अपनी अनूठी भौगोलिक विद्गोषताओं के कारण यह प्रदेश एशिया का एक सर्वाधिक मनोरम पर्यटन स्थल है जहां दुनिया भर के सैलानी सैर के लिए आते रहते हैं। अपनी प्राकृतिक संपदाओं के लिए दुनिया भर में मशहूर केरल मंदिरों का प्रांत भी है। प्रांत के विभिन्न भागों के मंदिरों की अपनी-अपनी कथाएं हैं, अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है और अपना-अपना इतिहास है। गुरुवायुर का मंदिर भी एक ऐसा ही मंदिर है, जिसकी अपनी एक विद्गोष ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पहचान है। केरल स्थित मंदिरों में सबसे ज्यादा श्रद्धालु इसी मंदिर के दर्शन को आते हैं। विशेष पर्वों के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की लंबी कतार होती है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा एक बहुमूल्य शिला को तराश कर बनाई गई है। अति पावन यह प्रतिमा मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। मंदिर के गर्भगृह की दीवारों पर हृदयाकर्षक भित्तिचित्र उत्कीर्णित हैं। कहते हैं कि वैकुंठ में विष्णु ने इस मूर्ति की पूजा की और फिर इसे ब्रह्मा को सौंप दिया। निःसंतान राजा सुतपस और उनकी पत्नी ने संतान हेतु भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की। दोनों के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने यह मूर्ति उन्हें दी और इसकी पूजा नियमित रूप से करने को कहा। दोनों की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया कि वह स्वयं उनके तीन पुनर्जन्मों में उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। राजा सुतपस और उनकी पत्नी को अगले तीन जन्मों में पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम क्रमशः पृश्निगर्भ, वामन और कृष्ण था। भगवान कृष्ण ने इस प्रतिमा को द्वारका में स्थापित कर इसकी पूजा की। कहते हैं, एक बार द्वारका में एक भयंकर बाढ़ आई, जिसमें यह मूर्ति बह चली, किंतु गुरु ने अपने परम शिष्य वायु की सहायता से इसे बचा लिया। फिर दोनों ने इसकी स्थापना के उपयुक्त स्थान की खोज में पूरी पृथ्वी की यात्रा की और अंत में पलक्कड के रास्ते केरल पहुंचे जहां उनकी भेंट परशुराम से हुई, जो स्वयं उसी मूर्ति की खोज में द्वारका जा रहे थे। परशुराम गुरु और वायु को कमल के मोहक फूलों से भरी झील के पास एक अति हरे-भरे स्थान पर ले गए जहां उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए। भगवान शिव और देवी पार्वती ने उनका स्वागत किया और कहा कि मूर्ति की स्थापना का यही सर्वाधिक उपयुक्त स्थल है। शिव ने गुरु और वायु को मूर्ति की प्रतिष्ठा और अभिषेक करने को कहा और वरदान दिया कि मूर्ति की स्थापना गुरु और वायु के हाथों होने के कारण यह स्थान गुरुवायुर के नाम से प्रसिद्ध होगा। फिर शिव और पार्वती मम्मियुर के दूसरे किनारे चले गए। सृष्टि निर्माता विश्वकर्मा ने इस मंदिर का निर्माण इस प्रकार किया कि विषुव के दिन सूर्य की पहली किरणें सीधी भगवान के चरणों पर पड़ें। मूर्ति की स्थापना सौर मास कुंभ अर्थात फाल्गुन (फरवरी-मार्च) में हुई। कथा यह भी है कि भगवान कृष्ण के स्वर्गारोहण के समय उनके भक्त उद्धव उनसे विरह को लेकर बहुत दुखी हुए। तब भगवान ने उन्हें यह प्रतिमा दी और देवगुरु बृहस्पति को उसे किसी उपयुक्त स्थान पर स्थापित करने का भार सौंपा। उद्धव यह सोचकर दुखों के सागर में डूबे थे कि कलियुग में जब भगवान नहीं होंगे, तब संसार पर दुर्भाग्य छा जाएगा। भगवान ने उन्हें शांत किया और कहा कि वह स्वयं इस प्रतिमा में प्रविष्ट होंगे और अपनी शरण में आने वाले श्रद्धालुओं को वरदान देकर दुखों से उबारेंगे। इसीलिए यहां दर्शन को आए श्रद्धालुओं की कामना पूरी होती है। गुरुवायुर का यह मंदिर केरल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पावन स्थलों में से एक है। इसे पृथ्वी पर भगवान विष्णु का वैकुंठ और दक्षिण का द्वारका भी कहा जाता है। मंदिर में स्थापित भगवान श्री कृष्ण की दिव्य मूर्ति अति मोहक है, जिनके तेजोमय चार हाथों में से एक में पांचजन्य, दूसरे में गदा, तीसरे में चक्र और चौथे में पद्म है। कृष्ण को यहां कन्नन, उन्निकन्नन (बाल कृष्ण), उन्निकृष्णन, बालकृष्णन, गुरुवायुरप्पन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान महाविष्णु स्थापित हैं। उनकी पूजा आदि शंकराचार्य निर्देशित पूजा विधि के अनुसार की जाती है। मंदिर में वैदिक परंपरा