Thursday, 31 March 2016

अतिथि सेवाव्रत परंपरा



अतिथि सत्कार सेवा व्रत भारतीय संस्कृति का परम कल्याणकारी व्रत है जिसके अनुपालन से स्वर्ग लोक तो क्या विराट विराटेश्वर पुराण पुरुषोत्तम भगवान के अद्वितीय परम धाम को प्राप्त करना भी संभव है। महाराज रन्तिदेव ने अतिथि सेवा के द्वारा परमपद् का लाभ पाया था। शास्त्रों में वर्णित है। मातृ देवो भव ! पितृ देवो भव ! अतिथि देवो भव ! आचार्य देवो भव ! अतिथि भगवान का स्वरूप है। इसीलिए कहा भी गया है- ना जाने किस भेष में मिल जाए भगवान। मानव मात्र को अपने जीवन में इस अतिथि सेवा व्रत का अवश्य ही पालन करना चाहिए। द्वार पर आए हुए प्रत्येक जीव की अन्न-जल-पत्र पुष्पादि से सेवा करना प्राणी मात्र का कर्तव्य है। अधिक संभव न हो सके तो वाणी के ही द्वारा अतिथि का सम्मान करें। कहा भी है: ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।। वाणी एक अमोल है, जो कोई बोले बोल। हिए तराजू तौल के, तब मुख बाहिर खोल।। वाणी के द्वारा अतिथि सत्कार करके भी श्रद्धा का पात्र बना जा सकता है। वाणी सत्कार के द्वारा परम लाभ और वाणी की कटुता से परम हानि को प्राप्त किया जा सकता है। देवर्षि नारद ने वाणी के द्वारा ही भक्ति देवी को श्री वृंदावन धाम में सांत्वना प्रदान कर उसके कष्टों को भी दूर किया। असत्य भाषण के कारण सत्यनारायण व्रत कथा के पात्र साधु नामक वणिक को दंडी वेशधारी भगवान सत्यनारायण के शाप का भाजन होना पड़ा तथा वाणी से उनकी स्तुति करने पर वरदान भी मिला। यह एक ऐसा व्रत है, जिसे मनुष्य किसी भी क्षण अपनाकर आत्मिक लाभ प्राप्त करता हुआ परम प्रभु का प्रिय बन सकता है। जीवमात्र में सर्वव्यापी परमात्मा स्थित है। इसीलिए कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी। पशु-पक्षी भी अतिथि सेवा व्रत का पालन करते हैं, तो हम मानव होकर भी यदि इस व्रत का पालन न करें, तो धिक्कार है उस मानव जीवन को। मानव रूप लेकर जगत में पदार्पण तो हुआ परंतु अतिथि सेवा बिन मानव कहलाने के योग्य भी नहीं रहे। यहां महाभारत में वर्णित एक कबूतर के अतिथि सत्कार सेवा व्रत का आख्यान प्रस्तुत है, जिसमें उस कबूतर ने अतिथि के भोजन के लिए अग्नि में अपनी ही आहुति दे दी। किसी बड़े जंगल में दुष्ट स्वभाव वाला एक बहेलिया रहता था। वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और परिवार के पालन पोषण के लिए पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था। उसके इस भयानक तथा क्रूर कर्म के कारण उसके मित्रों तथा संबंधियों ने उसका परित्याग कर दिया था, किंतु उस मूढ़ को अन्य कोई कर्म अच्छा ही नहीं लगता था। एक दिन वह भयानक वन में घूम रहा था, तभी बहुत जोर की आंधी के साथ-साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी। आंधी और वर्षा के प्रलयकारी प्रकोप से सारे वनवासी जीव त्रस्त हो उठे। सर्दी से ठिठुरते और इधर-उधर भटकते हुए बहेलिए ने शीत से पीड़ित तथा पृथ्वी पर पड़ी हुई एक कबूतरी को देखा और उसे उठाकर अपने पिंजरे में बंद कर लिया। चारों ओर घने अंधकार के कारण बहेलिया एक सघन वृक्ष के नीचे पत्तों का बिछौना कर सो गया। उसी वृक्ष पर एक कबूतर निवास करता था, जो अचानक आई विपत्ति के समय में दाना चुगने गई और अभी तक वापस न लौटी अपनी प्राण प्रिया कबूतरी के लिए विलाप कर रहा था। उसका करुण क्रंदन सुनकर पिंजरे में बंद कबूतरी ने उसे द्वार पर आए हुए बहेलिए के आतिथ्य सत्कार की सलाह देते हुए कहा कि ‘हे प्राण-प्राणेश्वर ! मैं आपके आत्मकल्याण की, आत्मोन्नति की बात बता रही हूं, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिए। इस समय विशेष प्रयास करके एक शरणागत प्राणी की आपको रक्षा करनी है। यह व्याध आपके गृह-द्वार पर आकर ठंड और भूख से बेहाल होकर सो रहा है, आप इसकी सेवा कीजिए, मेरी चिंता मत कीजिए।’ शास्त्र कहता है- ‘‘सेवा हि परमो धर्मः’’। सेवा ही परम धर्म है। सेवा के द्वारा मान-प्रतिष्ठा-वैभव की प्राप्ति तो होती ही है, अविनाशी ब्रह्म के गोलोकधाम की प्राप्ति भी सहज में ही हो जाती है। पत्नी की धर्मानुकूल बातें सुनकर कबूतर ने सामथ्र्यानुसार विधिपूर्वक बहेलिए का सत्कार किया और उससे कहा- ‘आप हमारे अतिथि हैं, बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?’ बहेलिए ने कबूतर से कहा-‘इस समय मुझे सर्दी के कारण अत्यधिक कष्ट है, अतः हो सके तो इस दुःसह ठंड से मुझे बचाने का कोई उपाय कीजिए।’ कबूतर ने शीघ्र ही बहुत से सूखे पत्ते लाकर बहेलिए के पास एकत्रित कर दिए और यथाशीघ्र कुम्हार के घर से जलती लकड़ी को चोंच में दबाकर लाकर पत्तों को प्रज्वलित कर दिया। आग तापकर बहेलिए की शीतपीड़ा शांत हो गई। तब उसने कबूतर से कहा-‘मुझे अब भूख सता रही है। मुझे भोजन की इच्छा है; अतः कुछ भक्षणीय पदार्थ की व्यवस्था कीजिए।’ यह सुनकर कबूतर उदास होकर चिंता करने लगा। थोड़ी देर विचार करते हुए उसने सुखे पत्तों में पुनः आग लगाई और हर्षित होकर कहने लगा - ‘मैंने ऋषियों, महर्षियों, तपस्वियों, देवताओं, पितरों और महानुभावों के मुख से सुना है कि अतिथि की सेवा-पूजा करना महान धर्म होता है, अतः आप मुझे ही भोजन रूप में स्वीकार करने की कृपा कीजिए।’ इतना कहकर तीन बार अग्नि की प्रदक्षिणा करके वह कबूतर आग में कूद पड़ा। महात्मा कबूतर ने देह-दान द्वारा अतिथि सत्कार सेवा व्रत का ऐसा ज्वलंत एवं उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत किया कि व्याध ने उसी दिन से अपना निंदित कर्म सदा-सदा के लिए छोड़ दिया। कबूतर तथा कबूतरी दोनों को आतिथ्य धर्म के पालन से उत्तम लोक प्राप्त हुआ। दिव्य रूप धारण कर श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वह पक्षी अपनी प्राण प्रिया सहित स्वर्गलोक को चला गया और अपने सत्कर्म के कारण पूजित हो वहां आनंद पूर्वक रहने लगा। ततः स्वर्गं गतः पक्षी विमानवर मास्थितः। कर्मणा पूजितस्तत्र रेमे स सह भार्यया।। अतः इससे सिद्ध होता है कि अतिथि सत्कार सेवा व्रत महापुण्यदायी व्रत है। एक पक्षी होकर विपन्नावस्था में ही अतिथि सेवा के द्वारा स्वर्ग प्राप्त कर सकता है तो सर्व समर्थ संपूर्ण भावों, साधनों से युक्त होकर मानव भी अतिथि सेवा व्रत के द्वारा उत्तमोत्तम गति को अवश्य ही प्राप्त कर सकता है। भार्या की सुविचारणा ही पति को धर्म में प्रेरित करने में सहयोगी है, अतः विशेष संकट में भी पत्नी को पति का मार्गदर्शन करना ही श्रेयष्कर है, तभी तो धर्म पत्नी की सार्थकता प्रमाणित है। स्वयं महाराज जरासंध का अतिथि सत्कार सेवा व्रत जगत में प्रशंसनीय है। आप भी अपने जीवन को आलोकित करने के लिए अतिथि सत्कार सेवा व्रत का पालन करें और चैरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि को कृत-कृत्य करें। यही जीव के जीवन का परम लाभ है।

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