Tuesday, 29 March 2016

तंत्रों मन्त्रों का इतिहास और महत्व

तंत्र वेदों में नहीं है, फिर भी उसके प्रभाव एवं प्रामाणिकता को नकारा नहीं जा सकता। हाथों में लगाई जाने वाली मेहंदी, आंगन द्वारों पर चित्रित की जाने वाली अल्पना, बालक के संध्या काल पैदा होने पर लगाए जाने वाले स्वास्तिक और डलिया की आकृति, दीपावली और अन्य त्योहारों पर सजाई गई रंगोली आदि तंत्र के प्रतीक हैं। शिव जी स्वयं तंत्र के देवता हैं। तंत्र की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाला तंत्र शास्त्र का प्रत्येक ग्रंथ शिव के उपदेश से ही प्रारंभ होता है। अतः कहा जा सकता है कि तंत्र शास्त्र को मानव तक पहुंचाने वाले स्वयं शिव ही हैं। इसीलिए वह तांत्रिकों के आदि देव हैं। समस्त भौतिक विस्तार और आध्यात्मिक अनंत तंत्र का विषय है। वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत में हैं। तंत्र साहित्य विस्मृति, विनाश और उपेक्षा का शिकार होता आ रहा है। तंत्र शास्त्र के अनेक गं्रथ नष्ट हो चुके हैं किसी ग्रंथ में तंत्र ग्रंथ के उल्लेख व उद्धरण से ही पता चलता है कि अमुक तंत्र ग्रंथ भी था। मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। आज प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 199 तंत्र ग्रंथ हैं। जिनमें अधिकांश अनुपलब्ध हैं। वाराही तंत्र का यह विवरण कि भारत में एक लाख तंत्र श्लोक हैं नौ लाख श्लोकों की संख्या से असत्य इसलिए नहीं होता कि मूलतः उन एक लाख श्लोकों का ही विस्तार उन नौ लाख श्लोकों में है। तंत्र का विस्तार ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईदेश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ऋगयुद कहा जाता है। समस्त ऋगयुद 78 भागों में है जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र ग्रंथों का अनुवाद हंै और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित हंै। बुद्ध के अवतार के बाद बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ तंत्रों को एक नया क्षेत्र मिला अर्थात तंत्र का लक्ष्य अब दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होने लगा। तत्वतः भारतीय तंत्र के मूल तत्व ही बौद्ध साधना का अंग बने प्रारांतर में यत्किंचित परिवर्तन हो गया। इस दृष्टि से बुद्ध स्वयं तांत्रिक थे। नौवीं से ग्यारहवीं सदी तक बौद्ध-तंत्रों का ही चीनी और तिब्बती भाषा में अनुवाद होता रहा। इन तंत्र ग्रंथों में गुह्य क्रियाकांड, उपदेश, स्तोत्र, कवच, मंत्र और पूजा विधि का वर्णन किया गया है। भारतीय तंत्र शिवोक्त हैं और बौद्ध तंत्र बुद्धोक्त। भूटान में अतीश का नाम बहुत प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वह बंगाली थे। ग्यारहवीं शताब्दी में उन्होंने तिब्बत और भूटान जैसे देशों में तंत्र का प्रचार किया। असल में गौड़ और बंग देश ही तंत्र का केंद्र थे। गुजराती में लिखे ‘‘आगम प्रकाश’’ में उल्लेख है कि अहमदाबाद, पावागढ़, पाटन और डवोई नगरों में देवी मंदिरों का निर्माण एवं प्राण प्रतिष्ठा बंगालियों द्वारा की गई। राजस्थान में कई देवी मंदिर हैं जिनमें बंगाली ही पूजक हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में