कुण्डली में तीन तत्त्व मिलते हैं।
1. भाव
2. राशि
3. ग्रह
जातक दशान्तर्दशा का अध्ययन करना चाहता है तो हम यह मान कर चलते हैं, कि जातक भाव व राशि के तत्वों को जानता है। दशान्तर्दशा ग्रहों की होती है। इसलिए हम दशान्तर्दशा का ही मुख्यतः अध्ययन करेंगे।
ग्रह शुभाशुभ
सामान्यतया ग्रह दो प्रकार के फल देते हैं शुभ या अशुभ। जो ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ फल देते हैं उन्हें शुभ ग्रह कहते हैं और जो ग्रह नैसर्गिक रूप से अशुभ फल देते हंै उन्हें अशुभ ग्रह कहते हैं। हमें शुभ व अशुभ को भी समझना होगा। शुभ वह है जिससे मन प्रसन्न होता है। अशुभ वह है जिससे मन दुःखी होता है। मानो मैं अपनी लड़की का विवाह कर रहा हूँ। इसमें मेरा व्यय हो रहा है, परन्तु मैं प्रसन्न हूँ। मुझे व्यय करने के बाद भी खुशी प्राप्त हो रही है, इसलिये यह समय मेरे लिए शुभ है।
दूसरी ओर मेरे पिता जी की मृत्यु हो गई परन्तु इन्स्योरेन्स से दस लाख रुपये मिले। धन आ रहा है परन्तु मन दुःखी है इसलिये यह समय अशुभ है। पाराशरी नियमों के अनुसार ग्रह का शुभ या अशुभ होना मन की प्रसन्नता या दुःखी होने पर निर्भर करता है। ग्रहों में गुरु व शुक्र नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह है। पक्ष बल में बली चन्द्रमा व शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट बुध भी शुभ होता है।चंद्रमा शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक पूर्ण बली रहता है। इस चंद्रमा को शुभ ग्रह माना जाता है। कृष्ण पक्ष की एकादशी से शुक्ल पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा निर्बल रहता है। इस निर्बल चंद्रमा को अशुभ चंद्रमा कहते हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी से दशमी तक तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी से दशमी तक चंद्रमा मध्यम बली रहता है। इसे मध्यम बली चंद्रमा कहते हैं तथा यह मिश्रित फल देता है। नीच चंद्रमा अर्थात् वृश्चिक राशि में चंद्रमा अशुभ नहीं कहलाता है।
सूर्य, मंगल, शनि, राहु, एवं केतु ये पांचों ग्रह उत्तरोत्तर बली पाप ग्रह कहलाते हैं। इनके अलावा निर्बल चंद्रमा तथा अशुभ युक्त या दृष्ट बुध भी अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आते हैं।
ग्रहों की अवस्थाएँ
महर्षि पाराशर ने ग्रहों की मात्रात्मक फल देने की क्षमता का अनुमान लगाने के लिये विभिन्न अवस्थाएं बतलाई हैं। मुख्यतः ये हैं:
1.दीप्तादि अवस्थाएँ
2.बालादि अवस्थाएँ
3.जग्रितादि अवस्थाएँ
दीप्तादि अवस्थाएँ
यह नौ अवस्थाएं होती हैं। ग्रह जब अपनी 1. उच्च राशि में स्थित होता है तो दीप्त 2. स्वराशि में स्थित हो तो स्वस्थ 3. अतिमित्र की राशि में स्थित हो तो मुदित 4. मित्र की राशि में स्थित हो तो शान्त 5. सम ग्रह की राशि में स्थित हो तो दीन 6. शत्रु ग्रह की राशि में स्थित हो तो दुःखी 7. पाप ग्रह के साथ हो तो विकल 8. अति पाप ग्रह की राशि में स्थित हो तो खल एवं 9. सूर्य के साथ स्थित हो तो कोपी होता है।
