मत्स्य जयंती चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाने का विधान है। इस दिन भगवान् नारायण ने मध्याह्नोत्तर बेला में पुष्पभद्रा तट पर मत्स्यावतार धारण कर जगत् कल्याण किया था। व्यक्ति इस पावन तिथि पर प्रातःकालीन बेला में नित्य नैमित्तिक कृत्यों को पूर्णकर भगवान् मत्स्य के व्रत के हेतु संकल्पादि कृत्यों को पूर्ण करता हुआ पुरुष सूक्त या वेदोक्त मंत्रों से मत्स्य भगवान् का षाडे शापे चार पजू न कर उनके प्राकट्य की लीला कथाओं का श्रवण व मंत्रों का जाप करता है, तो निश्चय ही उस भगवद् भक्त का जीवन आलोकित व संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त हो जाता है | भारतीय सस्ंकृति में अवतारवाद के एक विशिष्ट सिद्धांत ने समग्र मानव जाति को एक विशिष्ट जीवनशक्ति तथा आशावादिता भी प्रदान की है जिसके कारण वे विभिन्न संकटों तथा विपत्तियों को यह विश्वास रखते हुए झेल सकें कि वर्तमान विपत्ति की घड़ी कुछ ही समय के लिए है। और उपयुक्त समय पर कोई दैवी-सत्ता उत्पन्न होने वाली है, यह अटल विश्वास जन-जन में समाया हुआ है कि देश-काल की विषम परिस्थितियों में लाके कल्याणार्थ, साधु-सज्जनों और ऋषियों मुनियों के परित्राण हेतु, गौवंश रक्षार्थ तथा धर्म के समुत्थान के लिए भगवान विष्णु विभिन्न रूपों में अवतरित होते रहते हैं। भगवान् के अवतारों के स्वरूप छोटे-बड़े नहीं होते। प्रभु का प्रत्येक अवतार वंदनीय व पूजनीय है। जिस प्रकार भगवान का प्रत्येक अवतार मंगलकारी है, जन-जन का रक्षक है; ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रत्येक व्रत भगवद् भक्त के कल्याण व मंगल का प्रतीक है। मत्स्य व्रत मानव को जल जंतुओं व जलतत्व से होने वाले सभी अनिष्टों को दूर करने वाला है। यह व्रत सुख, सौभाग्य, आरोग्य, प्रेम, ऐश्वर्य प्रदाता तो है ही अपितु आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक तापों से मुक्त करने वाला भी है। प्रत्येक व्रत भक्त के लिए एक कल्पवृक्ष है। इस प्रकार कल्पवृक्ष के नीचे स्थित होकर उसके जैसे भाव प्रकट होते हैं, कल्पवृक्ष की कृपा से उन भावों की पर्ण्ूाता प्राप्त हो जाती है; अथार्त् मनचाही अभिलषित वस्तु तत्क्षण प्राप्त हो जाती है, ठीक उसी प्रकार किसी भी व्रत के नियमानुसार पालन करने से भक्त की मनोवांछित इच्छायें भी पूर्ण हो जाती हैं। इस व्रत में संपूर्ण दिन निराहार रहकर मध्याह्नोत्तर समय में मत्स्य भगवान् का पूजन कर फलाहार ग्रहण कर रात्रि में जागरण व भगवत् संकीर्तन में लीन रहकर प्रातःकाल दैनिक कृत्यों का संपादन कर दान पुण्यादि, ब्राह्मण भोजनादि कराके स्वयं भी पूर्ण भोजन करें। मत्स्य भगवान के निम्न चरित्रों का पाठ व मंत्र जाप करें। विष्णु के चौबीस अवतारों में मत्स्यावतार का विशेष महत्त्व है। मत्स्यका संबंध एक प्राचीन जल प्लावन की कथा से है, जो भारतीय ही नहीं, लगभग सभी प्राचीन आर्य तथा समेटिक देशों के साहित्य (बाइबिल आदि) में प्राप्त हातेी है। संभवतः यही एक ऐसी कथा है, जो आर्य तथा समेटिक - दोनों देशों की कथा- परंपराओं में प्रायः समान है। कुछ विद्वान् इस कथा का समेटिक उद्गम मानने के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि आर्यों ने इस कथा को बादमें आर्यते र जातिया ें से ग्रहण किया, किंतु इस धारणा का सशक्त शब्दों में खंडन हुआ है कि बैबीलोनिया तथा इजराइल में मिलने वाले विवरण भारतीय साहित्य में प्राप्य प्राचीनतम विवरण से परवर्ती हैं और दोनों देशों की कथाओं की विभिन्न प्रकृति यह सिद्ध करती है कि दोनों स्वतंत्र रूप से अपने अपने देश की तात्कालिक भौगोलिक स्थिति तथा परंपराओं के आधार पर विकसित हुई हैं। शतपथब्राह्मण में मत्त्यावतार कथा इस प्रकार है- एक दिन विवस्वान् के पुत्र वैवस्वत मनुके पास उसके सेवन आचमन करने के लिये जल लाये। जब मनुने आचमन के लिये अंजलि में जल लिया तो एक छोटा सा मत्स्य उनके हाथ में आ गया। उसने कहा- 'मेरा पोषण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।' 