आदिशक्ति की उपासना गौरी, गायत्री और लक्ष्मी के रूप में की जाती है। लक्ष्मी और गौरी, क्रमशः विष्णु और शिव की अर्धांगिनी होने के कारण पूज्य हैं। स्वतंत्र शक्ति के रूप में केवल वेदमाता गायत्री का रूप ही पूज्य है। वैष्णव संप्रदाय की साधना विधि में भी कर्मकांड है, पर वह तांत्रिक विधि जैसी नहीं है। गंभीरता से देखने पर सारे संप्रदायों और वादों का समाहार तंत्र की पूर्व पीठिका में ही हो जाता है। यहां तक कि योग जैसा विषय भी तंत्र का अंग बन जाता है। तांत्रिक विधि से आत्म साधन करने वाले को ज्ञान भी चाहिए, कर्म भी चाहिए और भक्ति भी। योग इन सबसे जुड़ा हुआ है। शंकर के पूर्ववर्ती बौद्ध भी तंत्र के प्रभाव में आ चुके थे। बुद्ध की घुंघराले बालों वाली प्रतिमा विशुद्ध रूप से तांत्रिक परिकल्पना है। बालों की घुंडियां सहस्रार के अगणित दलों की प्रतीक हैं। नाथ संप्रदाय में सिद्धि पद प्राप्त करने वालों में इतनी उत्कट शक्ति आ जाती थी कि जागतिक भावनाएं और संसार के पदार्थ उन्हें नहीं छू पाते थे। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ और नागार्जुन की अलौकिक सिद्धियों से संसार परिचत है। इन सिद्धों ने तंत्र से रहस्य लेकर अपनी साधना विधि निश्चित की और मंत्र विद्या में सरल एवं सुगम प्रयोग किया। आज जिन्हें प्राकृत या साबर मंत्र कहते हैं, वे इसी नाथ संप्रदाय की देन हैं। उन मंत्रों में संस्कृत शब्द नहीं है। बोलचाल के और किंचित रूप में रहस्यपूर्ण शब्दों से निर्मित ये मंत्र पूरा काम करते हैं। असल में इन शाबर मंत्रों में वज्रयान की वज्रडाकिनी अथवा वज्रतारा आदि से भी निकृष्ट कोटि के तामसिक देवों की प्रार्थना की जाती है, उनकी आन पर ही काम होता है। मुसलमानों के धर्मग्रंथ कुरान के अनुसार झाड़फूंक और मंत्रोपासना निषिद्ध है अर्थात अल्लाह से दुआ मांगने के सिवा किसी मंत्र का रूप कुरान की आयत नहीं है और न उसे सिद्ध करने की आज्ञा है। फिर भी साबर मंत्रों में मुहम्मद पीर की आन ली जाती है। विस्मिल्लाह के नाम की आन के साथ कुरान की आयत या साबरी विधि से शब्द-संयोजन कर के मंत्र की रचना कर ली जाती है। नाथ संप्रदाय भी तंत्र मार्ग की ही एक शाखा रहा है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि तंत्र वैदिक मार्ग नहीं है। इसलिए इसका आधार वेद में ढूंढना युक्तिसंगत नहीं। यक्षिणी साधना शिव उवाच: श्री शंकर जी कहते हैं कि अब मैं आगे यक्षिणियों के साधन प्रयोग का भली प्रकार वर्णन करता हूं जिसके सिद्ध हो जाने पर मनुष्यों की संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। सर्वेषां यक्षिणीनां तु ध्यान कुर्यात्समाहितः। भगिनी मातृ, पुत्री स्त्री रूप तुल्य यथोप्सितम्।। 1।। भावार्थ: खूब सावधानी के साथ यक्षिणियों की साधना करनी चाहिए। यक्षिणी को इच्छानुसार बहन, माता, पुत्री या स्त्री के समान मान कर उनके रूपों का सावधानी से ध्यान करना चाहिए क्योंकि असावधानी होने पर सिद्धि प्राप्ति में बाधा पड़ जाती है। भोज्य निरामिषे चान्नं वज्र्य ताम्बूल भक्षणम्। उपविश्याजिनादौ च प्रातः स्नानत्वा न कंस्पृशत्।। 