शिव की शरण लेने से परम पद की प्राप्ति होती है- शिवा भूत्वा शिव यजेत् अर्थात् शिव बनकर ही शिव का पूजन करें। सुनने में यह बड़ा विचित्र सा लगता है, किंतु यह ईश्वर की अभेद उपासना है। वस्तुतः सख्य भाव नवधा भक्तियों में प्रमुख है। सखा भक्ति में मैत्री भाव से ईश्वर की उपासना की जाती है। श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों मित्र हैं क्योंकि समान गुण वाले व्यक्ति ही मित्र होते हैं, विरोधी स्वभाव वाले नहीं। इसलिए कहा जाता में आने वाले व्यवधान, कष्ट आदि रूपी विष को चुप चाप पी लें- इसी में हमारा और दूसरों का कल्याण निहित है। सत्यम् शिवम् सुन्दरम्- शिव शब्द आनंद का बोधक है। जब हमारा मन शिव संकल्प से युक्त होता है तो हमें सारा संसार सुंदर दिखाई देता है। हमारे तन की कुरूपता ओझल होने लगती है और हमारे नेत्रों से, वाणी से आरै कर्म से सौंदर्य झलकने लगता है तब सारा संसार शिवमय दिखाई देता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् के अध्याय 4 के 10 वें श्लोक में कहा गया है- मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।। प्रकृति को माया जानना चाहिए और महेश्वर को मायावादी। उसी के अवयवभूत (अंश) से यह संपूर्ण जगत् व्याप्त है अर्थात् संपूर्ण जगत् में शिव ही शिव समाया हुआ है। शिव महिम्न स्तोत्र में कहा गया है- हे शरद्! आप सब में व्याप्त है। आप ओंकार पद से ऋग, यजु, साम (तीनों वेदों), जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति (तीनों अवस्थाओं), स्वर्ग, मृत्यु, पाताल (तीनों लोकों) और ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र (तीनों देवताओं) आदि मायिक प्रपंचों (विकारों) को धारण किए हुए हैं। इनसे परे जो विकार रहित, विलक्षण और चैतन्य स्वरूप है, वही चैथा ‘तुरीय’ आपका पवित्र धाम है। ओंकार का चंद्र बिंदु, जिसे सूक्ष्म ध्वनि द्वारा इंगित किया जाता है, सभी जीव-आत्माओं के अंदर स्थित परम पिता ‘ओंकारेश्वर’ की जो शरण ग्रहण कर लेता है उसे यह तुरीय पद प्राप्त हो जाता है। शिव के परम धाम तुरीय को अधिक स्पष्ट करने के लिए माण्डूक्योपनिषद् के प्रथम आगम प्रकरण का 12 वां श्लोक यहां प्रस्तुत है। अमात्रश्चतुर्थो अव्यवहार्यः प्रपन्चोपशमः शिवोऽद्वैत। एवमोंकार आत्मैव संविशंत्यात्मनात्मानं य एवं वेद।। मात्रा रहित ओंकार तुरीय आत्मा ही है। वह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शांत, शिव और अद्वैत है, जो इसे इस प्रकार जानता है वह स्वतः अपनी आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है। शिव ज्येतिर्लिंग: बहुत से अज्ञानीजन शिवलिंग को भगवान शंकर की शारीरिक इन्द्रिय मानते हैं, जो गलत है। संस्कृत भाषा में लिंग का अर्थ होता है चिह्न या प्रतीक। शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग सभी प्राणियों के हृदय में महाज्योति के रूप में विद्यमान है, यही आत्मा है। ज्योतिर्लिंग ही निर्गुण निराकार ब्रह्म का प्रतीक है। गीता के अनुसार, ‘वह परमात्मा सूर्यादि ज्योतियों का भी ज्योति और अज्ञानरूपी अंधकार से परे कहा जाता है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य है तथा सबके हृदय में स्थित है’। सृष्टि के प्रारंभ में अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए भगवान शिव ही स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए।
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