Tuesday, 6 October 2015

शनि व्रत कथा विधान

काफी समय पहले समस्त प्राणियों का हित चाहने वाले मुनियों ने वन में एक सभा की । उस सभा में व्यासजी के शिष्य श्री सूतजी अपने शिष्यों के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए आए। समस्त शास्वी के ज्ञाता श्री सूतजी को आया देखकर महातेजस्वी शौनकादि मुनि उठ खडे हुए और श्री सूतजी को प्रणाम किया । श्री सुतजी मुनियों द्वारा दिए गए आसन पर बैठ गए । शौनक आदि मुनियों ने श्री सूतजी से विनयपूर्वक पूछा-हे मुनि । इस काल में हरि भक्ति किस प्रकार से होगी हैं सभी प्राणी पाप करने में तत्पर होंगे और उनकी आयु कम होगी । ग्रह कष्ट, धन रहित और अनेक पीड़ायुक्त मनुष्य होंगे । है सूतजी ! पुण्य अति परिश्रम से होता है । इस कारण कलियुग में कोई भी मनुष्य पुण्य नहीं करेगा । पुण्य के नष्ट होने से मनुष्यों की प्रकृति पापमय होगी । इस काश्या तुच्छ विचार बाले मनुष्य अपने वंशा सहित नष्ट हो जाएंगे । हे सूतजी । इसलिए थोड़े परिश्रम, थोड़े धन और थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो, ऐसा कोई उपाय हम लोगों को बताइए । जिस उद्देश्य से मनुष्य पुण्य और पाप करता है, उसके पुण्य और पाप का वही मनुष्य भागी होता है-यह शास्यों का निर्णय है । है सूतजी ! जो मनुष्य रत्नरूपी ज्ञान से दूसरों को संतुष्ट करते हैं, उनको मनुष्य रूप धारण किए श्रीहरि ही जानना चाहिए । है मुने ! कोई ऐसा व्रत बताएं जिसे करने से शनि द्वारा प्रदत कष्ट मनुष्यों को न भोगने पडें और शनिदेव प्रसन्न हो जाएं । है मुने । शनि के कारण जो घोर कष्ट मनुष्यों को उठाने पड़ते हैं, उनसे बचने के उपायों को सुनने की हमारी इच्छा है ।
श्री सूतजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ । तुम धन्य हो, तुन्हीं वैष्णवों में अग्रगण्य हो क्योंकि सब प्राणियों का हित चाहते हो । मैं आपको उत्तम व्रत बताता हूँ ध्यान देकर सुनें । इसे करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं और शनि ग्रह के कष्ट प्राप्त नहीं होते । महाभारत की घटना है-युधिष्ठिर आदि पांडव वनवास में अनेक कष्ट भोग रहे थे । उस समय उनके प्रिय सखा श्रीकृष्णा उनके पास पहुंचे । धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णा को देखकर उनका आदर-सत्कार किया और सुंदर आसन पर बैठाया । श्रीकृष्ण बोले-हे युधिष्ठिर ! कुशलपूर्वक तो हो ।
युधिष्ठिर ने कहा-हाँ प्रभो! आपकी कृपा है । आप कोई ऐसा व्रत बताएं जिसे करने से शनि ग्रह का कष्ट न हो, इससे छुटकारा मिले ।
श्रीकृष्णा बोले-राज़न ! आपने बहुत सुन्दर बात पूछी है । मैं आपको एक उत्तम व्रत बताता हूँ सुनो । जो मनुष्य भक्ति और श्रद्धायुवत्त होकर शनिवार के दिन शनिदेव तथा भगवान शंकर का पूजन एवं व्रत करते हैं, उन्हें शनि की ग्रह दशा में कोई विशेष कष्ट नहीं होता । उनको निर्धनता नहीं सताती । वे इस लोक में अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में शिवलोक को प्राप्त होते हैं । युधिष्ठिर बोले-हे प्रभु । सबसे पहले यह व्रत किसने किया था । कृपा करके इसे विस्तारपूर्वक कहें और इसकी विधि भी बताएं ।
भगवान श्रीकृष्णा बोले-राजन ! शनिवार के दिन विशेषकर श्रावण मास में लौह निर्मित शनि प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर अनेक प्रकार के गंध, अष्टांग, धूप, फल एवं उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करें । शनि के दस नागों का उच्चारणा करें । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा तथा नीले वस्त्र का दान कों । फिर भगवान शंकर का विधिपूर्वक पूजन कों । आरती करके प्रार्थना करें-हे भोलेनाथ ! में आपकी शरण में हूँ आप मेरे ऊपर कृपा करें । मेरी रक्षा करें । है युधिष्ठिर ! पहले शनिवार क्रो उड़द का भात, दुसरे शनिवार को खीर, तीसरे शनिवार को खजला और चौथे शनिवार को पूरियों का भोग लगाएं। व्रत की समाधि पर यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराएं । इस प्रकार व्रत करने से सब प्रकार के अनिष्ट, कष्ट एवं अधि-व्याधियों का सर्वाधा नाश होता है । राहु, केतु तथा शनि कृत दोष दूर होते हैं ।
