Tuesday 6 October 2015

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज -
वात, पित्त, कफ का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलित होना चाहिए। वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है। आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त, यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है और यहीं शारीरिक व्याधियाॅ आती हैं। जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला और कौशल्य है।
विशेष रूप से कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में तथा वात नाभि के नीचे वाले भाग में रहता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर, युवा अवस्था में पित्त का असर व आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन तथा मुक्ति का साधन है।

पश्यमौषध सेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदप्टास्य नान्यानुष्ठित कर्नणा॥
पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य प्राप्त करते देखा गया है न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्मों से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में अग्नि कारक नक्षत्र से पित्त, जल कारक नक्षत्र से कफ एवं वायु कारक नक्षत्र से वात रोग होते हैं। इसी प्रकार किसी का तृतीय, पंचम या दसम भाव या भावेश विपरीत कारक हो तो उसे पित्त, लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी या इन स्थानों का प्रतिकूल होना कफ एवं चतुर्थ, अष्टम या दसम का विपरीत होना अथवा इन स्थानों पर शनि जैसे ग्रहों का होना वात प्रकृति का कारण बनता है। इसी प्रकार यदि लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान में राहु, शनि होतो वात या लग्न में राहु मंगल हो जाए तो वातपित्तज का कारण बनता है।
उपाय कहा भी गया है कि
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त  नाश  के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कुंडली में ग्रहों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त करना हो तो सबसे पहले मन को ठीक करना चाहिए। जिसके लिए मंत्रों का जाप तथा ग्रह शांति, इसके अलावा चिकित्सकीय अनुदान प्राप्त करने से जीवन में संतुलन प्राप्त कर स्वस्थ्य रहा जा सकता है।

 
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शनि व्रत कथा विधान

काफी समय पहले समस्त प्राणियों का हित चाहने वाले मुनियों ने वन में एक सभा की । उस सभा में व्यासजी के शिष्य श्री सूतजी अपने शिष्यों के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए आए। समस्त शास्वी के ज्ञाता श्री सूतजी को आया देखकर महातेजस्वी शौनकादि मुनि उठ खडे हुए और श्री सूतजी को प्रणाम किया । श्री सुतजी मुनियों द्वारा दिए गए आसन पर बैठ गए । शौनक आदि मुनियों ने श्री सूतजी से विनयपूर्वक पूछा-हे मुनि । इस काल में हरि भक्ति किस प्रकार से होगी हैं सभी प्राणी पाप करने में तत्पर होंगे और उनकी आयु कम होगी । ग्रह कष्ट, धन रहित और अनेक पीड़ायुक्त मनुष्य होंगे । है सूतजी ! पुण्य अति परिश्रम से होता है । इस कारण कलियुग में कोई भी मनुष्य पुण्य नहीं करेगा । पुण्य के नष्ट होने से मनुष्यों की प्रकृति पापमय होगी । इस काश्या तुच्छ विचार बाले मनुष्य अपने वंशा सहित नष्ट हो जाएंगे । हे सूतजी । इसलिए थोड़े परिश्रम, थोड़े धन और थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो, ऐसा कोई उपाय हम लोगों को बताइए । जिस उद्देश्य से मनुष्य पुण्य और पाप करता है, उसके पुण्य और पाप का वही मनुष्य भागी होता है-यह शास्यों का निर्णय है । है सूतजी ! जो मनुष्य रत्नरूपी ज्ञान से दूसरों को संतुष्ट करते हैं, उनको मनुष्य रूप धारण किए श्रीहरि ही जानना चाहिए । है मुने ! कोई ऐसा व्रत बताएं जिसे करने से शनि द्वारा प्रदत कष्ट मनुष्यों को न भोगने पडें और शनिदेव प्रसन्न हो जाएं । है मुने । शनि के कारण जो घोर कष्ट मनुष्यों को उठाने पड़ते हैं, उनसे बचने के उपायों को सुनने की हमारी इच्छा है ।
श्री सूतजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ । तुम धन्य हो, तुन्हीं वैष्णवों में अग्रगण्य हो क्योंकि सब प्राणियों का हित चाहते हो । मैं आपको उत्तम व्रत बताता हूँ ध्यान देकर सुनें । इसे करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं और शनि ग्रह के कष्ट प्राप्त नहीं होते । महाभारत की घटना है-युधिष्ठिर आदि पांडव वनवास में अनेक कष्ट भोग रहे थे । उस समय उनके प्रिय सखा श्रीकृष्णा उनके पास पहुंचे । धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णा को देखकर उनका आदर-सत्कार किया और सुंदर आसन पर बैठाया । श्रीकृष्ण बोले-हे युधिष्ठिर ! कुशलपूर्वक तो हो ।
युधिष्ठिर ने कहा-हाँ प्रभो! आपकी कृपा है । आप कोई ऐसा व्रत बताएं जिसे करने से शनि ग्रह का कष्ट न हो, इससे छुटकारा मिले ।
श्रीकृष्णा बोले-राज़न ! आपने बहुत सुन्दर बात पूछी है । मैं आपको एक उत्तम व्रत बताता हूँ सुनो । जो मनुष्य भक्ति और श्रद्धायुवत्त होकर शनिवार के दिन शनिदेव तथा भगवान शंकर का पूजन एवं व्रत करते हैं, उन्हें शनि की ग्रह दशा में कोई विशेष कष्ट नहीं होता । उनको निर्धनता नहीं सताती । वे इस लोक में अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में शिवलोक को प्राप्त होते हैं । युधिष्ठिर बोले-हे प्रभु । सबसे पहले यह व्रत किसने किया था । कृपा करके इसे विस्तारपूर्वक कहें और इसकी विधि भी बताएं ।
भगवान श्रीकृष्णा बोले-राजन ! शनिवार के दिन विशेषकर श्रावण मास में लौह निर्मित शनि प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर अनेक प्रकार के गंध, अष्टांग, धूप, फल एवं उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करें । शनि के दस नागों का उच्चारणा करें । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा तथा नीले वस्त्र का दान कों । फिर भगवान शंकर का विधिपूर्वक पूजन कों । आरती करके प्रार्थना करें-हे भोलेनाथ ! में आपकी शरण में हूँ आप मेरे ऊपर कृपा करें । मेरी रक्षा करें । है युधिष्ठिर ! पहले शनिवार क्रो उड़द का भात, दुसरे शनिवार को खीर, तीसरे शनिवार को खजला और चौथे शनिवार को पूरियों का भोग लगाएं। व्रत की समाधि पर यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराएं । इस प्रकार व्रत करने से सब प्रकार के अनिष्ट, कष्ट एवं अधि-व्याधियों का सर्वाधा नाश होता है । राहु, केतु तथा शनि कृत दोष दूर होते हैं ।
अनेक प्रकार के सुंख-साधन एवं पुत्र-पौत्रादि का सुख प्रात होता है ।
भगवान श्रीकृष्णा आगे बोले-हे युधिष्ठिर ! सबसे पूर्व जिसने इस व्रत को किया था, उसका इतिहास भी सुनो । पूर्वकाल में विदर्भ देश में एक राजा राज्य करता था । उसने अपने शत्रुओं को अपने वश में कर लिया । दैव रोग से राजा और राजकुमार पर शनि की दशा आई । राजा और रानी को उसके शत्रुओं ने मार दिया । राजकुमार बेसहारा हो गया । राजगुरु को भी उन लोगों ने मार दिया । उसकी विधवा ब्राह्मणी तथा उसका लड़का शुचिव्रत रह गया । ब्राह्मणी ने राजकुमार धर्मगुरु को अपने साथ ले लिया और नगर को छोड़कर चल पडी । वह गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारों का बहुत कठिनाई रने निर्वाह कर पाती थी । कभी किसी नगर और कभी किसी नगर में दोनों कुमारों को लिए घूमती रहती थी ।
एक दिन वह ब्राह्मणी दोनों कुमारों को लिए एक नगर से दूसरे नगर जा रहीं थी कि उसे मार्ग में मुनि शांडिल्य के दर्शन हुए । ब्राह्मणी ने दोनों बालकों के साथ मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली-हे महर्षि ! मै आज आपके दर्शन-करके कृतार्थ हो गई । यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण में हैं, आप इनकी रक्षा करें । मुनिवर ! यह शुचिव्रत्त मेरा पुत्र है और यह धर्मगुस राजपुत्र है तथा मेरा धर्मपुत्र है । हम घोर दारिद्रद्य में हैं, आप हमारा उद्धार कीजिए ।
मुनि शांडिल्य ने ब्राह्मणी की सब बात सुनी और बोले-हे देवि ! तुम्हारे ऊपर शनि का प्रकोप है, अत: शनिवार के दिन शनिदेव का व्रत और पूजन करके भोलेशंकर की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।
ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम करके शिव मंदिर के लिए चल दिए । मुनि के उपदेश के अनुसार दोनों कुमारों ने ब्राह्मणी सहित शनिवार का व्रत किया तथा भगवान शिव का पूजन-अर्चन किया | दोनों कुमारों और ब्राह्मणी को यह व्रत करते-करते चार भास व्यतीत हो गए ।
एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिए गया । उसके साथ धर्मगुप्त नहीं था । कीचड़ में उसे एक बड़ा-सा कलश दिखाई दिया । शुचिव्रत ने उसको उठाकर देखा तो उसमें धन था । वह उस कलश को घर ले आया और मां से बोला-हे मां! शिवजी का प्रसाद देख, भोलेशंकर ने इस कलश के रूप में धन दिया है । उसकी माता ने आदेश दिया-की ! तुम दोनों इसको बांट लो । माँ का वचन सुनकर शुचिव्रत बहुत प्रसन्न हुआ और धर्मगुप्त से बोला-भैया । अपना हिस्सा ले लो । परंतु शंकरजी की पूजा में विश्वासी धर्मगुप्त ने कहा-माँ ! मैं हिस्सा लेना नहीं चाहता, क्योंकि मनुष्य अपने सुकृत से जो कुछ भी पता है, वह उसी का भाग है और उसे स्वयं ही भोगना चाहिए । शिवजी मुझ पर भी कभी कृपा करेंगे ।
धर्मगुप्त प्रेम और भक्ति के साथ शनिदेव का व्रत करके शिवजी का पूजन करने लगा । इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया । बसंत ऋतु का अश्यामन हुआ । राजकुमार धर्मगुरु तथा ब्रह्मण पुत्र शुचिव्रत वन में घूमने के लिए गए । दोनों वन में घूमते-घूमते काफी दू निकल गए । उनको वहाँ सैकडों गंधर्व कन्याएं खेलती हुई मिली । शुचिव्रत बोला-भैया । पवित्र पुरुष स्त्रियों के बीच में नहीं जाते । ये मनुष्य को शीघ्र ही मोह लेती हैं । विशेष रूप से ब्रह्मचारी को स्त्रियों से संभाषण करना और मिलना नहीं चाहिए । परंतु धर्मगुप्त नहीं माना । वह गंधर्व कन्याओं का खेल देखने उनके खेल के स्थान पेर अकेला चला गया ।
उन गंधर्व कन्याओं में से एक प्रधान सुंदरी राजकुमार धर्मगुप्त को देखकर उस पर मोहित हो गई और अपनी सखियों से बोली-यहीं से थोडी दूरी पर एक सुंदर वन है, उसमें नाना प्रकार के फूल खिले हैं । तुम सब वहां जाकर उन सुंदर फूलों को तोड़ आओ, तब तक में यहीं पर बैठी हूं। सखियां उस गंधर्व कन्या की आज्ञा पाकर चली गई और वह सुंदर गंधर्व कन्या राजकुमार पर दृष्टि लगाकर बैठ गई । राजकुमार उसके पास चला आया । राजकुमार को देखकर गंधर्व कन्या ने उसे बैठने के लिए पल्लवों का आसन दिया । राजकुमार आसन पर बैठ गया । गंधर्व कन्या ने उससे पूछा- आप कौन हैं, किस देश के रहने बाले हैं तथा आपका आगमन यहाँ कैसे हुआ है?
राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-व विदर्भ देश के राजा का पुत्र हूं। मेरा नाम धर्मगुप्त है । मेरे माता-पिता स्वर्ग लोग सिधार गए । शत्रुओँ ने मेरा राज्य ले लिया है, मैं राजगुप्त की पत्नी के साथ रहता हूँ। वह मेरी धर्म की माँ हैं । फिर राजकुमार ने उस गंधर्व कन्या से पूछा आप कौन हैं, किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहीं पर आगमन हुआ है ?
गंधर्व कन्या ने कहा-मै विद्रविक नामक गंदर्वराज की पुत्री हूँ। मेरा नाम अंशुमति है । आपको देख आपसे बात करने की इच्छा हुई । इसी कारण में सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूं। गंधर्व कहते हैं कि मेंरे जैसा संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है । भगवान शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिए आपको यहाँ भेजा है । अब मेरा और आपका प्रेम कभी न टूटे । यह बहाकर गंधर्व कन्या ने अपने गले से मोतियों का हार उतारकर राजकुमार के गले में डाल दिया ।
इस पर राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-मेरे पास न राज है और न धन । आप मेरी भार्या केसे बनेगी? आपके पिता हैं लेकिन आपने उनकी आज्ञा नहीं ली ।
गंधर्व कन्या राजकुमार से बोली--- अब आप अपने घर जाएं, परसों प्रात:काल यहीं आएँ आपकी आवश्यकता होगी । यह कहकर गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के पास चली गई । राजकुमार धर्मगुरु शुचिव्रत के पास चला आया और उसे संपूर्ण वृतांत कह सुनाया ।
तीसरे दिन राजकुमार धर्मगुप्त शुचिव्रत को साथ लेकर उसी वन में गया । उसने देखा कि गंदार्वराज विद्रविक उस कन्या के साथ उपस्थित हैं । गंधर्वराज ने दोनों कुमारों को अभिवादन किया और उन्हें सुंदर आसन पर बैठाकर राजकुमार से कहा-मै परसों कैलास पर्वत पर गौरीशंकर का दर्शन करने के लिए गया था ।वहां करुणा रूपी सुधा के सागर भोलेशंकर ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा-हे गंधर्वराज ! पृथ्वी पर धर्मगुप्त नाम का एक राजभ्रष्ट राजकुमार है । उसके परिवार के लोगों को शत्रुओं ने समाप्त कर दिया है । वह बालक मुनि शांडिल्य के कहने से शनिवार का व्रत करता है और सदा मेरी सेवा में लगा रहता है | तुम उसकी सहायता करो जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके
गौरीशंकर की आज्ञा क्रो शिरोधार्य करके मै अपने घर चला आया । वहीं मेरी पुत्री अंशुमति ने भी ऐसी ही प्रार्थना मुझसे की। शिवशंकर की आज्ञा तथा अंशुमति के मन की बात जानकर इसको इस वन में लाया हूँ ।मै इसे आपको सौंपता हूँ । मै आपके शत्रुओं को परास्त करके आपका राज्य दिला दूंगा । यह कहकर गंधर्वराज ने अपनी कन्या अंशुमति का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त के साथ कर दिया तथा अंशुमती की सहेली की शादी ब्रह्मण पुत्र शुचिव्रत के साथ कर दी । तत्पश्चात गंधर्वराज ने राजकुमार की सहायता के लिए गंघवों की चतुरंगिणी सेना उसके हवाले कर दी । धर्मगुप्त के शत्रुओं ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने राजकुमार की अधीनता स्वीकार कर ली और राजकुमार का राज्य लौटा दिया । धर्मगुपत सिंहासन पर बैठा उसने अपने धर्मभाई शुचिव्रत को मंत्री नियुक्त किया ।
जिस ब्राह्मणी ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे राजमाता बनाया | शनिवार व्रत के प्रभाव और शिवजी की कृपा से धर्मगुप्त विदर्भराज हुआ ।यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्णा छोले-हे पाडुनंदन | यदि आप भी यह व्रत करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी । आपके बुरे दिनों की शीघ्र समाप्ति हो जाएगी ।युधिष्ठिर ने शनिवार व्रत-कथा सुनकर भगवान श्रीकृष्णा की पूजा की और व्रत आरंभ कर दिया । इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने महाभारत में विजय प्राप्त करके राज्य प्राप्त किया और स्वर्ग की प्राति की |

