है। कभी-कभी बच्चे में अनावश्यक व बिना किसी कारण के ही भय, संकोच और दब्बूपन पाया जाता है। वे अपनी सही बात तक माता-पिता, मित्र, शिक्षक या घर के अन्य लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं।
लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं।
कभी-कभी बच्चे भीरु एवं भयभीत माता-पिता के कारण भी हो जाया करते है। उन्हें वे भूत-प्रेत की डरावनी कहानियाँ सुनाकर या डर बता कर भयग्रस्त कर दिया करते हैं। बच्चे को बार-बार निरुत्साहित करने से भी वे भीरु प्रवृत्ति के बन जाते हैं। इसके निवारण के लिए अभिभावक आत्मविश्वास से भरपूर, साहसिक और वीर कहानियाँ बच्चों को सुनाया करें। बच्चों को छोटे-छोटे काम सुपुर्द करके उनमें आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करना चाहिए। ऐसा करते रहने से वे साहसी आत्मविश्वासी एवं कर्मठ बनने लगेंगे साथ ही ज्योतिषीय निदान भी लेनी चाहिए।
अगर इसे ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी जातक की कुंडली में अगर उसका तीसरे
स्थान का स्वामी छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर बैठ जाए अथवा इस स्थान पर बैठकर राहु से आक्रांत हो जाए तो स्वभाव में दब्बूपन आ सकता है। यदि आपके बच्चे की इस प्रकार की शिकायत हो अथवा वह स्कूल जाने से डरे या बाहर के लोगों से हमेशा एक दूरी बनाकर रहे है तो उसकी कुंडली का विश्लेषण कराकर आवश्यक ज्योतिषीय निदान जरूर लेना चाहिए, जिससे दब्बूपन के कारण जीवन में अहित होने से रोका जा सके। दब्बूपन को रोकने के लिए हनुमान चालीसा का नियमित पाठ कराना, हनुमान मंदिर में दर्शन कराना तथा तीसरे स्थान के स्वामी से संबंधित ग्रह दान करने से दब्बूपन को रोका जा सकता है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