2।। भावार्थ: यक्षिणियों की सिद्धि करने में निरामिष (मांस रहित) भोजन करना चाहिए। पान आदि का भक्षण छोड़ दें, प्रातः काल स्नान कर मृगछाला पर बैठें, किसी का स्पर्श न करें।। नित्य कृत्या च कृत्वा तु स्नाने निर्जने जपेत। या प्रत्यक्षरा याति यक्षिणा वांछतध््राुवांः ।। 3 ।। भावार्थ: अपने नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान करके एकांत स्थान में बैठ कर जप करना चाहिए। जप तब तक करते रहें जब तक कि मनवांछित फल को देने वाली यक्षिणी प्रत्यक्ष रूप से न आ जाए। महा यक्षिणी साधना मंत्र: ¬ क्लीं ह्रीं ¬ ओं श्री महा यक्षिणी सवैश्यर्य प्रदायिन्यै नमः। मंत्र के तीन हजार बेल के वृक्ष पर बैठकर एक महीने तक जप प्रति दिन करें। आलस्य को बिलकुल त्याग दें। जहां पर जप करना हो वहां पर मांस, मदिरा तथा बलिदान पहले ही से रख लंे। अनेक रूप धारण करने वाली यक्षिणी आ जाए तो उसे देख कर डरें नहीं और जप करते रहें। जिस समय यक्षिणी बलिदान वगैरह लेकर वरदान देने को उद्यत हो उस समय जो इच्छा अपने दिल में आवे, वह वरदान स्वरूप उस से मांग लंे। यदि यक्षिणी पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाए तो सब कुछ दे सकती है। यदि कोई इस प्रयोग को स्वयं न कर सके तो ब्राह्मण से भी करा सकता है या किसी ब्राह्मण की सहायता से इस प्रयोग की साधना कर सकता है। इस दौरान तीन कन्याओं को प्रतिदिन पवित्र खीर का भोजन कराकर तृप्त करें। यक्षिणियों द्वारा जो कुछ प्राप्त हो, उसे शुभ कार्य में खर्च करें क्योंकि अशुभ कार्यों में खर्च करने से सिद्धि भंग हो जाती है। धनदा यक्षिणी साधना मंत्र: अर्थदायी यक्षिणी च धनं प्राप्नोति मानवः।। ¬ ऐं ह्रीं श्रीधनं धनं कुरु कुरु फट् स्वाहा। इस मंत्र के 10000 जप करें। भावार्थ: यह यक्षिणी साधना पीपल के वृक्ष के नीचे एकाग्रचित्त होकर करनी चाहिए। इससे मनुष्य को धन की प्राप्ति होती है। पीपल वृक्ष के नीचे सावधानी से एकाग्रचित्त होकर निम्नलिखित मंत्र का जप करें। इससे अपुत्र को पुत्र की प्राप्ति होती है। शिवजी कहते हैं कि हमारा यह कथन मिथ्या नहीं है। मंत्र: ¬ ह्रीं ह्रीं ह्रीं पुत्रा कुरु-कुरु स्वाहा। इस मंत्र का 1000 बार जप कर सिद्धि कर लें। चण्डिका यक्षिणी प्रयोग मंत्र:¬ चण्डिके हंसः क्रीं क्रीं क्रीं क्लीं स्वाहा। विधि: इस मंत्र का जप शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक रात के समय करना चाहिए। जप चंद्रमा के उदय होने से लेकर अस्त तक करते रहें। इस मंत्र की संख्या प्रतिपदा से पूर्णिमा तक नौ लाख है। इसके करने से देवी प्रसन्न होकर अमृत देती है जिसके पान से मनुष्य अमर हो जाता है। हंसि यक्षिणी प्रयोग मंत्र: ¬ हंसि हंसि क्लीं स्वाहा विधि: पवित्रतापूर्वक नगर के भीतर प्रवेश कर के इस मंत्र के एक लाख जप करें। तत्पश्चात् दशम भाग को कमल की पत्तियों तथा घी के साथ मिलाकर हवन करें। ऐसा करने से देवी एक प्रकार का ऐसा अंजन देती है, जिसे नेत्र में लगाने से पृथ्वी में गड़ा धन दिखाई देने लगता है। उसे निर्विघ्न खोद कर निकाल सकते हैं। मदनी यक्षिणी प्रयोग मंत्र: मदने बिडम्बिनी अनंग संग सन्देहि देहि क्लीं क्रीं स्वाहा। विधि: एकाग्रचित्त होकर शुद्धतापूर्वक इस मंत्र का एक लाख बार जप करें। और दूध, घी, चमेली के फल मिलाकर