दीप्त ग्रह की दशान्तदशा में राज्य लाभ, अधिकार प्राप्त, धन, वाहन, स्त्री, पुत्रादि का लाभ व आदर सत्कार व राज्य सम्मान प्राप्त होता है।
स्वस्थ अर्थात स्वक्षेत्री ग्रह की दशान्तर्दशा से स्वास्थ्य लाभ, धन, सुख, विद्या, यश, स्त्री, वाहन, भूमि आदि का लाभ होता है।
मुदिवस्था(अधिमित्र की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में वस्त्र, आभूषण, पुत्र, धन, वाहन आदि का लाभ होता है।
शंतावस्था (मित्रराशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में सुख, धर्म, भूमि, पुत्र, स्त्री, वाहन, सम्मान प्राप्त होता है।
दीनावस्था (सम ग्रह की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में स्थान परिवर्तन, बंधुओं से विरोध, निन्दित, हीन स्वभाव, मित्र साथ छोड़ देते हैं, रोग आदि होने की सम्भावना होती है।
दुखावस्था(शत्रुक्षेत्री) ग्रह की दशान्तर्दशा में जातक को कष्ट प्राप्त होते हैं। विदेश यात्रा, चोरी, अग्नि या रोगादि से धन हानि होती है।
विकलावस्था (पापयुक्त ग्रह) की दशान्तर्दशा में मन में हीन भावना, मित्रों की मृत्यु, परिवार जनों की मृत्यु, स्त्री, पुत्र, वाहन, भूमि, वस्त्रादि की हानि होती है।
(अति पाप ग्रह की राशि में स्थित) ग्रह की दशान्तर्दशा में कलह, वियोग (बन्धु,माता या पिता आदि की मृत्यु) शत्रुओं से पराजय, धन, भूमि, वाहन की हानि होती है।
कोपीअवस्था (सूर्य से अस्त) ग्रह की दशान्तर्दशा में अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। विद्या, धन, भूमि, वाहन, पुत्र, स्त्री, बन्धुओं से पीड़ा होती है।
बालादि अवस्थाएँ
दीप्तादि अवस्था में ग्रह की राशि में स्थिति के अनुसार फल मिलेगा। बालादि अवस्था में हम ग्रह के अंशों के अनुसार फल कथन करते हैं। 6 0 -6 0 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में यदि ग्रह के अंश-
0 0 -6 0 तक को बालावस्था, 6 0 से 12 0 अंश तक को कुमार अवस्था, 12 0 से 18 0 अंश तक युवावस्था, 18 0 से 24 0 अंश तक वृद्धावस्था, 24 0 से 30 0 अंश तक मृतावस्था होती है।
इसी प्रकार सम राशियों में ग्रह यदि 0 0 -6 0 अंश तक को मृतावस्था, 6 0 से 12 0 अंश तक को वृद्धावस्था, 12 0 से 18 0 अंश तक को युवावस्था, 18 0 से 24 0 अंश तक को कुमारावस्था, 24 0 से 30 0 अंश तक को बालावस्था कहते है। बालावस्था में ग्रह का चैथाई फल, कुमारावस्था में आधा, युवावस्था मे पूरा, वृद्ध ावस्था में मामूली तथा मृतावस्था में शून्य फल प्राप्त होता है।
जागृतादि अवस्थाएँ
10 0 -10 0 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में 0 से 10 0 अंश तक जाग्रत 10 0 से 20 0 तक स्वप्न एवं 20 0 से 30 0 तक सुषुप्त अवस्था होती है।
सम राशियों में 0 से 10 0 अंश तक सुषुप्त, 10 0 से 20 0 अंश तक स्वप्न एवं 20 0 से 30 0 तक जागृत अवस्था होती है।
जागृत अवस्था में पूर्ण फल, स्वप्न में मध्यम तथा सुषुप्ति अवस्था में शून्य फल मिलता है।
