भविष्य पुराण में कहा गया है कि भाद्रपद के अंत की चतुर्दशी तिथि में पौर्णमासी के योग में अनंत व्रत को करें। स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि में मुहूर्त मात्र की चतुर्दशी हो, तो उसको संपूर्ण तिथि जानना चाहिए और उसमें अविनाशी विष्णु का पूजन करना चाहिए । भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी भगवान अनन्त का व्रत रखकर मनायी जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है, कि यह दिन उस अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है, ‘‘अनन्त सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रसन्नोमे यक्तानाभयंकरः’’ मंत्र से पूजा करनी चाहिए। यह विष्णु कृष्ण रूप हैं, और शेषनाग काल रूप में विद्यमान हंै अतः दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है। पूजा विधि: प्रातः काल, नित्य क्रिया तथा स्नानादि से निवृत्त होकर, चैकी के ऊपर मंडप बनाकर, उसमें अक्षत सहित या कुशा के सात टुकड़ों से शेष भगवान की प्रतिमा स्थापित करें। उसके निकट हल्दी से रंगे हुए कच्चे सूत के धागे में 14 गांठें लगाकर रखें और गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात अनंत देव का ध्यान करके शुद्ध कच्चे सूत से निर्मित अनंत का अपनी दायीं भुजा में धारण करें। यह धागा अनंत फल देने वाला है। पुनः निम्न मंत्र अनंत सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रशन्नोमे भक्तानामभयंकरः से प्रार्थना करें। कथा भी श्रवण करें। कथा: धर्म के अंश द्वारा कुंती से उत्पन्न पांडु के ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा पुण्यात्मा महाराज युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ किया तो उसमें यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल-स्थल की भिन्नता प्रतीत नहीं होती थी। भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा के उपरांत, सभी दिशाओं से पधारे ऋषियों, महर्षियों, राजाओं को यथायोग्य कार्यों को सौंप, महाराज धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को राजकोष का कार्य दे दिया गया। संपूर्ण कार्य विधिवत् नियमानुसार पूर्ण हो गये। एक दिन यज्ञ मंडप और महलों की शोभा निहारते हुए दुर्योधन यज्ञ मंडप के उस स्थल पर आ पहुंचे, जहां जल की जगह स्थल और स्थल की जगह जल का भ्रम हो जाता था। इसी भ्रम के कारण दुर्योधन जलाशय को स्थल समझ कर उसी में गिर पड़े। भीमसेन और द्रौपदी यह देख कर दुर्योधन का उपहास उड़ाने लगे, हंसने लगे और कहा कि ‘अंधों की संतान अंधी ही होती है।’ यह बात उनके हृदय में बाण जैसी लगी तथा उन्होंने बदला लेने की मन में ठान ली। कुछ समयोपरांत, मामा शकुनि से परामर्श कर, पांडवों को द्यूत क्रीड़ा का आमंत्रण भेज दिया तथा द्यूत क्रीड़ा में छल से सर्वस्व जीत लिया; यहां तक कि हार होने पर उन्हें, प्रतिज्ञानुसार, 12 वर्ष का बनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास दे दिया। बनवास के अनेक कष्टों को सहते हुए एक दिन जब भगवान वसुदेव-देवकी नंदन श्री कृष्ण से युधिष्ठिर की भेंट हुई, तो उन्होंने अपने दुःख का संपूर्ण वृत्तांत श्री कृष्ण को कह सुनाया और इसे दूर करने का उपाय पूछा। तब श्री कृष्ण ने अनंत भगवान का विधिपूर्वक व्रत करने का परामर्श दिया और कहा कि इस व्रत से तुम्हें पुनः राज्य प्राप्त हो जाएगा। इस संदर्भ में एक दिव्य प्रसंग भी श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को श्रवण कराया। प्राचीन काल में सुमंत नामक ब्राह्मण की सुशीला नाम की एक सुंदर दिव्य गुणों से पूर्ण कन्या थी। ब्राह्मण े बड़ी होने पर कन्या का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ संपन्न कर दिया। ऋषिवर सुशीला को ले कर आश्रम की ओर चल पड़े। रास्ते में ही संध्या वंदन का समय होने पर ऋषि संध्या करने लगे। सुशीला ने तब पास में ही देखा, तो बहुत सी सौभाग्यवती स्त्रियां, अपने-अपने पतियांे और स्वजनों के साथ, किसी देवता की पूजा कर रही हैं। तब उसने पास जा कर पूछा कि आप सब किसकी पूजा कर रही हैं? उन सभी ने सुशीला को अनंत भगवान और व्रत की महिमा बतायी। सुशीला ने भी वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चैदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आयी। ऋषि कौंडिन्य ने सुशीला के हाथ में बंधे डोरे का रहस्य पूछा। सुशीला ने संपूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। तब ऋषि ने क्रोधवश डोरा तोड़ कर अग्नि में डाल दिया। इससे भगवान अनंत का अत्यंत अपमान हुआ। उसका परिणाम यह हुआ कि ऋषि सुखी न रह सके। उन पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। धन-दौलत सभी कुछ समाप्त हो गया। तब उन्होंने सुशीला से इसका कारण पूछा, तो सुशीला ने अनंत डोरे की स्मृति दिलायी। कौंडिन्य पश्चाताप से उद्धिग्न हो, उस डोरे की प्राप्ति हेतु, वन में विचरण करने लगे और एक दिन क्षुधा-पिपासा से व्याकुल हो कर भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान ने उन्हें दर्शन दिये और कहा ः हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था। उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। ज्ञान हो गया हो, तो अब घर जा कर अनंत का अनुष्ठान 14 वर्षों तक करो। इससे तुम्हारे दुःख-दारिद्र्य मिट जाएंगे तथा धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे।
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