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Monday 5 October 2015

Role of Seventh lord in horoscope

Marriage is supposed to be the most sacred institution of our society. Marriage is intended to be a life long commitment. marriage is an exclusive commitment of two individuals to each other who nurture love and mutual support. In this way they not only make a good family but contribute in the formation of a stable and a healthy society. But more and more marriages today tend to end in divorse.Astrologically, seventh house in kundali decides the stability in married life. It will blossom into a flower or wither depends on planets posited in the seventh house and planets aspecting on seventh house and seventh lord.This is the house of cooperation and opposition. As it decides longevity, spouse, partnership, marriage partners, romantic partners, business partners, roommate, counselor to client, doctor to patient, means relationships which require cooperation from another person and compromise with other’s needs or goals.In Navamsha kundali, seventh lord is placed in ninth house, which is the reason it brought luck to the spouse of the native after marriage. Saturn in seventh house is in aspect of Jupiter blesses the native a stable married life but the spouse felt stagnation in career. He could not achieve the degree of success he deserved. Venus and Jupiter are benefic planets. The seventh house is of the spouse. The placement of these planets in the seventh house or their impact on this house decides how much happiness or sorrows you will get from your married life. Venus in the man’s kundali and Jupiter in the wife’s kundali is the factor which decides how much happiness they will have in their married life. The principle of jyotish is that Jupiter has a bad effect on the house it is in and it has a positive influence on those houses which it aspects. If Jupiter is situated in the seventh house of any man’s or woman’s kundali, he or she may have a late marriage or would not have a very happy married life. Jupiter, Venus is also bad for married life. If it is in the Seventh house, it makes a person prove to seek intimacy with another person after marriage. It brings problems and removes the bliss from the married life. If Venus or Jupiter aspect the seventh house or seventh lord then the married life would be enjoyable.
Saturn in seventh house of marriage and partnerships denotes a very cautious approach to marriage and delayed marriage. But you have stable partner, when the marriage is finally made, it will endure, though in all aspects it may not be totally happy. Marriage will be restrictive to you, but you accept circumstances for better or for worse. Here Saturn is placed in Seventh house. There were many hurdles at the time of marriage and of course after marriage also. Saturn is the lord of eleventh and twelfth house (house of suffering, expenditure, and hospitalization) the native had physical suffering due to the problem in spinal cord, but the pain was endured magnanimously and it could not deter the native from the roots rather gave her untiring stamina to perform her duties on domestic front.The seventh house also signifies our desires, passion, setting, adjustment. The karaka of this house is Venus. The placement of Venus and the lord both are in bad house in association of malefics. It indicate that the couple has risen above the materialistic world and are more at a higher level due to the benefic aspect of Jupiter on the 7th house

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Sunday 4 October 2015

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Saturday 3 October 2015

पद-प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए करें ज्योतिषीय उपाय -



जातक अपनी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है जिसके लिए कई बार जातक अनैतिक अथवा अवैध कार्यों का चुनाव कर लेता है। ऐसे व्यक्तियों को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। जीवन में कई बार गलत निर्णयों से नुकसान उठाना पड़ता है। पद-प्रतिष्ठा को भी धक्का लगने की आशंका रहती है। ऐसी कुंडली में गुरु चांडाल योग बनता है जिसके दुष्प्रभाव के कारण जातक का चरित्र भ्रष्ट हो सकता है तथा ऐसा जातक अनैतिक अथवा अवैध कार्यों में संलग्न हो सकता है। इस दोष के निर्माण में बृहस्पति को गुरु कहा गया है तथा राहु को चांडाल माना गया है किसी कुंडली में राहु का गुरु के साथ संबंध जातक को बहुत अधिक भौतिकवादी बना देता है जिसके चलते जिस भाव में योग फलीभूत होता है, उस भाव के शुभ फलों की कमी करता है। यदि जन्म कुंडली में गुरु लग्न, पंचम, सप्तम, नवम या दशम भाव का स्वामी होकर चांडाल योग बनाता हो तो जीवन में कष्ट कई गुना बढ़ जाता है। इसकी शांति हेतु राहु की शांति, गुरूवार को भगवान विष्णु की पूजा, मंत्रजाप एवं एकादशी को किसी बुजूर्ग को एक आहार देवें इससे जीवन में सुचिता एवं यश की प्राप्ति होगी।
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उपकरणों केे प्रदूषण से प्रभावित स्वभाव -



आमतौर पर हम किसी के सुख और सम्पन्नता का अंदाजा इस बात से लगाते हैं कि घर में क्या-क्या हैं। घरो में जीतनें ज्यादा उपकरण उतना ही अधिक रुतबा, अच्छी सुविधाए और हम फूले नहीं समाते! टी.वी. कम्पूटर, फ्रीज और तमाम हाई-फाई उपकरण आज हर घर के आधुनिक होने की कसौटी हैं। आज हर व्यक्ति सुविधाओ के लिए उपकरणों को इकट्ठा करता रहता हैं। जीने के ये अंदाज इस प्रकार के उपकरण पूरे भी कर देते हैं मगर ये उपकरण हमारे लिए तकलीफों का अम्बार ला सकते है जैसे डीप्रेशन, प्रतिरोधक क्षमता की कमी, एल्जाइमर और कैंसर जैसे गंभीर रोगों के अलावा, किसी काम में मन नहीं लगना, थकान, मूड में अचानक बदलाव और कार्य में क्षमता में अचानक गिरावट, सिरदर्द, देखने में दिक्कत उपकरणों से प्रदूषण के कुछ कारण हैं। कोमल और संवेदनशील अंगो पर तो इसका अवश्य असर होता हैं। इन उपकरणों के आसपास बने विद्धुत चुम्बकीय वातावरण हमारेे तन एवं मन पर विपरीत असर डालते हैं और जिनकी कुंडली में लग्न, दूसरे, तीसरे, एकादश या द्वादश स्थान में शनि, शुक्र एवं राहु होने से इस प्रकार की इलेक्टानिक उपकरणों से निकलने वाली चुंबकीय किरणों का दुष्प्रभाव जल्दी दिखाई देता है। अतः कई बार आपके मन खराब रहने या तन खराब रहने का कारण आपके जीवन में जरूरी वस्तुओं का संग्रह भी हो सकता है। अतः इन सामग्री से आपको नुकसान हो रहा है ये जानने के लिए ज्योतिषीय सलाह के साथ आवश्यक ज्योतिषीय उपाय करने चाहिए।
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भ्रष्टाचार का कारण



भ्रष्टाचार का सबसे बडा कारण कम प्रयास में ज्यादा की चाह और अपनी क्षमता, भाग्य और पुरुषार्थ की तुलना में जल्दी साधन संपन्न बनना और धन लोलुपता है। हमारे शास्त्र में जहा मान्य था की साई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाय पर अब इससे उलट भूख समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। इसमें कोई संदेह नहीं कि नैतिक, वैचारिक, आत्मिक और चारित्रिक पवित्रता, भ्रष्टाचार के रक्तबीज का नाश करने में सक्षम होगी और एक सार्थक सामाजिक परिवेश का सृजन करेगी, किन्तु इसका समाप्त हो पाना कठिन है क्यूंकि भारत की कुंडली में लग्न का राहू उच्च स्तर पर चारित्रिक पवित्रता का निर्माण नहीं करेगा और इस प्रकार सुचिता बना पाना मुश्किल है। इसे समाप्त करने के लिए सभी के जीवन में चाहे वे राजनीति में हों या समाजिक क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में हों या प्रशासनिक क्षेत्र में जीवन में सुचिता तथा नैतिकता का निमार्ण कर भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है सके लिए शनि, राहु एवं गुरू की शांति कराना तथा मंत्रजाप कराना चाहिए।
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ज्योतिषीय नजरिये से निर्धनता की समस्या -

ज्योतिषीय नजरिये से निर्धनता की समस्या -
भारत की अन्य सामाजिक समस्यायों में निर्धनता की समस्या अत्यंत प्रमुख है निर्धनता मतलब व्यक्ति द्वारा अपने आश्रितों का अनुपयुक्त भरण-पोषण से है। निर्धनता एक दशा है जिसमें व्यक्ति अनुपयुक्त आय के कारण अथवा मुर्खतापूर्ण व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को अपनी शारीरिक और मानसिक कुशलता के योग्य बनाए रखने में अपने को असमर्थ पाता है तथा अपने आश्रितों को अपने समाज के स्तर के अनुकूल बनाए रखने में असमर्थ रहता है इसके आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है की निर्धनता एक सामाजिक समस्या है जो व्यक्ति के आर्थिक असमर्थता की ओर संकेत करती है। सरकार द्वारा गरीबी उन्मूलन के तमाम प्रयास के बावजूद दशा जस की तस है। हम भ्रष्टाचार या अन्य कारक जिसके कारण आज तक व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सका पर चर्चा नहीं करेंगे हम इसके ज्योतिषीय कारण देखा जाए तो लग्नस्थ राहु के कारण नीतियों में नियत की कमी तथा लग्नेश शुक्र के सूर्य के साथ तीसरे स्थान में होने के कारण सही मनोबल का अभाव ही आज भी देश में निर्धनता का प्रमुख कारण है। ये बात देश या व्यक्ति पर एक जैसी लागू होती हैं अतः यदि इस राष्टव्यापी समस्या को समाप्त करना हो तो इमानदार प्रयास तथा राहु की शांति करानी चाहिए।
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जन्माष्टमी व्रत से जीवन में शाप एवं पाप की निवृत्ति -

भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में श्री विष्णु की सोलह कलाओं से पूर्ण अवतरित हुए थे। श्री कृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस एवं संसार से अधर्म का नाष करने हेतु हुआ था। भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर से कहा कि मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्रपक्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी को उत्पन्न हुआ जबकि सूर्य सिंह राषि में एवं चंद्रमा वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था।
जन्माष्टमी के व्रत तिथि दो प्रकार की हो सकती है बिना रोहिणी नक्षत्र एवं दूसरी रोहिणी नक्षत्र युक्त। इस व्रत में प्रमुख कृत्य हैं उपवास, कृष्ण पूजा, जागरण एवं पारण। कृष्ण भगवान का जन्म समय रात्रि का माना जाता है अतः इस व्रत में जन्मोत्सव रात्रि का मनायी जाती है। व्रत के दिन प्रातः व्रती को सूर्य, चंद्र, यम, काल, दो संध्याओं, पाॅच भूतों, पाॅच दिषाओं के निवासियों एवं देवों का आहवान करना चाहिए,जिससे वे उपस्थित हों। अपने हाथ में जलपूर्ण ताम्रपात्र रखकर उसमें कुछ फल, पुष्प, अक्षत लेकर संकल्प करना चाहिए कि मैं अपने पापों से छुटकारा पाने एवं जीवन में सुख प्राप्ति हेतु इस व्रत को करू। व्रत करते हुए रात्रि को कृष्ण जन्म उत्सव मनाते हुए भजन एवं कीर्तन तथा यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् भौमस्य ब्रहणों गुस्तै तस्मै ब्रहत्मने नमः सुजन्म-वासुदेवाय गोब्रहणहिताय च शान्तिरस्तु षिव चास्तु। का पाठ करना चाहिए। जन्माष्टमी का व्रत करने से जीवन से सभी प्रकार से शाप एवं पाप की निवृत्ति होती है तथा सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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सफलता की महत्वपूर्ण कड़ी- आज्ञापालन -