इस प्रकार ग्रह का मात्रात्मक फल का विचार बृहत् पाराशर होरा शास्त्र में मिलता है। महर्षि पाराशर ने ग्रह का मात्रात्मक बल का विचार ग्रह भाव बल (षष्ठ बल) आदि से तथा षष्ठ वर्गीय बल से भी किया है। लिखने का अर्थ केवल इतना ही है कि ग्रह के बल का भी उतना ही महत्व है जितना किसी अन्य बल का। इसलिए फल कथन से पहले ग्रह की अवस्था तथा अंशों का ध्यान रखकर मात्रात्मक फल का अनुमान करना चाहिये क्योंकि दशान्तर्दशा के द्वारा दोनों तत्त्वांे का समावेश करके फल कथन करना चाहिये।
गुणात्मक बल
ग्रह शुभ फल देगा या अशुभ फल इसको गुणात्मक बल कहते हैं। गुणात्मक बल दो तरह से देखा जा सकता है।
ग्रह का नैसर्गिक शुभ या अशुभ फल
हम अच्छी तरह से नैसर्गिक शुभ व अशुभ ग्रहों को जानते हैं। बृहस्पति, शुक्र, पक्ष बली चंद्रमा तथा शुभ युक्त या दृष्ट बुध नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं।
तात्कालिक शुभ या अशुभ फल
प्रत्येक कुण्डली में कुछ भाव शुभ व कुछ अशुभ तथा कुछ सम होते हैं। शुभ भाव के स्वामी शुभ फल देते हैं। अशुभ भाव का स्वामी अशुभ फल देता है। सम भाव का स्वामी भाव में स्थित ग्रह या युति या दृष्टि या अपनी दूसरी राशि के अनुसार अपना फल देता है। इस नियम का प्रयोग हम विंशोत्तरी दशा में करते हैं। नैसर्गिक शुभ तथा अशुभ हम अन्य दशाओं में करते हैं।
"फलदीपिका" में भी महर्षि मन्त्रेश्वर ने दशान्तर्दशा के लिए पहले ग्रहों के नैसर्गिक शुभाशुभ फल का कथन किया है। बाद के श्लोकों में विंशोत्तरी दशा के लिए भावाधिपति के आधार पर फल कथन किया है। इसलिए सबसे पहले सूर्यादि ग्रहों का संक्षेप में नैसर्गिक फल के अनुसार उनकी दशाओं का अध्ययन करेंगे।
1. भाव
2. राशि
3. ग्रह
जातक दशान्तर्दशा का अध्ययन करना चाहता है तो हम यह मान कर चलते हैं, कि जातक भाव व राशि के तत्वों को जानता है। दशान्तर्दशा ग्रहों की होती है। इसलिए हम दशान्तर्दशा का ही मुख्यतः अध्ययन करेंगे।
ग्रह शुभाशुभ
सामान्यतया ग्रह दो प्रकार के फल देते हैं शुभ या अशुभ। जो ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ फल देते हैं उन्हें शुभ ग्रह कहते हैं और जो ग्रह नैसर्गिक रूप से अशुभ फल देते हंै उन्हें अशुभ ग्रह कहते हैं। हमें शुभ व अशुभ को भी समझना होगा। शुभ वह है जिससे मन प्रसन्न होता है। अशुभ वह है जिससे मन दुःखी होता है। मानो मैं अपनी लड़की का विवाह कर रहा हूँ। इसमें मेरा व्यय हो रहा है, परन्तु मैं प्रसन्न हूँ। मुझे व्यय करने के बाद भी खुशी प्राप्त हो रही है, इसलिये यह समय मेरे लिए शुभ है।
दूसरी ओर मेरे पिता जी की मृत्यु हो गई परन्तु इन्स्योरेन्स से दस लाख रुपये मिले। धन आ रहा है परन्तु मन दुःखी है इसलिये यह समय अशुभ है। पाराशरी नियमों के अनुसार ग्रह का शुभ या अशुभ होना मन की प्रसन्नता या दुःखी होने पर निर्भर करता है। ग्रहों में गुरु व शुक्र नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह है। पक्ष बल में बली चन्द्रमा व शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट बुध भी शुभ होता है।