किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा का योग अशुभ माना जाता है। भद्रा में मांगलिक कार्य का शुभारंभ या समापन दोनों ही अशुभ माने गये हैं। पुराणों के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव व देवी छाया की पुत्री व राजा शनि की बहन है। शनि की तरह ही इनका स्वभाव कड़क है। आचार्य श्रीपति ने कहा है कि जिस समय देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय को देखकर श्री शंकर भगवान को क्रोध उत्पन्न हो गया और उनकी दृष्टि हृदय पर पड़ जाने से एक शक्ति उत्पन्न हो गई जो गर्दभ (गधा) के से मुंह वाली, सात भुजा वाली, तीन पैर युक्त, लम्बी पूंछ और सिंह के समान गर्दन से युक्त, कृश पेट वाली थी। वह पे्रत पर सवार होकर दैत्यों (राक्षसों) का विनाश करने लगी। इससे प्रसन्न होकर देवताओं ने इसे अपने कानों के समीप में स्थापित किया अतः इसे करणों में गिना जाने लगा। इस प्रकार काले वर्ण, लम्बे केश, तथा बड़े दांत व भंयकर रुप वाली, सात हाथ वाली, दुबले पेट वाली, महादेव जी के शरीर से उत्पन्न होकर दैत्यों का विनाश करने वाली भद्रा का जन्म हुआ। पंचांग में भद्रा का महत्व हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं- तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण। करण तिथि का आधा भाग होता है। करण ग्यारह होते हैं। इसमें ७ करण चर व ४ करण स्थिर होते हैं। ७वें चर करण का नाम ही विष्टि या भद्रा है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि (भद्रा) चर करण हैं और स्थिर करण हैं - शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुध्न। भद्रा तीनों लोकों में घूमती है, मृत्युलोक, भू-लोक एवं स्वर्ग लोक। जब वह मृत्युलोक में होती है तो आवश्यक कार्यों में बाधक होती है। भद्रा के दोष का परिहार निम्नांकित चार स्थितियों में होता है- 1.स्वर्ग या पाताल में भद्रा का वास हो। 2.प्रतिकूल-काल वाली भद्रा हो। 3.दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा हो। 4.भद्रा का पुच्छ काल हो। 1. स्वर्ग या पाताल में भद्रावास:- जिस भद्रा के समय चन्द्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशियों में हो उस भद्रा का वास स्वर्ग में, जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशियों में हो उसका वास पाताल और जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ, मीन राशियों में हो उस भद्रा का वास भूमि पर माना जाता है। शास्त्रों का निर्णय है कि वही भद्रा दोषकारक है, जिसका भूमि पर वास हो। शेष (स्वर्ग या पाताल में वास करने वाली) भद्राओं का काल शुभ माना गया है। ‘‘भूलोकस्था सदा त्याज्या स्वर्ग-पातालगा शुभा।’’ इससे स्पष्ट है कि मेष, वृष, मिथुन, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु और मकर राशि में चन्द्रमा की स्थिति के समय घटित होने वाली (अर्थात् स्वर्ग-पातालवासी) भद्राएं शुभ होने से मंगल कार्यों के लिए शुभ हैं। स्पष्ट है, परिहार के इस नियम के अनुसार भद्रा का 67 प्रतिशत काल, जिसे हम अशुभ समझते हैं, मंगल कार्यों के लिए शुभ होता है। 2. प्रतिकूल-काल वाली भद्राः- तिथि के पूर्वार्द्ध में रहने वाली (यानी कृष्ण पक्ष की 7, 14 और शुक्ल पक्ष की 8, 15 तिथियों वाली) भद्राएं रात्रि की भद्राएं कहलाती हैं। यदि दिन की भद्रा रात्रि के समय और रात्रि की भद्रा दिन के समय आ जाए तो उसे ‘‘प्रतिकूल काल वाली भद्रा कहा जाता है। प्रतिकूल-काल वाली भद्रा को आचार्यों ने शुभ माना है- रात्रि भद्रा यदाऽह्नि स्याद् दिवा भद्रा यदा निशि। न तत्र भद्रादोषः स्यात् सा भद्रा भद्रदायिनी।। यदि ‘रात्रिभद्रा’ रात्रि के समय और ‘दिनभद्रा’ दिन के समय घटित हो तो उसे ‘अनुकूल काल वाली भद्रा’ कहा जाता है, ऐसी भद्रा को ही अशुभ माना गया है। 3. दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा:- जो भद्रा दिनार्द्ध (मध्याह्न) से पूर्ववर्ती काल में हो उसे अशुभ और जो उसके (मध्याह्न) के परवर्ती काल में हो, उसे शुभ माना गया है- विष्टिरंगारकश्चैव व्यतीपातश्च वैधृतिः। प्रत्यरि-जन्मनक्षत्रं मध्याह्नात् परतः शुभम्।। भद्रा को वार के अनुसार भी नाम दिये गये हैं। सोमवार एवं शुक्रवार की भद्रा हो तो कल्याणी, यदि शनिवार को भद्रा हो तो वृश्चिकी, गुरुवार को हो तो पुण्यवती, रविवार, मंगलवार और बुधवार को हो तो भद्रिका की संज्ञा दी गयी है। 4. भद्रा का पुच्छकाल: कश्यप संहिता अनुसार मुखे पंच गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः। नाभौ चतस्रः षट् कट्यां तिस्त्रः पुच्छाख्यनाडिकाः।। कार्यहानिः मुखे मृत्युर्गले वक्षासि निःस्वता। कट्यामुन्मत्तता नाभौ च्युतिः पुच्छे ध्रवो जयः।। अर्थात् भद्रा की 30 घड़ियों में से पहली पांच घड़ियां (कुल काल का षष्ठांश) उसका मुख, उसके बाद एक घड़ी गला, 11 घड़ियां वक्ष, 4 घड़ियां नाभि, 6 घड़ियां कमर और तीन घड़ियां (कुल काल का दशमांश) उसकी पुच्छ होती है। मुखकाल में कार्यहानि, कण्ठकाल में मृत्यु, वक्षकाल में निर्धनता, कटिकाल में पागलपन, नाभिकाल में पतन और पुच्छकाल में निश्चित विजय होती है। यदि भद्रा 30 घड़ी से अधिक की हो तो मुख व अन्य अंग भी षष्ठांश की गणनानुसार बड़े होंगे। सभी मुहूत्र्त ग्रन्थों में भद्रा के मुख काल को अशुभ और पुच्छ काल को शुभ लिखा गया है। भद्रा सर्पिणी की भांति अपना मुख पुच्छ की ओर करके रहती है। अर्थात जहां पुच्छ समाप्त होती है वहीं मुख प्रारंभ होता है लेकिन विभिन्न तिथियों में मुख का प्रारंभ काल अलग-अलग होता है। विभिन्न तिथियों वाली भद्राओं के मुख और पुच्छ का प्रारंभ काल, जो मुहूत्र्त संहिता ग्रन्थों में बतलाया गया है, उपरोक्त तालिका में वर्णित है। तालिकानुसार कृष्णपक्ष की तृतीया तिथि वाली भद्रा का मुख इस भद्रा के चैथे प्रहर के प्रारम्भ में इस भद्रा के षष्ठांश तुल्य समय तक और इसकी पुच्छ इसके तीसरे प्रहर के अन्त में इस भद्रा के दशमांश तुल्य समय तक रहेगी। सारांश -स्वर्ग और पातालवासी भद्राएं शुभ हैं, भूवासी नहीं। - भूवासी भद्रा भी शुभ हो जाती है, यदि वह प्रतिकूल काल वाली हो। - यदि भद्रा भूवासी है, वह प्रतिकूल काल वाली भी नहीं है, तब भी वह शुभ होगी, यदि वह दिनार्द्ध के बाद हो। - अत्यावश्यकता की स्थिति में भद्रा के मुखकाल को छोड़कर शेष भाग में शुभ कार्य किया जा सकता है। इस स्थिति में यदि हो सके तो पुच्छ काल को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कार्योंऽत्यावश्यके विष्टेः मुखमात्रं परित्यजेत्। - भद्रा के पुच्छकाल प्रत्येक स्थिति में शुभ हैं। जो व्यक्ति प्रातः काल भद्रा के १२ नामों का स्मरण करता हैं तो उसके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना। कालरात्रिर्महारुद्रा विष्टिस्च कुल पुत्रिका ।। भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयंकरी । द्वादशैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।। अर्थात् धन्या, दधि मुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारूद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुरक्षयंकारी द्वादश नाम प्रातः लेने से भद्रा शुभ फलदायी होती है।
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