संसार का कोई भी कार्य शक्ति के बिना संभव नहीं है चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जिस प्रकार साइकल चलाने के लिए व्यक्ति को शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार संसार के संचालन के लिए भी शक्ति आवश्यक है। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूपी सृष्टि चक्र का संचालन अवश्य ही किसी महाशक्ति के अधीन है। समूचे ब्रह्मांड का नियमन और संचालन करने वाली जो अदृश्य ऊर्जा है, सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र जिसके प्रकाश से प्रकाशित होते हैं तथा जिसकी ऊर्जा से ही सब गतिमान है, उस ऊर्जा-शक्ति को ही शास्त्रों में आद्याशक्ति/आदि शक्ति कहा गया है। यह शक्ति ब्रह्मरूप में ही सिद्ध है। वस्तुतः यह शक्ति निर्गुण-निराकार है, किंतु इस जड़- चैतन्य जगत में हमें जितने भी रूप (गुण) दिखाई देते हैं वे सब उसी शक्ति के स्वरूप हैं। तंत्रोक्त देवी सूक्त में कहा गया है- या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिताा। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः॥ अर्थात् जो देवी आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में तथा समस्त प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित है, उस जीवनदायिनी दैवी शक्ति को नमस्कार है, नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 125वें सूक्त में आदि शक्ति जगदंबा जी कहती हैं, ''मैं ब्रह्मांड की अधीश्वरी हूं, मैं ही सारे कर्मों का फल प्रदान करने वाली तथा ऐश्वर्य देने वाली हूं।'' स्वामी वनखण्डेश्वर महाराज ने इस संदर्भ में लिखा है कि जगदंबा ही इस चराचर जगत् की आधार है, वही सत्पुरुषों को सत्कर्म करने की शक्ति देती है। अव्यक्त होने पर भी वही शक्ति भक्तों की भावना के अनुरूप व्यक्त-स्वरूप को धारण करती है। महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, सीता, राधा, रुकमणी, अन्नपूर्णा, तारा, त्रिपुरसुंदरी व भुवनेश्वरी आदि अनेक रूप उसी आद्याशक्ति की अभिव्यक्तियां हैं। यह आदि शक्ति सनातन है, अनंत विश्व की मूलस्रोत है। इसी शक्ति की सहायता से ब्रह्माजी सृष्टि का सृजन, विष्णुजी पालन तथा इसी के सहारे शिव संसार का संहार करते हैं। महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली ही त्रिदेवों की शक्तियां हैं। ब्रह्म की शक्ति को ब्राह्मी, विष्णु शक्ति को वैष्णवी और शिव की शक्ति को शिवा कहते हैं। (या महेश की शक्ति को माहेशी कहते हैं।) श्रुतियों ने शक्तिमान् स्वरूप अद्वैततत्व का प्रतिपादन किया है। वही एक तत्व परम पुरुष और पराशक्ति रूप से (द्वैत) प्रतीत होता है, वस्तुतः शक्तिमान और उसकी शक्ति दोनों एक ही हैं, अभिन्न हैं। मां जगदंबा ही आद्या शक्ति है, उन्हीं से अखिल विश्व का संचालन होता है, उनके अतिरिक्त दूसरी कोई अविनाशी शक्ति नहीं है। भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य की प्राप्ति- प्रलयकाल में जब ईश्वर के जगत् रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है। तब ईश्वर रात्रि (महाप्रलय) की अधिष्ठात्री देवी 'भुवनेश्वरी' कहलाती है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी है। भुवनेश्वरी के सानिध्य से ही शिव को सर्वेश्वर होने की शक्ति प्राप्त होती है। भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीलाविलास (माया) की सहचरी है। इसकी पुष्टि श्वेताश्वतरोपनिषद् के उस मंत्र से होती है जिसमें कहा गया है कि 'प्रकृति को माया जालों और मायावी को महेश्वर।' तंत्रशास्त्र में कहा गया है- 'राज्यं तु भुवनेश्वरी' अर्थात् आदिशक्ति भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य, राज्य सम्मान, राजकीय या शासकीय पद, धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा दांपत्य सुख एवं सद्गुणी संतान की प्राप्ति हेतु भी भुवनेश्वरी की उपासना, आराधना विशेष फलप्रद कही गई