अग्नि में एक हजार आहुति दें। ऐसा करने से यह यक्षिणी एक प्रकार का गुटका देती है जिसे मुख में रखने से मनुष्य अदृश्य हो जाता है। कर्ण पिशाचिनी यक्षिणी प्रयोग: मंत्र: ¬ क्रीं समान शक्ति भगवती कर्ण पिशाचनी चंद्र शेपनी वद-वद स्वाहा। विधि: सबसे पहले इस मंत्र को 10000 बार जप लें। तत्पश्चात ग्वार पाठे के गुच्छे को अपनी हथेलियों पर मल कर शयन करें तो रात के समय देवी सब शुभाशुभ फल कह देगी। चिचि पिशाचिनी यक्षिणी प्रयोग: मंत्र: ¬ क्री ह्रीं चिचि पिशाचिनी स्वाहा। विधि: गोरोचन, केसर और दूध को मिलाकर नीले रंग के भोज पत्र पर अष्टदल कमल बनाएं। तत्पश्चात हरेक दल पर माया बीज लिख कर सिर पर धारण करें। फिर मंत्र का जप पहले सात दिन तक यथासंख्यक करें। शुद्धतापूर्वक जप करने से यह देवी स्वप्न में तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) का हाल कह जाएगी। काल कर्णिक साधना मंत्र: ह्रीं क्रीं कालकर्णिके कुरु-कुरु ठः ठः स्वाहा। विधि पहले इस मंत्र का एक लाख बार जप करें और ढाक मंदार की लकड़ी, घी, शहद का हवन करें। ऐसा करने से काल कर्णिका प्रसन्न होकर अनेक प्रकार का धन तथा ऐश्वर्य देती है। अप्सरा साधना साधना विधि: यह साधना 51 दिनों की है। किसी भी पूर्णमासी की रात्रि से यह साधना प्रारंभ की जा सकती है। घर के किसी कोने में सफेद आसन बिछा कर उत्तर की ओर मुंह कर के बैठ जाएं। सामने घी का अखंड दीपक प्रज्वलित करें और स्वयं पानी में गुलाब जल या गुलाब का थोड़ इत्र डाल कर स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ जाएं और सामने श्री अप्सरा यंत्र रखें और अप्सरा सौंदर्य माला से मंत्र जप करें मंत्र: ¬ श्रीं क्लीं अप्सरा प्रत्यक्ष श्रीं ऐं फट्।। मंत्र जप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाएं। इन 51 दिनों में न तो किसी से बात करें और न ही उस कमरे से बाहर जाएं। केवल शौचादि क्रिया करने के लिए बाहर जा सकते हैं। सातवें दिन घुंघरुओं की मधुर आवाज सुनाई देती है। मगर साधक को चाहिए कि वह अविचलित भाव से मंत्र जप करता रहे। इक्कीसवें दिन बिलकुल ऐसा लगे जैसे अपूर्व सी सुगंध फैल गई है। इसके बाद नित्य ऐसी सुगंध का आभास होगा। 36वें दिन लगेगा कि कोई अद्वितीय सुंदरी आसन के पास बैठ गई है। मगर साधक अविचलित न हो और मंत्र जप करता रहे। 47 वें दिन परीक्षा आरंभ होगी और लगेगा कि वह सुंदरी सशरीर साधक की गोद में बैठ गई है। साधक को विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। 51 वें दिन वह अपूर्व शृंगार कर साधक से सट कर बैठ जाएगी और पूछेगी कि मेरे लिए क्या आज्ञा है। तब साधक कहे कि मेरी पत्नी बन कर प्रेमिका की तरह प्रसन्न करो। तब वह सिद्ध हो जाएगी और जीवन भर सुख, द्रव्य, वैभव व काम प्रदान करती रहेगी। यह साधना एक बार करने से सिद्ध हो जाती है। बार-बार नहीं करनी पड़ती। साधना में तीन बातें आवश्यक हैं:साधना काल में 51 दिन तक किसी से कुछ न बोलें। साधना के बाद अप्सरा सिद्ध हो जाने पर परस्त्रीगमन न करें। अपसरा तंत्र सिद्ध होने पर उस के साथ रमण करें और जो भी चाहें प्राप्त करें परंतु द्रव्य का दुरुपयोग न करें।

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