हस्तरेखा में हस्त मुद्रा से रोग का उपचार

अंगुष्ट मुद्रा- बाएं हाथ का अंगूठा सीधा खड़ा कर दाहिने हाथ से बाएं हाथ कि अंगुलियों में परस्पर फँसाते हुए दोनों पंजों को ऐसे जोडें कि दाहिना अंगूठा बाएं अंगूठे को बहार से कवर कर ले,इस प्रकार जो मुद्रा बनेगी उसे अंगुष्ठ मुद्रा कहेंगे।
लाभ- मौसम के परिवर्तन के कारण संक्रमण से कई बार वाइरल इंफेक्शन के कारण हमारे गले व फेफड़ों में जमने वाली एक श्लेष्मा होती है जो खांसी या खांसने के साथ बाहर आता है। यह फायदेमंद और नुकसानदायक दोनों है। इसे ही कफ कहा जाता है। अगर आप भी खांसी या जुकाम से परेशान है तो बिना दवाई लिए भी रोज सिर्फ दस मिनट इस मुद्रा के अभ्यास से कफ छुटकारा पा सकते हैं।
ज्ञान मुद्रा या ध्यान मुद्रा : अंगुष्ठ एवं तर्जनी अंगुली के अग्रभागों के परस्पर मिलाकर शेष तीनों अँगुलियों को सीधा रखना होता है।
लाभ : धारणा एवं धयानात्मक स्थिति का विकास होता है, एकाग्रता बढ़ती है एवं नकारात्मक विचार कम् होते है। इस मुद्रा से स्मरण शक्ति बढ़ती है इसलिए इसके निरंतर अभ्यास से बच्चे मेघावी व ओजस्वी बनते है। मष्तिष्क के स्नायु मजबूत होते है एवं सिरदर्द,अनिद्रा व् तनाव दूर होता है तथा क्रोध
का नाश होता है।
नमस्कार मुद्रा: दोनों हाथों की हथेलियों से कोहनी तक मिलाने से बनने वाली नमस्कार मुद्रा का नियमित अभ्यास भी मधुमेह के रोगी को करना चाहिये। नमस्कार मुद्रा से डायाफ्राम के ऊपर का भाग संतुलित होता है। नमस्कार मुद्रा से पांचों महाभूत तत्त्वों का शरीर में संतुलन होने लगता है तथा हृदय, फेंफड़े और पेरिकार्डियन मेरेडियन में प्राण ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होने से, इन अंगों से संबंधित रोग दूर होने लगते हैं। गोदुहासन के साथ नमस्कार मुद्रा का अभ्यास करने से पूरा शरीर संतुलित हो जाता है।
प्राण मुद्रा: हथेली की सबसे छोटी एवं अनामिका अंगुलि के ऊपरी भाग को अंगुष्ठ के ऊपरी पोरबे को मिलाने से प्राण मुद्रा बनती है। प्राण मुद्रा से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। रक्त संचार सुधरता है तथा शरीर सशक्त बनता है। भूख प्यास सहन होने लगती है।
वायु मुद्रा: तर्जनी अंगुली को अंगुष्टो के मूल में लगाकर अंगूठे को हल्का दबाकर रखने से यह वायु मुद्रा बनती है (तर्जनी अंगुली को अंगुष्टो से दबाकर भी ये मुद्रा बनती है)शेष तीनो अंगुलियों को सीधा रखनी चाहिए।
लाभ: इसके अभ्यास से समस्त प्रकार के वायु सम्बन्धी रोग- गठिया, संधिवात, आर्थराइटिस, पक्षाघात, कंपवात, साइटका, घुटने के दर्द तथा गैस बनना आदि रोग दूर होते है ,गर्दन एवं रीड़ के दर्द में लाभ मिलता है।
शुन्य मुद्रा: विधि: मध्यमा अंगुली आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है, इसको अंगुष्ठ के मूल में लगाकर अंगूठे से हल्का दबाकर रखते है। शेष अंगुलियाँ सीधी होनी चाहिए।
लाभ: इस मुद्रा से कान का बहना ,कान में दर्द और कान दर्द के सभी रोगो के लिए कम से कम प्रति दिन एक घंटा करने से लाभ मिलता है। हदय रोग ठीक होते है और मसूढ़ो की पकड़ मजबूत होती है। गले के रोग और थाइराइड रोग में लाभ मिलता है।
सावधानी: भोजन करते समय तथा चलते फिरते यह मुद्रा न करें।
लिंग मुद्रा: मुट्ठी बांधे तथा बाएं हाथ के अंगूठे
को खड़ा रखें, अन्य अंगुलियां परस्पर बंधी हुए हों।
लाभ : यह मुद्रा शरीर में गर्मी बढाती है। सर्दी-झुकाम ,खांसी,साइनस, लकवा तथा ये कफ को सुखाती है।
सावधानी: इसका प्रयोग करने पर जल,फल ,फलों का रस, घी और दूध का सेवन अधिक मात्र में करें। इसे अधिक लम्बे समय तक न करें।
वरुन मुद्रा: कनिष्ठा अंगुली को अंगूठे से लगाकर रखें।
लाभ: इस मुद्रा से शरीर का रूखापन नष्ट होता है तथा चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनती है। चर्म रोग,रक्त विकार,मुहांसे एवं जलतत्व की कमी से उतपन्न व्याधि को दूर करती है। चहेरा सुन्दर बनता है।
अपान वायु मुद्रा: अपानमुद्रा तथा वायु मुद्रा को एक साथ मिलाकर करने से यह मुद्रा बनती है। कनिष्ठा अंगुली सीधी होती है।
लाभ: हदय एवं वात रोगो को दूर करके शरीर में आरोग्य को बढाती है। जिनको को दिल की बीमारी है, उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिए। गैस की बीमारी को दूर करता है। सिरदर्द,दम एवं उच्च रक्तचाप में लाभ मिलता है।
सूर्यमुद्रा: अनामिका अंगुली को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से दबायें।
लाभ: इस मुद्रा से शरीर संतुलित होता है।, वजन घटता है एवं मोटापा काम होता है पाचन में मदद मिलती है। तनाव में कमी, शक्ति का विकास , रक्त में कोलेस्ट्रोल कम होता है। इस मुद्रा के अभ्यास से मधुमेह, यकृत के दोष दूर होते है।
सावधानी: इस मुद्रा को दुर्बल व्यक्ति न करें। गर्मी में
ज्यादा समय तक न करें।
अपान मुद्रा: अंगुष्ठ, मध्यमा एवं अनामिका के अग्रभागों को स्पर्श करके शेष दो अँगुलियों को सीधा रखने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ: शरीर के विजातीय तत्व बाहर निकलते है तथा शरीर निर्मल बनता है। इसके अभ्यास से बवासीर, वायुविकार, कब्ज, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दो के दोष के विकार दूर होते है। हदय रोग एवं पेट के लिए लाभदाए है।
सावधानी: इस मुद्रा से मूत्र अधिक स्त्रवित होगा।
प्राण मुद्रा: यह मुद्रा कनिष्ठा, अनमिका तथा अंगुष्ठ के अग्रभागों परस्पर मिलाने से बनती है। शेष दो अंगुलियाँ सीधी रखनी चाहिए।
लाभ: इस मुद्रा से प्राण की सुप्त शक्ति का जागरण होता है, आरोग्य,स्फूर्ति एवं ऊर्जा का विकास होता है। यह मुद्रा आँखों के दोषो को दूर करता है एवं नेत्र की ज्योति बढाती है और रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है। विटामिनो की कमी दूर करती है तथा थकान दूर करके नवशक्ति का संचार करती है। अनिंद्रा में इसे गयान मुद्रा के साथ करने से लाभ होता है।
पृथ्वी मुद्रा: अनामिका और अंगुष्ठ के अग्रभागो को मिलाकर रखने तथा शेष तीन अँगुलियों को सीधा करने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ : निरन्तर अभ्यास से शारीरिक दुर्बलता,भार की अल्पता तथा मोटापा रोग दूर होते है। यह मुद्रा पाचन शक्ति को ठीक करती है और विटामिन की कमी दूर करती है। शरीर में स्फूर्ति एवं तेजस्विता आती है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

