ज्योतिष में ईश्वर प्राप्ति के योगों के लिए सबसे पहले जन्मकुंडली के सबभावों में से प्रथम, पंचम व नवम भाव व भावेशों पर विचार करना चाहिए। इन भावों में जितनी शुभ ग्रहों की स्थिति या दृष्टि होगी जातक का विश्वास ईश्वरीय सत्ता में उतना ही अधिक होगा, जातक का ध्यान प्रभु में उतना ही अधिक लगेगा। पंचम भाव व नवम भाव का कारक गुरु होता है। गुरु ज्ञान का कारक, मंत्र विद्या का कारक, वेदांत ज्ञान का कारक, धर्म गुरु, ग्रंथ कर्ता, संस्कृत व्याकरण आदि का कारक होता है यदि कुंडली में गुरु लग्न में, तृतीय भाव में, पंचम भाव में या नवम भाव में हो तो उस जातक का मन भगवान में लगता है। मन का कारक चंद्रमा है और भक्ति का कारक गुरु बृहस्पति है। चंद्र गुरु योग भी कुंडली में हो तो ईश्वर प्रेम पैदा करता है। यही योग यदि कुंडली में प्रथम भाव, नवम भाव, पंचम भाव में बनता हो तो जातक आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूने वाला होता है। यदि गुरु लग्न में हो तो ऐसा जातक पूर्व जन्म में वेद पाठी ब्राह्मण होता है। यदि कुंडली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो जातक पूर्व जन्म में धर्मात्मा, सदगुणी एवं विवेकशील साधु होता है। ऐसा ऋषियों का कथन है। यदि पंचम भाव में पुरुष ग्रह हों या पुरुष ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक पुरुष देवताओं की पूजा करने वाला होता है यदि पंचम भाव में स्त्री राशि हो या चंद्रमा, शुक्र बैठे हों या किसी एक ही दृष्टि हो तो जातक स्त्री देवता की पूजा करने वाला होता है। यदि पंचम भाव में शनि, राहु, केतु हों या इन ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक कामनावश पूजा करने वाला होता है। गुरु व शनि एक अंशों में नवम भाव या दशम भाव में एक साथ बैठे हों शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो यह मुनि योग का निर्माण करता है। मुनि योग में जन्म लेने वाला जातक सांसारिक प्रपंचों से दूर होकर उम्र भर के लिए साधु बन जाता है। चंद्रमा से केंद्र में गुरु हो तो यह गजकेसरी योग का निर्माण करता है इस योग में जन्म लेने वाला जातक भी ईश्वर भक्ति करने वाला होता है।
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