मल्हार
बिलासपुर से 40 किमी दूर है। यह मस्तूरी ब्लॉक से 15 किलोमीटर दूर
बिलासपुर-रायगढ़ मार्ग पर स्थित है। इसके अलावा यह सरवपुर के रूप में जाना
जाता है। यह एक बार छत्तीसगढ़ की राजधानी बन चुकी है। यह अपने पुरातात्विक
स्थलों के लिए जाना जाता है। पटेलेश्वर मंदिर, देवरी मंदिर और दिंदेश्वरी
मंदिर 10 वीं और 11 वीं सदी की मानी जातीं हैं। जैन धर्म के स्मारक भी इस
जगह से खुदाई में निकले। कुछ वेदों के विद्वानों के अनुसार पुराणों में
वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने यहीं किया था। इसके कारण उनका नाम
मलारि, मल्लाल प्रचलित हुआ। यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है।
यहां विष्णु के चार हाथ वाली मूर्ति पर्यटकों को आकर्षित करती है। ईसा पूर्व 1000 से कलचुरी राजवंश के प्राचीन अवशेष इस साइट में पाये गये है। पटलेश्वर केदार मंदिर आकर्षण का केंद्र है, जहां गोमुखी शिवलिंबग बनाया गया है। दिंदेश्वरी मंदिर मंदिर कलचुरी शासन के अंतर्गत आता है।
दयोर (देवरी) मंदिर में कुछ मंत्रमुग्ध करने वाली कलात्मक मूर्तियां हैं। मल्हार में एक संग्रहालय है, जिसकी देख-भाल सरकार करती है। इसमें प्राचीन मूर्तियों का एक अद्भुत संग्रह है। मल्हार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्वीकृत प्रसिद्ध पुरातात्विक शहरों में से एक है। चीनी इतिहासकार सूैंग भी यहां आए थे, जिस वजह से इस जगह को प्रमुखता दी गई है।
मल्हार के राजवंश:
आदिकाल में कोशाम्बी से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाला प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ, अमरकंटक, खरौद, मल्हार तथा सिरपुर से होकर जगन्नाथपुरी की ओर जाता था। इतिहासकारों के अनुसार यह एक महत्वपूर्ण शहर था। यहां से प्राप्त सिक्कों और अन्य अवशेषों से कई राजवंशों की झलक मिलती है।
सातवाहन शासकों की मुद्रा मल्हार उत्खनन से प्राप्त हुई है। रायगढ़ जिले से एक सातवाहन शासक आपीलक का सिक्का प्राप्त हुआ था। वेदिश्री के नाम की मृणमुद्रा यहां प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त सातवाहन कालीन कई अभिलेख गुंजी, किसरी, कोणा, मल्हार, सेमरसल, दुर्ग, आदि स्थलों से प्राप्त हुए है। मल्हार उत्खन्न से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में सुनियोजित नगर-निर्माण का प्रारंभ सातवाहन-काल में हुआ। इस काल के ईंट से बने भवन एवं ढप्पांकित मृद्भाण्ड यहाँ मिलते हैं। मल्हार के गढ़ी क्षेत्र में राजमहल एवं अन्य संभ्रांत जनों के आवास एवं कार्यालय रहे होंगे।
दक्षिण-कोसल याने छत्तीसगढ़ में कलचुरी-शासन के पहले दो प्रमुख राजवंशों का शासन रहा। वे हैं शरभपुरीय तथा सोमवंशी। इन दोनों वंशो का राज्यकाल लगभग 325 से 655 ई. के बीच का माना जाता है। धार्मिक तथा ललित कलाओं के क्षेत्र में यहां विशेष उन्नति हुई। इस दौरान इस क्षेत्र में ललित कला के पाँच मुख्य केन्द्र विकसीत हुए। मल्हार, ताला, खरौद, सिरपुर तथा राजिम।
केदारेश्वर/पातालेश्वर मंदिर का निर्माण:
कलचुरि वंश के 'कलिंगराज नामक राजा ने दक्षिण पूर्व की ओर अपने राज्य का विस्तार किया और बिलासपुर जिले में स्थित तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया। कलिंगराज के पश्चात् कमलराज, रत्नराज प्रथम तथा पृथ्वीदेव प्रथम क्रमश: कोसल शासक हुए। मल्हार पर सर्वप्रथम कलचुरि-वंश का शासन जाजल्लदेव प्रथम के समय में स्थापित हुआ। फिर पृथ्वीदेव और उसके पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय हुये। उसके समय में सोमराज नामक ब्राम्हण ने मल्हार में प्रसिद्व केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर अब पातालेश्वर मंदिर के नाम प्रसिध्द है।
मल्हार में विकसित कला-संस्कृति:
उत्तर भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के कारण मल्हार का महत्व बढ़ा। यह नगर धीरे-धीरे विकसित हुआ तथा वहाँ शैव, वैष्णव व जैन धर्मावलंबियों के मंदिरों, मठों व मूर्तियों का निर्माण बड़े स्तर पर हुआ। मल्हार में चतुर्भुज विष्णु की एक अद्वितीय प्रतिलिपी मिली है। उस पर मौर्यकालीन ब्राम्हीलीपि लेख अंकित है। मल्हार तथा उसके समीपतवर्ती क्षेत्र से विशेषत: शैव मंदिर के अवशेष मिले साथ ही कार्तिकेय, गणेश, अर्धनारिश्वर आदि की उल्लेखनीय मूर्तियां यहां प्राप्त हुई है। एक शिलापलट पर कच्छप जातक की कथा अंकित है। शिला पलट पर सूखे तालाब से एक कछुए को उड़ाकश जलाशय की ओर ले जाते हुए दो हंस बने है। दूसरी कथा उलूक-जातक की है। इसमें उल्लू को पक्षियों का राजा बनाने के लिए उसे सिंहासन पर बिठाया गया है।
सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में गुप्तयुगीन विशेषताएं स्पष्ट परिलक्षित है। मल्हार में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं मल्हार में मिली है। उत्खनन में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। उत्खन्न में बौध्द देवता हेवज का मंदिर मिला है। इससे ज्ञात होता है कि छठवीं सदी के पश्चात यहाँ तांत्रिक बौध्द धर्म का विकास हुआ। जैन तीर्थंकरों, यक्ष-यक्षिणियों, विशेषत: अंबिका की प्रतिमांए भी यहां मिली हैं ।
विगत वर्षो में हुए उत्खननों से मल्हार की संस्कृति का क्रम इस प्रकार उभरा है।
१. प्रथम काल- ईसा पूर्व लगभग 1000 से मौर्य काल के पूर्व तक।
२. द्वितीय काल- मौर्य-सातवाहन-कुषाण काल (ई.पू. 325 से ई. 300 तक)
३. तृतीय काल- शरभपुरीय तथा सोमवंशी काल (ई. 300 से ई. 650 तक)
४. चतुर्थ काल- परवर्ती सोमवंशी काल (ई. 650 से ई. 900 तक )
५. पंचम काल- कलचुरि काल (ई. 900 से ई. 1300 तक )
कैसे पहुंचे:
वायु मार्ग- रायपुर ( 148कि. मी. ) निकटतम हवाई अड्डा है जो मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापटनम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर (32 कि.मी.) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग- बिलासपुर शहर से निजी वाहन अथवा नियमित परिवहन बसों द्वारा मस्तूरी होकर मल्हार तक सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है।
आवास व्यवस्था- मल्हार में लोक निर्माण विभाग का दो कमरों से युक्त विश्राम गुह है। बिलासपूर नगर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिये उपलब्ध हैं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
feel free to ask any questions
यहां विष्णु के चार हाथ वाली मूर्ति पर्यटकों को आकर्षित करती है। ईसा पूर्व 1000 से कलचुरी राजवंश के प्राचीन अवशेष इस साइट में पाये गये है। पटलेश्वर केदार मंदिर आकर्षण का केंद्र है, जहां गोमुखी शिवलिंबग बनाया गया है। दिंदेश्वरी मंदिर मंदिर कलचुरी शासन के अंतर्गत आता है।
दयोर (देवरी) मंदिर में कुछ मंत्रमुग्ध करने वाली कलात्मक मूर्तियां हैं। मल्हार में एक संग्रहालय है, जिसकी देख-भाल सरकार करती है। इसमें प्राचीन मूर्तियों का एक अद्भुत संग्रह है। मल्हार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्वीकृत प्रसिद्ध पुरातात्विक शहरों में से एक है। चीनी इतिहासकार सूैंग भी यहां आए थे, जिस वजह से इस जगह को प्रमुखता दी गई है।
मल्हार के राजवंश:
आदिकाल में कोशाम्बी से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाला प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ, अमरकंटक, खरौद, मल्हार तथा सिरपुर से होकर जगन्नाथपुरी की ओर जाता था। इतिहासकारों के अनुसार यह एक महत्वपूर्ण शहर था। यहां से प्राप्त सिक्कों और अन्य अवशेषों से कई राजवंशों की झलक मिलती है।
सातवाहन शासकों की मुद्रा मल्हार उत्खनन से प्राप्त हुई है। रायगढ़ जिले से एक सातवाहन शासक आपीलक का सिक्का प्राप्त हुआ था। वेदिश्री के नाम की मृणमुद्रा यहां प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त सातवाहन कालीन कई अभिलेख गुंजी, किसरी, कोणा, मल्हार, सेमरसल, दुर्ग, आदि स्थलों से प्राप्त हुए है। मल्हार उत्खन्न से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में सुनियोजित नगर-निर्माण का प्रारंभ सातवाहन-काल में हुआ। इस काल के ईंट से बने भवन एवं ढप्पांकित मृद्भाण्ड यहाँ मिलते हैं। मल्हार के गढ़ी क्षेत्र में राजमहल एवं अन्य संभ्रांत जनों के आवास एवं कार्यालय रहे होंगे।