future for you astrological news garibi aur jyotish 06 09 2015

future for you astrological news sawal jawab 1 06 09 2015

future for you astrological ews sawal jawab 06 09 2015

future for you astrological news rashifal 06 09 2015

future for you astrologicl news panchang 06 09 2015

Saturday, 5 September 2015

मृगशिरा नक्षत्र

वैदिक ज्योतिष में मूल रूप से 27 नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। नक्षत्रों के गणना क्रम में मृगशिरा नक्षत्र का स्थान पांचवां है । मृगशिरा नक्षत्र वृष राशि में 23 अंश 20 कला से 30 अंश तक रहता है अर्थात मृगशिरा नक्षत्र के दो चरण वृष राशि में आते हैं। इस नक्षत्र के बाकि दो चरण, 0 अंश से 6अंश 40 कला तक मिथुन राशि में पड़ते हैं। इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होने से यह नक्षत्र शक्ति, साहस व सूझबूझ का प्रतिनिधि है। यह क्रान्ति वृत्त से 13 अंश 22 कला 12 विकला दक्षिण में और विषुवत रेखा के ऊपर या उत्तर में होने से क्रान्तिवृत्त व विषुवत रेखा के बीच में पड़ता है।
यह नक्षत्र मृग मंडल के ऊपरी भाग में स्थित है। इसमें तीन मंद क्रान्ति के तारे हैं जो एक छोटा त्रिभुज बनाते हैं। यह त्रिभुज किसी मृग का सिर जान पड़ता है। इसलिये इसे मृगशिरा नाम दिया गया है। निरायन सूर्य 7 जून को मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश करता है। मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मृगशिरा नक्षत्र में होता है।
मृगशिरा नाम से हिरण का बोध होता है। हिरण एक सौम्य प्रकृित व परोपकारी जीव है। मृगशिरा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से अग्रहायण मास आज भी कुछ स्थानों में वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। कुछ विद्वान मृगशिरा नक्षत्र का प्रतीक सोमपात्र या अमृत कुंभ को मानते हैं। अमृत देव गण का दैवीय पेय है जो उन्हे स्वस्थ, सबल व अमर बनाता है। मृगशिरा या हिरण का सिर, हिरण के स्वभाव को दर्शाता है। हिरण चंचल, कोमल, भीरू व भ्रमण प्रिय है।
मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा है। चन्द्रमा औषधि व आरोग्य से जुड़ा है। मृगशिरा का परिचय यदि एक शब्द में देना हो तो हम इसे ‘‘अन्वेषण’’ या ‘‘खोज’’ कहेंगे। सभी विद्वानों ने इसे जिज्ञासा प्रधान नक्षत्र माना है। अपने ज्ञान व अनुभव का विस्तार करना, इसके जीवन का एकाकी लक्ष्य होता है। बुध की राशि मिथुन, मृगशिरा नक्षत्र में आरंभ होती है अत: इसे विवेक, निष्कर्म व परिपच् धारणा का नक्षत्र भी माना जाता है। ऐसा जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को बुनकर द्वारा बुने जाने वाले वस्त्र से दर्शाया है। कुछ इसी प्रकार मृगशिरा नक्षत्र भी जीव के गुणों को विकसित कर, उसे परमात्मा की ओर ले जाता है। मृगशिरा नक्षत्र एक निश्चेष्ट नक्षत्र सरीखा है। एसा जातक दूसरों की उपस्थिति, प्रभाव को सहज व निर्विरोध रुप से स्वीकारता है। ऐसे जातक को प्रसिद्धि व यश की कामना नहीं होती। अपने से अधिक औरों की चिन्ता होती है।
मृगशिरा नक्षत्र की जाति विद्वानों ने कृषक, बुनकर या हस्तशिल्पी माना है। अन्य शब्दों में भूमि सुधार, भवन निर्माण या जन-सुविधा के कार्यों से जुड़े कर्मचारियों या उद्योगों में श्रमिक शक्ति, का संबंध मृगशिरा से माना जाता है। मृगशिरा नक्षत्र को स्त्री या पुरुष ना मान कर उभयलिंगी माना गया है। इस नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण मिलते हैं। क्योंकि इस नक्षत्र के स्वामी चन्द्र और मंगल दोनों हैं।
विद्वानों ने नेत्र व नेत्रों के ऊपर भौंहों को मृगशिरा नक्षत्र का हिस्सा माना है। इस नक्षत्र का संबंध पित्त दोष से है। मंगल अग्नि तत्व ग्रह होने से पित्त कारक है तथा इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है।यहाँ मंगल की शक्ति, विनाश, हिंसा या ध्वंसात्मक नहीं है। अपितु रचनात्मक है। मृगशिरा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम के मध्य का भाग मृगशिरा नक्षत्र की दिशा मानी गई है।