शिष्य के अनेक गुणों में से आज्ञापालन सभी गुणों का राजा है। पुराणों में कहा गया है कि गुर्वाज्ञापालन से ही अपने गुरुका मन जीता जा सकता है। जीवन में माता-पिता, गुरू की आज्ञाओं का पालन कर अच्छा व्यक्ति बना जा सकता है। बाॅस की आज्ञाओं का पालन कर कार्यक्षेत्र में सफल हुआ जा सकता है। इसी प्रकार पुलिस अधिकारी तथा ट्रैफिक लाइट आदि के आदेशों का पालन सभी करते हैं और सुरक्षित रहते हैं। आज्ञापालन का एक गुण सफलता में सहायक होता है। अतः जीवन में अनुशासन के साथ आज्ञापालन का गुण विकसित करने से सभी प्रकार की सफलता प्राप्त की जा सकती है। आज्ञापालन लाने के लिए लग्न एवं तीसरे स्थान के स्वामी ग्रहों की शांति कराना, मंत्रों का जाप करना चाहिए।
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क्या आपकी बातों से लोग नाराज हो जाते हैं, कारण जाने ज्योतिष गणना से -

जीवन में किसी व्यक्ति की पहचान उसकी आवाज होती है। कोई व्यक्ति किस प्रकार के जबान से पहचाना जायेगा और उसका लोग आदर करेंगे, उसे बात करना पसंद करेंगे या उससे बचते हुए रहना चाहेंगे यह सब कुछ ज्योतिषीय ग्रहों की गणना का विषय है। उसके सभी रिश्ते और अपनापन उसके जुबान के द्वारा बनती और बिगड़ती हैं वहीं यदि हम ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी की कुंडली में उसका यही काम उसका तीसरा स्थान या तीसरे स्थान का स्वामी करता है। अतः यदि किसी जातक को लगातर उसके जुबान के कारण अपमानित होना पड़ रहा हो अथवा उसके जुबान या भाषाशैली के कारण उसके रिश्तों में कटुता आ रही हो या रिश्ते खराब हो रहे हों तो ऐेसे व्यक्ति को अपनी कुंडली के तीसरे स्थान का विवेचन कर उससे संबंधित ग्रहों की शांति, मंत्रजाप अथवा उस ग्रह से संबंधित वस्तुओं के दान एवं उस ग्रह के अनुकूल व्यवहार रखकर अपना तीसरा घर सुधारने का प्रयास करना चाहिए और अपने बिगड़ कार्य या बिगड़े रिश्तों में मधुरता लाना चाहिए।
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जब अच्छो का साथ छूटे और सलाह बुरी लगे तो दिखाएॅ अपनी कुंडली:

जब अच्छो का साथ छूटे और सलाह बुरी लगे तो दिखाएॅ अपनी कुंडली:
जब भी किसी का समय खराब आता है तो उसके जीवन में सद्संग तथा सद्व्यवहार दोनो कम होते हैं या समाप्त होने लगते हैं। बुरे समय का सबसे पहला असर बुद्धि पर पड़ता है और वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है, अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। मनुष्य का जीवन उसके निर्णयों पर आधारित है। हर व्यक्ति को दो या अधिक रास्तों में से किसी एक को चुनना पड़ता है और बाद में उसका वही चुनाव उसके आगे के जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करता है। एक सही व सामयिक निर्णय राष्ट्र, संस्था व व्यक्ति के जीवन को समृद्धि के शिखर पर पहुँचा सकता है तो गलत निर्णय बर्बादी के कगार पर ले जा सकता है। कुशलता का अर्थ ही सही काम, सही ढंग से, सही व्यक्तियों द्वारा, सही स्थान व सही समय पर होना है। निर्णय लेना अनिवार्य है किन्तु सही समय पर सही निर्णय लेना सक्षम व कुशल प्रबंधक का ही कार्य है। इसे हम ज्योतिषीय गणना में कालपुरूष की कुंडली द्वार उसके लग्नेष, तृतीयेष, भाग्येष और एकादषेष द्वारा देख सकते हैं। अगर किसी जातक की कुंडली में ये स्थान उच्च तथा उसके स्वामी अनुकूल स्थिति में हों तो उसके निर्णय सही साबित होते हैं और अगर क्रूर ग्रहों से आक्रांत होकर पाप स्थानों पर बैठ जाये तो निर्णय गलत हो जाता है। किंतु कई बार ऐसे विपरीत बैठे ग्रह दषाओं में लिए गए निर्णय बेहद कष्टकारी साबित होते हैं, जिसे कहा जा सकता है कि विनाष काले विपरीत बुद्धि। जैसे किसी की राहु की दषा प्रारंभ हो रही हो या होने वाली हो तो वह नौकरी छोड़ने या व्यापार करने का निर्णय ले ले, जिसमें हानि की संभावना शतप्रतिषत होती है। अतः किसी को अपनो के विरोध का सामना करना पड़े तो उसे ग्रह शांति जरूर करानी चाहिए।


संकष्टी चतुर्थी व्रत -

जिस प्रकार एकादषी तिथि को विष्णु भगवान तथा त्रयोदषी तिथि को षिवजी की तिथियाॅ मानी जाती हैं उसी प्रकार से कृष्णपक्ष की चतुर्थी को विध्नविनाषक गणेष भगवान की विषिष्ट तिथि होती है। एक बार की बात है कि पावर्ती पुत्र माता पावर्ती के स्नानगार के बाहर पहरा दे रहे थे और तभी भगवान षिव वहाॅ पहुॅचे। पावर्ती पुत्र ने उन्हें रोका, तब षिव क्रोधित होकर उनका सिर काट देते हैं। पावर्ती जी को ज्ञात होने पर अत्यंत क्रोध आता है और वे भगवान षिव से जिद्द करती हैं कि मेरे पुत्र को जीवित करों। भगवान षिव एक हाथी का सिर काट कर के पावर्ती पुत्र के गले में जोड़ देते हैं और भगवान षिव पावर्ती जी की प्रसन्नता के लिए गणेष को प्रथम पूज्य होने का आर्षीवाद देते हैं। यहीं से भगवान गणेष विध्नविनाषक के नाम से प्रतिष्ठित होते हैं। और उन्हें गणाध्यक्ष बनाया जाता है। भाद्रपद मास की चतुर्थी को भगवान गणेष के संकटहरन के रूप में पूजन का विधान है। इस व्रत को करने से जीवन में सुख तथा सौभाग्य का विध्न समाप्त होता है साथ ही रोग या हानि से संबंधित कष्ट दूर होता है। इस व्रत में मंगलवार की रात्रि को जब आकाष में तारे दिखाई दे तो चंद्रदेव को अध्र्य देते हुए व्रत का प्रारंभ करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान और देव, पितृ तर्पण के बाद गणपति का पूजन शास्त्रोक्त विधान से करना चाहिए। गणेष भगवान को दूर्वा, दही, गुड़ और चावल का भोग लगा जाता है, उसके उपरांत अपामार्ग की एक सौ अठ्ठहत्तर समिधाओं में धी और दही मिलाकर हवन कर ब्राम्हण भोज तथा तांम्रपात्र का दान करने का विधान है। इस व्रत से आरोग्यता, समृद्धि के साथ बुद्धि तथा विवेक की भी वृद्धि होती है।
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Friday 2 October 2015

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दश महाविद्या

दश महाविद्या जिसकी उपासना से चतुर्मुख सृष्टि रचने में समर्थ होते हैं, विष्णु जिसके कृपा कटाक्ष से विश्व का पालन करने में समर्थ होते हैं, रुद्र जिसके बल से विश्व का संहार करने में समर्थ होते हैं, उसी सर्वेश्वरी जगन्माता महामाया के दस स्वरूपों का संक्षिप्त चरित्र प्रस्तुत है। देवी के 10 रूपों- काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला का वर्णन तोडल तंत्र में किया गया है। शक्ति के यह रूप संसार के सृजन का सार है। इन शक्तियों की उपासना मनोकामनाओं की पूर्ति। सिद्धि प्राप्त करने के लिए की जाती है। देवताओं के मंत्रों को मंत्र तथा देवियों के मंत्रों को विद्या कहा जाता है। इन मंत्रों का सटीक उच्चारण अति आवश्यक है। ये दश महाविद्याएं भक्तों का भय निवारण करती हैं। जो साधक इन विद्याओं की उपासना करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबकी प्राप्ति हो जाती है।
1. काली:
दश महाविद्याओं में काली प्रथम है। महा भागवत के अनुसार महाकाली ही मुखय हैं। उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दश महाविद्याएं हैं। कलियुग में कल्प वृक्ष के समान शीघ्र फलदायी एवं साधक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने में सहायक हैं। शक्ति साधना के दो पीठों में काली की उपासना श्यामापीठ पर करने योग्य है। वैसे तो किसी भी रूप में उन महामाया की उपासना फल देने वाली है परंतु सिद्धि के लिए उनकी उपासना वीरभाव से की जाती है।
2. तारा :
भगवती काली को नीलरूपा और सर्वदा मोक्ष देने वाली और तारने वाली होने के कारण तारा कहा जाता है। भारत में सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। इसलिए तारा को वशिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। आर्थिक उन्नति एवं अन्य बाधाओं के निवारण हेतु तारा महाविद्या का स्थान महत्वपूर्ण है। इस साधना की सिद्धी होने पर साधक की आय के नित नये साधन खुलने लगते हैं और वह पूर्ण ऐश्वर्यशाली जीवन व्यतीत कर जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेता है। इनका बीज मंत्र 'ह्रूं है। इन्हें नीलसरस्वती के नाम से भी जाना जाता है। अनायास ही विपत्ति नाश, शत्रुनाश, वाक्-शक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए तारा की उपासना की जाती है।
३. छिन्नमस्ता:
परिवर्तनशील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है। इनका सर कटा हुआ है और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं प्रवाहित हो रही हैं जिसमें से दो धाराएं उनकी सहचरियां और एक धारा देवी स्वयं पान कर रही हैं इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन हैं। इनका स्वरूप ब्रह्मांड में सृजन और मृत्यु के सत्य को दर्शाता है। ऐसा विधान है कि चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्धि हो जाती है। इस प्रकार की साधना के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति की आवश्यकता होती है और जो साधक जीवन में निश्चय कर लेते हैं कि उन्हें साधनाओं में सफलता प्राप्त करनी है वे अपने गुरु के मार्गदर्शन से ही इन्हें संपन्न करते हैं।
४. षोडशी:
षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। षोडशी को श्री विद्या भी माना गया है। इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं, वास्तव में षोडशी साधना को राज-राजेश्वरी इसलिए भी कहा गया है क्योंकि यह अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ हैं। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्रा कहा जाता है। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं। इसलिए ये षोडशी कहलाती है। इन्हें श्री विद्या भी माना गया है और इनकी उपासना श्री यंत्र या नव योनी चक्र के रूप में की जाती है। ये अपने उपासक को भक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। षोडशी उपासना में दीक्षा आवश्यक है।
५. भुवनेश्वरी:
महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या को आद्या शक्ति अर्थात मूल प्रकृति कहा गया है। इसलिए भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पांचवें स्थान पर परिगणित है। भगवती भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र-प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है। अपने हाथ में लिए गये शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही 'शताक्षी तथा 'शाकम्भरी नाम से विखयात हुई।
६. त्रिपुर भैरवी:
माँ त्रिपुर भैरवी तमोगुण एवं रजोगुण से परिपूर्ण हैं। माँ भैरवी के अन्य तेरह स्वरुप हैं इनका हर रुप अपने आप अन्यतम है। माता के किसी भी स्वरुप की साधना साधक को सार्थक कर देती है, माँ त्रिपुर भैरवी कंठ में मुंड माला धारण किये हुए है। माँ ने अपने हाथों में माला धारण कर रखी है, माँ स्वयं साधनामय हैं, उन्होंने अभय और वर मुद्रा धारण कर रखी है जो भक्तों को सौभाग्य प्रदान करती है। माँ ने लाल वस्त्र धारण किया है, माँ के हाथ में विद्या तत्व है। माँ त्रिपुर भैरवी की पूजा में लाल रंग का उपयोग किया जाना लाभदायक है। भागवतपुराण के अनुसार महाकाली के उग्र और सौम्य दो रुपों में अनेक रुप धारण करने वाली दस महा-विद्याएँ हुई हैं। भगवान शिव की यह महाविद्याएँ सिद्धियाँ प्रदान करने वाली होती हैं।
7. धूमावती:
धूमावती देवी महाविद्याओं में सातवें स्थान पर विराजमान हैं। धूमावती महाशक्ति अकेली है तथा स्वयं नियंत्रिका है। इसका कोई स्वामी नहीं है। इसलिए इन्हें विधवा कहा गया है। धूमावती उपासना विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध जय आदि के लिए की जाती है। यह लक्ष्मी की ज्येष्ठा हैं, अत: ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न व्यक्ति जीवन भर दुख भोगता है। जो साधक अपने जीवन में निश्चिंत और निर्भीक रहना चाहते हैं उन्हें धूमावती साधना करनी चाहिए।
8. बगलामुखी:
यह साधना शत्रु बाधा को समाप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साधना है। ये सुधा समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान है। इस विद्या के द्वारा दैवी प्रकोप की शांति, धन-धान्य के लिए और इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि के लिए की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्र माला, पीत पुष्प एवं पीत वस्त्र का विधान हैं इनके हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्रा है।
9. मातंगी:
मातंग शिव का नाम और इनकी शक्ति मातंगी है। इनका श्याम वर्ण है और चंद्रमा को मस्तक पर धारण किए हुए हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अंकुश, खेटक और खडग धारण किया है। उनके त्रिनेत्र सूर्य, सोम और अग्नि हैं। ये असुरों को मोहित करने वाली और भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने के लिए मातंगी की साधना श्रेयस्कर है।
10. कमला:
जिसके घर में दरिद्रता ने कब्जा कर लिया हो और घर में सुख-शांति न हो, आय का स्रोत न हो उनके लिए यह साधना सौभाग्य के द्वार खोलती है। कमला को लक्ष्मी और षोडशी भी कहा जाता है। वैसे तो शास्त्रों में हजारों प्रकार की साधनाएं दी गई हैं लेकिन उनमें से दस महत्वपूर्ण विद्याओं की साधनाओं को जीवन की पूर्णता के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है। जो व्यक्ति दश महाविद्याओं की साधना को पूर्णता के साथ संपन्न कर लेता है। वह निश्चय ही जीवन में ऊंचा उठता है परंतु ध्यान रहे विधिवत् उपासना के लिए गुरु दीक्षा नितांत आवश्यक है। निष्काम भाव से भक्ति करने के लिए दश शक्तियों के नाम का उच्चारण करके भी इनका अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। शक्ति पीठों में शक्ति उपासना के अंतर्गत नवदुर्गा व दशमहाविद्या साधना करने से शीध्र सिद्धि होती है।
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ऐतिहासिक नगरी मल्हार

