भवन में पूजा घर उत्तर-पूर्व में ही रखना क्यों अधिक लाभप्रद है ?
पूजा घर हमेषा उत्तर-पूर्व दिषा अर्थात् ईषान कोण में ही बनाना चाहिए क्योंकि उत्तर-पूर्व में परमपिता परमेष्वर अर्थात ईष्वर का वास होता है। कहा जाता है कि देवी लक्ष्मी, भगवान विष्णु के साथ उत्तर-पूर्व म निवास करती हैं। साथ ही ईषान क्षेत्र में देव गुरू बृहस्पति का अधिकार है जो कि आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख कारक ग्रह है। प्रातःकाल उत्तर-पूर्व भाग या ईशान कोण में पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा वायु मंडल और ब्रह्मांड से मिलने वाले ऊर्जा एवं शक्तियों का अनूकूल प्रभाव मिलता है। फलस्वरूप आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियों में सकारात्मक वृद्धि होती है।
पूजाघर, रसोईघर में क्यों नहीं रखना चाहिए
पूजाघर कभी भी रसोईघर के साथ नहीं बनाना चाहिए। प्रायः लोग रसोईघर में ही पूजाघर बना लेते हैं जो उचित नहीं है। रसोईघर में प्रयोग होनेवाली वस्तुएं मिर्च-मसाला, गैस, तेल, कांटा, चम्मच, नमक आदि मंगल की प्रतीक वस्तुएं हैं। मंगल का वास भी रसोईघर में ही होता है। उग्र ग्रह होने के कारण मंगल उग्र प्रभाव में वृद्धि कर पूजा करने वाले की शांति एवं सात्विकता मे कमी लाता है। भगवान भाव एवं सुगंध के भूखे होते हैं। रसोईघर में सात्विक एवं निरामिष दोनां प्रकार का भोजन पकाते है जिसका सुगंध एवं दुर्गंध भगवान को मिलती है, जो कि उनके प्रति व्यवहार ठीक नहीं है, इससे देवता श्राप देते हैं। अतः पूजाघर में रसोई बनाने से आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पाता।
पूजाघर, शौचालय के सामने क्यों नही रखना चाहिए?
पूजाघर, टायलेट के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि टायलेट पर राहु का अधिकार होता है जबकि पूजा स्थान पर बृहस्पति का अधिकार है। राहु अनैतिक संबंध एवं भौतिकवादी विचारधारा का सृजन करता है। साथ ही राहु की प्रवृत्तियां राक्षसी होती हैं जो पूजाकक्ष के अधिपति ग्रह बृहस्पति के सात्विक गुणों के प्रभाव को कम करती है जिसके फलस्वरूप पूजा का पूर्ण अध्यात्मिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता। पूजा कक्ष सीढ़ियों के नीचे भी नहीं रखना चाहिए।
गणेश जी की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
गणेश जी की स्थापना दक्षिण दिषा में करनी चाहिए। इससे उनकी दृष्टि उत्तर की तरफ रहेगी, उत्तर मे हिमालय पर्वत है और उसपर गणेष जी के माता-पिता अर्थात् शंकर-पार्वती जी का वास स्थान है। गणेष जी को अपने माता पिता की तरफ देखना बड़ा अच्छा लगता है इसलिए गणेषजी की मूर्ति दक्षिण दिषा में रखी जानी चाहिए। गणेष जी की स्थापना पष्चिम दिषा में कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गणेष जी मंगल के प्रतीक और पष्चिम दिषा का स्वामी शनि है। इस तरह मंगल व शनि एक साथ हो जाएंगे जिससे घर में परेषानियां एवं मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी।
अन्य देवताओं की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
पूजाघर में ब्रह्मा, विष्णु, षिव, कात्र्तिकेय, सूर्य एवं इन्द्र को इस तरह स्थापित करना चाहिए कि पूजा करते समय व्यक्ति का मूंह पूर्व या पष्चिम की ओर हो। अर्थात् इन सभी देवी देवताओं की स्थापना की सही दिषा पूर्व या पष्चिम है। देवी देवताओ की मूत्र्तियां दिषा वाली दीवार पर नहीं लगानी चाहिए अन्यथा वे दक्षिणाभिमुख हो जाएंगी। साथ ही उत्तर मे उत्तर होता है, अतः दोनों का एक दिषा में रहना ठीक नहीं रहेगा। कुबेर का स्थान उत्तर दिषा है। लक्ष्मी उत्तर-पूर्व में रहती हैं। सरस्वती पष्चिम दिषा में निवास करती हैं। इसलिए पश्चिम दिषाओं में बैठकर सरस्वती जी की पूजा की एवं उत्तर-पूर्व में बैठकर लक्ष्मी जी की पूजा हमेषा करनी चाहिए।
पूजा कक्ष में द्वार कहाँ पर होनी चाहिए?