मृगशिरा नक्षत्र के व्यवसाय सभी प्रकार के गायक व संगीतज्ञ, चित्रकार, कवि, भाषाविद, रोमांटिक उपन्यासकार, लेखक, विचारक या मनीषी। भूमि भवन, पथ या सेतु निर्माण से जुड़े यंत्र, वस्त्र उद्योग से जुड़े कार्य, फैशन डिजायनिंग, पशुपालन या पशुओं से जुडी़ सामग्री का उत्पादन व वितरण। प्रशिक्षण कार्य,शिल्पी क्लर्क, प्रवचन कर्ता, संवादाता आदि जैसे विवध कार्य इस नक्षत्र में आते हैं।
मृगशिरा नक्षत्र का स्थान वनक्षेत्र, खुले मैदान, चरागाह, हिरण उद्यान, गाँव व उपनगर, शयनकक्ष, नर्सरी व प्ले स्कूल, विश्राम गृह, मनोरंजन कक्ष या स्थल, फुटपाथ, गलियाँ, कला व संगीत स्टूडियो, छोटी दुकानें, बाजार या पटरी बाजार, ज्योतिष व आध्यात्मिक संस्थाएं और मृगशिरा नक्षत्र संबंधी व्यवसायों से जुड़े सभी स्थान।
मृगशिरा नक्षत्र तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र है। वृष राशि और मंगल नक्षत्र दोनों तमोगुणी
हैं इसी वजह से इस नक्षत्र को तमोगुणी कहा गया है। इस नक्षत्र का गण देव गण है। इस नक्षत्र का संबंध मनुष्यों से कम व देवताओं से अधिक है। मृगशिरा को सतही या समतल नक्षत्र भी कहा जाता है। मार्गशीर्ष मास का प्रथम पक्ष तथा सभी मासों की शुक्ल और कृष्ण पंचमी को मृगशिरा का मास व तिथि होती है। मृगशिरा मास का अन्य नाम अग्रहायणी नक्षत्र भी है।
मृगशिरा नक्षत्र पर मंगल, शुक्र तथा बुध का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कुछ विद्वान मंगल को मृगशिरा नक्षत्र का स्वामी या अधिपति ग्रह मानते हैं। मृगशिरा नक्षत्र के प्रथम दो चरण वृष राशि में तो अंतिम चरण मिथुन राशि में होने से शुक्र व बुध की ऊर्जा को मिलाने वाला सेतु भी कहा जाता है। विद्वानों का मत है कि मंगल+बुध या मंगल+शुक्र अथवा बुध+शुक्र या मंगल+बुध+शुक्र का परस्पर दृिष्ट युति या राशि परिवर्तन या राशि संबंध भी मृगशिरा नक्षत्र की ऊर्जा प्रदान करता है।
मृगशिरा नक्षत्र का प्रथम चरण का अक्षर ‘वे’ है। दूसरे चरण का अक्षर ‘वो’ है। तीसरे चरण का अक्षर ‘का’ है। चतुर्थ चरण का अक्षर ‘की’ है। मृगशिरा नक्षत्र की योनि सर्प योनि है। इस नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है।
मृगशिरा नक्षत्र का व्यक्तित्व आकर्षक होता है लोग इनसे मित्रता करना पसंद करते हैं। ये मानसिक तौर पर बुद्धिमान होते और शारीरिक तौर पर तंदरूस्त होते हैं। इनके स्वभाव में मौजूद उतावलेपन के कारण कई बार इनका बनता हुआ काम बिगड़ जाता है या फिर आशा के अनुरूप इन्हें परिणाम नहीं मिल पाता है। ये संगीत के शौकीन होते हैं, संगीत के प्रति इनके मन में काफी लगाव रहता है। ये स्वयं भी सक्रिय रूप से संगीत में भाग लेते हैं परंतु इसे व्यवसायिक तौर पर नहीं अपनाते हैं। इन्हें यात्रओं का भी शौक होता है, इनकी यात्राओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन होता है। कारोबार एवं व्यवसाय की दृष्टि से यात्रा करना इन्हें विशेष पसंद नहीं होता है।व्यक्तिगत जीवन में ये अच्छे मित्र साबित होते हैं, दोस्तों की हर संभव सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। ये स्वाभिमानी होते हैं और किसी भी स्थिति में अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने देना चाहते। इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखमय होता है क्योंकि ये प्रेम में विश्वास रखने वाले होते हैं। ये धन सम्पत्ति का संग्रह करने के शौकीन होते हैं। इनके अंदर आत्म गौरव भरा रहता है। ये सांसारिक सुखों का उपभोग करने वाले होते हैं। मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति बहादुर होते हैं ये जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव को लेकर सदैव तैयार रहते हैं, इस नक्षत्र के जातक मशीन के कार्यों में निपुण, हथियार व उपकरण बनाने वाले, बिजली कार्यों में निपुण, ऑपरेशन में काम आने वाले सामान बनाने वाले, संचार कार्य, इंजीनियर, गणितज्ञ, ऑडिट करने वाले चतुर व्यक्ति, विदेशों में नियुक्त दूत, रेडियो-फोन विक्रेता,सेल्स में काम करने वाले, संगीत सम्बन्धी कार्य, इत्र-सेंट आदि चीजों के कारोबारी, प्रकृति प्रेमी जंगलों में काम करने वाले, रत्न कारोबारी, पक्षियों को पालने वाले, प्रकाशन व मुद्रण में कार्य करने वाले घर बनाने वाले आदि।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