चंद्रमा शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक पूर्ण बली रहता है। इस चंद्रमा को शुभ ग्रह माना जाता है। कृष्ण पक्ष की एकादशी से शुक्ल पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा निर्बल रहता है। इस निर्बल चंद्रमा को अशुभ चंद्रमा कहते हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी से दशमी तक तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी से दशमी तक चंद्रमा मध्यम बली रहता है। इसे मध्यम बली चंद्रमा कहते हैं तथा यह मिश्रित फल देता है। नीच चंद्रमा अर्थात् वृश्चिक राशि में चंद्रमा अशुभ नहीं कहलाता है।
सूर्य, मंगल, शनि, राहु, एवं केतु ये पांचों ग्रह उत्तरोत्तर बली पाप ग्रह कहलाते हैं। इनके अलावा निर्बल चंद्रमा तथा अशुभ युक्त या दृष्ट बुध भी अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आते हैं।
ग्रहों की अवस्थाएँ
महर्षि पाराशर ने ग्रहों की मात्रात्मक फल देने की क्षमता का अनुमान लगाने के लिये विभिन्न अवस्थाएं बतलाई हैं। मुख्यतः ये हैं:
1.दीप्तादि अवस्थाएँ
2.बालादि अवस्थाएँ
3.जग्रितादि अवस्थाएँ
दीप्तादि अवस्थाएँ
यह नौ अवस्थाएं होती हैं। ग्रह जब अपनी 1. उच्च राशि में स्थित होता है तो दीप्त 2. स्वराशि में स्थित हो तो स्वस्थ 3. अतिमित्र की राशि में स्थित हो तो मुदित 4. मित्र की राशि में स्थित हो तो शान्त 5. सम ग्रह की राशि में स्थित हो तो दीन 6. शत्रु ग्रह की राशि में स्थित हो तो दुःखी 7. पाप ग्रह के साथ हो तो विकल 8. अति पाप ग्रह की राशि में स्थित हो तो खल एवं 9. सूर्य के साथ स्थित हो तो कोपी होता है।
दीप्त ग्रह की दशान्तदशा में राज्य लाभ, अधिकार प्राप्त, धन, वाहन, स्त्री, पुत्रादि का लाभ व आदर सत्कार व राज्य सम्मान प्राप्त होता है।
स्वस्थ अर्थात स्वक्षेत्री ग्रह की दशान्तर्दशा से स्वास्थ्य लाभ, धन, सुख, विद्या, यश, स्त्री, वाहन, भूमि आदि का लाभ होता है।
मुदिवस्था(अधिमित्र की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में वस्त्र, आभूषण, पुत्र, धन, वाहन आदि का लाभ होता है।
शंतावस्था (मित्रराशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में सुख, धर्म, भूमि, पुत्र, स्त्री, वाहन, सम्मान प्राप्त होता है।
दीनावस्था (सम ग्रह की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में स्थान परिवर्तन, बंधुओं से विरोध, निन्दित, हीन स्वभाव, मित्र साथ छोड़ देते हैं, रोग आदि होने की सम्भावना होती है।
दुखावस्था(शत्रुक्षेत्री) ग्रह की दशान्तर्दशा में जातक को कष्ट प्राप्त होते हैं। विदेश यात्रा, चोरी, अग्नि या रोगादि से धन हानि होती है।
विकलावस्था (पापयुक्त ग्रह) की दशान्तर्दशा में मन में हीन भावना, मित्रों की मृत्यु, परिवार जनों की मृत्यु, स्त्री, पुत्र, वाहन, भूमि, वस्त्रादि की हानि होती है।
(अति पाप ग्रह की राशि में स्थित) ग्रह की दशान्तर्दशा में कलह, वियोग (बन्धु,माता या पिता आदि की मृत्यु) शत्रुओं से पराजय, धन, भूमि, वाहन की हानि होती है।
कोपीअवस्था (सूर्य से अस्त) ग्रह की दशान्तर्दशा में अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। विद्या, धन, भूमि, वाहन, पुत्र, स्त्री, बन्धुओं से पीड़ा होती है।
बालादि अवस्थाएँ