है। जगदंबा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांति प्रातःकाल के सूर्योदय के समान है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की छटा छाई रहती है। उनके हाथों में पाश, अंकुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं। सब प्रकार के कल्याण के लिए श्री दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय का दसवें श्लोक का नवरात्रि के दिनों में सुबह शाम कम से कम एक माला जप करना चाहिए। इसके प्रभाव से आपकी इच्छाओं की शीघ्र पूर्ति होगी। सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥ श्री दुर्गा देवी का प्रादुर्भाव श्री देवी भागवत् पुराण के अनुसार 'मां दुर्गा के अवतरण का उद्देश्य है- श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा करना, वेदों को सुरक्षित रखना तथा दुष्टों का दलन (संहार) करना।' 'दुर्ग' नामक दैत्य का संहार करने के कारण भुवनेश्वरी का नाम 'दुर्गा' देवी हुआ। श्री दुर्गा देवी के प्रादुर्भाव की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है। दुर्गमासुर नामक एक दैत्य ने कठोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया तथा वरदान स्वरूप ब्रह्माजी से चारों वेदों को प्राप्त करके उन्हें बंदी बना लिया, विलुप्त कर दिया। इस कारण संसार में 'यज्ञ' आदि वैदिक कर्मों का लोप हो गया। जिससे वर्षा बंद हो गई और पृथ्वी पर अकाल पड़ने लगा। जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक बरसात नहीं हुई तथा जल का अभाव हो गया था। उस समय ऋषि मुनियों ने संतप्त होकर भगवती का स्मरण/स्तवन किया। तब अयोनिजारूप में शक्ति तत्काल प्रकट हुई। वे अपने हाथों में बाण, कमल, पुष्प तथा शाक-मूल लिए हुई थी। उन्होंने अपने सौ नेत्रों से मुनियों को देखा तथा मुनियों के दुख से संतप्त होकर, मां की आंखों से अश्रुजल की हजारों धाराएं बहने लगीं। उस जल से पृथ्वी के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों व नदियों में अगाध जल भर गया। जगदंबा ने शत नेत्रों से ऋषियों को देखा था इसलिए वे 'शताक्षी' कहलाई। उन्होंने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल से संसार का भरण-पोषण किया इस कारण वे 'शाकंभरी' नाम से विखयात हुईं। उसी समय 'शाकंभरी' देवी ने दुर्गमासुर से घनघोर युद्ध किया। दुर्गम नामक महादैत्य का वध करने के कारण वे दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध व आराधित हुईं। ऐश्वर्य च या शक्ति पराक्रम एव च। तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्ति प्रकीर्तिता॥ देवी भागवत के अनुसार 'श' का अर्थ ऐश्वर्य और 'क्ति' का अर्थ पराक्रम है। इस प्रकार जो ऐश्वर्य और पराक्रम का स्वरूप है तथा जिससे पराक्रम और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वही तीनों लोकों में शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। श्री दुर्गादेवी का स्वरूप (ध्यान) श्री दुर्गादेवी के तीन नेत्र है, उनके श्री अंगों की आभा बिजली के समान है। वे सिंह के कंधे पर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती है। हाथों में तलवार और ढाल लिए अनेक कन्याएं उनकी सेवा में खड़ी हैं। वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। अष्टभुजाओं वाली श्रीदुर्गा देवी का स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चंद्रमा का मुकुट धारण करती हैं। स्तुति मंत्र ऊँ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ संक्रामक रोगों/महामारी नाश के लिए इस मंत्र का जप करना चाहिए। श्री दुर्गा देवी की प्रसन्नता एवं कृपा प्राप्ति के लिए इस मंत्र के अलावा 'सप्तश्लोकी दुर्गा', 'श्री दुर्गा अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्' एवं 'दुर्गा द्वात्रिंशन्नाम माला स्तोत्र' का पाठ करना चाहिए। दुर्गा के 32 नामों का प्रतिदिन 108 बार जप करना चाहिए। ऐसा करने से कोर्ट केस (मुकदमा), शत्रुभय