मृगशिरा नक्षत्र

वैदिक ज्योतिष में मूल रूप से 27 नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। नक्षत्रों के गणना क्रम में मृगशिरा नक्षत्र का स्थान पांचवां है । मृगशिरा नक्षत्र वृष राशि में 23 अंश 20 कला से 30 अंश तक रहता है अर्थात मृगशिरा नक्षत्र के दो चरण वृष राशि में आते हैं। इस नक्षत्र के बाकि दो चरण, 0 अंश से 6अंश 40 कला तक मिथुन राशि में पड़ते हैं। इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होने से यह नक्षत्र शक्ति, साहस व सूझबूझ का प्रतिनिधि है। यह क्रान्ति वृत्त से 13 अंश 22 कला 12 विकला दक्षिण में और विषुवत रेखा के ऊपर या उत्तर में होने से क्रान्तिवृत्त व विषुवत रेखा के बीच में पड़ता है।
यह नक्षत्र मृग मंडल के ऊपरी भाग में स्थित है। इसमें तीन मंद क्रान्ति के तारे हैं जो एक छोटा त्रिभुज बनाते हैं। यह त्रिभुज किसी मृग का सिर जान पड़ता है। इसलिये इसे मृगशिरा नाम दिया गया है। निरायन सूर्य 7 जून को मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश करता है। मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मृगशिरा नक्षत्र में होता है।
मृगशिरा नाम से हिरण का बोध होता है। हिरण एक सौम्य प्रकृित व परोपकारी जीव है। मृगशिरा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से अग्रहायण मास आज भी कुछ स्थानों में वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। कुछ विद्वान मृगशिरा नक्षत्र का प्रतीक सोमपात्र या अमृत कुंभ को मानते हैं। अमृत देव गण का दैवीय पेय है जो उन्हे स्वस्थ, सबल व अमर बनाता है। मृगशिरा या हिरण का सिर, हिरण के स्वभाव को दर्शाता है। हिरण चंचल, कोमल, भीरू व भ्रमण प्रिय है।
मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा है। चन्द्रमा औषधि व आरोग्य से जुड़ा है। मृगशिरा का परिचय यदि एक शब्द में देना हो तो हम इसे ‘‘अन्वेषण’’ या ‘‘खोज’’ कहेंगे। सभी विद्वानों ने इसे जिज्ञासा प्रधान नक्षत्र माना है। अपने ज्ञान व अनुभव का विस्तार करना, इसके जीवन का एकाकी लक्ष्य होता है। बुध की राशि मिथुन, मृगशिरा नक्षत्र में आरंभ होती है अत: इसे विवेक, निष्कर्म व परिपच् धारणा का नक्षत्र भी माना जाता है। ऐसा जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को बुनकर द्वारा बुने जाने वाले वस्त्र से दर्शाया है। कुछ इसी प्रकार मृगशिरा नक्षत्र भी जीव के गुणों को विकसित कर, उसे परमात्मा की ओर ले जाता है। मृगशिरा नक्षत्र एक निश्चेष्ट नक्षत्र सरीखा है। एसा जातक दूसरों की उपस्थिति, प्रभाव को सहज व निर्विरोध रुप से स्वीकारता है। ऐसे जातक को प्रसिद्धि व यश की कामना नहीं होती। अपने से अधिक औरों की चिन्ता होती है।
मृगशिरा नक्षत्र की जाति विद्वानों ने कृषक, बुनकर या हस्तशिल्पी माना है। अन्य शब्दों में भूमि सुधार, भवन निर्माण या जन-सुविधा के कार्यों से जुड़े कर्मचारियों या उद्योगों में श्रमिक शक्ति, का संबंध मृगशिरा से माना जाता है। मृगशिरा नक्षत्र को स्त्री या पुरुष ना मान कर उभयलिंगी माना गया है। इस नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण मिलते हैं। क्योंकि इस नक्षत्र के स्वामी चन्द्र और मंगल दोनों हैं।
विद्वानों ने नेत्र व नेत्रों के ऊपर भौंहों को मृगशिरा नक्षत्र का हिस्सा माना है। इस नक्षत्र का संबंध पित्त दोष से है। मंगल अग्नि तत्व ग्रह होने से पित्त कारक है तथा इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है।यहाँ मंगल की शक्ति, विनाश, हिंसा या ध्वंसात्मक नहीं है। अपितु रचनात्मक है। मृगशिरा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम के मध्य का भाग मृगशिरा नक्षत्र की दिशा मानी गई है।
मृगशिरा नक्षत्र के व्यवसाय सभी प्रकार के गायक व संगीतज्ञ, चित्रकार, कवि, भाषाविद, रोमांटिक उपन्यासकार, लेखक, विचारक या मनीषी। भूमि भवन, पथ या सेतु निर्माण से जुड़े यंत्र, वस्त्र उद्योग से जुड़े कार्य, फैशन डिजायनिंग, पशुपालन या पशुओं से जुडी़ सामग्री का उत्पादन व वितरण। प्रशिक्षण कार्य,शिल्पी क्लर्क, प्रवचन कर्ता, संवादाता आदि जैसे विवध कार्य इस नक्षत्र में आते हैं।
मृगशिरा नक्षत्र का स्थान वनक्षेत्र, खुले मैदान, चरागाह, हिरण उद्यान, गाँव व उपनगर, शयनकक्ष, नर्सरी व प्ले स्कूल, विश्राम गृह, मनोरंजन कक्ष या स्थल, फुटपाथ, गलियाँ, कला व संगीत स्टूडियो, छोटी दुकानें, बाजार या पटरी बाजार, ज्योतिष व आध्यात्मिक संस्थाएं और मृगशिरा नक्षत्र संबंधी व्यवसायों से जुड़े सभी स्थान।
मृगशिरा नक्षत्र तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र है। वृष राशि और मंगल नक्षत्र दोनों तमोगुणी
हैं इसी वजह से इस नक्षत्र को तमोगुणी कहा गया है। इस नक्षत्र का गण देव गण है। इस नक्षत्र का संबंध मनुष्यों से कम व देवताओं से अधिक है। मृगशिरा को सतही या समतल नक्षत्र भी कहा जाता है। मार्गशीर्ष मास का प्रथम पक्ष तथा सभी मासों की शुक्ल और कृष्ण पंचमी को मृगशिरा का मास व तिथि होती है। मृगशिरा मास का अन्य नाम अग्रहायणी नक्षत्र भी है।
मृगशिरा नक्षत्र पर मंगल, शुक्र तथा बुध का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कुछ विद्वान मंगल को मृगशिरा नक्षत्र का स्वामी या अधिपति ग्रह मानते हैं। मृगशिरा नक्षत्र के प्रथम दो चरण वृष राशि में तो अंतिम चरण मिथुन राशि में होने से शुक्र व बुध की ऊर्जा को मिलाने वाला सेतु भी कहा जाता है। विद्वानों का मत है कि मंगल+बुध या मंगल+शुक्र अथवा बुध+शुक्र या मंगल+बुध+शुक्र का परस्पर दृिष्ट युति या राशि परिवर्तन या राशि संबंध भी मृगशिरा नक्षत्र की ऊर्जा प्रदान करता है।
मृगशिरा नक्षत्र का प्रथम चरण का अक्षर ‘वे’ है। दूसरे चरण का अक्षर ‘वो’ है। तीसरे चरण का अक्षर ‘का’ है। चतुर्थ चरण का अक्षर ‘की’ है। मृगशिरा नक्षत्र की योनि सर्प योनि है। इस नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है।
मृगशिरा नक्षत्र का व्यक्तित्व आकर्षक होता है लोग इनसे मित्रता करना पसंद करते हैं। ये मानसिक तौर पर बुद्धिमान होते और शारीरिक तौर पर तंदरूस्त होते हैं। इनके स्वभाव में मौजूद उतावलेपन के कारण कई बार इनका बनता हुआ काम बिगड़ जाता है या फिर आशा के अनुरूप इन्हें परिणाम नहीं मिल पाता है। ये संगीत के शौकीन होते हैं, संगीत के प्रति इनके मन में काफी लगाव रहता है। ये स्वयं भी सक्रिय रूप से संगीत में भाग लेते हैं परंतु इसे व्यवसायिक तौर पर नहीं अपनाते हैं। इन्हें यात्रओं का भी शौक होता है, इनकी यात्राओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन होता है। कारोबार एवं व्यवसाय की दृष्टि से यात्रा करना इन्हें विशेष पसंद नहीं होता है।व्यक्तिगत जीवन में ये अच्छे मित्र साबित होते हैं, दोस्तों की हर संभव सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। ये स्वाभिमानी होते हैं और किसी भी स्थिति में अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने देना चाहते। इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखमय होता है क्योंकि ये प्रेम में विश्वास रखने वाले होते हैं। ये धन सम्पत्ति का संग्रह करने के शौकीन होते हैं। इनके अंदर आत्म गौरव भरा रहता है। ये सांसारिक सुखों का उपभोग करने वाले होते हैं। मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति बहादुर होते हैं ये जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव को लेकर सदैव तैयार रहते हैं, इस नक्षत्र के जातक मशीन के कार्यों में निपुण, हथियार व उपकरण बनाने वाले, बिजली कार्यों में निपुण, ऑपरेशन में काम आने वाले सामान बनाने वाले, संचार कार्य, इंजीनियर, गणितज्ञ, ऑडिट करने वाले चतुर व्यक्ति, विदेशों में नियुक्त दूत, रेडियो-फोन विक्रेता,सेल्स में काम करने वाले, संगीत सम्बन्धी कार्य, इत्र-सेंट आदि चीजों के कारोबारी, प्रकृति प्रेमी जंगलों में काम करने वाले, रत्न कारोबारी, पक्षियों को पालने वाले, प्रकाशन व मुद्रण में कार्य करने वाले घर बनाने वाले आदि।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

