वेदों, पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के जटिल से जटिल साधनों का उल्लेख है। मानव बुद्धि उस रहस्य को समझने में असमर्थ है। परंतु धन्य है उन सदगुरुओं की कृपा, जिन्होंने गौ सेवा का एक ऐसा व्रत बतला दिया, जिस व्रत के द्वारा सहजता से ही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति संभव है। गाय सेवा के बारे में कहा गया है: तीर्थ स्थानेषु यत् पुण्यं यत् पुण्यं विप्र भोजने। यत् पुण्यं च महादाने यत् पुण्यं हरि सेवने।। सर्वव्रतोपवासेषु सर्वेष्वेव तपः सु च। भूमिपर्यटने यन्तु सत्यवाक्येषु यद् भवेत्।। तत् पुण्यं प्राप्यते सद्यः केवलं धनुसेवया।। गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए कहा है-‘माता से बढ़कर गो माता।’ कथा: सत्यकाम नाम का एक छोटा सा बालक था। घर में उसकी माता ही उसकी रक्षक और पालक थी। जब बालक की अवस्था बारह वर्ष की हो गई, तब उसने जाकर अपनी माता से कहा- ‘मां ! अब मैं बारह वर्ष का हो गया हूं, अब मुझे गुरु के समीप गुरुकुल में वास करके वेदाध्ययन करना चाहिए।’ मां ने सहर्ष कहा- ‘अच्छा बेटा ! जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।’ सत्यकाम ने कहा- ‘किंतु मां ! गुरुदेव मुझसे मेरा गोत्र पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा? मुझे अपने गोत्र का तो ज्ञान ही नहीं, मुझे मेरा गोत्र बता दो।’ माता ने कहा - ‘बेटा सत्यकाम ! गोत्र का तो मुझे भी पता नहीं, मैं सेवा में सदा तत्पर रहती थी। युवावस्था में तेरा जन्म हुआ, संकोचवश मैं तेरे पिता से गोत्र न पूछ सकी।’ मां की बात सुनकर सत्यकाम वेदाध्ययन के उद्देश्य से हारिद्रुमत ऋषि के पास गया। उन्हें प्रणाम करके वह उनकी आज्ञा से विनम्रतापूर्वक बैठ गया। गुरु ने पूछा - ‘बालक ! तुम क्या चाहते हो?’ सत्यकाम ने कहा - ‘भगवन् ! मैं आपके चरणों में रहकर वेदाध्ययन करना चाहता हूं।’ गुरु ने पूछा- ‘तुम्हारा गोत्र क्या है?’ सत्यकाम बोला - ‘भगवन् ! मैंने अपनी मां से अपने गोत्र के संबंध में पूछा था। उन्होंने कहा - ‘मैं सर्वदा अतिथियों की सेवा में रत रहती थी। युवावस्था में तू उत्पन्न हुआ, मैं कह नहीं सकती कि तेरे पिता का गोत्र क्या है? मैं इतना ही जानती हूं, तेरा नाम सत्यकाम है और तू मुझ जाबाला का पुत्र है। यह सुनकर महर्षि अत्यंत प्रसन्न होकर बोले- ‘बेटा ! निश्चय ही तू ब्राह्मण है; क्योंकि ब्राह्मण के अतिरिक्त इतनी सत्य बात कोई कह नहीं सकता, तू समिधा ले आ, मैं तेरा उपनयन करूंगा। तू आज से सत्यकाम जाबाल के नाम से प्रसिद्ध होगा।’ बालक समिधा लेकर आया। गुरु ने शिष्य का उपनयन किया। उन दिनों गौ को ही धन माना जाता था, जिसके यहां जितना ही अधिक गोधन होता वह उतना ही बड़ा श्रेष्ठ माना जाता था। दान, धर्म, पारितोषिक, शास्त्रार्थ, यज्ञ और सभी देव, पितृ तथा ऋषि-ऋणों में गौ ही दी जाती थी। ऋषियों के समीप जो शिष्य शिक्षा प्राप्त करने आते थे, उन्हें सर्वप्रथम यही शिक्षा दी जाती थी कि वे गौ सेवा का व्रत लें। गौओं की सेवा-सुश्रूषा से स्वतः ही उन्हें सर्वशास्त्रों का ज्ञान हो जाता था। महर्षि हारिद्रुमत के यहां भी सहस्रों गौएं थीं। सत्यकाम जाबाल का जब उपनयन संस्कार संपन्न हो गया, तब गुरुदेव उसे अपनी गौओं के गोष्ठ में लेकर गए। सहस्रों दुधारू गौओं में से मुनि ने चार सौ दुबली-पतली गौएं छांटीं और सत्यकाम से बोले - ‘बेटा! तू इन गौओं के पीछे-पीछे जा और इन्हें चराकर पुष्ट कर ला।’ बारह वर्ष का छोटा सा बालक सत्यकाम गुरुदेव के अंतर्भाव को जानकर बोला, ‘भगवन् ! मैं इन गौओं को लेकर जाता हूं और जब तक ये एक सहस्र न हो जाएंगी, तब तक मैं लौटकर न आऊंगा।’ गुरु ने कहा- ‘तथास्तु! कल्याणमस्तु!’ सत्यकाम उन गौओं को लेकर ऐसे वन में गया जहां हरी-हरी दूब घास थी, जल पर्याप्त था और जंगली जानवरों का कोई भय न था। वह गौओं के ही मध्य में रहता, उनकी सेवा-सुश्रूषा करता, वन के सभी कष्टों को सहता, गौ के दुग्ध पर जीवन निर्वाह करता। उसने अपने जीवन को गौओं के जीवन में ही तदाकार कर दिया। वह गौ सेवा में ऐसा तल्लीन हो गया कि उसे पता ही न चला कि गौएं कितनी हो गई हैं। तब वायुदेव ने वृषभ रूप धारण कर सत्यकाम से कहा- ‘ब्रह्मचारिन् ! हम अब सहस्र हो गए हैं। तुम हमें आचार्य के घर ले चलो और मैं तुम्हें एक पाद ब्रह्म का उपदेश करूंगा।’ यह कहकर धर्मरूपी वृषभ ने सत्यकाम को एक पाद ब्रह्म का उपदेश दिया। गुरु के आश्रम से वन दूर था। चार दिन का मार्ग था। इसलिए मार्ग में जहां वह ठहरा, वहां उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश मिला। इस प्रकार पहले पाद का वृषभ ने, दूसरे पाद का अग्नि देव ने, तीसरे का हंस ने और चैथे का उपदेश मद्गु नामक जलचर पक्षी ने किया। गौओं की निष्काम सेवा-सुश्रूषा से वह परम तेजस्वी ब्रह्मज्ञानी हो गया। उसने एक सहस्र गौओं को ले जाकर गुरु के सम्मुख प्रस्तुत किया और उनके श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम किया। गुरु ने उसके मुखमंडल को देदीप्यमान देखकर अत्यंत ही प्रसन्नता से कहा-‘बेटा ! तेरे मुखमंडल को देखकर तो मुझे ऐसा लगता है कि तुझे ब्रह्मज्ञान हो गया है, तू सत्य-सत्य बता तुझे ब्रह्म ज्ञान का उपदेश किसने किया?’ सत्यकाम ने अत्यंत विनीत भाव से कहा- ‘गुरुदेव! आपकी कृपा से सब कुछ हो सकता है। आप मुझे उपदेश करेंगे तभी मैं अपने ज्ञान को पूर्ण समझूंगा। वही ज्ञान गुरु ने दोहरा दिया। सत्यकाम पूर्ण ब्रह्मज्ञानी हो गए। अतः आज से, अभी से, इसी क्षण से गौ सेवा का व्रत अपने जीवन में धारण करें। गौ सेवा ही जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को पूर्णता प्रदान करती है।
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