आदि घोर संकटों से शीघ्र मुक्त हो जाता है। क्योंकि दुर्गा दुर्गतिनाशिनी है। दुर्गा देवी का बीज मंत्र 'दुं' श्री दुर्गादेवी का बीजाक्षर है। दुर्गा देवी के दो बीज मंत्र निम्नवत् हैं। ऊँ दुं दुर्गायै नमः ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं दुं दुर्गायै नमः शुभ के मारे जाने के बाद देवताओं ने जब देवी की स्तुति की तो जगन्माता ने उन्हें आश्वासन और वरदान दिया। इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ देवी ने कहा, जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी। श्री दुर्गा अवतार के बाद हिमालय पर्वत पर भीमादेवी का अवतार भी हो चुका है। इसके पश्चात् अब भविष्य में जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचायेगा तब तीनों लोकों का हित करने के लिए छः पैरों वाले असंखय भ्रमरों का रूप धारण करके उसका वध करेंगे। ऐसा स्वयं मार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अंतर्गत देवी स्तुति नाम ग्यारहवें अध्याय में देव्युवाच के 52-53 वें श्लोक में कहा है। यदारुणाखयस्त्रैलोक्ये महाबाधा करिष्यति। तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंखयेयषट्पदम्। त्रैलोकस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्। भ्रामरीति च मां लोकस्तदा स्तोष्यंति सर्वतः। नवरात्रि और नव दुर्गा भारत में एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं। आषाढ़ और माघ की नवरात्रि गुप्त नवरात्रि कहलाती है। इन नवरात्रियों में तांत्रिक साधक गुप्त स्थानों पर तांत्रिक साधनाएं करते हैं। चैत्र का नवरात्र वासंतिक नवरात्र तथा आश्विन माह का नवरात्र शारदीय नवरात्र के नाम से जाना जाता है। नवरात्रों में दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए नवरात्र में आद्याशक्ति भगवती दुर्गा की उपासना/आराधना का विशेष महत्व है। 'नव शक्तिभि संयुक्त नवरात्रतदुच्यते।' अर्थात् शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ये नौ शक्तियां जिस समय एक महाशक्ति का रूप धारण करती हैं। उसे नवरात्र कहते हैं। इन्हीं नवशक्तियों को नवरात्र में जागृत किया जाता है। नवरात्र में जीवनी शक्ति का संचरण होता है। यह समय ऋतु परिवर्तन का होता है। आयुर्वेद के अनुसार इस समय शरीर की शुद्धि होती है। बढ़े हुए वात, पित्त, कफ का शमन करना चाहिए। शरद ऋतु के आश्विन माह में पड़ने वाली नवरात्रि चारों नवरात्रियों से बड़ी है। इसे वार्षिक नवरात्र की संज्ञा दी गई है। इस समय महापूजा का आयोजन किया जाता है। जैसा कि कहा गया है। 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।' आश्विन नवरात्र में ही विजया दशमी को अपराजिता देवी का पूजन किया जाता है। चैत्र नवरात्र में 'रामनवमी' पड़ती है। जबकि आश्विन में 'श्री दुर्गा नवमी' आती है। मुखय रूप से तीन महाशक्तियां हैं, महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती। इन तीनों को संयुक्त रूप से 'दुर्गा' कहा जाता है। ब्रह्मा जी के अनुसार जगदंबा के नौ स्वरूप हैं, जिन्हें 'नव दुर्गा' कहते हैं। नवरात्र में श्रीदुर्गा देवी के नौ स्वरूपों की क्रमशः आराधना की जाती है। प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥ पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता। उक्तन्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥ कुछ शास्त्रकारों की मान्यता है कि ये उपरोक्त नौ शक्तियां महासरस्वती के अंग से प्रकट हुई थीं, अतः वे उनकी ही नौ शक्तियां हैं। कतिपय विद्वानों के अनुसार अष्टभुजा धारी दुर्गा जी की पूजा करना हो तो उनके साथ इन नौ शक्तियों की भी पूजा करनी चाहिए। वे शक्तियां हैं- चामुण्डा, वाराही, ऐंद्री, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, नारसिंही, शिवदूती, ब्राह्मी। ये सभी माताएं सभी प्रकार की योग शक्तियों से संपन्न है।
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