शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व हंै: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए।
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व हंै: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए।
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