राहु

मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान, स्वयं को ले कर गलतफहमी,आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व अप्शब्द बोलना, व कुंडली में राहु के अशुभ होने पर हाथ के नाखून अपने आप टूटने लगते हैं। राजक्ष्यमा रोग के लक्षण प्रगट होते हैं। वाहन दुर्घटना, उदर कष्ट, मस्तिष्क में पीड़ा अथवा दर्द रहना, भोजन में बाल दिखना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध खऱाब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढऩे की संभावना रहती है। जल स्थान में कोई न कोई समस्या आना आदि।
उपाय: गोमेद धारण करें। दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करें। तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करें। जौ या अनाज को दूध में धोकर बहते पानी में बहाएँ, कोयले को पानी में बहाएँ, मूली दान में देवें, भंगी को शराब, माँस दान में दें। सिर में चोटी बाँधकर रखें। सोते समय सर के पास किसी पात्र में जल भर कर रक्खेंं और सुबह
किसी पेड़ में डाल दें, यह प्रयोग 43 दिन करें। इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और राहवे नम: का 108बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

शुक्र गृह:

शुक्र भी दो राशिओं का स्वामी है, वृषभ और तुला। शुक्र तरुण है, किशोरावस्था का सूचक है, मौज मस्ती, घूमना फिरना, दोस्त मित्र इसके प्रमुख लक्षण है। कुंडली में शुक्र के अशुभ प्रभाव में होने पर मन में चंचलता रहती है, एकाग्रता नहीं हो पाती। खान पान में अरुचि, भोग विलास में रूचि और धन का नाश होता है। अँगूठे का रोग हो जाता है। अँगूठे में दर्द बना रहता है। चलते समय अगूँठे को चोट पहुँच सकती है। चर्म रोग हो जाता है। स्वप्न दोष की शकिायत रहती है।
उपाय: माँ लक्ष्मी की सेवा आराधना करें। श्री सूक्त का पाठ करें। खोये के मिस्ठान व मिश्री का भोग लगायें। ब्रह्मण ब्रह्मणि की सेवा करें। स्वयं के भोजन में से गाय को प्रतिदिन कुछ हिस्सा अवश्य दें। कन्या भोजन कराये। ज्वार दान करेंं। गरीब बच्चों व विद्यार्थिओं में अध्यन सामग्री का वितरण करें। नि:सहाय, निराश्रय के पालन-पोषण का जिम्मा ले सकते हैं। अन्न का दान करें। ú सुं शुक्राय नम: का 108बार नित्य जाप करना भी लाभकारी सिद्ध होता है।
शनि गृह: शनि की गति धीमी है। इसके दूषित होने पर अच्छे से अच्छे काम में गतिहीनता आ जाती है। कुंडली में शनि के अशुभ प्रभाव में होने पर मकान या मकान का हिस्सा गिर जाता या क्षतिग्रस्त हो जाता है। अंगों के बाल झड़ जाते हैं। शनिदेव की भी दो राशियां है, मकर और कुम्भ। शरीर में विशेषकर निचले हिस्से में (कमर से नीचे) हड्डी या स्नायुतंत्र से सम्बंधित रोग लग जाते है। वाहन से हानि या क्षति होती है। काले धन या संपत्ति का नाश हो जाता है। अचानक आग लग सकती है या दुर्घटना हो सकती है।
उपाय: हनुमान आराधना करना, हनुमान जी को चोला अर्पित करना, हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, सुंदरकांड का पाठ और ú हन हनुमते नम: का 108बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है। नाव की कील या काले घोड़े की नाल धारण करें। यदि कुंडली में शनि लग्न में हो तो भिखारी को ताँबे का सिक्का या बर्तन कभी न दें, यदि देंगे तो पुत्र को कष्ट होगा। यदि शनि आयु भाव में स्थित हो तो धर्मशाला आदि न बनवाएँ। कौवे को प्रतिदिन रोटी खिलाएँ। तेल में अपना मुख देख वह तेल दान कर दें (छाया दान करें)। लोहा, काली उड़द, कोयला, तिल, जौ, काले वस्त्र, चमड़ा, काला सरसों आदि दान दें।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