अनेक प्रकार के सुंख-साधन एवं पुत्र-पौत्रादि का सुख प्रात होता है ।
भगवान श्रीकृष्णा आगे बोले-हे युधिष्ठिर ! सबसे पूर्व जिसने इस व्रत को किया था, उसका इतिहास भी सुनो । पूर्वकाल में विदर्भ देश में एक राजा राज्य करता था । उसने अपने शत्रुओं को अपने वश में कर लिया । दैव रोग से राजा और राजकुमार पर शनि की दशा आई । राजा और रानी को उसके शत्रुओं ने मार दिया । राजकुमार बेसहारा हो गया । राजगुरु को भी उन लोगों ने मार दिया । उसकी विधवा ब्राह्मणी तथा उसका लड़का शुचिव्रत रह गया । ब्राह्मणी ने राजकुमार धर्मगुरु को अपने साथ ले लिया और नगर को छोड़कर चल पडी । वह गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारों का बहुत कठिनाई रने निर्वाह कर पाती थी । कभी किसी नगर और कभी किसी नगर में दोनों कुमारों को लिए घूमती रहती थी ।
एक दिन वह ब्राह्मणी दोनों कुमारों को लिए एक नगर से दूसरे नगर जा रहीं थी कि उसे मार्ग में मुनि शांडिल्य के दर्शन हुए । ब्राह्मणी ने दोनों बालकों के साथ मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली-हे महर्षि ! मै आज आपके दर्शन-करके कृतार्थ हो गई । यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण में हैं, आप इनकी रक्षा करें । मुनिवर ! यह शुचिव्रत्त मेरा पुत्र है और यह धर्मगुस राजपुत्र है तथा मेरा धर्मपुत्र है । हम घोर दारिद्रद्य में हैं, आप हमारा उद्धार कीजिए ।
मुनि शांडिल्य ने ब्राह्मणी की सब बात सुनी और बोले-हे देवि ! तुम्हारे ऊपर शनि का प्रकोप है, अत: शनिवार के दिन शनिदेव का व्रत और पूजन करके भोलेशंकर की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।
ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम करके शिव मंदिर के लिए चल दिए । मुनि के उपदेश के अनुसार दोनों कुमारों ने ब्राह्मणी सहित शनिवार का व्रत किया तथा भगवान शिव का पूजन-अर्चन किया | दोनों कुमारों और ब्राह्मणी को यह व्रत करते-करते चार भास व्यतीत हो गए ।
एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिए गया । उसके साथ धर्मगुप्त नहीं था । कीचड़ में उसे एक बड़ा-सा कलश दिखाई दिया । शुचिव्रत ने उसको उठाकर देखा तो उसमें धन था । वह उस कलश को घर ले आया और मां से बोला-हे मां! शिवजी का प्रसाद देख, भोलेशंकर ने इस कलश के रूप में धन दिया है । उसकी माता ने आदेश दिया-की ! तुम दोनों इसको बांट लो । माँ का वचन सुनकर शुचिव्रत बहुत प्रसन्न हुआ और धर्मगुप्त से बोला-भैया । अपना हिस्सा ले लो । परंतु शंकरजी की पूजा में विश्वासी धर्मगुप्त ने कहा-माँ ! मैं हिस्सा लेना नहीं चाहता, क्योंकि मनुष्य अपने सुकृत से जो कुछ भी पता है, वह उसी का भाग है और उसे स्वयं ही भोगना चाहिए । शिवजी मुझ पर भी कभी कृपा करेंगे ।
धर्मगुप्त प्रेम और भक्ति के साथ शनिदेव का व्रत करके शिवजी का पूजन करने लगा । इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया । बसंत ऋतु का अश्यामन हुआ । राजकुमार धर्मगुरु तथा ब्रह्मण पुत्र शुचिव्रत वन में घूमने के लिए गए । दोनों वन में घूमते-घूमते काफी दू निकल गए । उनको वहाँ सैकडों गंधर्व कन्याएं खेलती हुई मिली । शुचिव्रत बोला-भैया । पवित्र पुरुष स्त्रियों के बीच में नहीं जाते । ये मनुष्य को शीघ्र ही मोह लेती हैं । विशेष रूप से ब्रह्मचारी को स्त्रियों से संभाषण करना और मिलना नहीं चाहिए । परंतु धर्मगुप्त नहीं माना । वह गंधर्व कन्याओं का खेल देखने उनके खेल के स्थान पेर अकेला चला गया ।
उन गंधर्व कन्याओं में से एक प्रधान सुंदरी राजकुमार धर्मगुप्त को देखकर उस पर मोहित हो गई और अपनी सखियों से बोली-यहीं से थोडी दूरी पर एक सुंदर वन है, उसमें नाना प्रकार के फूल खिले हैं । तुम सब वहां जाकर उन सुंदर फूलों को तोड़ आओ, तब तक में यहीं पर बैठी हूं। सखियां उस गंधर्व कन्या की आज्ञा पाकर चली गई और वह सुंदर गंधर्व कन्या राजकुमार पर दृष्टि लगाकर बैठ गई । राजकुमार उसके पास चला आया । राजकुमार को देखकर गंधर्व कन्या ने उसे बैठने के लिए पल्लवों का आसन दिया । राजकुमार आसन पर बैठ गया । गंधर्व कन्या ने उससे पूछा- आप कौन हैं, किस देश के रहने बाले हैं तथा आपका आगमन यहाँ कैसे हुआ है?
राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-व विदर्भ देश के राजा का पुत्र हूं। मेरा नाम धर्मगुप्त है । मेरे माता-पिता स्वर्ग लोग सिधार गए । शत्रुओँ ने मेरा राज्य ले लिया है, मैं राजगुप्त की पत्नी के साथ रहता हूँ। वह मेरी धर्म की माँ हैं । फिर राजकुमार ने उस गंधर्व कन्या से पूछा आप कौन हैं, किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहीं पर आगमन हुआ है ?
गंधर्व कन्या ने कहा-मै विद्रविक नामक गंदर्वराज की पुत्री हूँ। मेरा नाम अंशुमति है । आपको देख आपसे बात करने की इच्छा हुई । इसी कारण में सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूं। गंधर्व कहते हैं कि मेंरे जैसा संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है । भगवान शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिए आपको यहाँ भेजा है । अब मेरा और आपका प्रेम कभी न टूटे । यह बहाकर गंधर्व कन्या ने अपने गले से मोतियों का हार उतारकर राजकुमार के गले में डाल दिया ।
इस पर राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-मेरे पास न राज है और न धन । आप मेरी भार्या केसे बनेगी? आपके पिता हैं लेकिन आपने उनकी आज्ञा नहीं ली ।
गंधर्व कन्या राजकुमार से बोली--- अब आप अपने घर जाएं, परसों प्रात:काल यहीं आएँ आपकी आवश्यकता होगी । यह कहकर गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के पास चली गई । राजकुमार धर्मगुरु शुचिव्रत के पास चला आया और उसे संपूर्ण वृतांत कह सुनाया ।
तीसरे दिन राजकुमार धर्मगुप्त शुचिव्रत को साथ लेकर उसी वन में गया । उसने देखा कि गंदार्वराज विद्रविक उस कन्या के साथ उपस्थित हैं । गंधर्वराज ने दोनों कुमारों को अभिवादन किया और उन्हें सुंदर आसन पर बैठाकर राजकुमार से कहा-मै परसों कैलास पर्वत पर गौरीशंकर का दर्शन करने के लिए गया था ।वहां करुणा रूपी सुधा के सागर भोलेशंकर ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा-हे गंधर्वराज ! पृथ्वी पर धर्मगुप्त नाम का एक राजभ्रष्ट राजकुमार है । उसके परिवार के लोगों को शत्रुओं ने समाप्त कर दिया है । वह बालक मुनि शांडिल्य के कहने से शनिवार का व्रत करता है और सदा मेरी सेवा में लगा रहता है | तुम उसकी सहायता करो जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके
गौरीशंकर की आज्ञा क्रो शिरोधार्य करके मै अपने घर चला आया । वहीं मेरी पुत्री अंशुमति ने भी ऐसी ही प्रार्थना मुझसे की। शिवशंकर की आज्ञा तथा अंशुमति के मन की बात जानकर इसको इस वन में लाया हूँ ।मै इसे आपको सौंपता हूँ । मै आपके शत्रुओं को परास्त करके आपका राज्य दिला दूंगा । यह कहकर गंधर्वराज ने अपनी कन्या अंशुमति का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त के साथ कर दिया तथा अंशुमती की सहेली की शादी ब्रह्मण पुत्र शुचिव्रत के साथ कर दी । तत्पश्चात गंधर्वराज ने राजकुमार की सहायता के लिए गंघवों की चतुरंगिणी सेना उसके हवाले कर दी । धर्मगुप्त के शत्रुओं ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने राजकुमार की अधीनता स्वीकार कर ली और राजकुमार का राज्य लौटा दिया । धर्मगुपत सिंहासन पर बैठा उसने अपने धर्मभाई शुचिव्रत को मंत्री नियुक्त किया ।
जिस ब्राह्मणी ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे राजमाता बनाया | शनिवार व्रत के प्रभाव और शिवजी की कृपा से धर्मगुप्त विदर्भराज हुआ ।यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्णा छोले-हे पाडुनंदन | यदि आप भी यह व्रत करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी । आपके बुरे दिनों की शीघ्र समाप्ति हो जाएगी ।युधिष्ठिर ने शनिवार व्रत-कथा सुनकर भगवान श्रीकृष्णा की पूजा की और व्रत आरंभ कर दिया । इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने महाभारत में विजय प्राप्त करके राज्य प्राप्त किया और स्वर्ग की प्राति की |

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