पूजा कक्ष का द्वार हमेषा कक्ष के मध्य में स्थित होनी चाहिए। लेकिन मूत्र्तियां द्वार के ठीक सामने हैं तो द्वार पर परदा रखना आवष्यक है। पूजा कक्ष का प्रवेष द्वार पूर्व की ओर तथा निकास उŸार दिषा की ओर होना चाहिए जिसके फलस्वरूप उस घर में निवास करने वाले लोगों के नाम और यष में वृद्धि होती है तथा विषिष्ट व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान बनती है। यदि पूजा कक्ष का द्वार उत्तर-पूर्व दिषा में हो तथा उसमें आना जाना उत्तर-पूर्व दिषा से ही होता हो तो सूर्य कि किरणों और चुंबकीय प्रभाव से धन दौलत के साथ-साथ चहुंमुखी सुख की प्राप्ति होती है क्योंकि कुछ देवी देवता इन्द्र के रास्ते पूर्व से पूजन कक्ष या मंदिर में प्रवेष करना पसंद करते हैं तथा कुछ देवी देवता उत्तर या उत्तर-पूर्व के रास्ते पूजन कक्ष में प्रवेष करना पसंद करते हैं। वरूण एवं वायु देवता हमेषा पष्चिम-उत्तर के रास्ते प्रवेष करते हैं इसलिए इन स्थानों से भी प्रवेष द्वार रखना शुभ फलदायी है। दक्षिण-पूर्व के रास्ते यज्ञ के देवता अग्नि देव प्रवेष करते हैं अतः इस कारण से इस ओर का द्वार भी अच्छा माना गया है। इन सिद्धांतों को अपनाने से पूजन कक्ष की गरिमा बढ़ती है तथा वहां पर देवी देवता शुभ फल प्रदान कर मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख समृद्धि प्रदान करते हंै।
पूजा कक्ष में किन देवी देवताओ ं को रखना विशेष लाभप्रद होता है?
घर में विष्णु, लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण, एवं बालाजी जैसे सात्विक एवं शांत देवी देवता का यंत्र, मूत्र्ति एवं तस्वीर रखना लाभप्रद होता है। पूर्व में भगवान का मंदिर तथा पष्चिम में देवी मंदिर नाम, ऐष्वर्य एवं धन-दौलत देने वाला बनता है। पूजा घर में मूत्र्तियां एक दूसरे की ओर मुख करके नहीं रखनी चाहिए।
पूजा कक्ष मे मूर्ति खंडित होने पर क्या करना चाहिए ?