बुध गृह:

बुध व्यापार व स्वास्थ्य का करक माना गया है। यह मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है। बुध वाक् कला का भी द्योतक है। विद्या और बुद्धि का सूचक है। कुंडली में बुध की अशुभता पर दाँत कमजोर हो जाते हैं। सूँघने की शक्ति कम हो जाती है। गुप्त रोग हो सकता है। व्यक्ति वाक् क्षमता भी जाती रहती है। नौकरी और व्यवसाय में धोखा और नुक्सान हो सकता है।
उपाय: भगवान गणेश व माँ दुर्गा की आराधना करें। गौ सेवा करें। काले कुत्ते को इमरती देना लाभकारी होता है। नाक छिदवाएँ। ताबें के प्लेट में छेद करके बहते पानी में बहाएँ। अपने भोजन में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्तों को और एक हिस्सा कौवे को दें, या अपने हाथ से गाय को हरा चारा, हरा साग खिलायें। उड़द की दाल का सेवन करें व दान करें। बालिकाओं को भोजन कराएँ। किन्नेरों को हरी साड़ी, सुहाग सामग्री दान देना भी बहुत चमत्कारी है। बुं बुद्धाय नम: का 108बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है आथवा गणेशअथर्वशीर्ष का पाठ करें। पन्ना धारण करें या हरे वस्त्र धारण करें यदि संभव न हो तो हरा रुमाल साथ रक्खें।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

ग्रह दोष से उत्पन्न रोग और उसके निवारण:

सूर्य गृह: सूर्य पिता, आत्मा समाज में मान, सम्मान, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा का करक होता है। इसकी राशि है सिंह। कुंडली में सूर्य के अशुभ होने पर पेट, आँख, हृदय का रोग हो सकता है साथ ही सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। इसके लक्षण यह है कि मुँह में बार-बार बलगम इक_ा हो जाता है, सामाजिक हानि, अपयश, मन का दुखी या असंतुस्ट होना, पिता से विवाद या वैचारिक मतभेद सूर्य के पीड़ित होने के सूचक है।
उपाय: ऐसे में भगवान राम की आराधना करें। आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें, सूर्य को आर्घ्य दे, गायत्री मंत्र का जाप करें। ताँबा, गेहूँ एवं गुड का दान करेंं। प्रत्येक कार्य का प्रारंभ मीठा खाकर करेंं। ताबें के एक टुकड़े को काटकर उसके दो भाग करेंं। एक को पानी में बहा दें तथा दूसरे को जीवन भर साथ रखें। ú रं रवये नम: या ú घृणी सूर्याय नम: 108बार (1 माला) जाप करेंं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

future for you astrological news rashifal 05 09 2015

future for you astrological news sawal jawab 05 09 2015

Thursday, 3 September 2015

शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश कथा-रस

एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं।
भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है।
भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उसी के अनुसार जीव भोग करता है। प्राणी भले ही प्रमाद में पडक़र सो जाए, परंतु उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है। इसलिए हमेशा सत्कर्म करते रहना चाहिए।