मल्हार बिलासपुर से 40 किमी दूर है। यह मस्तूरी ब्लॉक से 15 किलोमीटर दूर बिलासपुर-रायगढ़ मार्ग पर स्थित है। इसके अलावा यह सरवपुर के रूप में जाना जाता है। यह एक बार छत्तीसगढ़ की राजधानी बन चुकी है। यह अपने पुरातात्विक स्थलों के लिए जाना जाता है। पटेलेश्वर मंदिर, देवरी मंदिर और दिंदेश्वरी मंदिर 10 वीं और 11 वीं सदी की मानी जातीं हैं। जैन धर्म के स्मारक भी इस जगह से खुदाई में निकले। कुछ वेदों के विद्वानों के अनुसार पुराणों में वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने यहीं किया था। इसके कारण उनका नाम मलारि, मल्लाल प्रचलित हुआ। यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है।
यहां विष्णु के चार हाथ वाली मूर्ति पर्यटकों को आकर्षित करती है। ईसा पूर्व 1000 से कलचुरी राजवंश के प्राचीन अवशेष इस साइट में पाये गये है। पटलेश्वर केदार मंदिर आकर्षण का केंद्र है, जहां गोमुखी शिवलिंबग बनाया गया है। दिंदेश्वरी मंदिर मंदिर कलचुरी शासन के अंतर्गत आता है।
दयोर (देवरी) मंदिर में कुछ मंत्रमुग्ध करने वाली कलात्मक मूर्तियां हैं। मल्हार में एक संग्रहालय है, जिसकी देख-भाल सरकार करती है। इसमें प्राचीन मूर्तियों का एक अद्भुत संग्रह है। मल्हार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्वीकृत प्रसिद्ध पुरातात्विक शहरों में से एक है। चीनी इतिहासकार सूैंग भी यहां आए थे, जिस वजह से इस जगह को प्रमुखता दी गई है।
मल्हार के राजवंश:
आदिकाल में कोशाम्बी से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाला प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ, अमरकंटक, खरौद, मल्हार तथा सिरपुर से होकर जगन्नाथपुरी की ओर जाता था। इतिहासकारों के अनुसार यह एक महत्वपूर्ण शहर था। यहां से प्राप्त सिक्कों और अन्य अवशेषों से कई राजवंशों की झलक मिलती है।
सातवाहन शासकों की मुद्रा मल्हार उत्खनन से प्राप्त हुई है। रायगढ़ जिले से एक सातवाहन शासक आपीलक का सिक्का प्राप्त हुआ था। वेदिश्री के नाम की मृणमुद्रा यहां प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त सातवाहन कालीन कई अभिलेख गुंजी, किसरी, कोणा, मल्हार, सेमरसल, दुर्ग, आदि स्थलों से प्राप्त हुए है। मल्हार उत्खन्न से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में सुनियोजित नगर-निर्माण का प्रारंभ सातवाहन-काल में हुआ। इस काल के ईंट से बने भवन एवं ढप्पांकित मृद्भाण्ड यहाँ मिलते हैं। मल्हार के गढ़ी क्षेत्र में राजमहल एवं अन्य संभ्रांत जनों के आवास एवं कार्यालय रहे होंगे।
दक्षिण-कोसल याने छत्तीसगढ़ में कलचुरी-शासन के पहले दो प्रमुख राजवंशों का शासन रहा। वे हैं शरभपुरीय तथा सोमवंशी। इन दोनों वंशो का राज्यकाल लगभग 325 से 655 ई. के बीच का माना जाता है। धार्मिक तथा ललित कलाओं के क्षेत्र में यहां विशेष उन्नति हुई। इस दौरान इस क्षेत्र में ललित कला के पाँच मुख्य केन्द्र विकसीत हुए। मल्हार, ताला, खरौद, सिरपुर तथा राजिम।
केदारेश्वर/पातालेश्वर मंदिर का निर्माण:
कलचुरि वंश के 'कलिंगराज नामक राजा ने दक्षिण पूर्व की ओर अपने राज्य का विस्तार किया और बिलासपुर जिले में स्थित तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया। कलिंगराज के पश्चात् कमलराज, रत्नराज प्रथम तथा पृथ्वीदेव प्रथम क्रमश: कोसल शासक हुए। मल्हार पर सर्वप्रथम कलचुरि-वंश का शासन जाजल्लदेव प्रथम के समय में स्थापित हुआ। फिर पृथ्वीदेव और उसके पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय हुये। उसके समय में सोमराज नामक ब्राम्हण ने मल्हार में प्रसिद्व केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर अब पातालेश्वर मंदिर के नाम प्रसिध्द है।
मल्हार में विकसित कला-संस्कृति:
उत्तर भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के कारण मल्हार का महत्व बढ़ा। यह नगर धीरे-धीरे विकसित हुआ तथा वहाँ शैव, वैष्णव व जैन धर्मावलंबियों के मंदिरों, मठों व मूर्तियों का निर्माण बड़े स्तर पर हुआ। मल्हार में चतुर्भुज विष्णु की एक अद्वितीय प्रतिलिपी मिली है। उस पर मौर्यकालीन ब्राम्हीलीपि लेख अंकित है। मल्हार तथा उसके समीपतवर्ती क्षेत्र से विशेषत: शैव मंदिर के अवशेष मिले साथ ही कार्तिकेय, गणेश, अर्धनारिश्वर आदि की उल्लेखनीय मूर्तियां यहां प्राप्त हुई है। एक शिलापलट पर कच्छप जातक की कथा अंकित है। शिला पलट पर सूखे तालाब से एक कछुए को उड़ाकश जलाशय की ओर ले जाते हुए दो हंस बने है। दूसरी कथा उलूक-जातक की है। इसमें उल्लू को पक्षियों का राजा बनाने के लिए उसे सिंहासन पर बिठाया गया है।
सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में गुप्तयुगीन विशेषताएं स्पष्ट परिलक्षित है। मल्हार में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं मल्हार में मिली है। उत्खनन में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। उत्खन्न में बौध्द देवता हेवज का मंदिर मिला है। इससे ज्ञात होता है कि छठवीं सदी के पश्चात यहाँ तांत्रिक बौध्द धर्म का विकास हुआ। जैन तीर्थंकरों, यक्ष-यक्षिणियों, विशेषत: अंबिका की प्रतिमांए भी यहां मिली हैं ।
विगत वर्षो में हुए उत्खननों से मल्हार की संस्कृति का क्रम इस प्रकार उभरा है।
१. प्रथम काल- ईसा पूर्व लगभग 1000 से मौर्य काल के पूर्व तक।
२. द्वितीय काल- मौर्य-सातवाहन-कुषाण काल (ई.पू. 325 से ई. 300 तक)
३. तृतीय काल- शरभपुरीय तथा सोमवंशी काल (ई. 300 से ई. 650 तक)
४. चतुर्थ काल- परवर्ती सोमवंशी काल (ई. 650 से ई. 900 तक )
५. पंचम काल- कलचुरि काल (ई. 900 से ई. 1300 तक )
कैसे पहुंचे:
वायु मार्ग- रायपुर ( 148कि. मी. ) निकटतम हवाई अड्डा है जो मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापटनम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर (32 कि.मी.) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग- बिलासपुर शहर से निजी वाहन अथवा नियमित परिवहन बसों द्वारा मस्तूरी होकर मल्हार तक सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है।
आवास व्यवस्था- मल्हार में लोक निर्माण विभाग का दो कमरों से युक्त विश्राम गुह है। बिलासपूर नगर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिये उपलब्ध हैं।
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श्री गणेश चालीसा

जय गणपति सद्गुण सदन कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण जय जय गिरिजालाल॥
जय जय जय गणपति राजू। मंगल भरण करण शुभ काजू॥
जय गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्धि विधाता॥
वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥
राजित मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता। गौरी ललन विश्व-विधाता॥
ऋद्धि सिद्धि तव चंवर डुलावे। मूषक वाहन सोहत द्वारे॥
कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी। अति शुचि पावन मंगल कारी॥
एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरि द्विज रूपा।
अतिथि जानि कै गौरी सुखारी। बहु विधि सेवा करी तुम्हारी॥
अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥
मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण यहि काला॥
गणनायक गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम रूप भगवाना॥
अस कहि अन्तर्धान रूप ह्वै। पलना पर बालक स्वरूप ह्वै॥
बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥
सकल मगन सुख मंगल गावहिं। नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं॥
शम्भु उमा बहुदान लुटावहिं। सुर मुनि जन सुत देखन आवहिं॥
लखि अति आनन्द मंगल साजा। देखन भी आए शनि राजा॥
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक देखन चाहत नाहीं॥
गिरजा कछु मन भेद बढ़ायो। उत्सव मोर न शनि तुहि भायो॥
कहन लगे शनि मन सकुचाई। का करिहौ शिशु मोहि दिखाई॥
नहिं विश्वास उमा कर भयऊ। शनि सों बालक देखन कह्यऊ॥
पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा। बालक शिर उड़ि गयो आकाशा॥
गिरजा गिरीं विकल ह्वै धरणी। सो दुख दशा गयो नहिं वरणी॥
हाहाकार मच्यो कैलाशा। शनि कीन्ह्यों लखि सुत को नाशा॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाए। काटि चक्र सो गज शिर लाए॥
बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण मन्त्र पढ़ शंकर डारयो॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे॥
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी की प्रदक्षिणा लीन्हा॥
चले षडानन भरमि भुलाई। रची बैठ तुम बुद्धि उपाई॥
चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥
धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई। शेष सहस मुख सकै न गाई॥
मैं मति हीन मलीन दुखारी। करहुं कौन बिधि विनय तुम्हारी॥
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। लख प्रयाग ककरा दुर्वासा॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै। अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥
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इंडोनेशिया के हिन्दू मंदिर

भगवान शिव के मंदिर दुनियाभर में मौजूद हैं। जहां भगवान शिव के साथ-साथ कई देवी-देवताओं को अलग-अलग नामों से पूजा जाता है। भगवान शिव का ऐसा ही एक बहुत सुंदर और प्राचीन मंदिर इंडोनेशिया के जावा में है। 10वीं शताब्दी में बना भगवान शिव का यह मंदिर प्रम्बानन मंदिर के नाम से जाना जाता है। शहर से लगभग 17 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह मंदिर बहुत सुंदर और प्राचीन होने के साथ-साथ, इससे जुड़ी एक कथा के लिए भी प्रसिद्ध है।
यहां रोरो जोंग्गरंग को पूजा जाता है देवी दुर्गा के रूप में: इस मंदिर में भगवान शिव के साथ एक देवी की भी मूर्ति स्थापित है। उस मूर्ति को देवी दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। यहां पर देवी की स्थापना के पीछे एक कहानी है। कहा जाता है कि एक समय पर जावा का प्रबु बका नाम का एक दैत्य राजा था। उसकी एक बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसका नाम रोरो जोंग्गरंग था। बांडुंग बोन्दोवोसो नाम का एक व्यक्ति रोरो जोंग्गरंग से शादी करना चाहता था, लेकिन रोरो जोंग्गरंग ऐसा नहीं चाहती थी। बांडुंग बोन्दोवोसो के शादी के प्रस्ताव को मना करने के लिए रोरो जोंग्गरंग ने उसके आगे के शर्त रखी। शर्त यह थी कि बांडुंग बोन्दोवोसो को एक ही रात में एक हजार मूर्तियां बनानी थी। अगर वह ऐसा कर दे, तो ही रोरो जोंग्गरंग उससे शादी करेगी। शर्त को पूरा करने के लिए बांडुंग बोन्दोवोसो ने एक ही रात में 999 मूर्तियां बना दी और वह आखिरी मूर्ति बनाने जा रहा था। यह देखकर रोरो जोंग्गरंग ने पूरे शहर के चावल के खेतों में आग लगवा कर दिन के समान उजाला कर दिया। जिस बात से धोखा खा कर बांडुंग बोन्दोवोसो आखरी मूर्ति नहीं बना पाया और शर्त हार गया। जब बांडुंग बोन्दोवोसो को सच्चाई का पता चला, वह बहुत गुस्सा हो गया और उसने रोरो जोंग्गरंग को आखिरी मूर्ति बन जाने का श्राप दे दिया। प्रम्बानन मंदिर में रोरो जोंग्गरंग की उसी मूर्ति को देवी दुर्गा मान कर पूजा जाता है।
स्थानीय लोग कहते हैं इसे रोरो जोंग्गरंग मंदिर:
इस मंदिर की कथा रोरो जोंग्गरंग से जुड़ी होने की वजह से यहां के स्थानीय लोग इस मंदिर को रोरो जोंग्गरंग मंदिर के नाम से भी जानते हैं। रोरो जोंग्गरंग मंदिर या प्रम्बानन मंदिर हिंदुओं के साथ-साथ वहां के स्थानीय लोगों के लिए भी भक्ति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।
ब्रह्मा,विष्णु और शिव तीनों हैं यहां विराजित:
प्रम्बानन मंदिर में मुख्य तीन मंदिर हैं- एक भगवान ब्रह्मा का, एक भगवान विष्णु का और एक भगवान शिव का। सभी भगवानों की मूर्तियों के मुंह पूर्व दिशा की ओर है। हर मुख्य मंदिर के सामने पश्चिम दिशा में उससे संबंधित एक मंदिर है। यह मंदिर भगवानों के वाहनों को समर्पित है। भगवान ब्रह्मा के सामने हंस, भगवान विष्णु के लिए गरूड़ और भगवान शिव के लिए नन्दी का मंदिर बना हुआ है। इनके अलावा परिसर में और भी कई मंदिर बने हुए हैं।
    प्रम्बानन मंदिर स्थित शिव मंदिर बहुत बड़ा और सुंदर है। यह मंदिर तीनों देवों के मंदिरों में से मध्य में है। शिव मंदिर के अंदर चार कमरे हैं। जिनमें से एक में भगवान शिव की विशाल मूर्ति है, दूसरे में भगवान शिव के शिष्य अगस्त्य की मूर्ति है, तीसरे में माता पार्वती की और चौथे में भगवान गणेश की मूर्ति स्थित है। शिव मंदिर के उत्तर में भगवान विष्णु का और दक्षिण में भगवान ब्रह्मा का मंदिर है।
मंदिर की दीवारों पर है रामायण का चित्रांकन:
प्रम्बानन मंदिर की सुंदरता और बनावट देखने लायक है। मंदिर की दीवारों पर हिंदू महाकाव्य रामायण के चित्र भी बने हुए हैं। ये चित्र रामायण की कहानी को दर्शाते हैं। मंदिर की दीवारों पर की हुई यह कलाकारी इस मंदिर को और भी सुंदर और आकर्षक बनाती है।