पूजाघर में किसी भी प्रकार से अंष मात्र भी इष्ट प्रतिमा खंडित हो गयी हो तो कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो पूजन योग्य नहीं होती। ऐसी स्थिति होने पर उन्हे ं पवित्र जल में विधि विधान से विसर्जित कर देनी चाहिए। साथ ही किसी प्राचीन मंदिर से लाई गई खंडित मूर्ति भी नहीं रखना चाहिए। देवी देवताओं की प्रतिमा पर से उतरे हुए सूखे पुष्प, माला तथा हवन, धूप आदि की राख, सफाई में निकला अवषेष जल, नारियल के टुकडे़, पुराने वस्त्र आादि को अनावष्यक समझ फेंकने के बजाय तेज बहते जल में विसर्जित कर देना चाहिए।
पूजा घर हमेषा उत्तर-पूर्व दिषा अर्थात् ईषान कोण में ही बनाना चाहिए क्योंकि उत्तर-पूर्व में परमपिता परमेष्वर अर्थात ईष्वर का वास होता है। कहा जाता है कि देवी लक्ष्मी, भगवान विष्णु के साथ उत्तर-पूर्व म निवास करती हैं। साथ ही ईषान क्षेत्र में देव गुरू बृहस्पति का अधिकार है जो कि आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख कारक ग्रह है। प्रातःकाल उत्तर-पूर्व भाग या ईशान कोण में पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा वायु मंडल और ब्रह्मांड से मिलने वाले ऊर्जा एवं शक्तियों का अनूकूल प्रभाव मिलता है। फलस्वरूप आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियों में सकारात्मक वृद्धि होती है।
पूजाघर, रसोईघर में क्यों नहीं रखना चाहिए
पूजाघर कभी भी रसोईघर के साथ नहीं बनाना चाहिए। प्रायः लोग रसोईघर में ही पूजाघर बना लेते हैं जो उचित नहीं है। रसोईघर में प्रयोग होनेवाली वस्तुएं मिर्च-मसाला, गैस, तेल, कांटा, चम्मच, नमक आदि मंगल की प्रतीक वस्तुएं हैं। मंगल का वास भी रसोईघर में ही होता है। उग्र ग्रह होने के कारण मंगल उग्र प्रभाव में वृद्धि कर पूजा करने वाले की शांति एवं सात्विकता मे कमी लाता है। भगवान भाव एवं सुगंध के भूखे होते हैं। रसोईघर में सात्विक एवं निरामिष दोनां प्रकार का भोजन पकाते है जिसका सुगंध एवं दुर्गंध भगवान को मिलती है, जो कि उनके प्रति व्यवहार ठीक नहीं है, इससे देवता श्राप देते हैं। अतः पूजाघर में रसोई बनाने से आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पाता।
पूजाघर, शौचालय के सामने क्यों नही रखना चाहिए?
पूजाघर, टायलेट के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि टायलेट पर राहु का अधिकार होता है जबकि पूजा स्थान पर बृहस्पति का अधिकार है। राहु अनैतिक संबंध एवं भौतिकवादी विचारधारा का सृजन करता है। साथ ही राहु की प्रवृत्तियां राक्षसी होती हैं जो पूजाकक्ष के अधिपति ग्रह बृहस्पति के सात्विक गुणों के प्रभाव को कम करती है जिसके फलस्वरूप पूजा का पूर्ण अध्यात्मिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता। पूजा कक्ष सीढ़ियों के नीचे भी नहीं रखना चाहिए।
गणेश जी की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
गणेश जी की स्थापना दक्षिण दिषा में करनी चाहिए। इससे उनकी दृष्टि उत्तर की तरफ रहेगी, उत्तर मे हिमालय पर्वत है और उसपर गणेष जी के माता-पिता अर्थात् शंकर-पार्वती जी का वास स्थान है। गणेष जी को अपने माता पिता की तरफ देखना बड़ा अच्छा लगता है इसलिए गणेषजी की मूर्ति दक्षिण दिषा में रखी जानी चाहिए। गणेष जी की स्थापना पष्चिम दिषा में कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गणेष जी मंगल के प्रतीक और पष्चिम दिषा का स्वामी शनि है। इस तरह मंगल व शनि एक साथ हो जाएंगे जिससे घर में परेषानियां एवं मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी।
अन्य देवताओं की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
पूजाघर में ब्रह्मा, विष्णु, षिव, कात्र्तिकेय, सूर्य एवं इन्द्र को इस तरह स्थापित करना चाहिए कि पूजा करते समय व्यक्ति का मूंह पूर्व या पष्चिम की ओर हो। अर्थात् इन सभी देवी देवताओं की स्थापना की सही दिषा पूर्व या पष्चिम है। देवी देवताओ की मूत्र्तियां दिषा वाली दीवार पर नहीं लगानी चाहिए अन्यथा वे दक्षिणाभिमुख हो जाएंगी। साथ ही उत्तर मे उत्तर होता है, अतः दोनों का एक दिषा में रहना ठीक नहीं रहेगा। कुबेर का स्थान उत्तर दिषा है। लक्ष्मी उत्तर-पूर्व में रहती हैं। सरस्वती पष्चिम दिषा में निवास करती हैं। इसलिए पश्चिम दिषाओं में बैठकर सरस्वती जी की पूजा की एवं उत्तर-पूर्व में बैठकर लक्ष्मी जी की पूजा हमेषा करनी चाहिए।
पूजा कक्ष में द्वार कहाँ पर होनी चाहिए?