का पालन पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ किया जाता है। इस दिव्य स्थल के उत्तरी पार्श्व में कलकल करते ताल में जल के नीचे आसन जमाकर देवों के देव महादेव ने भगवान महाविष्णु की आराधना की थी। यह ताल रुद्र तीर्थम के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में यह ताल 3 किलोमीटर दूर मम्मियुर और तामरयुर तक फैला हुआ था और अपने मनोहारी कमल फूलों के कारण प्रसिद्ध था। गुरुवायुर में भगवान की पूजा के बाद मम्मियुर शिव की पूजा आराधना आवश्यक है। इसके बिना गुरुवायुर की पूजा आराधना अधूरी मानी जाती है। नारद पुराण में उल्लेख है कि गुरुवायुरप्पन की शरण में आकर कुष्ठग्रस्त जनमेजय इस रोग से मुक्त हो गए। पांडवों ने अपना राज परीक्षित को सौंप दिया और वन चले गए और अपना शेष जीवन वहीं बिताया। परीक्षित को एक साधु ने शाप दिया था कि उनकी मृत्यु नागराज तक्षक के डसने से होगी और ऐसा ही हुआ। इससे क्रुद्ध होकर परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक सहित समस्त सर्प जाति के नाश के लिए यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में कोटि-कोटि नागों की आहुति दी गई, किंतु तक्षक के मारे जाने के पूर्व ही आस्तिक नामक एक ब्राह्मण ने यज्ञ को रोक दिया। कोटि-कोटि नागों की बलि देने के कारण जनमेजय को कुष्ठ हो गया जिससे मुक्ति के सारे प्रयासों के विफल हो जाने के कारण वह निराश हो गए। तब अत्रि के पुत्र मुनि आत्रेय ने उन्हें गुरुवायुर के भगवान कृष्ण की शरण में जाने को कहा। जनमेजय शीघ्र ही प्रस्थान कर गए और गुरुवायुर पहुंचकर दस महीने तक भगवान की आराधना की। दसवें महीने की आराधना पूरी होने पर वह पूरी तरह स्वस्थ होकर घर लौटे। मंदिर के ठीक सामने 24 फुट लंबा एक विशाल प्रकाश स्तंभ है, जिसमें बेसमेंट समेत तेरह चक्र लगे हैं। मंदिर के भीतर पीतल के चार दीपस्तंभ भी हैं। उत्तरी भाग के दीपस्तंभ को गजराज केशवन ने तोड़ डाला था। पूर्वी मीनार 33 फुट और पश्चिमी 27 फुट ऊंची है। बाहरी भाग में लगभग 34 मीटर ऊंचा सोने का पानी चढ़ा एक ध्वजस्तंभ है। यहां तेरह दीपों का एक 7 मीटर ऊंचा दीपस्तंभ भी है, जिसके प्रज्वलित होने पर एक अद्भुत मनोहारी दृश्य उपस्थित हो जाता है। गुरुवायुर का यह पवित्र मंदिर अपने उत्सवों के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर में 24 एकादशियों में से एक शुक्ल पक्ष की वृश्चिक एकादशी का अपना विशेष महत्व है। नवमी और दशमी को भी यहां उत्सव मनाया जाता है। एकादशी विलक्कु का उत्सव भी अपने आप में एक अनूठा उत्सव होता है। गुरुवायुर का चेंबैई संगीत उत्सव दक्षिण भारत का प्रसिद्ध उत्सव है। देश भर के संगीतज्ञ इस भव्य उत्सव में भाग लेते हैं, जहां दर्शकों की अपार भीड़ होती है। वडक्कुन्नाथ मंदिर में मनाया जाने वाला पूरम उत्सव भी एक प्रसिद्ध उत्सव है। इस अवसर पर आसमान रात भर पटाखों से गुंजायमान रहता है। शिवरात्रि का पर्व भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। दर्द्गानीय स्थल मंदिर से 40 किलो मीटर दूर एक पुराना किला है, जिसका नाम पुन्नतुर कोट्ट है। यह हाथियों का एक अभयारण्य है, जिसमें 40 से अधिक हाथी हैं। यह दुनिया भर में हाथियों के विद्गाालतम अभयारण्यों में से एक है। मंदिर से तीन किलो मीटर की दूरी पर अति सुहावना समुद्र तट चवक्कड़ है। यहां मैसूर के सुलतान हैदर अली के सिपहसालार हरिद्रॉस कुट्टी का मकबरा है। चवक्कड़ से एक किलो मीटर दूर पलयुर में संत थॉमस द्वारा स्थापित एक प्राचीन चर्च भी है। गुरुवायुर में दर्शन के इच्छुक श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। दर्शन के कुछ खास नियम हैं। कुछ समय पहले तक महिला श्रद्धालुओं का चूड़ीदार सलवार पहनकर प्रवेश करना वर्जित था, लेकिन न्यायालय के आदेश से अब यह प्रतिबंध हटा दिया गया है। फिर भी, अधिकतर स्त्रियां साड़ियों में ही आती हैं। केरल के त्रिचुर जिले के इस छोटे से शहर की सुंदरता देखते ही बनती है। मंदिर में स्थापित अधिष्ठाता भगवान श्री कृष्ण की झलक मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं। पवित्र तुलसी की माला धारण किए भगवान तेजोमय दिखाई देते हैं जिनके दर्शन से अतीव आनंद की अनुभूति होती है। कब जाएं? अक्तूबर से अप्रैल के बीच का समय गुरुवायुर की यात्रा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है।
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