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देश में भ्रष्टाचार का मकड़ा जाल और उसके ज्योतिषीय पहलू

भारतीय परिदृश्य में भ्रष्टाचार को देखा जाये तो हम सबसे पहले यहाँ की दशा और दिशा को समझने का प्रयास करेंगे। भ्रष्टाचार का अर्थ- किसी व्यक्ति या समाज द्वारा अपने भाग्य या पुरुषार्थ से ज्यादा पाने की चाह। स्वार्थ में लिप्त होकर कोई भी किया गया गलत कार्य भ्रष्टाचार होता है। भ्रष्टाचार का दायरा विशाल है। भ्रष्टाचार के कई रूप हैं- रिश्वत, कमीशन लेना, काला बाजारी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कर्तव्य से भागना, चोर-अपराधियों को सहयोग करना, अतिरिक्त गलत कार्य में रुचि लेना आदि सभी अनुचित कार्यों को भ्रष्टाचार कहा जायेगा। धन संपदा का उपार्जन एवं संचय चिर काल से मानव मात्र के लिये जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग बना रहा है परन्तु आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में यह अधिकांश व्यक्तियों के जीवन का एकमात्र अभीष्ट बन कर रह गया है। विगत कुछ दशकों से आर्थिक सम्पन्नता को ही जीवन में सफलता का एकमात्र मापदंड मान लेने का चलन व भारतीय सामाजिक संरचना में उपभोक्तावादी संस्कृति को सर्वोपरि और सर्वमान्य बनता जा रहा है। समाज में विलासितापूर्ण जीवन शैली का महिमामंडन जन साधारण के शब्दकोष से संतोष, परिश्रम, कर्तव्य, निष्ठा और ईमानदारी जैसे शब्दों को मिटा देती हैं। धनोपार्जन की क्षमता से अधिक व्यय की परिस्थितियों में अधिकांश व्यक्ति अपनी नैतिकता को दांव पर लगा देते हैं। निर्विवाद रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण कम प्रयास में ज्यादा की चाह और अपनी क्षमता, भाग्य और पुरुषार्थ की तुलना में जल्दी साधन संपन्न बनना और धन लोलुपता है। हमारे शास्त्र में जहा मान्य था की साई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाय पर अब उससे उलट भूख समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। इसमें कोई संदेह नहीं कि नैतिक, वैचारिक, आत्मिक और चारित्रिक पवित्रता, भ्रष्टाचार के रक्तबीज का नाश करने में सक्षम होगी और एक सार्थक सामाजिक परिवेश का सृजन करेगी। किन्तु इसका समाप्त हो पाना कठिन है क्यूंकि भारत की कुंडली में लग्न का राहू उच्च स्तर पर चारित्रिक पवित्रता का निर्माण नहीं करेगा और इस प्रकार सुचिता बना पाना मुश्किल है।
भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति-
दुर्भाग्य से भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वैसे देखा जाए तो सारे विश्व में भ्रष्टाचारी राक्षस का आतंक फैला हुआ है। भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है। इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी और तृतीयेश चंद्रमा तीसरे स्थान में होकर एकाग्रता में भारी कमी कर रहा है। जिसके कारण आज तक भ्रष्टाचार की स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नहीं आ सका। आज जब मै ये लिख रहा हु तब की स्थिति में वृश्चिक लग्न में भाग्येश और दशमेश शनि सप्तम स्थान में होने से पार्टनर का पूरा प्रभाव भाग्य एवम पुरुषार्थ पर है और तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है।
राजनीतिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
आज कल सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार राजनैतिक क्षेत्र में हो रहा है। मंत्रियों को अमीर एवं धनी व्यक्तियों से धन लेकर अपराधियों को देना पड़ता है। ताकि वे चुनाव जीत जाएँ। फलस्वरूप चुनाव जीतने के बाद और व्यक्तियों की स्वार्थ पूर्ण शर्त पूरी हो जाती है। किसी देश या व्यक्ति की कुंडली में राहु तथा सूर्य, गुरू इत्यादि का प्रभावी होना भी राजनीति का कारक माना जाता है। चूकि राहु को नीतिकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त है वहीं सूर्य को राज्यकारक, शनि को जनता का हितैषी और मंगल नेतृत्व का गुण प्रदाय करता है। इसलिए इन ग्रहों का अनुकूल होना राजनीति में नैतिक, वैचारिक, आत्मिक और चारित्रिक पवित्रता का धोतक है किन्तु भारत की कुंडली में सरे गृह विपरीत कारक होने से राजनीति से भ्रष्टाचार समाप्त कर पाना कठिन होगा। इस समय जब ग्रहों ही स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है तो ये कहना अतिशयोक्ति होगा।
शैक्षिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
शैक्षिक क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। अध्यापक के पास जो छात्र ट्यूशन लेते हैं, उन्हें परीक्षा में ज्यादा नंबर मिल जाते हैं, जबकि जो छात्र पढऩे में अच्छा हो, उसे कम अंक मिलते हैं। नौकरी और डिग्रियों के लिए भी रिश्वत लेकर दी जाती है। किसी भी कुंडली में दूसरा तथा पांचवा स्थान शिक्षा का होता है। भारत की स्थिति में दूसरे तथा पांचवे का स्वामी बुध, सूर्य-शनि से आक्रांत होकर तीसरे स्थान में है, जिसके कारण बुध का व्यवहार शिक्षा के प्रति उदासीन ही रहा है। चूंकि शनि दशम भाव एवं सूर्य चतुर्थ भाव का कारक है अत: कभी सत्ता तो कभी सम्पन्नता शैक्षणिक क्षेत्र में गुणवत्ता लाने में बाधक बनती रही है।
चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
पैसे वाले आदमी एवं अमीर व्यक्तियों का इलाज पहले किया जाता है, लेकिन गरीब व्यक्ति का चाहे जितनी बड़ी उसकी बीमारी हो, उसकी अवहेलना की जाती है। दवाइयों में मिलावट की जाती है, जो रोगी के लिए बहुत खतरनाक होता है। ज्योतिषीय नजरिये से यदि हम चिकित्सा को देखें तो छटवा स्थान रोग का स्थान है। भारत की कुंडली में रोगेश शुक्र तीसरे स्थान हैं। सूर्य-शनि से आक्रांत होकर तीसरे स्थान में है, जिसके कारण चिकित्सा में चिकित्सकों के उपर प्रशासन एवं सत्ता का दबाव चिकित्सा हित में भ्रष्टाचार को समाप्त करने में असफल है।
धार्मिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
धार्मिक क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। हर किसी को मंदिर जाने से पहले पैसे लेकर जाना पड़ता है, पुजारी की साधन दक्षिणा के लिए। धार्मिकता वर्तमान में चंद लालची लोगों के कारण पाखण्ड बनकर रह गया है जिसका मुख्य ज्योतिषीय कारण है धार्मिक प्रवृत्ति का नवम तथा द्वादश स्थान से देखा जाता है। भारत की कुंडली में नवम, शनि, सूर्य तथा शुक्र के साथ बैठ कर धर्म को भोग से लिप्त कर रहा है वहीं सूर्य के साथ होकर धर्म की सुचिता समाप्त कर रहा है। इसी प्रकार द्वादश स्थान पर शनि की दृष्टि धर्म से नैतिकता समाप्त कर भ्रष्ट आचार अध्यारोपित कर रहा है।
व्यापार के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
खाद्य पदार्थों से लेकर प्रत्येक चीज में मिलावट हो रही है, किसी में ईंट तो किसी में रेत मिला हुआ होता है। सीमेंट में भी ज्यादा रेत मिलाकर कमजोर गगनचुंबी इमारतें बनाई जाती हैं। सभी प्रकार से कार्यालय में भी रिश्वत से ही काम होता है। कार्यव्यापार तथा अवसर को दशम तथा एकादश स्थान से देखने पर दशम भाव का कारक शनि एवं एकादश भाव का कारक गुरू दोनों अपने स्थान से छटवे, आठवे हो जाने के कारण व्यापारिक क्षेत्र में अनैतिक लाभ की चाहत को बढ़ावा देने वाला साबित हो रहा है।
भ्रष्टाचार वृद्धि के कारण-
समाज में भ्रष्टाचार वृद्धि के कारण तो अनेक हैं, उनमें से कुछ मुख्य कारण हैं-
धन को सम्मान- आजकल अमीर आदमियों का ही समाज में सम्मान है। सच्चरित्र व्यक्तियों की कोई इज्जत नहीं करता, क्योंकि उसके पास धन नहीं होता है। इसलिए सच्चरित्र व्यक्ति भी भ्रष्टाचार अपनाने लगा है।
धन कमाने की तृष्णा- धन की तृष्णा में जलता हुआ आदमी बाहरी साज-सज्जा के लिए, भोग विलास के लिए पैसा कमाना चाहता है और इसके लिए सबसे लघुतम साधन है, भ्रष्टाचार। आदमी इतना स्वार्थी हो गया है कि वह भ्रष्टाचार फैलाकर दुनिया भर की सम्पत्ति अपने पेट में, मुँह में, घर में भर लेना चाहता है।
भ्रष्टाचार का समाधान-
समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने का सबसे सरल साधन है-
1.जन चेतना: बच्चों को विद्यालय, घर एवं गुरुजनों से अच्छे संस्कार मिलने चाहिए, जिससे कि वह भ्रष्टाचार और सदाचार में अंतर समझ सकें और आगे चलकर सदाचार को अपनायें।
2. सरकारी अधिकारियों के विवेकाधिकार को सीमित करने से भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है।
3. अगर ऊँचे पद के अधिकारी भ्रष्टाचार नहीं करेंगे तो छोटा कर्मचारी भी नहीं करेगा।
4. जन आंदोलन से भी भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकता है।
5. सरकार भी भारत देश में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए जन आंदोलन से जागृत होकर जनलोकपाल बिल पर अमल कर रही है, जिससे की देश से भ्रष्टाचार कम हो जाए।
6. सरकारी अधिकारी या मंत्रियों के खिलाफ अगर कोई भी मामला दर्ज होता है, तो तीन माह के अंदर उन्हें अपने आपको सच्चा प्रमाणित करना पड़ेगा, नहीं तो उन्हें दंड दिया जायेगा।
७. पुलिस, आर.टी.आई. कानून से भी सरकार भ्रष्टाचार को कम करने में सफल हो सकेगी।
इन सभी समाधानों के अलावा सबसे अच्छा एवं सक्रिय समाधान यह है कि अगर राजा एवं प्रजा दोनों सचेत हो जाएँ तथा सच्चे सदाचार को अपना लें, तो भ्रष्टाचार का नामो निशान मिट जायेगा। जनता एवं सरकार दोनों को जागृत होना पड़ेगा। कहा जाता है- यथा राजा तथा प्रजा, इस तरह समाज से भ्रष्टाचार दूर हो कर सदाचार पनप सकता है।
भ्रष्टाचार के ज्योतिषीय समाधान:
भारत की कुंडली में चतुर्थ भाव अर्थात समाज, सूर्य है, जोकि अग्रणी होकर यदि भ्रष्टाचार समाप्त करे तो ही इसका अंत हो सकता है। इसके लिए जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढ़कर भौतिकता से परे देशहित एवं समाजकल्याण के लिए सोचना होगा।
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पार्वती का स्वर्ण-महल

