पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज -
वात, पित्त, कफ का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलित होना चाहिए। वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है। आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त, यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है और यहीं शारीरिक व्याधियाॅ आती हैं। जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला और कौशल्य है।
विशेष रूप से कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में तथा वात नाभि के नीचे वाले भाग में रहता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर, युवा अवस्था में पित्त का असर व आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन तथा मुक्ति का साधन है।
पश्यमौषध सेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदप्टास्य नान्यानुष्ठित कर्नणा॥
पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य प्राप्त करते देखा गया है न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्मों से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में अग्नि कारक नक्षत्र से पित्त, जल कारक नक्षत्र से कफ एवं वायु कारक नक्षत्र से वात रोग होते हैं। इसी प्रकार किसी का तृतीय, पंचम या दसम भाव या भावेश विपरीत कारक हो तो उसे पित्त, लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी या इन स्थानों का प्रतिकूल होना कफ एवं चतुर्थ, अष्टम या दसम का विपरीत होना अथवा इन स्थानों पर शनि जैसे ग्रहों का होना वात प्रकृति का कारण बनता है। इसी प्रकार यदि लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान में राहु, शनि होतो वात या लग्न में राहु मंगल हो जाए तो वातपित्तज का कारण बनता है।
उपाय कहा भी गया है कि
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त नाश के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कुंडली में ग्रहों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त करना हो तो सबसे पहले मन को ठीक करना चाहिए। जिसके लिए मंत्रों का जाप तथा ग्रह शांति, इसके अलावा चिकित्सकीय अनुदान प्राप्त करने से जीवन में संतुलन प्राप्त कर स्वस्थ्य रहा जा सकता है।
वात, पित्त, कफ का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलित होना चाहिए। वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है। आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त, यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है और यहीं शारीरिक व्याधियाॅ आती हैं। जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला और कौशल्य है।
विशेष रूप से कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में तथा वात नाभि के नीचे वाले भाग में रहता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर, युवा अवस्था में पित्त का असर व आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन तथा मुक्ति का साधन है।
पश्यमौषध सेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदप्टास्य नान्यानुष्ठित कर्नणा॥
पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य प्राप्त करते देखा गया है न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्मों से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में अग्नि कारक नक्षत्र से पित्त, जल कारक नक्षत्र से कफ एवं वायु कारक नक्षत्र से वात रोग होते हैं। इसी प्रकार किसी का तृतीय, पंचम या दसम भाव या भावेश विपरीत कारक हो तो उसे पित्त, लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी या इन स्थानों का प्रतिकूल होना कफ एवं चतुर्थ, अष्टम या दसम का विपरीत होना अथवा इन स्थानों पर शनि जैसे ग्रहों का होना वात प्रकृति का कारण बनता है। इसी प्रकार यदि लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान में राहु, शनि होतो वात या लग्न में राहु मंगल हो जाए तो वातपित्तज का कारण बनता है।
उपाय कहा भी गया है कि
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त नाश के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कुंडली में ग्रहों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त करना हो तो सबसे पहले मन को ठीक करना चाहिए। जिसके लिए मंत्रों का जाप तथा ग्रह शांति, इसके अलावा चिकित्सकीय अनुदान प्राप्त करने से जीवन में संतुलन प्राप्त कर स्वस्थ्य रहा जा सकता है।
Pt.P.S.Tripathi
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