दक्षिण-कोसल याने छत्तीसगढ़ में कलचुरी-शासन के पहले दो प्रमुख राजवंशों का शासन रहा। वे हैं शरभपुरीय तथा सोमवंशी। इन दोनों वंशो का राज्यकाल लगभग 325 से 655 ई. के बीच का माना जाता है। धार्मिक तथा ललित कलाओं के क्षेत्र में यहां विशेष उन्नति हुई। इस दौरान इस क्षेत्र में ललित कला के पाँच मुख्य केन्द्र विकसीत हुए। मल्हार, ताला, खरौद, सिरपुर तथा राजिम।
केदारेश्वर/पातालेश्वर मंदिर का निर्माण:
कलचुरि वंश के 'कलिंगराज नामक राजा ने दक्षिण पूर्व की ओर अपने राज्य का विस्तार किया और बिलासपुर जिले में स्थित तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया। कलिंगराज के पश्चात् कमलराज, रत्नराज प्रथम तथा पृथ्वीदेव प्रथम क्रमश: कोसल शासक हुए। मल्हार पर सर्वप्रथम कलचुरि-वंश का शासन जाजल्लदेव प्रथम के समय में स्थापित हुआ। फिर पृथ्वीदेव और उसके पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय हुये। उसके समय में सोमराज नामक ब्राम्हण ने मल्हार में प्रसिद्व केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर अब पातालेश्वर मंदिर के नाम प्रसिध्द है।
मल्हार में विकसित कला-संस्कृति:
उत्तर भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के कारण मल्हार का महत्व बढ़ा। यह नगर धीरे-धीरे विकसित हुआ तथा वहाँ शैव, वैष्णव व जैन धर्मावलंबियों के मंदिरों, मठों व मूर्तियों का निर्माण बड़े स्तर पर हुआ। मल्हार में चतुर्भुज विष्णु की एक अद्वितीय प्रतिलिपी मिली है। उस पर मौर्यकालीन ब्राम्हीलीपि लेख अंकित है। मल्हार तथा उसके समीपतवर्ती क्षेत्र से विशेषत: शैव मंदिर के अवशेष मिले साथ ही कार्तिकेय, गणेश, अर्धनारिश्वर आदि की उल्लेखनीय मूर्तियां यहां प्राप्त हुई है। एक शिलापलट पर कच्छप जातक की कथा अंकित है। शिला पलट पर सूखे तालाब से एक कछुए को उड़ाकश जलाशय की ओर ले जाते हुए दो हंस बने है। दूसरी कथा उलूक-जातक की है। इसमें उल्लू को पक्षियों का राजा बनाने के लिए उसे सिंहासन पर बिठाया गया है।
सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में गुप्तयुगीन विशेषताएं स्पष्ट परिलक्षित है। मल्हार में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं मल्हार में मिली है। उत्खनन में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। उत्खन्न में बौध्द देवता हेवज का मंदिर मिला है। इससे ज्ञात होता है कि छठवीं सदी के पश्चात यहाँ तांत्रिक बौध्द धर्म का विकास हुआ। जैन तीर्थंकरों, यक्ष-यक्षिणियों, विशेषत: अंबिका की प्रतिमांए भी यहां मिली हैं ।
विगत वर्षो में हुए उत्खननों से मल्हार की संस्कृति का क्रम इस प्रकार उभरा है।
१. प्रथम काल- ईसा पूर्व लगभग 1000 से मौर्य काल के पूर्व तक।
२. द्वितीय काल- मौर्य-सातवाहन-कुषाण काल (ई.पू. 325 से ई. 300 तक)
३. तृतीय काल- शरभपुरीय तथा सोमवंशी काल (ई. 300 से ई. 650 तक)
४. चतुर्थ काल- परवर्ती सोमवंशी काल (ई. 650 से ई. 900 तक )
५. पंचम काल- कलचुरि काल (ई. 900 से ई. 1300 तक )
कैसे पहुंचे:
वायु मार्ग- रायपुर ( 148कि. मी. ) निकटतम हवाई अड्डा है जो मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापटनम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर (32 कि.मी.) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग- बिलासपुर शहर से निजी वाहन अथवा नियमित परिवहन बसों द्वारा मस्तूरी होकर मल्हार तक सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है।
आवास व्यवस्था- मल्हार में लोक निर्माण विभाग का दो कमरों से युक्त विश्राम गुह है। बिलासपूर नगर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिये उपलब्ध हैं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
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