एक बार की बात है, देवी पार्वती का मन खोह और कंदराओं में रहते हुए ऊब गया। दो नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना चाहिये।
शंकर जी को उनकी बात जम गई। ब्रह्मांड के सबसे योग्य वास्तुकार विश्वकर्मा महाराज को बुलाया गया। पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज गति से काम शुरू हो गया। महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था। विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर स्वर्ग। निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी कल्पना को आकार देने में। उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
तीनों लोकों में जयजयकार होने लगी। एक ऐसी अनुपम नगरी का निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी। गणेश और कार्तिकेय के आनंद की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय। वह ब्राह्मण भी तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली। बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया- रावण।
समस्त विश्व में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और अध्ययन से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखता था, जिसने निरंतर तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में स्वस्ति फैला रही थी, ऐसा रावण गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर बने इस महल में आमंत्रित किया गया। रावण ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये उपस्थित हुआ।
गृहप्रवेश की पूजा अलौकिक थी। तीनो लोकों के श्रेष्ठ स्त्री पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे। वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं। पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी। इस अद्वितीय अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती ने ब्राह्मण रावण से दक्षिणा माँगने को कहा।
''आप मेरी ही नहीं समस्त विश्व की माता है माँ गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी? रावण विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
''नहीं विप्रवर, दक्षिणा के बिना तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही अनिर्वचनीय हो उठी है, आप अपनी इच्छा से कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको अवश्य प्रसन्न करेंगे। पार्वती ने आग्रह से कहा।
''आपको कष्ट नहीं देना चाहता माता, मैंने बिना माँगे ही बहुत कुछ पा लिया है। आपके दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे? रावण ने और भी विनम्रता से कहा।
''यह आपका बड़प्पन है लंकापति, लेकिन अनुष्ठान माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे। पार्वती ने पुन: अनुरोध किया। की पूर्ति के लिये दक्षिणा आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे।पार्वती ने पुन: अनुरोध किया।
''संकोच होता है देवि। रावण ने आँखें झुकाकर कहा।
''संकोच छोड़कर यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर। पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
जरा रुककर रावण ने कहा, ''यदि सचमुच आप मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, यदि सचमुच आप मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं और यदि सचमुच भगवान शिव सबकुछ दक्षिणा में देने की सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।
पार्वती एक पल को भौंचक रह गईं! लेकिन पास ही शांति से बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु। रावण की खुशी का ठिकाना न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
तबसे ही रावण की लंका सोने की कहलाई और वह दैवी गुणों से नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया। पार्वती के मन में फिर किसी महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ। इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
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भारत के संबंध में चांडाल योग की विवेचना

इन खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में भारत की कुंडली की विवेचना की जाए तो यह योग भारत का वृषभ लग्न होने से नवम भाव में घटित हो रहा है।
गुरु स्वयं नवम भाव का कारक माना जाता है, उसके निर्बल होने के कई प्रभाव सामने आ सकते हैं। धर्मस्थानों की क्षति, दुर्घटनाएँ संभावित हैं। लोगों की धार्मिक आस्था लडख़ड़ाएगी। लग्न पर दोनों ग्रहों की दृष्टि मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न करेगी। इससे सत्तापक्ष द्वारा गलत निर्णय लेकर जनता का विश्वास खो देने की पूर्ण आशंका रहेगी। पराक्रम पर इनकी दृष्टि महँगाई, मंदी जैसे मुद्दों पर विराम नहीं लगने देगी।
साथ ही असामाजिक तत्वों की गतिविधियाँ भी बढ़ेंगी। सरकार की नीति टालमटोल वाली रह सकती है, जिसका फल कोई भारी नुकसान के रूप में मिल सकता है। बुद्धि और संतान भाव पर इनकी दृष्टि बुद्धिजीवी वर्ग में शासकों के प्रति गहरे असंतोष को जन्म देगी। राज्यों में असंतोष फैलने, उपद्रव भड़कने की आशंका रहेगी। सत्ता में भारी परिवर्तन के भी आसार रहेंगे।
दशा-महादशा पर विचार करें तो वर्तमान में भारत शुक्र की महादशा में केतु के अंतर से गुजर रहा है। सप्तम में केतु कुछ विशेष फलदायी नहीं है। अत: गोचर का प्रभाव हावी रहने का पूर्ण अंदेशा है। अत: जागरूकता तथा सजगता रखना अच्छा होगा। सत्तापक्ष व अधिकारियों को अपने कर्तव्य निभाना चाहिए तथा सुरक्षा व्यवस्थाओं को सजग रखना चाहिए।
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क्या है चांडाल योग?

चांडाल शब्द का अर्थ होता है क्रूर कर्म करनेवाला, नीच कर्म करनेवाला। इस चांडाल शब्द पर से ज्योतिष-शास्त्र में एक योग है, जिसे गुरु चांडाल योग या विप्र योग कहा जाता है। राहू और केतु दोनों छाया ग्रह है। पुराणों में यह राक्षस है। राहू और केतु के लिए बड़े सर्प या अजगर की कल्पना करने में आती है। राहू सर्प का मस्तक है तो केतु सर्प की पूंछ। ज्योतिषशास्त्र में राहू -केतु दोनों पाप ग्रह है। अत: यह दोनों ग्रह जिस भाव में या जिस ग्रह के साथ हो उस भाव या उस ग्रह संबंधी अनिष्ठ फल दर्शाता है। यह दोनों ग्रह चांडाल जाति के हैं। इसलिए गुरु के साथ इनकी युति गुरु-चांडाल या विप्र (गुरु)-चांडाल योग कहा जाता है।
राहू-केतु जिस तरह गुरु के साथ चांडाल योग बनाते है इसी तरह अन्य ग्रहों के साथ चांडाल योग बनाते है जो निम्न प्रकार के है।
1) रवि-चांडाल योग : सूर्य के साथ राहू या केतु हो तो इसे रवि चांडाल योग कहते है। इस युति को सूर्य ग्रहण योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक गुस्सेवाला और जिद्दी होता है। उसे शारीरिक कष्ठ भी भुगतना पड़ता है। पिता के साथ मतभेद रहता है और संबंध अच्छे नहीं होते। पिता की तबीयत भी अच्छी नहीं रहती।
2) चन्द्र-चांडाल योग : चन्द्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे चन्द्र चांडाल योग कहते है। इस युति को चन्द्र ग्रहण योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नहीं भोग पाता। माता संबंधी भी अशुभ फल मिलता है। नास्तिक होने की भी संभावना होती है।
3) भौम-चांडाल योग : मंगल के साथ राहू या केतु हो तो इसे भौम चांडाल योग कहते है। इस युति को अंगारक योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक क्रोधी, जल्दबाज, निर्दय और गुनाखोर होता है। स्वार्थी स्वभाव, धीरज न रखनेवाला होता है। आत्महत्या या अकस्मात् की संभावना भी होती है।
4) बुध-चांडाल योग : बुध के साथ राहू या केतु हो तो इसे बुध चांडाल योग कहते है। बुद्धि और चातुर्य के ग्रह के साथ राहू-केतु होने से बुध के कारत्व को हानी पहुचती है। और जातक अधर्मी। धोखेबाज और चोरवृति वाला होता है।
5) गुरु-चांडाल योग : गुरु के साथ राहू या केतु हो तो इसे गुरु चांडाल योग कहते है।ऐसा जातक नास्तिक, धर्मं में श्रद्धा न रखनेवाला और नहीं करने जेसे कार्य करनेवाला होता है।
6) भृगु-चांडाल योग : शुक्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे भृगु चांडाल योग कहते है। इस योग में जन्म लेनेवाले जातक का जातीय चारित्र शंकास्पद होता है। वैवाहिक जीवन में भी काफी परेशानिया रहती है। विधुर या विधवा होने की सम्भावना भी होती है।
7) शनि-चांडाल योग : शनि के साथ राहू या केतु हो तो इसे शनि चांडाल योग कहते है। इस युति को श्रापित योग भी कहा जाता है। यह चांडाल योग भौम चांडाल योग जेसा ही अशुभ फल देता है। जातक झगढ़ाखोर, स्वार्थी और मुर्ख होता है। ऐसे जातक की वाणी और व्यव्हार में विवेक नहीं होता। यह योग अकस्मात् मृत्यु की तरफ भी इशारा करता है।
राहू-केतु के साथ जो ग्रह है उनके भावाधिपत्य और उन पर अन्य ग्रहों की युति-इष्ठ या परिवर्तन के संबंधों से फलकथन में बदलाव आना संभव है। ज्योतिषीय निवारणों के द्वारा उक्त दोषों को दूर किया जा सकता है।
चांडाल योग के दुष्प्रभाव के कारण जातक का चरित्र भ्रष्ट हो सकता है तथा ऐसा जातक अनैतिक अथवा अवैध कार्यों में संलग्न हो सकता है। इस दोष के निर्माण में बृहस्पति को गुरु कहा गया है तथा राहु और केतु को चांडाल माना गया है और गुरु का इन चांडाल माने जाने वाले ग्रहों में से किसी भी ग्रह के साथ स्थिति अथवा दृष्टि के कारण संबंध स्थापित होने से कुंडली में गुरु चांडाल योग का बनना माना जाता है।किसी कुंडली में राहु का गुरु के साथ संबंध जातक को बहुत अधिक भौतिकवादी बना देता है जिसके चलते ऐसा जातक अपनी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है जिसके लिए ऐसा जातक अधिकतर अनैतिक अथवा अवैध कार्यों का चुनाव कर लेता है। सामान्यत: यह योग अच्छा नहीं माना जाता। जिस भाव में फलीभूत होता है, उस भाव के शुभ फलों की कमी करता है। यदि मूल जन्म कुंडली में गुरु लग्न, पंचम, सप्तम, नवम या दशम भाव का स्वामी होकर चांडाल योग बनाता हो तो ऐसे व्यक्तियों को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। जीवन में कई बार गलत निर्णयों से नुकसान उठाना पड़ता है। पद-प्रतिष्ठा को भी धक्का लगने की आशंका रहती है।
वास्तव में गुरु ज्ञान का ग्रह है, बुद्धि का दाता है। जब यह नीच का हो जाता है तो ज्ञान में कमी लाता है। बुद्धि को क्षीण बना देता है। राहु छाया ग्रह है जो भ्रम, संदेह, शक, चालबाजी का कारक है। नीच का गुरु अपनी शुभता को खो देता है। उस पर राहु की युति इसे और भी निर्बल बनाती है। राहु मकर राशि में मित्र का ही माना जाता है (शनिवत राहु) अत: यह बुद्धि भ्रष्ट करता है। निरंतर भ्रम-संदेह की स्थिति बनाए रखता है तथा गलत निर्णयों की ओर अग्रसर करता है।दिसंबर को देवगुरु बृहस्पति ने अपनी नीच राशि में प्रवेश किया है। वहाँ पहले से बैठे राहु ने इस युति से चांडाल योग को जन्म दिया है।
यदि मूल कुंडली या गोचर कुंडली इस योग के प्रभाव में हो तो निम्न उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं-
* योग्य गुरु की शरण में जाएँ, उसकी सेवा करें और आशीर्वाद प्राप्त करें। स्वयं हल्दी और केसर का टीका लगाएँ।
* निर्धन विद्यार्थियों को अध्ययन में सहायता करें।
* निर्णय लेते समय बड़ों की राय लें।
* वाणी पर नियंत्रण रखें। व्यवहार में सामाजिकता लाएँ।
* खुलकर हँसे, प्रसन्न रहें।
* गणेशजी और देवी सरस्वती की उपासना और मंत्र जाप करें।
* बरगद के वृक्ष में कच्चा दूध डालें, केले का पूजन करें, गाय की सेवा करें।
* राहु का जप-दान करें।
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कुंभ परंपरा

कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है।
खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को ''कुम्भ स्नान-योग कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।
कुम्भ शब्द की मीमांसा:
''कुम्भ शब्द की मीमांसा पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, एक चित्त और एक मन से की गई है। इन द्वादश इन्द्रियों पर विजय पाने से ही ''घट कुम्भ अर्थात् शरीर का कल्याण होता है। विवेक एवं अविवेक देवासुर संग्राम को जन्म देता है। इनके पूर्ण नियन्त्रण से ही घट में अमृत का प्रादुर्भाव होता है। महाभारत के इस श्लोक से देव-दानव युद्ध तथा अमृत एवं गंगाजल के सामंजस्य को प्रतिष्ठित किया गया है-
यथा सुरानां अमृतं प्रवीलां जलं स्वधा।
सुधा यथा च नागानां तथा गंगा जलं नृणाम्।
अथर्ववेद के अनुसार ब्रह्मा ने मनुष्य को ऐहिक की आमुष्मिक सुख देने वाले कुम्भ को प्रदान किया। ये कुम्भ पर्व हरिद्वारादि स्थलों पर प्रतिष्ठित हुए। पृथ्वी को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाने वाले ऋषियों का कुम्भ से तात्पर्य है पुरूषार्थ-चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्ति कराना। कुम्भ पर्व के अवसर पर पतित पावनी भगवती भागीरथी (गंगा) के जल में स्नान करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ, एक लाख भूमि की परिक्रमा करने से जो पुण्य-फल प्राप्त होता है, वह एक बार ही कुम्भ-स्नान करने से प्राप्त होता है-
अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नानेन तत् फलम्।।
प्राचीन परम्परा:
कुम्भ महापर्व भारत के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में मनाये जाने की बहुत ही प्राचीन परम्परा है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक ये चार प्रमुख तीर्थ स्थल हैं, जहाँ कुम्भ महापर्व मनाये जाने का पौराणिक माहात्म्य है। हरिद्वार और प्रयाग में छ: वर्ष में अर्द्धकुम्भ और बारह वर्ष में कुम्भ महापर्व मनाने की परम्परा है। यह महापर्व चारों तीर्थ स्थलों में भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न तिथियों के आगमन होने पर मनाये जाते हैं। प्रयाग में कुम्भ का महापर्व माघ के महीने में मनाये जाने की परम्परा है। यहाँ जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि के हों और बृहस्पति मेष अथवा वृष राशि में स्थित हों, तो कुम्भ महापर्व का योग बनता है-
मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावस्या तदा योग: कुम्भाख्य तीर्थनायके।।
मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च वृहस्पतौ।
कुम्भ योगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यति दुलभ:।।
इसी प्रकार हरिद्वार में मेष राशि में सूर्य और कुम्भ में बृहस्पति हों तो सर्वोत्तम कुम्भ महापर्व का योग होता है-
हरिद्वार-पद्मिनीनायके मेषे कुम्भं राशि गतो गुरु:। गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भं नामा तदोत्तमा:।।
हरिद्वार के कुम्भ में जब कुम्भ राशि का बृहस्पति हो और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह स्थिति मेष संक्रान्ति अर्थात 13-14 अप्रैल को पड़ती है। यह कुम्भ का महापर्व होता है। इसकी समाप्ति 14 मई तक होती है, जब सूर्य मेष राशि का परित्याग करता है। यही कुम्भ उज्जैन में सिंह के सूर्य, सिंह के बृहस्पति तथा मेष के सूर्य और सिंह के बृहस्पति होने पर कुम्भ पर्व का संयोग बनाता है-
सिंह राशि गते सूर्ये सिंह राशौ वृहस्पतौ।
गोदावर्यां भवेत् कुम्भो जायते खलु मुक्तिद:।
मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ वृहस्पतौ।
उज्जयिन्यां भवत् कुम्भो सदामुक्तिप्रदायक:।।
घटे सूरि: शशीसूर्य कुहां दामोदरे यदा।
धरायां च तदा कुम्भो जायते खलु मुक्तिद:।।
नासिक में बृहस्पति सूर्य तथा चन्द्र कर्क में हों तो गोदावरी नदी के तट नासिक में कुम्भ पर्व लगता है-
ऋग्वेद में उल्लेख:
उपर्युक्त चार तीर्थ स्थलों में कुम्भ पर्व मनाये जाने की मूल प्रेरणा अथर्ववेद की चतुर: कुम्भाश्चतुर्णा ददामि में इस प्रकार के उल्लेख से मिलती है। इसके अतिरिक्त कुम्भ का उल्लेख ऋग्वेद में भी प्राप्त होता है-
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव सरोजपुरो अरदन्न सिन्धून। विभेद गिरिं नव मित्र कुम्भ भागतन्द्रो अकृणुता स्व युग्मि:।।
प्लाशिव्र्यक्त: शतधार उत्यन्ते दुहे च कुम्भी स्वधा पितृभ्य:। पूर्णो कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै, पश्यामो बहुधा नु संनत:।।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यड्ड: काल समाहु परमे व्योमन। चतुर: कुम्भां चतुर्णा ददामि।।
चतुर: कुम्भाञचतुर्धा पूर्णाउदकेन
दध्या एतास्त्वा धारा उपयत्तु सर्वा:। स्वर्गे लोके मधूमतं पिन्वमाना उपत्वातिष्ठतु पुण्यकरिणो: समत्ता:।।
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि भारत में कुम्भ जैसे पर्व को मनाने की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। धीरे-धीरे इसके माहात्म्य को पौराणिक परम्परा के अनुसार विस्तारपूर्वक निर्धारित तीर्थस्थलों पर मनाया जाने लगा।
सृष्टि का प्रतीक:
भारतीय संस्कृति में कुम्भ सृष्टि का प्रतीक माना गया है, जैसे कुम्हकार पंच तत्वों से कुम्भ की रचना करता है, उसी प्रकार ब्रह्मा भी पंच तत्वों से इस सृष्टि की सर्जना करते हैं। कुम्भ के विषय में कहा गया है-
कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुदो समाहित:।
मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीप वसुंधरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदो सामवेदो अथर्वव:।।
अंगै:ष्च संहिता: सर्वे कलशे तु समाश्रिता:।।
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, अन्तवस्था में समस्त सागर, पृथ्वी में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरुप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएँ सोलह होती हैं। चन्द्रमा की भी षोडश कलाएँ होती है। कुम्भ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। कुम्भ शब्द चुरादि गणीय कुभि आच्छादने धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- ''आच्छादन या ''आवृत्त करना। परमात्मा अपने ऐश्वर्य से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसीलिए वह कुम्भ है। इसे कंमु कान्तै धातु से जोडऩे पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुम्भ को पेट, गर्भाशय, ब्रह्मा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्व के सूर्य, चन्द्रमा तथा बृहस्पति तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। आत्मा अजर, अमर, नित्य और शान्त है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्वि का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु हैं। ज्ञान की स्थिरता तभी सम्भव है, जब बुद्वि स्थिर हो। दैवी बुद्वि का कारक गुरु है। बृहस्पति का स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ में होना ही बुद्वि का स्थैर्य है। चन्द्रमा का सूर्य से युक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है। आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुम्भ, अर्द्धकुम्भ को शरीर, पेट, समुद्र, पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से सम्बद्ध किया गया है। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुम्भ के प्रतीत हैं। वायु के आवरण से आकाश, प्रकाश से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत होता है, इसीलिए कुम्भ है। कुम्भ इच्छा है, कामवासना रूप को आवृत करने के कारण काम ब्रह्म है, चराचर को धारण करने, उसमें प्रविष्ट होने के कारण विष्णु स्वयं कुम्भ हैं।
प्रचलित कथाएँ:
कुम्भ पर्व वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। इसकी मान्यता के सन्दर्भ में तीन कथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
1. महर्षि दुर्वासा की कथा
2. कद्रू-विनता की कथा
3. समुद्र मंथन की कथा
प्रथम कथा:
प्रथम कथा देवराज इन्द्र से सम्बन्धित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्यमाला का अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को अपने हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे पैरों तले कुचल दिया। दुर्वासा ऋषि ने इसके परिणामस्वरुप भयंकर शाप दिया जिसके कारण संसार में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई। तत्पश्चात नारायण ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी को प्रकट किया। उनकी कृपा से वृष्टि हुई और कृषकों का कष्ट दूर हुआ। अमृत पान से वंचित असुरों ने कुम्भ को नागलोक में छिपा दिया। गरुड़ ने वहाँ से उसका उद्धार किया और उसे क्षीरसागर तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर कलश को रखा, वे ही स्थल ''कुम्भ पर्व के तीर्थस्थल बन गये।
द्वितीय कथा:
इस कथा के अनुसार महर्षि कश्यप की दो पत्नियों कद्रू और विनता के मध्य सूर्य के अश्वों का वर्ण काला है या सफेद, इस विवाद को लेकर यह शर्त रखी गई की जो हारेगी वह दासी बनकर रहेगी। इस शर्त के परिणामस्वरुप विनता के हार जाने के कारण उसे दासी बन कर रहना पड़ा। उस दासीत्व से तभी मुक्ति मिल सकती थी, जब नागलोक में छिपाये गये कुम्भ को कश्यप मुनि की पत्नी कद्रू के पास लाया जाय। उस अमृत कलश को लाने हेतु और अपनी माँ को दासीत्व से मुक्त कराने के लिये पक्षीराज गरुड़ ने संकल्प किया। नागलोक से वासुकि से संरक्षित उस अमृत-कलश को जब गरुड़ उत्तराखंड से गंधमादन पर्वत पर कश्यप मुनि के पास ले जा रहे थे तो वासुकि द्वारा इन्द्र को सूचित किया गया और उन्होंने चार बार आक्रमण किया। इन्द्र के द्वारा चार जगहों पर रोके जाने के कारण जो अमृत-कलश की बूँदे वहाँ पर छलकीं उसके कारण वहाँ कुम्भ पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई। गरुड़ ने उस अमृत-कुम्भ के अन्तत: अपनी माँ के दासीत्व से मुक्त कराने के लिये कश्यप मुनि के पास तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न किया और सफल हुए।
तृतीय कथा:
तृतीय कथानुसार देवासुर संग्राम में चैदह रत्नों में अमृत-कलश निकलने पर धन्वन्तरि द्वारा देवताओं को देने, विष्णु द्वारा मोहिनी रुप धारण करके देवताओं को अमृत पान कराने, राहु द्वारा अमृत पान करने, इन्द्र-पुत्र जयन्त द्वारा अमृत-कुम्भ छीनकर भागने, जैसी कथाओं से सम्बद्ध है। उसकी रक्षा का भार सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति और शनि को सौंपा गया था। जयन्त द्वारा ले जाये जाते हुए उस अमृत-कुम्भ को चार स्थलों पर रखने और उन-उन स्थलों पर अमृत की बूँदे गिरने के कारण कुम्भपर्व मनाये जाने की परम्परा प्रारम्भ हुई। अमृत-कुम्भ की उक्त कथाओं में यही तीसरी कथा ही सबसे प्रमुख मानी गई है।
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतु:स्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।
शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा अभिप्राय:
भारतीय संस्कृति में धार्मिक आस्था और विश्वास का सर्वोत्तम पर्व कुम्भ मेला, महापर्व के रुप में न केवल भारत भूमि अपितु समूचे विश्व में सुविख्यात माना जाता है। यही एक ऐसा महापर्व है, जिसमें भारत के कुम्भ प्रधान पवित्र तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु भक्त पधारकर यहाँ पर एक साथ पूरे देश की समन्वित संस्कृति, विश्व बन्धुत्व की सद्भावना और जन सामान्य की अपार आस्था का अवलोकन करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार कुम्भ के अनेक अभिप्राय प्रतिपादित किये गये हैं-
शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर तात्पर्य:
शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर कुम्भ से अभिप्राय है- ''कुं भूमिं कुत्सितं वा उम्भति पूरयत, कुम्भ का अर्थ है घड़ा, जलपात्र या करवा। कुभि पूरणे धातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य- ''कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजातम् निर्वंतयति इति कुम्भ:, अर्थात जो अमृतमय जल से पूर्ण करता है, जो क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं। यह पर्व मनुष्य की सांसारिक बाधाओं को दूर करता हुआ, उसके जीवन-घट को ज्ञानामृत से परिपूर्ण कर देता है। इसीलिये इसे कुम्भ नाम से अभिहित किया गया है। कुम्भ- ''कुत्सितं उम्भयति दूरयति जगाद्धितायेति कुम्भ: जगत् कल्याण के लिए दुष्प्रवृत्तियों को ज्ञानामृत द्वारा दूर करने वाला यह पर्व कुम्भ कहलाता है। कुं- ''पृथ्वीम् भागयति दीपयति तेजोवर्द्धनेनेति कुम्भ:, समस्त पृथ्वी को अपने प्रभाव से प्रकाशित करने वाले पर्व को कुम्भ कहा जाता है।
ज्योतिश शास्त्र में अर्थ:
ज्योतिश शास्त्र में ''कुम्भ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहला तो ग्यारहवीं राशि को ''कुम्भ नाम से जाना जाता है और दूसरा चन्द्रमा को सूर्य के साथ एक ही राशि में स्थित होने पर ''कुम्भ या ''घट कहा गया है। ''सिद्धान्त शिरोमणि नामक ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने चन्द्रमा को घट रूप में अभिहीत किया है-
तरणि किरण संगादेवपीयूषपिण्डो,
दिनकर दिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति।
तदितरदिशि बालाकुन्तलश्यामलश्री,
घट इव निज मूर्तिच्छाययेवातपस्थ:।।
उपर्युक्त में चन्द्रमा को अमृत पिण्ड के रूप में अभिहित किया गया है। जब चन्द्रमा रूपी अमृत पिण्ड सूर्य के सामने की दिशा अर्थात सूर्य से सातवें घर में स्थित होता है, तब वह ज्योतिष्मान होता हुआ किरणों से उद्भासित होता है, किन्तु जब वह सूर्य के साथ स्थित हो जाता है तो ज्योतिरहित काले घट के रूप मे दृष्टिगत होता है। अमृत पिण्ड की यह घटवत स्थिति ही बृहस्पति के शुभ प्रभावों से प्रभावित होकर कुम्भ पर्व का योग उपस्थित करती है। स्मृति ग्रन्थों में भी कहा गया है-
सूर्येन्दुगरूसंयोगस्तद्राराशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो अतिनान्यथा।।
इसका तात्पर्य यह है कि राशि में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति के स्थित होने पर यह अमृत-कुम्भ रूपी चन्द्र पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक जैसे कुम्भ प्रधान तीर्थस्थलों में अपने शुभ प्रभाव रूपी अमृत की वृष्टि करता है। उसी की पिपासा में उक्त स्थलों पर दिक्-दिगन्त से साधु, सन्त, महात्मा, भक्त और श्रद्वालु जन एकत्रित होकर पुण्य अर्जित करने हेतु इस महापर्व का संकीर्तन करते हैं।
अन्य पौराणिक तथ्य:
* हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुम्भ से छलकी हुई बूँदों के कारण कुम्भ जैसे महापर्व को मनाये जाने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
तस्यत्कुम्भात्समुत्क्षिप्त सुधाबिन्दुर्महीतले।
यत्रयत्रात्यतत्तत्र कुम्भपर्व प्रकल्पितम्।।
* अमृत-कुम्भ की रक्षा में संलग्न चन्द्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने कहीं जयन्त अकेले ही सम्पूर्ण अमृत पान न कर ले। इस तरह से उस कुम्भ की रक्षा की।
चन्द्र: प्रस्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटना दधौ।
दैत्येभ्यष्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।
* हरिद्वार में कुम्भ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह कुम्भ का महापर्व माना जाता है-
कुम्भ राशि गते जीवे यद्विदने मेषगो रवि:।
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्।।
* शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार विद्वानों का मत है कि सनातन, सनक, सनन्दन और सनत्कुमार जैसे महागणों की मण्डली बारह वर्षों के बाद हरिद्वार आदि तीर्थों में पधारा करती है, जिसके दर्शन हेतु साधु, सन्त, महात्मा और श्रद्धालु सामान्य भक्तजन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करने वाले योगियों की अवधि भी बारह वर्षों की बतायी गयी है। इन्हीं वर्षों के फलस्वरुप कुम्भ जैसे पर्व का समागम होता है-
देवानां द्वादशैर्भिमत्र्यैद्वादशवत्सरै:।
जायन्ते कुम्भ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।
* गंगाजी का नाम लेने मात्र से ही समस्त पापों का विनाश हो जाता है। दर्शन करने पर कल्याण होता है, स्नान और जलपान करने पर मनुष्य की सात पीढिय़ों का उद्धार हो जाता है-
न गंगा सदृशं तीर्थं न देव: केशवात्पर:।
ब्राह्यणेभ्य: परं नास्ति एवमाह पितामह:।।
यत्र गंगा महाराज स देशस्तत् तपोवनम्।
सिद्धिक्षेत्रं तज्ज्ञेय: गंगातीर समाश्रिम्।।
* आध्यात्मिक दृष्टि से कुम्भ महापर्व का महत्व ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त विस्तृत है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को आत्मा का और चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है। मन, आत्मा तथा ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुत: लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है। चार स्थलों पर लगने वाले कुम्भ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही सम्भव होती है।
* सिंहस्थ उज्जैन, मध्य प्रदेश का महान स्नान पर्व है। यह बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति ग्रह सिंह राशि पर स्थित रहता है, तब यह पर्व मनाया जाता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने गए हैं।

आय तो है पर बचत नहीं...

आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी व्यक्ति के पास कितनी धन संपत्ति होगी तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा आय का योग तथा नियमित साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अत: इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेश कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अत: चतुर्थेश या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अत: पंचमेश या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है।
अधिकतर देखने में आता है कि लोगों के आय में बाधा बनी रहती है, या फिर आय तो रही है, बचत नहीं हो पाती जिससे आय किसी काम का नहीं हो पाता। आय भाव एकादश भाव को कहते हैं व एकादश भाव में बैठे ग्रह को एकादशेश कहते हैं। धन भाव द्वितीय भाव को कहते हैं। आय हो लेकिन बचत न हो तब भी थोड़ी परेशानी रहती है। जितनी परेशानी आय न होने पर रहती है उतनी बचत न होने पर नहीं रहती।
जब आय भाव एकादश का स्वामी अष्टम भाव में हो तो आय के मामलों में बाधा का कारण बनता है। ऐसी स्थिती में एकादश भाव को बलवान किया जाए तो आय के क्षेत्र में बाधा दूर होती है।
षष्ट भाव का स्वामी अष्टम में हो तो कर्ज बढ़ता है व कर्ज जल्दी चूकता नहीं। ऐसी स्थिति किसी की पत्रिका में हो तो उन्हें कर्ज नहीं लेना चाहिए। लग्नेश षष्ट भाव में हो तो ऐसा जातक कर्ज लेता है। और यदि षष्टेश अष्टम में हो तो फिर कर्ज नहीं चूकता। और किसी कारण से कर्ज लेना पड़ जाए तो लग्न के स्वामी के रत्न को धारण करना चाहिए।

आक में है अनेकों गुण

भारत के लगभग सभी प्रांतों में पाया जाने वाला आक अनेक गुणों से भरपूर है। गरम और शुष्क स्थानों पर यह विशेष रूप से पाया जाता है। अक्सर इसे नदी-नालों की पटरियों तथा रेलवे लाइन के किनारे-किनारे उगा देखा जा सकता है। यह बहुतायत में पाया जाता है, क्योंकि पशु इसे नुकसान नहीं पहुंचाते।
आक एक झाड़ीनुमा पौधा है जिसकी ऊंचाई 5 से 8फीट होती है। इसके फूल जामनी-लाल बाहर से रूपहले होते हैं। आक के सभी अंग मोम जैसी सफेद परत से ढंके रहते हैं। इसके सभी अंगों से सफेद दूध जैसा तरल पदार्थ निकलता है। जिसे आक का दूध कहते हैं। आक प्राय: दो प्रकार का होता है लाल तथा सफेद। लाल आक आसानी से सब जगह पाया जाता है। यों तो यह पौधा वर्ष भर फलता-फूलता है। परन्तु सर्दियों के मौसम में यह विशेष रूप से बढ़ता है।
चोट-मोच, जोड़ों की सूजन (शोथ) में आक के दूध में नमक मिलाकर लगाना चाहिए। आक के दूध को हल्दी और तिल के साथ उबालकर मालिश करने से आयवात, त्वचा रोग, दाद, छाजन आदि ठीक होता है। आक की छाल के प्रयोग से पाचन संस्थान मजबूत होता है। अतिसार और आव होने की स्थिति में भी आक की छाल लाभदायक सिद्ध होती है। इससे रोगी को वमन की आशंका भी कम होती है। मरोड़ के दस्त होने पर आक के जड़ की छाल 200 ग्राम, जीरा तथा जवाखार 100-100 ग्राम और अफीम 50 ग्राम सबको महीन चूर्ण करके पानी के साथ गीला करके छोटी-छोटी गोलियां बना लें। रोगी को एक-एक गोली दिन में तीन बार दें इससे तुरन्त लाभ होगा।
त्वचीय रोगों के इलाज में आक विशेष रूप से उपयोगी होता है। लगभग सभी त्वचा रोगों में आक की छाल को पानी में घिसकर प्रभावित भाग पर लगाया जाता है। यदि त्वचा पर खुजली अधिक हो तो छाल को नीम के तेल में घिसकर लगाया जा सकता है। श्वेत कुष्ठ में भी इसके प्रयोग से फायदा मिलता है। आक के सूखे पत्तों का चूर्ण श्वेत कुष्ठ प्रभावित स्थानों पर लगाने से तुरन्त लाभ मिलता है। इस चूर्ण को किसी तेल या मलहम में मिलाकर भी लगाया जा सकता है।
आक के पत्तों का चूर्ण लगाने से पुराने से पुराना घाव भी ठीक हो जाता है। कांटा, फांस आदि चुभने पर आक के पत्ते में तेल चुपड़कर उसे गर्म करके बांधते हैं। जीर्ण ज्वर के इलाज के लिए आक को कुचलकर लगभग बारह घंटे गर्म पानी में भिगो दे, इसके बाद इसे खूब रगड़-रगड़ कर कपड़े से छान कर इसका सेवन करें इससे शीघ्र फायदा पहुंचता है। मलेरिया के बुखार में इसकी छाल पान से खिलाते हैं। किसी गुम चोट पर मोच के इलाज के लिए आक के पत्ते को सरसों के तेल में पकाकर उससे मालिश करनी चाहिए।
कान और कनपटी में गांठ निकलने एवं सूजन होने पर आक के पत्ते पर चिकनाई लगाकर हल्का गर्म करके बांधते हैं। कान में दर्द हो तो आक के सूखे पत्ते पर घी लगाकर, आग पर सेंककर उसका रस निकालकर ठंडा कर कान में एक बूंद डालें।
खांसी होने पर आक के फूलों को राब में उबालकर सेवन करने से आराम पहुंचता है। दमे के उपचार के लिए तो आक एक रामबाण औषधि है। आक के पीले पड़े पत्ते लेकर चूना तथा नमक बराबर मात्रा में लेकर, पानी में घोलकर उसके पत्तों पर लेप करें। इन पत्तों को धूप में सुखाकर मिट्टी की हांड़ी में बंद करके उपलों की आग में रखकर भस्म बना लें। इस भस्म की दो-दो ग्राम मात्रा का दिन में दो बार सेवन करने से दमे में आश्चर्यजनक लाभ होता है। इस दवा के सेवन के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि रोगी दही तथा खटाई का सेवन नहीं करे।
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व्यक्ति का मनोबल

शरीर बल और शस्त्र बल से ऊंचा कोई बल हो सकता है तो वह मनोबल ही है। जिस प्रकार बिना पसीने का पैसा स्थाई नहीं होता, इसी प्रकार बाधाओं का मुकाबला किए बिना लक्ष्य को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिस्थितियां जीवन को बिगाड़ती ही नहीं, बनाती भी हैं। ज्योतिष गणना अनुसार मनोबल को व्यक्ति की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अत: किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की पूरी परछाई उसके तीसरे स्थान अर्थात उसके मनोबल पर करता है।
समूह के सदस्यों में बहुधा कार्य करने की इच्छा पाई जाती है जो समूह आकर्षण द्वारा संसक्ति और इस विश्वास द्वारा होती है कि उनके संयुक्त प्रयास, समूह के लक्ष्य में योगदान करेंगे। इसी विश्वास और आशा की भावना को मनोबल कहा जाता है। समूह मनोबल व्यक्तियों या सदस्यों के निजी मनोबल का सयुक्त रूप है। मुख्य रूप में यह संसक्ति का प्रतिफल होता है। मनोबल समूह के प्रति उतरदायित्व की भावना है जो सामान्य समाज द्वारा खतरे में भी पड़ सकता है। मनोबल समूह की एकता, कार्य स्तर, संगठन एवं सामूहिक भावना का परिचायक है। मनोबल उच्च होने पर समूह के सदस्य समूह के प्रति, समूह के नेतृत्व के प्रति तथा समूह लक्ष्यों के प्रति धनात्मक प्रवृति रखते हैं। जब कोई अकेला व्यक्ति किसी शुभ काम में लगता है तब परिस्थितियां उसका पीछा करती हैं। वे व्यक्ति को इस प्रकार झकझोर देती हैं कि एक बार तो वह निराश हो जाता है और उसका साहस टूट जाता है। उनका प्रहार इतना निर्मम होता है कि व्यक्ति स्वयं को असहाय-सा अनुभव करता है। परिस्थितियां बाहरी हो सकती हैं और आंतरिक भी। दोनों प्रकार की परिस्थितियां व्यक्ति को इतना कायर बना देती हैं कि वह पलायन की बात सोचने लगता है। वह परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देता है और मौत तक का वरण स्वीकार कर लेता है। किंतु मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि कसौटी के ये क्षण दृढ़ मनोबल से गुजारने के होते हैं।
शरीर बल और शस्त्र बल से ऊंचा कोई बल हो सकता है तो वह मनोबल ही है। जिस प्रकार बिना पसीने का पैसा स्थाई नहीं होता, इसी प्रकार बाधाओं का मुकाबला किए बिना लक्ष्य को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिस्थितियां जीवन को बिगाड़ती ही नहीं, बनाती भी हैं।
अत: हर परिस्थिति का हर कीमत पर मुकाबला कर लक्ष्योन्मुख बनना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गतिशील रहने से एक दिन सारी परिस्थितियां स्वयं समाप्त हो जाती हैं। जब तक वे अवरोधक बनकर खड़ी हैं, पीछे हटने मात्र से समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। समग्र मनोबल और परिपूर्ण निष्ठा बटोर कर बाधाओं को निरस्त करने वाला व्यक्ति ही मंजिल तक पहुंच सकता है।
फिसलन के समय भी फिसलन न हो, विकृति के हेतु उपस्थित होने पर भी जो विकृत न हो, वही धीर है। ऐसा व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति को अपनी साधना का अंग मानकर सहन करता है। इसका परिणाम सुंदर और सुखद आता है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में उसके तीसरे स्थान का स्वामी उच्च, मित्र राशि अथवा वर्गोत्तम हो तो ऐसे जातक में गजब का मनोबल होता है। उसके विपरीत अगर इन ग्रहों का कारक नीचस्थ हो जाये, शत्रु अथवा अधिशत्रु से आक्रांत हो या पाप स्थानों पर हो या क्रूर ग्रहों के प्रभाव में हो जाये तो मनोबल को कमजोर कर देता है।
बाह्य कारकों की निर्थरकता- आशावादिता और मनोबल के धनात्मक संबंधों में बहुधा यह माना जाता है की कार्य परिस्थिति से बाहर कठिनाइयों या ऋणात्मक भाव, मनोबल को न्यून करता है। क्षेत्र अध्ययनों से प्रदर्शित होता है कि मनोबल कार्य परिस्थिति से बाहर होने की अपेक्षा, इस पर अधिक निर्भर करता है की प्रयोज्य कार्य परिस्थिति के विषय में क्या विचार रखता है। अर्थात कार्य में आने वाली कठिनाइयां, कार्य स्थिति से बाहर की कठिनाइयों की अपेक्षा मनोबल को अधिक प्रभावित करती है। मनोबल को प्रभावित करने वाले कारकों में तीसरे स्थान के ग्रह अथवा तीसरे स्थान पर उपस्थित ग्रह अथवा तीसरे स्थान में दृष्टि रखने वाले ग्रह विशेष तौर उल्लेखनीय हैं। यदि तीसरे स्थान पर गुरू हो तो ऐसा व्यक्ति सात्विक प्रवृत्ति का बुद्धिमान व्यक्ति होता है। किंतु यही ग्रह यदि राहु-मंगल जैसे क्रूर ग्रहों के साथ हो जाये तो बुद्धिमानी में कुटिलता भी आ जाती है। इस प्रकार व्यक्ति की कुंडली के तीसरे स्थान का विश£ेषण कर भाव-मनोभाव के साथ मनोबल का विश£ेषण किया जा सकता है।
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