देश को दीमक की तरह खाता भ्रष्टाचार

आज देश के सामने कई प्रकार की समस्यायें हैं जिनके साथ हम रोजाना जूझ भी रहे हैं व उनके साथ जी भी रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या कौन सी है इसको लेकर समाज में अलग-अलग प्रकार के लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। अनुभव ऐसा है कि जो जिस समय जिस समस्या से प्रभावित होता है उसके लिए वह उतनी ही बड़ी समस्या बन जाती हैं।
पर मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या वह है जिसे लोग समस्या मानना बन्द कर कर चुकें हैं और उसे अपने जीवन का एक हिस्सा मान कर जीने लगे हैं। और वह है भ्रष्टाचार। इस प्रकार देखा जाय तो भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है जिसे आज आम आदमी सहज ही स्वीकार कर ले रहा है। लेकिन अगर सोचा जाए तो देश में जो भी विकास के कार्य होने है या हुये हैं, केवल भ्रष्टाचार के कारण अच्छे या गुणवत्ता के साथ नहीं हो पाए, जिससे देश साल दर साल पीछे होता गया। अब समाज में इसे गलत नहीं समझा जाता बल्कि जो विरोध करता है उसे बेवकूफ या आदर्शवादी कह कर उसका मजाक बनाया जाता है। कुछ माह पूर्व तक समाज में सभी स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार आम चर्चा का विषय भी नहीं था। लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था- कि यह तो होगा ही या ये सब तो आवश्यक है।
भ्रष्टाचार का यह महारोग अभी पनपा है ऐसा नहीं है, मुगलों के समय में भी भ्रष्टाचार था पर वह आटे में नमक की तरह था। अंग्रेज तो भारत को लूटने ही आये थे इसलिये येन-केन-प्रकरेण अंग्रेजों ने तो हमें लूटा ही। पर आजादी के बाद आये प्रजातन्त्र में यह रूकना चाहिये था पर हुआ उल्टा देश मे पैदा हुये काले अंग्रेजों ने ही हमें लूटा ही नहीं बल्कि देश के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया। भ्रष्टाचार की नाली दिन ब दिन चौड़ी होती गई और अब इसने महासागर का रूप ले लिया। कारण देश में प्रजातन्त्र तो आया पर प्रजा की सुनने वाला कोई तन्त्र नहीं बना। अगर देश का राजनैतिक नेतृत्व भ्रष्ट नहीं होता तो प्रजा भी ईमानदार बनी रहती। इन्हीं राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के कारण पारदर्शी तन्त्र को बनने नहीं दिया, उल्टे जनता को भी ईमानदार नहीं रहने दिया।
आज हमारे भारत देश में समस्यायों का अम्बार लगा हुआ है, वर्षो की गुलामी ने हमारे दिल और दिमाग पर गहरा असर डाला है। जो हो चुका उसे हम बदल तो नहीं सकते पर क्या उससे सबक लेकर सुधार नहीं कर सकते?  क्या वाकई हमारे देश में काबलियत की कमी हो गयी है या फिर हमे समस्याओ में रहने की आदत ही पड़ गयी है और हम सुधार करना ही नहीं चाहत? या फिर हमने मान लिया है की अब इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं हो सकता और हमे इनकी आदत डाल लेनी ही होगी? यह बड़ा प्रश्न है।
अगर इस मुद्दे को ज्योतिष की नजर से देखें तों 15 अगस्त 2015 को 69 वें वर्ष, कन्या लग्न की कुंडली में मुन्था पंचम भाव में बनती है। प्रशासनिक भाव पर सूर्य-मंगल-शुक्र-शनि की दृष्टियां होने से केंद्र सरकार कई जगह विवश दिखेगी। वृश्चिक के शनि के कारण भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि शनि और गुरू के अनुकूल होने के कारण देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा। शनि के लगातार अनुकूल होने से न्यायपालिका के हस्ताक्षेप से भ्रष्टाचार के कम होने की संभावना बनती है। हां, गुरू के लगातार अनुकूलता से देश की अवाम में मानवीय चेतना के जागृत हो जाने के आसार जरूर दिख रहे हैं।


Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

कुंडली में लग्न भाव के क्या है प्रभाव और उपाय?



कुंडली में चार केंद्र स्थान होते हैं। यह प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव होते हैं जो कि तन, सुख, दांपत्य एवं कर्म के कारक होते हैं।
यदि केंद्र में शुभ ग्रह हो तो जातक लक्ष्मीपति होता है। वहीं केंद्र में उच्च के पाप ग्रह बैठे हो तो जातक राजा तो होता ही है पर वह धन से हीन होता है।
सूर्य यदि उच्च को हो तथा गुरु केंद्र में चतुर्थ स्थान पर बैठा हो तो जातक आधुनिक केंद्र या राज्य में मंत्री पद को प्राप्त करता है। सूर्य के केंद्र में होने से जातक राजा का सेवक, चंद्रमा केंद्र में हो तो व्यापारी, मंगल केंद्र में हो तो व्यक्ति सेना में कार्य करता है।
बुध के केंद्र में होने से अध्यापक तथा गुरु के केंद्र में होने से विज्ञानी, शुक्र के केंद्र में होने पर धनवान तथा विद्यावान होता है। शनि के केंद्र में होने से नीच जनों की सेवा करने वाला होता है।
यदि केंद्र में कोई भी ग्रह नहीं हो तो जातक समस्या ग्रस्त परेशान रहता है। कोई भी ग्रह केंद्र में न हो तथा आप, ऋण, रोग, दरिद्रता से परेशान हो तो निम्न उपाय करें।
- शिवजी की उपासना करें।
- सोमवार का व्रत करें।
- भगवान शिव पर चांदी का नाग अर्पण करें।
- बिल्व पत्रों से 108 आहूतियां दें।
- घी, कच्चा, दूध, शहद, मिश्री का हवन करें।

कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो क्या करें

कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति को पूर्ण सुख-सुविधाएं प्राप्त नहीं हो पाती हैं। साथ ही, वैवाहिक जीवन में भी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। शुक्र के दोषों के दूर करने के लिए शुक्रवार को विशेष उपाय किए जा सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार शुक्रवार को देवी लक्ष्मी के निमित्त भी उपाय किए जा सकते हैं। यहां जानिए छोटे-छोटे 5 उपाय...
1. हर शुक्रवार शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करें। साथ ही, ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करें। मंत्र जप कम से कम 108 बार करना चाहिए। मंत्र जप के लिए रुद्राक्ष की माला का उपयोग करना चाहिए।
2. किसी गरीब व्यक्ति को या किसी मंदिर में दूध का दान करें।
3. शुक्रवार को किसी विवाहित स्त्री को सुहाग का सामान दान करें। सुहाग का सामान जैसे चूड़ियां, कुमकुम, लाल साड़ी। इस उपाय से देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
4. शुक्र से शुभ फल पाने के लिए शुक्रवार को शुक्र मंत्र का जप करें। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। शुक्र मंत्र: द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:।
5. शुक्र ग्रह के लिए इन चीजों का दान भी किया जा सकता है... हीरा, चांदी, चावल, मिश्री, सफेद वस्त्र, दही, सफेद चंदन आदि। इन चीजों के दान से शुक्र के दोष कम हो सकते हैं।