पूजा कक्ष का द्वार हमेषा कक्ष के मध्य में स्थित होनी चाहिए। लेकिन मूत्र्तियां द्वार के ठीक सामने हैं तो द्वार पर परदा रखना आवष्यक है। पूजा कक्ष का प्रवेष द्वार पूर्व की ओर तथा निकास उŸार दिषा की ओर होना चाहिए जिसके फलस्वरूप उस घर में निवास करने वाले लोगों के नाम और यष में वृद्धि होती है तथा विषिष्ट व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान बनती है। यदि पूजा कक्ष का द्वार उत्तर-पूर्व दिषा में हो तथा उसमें आना जाना उत्तर-पूर्व दिषा से ही होता हो तो सूर्य कि किरणों और चुंबकीय प्रभाव से धन दौलत के साथ-साथ चहुंमुखी सुख की प्राप्ति होती है क्योंकि कुछ देवी देवता इन्द्र के रास्ते पूर्व से पूजन कक्ष या मंदिर में प्रवेष करना पसंद करते हैं तथा कुछ देवी देवता उत्तर या उत्तर-पूर्व के रास्ते पूजन कक्ष में प्रवेष करना पसंद करते हैं। वरूण एवं वायु देवता हमेषा पष्चिम-उत्तर के रास्ते प्रवेष करते हैं इसलिए इन स्थानों से भी प्रवेष द्वार रखना शुभ फलदायी है। दक्षिण-पूर्व के रास्ते यज्ञ के देवता अग्नि देव प्रवेष करते हैं अतः इस कारण से इस ओर का द्वार भी अच्छा माना गया है। इन सिद्धांतों को अपनाने से पूजन कक्ष की गरिमा बढ़ती है तथा वहां पर देवी देवता शुभ फल प्रदान कर मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख समृद्धि प्रदान करते हंै।
पूजा कक्ष में किन देवी देवताओ ं को रखना विशेष लाभप्रद होता है?
घर में विष्णु, लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण, एवं बालाजी जैसे सात्विक एवं शांत देवी देवता का यंत्र, मूत्र्ति एवं तस्वीर रखना लाभप्रद होता है। पूर्व में भगवान का मंदिर तथा पष्चिम में देवी मंदिर नाम, ऐष्वर्य एवं धन-दौलत देने वाला बनता है। पूजा घर में मूत्र्तियां एक दूसरे की ओर मुख करके नहीं रखनी चाहिए।
पूजा कक्ष मे मूर्ति खंडित होने पर क्या करना चाहिए ?
पूजाघर में किसी भी प्रकार से अंष मात्र भी इष्ट प्रतिमा खंडित हो गयी हो तो कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो पूजन योग्य नहीं होती। ऐसी स्थिति होने पर उन्हे ं पवित्र जल में विधि विधान से विसर्जित कर देनी चाहिए। साथ ही किसी प्राचीन मंदिर से लाई गई खंडित मूर्ति भी नहीं रखना चाहिए। देवी देवताओं की प्रतिमा पर से उतरे हुए सूखे पुष्प, माला तथा हवन, धूप आदि की राख, सफाई में निकला अवषेष जल, नारियल के टुकडे़, पुराने वस्त्र आादि को अनावष्यक समझ फेंकने के बजाय तेज बहते जल में विसर्जित कर देना चाहिए।
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