दीप्तादि अवस्था में ग्रह की राशि में स्थिति के अनुसार फल मिलेगा। बालादि अवस्था में हम ग्रह के अंशों के अनुसार फल कथन करते हैं। 6 0 -6 0 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में यदि ग्रह के अंश-
0 0 -6 0 तक को बालावस्था, 6 0 से 12 0 अंश तक को कुमार अवस्था, 12 0 से 18 0 अंश तक युवावस्था, 18 0 से 24 0 अंश तक वृद्धावस्था, 24 0 से 30 0 अंश तक मृतावस्था होती है।
इसी प्रकार सम राशियों में ग्रह यदि 0 0 -6 0 अंश तक को मृतावस्था, 6 0 से 12 0 अंश तक को वृद्धावस्था, 12 0 से 18 0 अंश तक को युवावस्था, 18 0 से 24 0 अंश तक को कुमारावस्था, 24 0 से 30 0 अंश तक को बालावस्था कहते है। बालावस्था में ग्रह का चैथाई फल, कुमारावस्था में आधा, युवावस्था मे पूरा, वृद्ध ावस्था में मामूली तथा मृतावस्था में शून्य फल प्राप्त होता है।
जागृतादि अवस्थाएँ
10 0 -10 0 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में 0 से 10 0 अंश तक जाग्रत 10 0 से 20 0 तक स्वप्न एवं 20 0 से 30 0 तक सुषुप्त अवस्था होती है।
सम राशियों में 0 से 10 0 अंश तक सुषुप्त, 10 0 से 20 0 अंश तक स्वप्न एवं 20 0 से 30 0 तक जागृत अवस्था होती है।
जागृत अवस्था में पूर्ण फल, स्वप्न में मध्यम तथा सुषुप्ति अवस्था में शून्य फल मिलता है।
इस प्रकार ग्रह का मात्रात्मक फल का विचार बृहत् पाराशर होरा शास्त्र में मिलता है। महर्षि पाराशर ने ग्रह का मात्रात्मक बल का विचार ग्रह भाव बल (षष्ठ बल) आदि से तथा षष्ठ वर्गीय बल से भी किया है। लिखने का अर्थ केवल इतना ही है कि ग्रह के बल का भी उतना ही महत्व है जितना किसी अन्य बल का। इसलिए फल कथन से पहले ग्रह की अवस्था तथा अंशों का ध्यान रखकर मात्रात्मक फल का अनुमान करना चाहिये क्योंकि दशान्तर्दशा के द्वारा दोनों तत्त्वांे का समावेश करके फल कथन करना चाहिये।
गुणात्मक बल
ग्रह शुभ फल देगा या अशुभ फल इसको गुणात्मक बल कहते हैं। गुणात्मक बल दो तरह से देखा जा सकता है।
ग्रह का नैसर्गिक शुभ या अशुभ फल
हम अच्छी तरह से नैसर्गिक शुभ व अशुभ ग्रहों को जानते हैं। बृहस्पति, शुक्र, पक्ष बली चंद्रमा तथा शुभ युक्त या दृष्ट बुध नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं।
तात्कालिक शुभ या अशुभ फल
प्रत्येक कुण्डली में कुछ भाव शुभ व कुछ अशुभ तथा कुछ सम होते हैं। शुभ भाव के स्वामी शुभ फल देते हैं। अशुभ भाव का स्वामी अशुभ फल देता है। सम भाव का स्वामी भाव में स्थित ग्रह या युति या दृष्टि या अपनी दूसरी राशि के अनुसार अपना फल देता है। इस नियम का प्रयोग हम विंशोत्तरी दशा में करते हैं। नैसर्गिक शुभ तथा अशुभ हम अन्य दशाओं में करते हैं।
"फलदीपिका" में भी महर्षि मन्त्रेश्वर ने दशान्तर्दशा के लिए पहले ग्रहों के नैसर्गिक शुभाशुभ फल का कथन किया है। बाद के श्लोकों में विंशोत्तरी दशा के लिए भावाधिपति के आधार पर फल कथन किया है। इसलिए सबसे पहले सूर्यादि ग्रहों का संक्षेप में नैसर्गिक फल के अनुसार उनकी दशाओं का अध्ययन करेंगे।
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