'कैसे मेरी रक्षा करोगे? मनुके ऐसा पूछने पर मत्स्य बोला - ''थोड़े ही दिनों में एक भयंकर जल - प्लावन होगा, जो प्रजावर्ग को नष्ट कर देगा, उससे मैं तुम्हारी रक्षा करूगां।' मनुने पुनः उससे पूछा- 'तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है?' उसने कहा - 'जब तक हम छोटे रहते हैं, तब हमारे अनेक विनाशक होते हैं - बड़ा मत्स्य ही छोटे मत्स्य को खा जाता है। अभी तुम मुझे एक घड़े में रख दो, जब उससे बढ़ जाऊं तो एक गड्ढे में रख देना और उसके बाद मुझे समुद्र में छोड़ देना, तब मेरा कोई विनाश नहीं कर सकेगा।'' मनु ने ऐसा ही किया और अंत में समुद्र में छोड़े जाने पर वह मत्स्य मनुको जल प्लावन का समय बताकर तथा उनको उस दिन एक नाव लेकर तैयार रहने का आदेश देकर जल में विलीन हो गया। जल -प्लावन होने पर मनु नाव में चढ़ गये। वह मत्स्य एक सींगवाले विशालकाय महामत्स्य के रूप में प्रकट हुआ। मनुने नाव की रस्सी उसके सीगं में बांध दी। नाव लेकर वह महामत्स्य उत्तरपर्वत (हिमालय) की ओर गया। उसने वहां नाव को एक वृक्ष से बांधने का आदेश दिया और कहा कि जल के उतरने पर नीचे आ जाना। जल-प्लावन से संपूर्ण प्रजा नष्ट हो गयी, केवल मनु बचे रहे। जल घटने पर मनु नीचे आये और उन्होंने घृत, दधि आदि से जल में ही हवन किया। एक वर्ष बाद जल से इड़ा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। उसने मनुसे कहा-'तुम मुझसे यज्ञ करो, इससे तुम्हें धन, पशु तथा अन्य अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त होगी।' मनुने ऐसा ही किया और उसके द्वारा यह सारी प्रजा उत्पन्न की। मत्स्यावतार कथा का यही अंश सबसे प्राचीन तथा मुखय हे। मनु कथा में किसी भी देवताविशेष की कोई भूमिका नहीं है। शतपथब्राह्मण के इस आखयान को हिंदी साहित्य के कविवर प्रसाद ने अपने अद्वितीय महाकाव्य कामायनी द्व्रारा अमर कर दिया है। शतपथब्राह्मण के बाद यह कथा विविध पुराणों तथा महाभारत में प्राप्त होती है। महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि यह मत्स्य प्रजापति या ब्रह्मा का रूप था। ठीक भी है, प्रलयकालीन जल से मानव जाति के आदि पर्वूज मनुकी रक्षा करके सृष्टि के अंकुरों को सुरक्षित रखने का प्रयास प्रजापति के अतिरिक्त और कौन कर सकता है? और जल-प्लावन का पूर्वज्ञान, अतुलित विस्तार से विवर्धन तथा समुद्र में नौवाहन आदि अतिमानुषिक कार्य भी सवाचर््ेच दवैीशक्ति पज्र ापति के द्वारा ही सभंव हैं महाभारत में इस कथा का जो रूप है, उसके अनसु ार चीरिणी नदी के तट पर स्नान करते हुए वैवस्वत मनुके हाथों में एक छोटा-सा मत्स्य आ जाता है और दीनतापूर्वक मनु से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करता है - भगवन् ! मैं एक छोटा सा मत्स्य हूं। मुझे (अपनी जाति के) बलवान् मत्स्यों से बराबर भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि, ! आप उससे मेरी रक्षा करें। मत्स्य पुनः बोला- मैं भयके महान् समुद्र मे डूब रहा 12 आप विशषे प्रयत्न करके मुझे बचाने का कष्ट करे आपके इस उपकार के बदले मैं प्रत्युपकार करूंगा। मत्स्य की यह बात सुनकर वैवस्वत मनुको बड़ी दया आयी और उन्होंने चंद्रमा की किरणों के समान श्वेत रंगवाले उस मत्स्य को उठा लिया। तदनन्तर पानी से बाहर लाकर उसे मटके में डाल दिया। वह मत्स्य इतनी तेजी से बढ़ने लगा कि क्रमशः घट, तालाब तथा नदी आदि भी उसके लिये छोटे पड़ गये। अंत में मनुने उसे समुद्र में छोड़ दिया। वह महामत्स्य अपनी लीला से उनके वहन करने योग्य हो गया। उस समय उस मुस्कराते हएु महामत्स्यने मुिन से कहा- भगवन् हि कृता रक्षा त्वया सर्वा विशेषतः। पा्र प्तकालं तु यत् कार्य त्वया तत् श्रयू तां मम॥ अचिराद् भगवन् भौममिदं स्थावरजंगमम्। सर्वमेव महाभाग प्रलयं वै गमिष्यति॥ त्रसानां स्थावराणां च यच्चेडं्ग यच्च नेङ्गति। तस्य सव र्स्य सम्प्राप्त कालः परमदारुणः॥ भगवन् ! आपने विशेष मनोयोग के साथ सब प्रकार से मेरी रक्षा की है, अब आपके लिए जिस कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वह बताता हूं, सुनिये- भगवान ! यह सारा का सारा चराचर पार्थिव जगत् शीघ्र ही नष्ट होने वाला है। महाभाग ! संपूर्ण जगत् का प्रलय हो जायेगा। संपूर्ण जंगम तथा स्थावर पदार्थों में जो हिल-डुल सकते है और जो हिलने-डुलने वाले नहीं हैं, उन सबके लिये अत्यंत भयंकर समय आ पहुंचा है। यह सूचना देने के पश्चात् उस मत्स्य ने मनु से एक दृढ़ नाव बनवाने के लिये कहा और बताया कि उसमें मजबूत रस्सी लगी हो, आप संपूर्ण औषधियों एवं अन्नों के बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नाव में बैठ जाना। मैं एक सींगवाले महामत्स्य के रूप में आऊंगा आरै तम्ुहें सरुक्षित स्थान पर ले जाऊंगा। नौश्च कारयितव्या ते दृढ़ा युक्तवटारका। तत्र सप्तर्षिभिः सार्धमारुहथ्े ाा महामुने॥ आगमिष्याम्यहं श्रृंगी विज्ञेयस्तेन तापस॥ उस दिन सागर अपनी मर्यादा भंग करके पृथ्वी-मंडल को डुबाने लगा। मनुकी नाव प्रलय-जल में तैरने लगी। मनु भगवान मत्स्य का स्मरण करने लगे। स्मरण करते ही शंगृ धारी भगवान मत्स्य वहां आ पहुंचे। मनुने नाव की रस्सी उनके सींग में बांध दी और भगवान् मत्स्य नाव खींचने लगे। वे नावको हिमालय तक ले गये और उन्होंने उन ऋषियों से पर्वतशिखर में नाव की रस्सी बांधने के लिये कहा - 'अस्मिन् हिमवतः शृङ्गेः नावं बधीन्त मा चिरम्।' इसके पश्चात् भगवान् मत्स्यने अपना परिचय देते उन ऋषियों से कहा- मैं प्रजापति ब्रह्मा हूं। मुझसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। मत्स्यरूप में मैंने मनु तथा आपलोगों (सप्तर्षिगण) की रक्षा की है। क्योंकि मनु ही (इस प्रलय के उपरांत) देवता, असुर तथा मानवों की सृष्टि करगें। तपस्या के बल से मनुकी प्रतिभा अत्यंत विकसित हो जायेगी और प्रजा की सृष्टि करते समय इनकी बुद्धि मोह को प्राप्त नहीं होगी, सदा जागरूक रहेगी- अहं प्रजापतिर्ब्रह्मा मत्परं नाधिगम्यते। मत्स्यरूपेण यूयं च मयास्मान्मोक्षिता भयात्॥ मनुना च प्रजाः सर्वाः सदवे ासुरमानुषाः। स्रष्टव्याः सर्वलोकाश्च यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति॥ तपसा चापि तीवण््रो प्रितभास्य भविष्यति। मत्प्रसादात् प्रजासर्गे न च मोहं गमिष्याति॥ ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य क्षणभर में अदृश्य हो गये और मनुजी भी तपस्या करके सृष्टिकार्य में प्रवृत्त हो गये। मत्स्यपुराण में यह कथा संपूर्ण पुराण की आधार-भूमि है। मत्स्यरूपधारी भगवान् प्रलय-काल में मनुको जिस पुराण का उपदेश देते हैं, वही 'मत्स्यपुराण' नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमद्भागवत में यह कथा और अधिक क्रमबद्धरूप में आयी है। कथा का प्रारंभ श्रीमद्भागवतमहापुराण के मुखय श्राते ा राजा परीक्षित्क के प्रश्न से होता है कि भगवान् विष्णुने मत्स्य-जैसे तुच्छ एवं विगर्हित प्राणी का रूप क्यों धारण किया? श्रीशुकदेवजी उत्तर दते है ंकि राजन् ! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं, फिर भी गो, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लिए वे शरीर धारण किया करते हैं। गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः। रक्षामिच्छस्ं तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थ तथैव हि॥ महाभारत में प्रजापति के मत्स्यरूप का कारण केवल मनु आदि की रक्षा है, किंतु श्रीमद्भागवतमहापुराण में हयग्रीव दैत्य से वेदों के उद्वारका महत्वपूर्ण कार्य भी इस अवतार के साथ जुड़ा है।
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